घनानन्द

8.घनानन्द
झलकै अति सुन्दर आनन गौरछके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषाउर ऊपर जाति है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करैंकल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग अंग तरंग उठै दुति कीपरिहे मनौ रूप अबै धर च्वै।।1।।

रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये ।
त्यों इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहू नहिं आनि तिहारिये ॥
एक ही जीव हुत्यौं सु तौ वार् यौं सुजान सँकोच औ सोच सहारियै
रोकी रहै न, दहै घन आनन्द बावरी रीझ के हाथनि हारियै ।।2

अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ 
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ ललामन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥3

सावन आवन हेरि सखी,मनभावन आवन चोप विसेखी ।
छाए कहूँ घनआनँद जान,सम्हारि की ठौर लै भूल न लेखी ॥
बूंदैं लगैसब अंग दगै,उलटी गति आपने पापन पेखी ।
पौन सों जागत आगि सुनी ही, पै पानी सों लागत आँखिन देखी ॥4

हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समाने।
नीर सनेही कों लाय अलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै
या मन की जु दसा घनआनँद जीव की जीवनि जान ही जानै।।5

मीत सुजान अनीत करौ जिनहाहा न हूजियै मोहि अमोही।
डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।
हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।। 6

पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार पगी
अब लाय बियोग की लाय बलाय बढ़ायबिसास दगानि दगी
अँखियाँ दुखियानि कुबानि परी न कहुँ लगैकौन घरी सुलगी
मति दौरि थकीन लहै ठिकठौरअमोही के मोह मिठामठगी ।।7
पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों फिरि तेहिकै तोरियै जू.
निरधार अधार है झार मंझार दईगहि बाँह न बोरिये जू .
‘घनआनन्द’ अपने चातक कों गुन बाँधिकै मोह न छोरियै जू .
रसप्याय कै ज्याय,बढाए कै प्यास,बिसास मैं यों बिस धोरियै जू 8

एरे बीर पौन ,तेरो सबै ओर गौनबारी
तो सों और कौन मनौं ढरकौंहीं बानि दै ।
जगत के प्रान ओछे बड़े को समान
‘घनआनन्द’ निधान सुखधानि दीखयानि दै ।
जान उजियारे गुनभारे अन्त मोही प्यारे 
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै ।
बिरह विथा की मूरि आँखिन में राखौ पुरि
धूरि तिन पायन की हा हा नैकु आनि दै ।।9

अंतर उदेग दाह,आँखिन प्रबाह-आँसू,
देखी अटपटी चाह, भीजनि दहन है ।
सोइबो न जागिबो हो, हँसिबो न रोइबो हूँ,
खोय-खोय आप ही में चेटक लहनि है ।
जान प्यारे प्राननि, बसत पै आनन्दघन,
बिरह बिषम दसा मूक लौं कहनि है ।
जीवन-मरन जीव मीच बिना बन्यौ आय,
हाय कौन बिधि रची,नेही की रहनि है ।।10

छवि को सदन मोद मंडित बदन-चंद
    तृषित चषनि लालकबधौ दिखाय हौ।
चटकीलौ भेष करें मटकीली भाँति सौही
मुरली अधर धरे, लटकत आय हौ ।
लोचन ढुराय कछु मृदु मुसिक्यायनेह
भीनी बतियानी लड़काय बतराय हौ।
बिरह जरत जिय जानिआनि प्रान प्यारे,
कृपानिधिआनंद को धन बरसाय हौ।11

वहै मुसक्यानिवहै मृदु बतरानिवहै
लड़कीली बानि आनि उर मैं अरति है।
वहै गति लैन औ बजावनि ललित बैन,
वहै हँसि दैनहियरा तें न टरति है।
वहै चतुराई सों चिताई चाहिबे की छबि,
वहै छैलताई न छिनक बिसरति है।
आनँदनिधान प्रानप्रीतम सुजानजू की,
सुधि सब भाँतिन सों बेसुधि करति है।।12

प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ
कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ।
तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार
सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ।
चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो
सुजान रूप-बावरोबदन दरसायहौ।
बिरह नसायदया हिय मैं बसायआय
हाय ! कब आनँद को घन बरसायहौ।। 13 ।।

