अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त



अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त

अरस्तु का विरेचन सिद्धान्त अनुकरण सिद्धान्त के अतिरिक्त अरस्तू का दूसरा प्रमुख काव्य सिद्धान्त विरेचन का सिद्धान्त है। कविता के सम्बन्ध में प्लेटो का मत था कि वह अनुकरण की अनुकरण है अंत: वह सत्य से तिगुनी दूरी पर है, अंत: त्याज्य है। कविता हमारी वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण और सिंचन करती है, साथ ही वह तर्क या बुद्धि को प्रभावित करने के स्थान पर हृदय या भावनाओं को प्रभावित करती है। प्लेटो की इस व्याख्या का कारण कदाचित् यह था कि वह कला के अध्ययन को नीति-शास्त्र से सम्बद्ध मानता था। इसके विपरीत अरस्तु का कला सम्बन्धी मत सौन्दर्यशास्त्र पर आधारित था। अंत: उन्होंने प्लेटो के सिद्धान्त का विरोध करते हुए भावों के विरेचन की बात कही। अपने समय में प्रचलित चिकित्सा पद्धति के शब्द कैथासिस से संकेत ग्रहण कर उन्होंने उस शब्द के लाक्षणिक प्रयोग द्वरा प्लेटो के
आक्षेप का उत्तर दिया।
विरेचन सिद्धान्त का उल्लेख-अरस्तू ने न तो विरेचन सिद्धान्त की कोई परिभाषा ही अपने किसी ग्रन्थ में दी है और न कहीं उसकी व्याख्या ही की है। उन्होंने केवल दो स्थानों पर इस शब्द का प्रयोग किया है—प्रथम तो अपने ग्रन्थ पोइटिक्समें जहाँ उन्होंने त्रासदी की परिभाषा तथा उसका स्वरूप निश्चित करते हुए कहा है-‘त्रासदी किसी गंभीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न भिन्न रूप से प्रयुक्त सभी प्रकार के अलंकारों से भूषित भाषा होती है, जो समाख्यान रूप न होकर कार्य व्यापार रूप में होती है और जिससे करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।”
 उक्त उद्धरण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यहाँ अरस्तू ने प्लेटो के आक्षेप का उत्तर देने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट किया है कि त्रासदी के मूलभाव त्रास और करुणा होते हैं और उन भावों को उद्बुद्ध करके शारीरिक परिष्कार के समान विरेचन की पद्धति से मानव मन का परिष्कार त्रासदी का मुख्य उद्देश्य होता है। दूसरे स्थान पर जहाँ विरेचन शब्द का उल्लेख अरस्तू ने किया है उनके राजनीति नामक ग्रन्थ में है जहाँ वे लिखते हैं किन्तु इससे आगे हमारा यह मत है कि संगीत का अध्ययन एक नहीं वरन् अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए।
(1) शिक्षा के लिए
(2) विरेचन शुद्धि के लिए
1. The poet being an imitator, like a Painter or any other artist imitate one of the three objects-Things as they were or are n: said of thought to be or things as they aught to be. Y other artist must of necessity were or are things as they are -ATPFA, Page 97
(3) संगीत से बौद्धिक आनन्द की भी उपलब्धि होती है.....धार्मिक रागों के प्रभाव से-ऐसे रागों के प्रभाव से जो रहस्यात्मक आवेश को उद्बोध करते हैं वे शान्त हो जाते हैं मानो उनके आवेश का शमन और विरेचन हो गया हो। करुणा और त्रास से आविष्ट व्यक्ति प्रत्येक भावुक व्यक्ति इस प्रकार का अनुभव करता है और दूसरे भी अपनी-अपनी संवेदनशील शक्ति के अनुसार प्रायः सभी इस विधि से एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं। उनकी आत्मा विशद् और प्रसन्न हो जाती है। इस प्रकार विरेचन राग मानव समाज को निर्दोष आनन्द प्रदान करते हैं।
यहां भी विरेचन से अरस्तू का तात्पर्य शुद्धि से है। वह मानते हैं कि यद्यपि शिक्षा से नैतिक रागों को प्रधानता देनी चाहिए परन्तु आवेग को अभिव्यक्त करने वाले रागों का भी आनन्द लिया जा सकता है क्योंकि करुणा, त्रास अथवा आवेश का प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में सभी व्यक्तियों पर होता है। ऐसे संगीत के प्रभाव से विरेचन द्वारा उनका आवेश शान्त हो जाता है। इस विधि से वे अपनी-अपनी संवेदन शक्ति के अनुसार एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं जिससे उनकी आत्मा विशद् और प्रसन्न हो जाती है। अतः विरेचन का अर्थ शुद्धि परिष्करण एवं मानसिक स्वास्थ्य है।

विरेचन का अर्थ-अरस्तू द्वारा प्रयुक्त मूल शब्द ‘कैथार्सिसहै हिन्दी में इसका अनुवाद रेचन’ ‘विरेचनतथा परिष्करणशब्दों द्वारा किया जाता है परन्तु विरेचन शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। जिस प्रकार कैथार्सिस शब्द यूनानी चिकित्सा पद्धति से सम्बद्ध माना जाता है उसी प्रकार विरेचन ‘शब्दभारतीय आयुर्वेदिकशास्त्र से सम्बन्धित है। चिकित्साशास्त्र में उसका अर्थ हैं-रेचक औषधियों द्वारा शरीर के मल या अनावश्यक एवं अस्वास्थ्य कर पदार्थ (फौरिन मैटर) को बाहर निकालना। वैद्य के पुत्र होने के कारण अरस्तू ने यह शब्द वैद्यकशास्त्र से ग्रहण किया और काव्यशास्त्र में उसका लाक्षणिक प्रयोग किया जैसे होमोपैथी में किसी संवेग की चिकित्सा ‘समानसंवेग के द्वारा की जाती है ‘सर्वसमके द्वारा नहीं। अम्ल के लिये अम्लता का और लवण द्रव्य के लिये लवण का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार अरस्तु का मत है कि त्रासदी, करुणा तथा त्रास के कृत्रिम उद्वेग द्वारा मानव के वास्तविक जीवन की करुणा और त्रास
भावनाओं का निष्काषण करती है। यह निष्काषण ही वास्तव में ‘विरेचनया उसका कार्य है।
          अरस्तू के परवर्ती व्याख्याकारों ने लक्षण के आकार पर विरेचन के तीन अर्थ किये।
(1) धर्मपरक
(2) नीतिपरक
(3) कलापरक
धर्मपरक अर्थ-यूनान में भी भारत की तरह नाटक का आरम्भ धार्मिक उत्सवों से ही हुआ था। प्रो० मरे का मत है कि वर्ष के प्रारम्भ पर ‘दि ओन्यससनामक यूनानी देवता से सम्बद्ध उत्सव मनाया जाता था। उस उत्सव में देवता से विनती की जाती थी कि वह प्रशासकों को विगत वर्ष के पापों, कुकर्मो तथा कालुष्यों से मुक्त कर दें तथा आगामी वर्ष में उन्हें इतना विवेकपूर्ण तथा शुद्ध हृदय बना दे कि वे पाप, कलुष तथा मृत्यु आदि से बचे रहें। इस प्रकार यह उत्सव एक प्रकार से शुद्धि का प्रतीक था। अपने ग्रन्थ राजनीतिमें अरस्तू ने लिखा है कि हाल की स्थिति से उत्पन्न आवेश के शमन के लिये भी यूनान में उद्दाम संगीत का प्रयोग किया जाता था। अंत: स्पष्ट है कि यूनान की धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों के द्वारा आन्तरिक विकारों की शान्ति और उनके शमन का यह उपाय अरस्तू को ज्ञात था और संभव है कि वहाँ से भी उन्हें विरेचन सिद्धान्त की प्रेरणा मिली हो। सारांश यह है कि विरेचन का लाक्षणिक प्रयोग धार्मिक आधार पर किया और उसका अर्थ था बाह्य उत्तेजना और अन्त में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शान्ति। धार्मिक साहित्य एक सीमा तक यह कार्य करता भी है।

