9. एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा!


एही ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा!
महाराष्ट्रीय महिलाओं की तरह धोती लपेट, कच्छ बाँधे और तंग चोली कसे दुलारी दनादन दंड लगाती जा रही थी। उसके शरीर से टपक-टपककर गिरी बूंदों से भूमि पर पसीने का पुतला बन गया था। कसरत समाप्त करके उसने चारखाने के अंगोछे से अपना बदन पोंछा, बँधा हुआ जूडा खोलकर सिर पर पसीना सुखाया और तत्पश्चात आदमकद आईने के सामने खड़ी होकर पहलवानों की तरह गर्व से अपने भुजदंडों पर मुग्ध दृष्टि फेरते हए प्याज़ के टुकड़े और हरी मिर्च के साथ उसने कटोरी में भिगोए हुए चने चबाने आरम्भ किए।
उसका चणक-चर्वण-पर्व अभी समाप्त न हो पाया था कि किसी ने बाहर बन्द दरवाजे की कुंडी खटखटाई । दुलारी ने जल्दी-जल्दी कच्छ खोलकर बाकायदे धोती पहनी, केश समेटकर करीने से बाँध लिए और तब दरवाजे की खिड़की
खोल दी।
बगल में बंडल-सी कोई चीज़ दबाए दरवाजे के बाहर टुन्नू खड़ा था। उसकी दष्टि शरमीली थी और उसके पतले ओंठों पर झेंप-भरी फाकी मुसकराहट थी। विलोल बेहयापन से भरी अपनी आँखें टुन्नू की आँखों से मिलाती हई दलारी
बोली "तम फिर यहाँ, टुन्नू? मैंने तुम्हें यहाँ आने के लिए मना किया था न?" टुन्न की मुसकराहट उसके होंठों में ही विलीन हो गई। उसने गिरे मन से उत्तर दिया, “साल-भर का त्यौहार था, इसीलिए मैंने सोचा कि..." कहते हुए उसने बगल से बंडल निकाला और उसे दुलारी के हाथों में दे दिया। दुलारी बंडल लेकर देखने लगी। उसमें खद्दर की एक साड़ी लपेटी हई थी। टुन्नु ने कहा, “यह खास गांधी आश्रम की बनी है।"
"लेकिन इसे तुम मेरे पास क्यों लाए हो?" दुलारी ने कड़े स्वर से पूछा। टुन्नू का शीर्ण वदन और भी सूख गया। उसने सूखे गले से कहा, "मैंने बताया न कि होली का त्यौहार था...।" टुन्नू की बात काटते हुए दुलारी चिल्लाई, “होली

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8. सिवनाथ-बहादुरसिंह वीर का खूब बना जोड़ा


ऊपर पीपल के विशाल वृक्ष पर कौए बोलने लगे।
नीचे प्रायः पाँच सौ व्यक्तियों का समूह गाने-बजाने में मस्त झूम रहा था। रात के दस बजे से लावनी की जो ललकार आरम्भ हुई वह अब तक जारी थी। झाँझयुक्त चंग की आवाज़ पर पाँच आदमी एक साथ गाते थे-
"सिवनाथ बहादुरसिंह वीर का खूब बना जोड़ा,
सम्मुख होकर लड़ेनिकलकर मुँह नाहीं मोड़ा।"
और तब एक आदमी अत्यन्त सुरीले स्वर से अकेले ही चहकता-
"दो कम्पनी पाँच सौ चढ़कर चपरासी आया,
गली-गली औ' कूचे-कूचे नाका बँधवाया,
मिर्जा पाँचू ने कसम खाय के कुरान उट्ठाया...।"
इसी समय फेंकू ने बगल में बैठे रूपचन्द का हाथ दबाकर उससे धीरे से कहा, “अब चलना चाहिए।"
काशी में नीलकंठ महादेव मन्दिर के उत्तर की ओर जहाँ आजकल दरभंगा-नरेश का शिवाला है, सदा की भाँति होली के ठीक पाँच दिन पूर्व उक्त मजलिस आरम्भ हुई थी। सवेरा हो जाने पर भी गायन-वादन का क्रम टूटता न देख फेंकू का धीरज छूट गया। दो दिन पूर्व मीर-घाट पर लाठी लड़ने में उसका सिर फट गया था। उस पर अब भी पट्टी बँधी हुई थी। रात-भर के जागरण से उसके सिर में ही नहीं. सिर के घाव में भी दर्द हो रहा था। उधर रूपचन्द की आँखें भी उनींदी हो गई थीं। अतः रूपचन्द ने फेंकू का प्रस्ताव तत्काल स्वीकार कर लिया और घर चलने के लिए उठ खड़ा हआ। दक्षिण की ओर चार कदम चलकर दोनों दाहिनी ओर मड़े और रूपचन्द ने सामने स्थित चौरे की ओर उँगली उठाकर कहा, "देखो भाई, वही जगह है जहाँ रात मेरे हाथ से मलाई का पुरवा झटक लिया गया।"
रुपचन्द सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र का बालक-मात्र था। अभी-अभी पंजाब से काशी आकर गढ़वासी टोले में आकर बस गया था। पड़ोस में जो गाने-बजाने का सार्वजनिक आयोजन सुना तो रात को दुकान से लौटकर नहीं गया, वरन आधा पाव मलाई लेकर सीधे नीलकंठ जाने के लिए ब्रह्मनाल भी ओर से चौरी की ओर मुड़ा। चौरी के पास पहुँचते ही किसी ने झटककर पुरवा उड़ा लिया। चतुर्दिक निगाह दौड़ाने और रात चाँदनी रहने के बावजूद कोई नज़र न आया।
उक्त घटना स्मरण आते ही उसके रोएँ इस समय भी भरभरा उठे। उसके साथी बीस-वर्षीय तरुण पहलवान फेंकू ने विज्ञ की भाँति सिर हिलाया और कहा, "हूँ।" रहस्य का रंग और गाढ़ा हो गया।
सुबह का रंग भी और अधिक निखर आया था। शाक-भाजी ख़रीद और गंगा-स्नान कर लोग उस रास्ते लौटने लगे थे। कुछ बूढ़ी स्त्रियाँ चौरे पर अच्छत-फूल भी फेंक रही थीं। उन्होंने रूपचन्द की बात सुनी, उसकी विवर्ण विकृति देखी और कुछ स्मरण कर स्वयं भी काँप उठीं। बग़ल से गुज़रते हुए पुरुषों ने सुना; वे भी सिहर उठे।
फेंकू यह सब देख मुसकराने लगा। एक वृद्ध ने कहा, “बेटा, हँसने की बात नहीं है, यह बड़े वीर का चौरा है।"
अरे ठाकुर सिवनाथसिंह का न? अपने राम को भी सब विदित है। इसी मुहल्ले में पैदा हुए और पले,” फेंकू ने गर्व से कहा।
रूपचन्द कभी उस वृद्ध और कभी अपने साथी की ओर देख रहा था। उसने पूछा, “वयो, बात क्या है? आप लाग बतात क्या नहा?" फेंकू ने कहा, “चलो घर, वहीं बता देंगे।"
बालकों की तरह मचलते हुए रूपचन्द ने कहा, “नहीं-नहीं, पहले यह बताओ कि सिवनाथसिंह कौन थे और यह चौरा क्यों बना।"
इतनी उतावली थी तो वहीं बैठकर पूरी लावनी ही क्यों न सुन ली?" फेंकू ने डाँटा।
गाना-वाना मेरी समझ में नहीं आता। पंडितजी, आप कहिए, सिवनाथसिंह कौन थे?"