आस ही अकास मधि अवधि गुनै बढ़ाय,
चोपनि चढ़ाय दीनौ कीनौ खेल सो यहौं ।
निपट कठोर ये हो ऐंचत न आप ओर,
लड़िले सुजान सों दुहेली दसा को कहै ।
अचिरजमई मोहि भई घन आँनन्द यों,
हाँथ साथ लग्यौ पै समीप न कहूँ लहै ।
बिरह समीर की झकोरनि अधीर नेह,
नीर भीज्यौं जीव तऊ गुड़ी लौं उड्यौ रहै ।।14

आँखै जौ न देखैं तो कहा हैं कछू देखति ये,
ऐसी दुखहाइनि की दसा आय देखियै ।
प्रानन के प्यारे जान रूप उजियारे बिना,
मिलन तिहारे इन्हें कौन लेखे लेखियै ।
नीर-न्यारे मीन औ चकोर चंदहीन हूँ ते,
अति ही अधीन दीन गति मति पेखियै ।
हौ जू घन आनन्द ढरारे रसभरे बारे,
    चकित बिचारे सों न चूकनि परेखियै ।।15


आसा-गुन बाँधि कै भरोसो-सिल धरि छाती,
पूरे पन सिंधु मैं न बूड़त सकायहौं ।
दुख-दव हिय जारि अंतर उदेग-आँच,
रोम-रोम त्रासनि निरंतर तचायहौं ।
लाख-लाख भाँतिन की दुसह दसानि जानि,
साहस सहारि सिर औरे लौं चलायहौं ।
ऐसें घनआँनन्द गही है टेक मन माँहि,
ऐरे निरदई तोहि दई उपजायहौं ।।16


पाती-मधि छाती-छत, लिखि न लिखाये जाहिं,
काती लै बिरह घाती, कीने जैसे हाल हैं ।
आँगुरी बहकि तहीं, पाँगुरी किलकि होति,
ताती राती दसनि के, जाल ज्वाल-माल हैं ।
जान प्यारे जौब कहूँ दीजियै सँदेसो तौब,
आँवाँ सम कीजियै, जु कान तिह काल हैं ।
नेह भीजी बातैं, रसना पै उर-आँच लागैं,
जागैं घनआँनन्द ज्यौं, पुंजनि मसाल हैं ।।17


बहुत दिनान के अवधि-आस-पास परे,
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ।
कहि कहि आवन सँदेसो मनभावन को,
गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ।
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,
अब न घिरत घनआनँद निदान कौ।
अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ॥18
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बिहारी

7. बिहारी

मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥1
शब्दार्थ- भव-बाधा-सांसारिक बाधाएँ। नागरि-चतुर। सोइ-वही। झाँई-झलक,परछाई,ध्यान। हरित दुति- हरिताभा,प्रसन्न,प्रभाशून्य।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘मंदाकिनी’ के ‘बिहारी के पद’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके रचयिता गागर में सागर भरने वाले रीतिसिद्ध कवि ‘बिहारी’ जी हैं ।
प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में कविवर बिहारी ने अपनी रचना को निर्विघ्न समाप्त करने के लिए राधा जी की स्तुति की है ।
व्याख्या- इस दोहे के तीन अर्थ बताये जाते हैं ।
1.     बिहारी कहते हैं कि जिस चतुर राधा के सुन्दर तन की झलक पड़ने मात्र से श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्ण हरिताभा से युक्त हो जाते हैं, वहीं राधा मेरे सांसारिक दुखों का हरण करें (राधा गौरांग है और गौरांग की आभा पड़ने से श्याम वर्ण में हरापन आ जाता है)
2.     कवि कहता है कि जिस चतुर राधा के रूप-लावण्य के दर्शन मात्र हो जाने से श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं उसी राधा से हमारा अनुरोध है कि वे मुझे सांसारिक आपदाओं से मुक्ति प्रदान करें । इस दोहे में राधा और कृष्ण के प्रेम की गूढ़ता प्रदर्शित की गयी है।
3.     बिहारी जी कहते हैं कि जिस चतुर राधा का ध्यान धरने मात्र से भक्तजनों के दुख दारिद्रय् श्याम वर्ण के समस्त कल्मष दूर हो जाते हैं,प्रभाशून्य हो जाते हैं। उसी राधा से मेरी विनती है कि वे मुझे सांसारिक कठिनाइयों से मुक्ति दिलावें ।
विशेष/काव्यसौंदर्य- यह दोहा मंगलाचरण है, इसमें वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण किया गया है।
   बिहारी ने राधा की स्तुति की है क्योंकि वे राधावल्लभ संप्रदाय से आते हैं।
  अलंकार- श्लेष,काव्यलिंग तथा हेतु अलंकार।