नीतिपरक अर्थ-विरेचन सिद्धान्त के नीतिपरक अर्थ की व्याख्या एक जर्मन विद्वान वारनेज ने की। उसके अनुसार मानव मन में अनेक मनोविकार वासना रूप में स्थिति रहते हैं। इनमें करुणा और त्रास नामक मनोवेग मूलत: दु:खद होते हैं। त्रासदी रंगमंच पर ऐसे दृश्य प्रस्तुत करती है जिसमें ये मनोवेग अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं, उसमें ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित की जाती हैं जो त्रास और करुणा से भरी होती हैं। प्रेक्षक जब इन दृश्यों को देखता है या उन परिस्थितियों के बीच मानसिक रूप से गुजरता है तो उसके मन में भी त्रास और करुणा के भाव अपार वेग से उद्वेलित होते हैं और तत्पश्चात् उपशमित हो जाते हैं। प्रेक्षक त्रासदी को देखकर मानसिक शान्ति का सुखद अनुभव करता है क्योंकि उसके मन में वासना आदि मनोवेगों का दंश समाप्त हो जाता है। अतः विरेचन का नीतिपरक अर्थ हुआ—मनोविकारों के उत्तेजन के बाद उद्वेग का शमन और तज्जन्य मानसिक शक्ति और विशदता मिलती है। निश्चय ही ये कार्य भी साहित्य के द्वारा प्रतिपादित होते हैं। अन्य ललित कलाएँ भी यही सब करती हैं।

कलापरक अर्थ-अरस्तू के विरेचन सिद्धान्त के कलापरक अर्थ का संकेत तो गेटे तथा अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी कवि आलोचकों ने भी दिया था परन्तु उसका सर्वाधिक आग्रह के साथ प्रतिपादन करने वाले हैं प्रोफेसर वूचर। उनका कथन है कि अरस्तू का विरेचन शब्द केवल मनोविज्ञान अथवा चिकित्सा शास्त्र से ही सम्बन्धित नहीं है, कला सिद्धान्त का भी अभिव्यंजक है। यह (विरेचन) केवल मनोविज्ञान अथवा नियम शास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाचक न होकर एक कला सिद्धान्त का अभिव्यंजक है–त्रासदी का कर्तव्य कर्म केवल करुणा या त्रास के लिये अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है अपितु उन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है और कला के माध्यम में डालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करता है। प्रोफेसर वूचर विरेचन के चिकित्सा शास्त्रीय अर्थ को ही अरस्तू का एक मात्र आशय नहीं मानते। उनके अनुसार विरेचन का कला परक अर्थ है—पहले मानसिक संतुलन और बाद में कलात्मक  परिष्कार। भारतीय रसवादी भी कुछ इसी प्रकार की धारण कलाओं के सम्बन्ध में रखते हैं। व्याख्याओं की समीक्षा-व्याख्याकारों द्वारा प्रस्तुत विरेचन के सभी अर्थ अरस्तू को अभिप्रेत थे अथवा नहीं यह कहना अत्यन्त कठिन है क्योंकि इस विषय पर उनकी अपनी व्याख्या अपर्याप्त है। अंत: इस विषय में हम केवल अनुमान या तर्क से काम ले सकते हैं। धार्मिक शुद्धि की ओर तो स्वयं अरस्तू ने भी संकेत किया है साथ ही मानसिक शुद्धि की चर्चा भी उनके राजनीति नामक ग्रन्थ में उपलब्ध हो रही है अत: वे इसका नैतिक अर्थ भी करते होंगे। प्रश्न यह है कि क्या वे उसका कलापरक अर्थ भी ग्रहण करते थे? हमारा मत है कि धर्मपरक, नीतिपरक तथा कलापरक तीनों अर्थों में सत्य का अंश वर्तमान है। यद्यपि प्रोफेसर बूचर ने जिस कलात्मक परितोष की बात कही है उसका अरस्तू ने कोई संकेत नहीं दिया है तथापि कलात्मक अर्थ भी अरस्तू को थोड़ा बहुत अवश्य अभीष्ट था। उनके अनुकरण सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी यहाँ इस
अर्थ के प्रयोजन होने की बात भी स्वीकार की जा सकती है। प्रोफेसर मरे ने यूनान की प्राचीन प्रथा के साथ विरेचन सिद्धान्त का सीधा सम्बन्ध स्थापित किया है। उन्होंने विरेचन की धर्मपरक व्याख्या की है।
          इसी प्रकार फ्रायड, एडलर तथा युंग आदि ने नीतिपरक व्याख्या की है। प्रो० वूचर ने ही कलापरक व्याख्या की है। उनका कहना है कि अरस्तू का अभीष्ट केवल मन को सामंजस्य, जन्य विशदता और भावनाओं की शुद्धि का था। कला जन्य अस्वाद अरस्तू के
विरेचन की परिधि के बाहर की बात है। वे कहते हैं-विरेचन कलास्वाद का साधक तो अवश्य था....परन्तु विरेचन में कलावाद का सहज अन्तर्भाव नहीं है। अंत: विवेचन सिद्धान्त को भावात्मक रूप देना कदाचित न्याय संगत नहीं है। इस प्रकार अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त अपने ढंग से त्रासदी के आस्वाद की समस्या का समाधान करता है। उनके अनुसार त्रास और करुणा दोनों ही कटु भाव है। त्रासदी में मानसिक विरेचन की प्रक्रिया द्वारा यह कटता नष्ट हो जाती है और प्रेक्षक मन:शक्ति का उपयोग करता है। मन की यह स्थिति सुखद होती है। अरस्तू को विरेचन से इतना ही अभिप्रेत था। इस प्रकार हम देखते हैं कि अरस्तू के दो ही प्रमुख काव्य सिद्धान्त थे एक था। अनुकरण सिद्धान्त और दूसरा विरेचन सिद्धान्त।

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रिचर्ड्स का संप्रेषण सिद्धान्त


मूल्य सिद्धान्त के अलावा रिचर्ड्स का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है ‘संप्रेषण सिद्धान्त’। रिचर्ड्स ने मानव के सामान्य व्यवहार कि वह एक सामाजिक प्राणी है और बाल्यावस्था से ही वह अपने भावों एवं विचारों का संप्रेषण करता रहा है,को आधार बनाकर अपने संप्रेषण सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की है। इसी संप्रेषण शक्ति के कारण ही मनुष्य का आज इतना विकास सम्भव हुआ। संप्रेषण मानव के अभिव्यक्ति की सबसे प्राचीन प्रणाली है ।