वृद्ध पंडित ने उत्तर दिया, “सिवनाथसिंह क्षत्रिय थे और थे नगर के विख्यात गुंडे। चौबीसों घंटे डंके की चोट सोलह परी का नाच कराते थे-छमाछम! छह और नौ की ध्वनि से उनका घर गूंजता रहता थ। खुली कौड़ी पड़ता था। अटी का लासा, सफा खेल खुलासा' वाला मामला था उनका नाम तुम लागो का खून सरद होता था और वह खुद ऐसे तपते थे जैसा जेठ की दुपहरिया में सूरज तपता है। जैसे सूरज का जवाब चन्द्रमा है वैसे ही बाबू बहादुरसिंह सिंह के जोड़ीदार थे उन्हाका तरह बहादुर, उन्हीं की तरह शेर! कहावत है कि घोड़े की लात घोडा सह सकता है। सो सिवनाथसिंह का बल बहादुरसिंह और बहादुरसिंह का तेजी सिवनाथसिंह ही सह सकते थे। सागिरदों की 'धड़क' खोलने के लिए उन्हें दो दलों में बाँट दोनों फागन-भर धर्म-यद्ध करते थे। वह धर्मयुद्ध ही था। पिता-पुत्र लड़ते थे और भाई पर भाई वार करता था। आजकल की तरह बुराई नहीं निकाली जाती थी, जिसमें ये सिर तडाए बैठे हैं।"
बृद्ध ने जिस समय फकू की ओर उँगली उठाकर कहा उस समय फेंकू ने रूपचन्द का हाथ दबा रखा था और उसके ताकने पर कनखी से घर चलने का इशारा कर रहा था। वृद्ध ने यही देख उस पर व्यंग्य किया था।
उधर रूपचन्द वृद्ध की एक-एक बात सुन नहीं, पी रहा था। उसने फेंकू के इशारे की उपेक्षा कर दी। वृद्ध पुनः कहने लगा, “सौ बरस की बात है। बनारस में नया-नया अंग्रेजी राज हुआ था। तब पुलिस नहीं थी, बरकन्दाज़ थे। तब जनानापन नहीं चलता था, मरदानेपन की इज्जत थी। मुक़दमा बनाया नहीं जाता था, मूंछों की गुरॆरबाज़ी के कारण स्वयं बनता था। अंग्रेज़ी राज्य में देशी ढंग से जुआ खेलने और देशी शराब पीने की रोक थी, आज भी है। परन्तु सिवनाथसिंह के घर के आँगन में दो फड़ों पर कौड़ी फेंकी जाती थीं और एक-एक फड़ के सामने सिवनाथसिंह और बहादुरसिंह एक हाथ में नंगी तलवार खींचे दूसरे हाथ से नाल की रकम उतारकर सामने रखी पेटी में डालते जाते थे। दरवाजा चौबीसों घंटे खुला रहता था, पर क्या मजाल थी कि पंछी पर मार सके ।
वृद्ध ने रुककर साँस ली। रूपचन्द आश्चर्य के समुद्र में उभ-चुभ हो रहा था। उसके ऊपर भय की भयावनी लहरें उठ-बैठ रही थीं। वृद्ध वक्ता मुसकराया और फिर कहने लगा, “उस समय मिर्जा पाँचू शहर-कोतवाल थे। वह अपने को दूसरा लाल खाँ समझते थे। बरकन्दाज़ों की पूरी पलटन लेकर गश्त के लिए निकलते थे पाँच बार नमाज पढकर अपने मजहबी' होने का प्रचार किया था। सिवनाथसिंह के कारण उनकी बडी किरकिरी होती थी। मिर्जा पाँचू और उनके बरकन्दाज़ों ने सिवनाथ और बहादर से टक्कर ली, लेकिन जैसे चट्टान से टकराकर लहर सौ टुकड़े होकर पीछे लौट जाती है, वे भी पहले तो प्रशस्त और मस्त लेकिन बाद में परास्त और त्रस्त होकर रह गए।
अन्त में निवनाथ और बहादुर के विनाश के लिए मिर्जा पाँचू ने कुरान उठाकर कसम खाई और एक दो कम्पनी याने पाँच सी सिपाही लेकर सिवनाथसिंह का घर घेर लिया। सिवनाथसिंह बाहर गए थे, बहादुरसिंह मौजूद थे। परन्तु उनके हाथ-पाँव फूल गए। जुआरियों की मंडली भी घबराई।
सर्वाधिक चपल, साथ ही सर्वाधिक चालाक एक जुआरी ने उछलकर द्वार बन्द कर लिया। बन्दूकों के कुन्दों से सिपाही फाटक पर चोट देने लगे। प्रहार दरवाजे पर नहीं, सिवनाथसिंह की शान पर हो रहा था। वहादुरसिंह ने उठने का प्रयत्न किया तो जुआरियों ने उन्हें बैठा दिया। इतने में बाहर भगदड़ मची। लोगों ने खिड़की के बाहर झाँककर देखा कि सिपाही हथियार फेंक-फेंककर भाग रहे हैं, दस-पाँच छटपटा रहे हैं और दो-चार ठंडे पड़े हैं। वहीं ठाकुर सिवनाथसिंह खड़े हैं-खून से लथपथ, क्रोध से होंठ चबाते और मानसिक चंचलता दवा न पाने के कारण तलवार नचाते।
"खिड़की से यह दृश्य देख बहादुरसिंह बहुत लजाए, दरवाज़ा खुलवा दिया, परन्तु सिवनाथसिंह ने कहा कि जिसने दरवाज़ा बन्द कर मेरा अपमान कराया है उसका सिर काट लेने के बाद ही अब मैं घर में प्रवेश करूँगा। ठाकुर की बात सुनकर सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। अपराधी हाथ जोड़कर सामने आया। उसे देखते ही सिवनाथसिंह के मुँह से निकला-'अरे पंडित, तुम!'
हाँ, धर्मावतार,' सिर झुकाए हुए जुआरियों की चिलम भरनेवाले ब्राह्मण ने कहा। कुछ सोचकर ठाकुर ने कहा, “अच्छा, सामने से हट जाओ! अब कभी मुँह न दिखाना।"
पंडित वैसे ही नतमस्तक वहाँ से हट गए। ठाकुर सिवनाथसिंह भी घर में गए। स्नान कर क्रोध की ज्वाला कुछ बुझाई और तब आँगन में आकर बैठ गए। सामने ही बहादुरसिंह भी बैठे थे। न वह इनकी ओर देखते थे और न यह उनकी ओर । इतने में वही ब्राह्मण पुनः दौड़ता हुआ आया और हाँफते हुए बोला, 'सरकार, दो कम्पनी फौज आई है। उसमें फिरंगी भी हैं। मिर्जा पाँच ने कुरान उठाकर कसम खाई है कि मरेंगे या मारेंगे।'
"सिवनाथसिंह की भृकुटी में बल आ गया। वह उठे, दरवाजे की ओर चले, फिर कुछ सोचा और पंडित से कहा, 'दरवाज़ा बन्द कर दो।
पंडित ने मन-ही-मन मुसकराते हुए द्वार बन्द कर दिया। इतने में फौज आ पड़ी। मकान घेर लिया गया। गोरे गाली देने और गोली बरसाने लगे। कुछ देर यह क्रम चला। सहसा बहादुरसिंह तलवार लिए उठे और झपटकर खिड़की से नीचे कूद पड़े। अब सिवनाथसिंह भी बैठे न रह सके, वह भी कूदे ।
फिर क्या कहना था। दोनों ने तलवार के वह हाथ दिखाए कि शत्रु मुँह के बल आ रहा। "उसी समय किसी गोरे की किर्च बहादुरसिंह के कलेजे में पार हो गई। एक दूसरे गोरे की गोली ने भी उसी समय उनकी कपाल-क्रिया कर दी। अब तो सिदनाथसिंह को और रोष हो आया। वह जी तोड़कर लड़ने लगे। इतने में एक तिलंगे की तलवार का ऐसा सच्चा हाथ उनकी गरदन पर पड़ा कि सिर छटककर दूर जा गिरा। एक बार तो सिपाही प्रसन्न हो उठे, परन्तु दूसरे ही क्षण यह देखकर उनके छक्के छूट गए कि कबन्ध वैसे ही तलवार चलाए और उनका नाश किए जा रहा है।"
कहते-कहते ब्राह्मण रुककर और फिर तीव्र स्वर में रूपचन्द की ओर उँगली उठाकर बोला, “जहाँ आप खड़े हैं, वहाँ एक तमोली की दुकान थी। सिवनाथसिंह यहाँ प्रायः पान खाते थे। कबन्ध भी तलवार घुमाते वहाँ पहुँचा जहाँ चौरा है और अभ्यासवश खड़े होकर उसने एक हाथ तमोली की ओर पसारा। 'अरे-बप्पा रे चिल्लाकर तमोली बेहोश हो गया। कबन्ध भी लड़खड़ाकर गिर पड़ा।"
रूपचन्द का चेहरा फीका पड़ गया। उसे बेहोशी आती जान पड़ी। फेंकू ने कहा, “तब से वहाँ रात-विरात खाने-पीने की चीज़ लेकर आनेवालों के हाथ से ठाकुर साहब छीन लेते हैं।"

रूपचन्द पूरा बेहोश हो गया। फेंकू को डकार आई और अधपकी मलाई की खट्टी-सी हलकी दुर्गन्ध वायु में व्याप्त हो गई। उधर गली के नुक्कड़ पर लावनी वाले गाए जा रहे थे-"सिवनाथ-बहादुरसिंह वीर का खूब बना जोड़ा!"