  प्रस्तुक पद में भाषा की समाहार शक्ति का सुन्दर प्रयोग किया गया है।







7. बिहारी

मेरी भव बाधा हरौराधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परेस्याम हरित दुति होय॥1

मोहन मूरति श्याम की, अति अद्भुत गति जोय ।
बसति सु चित अंतर तऊ प्रतिबिम्बित गति होय ।।2

तजि तीरथ हरि राधिका, तन द्युति करि अनुराग ।
जिहिं ब्रजकेलि निंकुंज मग पग-पग होत प्रयाग ।।3

नित प्रति एकतहीं रहत, बैस बरन मन एक ।
चहियत जुगलकिसोर लखि, लोचन-जुगल अनेक ।।4

या अनुरागी चित्त कीगति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंगत्यों-त्यों उज्जलु होइ॥5

कब को टेरत दीन ह्वैहोत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरुजगनायक जग बाय।।6

करौं कुबत जग कुटिलता, तजौं न दीन दयाल ।
दुखी होहुगे सरल हिय बसत त्रिभंगीलाल ।।7

जप माला छापा तिलक, सरै न एको काम ।
मन काँचै नाचै वृथा, साँचै राचैं राम ।।8

समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोय।
मन की रूचि जेती जितै, तित तेती रूचि होय ।9

अजौं तरौना ही रह्यौं, श्रुति सेवक इक रंग ।
नाक बाँस बेसरि रह्यौं, तजि मुकुतन के संग ।।10

जो चाहैं चटक न घटै मैलो होय न मित्त ।
रज राजस न छुवाइयै, नेह चीकनो चित्त ।।11


को छूट्यौ इहि जाल परि कत कुरंग अकुलात ।
ज्यौं ज्यौं सुरझि भज्यौं चहत त्यौं त्यौं उरझत जात ।।12

गुनी-गुनी सबके कहें, निगुनी गुनी न होत ।
सून्यौं कहूँ तरू अर्क तें अर्क-समान उद्योत ।13

बढ़ति-बढ़ति सम्पति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाय ।
घटत-घटत सू न फिरै घटै बरू समूल कुम्हिलाय ।।14

न ए बिससिये लखि नए, दुर्जन दुसह सुभाय ।
आँटै परि प्रानन हरत, काँटै लौं लगि पाय ।।15

स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि ।
बाजि पराये पानि परि, तूँ पच्छीन न मारि ।।16

तन भूषन अंजन दृगनि, पगनि महावरि रंग ।
नहिं सोभा कौं राजियत कहिबे ही कौं अंग ।।17

लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरह गुरूर ।
भए न केते जगत के , चतुर चितेरे कूर ।।18

सकत न तुव ताते बचन मो रस को रस खोय ।
खिन-खिन औंटे खीर लौं खरौं सवादिल होय ।।19

कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत हैनैनन ही सों बात॥20

तंत्री नाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग ।
अनबूड़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग ।।21

जरे दुहन के दृग झमकि रूके न झीने चीर ।
हलकी फौंज हरौंल ज्यौं परत गोल पर भीर ।।22

दृग उरझत टूटत कुटुमजुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हियेदई नई यह रीति॥23


बतरस लालच लाल कीमुरली धरी लुकाय।
सौंह करैभौंहन हँसैदेन कहै नटि जाय॥24

गिरै कंपि कछु-कछु रहै, कर पसीझि लपटाय ।
लीने मुठ्ठी गुलाल भरि, छुटत झूठि ह्वै जाय ।।25

भाल लाल बेंदी ललन, आखत रहे बिराजि ।
इंदुकला कुंज में बसी, मनौ राहु भय भाजि ।।26

चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट पट झीन ।
मानहुँ सुर-सरिता विमल जल उछरत जुग मीन ।।27

बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस ।
प्यारी कहत लजात नहिं, पावस चलत विदेस ।।28

अनियारे दीरघ दृगनि किती न तरुनि समान ।
वह चितवनी औरै कछू, जिंहि बस होत सुजान ।।29

मकराकृत गोपाल के सोहत कुंडल कान ।
धर् यौ मनो हिय धर समर ड्यौढ़ी लसत निसान ।। 30

लसत सेत सारी ढक्यौ, तरल तरौना कान ।
पर् यौ मनौ सुरसर-सलिल रवि प्रतिबिम्ब विहान ।।31