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रिचर्ड्स का मूल्य सिद्धान्त


आधुनिक पाश्चात्य आलोचना में आई. ए. रिचर्ड्स का महत्वपूर्ण स्थान है। वे मूलतः मनोवैज्ञानिक तथा मूल्यवादी समीक्षक हैं अतः उनका साहित्यिक विवेचन मनोविज्ञान के धरातल पर है । इसी दृष्टि से उन्होंने ब्रैडले के ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त का खण्डन करते हुए मूल्य सिद्धान्त की स्थापना की है । रिचर्ड्स का मत है कि आज जब प्राचीन परम्पराएँ टूट रही हैं और मूल्य विघटित हो रहे हैं,तब सभ्य समाज, कला और कविता के सहारे ही अपनी मानसिक व्यवस्था और सन्तुलन बनाए रख सकता है। रिचर्ड्स के विचार से साहित्य समीक्षा का सिद्धान्त दो स्तम्भों पर टिका होना चाहिए-एक मूल्य और दूसरा संप्रेषण ।
            रिचर्ड्स कहता है कि समाज में मूल्यों की स्थापना अधिकांश व्यक्तियों को बिना किसी पारस्परिक विरोध के उनकी प्रमुख प्रेरणाओं को संतुष्ट करने के लिए होती हैं। इसके लिए जो नियम बनते हैं,उन्हें नैतिक नियम कहते हैं। वस्तुतः नैतिक या अच्छा या मूल्यवान का अर्थ है जो सर्वाधिक प्रेरणात्मक हो। इस सम्बन्ध में रिचर्ड्स कहता है कि कोई भी वस्तु जो किसी एक इच्छा को इस प्रकार शान्त करती है कि उससे उसके समान या अधिक महत्वपूर्ण इच्छा का अवरोध नहीं होता-मूल्यवान है।अथवा दूसरे शब्दों में किसी इच्छा को यदि तुष्ट करने नहीं दिया जाता तो उसका केवल यहीं आधार हो सकता है कि वैसा करने से उससे भी अधिक महत्वपूर्ण इच्छाएँ कुंठित हो जायेंगी । इसी प्रकार व्यक्ति या जाति के द्वारा अनुमोदित (इच्छा पूर्ति) की प्राथमिकता पर आधारित सामान्य योजना की ही अभिव्यक्ति नैतिकता या नियमों के रूप में होती है। (प्रिंसिपल आफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म- पेज-38)
                      रिचर्ड्स की दृष्टि में कलाकार का काम उन अनुभूतियों को अंकित कर चिरस्थायी बना देना होता है जिन्हे वह सबसे अधिक मूल्यवान समझता है और वही ऐसा आदमी होता है जिसके पास अंकनीय मूल्यवान अनुभूतियाँ होने की सबसे अधिक संभावना होती है। कलाकार वह विन्दु है जहाँ मन का विकास सुव्यक्त हो उठता है। उसकी अनुभूतियों में कम-से-कम उन अनुभूतियों में जो उसकी कृति को मूल्यवान बनती है – ऐसे आवेगों का सामंजस्य लक्षित होता है जो अधिकांश लोगों के मन में अस्त-व्यस्त परस्पर, अन्तर्भूत तथा द्वन्द्वरत के रूप में हुआ करते है जो अधिकांश लोगो के मन में अव्यवस्थित रूप में विद्यमान होते हैं और उनकी कृत उसी को व्यवस्था देती है।
            रिचर्ड्स कविता को एक मानवीय व्यवहार मानता है जो व्यक्तियों को प्रभावित करने का कार्य करती है। इसलिए जो कोई उसका मनुष्यों के सम्बन्ध में मूल्यांकन करता है, वही उचित मूल्यांकन करने में समर्थ भी होता है। कला की अनुभूति असाधारण अनुभूति नहीं होती वरन् किसी कविता को पढ़कर या किसी चित्र को देखकर हमारे अन्दर जीवविज्ञान सम्बन्धी (बायोलॉजिकल) पररिवर्तन होता है, लोकोत्तर आनन्द प्राप्त नहीं होता। अतः आवेगों के सामंजस्य और संतुलन की स्थिति ही सौन्दर्यानुभूति है जो मूल्यों के अनुसार श्रेष्ठ या हीन होती है ।
            उनकी दृष्टि में आलोचना दो बातों पर टिकी होकी है – एक मूल्य, दूसरा उसकी सम्प्रेषणतक्षमता। कला मूल्यों के साथ रहती है क्योंकी वे महान पुरुषों के जीवन की क्षणों से उद्भूत होती है और उन्हें स्थायी बनाने का कार्य करती है उन क्षणों को जब उनका अनुभव पर अधिकार और प्रभाव सर्वोच्च है उन क्षणों की अस्तित्व को बदलती हुयी संभावनाएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं और एक स्थिति के बाद उसमें सुन्दर समन्वय हो जाता है जो एक उत्कृष्ट रचना को जन्म देती है। वस्तुतः कलाएँ हमें यह निर्णय करने के लिए उत्तम आँकड़ें प्रस्तुत करती है कि हमारे कौन से अनुभव अन्य अनुभवों से अधिक मूल्यवान है ।
            इसके साथ ही, प्रश्न यह उठाया गया की यदि सफल कविताओंमें मनोवेगों का संतुलन निष्फल होता तो एक सफल कविताएँ समान रूप से श्रेष्ट है या उन सब में मनोवेगों के संतुलन की स्थितिसमान होती है इसके उत्तर में कहा गया कि मनोवेगों के संतुलन की अवस्था मेंअन्तर होता है।रिचर्ड्स मनोवेगों के संतुलन के दो रूप मानता है। मनोवेगों के समाहार द्वारा जहाँ अनेक मनोवेगों का समाहार या समावेश होता है। दूसरा -मनोवेगों के बहिष्कार द्वारा जहाँ कुछ सीमित मनोवेगों को स्वीकार किया जाता है तथा अधिकांश मनोवेगों का बहिष्कार किया जाता है। वह मनोवेगों के संतुलन को एक जटिल प्रक्रिया मानत हुआ कहता है कि इसकी सूक्ष्म एवं जटिल क्रिया के सभी पक्षों को पूरी तरह समझ पाना संभव नहीं है। उसके अनुसार इसका काऱण यह है कि मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण के विकास के बावजूद भी मन की विविध क्रियाओं को वृत्तियों एवं मनोवेगों के उदय संघर्ष और समन्विति की पूर्ण वैज्ञानिक एवं वस्तुपरक व्याख्या संभव नहीं है क्योकि इसकी सीमा सीमित एवं स्पष्ट है ।
            रिचर्ड्स की दृष्टि में मन की स्थितियाँ सर्वाधिक मूल्यवान होती है। जिनमें मानवीय क्रियाओं की सर्वाधिक और सर्वोत्कृष्ट संगति स्थापित होती है तथा माँगों के अनुसार उसमें कम अधिक तथा रुचि-अरुचि की स्थिति आती है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में जीवन का सम्भव मूल्य किस प्रकार  उपलब्ध किया जा सकता है, यह माँगों की संगतिपूर्ण व्यवस्था पर निर्भर है। बिना ऐसी व्यवस्था के मूल्य समाप्त हो जाते हैं क्योंकि अवस्था की दशा में महत्वपूर्ण और तुच्छ दोनों प्रकार की माँगे असन्तुष्ट रह जाती हैं ।
यही स्थिति साहित्यिक मूल्य की भी होती है। भाव उत्पन्न करना ही साहित्य का मूल्य नहीं है। भाव मुख्य रूप से मन की प्रवृत्तियों के लक्षण मात्र होते हैं और इसलिए उनका कला में महत्त्व है। अनुभव के द्वारा जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न की जाती है, उन्हीं का वास्तविक महत्त्व है। इन प्रवृत्तियों की संघटना और रूप पर उस अनुभव (मानसिक-क्रिया) का मूल्य निर्भर होता है। अनुभव के समय हममें जिस उत्कृष्टता एवं चेतना का बोध होता है, उसका मूल्य नहीं है वरन् उसका मूल्य उसके उपरान्त होने वाली किसी एक या अन्य प्रकार की तत्परता पर निर्भर होता है अर्थात् किसी भी संवेदना का मूल्य उसके परवर्ती प्रभाव से आँका जाना चाहिए क्योंकि उसके द्वारा मन के गठन में स्थायी परिवर्तन होता है और साहित्य उन सभी साधनों में सर्वाधिक सशक्त साधन होता है, जिनके द्वारा मानवीय अनुभूतियों के क्षेत्र को व्यापक बनाया जा सकता है।