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7. रोम-रोम में वज्रबल


रोम-रोम में वज्रबल
रस्सी के अभाव में अपनी धोती से ही फाँसी लगाने के लिए रामरज से ही दीवार के ऊपर टँगी बालब्रह्मचारी हनुमानजी की तसवीर के सामने निर्वसन होने की कल्पना मात्र से गोदावरी लजा गई। उसे ऐसा करने में आत्महत्या से भी बढ़कर पाप प्रतीत होने लगा। वह चित्र की ओर देर तक एकटक देखी रही और तब निश्चय कर बैठी कि मैं हनुमानजी के सामने नग्न होकर फाँसी नहीं लगा सकती। इससे अच्छा तो छत पर से नीचे गली में कूद पड़ना है।
 छत का ध्यान आते ही वह कोठरी से बाहर निकली। मुँडेर पर चढ़कर नीचे झाँकते ही उसे झाईं आने लगी। वह डर गई और उधर से उसने अपना मुँह फेर लिया। मुँह फेरते ही उसे सामने गंगा की धारा बहती हुई दिखाई पड़ी। उसने सोचा कि गंगा में डूबकर भी प्राण दिया जा सकता है। उसे आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या का इतना सरल उपाय उसे अब तक क्यों नहीं सूझा था!
अब गोदावरी गंगा में डूबने चली। उसके जीवन में सूनेपन का विष शनैः-शनैः इतना अधिक घुल चला था कि वह प्रत्येक श्वास के साथ कड़वी निराशा पीने और निश्वास के साथ घूणा की दुर्गन्ध वमन करने लगी। वह स्पष्ट अनुभव करती थी कि जिस जीवन में स्नेह, सम्मान, धन आदि में से अहं की तृप्ति का एक भी सम्बल न हो, वह सचमुच मृत्यु है और ऐसे जीवन की मृत्यु ही वास्तविक जीवन। उसकी गिनती उन सुहागिनों में थी जिनका जीवन विधवाओं से भी अधिक दुर्वह होता है। तब उसने आत्महत्या का निश्चय किया। सर्वप्रथम उसने विष खाने की इच्छा की, परन्तु वह उसे मिल न सका; एक गज़ रस्सा के अभाव में वह फाँसी न लगा सकी: छत से कूदने में उसे भय लगता था। इसलिए वह गंगा में डूबने चली। माघ का सवेरा था। आकाश में घोर घटा छाई थी। सूर्य का दर्शन नहीं हो रहा था और तीर की तरह छेदती हुई तीखी हवा चल रही थी। फिर भी गोदावरी गंगा तट पर पहुँची। शीत की अधिकता के कारण दो-ही-चार स्नानार्थी इधर-उधर घाटों पर दिखाई पड़ रहे थे, घाट भी कम लगे थे, परन्तु और भी एकान्त स्थान की खोज में गोदावरी आगे बढती गई और दत्तात्रेय मन्दिर के नीचे से होती हुई भोसला घाट की सीढियाँ उतरी। यह देखकर कि घाट पर केवल दो आदमी है वह आश्वस्त हुई और उनके हट जाने की प्रतीक्षा में वह पानी में पैर लटकाकर अन्तिम सीढ़ी पर बैठी रही।
2.
गंगा में कमर-भर खड़े जीतू केवट ने पानी में छितनी छान, उसमें पड़ा कंकड़-पत्थर सीढ़ी पर उलट दिया और अपनी चपल परन्तु अभ्यस्त अँगुलियों से वह उस ढेरी में टटोलने लगा। धातु-खंड का स्पर्श होते ही उसकी संवेदनशील अंगुलि क्षण-भर रुकी। दूसरी अंगुली ने उसकी सहायता की और दोनों अंगुलियों ने मिलकर वह टुकड़ा उठाकर जीतू की आँखों को दिखाया। आँखों ने उस धातु-खंड का मूल्य आँका और बिचककर मुँह ने कह दिया, “बस, मद्धसाही!"
“का भयल, जीतू?" ऊनी कनटोप पर चारखाने का अंगोछा कसते और शरीर पर पड़ा कम्बल और भी कसकर लपेटते हुए ननकू घाटिये ने पूछा। मद्धसाही कान में खोंसते हुए जीतू ने परम असन्तुष्ट स्वर में उत्तर दिया, “न जाने केकर मुँह देखकर उठल रहली, गुरु। आज दमड़ी कऽ डौल नाहीं देखात। जाड़ा-पाला में घंटा-भर तऽ पानी में ऐंठन बीत गयल । एहर पेइ अइसन चंडाल हौ कि मानत नाहीं।"
“ई तऽ हई हौ! आज जर-जात्री के आवै कऽ तऽ कौनो लच्छन हौ नाही,हमहूँ घाट उठाय के घरे चल जाइत लेकिन बाबू सिबनाथ सिंह के आसरे बैठल हई। ऊ गंगा नहाए का नेमी हउअन। रोज हमरै घाट पर नहालन। लेकिन अब तोहऊँ पानी में से निकस आवऽ। बदरी कऽ हावा बेकार करी।" ननकू ने सहानुभूति-भरे स्वर में जीतू को समझाया। परन्तु जीतू पूरब की ओर से आते हुए एक बजड़े को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहा था। बजड़ा लहरों पर तिनके की तरह नाच रहा था। स्पष्ट जान पड़ता था कि वह कर्णधारों के काबू के बाहर हो गया है। फिर भी वे जी-जान से उसे किनारे लगाने का प्रयत्न कर रहे हैं। बजडे पर निगाह जमाए हए ही जीतू ने उत्तर दिया, “अब तऽ ओखरी ममूड़ पड़ी गैल हो, मसर के चोट से कहाँ तक डेराब?" जीतू की बात के जवाब में ननकू कुछ कहने ही जा रहा था कि जीतू की अष्ठवर्षीय पुत्री मछिया की आवाज़ सुन पड़ी, “हे बाबू, मूंड़ी हम खाब।" ठीक उसकी आवाज़ का पीछा करते हुए उसके बेटे झिंगवा का स्वर सुन पड़ा, “नाहीं बाबू, मूंडी हम खाब!" और आगे-आगे मछिया तथा उसके पीछे झिंगवा दोनों ही भागते हए आकर बाप के पास ऊपर सीढ़ी पर खड़े हो गए।
बजड़े की ओर से निगाह हटाकर जीतू ने अपने बेटे-बेटी की ओर मुँह किया और कहा, “घरे रहीं तऽ तूं लोगन कऽ भाई करेजा खाय। बहरे रहीं ता तु लोग मूंड चबाए दौड़ल आवाऽ। हमार जान तऽ बड़ी साँसत में हौ भाई!"