सटपटाति सी ससिमुखी, मुख घूँघट पट ढाँकि ।
पावक-झर सी झमकि कै गई झरोखा झाँकि ।।32

कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेस लजात ।
कहिहे सब तेरे हिए, मेरे हिय की बात ।। 33

पटु पाँखै भखु काँकरे सपर परेई संग ।
सुखी परेवा जगत में, एकै तुही बिहंग ।।34

जब-जब वै सुधि कीजियै, तब तब सब सुधि जाहिं ।
आँखिन आँखि लगी रहैं, आँखौ लागति नाहिं ।।35


सोवत सपनें श्यामघन, हिलि मिलि हरत वियोग ।
तबहीं टरि कितहूँ गई, नींदौं नींदन जोग ।।36

आवत जात न जानियत, तेजहिं तजि सियरान ।
घरहँ जवाई लौं घट्यौं खरो पूस दिन-मान ।।37

छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गंध ।
ठौर-ठौर झूमत झँपत भौंर-झौंर मधु-अंध ।।38

अरुन सरोरुह कर चरन दृग खंजन मुख चंद ।
समय आय सुंदरि सरद काहि न करति अनंद ।।39

नाहिंन ये पावक प्रबललूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत केग्रीषम लेत उसांस॥40

कहलाने एकत बसत, अहि मयूर मृग बाघ ।
जगत तपोवन सो कियौ दीरघ दाघ निदाघ ।।41

कुटिल अलक छुटि परत मुख, बढ़ि गौ इतो उदोत ।
बंक बकारी देत ज्यौं दाम रुपैया होत ।। 42

कहत सबैबेंदी दियेऑंक हस गुनो होत।
तिय लिलार बेंदी दियेअगनित होत उदोत॥43

भाल लाल बेंदी छए छुटे बार छवि देत ।
गह्यौं राहु खति आहु कर मनु ससि सूर समेत ।।44
हरि-छबि-जल जब तें परे तब ते छनि बिछुरैन
भरत ढरत बूड़त तिरत रहट घरी लौं नैन ।।45

इन दुखिया अँखियान कौंसुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखतेबिन देखे अकुलाहिं॥46

को जाने ह्वैंहै कहाँ, ब्रज उपजी अति आगि ।
मन लागै नैननि लगें, चलै न मग लगि लागि ।।47


कौड़ा आँसू बूँद कसि, साँकर बरुनी सजल ।
कीने बदन निमूँद दृग मलंग डारे रहत ।।48

आड़ै दै आले बसन जाड़ेहूँ की राति ।
साहस ककै सनेह बस सखी सबै ढिग जाति ।।49

कंचन-तन धन बरन बर रह्यौ रंग मिलि रंग ।
जानी जाति सुबास ही केसरि लाई अंग ।।50

पत्रा ही तिथी पाइयेवा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहेआनन-ओप उजास॥51

अधर धरत हरि के परतओंठदीठपट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरीइंद्र धनुष दुति होति॥52

हुकुम पाय जयसिंह को हरि राधिका प्रसाद ।

करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद ।।53
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केशवदास

6. केशवदास
प्रश्न संख्या- 01- केशवदास जी का जीवन परिचय दीजिए ।
उत्तरआचार्य केशवदास का जन्म संवत 1612 (1555 ई.) में ओरछा के प्रसिद्ध सनाढ्य ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम काशीराम था । पं. कृष्णदत्त इनके पितामह थे जो संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे जो ओरछानरेश मधुकरशाह के पुत्र महाराज इन्द्रजीत सिंह इनके मुख्य आश्रयदाता थे। वे केशव को अपना गुरु मानते थे और इनका बहुत सम्मान करते थे। उनके जन्म के सम्बन्ध में काव्य सरोज में लिखा है-