अतः रिचर्ड्स मनोविज्ञान को आधर बनाकर मूल्य सिद्धान्त की स्थापना करता है। उसकी दृष्टि में मूल्य का जो महत्त्व मानवीय क्रियाओं के अन्य क्षेत्रों में उपयुक्त है, वही साहित्य के क्षेत्र में भी उपयुक्त है। अतः वह सामान्य मानदण्ड है अर्थात् साहित्य के मूल्य का कोई विशिष्ट मानदण्ड नहीं होता है। साहित्य रचना एक मानवीय क्रिया है। अतः उसके मूल्य के मान वही सारी सामाजिक आवश्यकताएं हैं जो समाज में सभी मनुष्य के लिए काम्य हैं।


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क्रोंचे का अभिव्यंजनावाद


क्रोंचे ने अपने ग्रंथ ‘एस्थेटिक’ नामक ग्रंथ में दार्शनिक हेगल से प्रभावित होकर अभिव्यंजनावाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। वे काव्य में अभिव्यंजना को ही सर्वस्व स्वीकार करते हैं । उनकी दृष्टि में अभिव्यंजना सौंदर्य है,और सौंदर्य ही अभिव्यंजना है । सौंदर्य को सन्दर्भ में क्रोंचे की अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थापना यह है कि सभी मनुष्य कवि हैं, कुछ बड़े और कुछ छोटे। जिनकी सहजानुभूति या अभिव्यंजना पूर्ण है,वे बड़े कवि हैं और जिनकी अपूर्ण है वे छोटे कवि। उसके अनुसार अभिव्यंजना,कला या काव्य एक सौंदर्य सृष्टि है । इसकी सृजन प्रक्रिया की चार अवस्थाएँ हैं-
प्रथम- कल्पना से पड़े प्रभाव की ।
द्वितीय- मानसिक सौंदर्य संश्लेषण की ।
तृतीय- सौंदर्यानुभूति के आनन्द की ।
चतुर्थ-उसकी शारीरिक क्रिया के रूप में रूपान्तरण की ।

ये चारों अवस्थाएँ जिनकी सहजानुभूति या अभिव्यंजना के साथ निर्बाध रूप से पूर्ण या सफल होती है, वह बड़ा कवि या कलाकार होता है, जबकि अन्य कवियों में ये चारों अवस्थाएँ पूर्णता को प्राप्त नहीं होती।
 क्रोंचे ने हेगल की विचार प्रक्रिया का समर्थन किया है लेकिन वह इस बात से सहमत नहीं है कि कला का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उसके अनुसार वह दर्शन का अनुवर्ती ना होकर पूर्णतः स्वतंत्र है क्योंकि कलाकार के हाथ में लेखनी, कूची या छेनी आने के पहले ही उसके मन में कला का समावेश हो जाता है तथा वह अपने समस्त भावावेशों एवं संवेदनाओं को दूर हटा कर किसी कलाकृति का सृजन करने में प्रवृत्त होता है। अतः उसने अभिव्यंजनावाद के समर्थन में ही सहज ज्ञान अथवा अंतर्मन की अभिव्यंजना को कला स्वीकार् किया है।
 क्रोंचे ने कला का संबंध स्वयंप्रकाश ज्ञान से माना है जिसे सहजानुभूति कहा है। उसके अनुसार सहजानुभूति प्रत्यक्ष बोध है अर्थात वस्तु का यथार्थ या वास्तविक ज्ञान। क्रोंचे की सौंदर्य शास्त्र में कला सहजानुभूति का पर्याय है ।क्रोंचे की भाषा में कहें तो कला सहजानुभूति की अभिव्यंजना है। उनके इस सौंदर्य शास्त्रीय प्रणाली में कला सहानुभूति और अभिव्यंजना तीनों पर्याय हैं।
कलाकार तथा सामान्य व्यक्ति को सहजानुभूति में अंतर स्पष्ट करते हुए क्रोचे कहते हैं कि कलाकार इसलिए कलाकार है कि वह उन चीजों को देखता है जिन्हें दूसरे लोग केवल महसूस करते हैं या उसकी थोड़ी सी झलक पा जाते हैं।लेकिन उन्हें देखते नहीं। हममें से प्रत्येक के अन्दर कवि, मूर्तिकार,संगीतज्ञ,चित्रकार अथवा गद्यलेखक का थोड़ा सा अंश विद्यमान है। लेकिन इन कलाकारों की तुलना में वह न्यून होता है क्योंकि इन कलाकारों में मानव-प्रकृति की अत्यन्त सार्वभौतिक प्रवृत्तियाँ या शक्तियाँ उत्कृष्ट मात्रा में विद्यमान रहती हैं फिर भी यह न्यून रूप हमारी सहजानुभूतियों का वास्तविक स्रोत है,अन्य सब तो आवेग मात्र हैं जिन्हें मनुष्य आत्मसात् नहीं कर सकता। अतः सहजानुभूतिजन्य ज्ञान अभिव्यंजनात्मक ज्ञान है। सहजानुभूति का होना अभिव्यंजित होना है-सिर्फ अभिव्यंजित होना,न इसमें कुछ और अधिक और न कम।(एस्थेटिक,पृ0 11)
क्रोंचे के अनुसार प्रतिभा ज्ञान और अभिव्यंजना दोनों एक ही क्षण में एक साथ उत्पन्न होते हैं, दोनों एक हैं- दो नहीं। उनकी दृष्टि में प्रतिम ज्ञान की कला है और कला प्रतिम ज्ञान अर्थात कला प्रतिम ज्ञान है और प्रतिभा ज्ञान अभिव्यंजना है। अतः कला अभिव्यंजना है और अभिव्यंजना कला है। उसके अनुसार वे लोग सही नहीं है जो काव्य को अभिव्यंजना मानते हैं और अभिव्यंजना को काव्य नहीं मानते।
             अभिव्यंजना को स्पष्ट करता हुआ क्रोचे  कहता है कि अभिव्यंजनात्मक क्रिया मन की बहक नहीं वरन एक आत्मिक आवश्यकता है। इसीलिए वह किसी कला वस्तु को एक ढंग से प्रस्तुत कर सकती है और वही सही ढंग होता है। अर्थात कवि अपनी आंतरिक प्रेरणा से ही अभिव्यंजना करता है। प्रेरणा अभिव्यंजना मुक्त होती है। अतः आंतरिक प्रेरणा अभिव्यंजना की प्रमुख विशेषता है। यह यह प्रेरणा कल्पना की समानार्थी है।
  मन की सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक  दो क्रिया होने के कारण वह अभिव्यंजना के दो भेद आंतरिक अभिव्यंजना और वाह्य अभिव्यंजना स्वीकार करता है। इस क्रम में वह आंतरिक अभिव्यंजना को काव्य मानता है, जबकि बाह्य अभिव्यंजना को काव्य स्वीकार नहीं करता क्योंकि काव्य अंतर्मन की रचना है।
 अभिव्यंजना को क्रोचे मुक्त प्रेरणा मानता है अर्थात वह कवि की इच्छा पर निर्भर नहीं है। कवि को इस बात का ज्ञान तो रहता है कि उसके मन में अभिव्यंजना उत्पन्न हो रही है लेकिन वह विवश होता है ना तो वह उसे रोक सकता है और न उसके लिए शीघ्रता कर सकता है क्योंकि उसकी दृष्टि में यह आत्मा की प्रतिभा क्रिया है। उसमें किसी भी प्रकार के चयन का विकल्प नहीं है। इसलिए वह प्रत्येक अभिव्यंजना को काव्य कला स्वीकार करता है। अतः क्रोचे की दृष्टि में प्रत्येक वस्तु काव्य का विषय बन सकता है और प्रत्येक वस्तु की अभिव्यंजना काव्य है। यह दृष्टि वस्तुतः क्रोचे के अभिव्यंजनावाद सिद्धांत का प्रमुख आधार है।
      वस्तु एवं रूप के संबंध में वह कहता है कि जिनका यह मत कि काव्य केवल वस्तु है और जो काव्य को वस्तु एवं रूप का योग मानते हैं, हमारे विचार से वे सभी गलत हैं। काव्य में अभिव्यंजना वस्तु के साथ जोड़ी नहीं जाती वरन् मन द्वारा सहजानुभूति को अभिव्यंजना में बदल दिया जाता है। अभिव्यंजना में अनुभूतियाँ इस प्रकार पुनः व्यक्त होती है जिस प्रकार फिल्टर से छनकर पानी वही होता हुआ भी, अपने पूर्वरूप से भिन्न रूप में प्रकट होता है। एस्थेटिक, पृष्ठ 37) अर्थात जिस प्रकार फिल्टर से छान लेने पर पानी तो वही रहता है जो वह पहले था फिर भी उस में कुछ परिवर्तन हो जाता है और इसी प्रकार कवि का मन सहजानुभूतियों को कल्पना के सहारे जब ढालता है तो वह पूर्ववत होती हुई भी सर्वथा नवीन हो जाती है।
             क्रोंचे ने अभिव्यंजना को फिल्टर की उपमा प्रदान करके अपनी अभिव्यंजना सिद्धांत को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है। अभिव्यंजना के कारण सहजानुभूति का स्वरूप यथावत नहीं रह जाता वरन् उसमें कुछ परिवर्तन हो जाता है। सहजानुभूति का यह परिवर्तित रूप ही प्रमुख स्थिति है और यही परिवर्तित सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है।
             अतः जब भी क्रोंचे ने काव्य को सहजानुभूति न कहकर अभिव्यंजना कहा तो उसका तात्पर्य यह है कि काव्य सहजानुभूति नहीं वरन् अभिव्यंजना युक्त सहजानुभूति है। वह अभिव्यंजना को लौकिक नहीं मानता लेकिन उसे अखण्ड और अविभाज्य स्वीकार करता है। उसे किसी भी रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता क्योंकि उसकी दृष्टि में वर्गीकरण कृति या अभिव्यंजना को मृतप्राय बना देती है। उसका नैतिकता से भी कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि उसकी दृष्टि में यदि कलाकार धूर्त,ठग और पाखंडी है तो वह इन्हें कला द्वारा प्रदर्शित कर अपनी शुद्धि कर लेता है। यदि कला की सच्चाई का अर्थ है, अभिव्यक्ति की पूर्णता तो स्पष्ट है कि नैतिकता से उसका कोई संबंध नहीं हो सकता।     वस्तुतः अभिव्यंजना का संबंध मन की क्रिया से है- जो व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकता है। इसलिए क्रोंचे ने इस सहजानुभूति या सहजज्ञान के रूप में स्वीकार किया है। क्रोंचे ने कला को मानव की एक सहज मानसिक क्रिया के रूप में मान्यता दे कर उसकी अखंडता और शाश्वत सत्ता को प्रमाणित किया है परंतु पूर्ण काव्य जो शाश्वत अखण्ड वस्तु है, दुर्लभ है। इस प्रकार क्रोंचे अभिव्यंजना सिद्धांत द्वारा काव्य और कला को देखने समझने की एक दृष्टि प्रदान करता है।
             निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद के द्वारा कलावाद को परिमार्जित किया है। उसने सौंदर्यशास्त्र का पृथक अस्तित्व निर्धारित कर कलावादी सिद्धांत की शुद्धता को भी प्रमाणित किया है। सहानुभूति को अभिव्यंजना प्रतिपादित कर उसने उसे सौंदर्यात्मक अथवा कलात्मक तथ्य से अभिन्न बताया है। इसलिए उसने प्रतिभा को अलौकिक शक्ति मानने से इंकार कर दिया और केवल सफल व्यक्ति को अभिव्यंजना माना है। उसका यह मत कलावादियों के लिए एक विशेष आधार है कि कला अभिव्यंजना है और सभी अभिव्यंजनाएँ कला हैं। यह वैयक्तिक होती है और उसकी पुनरावृत्ति नहीं होती। लेकिन कल्पना की सार्वभौमिकता के कारण समान बिंब विभिन्न व्यक्तियों के मन में उसी सहजानुभूति को उत्पन्न करती है।