जीतू की आँख में कौतुक नाच रहा था, परन्तु उसके स्वर की कठोरता से झिंगवा डर गया और उसका चेहरा उतर गया। उधर मछिया की आँखों ने पिता की आँखों में विनोद का संकेत देखा। वह हँस पड़ी और अपने आँचल में से एक बड़ी-सी रोहू मछली निकालकर दिखाते हुए उसने कहा, "तोहार मूँडी नाहीं बाबू, रोहू कऽ मूंड़ी खाब!"
रोहू देखकर जीतू के मुँह में भी पानी भर आया। उसने पूछा, “एतनी बड़ी रोहू तैं कहाँ पाय गइली, मछिया?" -
“मम्मा के घर से आइल हो,” मातुल-गृह के गर्व से गलकर मछिया ने उत्तर दिया। जीतू ने भी सन्तुष्ट होकर आदेश दिया, “लेजो! अपने माई से कह दे कि एकर रसा बनावै। जो!"
मछिया और झिंगवा दोनों चले गए। लहरों पर उछलता हुआ बजड़ा घाट के समीप आ रहा था। जीतू ने ननकू से कहा, "सायके जुगुत त बइठ गयल, गुरु! अब एक सूकी मिल जाए तऽ पियहू कऽ ठेकाना हो जाता।"
इतने में बजड़ा किनारे लगा। उस पर सवार एक बंगाली यात्री ने पूछा,"झालर ठाकुर का घर कहाँ है?"
3.
गोदावरी घाट खाली होने की प्रतीक्षा करते-करते ऊब गई। घुटने तक उसके दोनों पैर पानी में थे। शरीर में सरद हवा लग रही थी, परन्तु उसके हृदय में जो आग जल रही थी उसकी आँच ज्यों-की-त्यों थी। उसने ननकू और जीतू की बातचीत सुनकर इतना समझ लिया कि दोनों ही अभाव-पीड़ित हैं। उनका पीड़ा से उसे यह सोचकर एक प्रकार का सन्तोष हआ कि विश्व में मैं ही अकेला अभावग्रस्त नहीं हैं।
जीतू और मछिया की वार्ता से उसकी सन्तोष-भावना कुंठित हो गई। पति-पुत्र से भरे गार्हस्थ जीवन का मनोरम चित्र उसकी आँखों के सामने खींच गया। उसके हृदय में टीस-सी उठी और जिस समय जीत ने स्नेह-गद्गद कठस अपनी पत्नी की चर्चा चलाई तो उस अज्ञात केवट-कामिनी के सौभाग्य पर गोदावरी का मन ईर्ष्या से तिलमिला उठा। उसने उस घाट से उठकर और भी एकान्त गंगातट खोजने का विचार किया। वह अपना विचार कार्यान्वित करने जा ही रही थी कि उसने एक बजड़ा किनारे लगते और उस पर सवार एक परदेशी को अपने पति का नाम लेते सुना। वह चुपचाप बैठी रह गई। उसने सुना कि जीत परदेशी से कह रहा है, “झालर ठाकुर नाही, झालर महाजन।"
"माँझी ठीक कहत हौ, जीतू! बंगालिन में पंडा के ठाकुर कहल जाला। तूं जनतऽ नाही?" ननकू घाटिए ने कहा। “वाह रे, हम नाहीं जानति! लड़कइयों में झाला गुरु के संघे हम गुल्ली-डंडा खेलले हई। अउर हमहीं ओन्हें नाहीं जानित? खूब कहलऽ, गुरु!" अपनी जानकारी पर आक्षेप हुआ समझकर जीतू ने ननकू को कुछ गरमाकर जवाब दिया। नवागन्तुक यात्री ने जीतू से फिर पूछा, "झालर उपाध्याय ठाकुर को क्या जानता?"
“का नहीं जानता? सब जानता," कहकर जीतू ने झालर उपाध्याय की हुलिया बताना आरम्भ किया, "सिर की जैसन हाथ गोड़ रहल, रूखा-सूखा चेहरा।"
जीतू के मुँह से अपने पति की आकृति का निरूपण सुनकर गोदावरी को स्मरण हो आया कि उसके पति कितने भोले-भाले और दुर्बल थे। अपने भोलेपन और दुर्बलता के कारण वह समूचे समाज की परिहास-वृत्ति के आलम्बन थे। उन्हें लोग अनायास चपत जमा देते। वह बेचारे सिर खुजलाते हुए इधर-उधर देखकर चुप हो जाते। उन्हें राह चलते कोई अड़गी देकर गिरा देता। वह धूल झाड़कर चुपचाप घर लौट आते। घर में भी पुरुष उनका अपमान करते और स्त्रियाँ उपेक्षा गोदावरी को सुना-सुनाकर लोग झालर की मूर्खता, शक्तिहीनता और अक्षमता पर व्यंग्य करते और गोदावरी मन-ही-मन जलती। आज जीतू के मुख से भी वही बात सुनकर उसके हृदय का सूखा घाव हरा हो गया। उसने सुना कि बंगाली यात्री जीत से कह रहा है, “नहीं, नहीं, हमारा ठाकुर दुर्बल नहीं, बड़ा बलशाली है।" “अरे ऊतऽ हनुमानजी कऽ दरसन पउले के बाद न। हम पहिले का हाल कहत हुई," जीतू बोला।
उधर फिर बिना रुके श्रद्धा-विगलित स्वर में ननकू भी बोल चला, “झालर महाराज का नियम था कि वह बिना संकटमोचन हनुमान का दर्शन किए अन्न नहीं ग्रहण करते थे। दो साल हुए, सावन के महीने में सूर्य-ग्रहण पड़ा। यजमान यात्री के चक्कर में उस दिन झालर को हनुमानजी के दर्शन का ध्यान न रहा । दिन भर के थके-माँदे झालर रात के नौ बजे घर आए। नहा-धोकर भोजन के लिए आसन पर बैठे। परन्तु ज्यों ही उन्होंने पहला ग्रास उठाया कि उन्हें स्मरण पड़ गया कि आज हनुमानजी का दर्शन नहीं किया। बस वहीं हाथ रोक उन्होंने  अपनी माँ से कहा, 'माँ, मेरी थाली देखती रह. मैं दम भर में दर्शन करके लौट आता हूँ। माँ ने उन्हें मना किया, परन्तु उन्होंने नहीं माना और घर से निकलकर संकटमोचन का रास्ता पकड़ा। जानते हो बाबू, संकटमोचन का मन्दिर नगर से डेढ कोस दूर है। दिन-दोपहर भी वहाँ कोई अकेले जाने की हिम्मत नहीं कर सकता। बीच में रामापुरा है जहाँ तीर-कमानधारी डोम दिन-दहाड़े बटमारी करते हैं। मन्दिर के चारों ओर घना जंगल है जिसमें भयंकर जंगली जानवर ही नहीं, बड़े-बड़े ज़हरीले साँप-बिच्छू भी रहते हैं। रास्ते में अस्सी का विकट नाला है। बरसात में तो उसकी यही दशा हो जाती है कि यदि उसमें हाथी भी पड़े तो चीथड़ा होकर बह जाए। खयाल करो बाबू, उसी मन्दिर की ओर भरी बरसात, अमावस की रात में दुर्बल ब्राह्मण अकेला चल पड़ा। बादल घिरे थे. बँदें पड़ रही थीं, रह-रहकर बिजली चमक उठती थी। और उसी के प्रकाश में ब्राह्मण अश्वमेध के घोड़े की तरह निर्द्वन्द्व दौड़ा चला जा रहा था। जहाँ उसे डर लगता वह जोर से चिल्ला उठता-
'खल दल वन दावा अनल राम स्याम घन मोर।
रोम-रोम में वज्रबल, जय केसरी किसोर!'