संवत् द्वादश षट् सुभग, सोदह से मधुमास।
तब कवि केसव को जनम, नगर आरछे वास।।


व्याख्या भाग
1.
बालक मृणालनि ज्यों तोरि डारै सब काल,
कठिन कराल त्यों अकाल दीह  दुख को।
विपति हरत इठि पद्मिनी के पात सम,
पंक ज्यों पताल पेलि पठवै कलुख को।
दूरि कै कलंक अंक भवशीश शशि सम,
राखत हैं केशौदास दास के वपुख को।
साँकरे  की साँकरन सममुख होत तोरै,
दशमुख  मुख जोवै गजमुख मुख को।।1
शब्दार्थ- बालक- हाथी का बच्चा । मृणालिनि-कमल की नाल । सब काल-हर समय । कराल- भयंकर। दीह-दीर्घ,बड़े-बड़े । हठि-हठ करके। पद्मिनी-पुरइन । पात सम-पत्ते के समान। पंक-कीचड़। पेलि-दबाकर। कलुख-कालुष्य,पाप। कलंक-अंक-कलंक का चिह्न।भव-सीस-ससि-सम- महादेव के मस्तक पर स्थित चंद्रमा के समान । वपुख-वपुष्य,शरीर । साँकरे की-संकट में पड़े हुए व्यक्ति की। साँकरन-संकल,बंधन । सनमुख होत- सामने होते ही । दसमुख- दशों दिसाओं में रहने वाले लोग अथवा ब्रह्मा,विष्णु,महेश ये तीनों देव क्योंकि ब्रह्मा के चार मुख,विष्णु के एक मुख और शिव के पाँच मुख माने जाते हैं ।
सन्दर्भ-
प्रसंग-
व्याख्या- 

विशेष/काव्यसौंदर्य
2.
पूरण पुराण अरु पुरुष पुराण परिपूरण  
बतावैं न बतावैं और उक्ति को।
दरसन देत, जिन्हें दरसन समुझैं न,
‘नेति नेति’ कहै वेद छाँड़ि आन युक्ति को।
जानि यह केशोदास अनुदिन राम राम
रटत रहत न डरत पुनरुक्ति को।
रूप देहि अणिमाहि, गुण देहि गरिमाहि,
भक्ति देहि महिमाहि, नाम देहि मुक्ति को।।2
शब्दार्थ- पूरण-संपूर्ण। पुराण-प्राचीन। परिपूर्ण-सब प्रकार से पूर्ण। उक्ति-बात,कथन। दरसन देत- दर्शन देते हैं, षट् शास्त्र,धर्म-दर्शन ।नेति-नेति- यह भी नहीं अर्थात अगम्य। युक्त-युक्ति,उपाय। अनुदिन-प्रतिदिन,नित्य । पुनरुक्ति- किसी एक शब्द की अथवा कथन की पुनरावृत्ति काव्यशास्त्र में पुनरुक्ति दोष माना जाता है। रूप-सौंदर्य। अणिमा- आठ सिद्धियों में से पहली सिद्धि जिसके द्वारा साधक अणुरूप ग्रहण करके अदृश्य हो जाता है। गरिमा-इस सिद्धि के द्वारा साधक यथेच्छा अपना देह-भार बढ़ा सकता है। महिमा- इस सिद्धि के द्वारा साधक यथेच्छा अपना देह विस्तार कर सकता है ।
3.
केशव ये मिथिलाधिप हैं, जग में जिनकी कीरति बेलि बई है।
दान-कृपान विभानन सों सिगरी वसुधा जिन हाथ लई है।
अंग छ सातक आठक सों भव तीनिहु लोक में सिद्धि भई है।
वेदत्रयी अरु राजसिरी परिपूरणता शुभ योगमई है।।3
शब्दार्थ- केशव- राम। मिथिलाधिप-मिथिला के राजा जनक। कीरति बेल बई है-कीर्ति की बेल लगायी है । दान-कृपान- दानरूपी तलवार। विभानन सौं-कार्यों से। हाथ लई है- जीत ली है। अंग छः- षडांग (शिक्षा,कल्प,व्याकरण,ज्योतिष,निरुक्त,छन्द) अंग सातक- राज्य के सात अंग (राजा,मंत्री,मित्र,कोश,देश,दुर्ग और सेना) अंग आठक- योग के आठ अंग( यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,ध्यान,धारणा,समाधि) भव-उत्पन्न। वेदत्रयी- तीन वेद (ऋग्वेद,सामवेद और यजुर्वेद)
4.
यह कीरति और नरेशन सोहै । मुनि देव अदेवन के मन मोहैं ।
है को बपुरा सुनिये ऋषिराई । सब गाँऊ छः सातक की ठकुराई ।।4
शब्दार्थ- अदेवन को- असुरों को । बपुरा-दीन-हीन। ठकुराई-राज्य ।
5.
आपने आपने ठौरनि तौ भुवपाल सबै भुव पालै सदाई।
केवल नामहि के भुवपाल कहावत हैं भुवि पालि न जाई।
भूपति की तुमहीं धरि देह बिदेहन में कल कीरति गाई।
केशव भूपन को भवि भूषण भू तन तैं तनया उजपाई।।5
शब्दार्थ- ठौरनि-स्थान ।भुवपाल-पृथ्वी का पालन करने वाला राजा । भुव-पृथ्वी । विदेहन-जीवनमुक्त