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लाोंजाइनस का उदात्त सिद्धान्त



लोंजाइनस ने अपने ग्रंथ ‘पेरिइप्सुस’ नामक ग्रंथ में उदात्त के लिए अंग्रेजी के ‘दि सब्लाइम’ शब्द का प्रयोग किया है,जिसका तात्पर्य है-‘ऊँचाई पर ले जाना’ या ‘ऊपर उठाना’। इसे वह काव्य की आत्मा मानता है और कहता है कि इसी के कारण हमें काव्य में आनन्द की प्राप्ति होती है । वह लिखता है कि साहित्य पाठकों या श्रोताओं को आवेगपूर्ण अनुभूति की नवीन ऊँचाई तक जिन गुणों के कारण ले जाता है,वे ही उसके प्राणतत्व हैं। साहित्य का यह उदात्त गुण अन्य सभी गुणों से महान है । यह वह गुण है जो अन्य क्षुद्र त्रुटियों के बावजूद साहित्य को वास्तविक रूप से प्रभावपूर्ण बनाता है।
                                    लोंजाइनस की औदात्य सम्बन्धी अवधारणा बड़ी व्यापक है । इसमें उसने दर्शन,इतिहास तथा धर्म आदि विषयों को भी सम्मिलित किया है । उसके अनुसार कविता का औदात्य इस बात में है कि पाठक अपने को भूलकर उच्चभावभूमि पर पहुँच जाए । उसकी दृष्टि में उदात्त अभिव्यंजना के वैशिष्ट्य और उत्कर्ष का नाम है । और यहीं एकमात्र ऐसा आधार है जिसका सहारा लेकर महानतम कवियों और लेखकों ने गौरवलाभ किया है और यशःकाय से अमर हो गए हैं । उदात्त भाषा का प्रभाव श्रोता के मन पर प्रत्यय के रूप में नहीं पड़ता वरन् भावों के रूप में पड़ता है । गरिमामय वाणी सर्वदा और सब प्रकार से हमें मानों मन्त्रमुग्ध करके उस तत्व पर विजयिनी बनाती है जिसका लक्ष्य होता है अनुनय तथा परितोष । अपने प्रत्यय का हम प्रायः नियंत्रण कर सकते हैं । परन्तु उदात्त के सूत्रों का प्रभाव अमित और दुर्निवार होता है। और वे अपने प्रत्येक श्रोता के मन पर एकछत्र साम्राज्य जमा लेते हैं ।
            लोंजाइनस कहता है कि एक मनीषी की उक्ति -उदात्त की प्रवृत्ति निसर्गगत होती है । शिक्षा से उसका अर्जन नहीं होता । “प्रकृति ही एकमात्र कला है, जो उसे परिधि में बाँध सकती है । उनका विचार है कि कला नियमों के आकुञ्चन से प्राकृतिक कृतिया निकृष्टतर और प्रायः प्राणहीन हो जाती है, परन्तु मैं सोचता हूँ कि यदि इस बात पर विचार किया जाय कि प्रकृति की प्रक्रिया नियमतः आवेग और औदार्य के विषय में मुक्त और स्वायत्त होते हुए भी सर्वथा अनियमित और व्यवस्थाहीन नहीं है तो वस्तुस्थिति कुछ और भी जान पड़ेगी ।”
            लोंजाइनस लिखता है कि यदि औदात्य को किसी नियम और सिद्धान्त के बिना अनियमित दशा में छोड़ दिया जाय तो वह अधिक खतरनाक है क्योंकि जैसे औदात्य के लिए उत्तेजन आवश्यक है वैसे ही अवरोध भी लोंजाइनस के अनुसार कला की यहीं विशेषता है । वस्तुतः यहाँ प्रकृति और कला दोनो को ही महत्वपूर्ण स्वीकार किया गया है। जहँ तक अभिव्यंजना का प्रश्न है प्रकृति स्वायत्त रूप से प्रयत्नशील रहती है यद्यपि उसमें कोई क्रम अथवा व्यवस्था है। प्रकृति स्वयं एक व्यवस्था का वर्णन करती है जिसे कला केवल प्रकाश में लाकर छोड़ देती है। हम कह सकते हैं कि साहित्य में कुछ प्रभाव जो केवल प्राकृतिक रूप में उत्पन्न होते हैं उन्हें कला द्वारा ही सीखा जा सकता है
लोंजाइनस ने यद्यपि उदात्त को सीधे-सीधे परिभाषित नहीं किया है किन्तु उसके स्वरूप को स्पष्ट करने का लगातार प्रयास किया है। उसने व्यवहारिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से इसका उपयोग किया है। अतः उसनें जहाँ एक ओर उदात्त के बहिरंग तत्वों की चर्चा की वहाँ उसने अन्तरंग तत्वों की ओर भी संकेत किया है। वह लिखता है कि उदात्त भाषा के पाँच मुख्य श्रोत होते हैं इन्हें वह अनिवार्य तथा महत्वपूर्ण मानता है।
1.     महान धारणाओं की छमता या विषय की गरिमा।
2.     भावावेश की तीव्रता।
3.     समुचित अलंकार योजना।
4.     उत्कृष्ट भाषा।
5.     गरिमामय रचना विधान।
इसमें से प्रथम दो जन्मजात हैं और उनका सम्बन्ध काव्य के अन्तरंग पक्ष से है। शेष तीन कलागत है अतः वे बहिरंग पक्ष के अन्तर्गत आते हैं। लोंजाइनस ने उदात्त को स्पष्ट करने के लिए उन तत्वों का भी उल्लेख किया है जो उदात्त के विरोधी हैं अतः उसने उदात्त के स्वरूप को तीन पक्षों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
क-अंतरंग तत्व
ख-बहिरंग तत्त
ग-विरोधी तत्व।
(क)  अंतरंग तत्व-
(1) महान धारणाओं की क्षमता या विषय की गरिमा- लोंजाइनस के अनुसार यह उदात्त का पहला गुण है । उसके अनुसार उस कवि की कृति महान नहीं हो सकती जिसमें महान धारणाओं की क्षमता नहीं है। महान उक्ति आत्मा की महत्ता की प्रतिध्वनि होती है। यह अर्जित गुण न होकर प्रायः प्रकृति के चिंतन द्वारा भी उत्पन्न किया जा सकता है। यद्यपि वह इसके लिए जन्मजात संस्कारों, कुछ कारयित्री प्रतिभा को, जिसमें कल्पना शक्ति अंतर् भूत है, श्रेय देता है। वह मानता है कि प्रतिभा और चरित्र के औदात्य से ही महान विचारों का आविर्भाव संभव होता है। महान धारणाओं की क्षमता से तात्पर्य है, तेजस्वी एवं मार्मिक प्रसंगों की पकड़ और उसके मूल में निहित औदात्त्य उद्घाटन। स्पष्ट है कि वह कभी ऐसा कर सकता है, जिसकी कल्पना शक्ति उर्वर हो, जिसे मार्मिक स्थलों की पहचान हो और जो मानव हृदय में प्रवेश कर संवेदनाओं को पकड़ने की क्षमता रखता हो। डॉ. नगेंद्र अपनी पुस्तक ‘काव्य में उदात्त तत्व’ में लोंजाइनस के हवाले से लिखते हैं कि यह संभव नहीं है कि जीवन भर क्षुद्र उद्देश्य और विचारों से ग्रस्त व्यक्ति कोई अमर रचना कर सके। महान शब्द उन्हीं के मुख से निःश्रित होते हैं जिनके विचार गंभीर और गहन हों।