और फिर दूने वेग से अपने मार्ग पर अग्रसर हो जाता। इस प्रकार दौड़ते-दौड़ते जब झालर नाले के किनारे पहुँचे तो उन्होंने देखा कि नाला उमड़कर समुद्र हो रहा है। उसे पार करने का कोई साधन न देख उन्होंने धोती और दुपट्टा उतारकर एक पेड़ की डाल पर रख दिया। लंगोट के ऊपर अंगोछा कसकर कूदने के लिए उछले। परन्तु आगे न बढ़ सके। उनका हाथ पकड़कर किसी ने पीछे से खींच लिया। अपना हाथ छुड़ाने के लिए झटका देते हुए जब वह घूमे तो उन्होने देखा कि एक हट्टे-कटटे आदमी ने उनका हाथ कसकर पकड़ रखा है। उन्होने दयनीय मुद्रा से उसकी ओर देखा। उसने झालर से पूछा, 'क्या आत्महत्या करना चाहते हो?
नहीं, मैं हनुमानजी का दर्शन करने जा रहा हूँ.' झालर ने उत्तर दिया।नाले की प्रखर धारा की ओर इशारा करते हुए उस अज्ञात व्यक्ति ने झालर से कहा, 'इस धारा में हाथी भी अपना पैर नहीं जमा सकता। तुम्हारी तो हड्डी का भी पता न लगेगा।
'अब चाहे जो हो, मैं तो संकटमोचन का दर्शन किए बिना अन्न नहीं ग्रहण कर सकता। यही मेरा नेम है, अत्यन्त विनीत स्वर में झालर ने आगन्तुकलको समझाया।
 'अब तुम समझ लो कि तुम्हें संकटमोचन का दर्शन हो गया और लौट जाओ, अज्ञात व्यक्ति ने कहा। यदि झालर को अवसर मिला होता तो वह अब तक उस व्यक्ति के पास से भाग निकलते, परन्तु उसने तो उनका हाथ पकड़ रखा था। दिन-भर के परिश्रम से तो वह परेशान थे ही, उधर उनके उदर में क्षुधा ने भी लंका-दहन मचा रखा था। अतः स्वभाव के प्रतिकूल आज वह कुछ कड़े पड़ गए और झल्लाकर बोले, 'तुम्हारे कहने से समझ लूँ कि दर्शन हो गया! यहाँ हनुमानजी कहा हैं?
“परम दुर्बल और निरीह झालर को गरमाते देख वह व्यक्ति मुसकराया और धीरे-धीरे बोला, 'समझ लो, मैं ही हनुमानजी हूँ।' इस पर झालर एकदम बिगड़ उठे। उन्हें जीवन में पहली बार क्रोध हो आया। उन्होंने दाँत पीसते हुए कहा, 'सभी ऐरे-गैरे हनुमानजी बनने लगें तो हो चुका! तुम हनुमानजी हो तो प्रमाण दो।
" 'क्या प्रमाण लोगे?
 “यदि तुम हनुमानजी हो तो मुझे वही रूप दिखाओ जो उन्होंने सीताजी को दिखाया था। वही रूप-कनक भूधराकार सरीरा, समर भयंकर अति बल बीरा। कछ सोचकर झालर ने कहा।
" 'डरोगे तो नहीं?
" 'नहीं?'
“अच्छा, तो देखो,' उस व्यक्ति ने कहा और सहसा उसका शरीर लगा बढ़ने। ऐसा जान पड़ा मानो उसका सिर आकाश छू लेगा। झालर उपाध्याय ने भयवश आँखें मूंद ली और घिघियाकर उस व्यक्ति के चरणों में गिर पड़े।
"जब उन्होंने आँखें खोली तो देखा कि पहलेवाला आदमी उनके सामने खडा है। उस आदमी ने फिर कहा, 'बोलो, तुम मुझसे क्या चाहते हो? जो माँगोगे वही पाओगे।
"झालर को उसी दिन दोपहर की वह घटना स्मरण पड़ी जिसमें एक पंडे ने झापड मारकर उनसे रकम छीन ली थी, और वह सदा की भाँति दुम दबाकर वहाँ से हट गए थे। यह ध्यान आते ही उनके मुँह से सहसा निकला, 'आप बहती अपनी कानी अँगुली का बल मुझे दे दीजिए।
"हनुमानजी फिर मुसकराए और उन्होंने कहा, 'तुम्हारा कलियुगी कलेवर इतना बल न सह सकेगा। तुम अपना मुँह ऊपर उठाकर खोल दो। ना शक्ति-मुख ऊपर उठाया।
स्वाती के प्यासे पपीहे की तरह झालर ने अपना शुक्ति-मख ऊपर उठाया । हनुमानजी ने भी अपना रोआँ तोड़कर उनके मुख में डाल दिया। मुँह में रोआँ पड़ते ही झालर के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई और वह बायु वेग से दौड़ते हुए घर वापस आए। आते ही वे चौक में घुस पड़े और थाली में रखा भोज्य-पदार्थ दोनों हाथों से उठा-उठाकर मुह में ठूसने लगे। थाली का सामान समाप्त होने पर उन्होंने चौके में बचे सामान में हाथ लगाया और जब वह भी समाप्त हो गया तो 'भूख-भूख' चिल्लाते हुए वह भंडार में घुस गए आर आटा दाल, चावल जो भी चीज़ सामने आई सब भक्षण करने लगे।"
ननकू की बात सुनते-सुनते गोदावरी को उस रात की घटना स्मरण हो आई। झालर के उस अद्भुत आचरण से लोगों को 'ऊपरी फेर' का भ्रम हो गया। लोगों ने उन्हें भंडार में घुसा देख बाहर खिड़की लगा दी थी और झालर रात-भर भंडार में अन्न-ध्वंस करते रहे थे। उधर ननकू कहता जा रहा था-
हाँ बाबू, सवेरा होने पर झालर इसी घाट पर वह जो टेढ़ी मढी खडी है उसी पर हाथ टेककर खड़े हो गए। यही मढ़ी तब बिलकुल सीधी थी। लोगों ने समझा की यह वही रोनेवाला झालर है। कोई-कोई बोली भी काटने लगे। एक ने कहा, 'गुरु, तनी सँभार के, कहीं तोरे धक्के से मढ़ी न लोट जाए।' उस बखत झालर महाराज तो आपे में थे नहीं। सो उन्होंने गरजकर कहा, 'ई बात!' और मढ़ी पर जो उन्होंने अपने शरीर का दबाव दिया तो मढ़ी अरराकर झुक चली। देखने वाले लोग 'बाप, बाप' चिल्लाकर भागे। यह देख झालर महाराज बड़े जोर से हँसे और पत्थर का एक टकडा उठाकर मढी के नीचे रख दिया। मढ़ी उस पर आज तक रुकी खड़ी है। इसके बाद उन्होंने किलकिलाकर विकट ध्वनि की और उछलकर गंगा की बाढ में कद पडे। इसके बाद क्या हए, कहा कोई नहीं जानता।"
"इसके बाद वह कहाँ गए, मैं जानता हूँ" आगन्तुक बंगाली बोला।
“आप जानते हो?" आश्चर्य से ननकू ने कहा। उधर प्रत्येक लोमकूप को कान बनाकर आगन्तक बंगाली का उत्तर सुन आतुर हो गई। आगन्तुक भी कहने लगा-