6.
दानि के शील, पर दान के प्रहारी दिन,
दानवारि ज्यों निदान देखिए सुभाय के।
दीप दीप हूँ के अवनीपन के अवनीप,
पृथु सम केशोदास दास द्विज गाय के।
आनँद के कंद सुरपालक के बालक ये,
परदारप्रिय साधु मन वच काय के।
देहधर्मधारी पै विदेहराज जू से राज,
राजत कुमार ऐसे दशरथ राय के।।6
शब्दार्थ- शील-स्वभाव। पर दान के प्रहारी दिन- शत्रुओं से प्रतिदिन दण्ड-रूप में दान लेने वाले।। दानवारि-विष्णु। निदान-अन्त में। अवनीपत-राजा। अवनीश-स्वामी। द्विज-ब्राह्मण। कंद-बादल। सुरनायक-इन्द्र। परदार-लक्ष्मी। साधु-शुद्ध।
7.
बज्र तें कठोर है, कैलाश ते विशाल, काल-
दंड तें कराल, सब काल काल गावई।
केशव त्रिलोक के विलोक हारे देव सब,
छोड़ चंद्रचूड़ एक और को चढ़ावई ।
पन्नग प्रचंड पति प्रभु की पनच पीन,
पर्वतारि-पर्वत प्रभा न मान पावई ।
विनायक एकहूँ पै आवै न पिनाक ताहिं।
कोमल कमलपाणि राम कैसे ल्यावई।।7
शब्दार्थ- कराल-भयंकर। विलोक-विलोक्य,देखकर। चन्द्रचूड़-शिव। पन्नग प्रचंडपति प्रभु-बड़े-बड़े सर्पों के राजा अर्था वासुकी। पनच-प्रत्यंचा। पीन-पुष्ट,मोटी। पर्वतारि-इन्द्र। पर्वतप्रभा-असुर,दैत्य। मान-अनुमान,अंदाज। बिनायक-गणेश। पिनाक-धनुष। कमलपानि-कमल जैसे हाथ वाले।
8.
उत्तम गाथ सनाथ जबै धनु श्री रघुनाथ जु हाथ कैं लीनो।
निर्गुण ते गुणवंत कियो सुख केशव संत अनंतन दीनो।
ऐंचो जहीं तबहीं कियो संयुत तिच्छ कटाच्छ नराच नवीनो।
राजकुमार निहारि सनेह सों शंभु को साँचो शरासन कीनो।।8
शब्दार्थ- उत्तमगाथ-श्रेष्ठ कहानी वाले। निरगुन-प्रत्यंचारहित। गुनवंत-प्रत्यंचा सहित। अनंतन-अपार। एंच्यो-खींचा। तिच्छ कटाक्ष-तीक्ष्ण कटाक्ष। नाराच-बाण। शरासन-धनुष।
9.
प्रथम टंकोर झुकि झारि संसार मद
चंड कोदड रह्यो मंडी नव खंड को।
चालि अचला अचल घालि दिगपाल बल
पालि ऋषिराज के बचन परचंड को।
सोधु दै ईश को, बोधु जगदीश को,
क्रोधु उपजाइ भृगुनंद बरिवंड को।
बाधि वर स्वर्ग को, साचि अपवर्ग
धनु भंग को शब्द गयो भेदि ब्रह्मांड को।। 9
शब्दार्थ- झुकि-क्रुद्ध होकर। झारि-फाड़कर,नष्ट करके। चंड-प्रबल। कोदंड-शिव धनुष। मंडि-गुंजाकर। नव खण्ड- पृथ्वी के नौ खण्ड(इला,रमणक,हिरण्य,कुरु,हरि,वृष,किंपुरष,केतुमाल,भारत) चालि-चलाकर,कंपायमान करके। अचला-पृथ्वी। अचल-पर्वत। घालि-तोड़कर। ऋषिराज-महर्षि विश्वामित्र। परचंड-प्रचंड,कठोर। सोधु-सूचना,खबर। ईस-शिव। बोध-ज्ञान। जगदीश- ब्रह्मा। भृगुनन्द-परशुराम। बरिबंड-बली। बाधि-बाधा डालकर। अपवर्ग-मुक्ति ।