(2)भावावेग की तीव्रता- उदात्त का दूसरा स्त्रोत- भावावेग की तीव्रता है। यहाँ वह कहता है कि वास्तविक भावावेग ही हमें ऊपर उठा सकता है। लोंजाइनस के अनुसार आवेग दो प्रकार के होते हैं- प्रथम- निम्न आवेग, द्वितीय- भव्य आवेग। जब भव्य आवेग मनुष्य की आत्मा में क्रियाशील होते हैं तब उसकी आत्मा को उत्कर्ष प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप उदात्त का जन्म होता है। इसके विपरीत निम्न कोटि के भाववेगों के प्रबल होने पर उसकी आत्मा मलिन होती है और अंतः करण में नीचता जागृत होती है। लोंजाइनस के मत में उत्साह का आवेग उदात्त तत्व को प्रेरित करता है। कवि में उसके उत्पन्न होने से वाणी में ओज और कांति का जन्म होता है जबकि घृणा,भय,शोक आदि से आत्मा में संकुचन होता है।
(ख)  बहिरंग तत्व
 (1)अलंकार योजना- लोंजाइनस ने समुचित अलंकार योजना पर अत्यधिक बल दिया है पर अलंकारों के प्रति उसकी दृष्टि अलंकारवादी ना होकर सौंदर्य वादी है। इसीलिए वह चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकारों के प्रयोग का विरोध करता है। उसका मानना है कि यदि अलंकारों का उचित प्रयोग किया जाए तो वे अवदात्त की प्रतिष्ठा में सहायक होते हैं। अलंकार उदात्त का स्वाभाविक सहयोगी तत्व है। अलंकार अपने उत्कृष्ट रूप में तभी उपस्थित होता है, जब उसमें यह तथ्य छिपा रहता है कि वह कृति का अलंकार है। ये स्वतः कवि के मनोभावों में निहित होते हैं। इसी से वे मानव-प्रकृति की सही व्याख्या के साधन बनते हैं और यह तभी संभव है जब कभी अलंकारों का प्रयोग स्थान, देश, काल, अभिप्राय- वातावरण को ध्यान में रखकर करता है। उसके अनुसार- ये अलंकार कवि के वास्तविक मनोभावों में निहित होते हैं, मानव के कलात्मक बोध के प्रतीक हैं,अतएव ये मानव स्वभाव की व्याख्या करने में समर्थ है लेकिन इनका प्रयोग अत्यंत संयम और विवेक पूर्ण करना चाहिए। अलंकार योजना के अंतर्गत लोंजाइनस ने वक्रोक्ति के कतिपय तत्वों को लिया है, जैसे- विलक्षण वाक्य रचना, काल, लिंग, वचन में बदलाव, व्याजोक्ति, समासोक्ति आदि। रूपक, उपमा आदि अलंकारों को शब्दावली के अंतर्गत रखा है। इसके अतिरिक्त विस्तारण,शपथोक्ति,प्रश्नालंकार, विपर्यय,व्यतिक्रम, पुनरावृति,छिन्न-वाक्य, प्रत्यक्षीकरण, रूप परिवर्तन आदि का विवेचन किया है।
(2) उत्कृष्ट भाषा- उत्कृष्ट भाषा के अंतर्गत लोंजाइनस ने शब्द चयन, रुपकादि का प्रयोग और भाषा की सज्जा को लिया। उसने विचार और पद विन्यास को एक दूसरे के आश्रित माना। अतः उदात्त विचार साधारण शब्दावली द्वारा अभिव्यक्त ना होकर गरिमामय भाषा में ही अभिव्यक्त हो सकते हैं। भाषा की गरिमा का मूल आधार है- शब्द सौंदर्य अर्थात उपयुक्त और प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग। इसके द्वारा शैली के गौरव, सौंदर्य, उत्कृष्ट रसास्वादन, महत्त्व, सामर्थ्य-शक्ति और मोहकता में वृद्धि हो जाती है। मानों मृत-प्राणियों में जीवन का संचार हो उठा हो। लोंजाइनस ने बड़े-बड़े शब्दों के अविवेकपूर्ण प्रयोग को अवांछनीय माना है। उसका कहना है कि तुच्छ विषयों को उत्कृष्ट भाषा द्वारा प्रस्तुत करना उपहासास्पद है। अर्थात भाषा विषय वस्तु के अनुकूल होनी चाहिए। दूसरी ओर उसने ऐसे ग्राम्य शब्दों का प्रयोग भी स्वीकार किया है जो वास्तव में गवारू हैं लेकिन वे अत्यंत शक्तिशाली होते हैं और लोगों के परिचित होते हैं, इसलिए उनका प्रयोग काव्य को उत्कृष्ट बना सकता है।
(3) गरिमामय रचना विधान - लोंजाइनस का मानना है कि रचनाकार का वैशिष्ट्य इस बात में भी है कि उसने अलंकार भाषादि को लेकर रचना की निर्मिति किस तरह से की है। उसकी दृष्टि में सामंजस्यपूर्ण शब्द-विन्यास केवल सुख एवं आनंद का ही सहज कारण नहीं वरन औदात्य एवं भावावेश का भी साधन है। काव्य रचना को लोंजाइनस ने शब्दों की सामंजस्यपूर्ण घटना कहा है। इस घटना से जुड़े यह शब्द मनुष्य के स्वभाव के अंग होते हैं। ऐसे शब्दों से निर्मित काव्य का रचना विधान विचारों और घटनाओं, सौंदर्य, संगीतमय माधुर्य जो हमारे साथ जन्मे हैं और पोषित हुए हैं- को उद्वेलित करता है और हृदय में वक्ता के मनोभावों को उभारने का कार्य करता है ।
उपर्युक्त तीनों तत्वों के सहयोग से काव्य भाषा में उदात्त तत्वों का जन्म होता है। इस उदात्त तत्व की प्रक्रिया काव्य की प्रमुख विशेषता है। लोंजाइनस का मानना है कि काव्य का महत्व उसमें निहित उपदेश, नैतिकता, धर्म, आदर्श के साथ उसका मूल व्यापार इनसे भिन्न तथा ऊंचा है। उसकी दृष्टि में काव्य का एक अपना महत्व और प्रभाव होता है जो पाठक के मन को शांति और आनंद दोनों प्रदान करता है ।