"मेरे बड़े भाई मुर्शिदाबाद के राजा के दीवान हैं। राजा साहब भी झालर ठाकुर के यजमान हैं। यही दो वर्ष पहले सावन का महीना था। सवेरे का दरबार लगा था कि झालर ठाकुर पानी से तर केवल एक अंगोछा पहने दरबार में घुस पड़े औऱ राजा साहब से कहा कि 'मैं भूखा हूँ।' राजा ने ही नहीं, हम सभी ने यही समझा कि ठाकुर का मस्तिष्क विकृत है। परन्तु उन्हें कष्ट न होने पाए,यही सोंचकर हमने उनके निवास और रसद का प्रबन्ध कर दिया। थोड़ी ही देर में भंडारी ने आकर सूचना दी कि ठाकुर ने केवल आटा ही डेढ़ मन ले लिया है और उपले की ढेरी में आग दहकाकर उसी आटे का मोटा-मोटा लिट्टी बना उसमें सिद्ध कर रहे हैं । यह सुनकर हम सबको निश्चय हो गया कि ठाकुर पागल हो गए। परन्तु राजा साहब को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने अपने मुसलमान महावत को बुलाकर कहा कि वह हाथी लेकर ठाकुर की ओर जाए और वह उधर न आने के लिए चाहे जितना कहें, उनकी एक न माने।
“महावत ने तुरन्त आदेश का पालन किया। वह हाथी लेकर ठाकुर की ओर बढ़ा। ठाकुर उस समय भोजन कर रहे थे। वह हाथी उधर न लाने के लिए हाथों के इशारों से बार-बार हूँ-हूँ' करने लगे, परन्तु जब हाथी न रुका तो उन्होंने लिट्टी का एक बड़ा टुकड़ा तोड़कर उसी से हाथी को मारा। हाथी 'पें-पें' करता हुआ उलटे पैर भागा। जब महावत ने राजा साहब को इसकी सूचना दी तो वह ठाकुर के पास गए और उनसे निवेदन किया कि 'मेरे उद्यान में कहीं से गैंडा आ निकला है। हम लोगों ने उसे उसी में साल-भर से बन्द कर रखा है। उसके कारण मेरा सुन्दर उद्यान नंष्ट-भ्रष्ट हो रहा है। आप हमारा संकट दूर कर दें।' ठाकुर ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली। हम सब लोग महल में से होकर उद्यान के ऊपरी खंड में जा बैठे। ठाकुर ने उद्यान का साल-भर से बन्द दरवाज़ा एक ठोकर मारकर तोड़ गिराया और भीतर प्रवेश कर गैंडे को ललकारा । गैंडा भी उद्यान में मानुस-गन्ध पाकर बफरता हुआ सामने आया। उसके सामने आते ही ठाकर बिजली की तरह उस पर झपटे। उसका एक पिछला पैर उन्होंने अपने पाँव से दबाकर दूसरा पैर हाथ से ऊपर उठाया और जैसे बजाज  कपड़े का थान फाड़ता है वैसे ही उसे फर्र से चीरकर दो-टूक कर दिया। तत्पश्चात वह बैठकर गैंडे का रक्त चुल्लू में भरकर वेदमन्त्रों से अपने पितरों का तर्पण करने लगे। उन्होंने राजा साहब को भी उसी से तर्पण कराया और इसके पश्चात वहाँ से विदा हो गए।"
आगन्तुक बंगाली की बात सुनकर जीतू और ननकू दोनों स्तब्ध हो उठे। गोदावरी की निस्तेज आँखों में भी चमक आ गई। इतने में आगन्तुक ने पुनः पूछा, "ठाकुर का कोई लड़का नहीं है?"
"नहीं, उनकी धर्मपत्नी है," ननकू ने उत्तर दिया।
"धन्य है, धन्य है। मैं उस साध्वी के दर्शन करूँगा जिसे ऐसा देवता पति मिला," श्रद्धा-विगलित होकर यात्री ने कहा।

गोदावरी की छाती गर्वस्फीत हो उठी। उसके भूखे अहं को भोजन मिला और वह पानी में से पैर निकाल उठ खड़ी हुई और घर लौटने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।

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6. अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी


अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी
राजघाट पर पुराने किले के खंडहर में पड़ी ब्रिटिश फ़ौज की छावनी में सुबह होते ही तहलका-सा मच गया। सभी भयभीत हो उठे। बात भी असाधारण थी। रात को दस बजे अन्तिम ‘राउंड' लगाकर स्थानीय सैनिक-टुकड़ी के सर्वोच्च अधिकारी मेजर बकले भले-चंगे अपने शिविर में सोने गए। परन्तु सुबह अपनी कुर्सी पर मरे पाए गए।
मेजर बकले अभी बिलकुल तरुण थे और अपने अफसरों तथा मातहतों दोनों के प्रिय पात्र। इस बार छुट्टी में घर जाने पर उनका विवाह भी होनेवाला था। ऐसे सुखी आदमी द्वारा आत्महत्या की बात की तो कल्पना ही नहीं थी। इसलिए लोग मेजर की मृत्यु में किसी रहस्य की कल्पना कर रहे थे। उनके शरीर पर किसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र का घाव भी नहीं था। बाहर पहरे पर खड़े सन्तरी का बयान था-"मेजर साहब रात बहुत प्रसन्न थे, प्याले-पर-प्याला चढ़ाए जा रहे थे और भर्राए गले से 'व्हेन सैली केम इनटू द गार्डेन' (उपवन में जब सैली आई) गाए जा रहे थे। एक बार बाहर आकर मुझसे कहा कि 'मैं एक ज़रूरी पत्र लिखने जा रहा हूँ। तुम राउंड लगाने में खड़-बड़ करके डिस्टर्ब (अशान्ति) मत करना।' फिर वह भीतर जाकर पत्र लिखने लगे। बारह का घंटा बजने के ठीक बाद ही एक बार भीतर 'क्लैरा, क्लैरा' कहने की आवाज़
आई और किसी चीज़ के गिरने का धमाका हुआ। फिर सब शान्त हो गया। मैंने समझा कि मेजर साहब नशे में शायद कैम्प-बेड (शिविर शय्या) से गिर पड़े और फिर चुपचाप सो गए।"
मेजर के कैम्प में उनके उच्च सहयोगी उनकी लाश के इर्द-गिर्द कुरसियों पर बैठे थे। मिलिटरी सर्जन ने शव-परीक्षण के पश्चात् हृदय की गति बन्द हो जाने से मृत्यु की घोषणा कर दी। कप्तान गोवर ने यथासम्भव मुखमुद्रा विषाद, मलीन हुए कहा, “इस ट्रैजेडी (त्रासद दुखजनक घटना) में इतनी ही सन्तोष की क इस अपनी वाग्दत्ता के विश्वासघात का कड़वा प्याला नहीं पीना पड़ा।"

लेफ्टिनेंट हिल ने अपनी काहिल आँखें गोवर की आँखों से मिलाते हुए आश्चर्य-भरे स्वर से पूछा, "अच्छा?" "हाँ," गोवर ने कहा, "आज ब्राइटन से मेरे एक मित्र का पत्र आया है। वह एम.पी. (पार्लमेंट का सदस्य) है। उसी ने क्लेरिसा कीर्टिग से ब्याह किया है।"