10.
विपिन-मारग राम विराजहीं।
सुखद सुंदरि सोदर भ्राजहीं।।
विविध श्रीफल सिद्धि मनो फल्यो।
सकल साधन सिद्धिहि लै चल्यो ।।10
शब्दार्थ- भ्राजहिं-सुशोभित हैं । श्रीफल-तपस्या के फल । सिद्ध-सिद्धियाँ ।
सन्दर्भ- उपरोक्त ।
प्रसंग- वन में जाते हुए राम,लक्ष्मण और सीता की शोभा का वर्णन है ।
व्याख्या- वन के मार्ग में राम शोभा पा रहे हैं । उनके साथ सुख देने वाली सुन्दरी सीता और भाई लक्ष्मण सुशोभित हैं । सीता और लक्ष्मण के साथ राम ऐसे लगते हैं मानों विविध प्रकार के तपस्या के फलों द्वारा प्राप्त सिद्दियों के फलीभूत हो जाने पर कोई योगी अपने सारे साधन और सिद्धियों को लेकर घर लौट रहा हो ।

विशेष/काव्यसौंदर्य- अलंकार- उत्प्रेक्षा, अनुप्रास।
11.
कौन हौ, कित तें चले, कित जात हौ, केहि काम जू
कौन की दुहिता, बहू, कहि कौन की यह बाम जू।।
एक गाँउँ रहौ कि साजन मित्र बंधु बखानिए।
देश के, परदेश के, किधौं पंथ की पहिचानिए।।11
शब्दार्थ- दुहिता-लड़की । बाम-स्त्री। किधौं-अथवा ।
12.
किधौं यह राजपुत्री, वरहीं वरीं है
किधौं,उपदि वरयौं  है यहि सोभा अभिरत हौ।
किधौं रति रतिनाथ जस साथ केसौदास
जात तपोवन सिव बैर सुमिरत हौ।
किधौं मुनि शापहत, किधौं ब्रह्मदोषरत,
किधौं सिद्धियुत, सिद्ध परम विरत हौ।
किधौं कोऊ ठग हौ ठगोरी लीन्हें, किधौं तुम
हरि हर श्री हौ शिवा चाहत फिरत हौ।।12
शब्दार्थ- बरही-बलपूर्वक। उपदि-अपनी इच्छा से। अभिरत-युक्त। रतिनाथ-कामदेव। साप-हत-शापित। ब्रह्मदोष-रत- ब्राह्मणों के दोष से युक्त। बिरत-बैरागी। हर-महादेव। हरि-विष्णु। श्री-लक्ष्मी। सिवा-शिव-पार्वती ।
13.
मेघ मंदाकिनी चारु सौदामिनी
रूप रूरे लसैं देहधारी मनौ।
भूरि भागीरथी भारती हंसजा
अंस के हैं मनौ 
भाग भारे मनौ।।
देवराजा लिये देवरानी मनौ
पुत्र संयुक्त भूलोक में सोहिए।
पच्छ दू संधि संध्या सधी है मनौ
लच्छि ये स्वच्छ प्रत्यक्ष ही मोहिए।।13
शब्दार्थ- मंदाकिनी-आकाशगंगा। चारु-सुन्दर। सौदामिनी-बिजली। रूरे-सुन्दर। भारती-सरस्वती। हंसजा-यमुना। भोग-भारे- भारी सौभाग्य। संयुक्त- सहित। दू-दोनों। लक्षिये- लक्षित होते हैं।

14.
तड़ाग नीर-हीन ते सनीर होत केसौदास
पुंडरीक-झुंड भौंर मंडलीन मंडहीं।
तमाल वल्लरी समेत सूखि सूखि के रहे
ते बाग फूलि फूलि कै समूल सूल खंडहीं।।
चितै चकोरनी चकोर, मोर मोरनी समेत
हंस हंसिनी समेत, सारिका सबै पढ़ैं।
जहीं जहीं विराम लेत रामजू तहीं तहीं
अनेक भाँति के अनेक भोग माग सो बढ़ै।।14
शब्दार्थ- सनीर-पानी सहित। पुण्डरीक-कमल। मंडलीन मंडही- मंडल सुशोभित हो जाते हैं। बल्लरी-लता बेल। सूल-दुख। सारिका-मैना