(ग) विरोधी तत्व- लोंजाइनस ने उदात्त तत्व के विवेचन में काव्य की उदात्तता के लिए जहाँ इन पाँच सकारात्मक पक्षों की चर्चा की है, वहीं पर एक नकारात्मक पक्ष उदात्त की विरोधी तत्व की भी चर्चा की है, जिसकी उपस्थिति में काव्य का उदात्त तत्व हेय हो जाता है। इस क्रम में उसने शब्दाडंबर, बचकानापन, भावाडंबर की प्रमुख रूप से चर्चा की है। वागाडंबर में कवि अपनी क्षमता को छिपाने के लिए इसका प्रयोग कर बैठता है जबकि भावाडंबर में आवेग की अधिकता ना होने पर भी यहां जानबूझ करके असामयिक और सामाजिक और खोखले आवेग का सन्निवेश कवि करता है अर्थात जहां संयम की आवश्यकता होने पर भी असंयम का भाव दिखाई देता है। इस तथ्य से रचनाकार को बचना आवश्यक है।

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काव्य प्रयोजन

2.काव्य का प्रयोजन

सब से मूलभूत प्रश्न है- काव्य किसके लिए? बहुत से आलोचक इस प्रश्न को सार्थक नहीं मानते उनका मत है कि काव्य का प्रयोजन कवि की कलात्मक हृदय की संतुष्टि मात्र है । यह सही बात है कि कवि के अन्तर्वृत्ति में कला रहती है और वह कला का संपादन करके संतुष्टि प्राप्त करता है किन्तु प्रयोजन इतना ही नहीं है कविता केवल अन्तर्वृत्ति की वस्तु न होकर बाह्य मूल्यों को भी संरक्षित करती है । कविता का बाह्य मूल्य भी है। काव्य के प्रयोजन को संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने विशद् रूप से अपने ग्रंथों में विवेचित किया है।
आचार्य भरत नाट्यशास्त्र में काव्य के प्रयोजन को बताते हुए लिखते हैं कि
धर्मयशस्यमायुष्यं हितबुद्धिविवर्धनम्
                 लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति- आचार्य भरत
आचार्य भरत के अनुसार- धर्म,यश की स्थापना । आयु, हित, बुद्धि की वृद्धि तथा लोकोपदेश  ही काव्य का प्रयोजन है ।
आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के अन्तर्गत उसके प्रयोजन की चर्चा करते या बताया है कि-
धर्मयशस्यमायुष्यम् हितबुद्धिविवर्धनम् ।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतदभविष्यति ।।
इस प्रकार, काव्य नाट्य का प्रयोजन धर्म, यश की स्थापना, आयू, हित-बुद्धि की वृद्धि तथा लोकोपदेश की दृष्टि व्यवस्थित करना है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के अन्तर्गत कई स्थानों पर प्रयोजनों की चर्चा की है और उनके माध्यम से यही निष्कर्ष निकाला है कि लोकहित एवं प्रीति अर्थात् रचनात्मक तृप्ति ही नाट्य का उद्देश्य है।
काव्य प्रयोजन के विषय में सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से निर्देश आचार्य भामह ने किया था, उन्होंने प्रायः प्रयोजन के सन्दर्भ में सभी परवर्ती स्वीकृति दृष्टियों की ओर संकेत किया है। उनके अनुसार "यशवृद्धि" रचना का महत्त्वपूर्ण फल है। यश के साथ-ही-साथ उन्होंने अन्य प्रयोजनों की भी चर्चा की हैं। इस प्रकार हैं-
धर्मार्थ काममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासुच।
करोति प्रीति कीतिं च साधु काव्य निबन्धनम् ।
इस प्रकार, काव्य रचना का प्रयोज! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अन्य कलाओं में सिद्धि-प्राप्ति, प्रीति एवं कीति हैं। इन माव्य प्रयोजनों के अन्तर्गत सम्पूर्ण तथ्य समाविष्ट हैं । यही नहीं, एक स्थल पर अवार्य भामह ने यह बतलाया हैं कि लोक-व्यवहार, धर्म एवं नीति के मर्म को समझाने के लिए काव्य एक सरस माध्यम भी है। भामह की ही भाँति आचार्य दण्डी ने भी कलाजनित आनन्द का पूर्णतया
प्रसार तथा भोग साथ-ही-साथ अनेक लोकोपयोगी तत्वों का निदर्शन काव्य का प्रयोजन माना है । काव्यादर्श की समाप्ति के पश्चात आचार्य दण्डी ने काव्य रचना का निष्कर्ष निकालते हुए उसके प्रयोजनों की ओर ध्यान आकर्षित किया है-
व्युत्पन्नबुद्धिरमुना विधिदर्शनेन,
मार्गणदोषगुणावंशवर्तिनीभिः
वाग्भिः कृताभिरमणे मदिरेक्षणाभिः,
धन्यो युवेव रमते लभते च कीर्तिम् ॥
दोषमुक्त एवं गुणयुक्त काव्यवाणी तथा निर्दिष्ट काव्य मार्गों द्वारा व्युत्पन्नमति वाला रचनाकार मदमत्त नेत्रों वाली रमणियों से अभिसार करता हुआ भाग्यशाली युवक के सदश अगाध आनन्द का अनुभव करता हुआ कीर्ति की प्राप्ति करता है। आचार्य दण्डी की ही भांति आचार्य वामन ने भी काव्य रचना के मुख्य प्रयोजन के रूप में प्रीति की ही चर्चा की है।
आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक के अन्तर्गत काव्य रचना का मूल लक्ष्य आनन्द ही माना है। उनके अनुसार काव्य रचना का आनन्द नामक प्रयोजन रचनाकारों को बार-बार आकर्षित करके सहृदयों को तृप्त करता है। यह सत्य है कि, काव्य के माध्यम से धर्म, अर्थ काम, मोक्ष इन चार तत्त्वों की प्राप्ति होती है, फिर भी उनसे भिन्न आनन्द नामक तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं काम्य है।
आनन्दवर्धन के पश्चात आचार्य कृन्तक ने भी काव्य प्रयोजन विषय की चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि शास्त्रादि के प्रति भीरु राजकुमारों को रमण कराने के लिए काव्य का वही उपयोग है, जो ज्वरादि व्याधियों को दूर करने के निमित्त औषधि में मधु प्रयोग की-
कटुकौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधि नाशनम् ।
आह्लादमृतवत् काव्यमविवेक गदापहम् ।।