“जो चिटठी लिखते-लिखते मेजर मरे हैं, उसे पढ़ना चाहिए। शायद हदय की गति बन्द होने के कारण का पता चल जाए।" फ़ौजी सर्जन ने कहा। गोवर ने भी स्वीकृति दी। हिल ने टेबल पर से चिट्ठी उठा ली और उसे रुक-रुककर पढ़ने लगा-
फ़ोर्ट, राजघाट
   बनारस
सितम्बर, 1858
"मेरे हृदय की रानी,
वेस्लियन मिशन के फादर मोनियर के हाथ तुमने जो चिट्ठी भेजी थी वह मुझे मद्रास में ही मिल गई। परन्तु मुझे उसी वक़्त कर्नल नील के साथ उत्तर भारत के लिए रवाना होना पड़ा। तुम्हीं समझो यह मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य था कि तुम्हारा चिर-प्रतीक्षित पत्र मेरे हाथ में हो और मुझे उसे खोलने तक का अवकाश न मिले! फिर भी मैंने उसे चूमा-बार-बार चूमा। मगर कीट्स की तरह मैं भी यह नहीं बता सकता कि चुम्बनों की संख्या फोर (चार) थी या एस्कोर (एक कोड़ी)। फिर इस समय भी पुरवा हवा चल रही है। मैं इसे चूम रहा हूँ। शायद मेरा चुम्बन यह तुम्हारे पास तक पहुँचा दे।
इस गरम मुल्क में रहने के बावजूद अत्यन्त स्वस्थ और प्रसन्न हूँ।
“गदर बिलकुल दबा दिया गया। अब हम लोग विद्रोहियों को दंड देने के बहाने हिन्दुस्तानियों को ऐसी सीख दे रहे हैं कि वे सैकड़ों वर्ष तक सिर न उठा सकेंगे। सचमुच कर्नल नील बड़ा बहादुर आदमी है। वह जैसा बहादुर है वैसा ही बुद्धिमान। उसने यहाँ सड़क की दोनों पटरियों पर सैकड़ों 'टाइबर्न' (लन्दन में वह स्थान जहाँ उन दिनों मृत्यु-दंड-प्राप्त अपराधियों की सजा सार्वजनिक रूप से कार्यान्वित की जाती थी) बना दिए हैं। वह अपने साथ फ़ौज और रस्सियों के हज़ारों टुकड़े लेकर चलता है। सड़क पर जहाँ कोई नेटिव (भारतवासी) दिखाई पड़ा कि फिर उसकी खैर नहीं। वह बूढ़ा हो या जवान, तुरन्त पकड़ लिया जाता है। रस्सी के एक टुकड़े से उसका हाथ पीछे बाँध दिया जाता है और दूसरा टुकड़ा गले में बाँधकर सड़क के किनारे किसी वृक्ष की डाली से उसे लटका देते हैं। यह वस्तुतः मज़ेदार चीज़ होती है-ऊपर हवा में पाँच मिनट अद्भुत नृत्य होता है और नीचे हम लोग 'इन ऑनर ऑफ ओल्ड इंग्लैंड' (वृद्ध इंग्लैड की प्रतिष्ठा के लिए) 'थ्री चीयर्स' देते (तीन बार हर्ष-ध्वनि करते) हैं।
"कल्पना करो, और इस दृश्य का मेरी ही तरह आनन्द लो। फ़ौज की एक टुकडी के साथ मुझे यहाँ छोड़ कर्नल नील कलकत्ता गया है।
हम लोग यहाँ एक खंडहर में रहते हैं, जिसे यहाँ वाले अब तक किला ही कहते हैं। यह शहर भी अजीब है, यहाँ के बहुत पुराने नगरों में है। मुसलमान जिस पज्य दृष्टि से मक्का, यहूदी फ़िलस्तीन और ईसाई यरूशलम या रोम को देखते हैं, इस नगर के प्रति हिन्दुओं की दृष्टि उससे भी अधिक श्रद्धा-सम्पन्न है। मेरे एक सिविलियन दोस्त ने मुझे बताया है कि यहाँ के लोग बड़े ही 'टर्बुलेंट' (दर्दान्त) हैं; वे गम्भीर बातों पर विज्ञतापूर्ण दृष्टि से मुसकराते हैं और छोटी-छोटी बात पर लड़ मरते हैं।
“गत सप्ताह की बात है। मेरी रेजिमेंट का कार्पोरल ब्लिस रात में चुपके से शहर चला गया था। यहाँ ब्रिटिश सैनिक प्रायः रात को छावनी से भाग जाया करते हैं। हम अफ़सर लोग भी इसमें कोई अन्याय या अनीति नहीं समझते। मानव-स्वभाव को कुछ छूट देनी ही होगी। खैर, सवेरे ब्लिस भटककर नगर के 'इंटीरियर' (भीतरी भाग) में जा पहुंचा।
“यहाँ यह बात जान रखनी चाहिए कि यहाँ की गलियाँ बड़ी ही तंग, गन्दी और बड़ी ही चक्करदार हैं। ऐसी ही एक गली में घुसकर ब्लिस ने देखा कि एक दुकान पर छोटी-छोटी, गोल-गोल, पीली-पीली कई चक्करवाली कोई मिठाई एक बहुत बड़े बरतन में भरे हुए रस में तैयार हो रही है। एक आदमी लोहे के किसी लम्बे औज़ार से उन्हें उसमें उलट-पुलट कर बाहर निकाल एक दूसरे बरतन में रखता जाता है।
"ब्लिस को भख लगी थी। उसने पैसा निकालने के लिए एक हाथ पैंट का जेब में डाला और दसरा हाथ मिठाई पर। बेचारे के दोनों हाथ फँसे थे। इतने में मिठाईवाले ने उसी गरम रस में सने लोहे के औज़ार को ब्लिस के सिर पर मारा। ब्लिस सिर बचा गया. परन्तु औज़ार कनपटी पर पड़ा और उसका कान कट गया। कोई नेटिव होता तो घबराकर वहीं 'कलैप्स' कर (ढेर हो) जाता। उसने 'रिट्रीट' (पलायन). इसे रिट्रीट तो नहीं कह सकते, इस प्रकार की 'सार्टी' (कावेबाजी) से काम लिया और गलियों का व्यूह भेदते हुए छावनी वापस आ गया। परन्तु फिर बाद में वह उस गली का न पहचान सका जहाँ उक्त दुर्घटना हुई थी। नहीं तो हम लोग हलवाई को कच्चा ही चबा जाते।
"प्रिये, पत्र लम्बा हुआ जा रहा है। पर क्या करूँ, लिखने का अवसर तो कम मिलता है। अब तक मैंने औरों के बारे में लिखा है। अब कुछ अपने बारे में भी लिखूँगा।
“जैसा मैं पहले लिख चुका हूँ, यह देश बड़ा विचित्र है और उसमें भी इस बनारस का तो कहना ही क्या! यहाँ आकर मैं भयंकर उलझन में फँस गया हूँ। हैमलेट' में किंग ऑफ़ डेनमार्क (डेनमार्क के राजा) का प्रेत जैसे अपनी कब्र से निकलता है वैसे ही यहाँ एक बुढ़िया भी गोर से बाहर निकलने के लिए बेचैन है। आधी रात होते ही वह कल कब्र से बाहर निकली थी। जिसे छोटी-सी मस्जिद में उसका मज़ार है वह भी उसकी बनवाई हुई है। दो बजे रात तक मस्जिद के खुले सहन में वह टहलती और गाती रही। सब तो समझ में नहीं आया, लेकिन गीत की पहली पंक्ति स्पष्ट सुन पड़ी-'अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी!' (हाउ ग्रैंड इज़ दाइ मॉस्क, ओ लॉर्ड!)