इस छन्द में राम की महिमा का वर्णन किया गया है।
15.
घाम को राम समीप महाबल। सीतहिं लागत है अति सीतल।।
ज्यों घन संयुत दामिनि के तन। होत हैं पूषन के कर भूषन।।15
शब्दार्थ- घाम-धूप,गर्मी। महाबल-अत्यन्त तेज। सीतहिं-सीता को। दामिनि-बिजली। पूषन के कर-सूर्य की किरणें ।

राम के प्रति सीता के अनुराग का वर्णन है ।
16.
बासों मृग-अंक कहै, तीसों मृगनैनी सब,
वह सुधाधर, तुहूँ सुधाधर मानिए।
वह द्विजराज, तेरे द्विजराजि राजैं; वह
कलानिधि, तुहूँ कला कलित बखानिए।।
रत्नाकर के हैं दोऊ केसव प्रकास कर,
अंबर विलास कुबलय हित मानिए।
वाके अति सीत कर, तुहूँ सीता सीतकर,
चंद्रमा सी चंद्रमुखी सब जग जानिए।।16
शब्दार्थ- मृग-अंक-मृगांक। सुधाधर-सुधा को अधर में धारण करने वाली,चन्द्रमा। द्विजराजि-दांतों की पँक्तियाँ, ब्राह्मण। कलाकलित-कलाओं से युक्त। रत्नाकर-रत्नों का ढेर,समुद्र। अम्बर-आकाश,वस्त्र। कुबलय-कमलिनी,भूमण्डल। सीतकर-आनन्द प्रदान करने वाली।
कोई नगरबधू सीता के मुख की शोभा का वर्णन कर रही है।
17.
कलित कलंक केतु, केतु अरि, सेत गात,
भोग योग को अयोग, रोग ही को थल सौं।
पून्यौई को पूरन पै प्रतिदिन दूनो दूनो
छन छन छीन होत छीलर को जल सौं।।
चंद्र सौं जो बरनत रामचंद्र की दुहाई
सोई मतिमंद कवि केसव कुसल सौं।
सुंदर सुवास अरु कोमल अमल अति
सीताजू को मुख सखि केवल कमल सौं।।17
शब्दार्थ- कलित कलंक हेतु- भारी कलंक। अरि-शत्रु। सेत-श्वेत। पून्योई को-पूर्णमासी को ही। ऊनो-ऊनो-कम-कम। छीलर-उथला तालाब जिसमें पानी कम और कीचड़ अधिक होता है। । मतिमंद-बुद्धिहीन। मुसल-मूसल.मूर्ख।
एक सखी ने सीता के मुख्य को चन्द्रमा के समान बताया। दूसरी सखी उसकी बात का निषेध करती हुई उसे कमल के समान बताती है।

18.
एके कहैं अमल कमल मुख सीताजू कौ
एकै कहैं चंद्र सम आनँद को कंद री।
होइ जौ कमल तौ रयनि में न सकुचै री
चंद जौ तौ बासर न होइ द्युति मंद री।।
बासर ही कमल रजनि ही में चंद्र मुख
बासर हू रजनि बिराजै जगबंद री।
देखे मुख भावै अनदेखेई कमल चंद
तातैं मुख मुखै, सखी, कमलौ न चंद री ।18
शब्दार्थ- अमल-निष्कलंक,स्वच्छ। आनन्द को कन्द-आनन्द देने वाला। रयनि-रात। बासर-दिन। दुति-ज्योति,द्युति। जगबंद-जगतवन्द्य ।

19.
बहु बाग तड़ाग तरंगनि तीर
तमाल की छाँह बिलोकि भली।
घटिका इक बैठत हैं सुख पाय
बिछाय तहाँ कुस कास थली।।
मग कौ श्रम श्रीपति दूरि करैं
सिय के सुभ बालक अंचल सौं।
श्रम तेऊ हरें तिनकौ कहि केशव
चंचल चारु दृंगचल सौं ।। 19
शब्दार्थ- तड़ाग-तालाब। तरंगिनि-नदी। तीर-किनारा।भली-सुन्दर। घटिका यक- एक घड़ी। थैली-आसन। स्रम-थकावट। बाकल-वल्कल। दृगंचल-कटाक्ष रूपी अंचल ।
20.
 मारग यौं रघुनाथ जू, दुख सुख सबही देत।
चित्रकूट पर्वत गये, सोदर सिया समेत।।20

शब्दार्थ- सोदर- भाई लक्ष्मण ।



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हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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इमेल- atul15290@gmail.com
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