उनके अनुसार काव्य का यह व्यावहारिक पक्ष है। काव्य प्रयोजन के विषय में सर्वाधिक व्यावहारिक टिप्पणी आचार्य मम्मट की है, मम्मट कहते हैं-
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिवृत्तये कान्तासम्मितयोपदेशयुजे ।।
उनके अनुसार काव्य के छ: प्रयोजन हैं-यशवृद्धि, धनार्जन, लोकव्यवहार का ज्ञान, शिवेतर तत्त्वों से रक्षा, कान्तासम्मितया उपदेश तथा सद्य:परिनिवृत्ति। आचार्य मम्मट द्वारा निदिष्ट यशवृद्धि तथा धनार्जन-ये दो प्रयोजन रचनाकार के लिए हैं। रचनाकार काव्य रचना के माध्यम से अक्षय यश की प्राप्ति करता है, साथ ही, राजाश्रय प्राप्त करके धनार्जन भी प्राप्त करके समद्ध लोकजीवन यापन करता है। मध्यकाल में राजाश्रय से कवि एवं कवि के द्वारा राज की कीर्ति का परस्पर विस्तार होता है। राजशेखर ने काव्यमीमांसा के अन्तर्गत बताया है कि राजा के लिए कवि और कवि के लिए राजा के सदृश कोई उपकारी नहीं होता और दोनों एक दूसरे की कीति के विस्तार में मदद करते हैं-
ख्याता नराधिपः कवि संश्रयेण,
राजाश्रयेण च गता कवयः प्रसिद्धि।
राज्ञा समो अस्ति न कवेः परोपकारी,
राज्ञा न चास्ति कविनासदृशः सहायः॥
इस प्रकार राजाश्रय न केवल धनार्जन के निमित्त आपतु कवि के यश में भी सहायक होता है । काव्य के तीन उद्देश्य लोकहित से सम्बद्ध है और चतुर्थ प्रयोजन का उद्देश्य कला-जनित रचना तत्त्व का पाठक द्वारा आस्वादन है। काव्यास्वादन का सृजन कवि का मूल उद्देश्य है, और यह रचना का अन्तवर्ती तत्त्व है।सद्यः परिनिवृत्ति का अर्थ है, काव्य रचना के सम्पर्क में आते ही उसके प्रभाव
सहृदय का भावनिमग्न होकर आनन्दित हो उठना। रचना का यह कलाधर्म है।इस कलाधर्म की सृष्टि रचनाकार और रचना का नंगिक धर्म है। शेष तीन काव्य प्रयोजन लोकव्यवहार से जुड़ हैं। काव्य की रचना "शिवेतर तत्वों रक्षा के लिए की जाती है। यह वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों स्तरों पर सम्भव ह। बाद -(क) लोक व्यवहार का ज्ञान, (ख) कान्तासम्मित उपदेश ये हो
महत्वपूर्ण सन्दर्भ हैं। इन्हीं दो प्रयोजनों का सन्दर्भ काव्य रचना की बहत्तर आयामधर्मिता से है। काव्य के अन्तर्गत सम्पूर्ण लोक जीवन तथा सामाजिक आचरण की पुनर्रचना की जाती है। इस पुर्नरचना के अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज का व्यावहारिक प्रतिपालन विम्बित होता है और यही विम्बन सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी है।
"कान्तासम्मितया उपदेश" रचना का उससे भी महत्त्वपूर्ण धर्म है। काव्य यह निर्देश नहीं देता कि क्या करणीय है और क्या करणीय नहीं है। वह रचना के अन्तर्गत एक परिस्थिति उत्पन्न करता है और इस परिस्थिति को कला तथा कल्पना कौशल के द्वारा निर्मित करके रचना के लक्ष्य के अनुसार आचरण करने के निमित्त पाठक को विवश कर देता है। रामायण कार प्रत्यक्षतः यह उपदेश नहीं
देता कि व्यक्ति राम की भांति आचरण करे या रावण की भांति, वह रचना के अन्तर्गत उन परिस्थितियों को उत्पन्न कर देता है कि पाठक राम की भांति आचरण करने के लिए स्वयं मन बना लेता है, न कि रावण की भांति । पाठक के हृदय में स्वतः निर्देश उत्पन्न कराना रचना का अन्तवर्ती प्रयोजन है। यह अन्तवता प्रयोजन रचनाकार के मन्तव्य से जुड़ा रहता है। कविराज विश्वनाथ ने बताया है-
चतुर्वगफलप्राप्तिः सूखादल्पप्रियमपि।
काव्यादेवयतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ।
इन वाक्यों के माध्यम से मूलतः परम्परित काव्य प्रयोजनों की ही चर्चा की गई है। आचार्य मम्मट ने परम्परा में कथित काव्य प्रयोजनों पर पूर्णतः विचार करके उनको सूत्ररूप में रखते हुए अन्तिम परिणति प्रदान कर दी है। उनके पश्चात जो भी विचार इस सम्बन्ध में प्रस्तुत किये गये हैं, वे पृष्ठपेषण मात्र हैं।
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वस्तुनिष्ठ


तृतीय प्रश्नपत्र – हिन्दी
वस्तुनिष्ठ प्रश्नपत्र
1.   निबन्ध निकष के सम्पादक का नाम लिखिये ।
2.  हिन्दी में निबन्ध रचना का आरम्भ किस युग से माना जाता है ।
3.  किन्ही दो व्यक्तिव्यंजक निबन्धकारों के नाम लिखिए।
4.  किन्ही तीन ललित निबन्धकारों के नाम लिखिए।
5.  जगत प्रवाह किसका निबन्ध है ।
6.  कवि और कविता किसका निबन्ध है ।
7.  परशुराम ने भीष्म को कौन सा वरदान दिया ।
8.  भारत की सांस्कृतिक एकता निबन्ध के लेखक का नाम लिखिए ।
9.  द्विवेदी युग के तीन निबन्धकारों को नाम लिखिए ।
10.            बालकृष्ण भट्ट का जन्म कब और कहाँ हुआ ।
11. प्रताप नारायण मिश्र का जन्म कब और कहाँ हुआ ।
12.            रामचन्द्र शुक्ल की निबन्ध-पुस्तक का नाम लिखिए ।
13.            सहत्रार्जुन के पुत्रों की संख्या कितनी थी ।
14.            शुक्लयुग के चार निबन्धकारों का नाम लिखिए।
15.            अशोक के फूल किसकी रचना है ।
16.            हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म कब और कहाँ हुआ ।
17.            महादेवी वर्मा का जन्म कब हुआ .।
18.            महादेवी वर्मा के दो निबन्धों का नाम लिखिए ।
19.            लोभ एवं प्रीति किसका निबन्ध है ।
20.           अपनी पाठ्यपुस्तक में हरिशंकर परसाई का कौन सा निबन्ध संकलित है ।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
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