"प्रिय क्लैरा, पढ़कर चौंकना मत। यह औरत बेतरह मेरे पीछे पड़ी है। यह जानकर डरना भी मत कि मेरे ही हुक्म से परसों सुबह छह बजे इसे गोली मारी गई थी। यह बड़ी विचित्र औरत थी। इसकी कहानी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। इससे तुम समझ सकोगी कि 'नेटिव' (देशी) औरतें 'लव अफेयर्स' (प्रेम-प्रपंच) में कितनी बुद्धिहीन होती हैं। सच तो यह है कि इन्हें प्रेम करना और उसे निबाहना आता ही नहीं।
"इस औरत का नाम रकिया था और मृत्यु के समय उम्र 58 साल। यह मुलतानी नाम से भी मशहूर है। 'अपने एक 'लव इंट्रीग' (प्रेम-प्रपंच) में इस अपनी नाक गँवानी पड़ी थी। इससे इसकी आकृति बड़ी भयावह हो उठा।
इसके बारे में मुझे जो पता लग सका है उसके अनुसार वह लड़कपन महा किसी को दिल दे बैठी थी, परन्तु वह आदमी इसकी पहुँच से बहुत ऊच था। विवाह की तो बात ही क्या, वह उसके सामने भी नहीं पहुँच सकती थी। दूत ओर, स्वभाव से अमाजान (चंडी) होने के कारण इसने किसी भी पुरुष से विवाह कर सहचरी का परावलम्बी पद ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया। सुनता है। उसके पास प्रचुर रूप था। बड़े-बड़े लोग उसे पत्नी का सम्मानित पद देना चाहते थे परन्तु उसने सबका प्रस्ताव ठुकरा दिया और स्वेच्छा से अनैतिक जीवन बिताती रही।
तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा कि यह औरत भी झाँसी की रानी की तरह गदर को आजादी की लड़ाई मानती थी। इसीलिए गदर के दिनों में यह फैनेटिक (हिंस्र और कट्टर) हो उठा थी। यद्यपि बनारस में गदर का जोर नहीं था, परन्तु कुछ अंग्रेज  अधिकारियों की कमज़ोरी से बड़ी गड़बड़ी मची। अंग्रेजों में भगदड़ पड़ गई वे  नावों पर बैठ-बैठकर चुनार की ओर चले इस नगर की यह भी विचित्रता है कि यहाँ पर हमारा राज्य होते हए भी एक दूसरा आदमी यहाँ का राजा कहलाता है। सुना है, परन्तु सबूत नहीं मिलता कि इसी राजा के बाप ने अपने किले के नीचे नदी में अंग्रेजों से भरी कई नावें डबा दीं। हम लोगों ने उसे फाँसी दे दी होती, पर जैसा कि कह चुका हूँ, सबूत नहीं मिलता।
उस घाट पर डूबनेवाली अभागी नौकाओं में से एक मिस्टर बेंटले नामक एक अंग्रेज व्यापारी का भी परिवार था। बनारस में उन्होंने मुलतानी को अपने बच्चों की आया नियुक्त कर रखा था। उस परिवार की अन्तिम यात्रा में मुलतानी भी उनके साथ थी। नाव डूबी, परन्तु यह बच गई। यह एक बार भी कह देती कि अमुक व्यक्ति की आज्ञा से नाव डूबाई गई और तट की ओर तैरनेवालों पर गोली चलाई गई, तो हमारा सारा काम बन जाता। लेकिन रकिया बड़ी जिद्दी औरत थी। सभी वैज्ञानिक यन्त्रणाएँ दी गई, परन्तु उसका एक ही जवाब था- मैं नहीं जानती, नाव कैसे डूबी'।"
“सुना था, उसी नाव पर झालर नाम का एक हिन्दू 'क्लर्जी' (पुरोहित) भी सवार था। वह बहुत खोज करने पर गिरफ़्तार किया जा सका। यहाँ के हिन्दू क्लर्जी साधारणतया बहुत तगड़े और बातूनी होते हैं परन्तु झालर अत्यन्त दुर्बल और ‘इम्बेसाइल' (मूढ़) निकला। उसे यह भी नहीं याद है कि उसकी नाव कभी डूबी भी थी। लाचार होकर उसे रिहा करना पड़ा। लेकिन वह औरत! उसका रोऑ-रोआँ विद्रोही था।
“जीवन-भर रकिया समाज-विद्रोह कर जीती रही और अन्त में राज्य-विद्रोह कर मरी।"
"बनारस से होकर जानेवाली विद्रोही सेना के स्वागत में इसने बनियों को भड़काकर कुओं में चीनी-भरे बोरे डालकर शरबत तैयार कराया था। इतनी ही बात पर इसे सौ बार गोली मारी जा सकती थी। परन्तु बड़ी मछलियाँ हाथ लग सकें, इसलिए मैंने इसे बहुत समझाया कि राजा के बाप प्रसिद्धनारायणसिंह के बारे में तू जो कुछ जानती है, सचमुच बता दे, मैं तेरी जान बचा दूंगा। मेरी बात सुनकर उसने कोई जवाब नहीं दिया; खड़ी-खड़ी मुसकराती रही। उसके नाक-कटे मुँह पर वह मुसकान सचमुच बड़ी भीषण थी। दोपहर का समय था, चारों ओर सशस्त्र सन्तरियों की भीड़ थी। फिर भी एक बार में डर गया, तथापि मैंने अपनी बात जारी रखी। आखिर मेरी बात सुनते-सुनते वह तैश में आ गई। अपना शैतान चेहरा और भी भीषण बनाकर उसने कहा, 'कैसी बात करते हो, साहब! कुछ देर के लिए तुम अपने को औरत समझ लो और फिर सोचो कि जब तुम दस बरस के थे उस समय किसी ने तुम्हारी जान बचाई। उसी दिन तुमने उसे दिल दे दिया. सारी उमर उसी की याद में बिता दी। आखिरी उमर में किसी ने तुमसे अपने माशूक के खिलाफ गवाही देने के लिए कहा। अब तुम्हीं कहो, क्या तुम सचमुच बयान दे सकोगे?'
“ अपनी जान सबको प्यारी होती है, उसे बचाना कौन न चाहेगा? मैंने कहा।
 'सात समुन्दर तेरह नदी पार तुम्हारे देस में ऐसा होता होगा, लेकिन यहाँ तो कोई जहाँगीर भी आए और मेरे माशूक के खिलाफ मुझसे कुछ कहलाकर मुझे नूरजहाँ भी बनाना चाहे तो भी मैं तख्ते-हिन्दुस्तान को ठोकर मार दूं।
"इस बेहूदा और बदसूरत बुढ़िया को अपनी तुलना नूरजहाँ से करते सुनकर मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा, 'क्या जान बचाने के लिए भी नहीं
" “जान-जान क्या करते हो? जान तो एक दिन जाएगी ही,' उसने शेरनी की तरह दहाड़ते हुए कहा। मुझे भी उसकी गुस्ताखी पर गुस्सा आ गया।
"मैंने कहा, 'तुम्हारी जान कल ही जाएगी-सुबह ठीक छह बजे गोली मारकर। प्राणदान के सिवा जो इच्छा हो बताओ, पूरी कर दी जाएगी।
" 'मेरी कोई इच्छा आज तक पूरी नहीं हुई। कोई कर ही न सका। तब तुम क्या करोगे? फिर भी, उसने अपनी बनवाई हुई मस्जिद की ओर इशारा करके कहा, 'अगर तुमसे हो सके तो मुझे जुमेरात तक जीने दो। मैंने यह महजिद बड़े चाव से बनवाई, लेकिन कूढ़मगज मुल्ला ने फतवा दे दिया कि कसब की कमाई से बनी महजिद में मुसलमान को नमाज न पढ़ना चाहिए। खैर, कोई बात नहीं। मुझे दो-चार रोज और जीने दो, जमेरात को मैं वहाँ नमाज पढ़ लूं। उसी दिन ईद है, अपनी महजिद में मैं खुद रतजगा कर लें, फिर सुबह तुम खुशी से गोली मार देना। उसी महजिद में मैंने अपनी कब्र भी तैयार करा रखी है।
" 'अब कुछ नहीं हो सकता, हुक्म बदला नहीं जा सकता,' मैंने कहा। 'तब तुमने मेरी ख्वाहिश क्यों पूछी? झूठे कहीं के। लेकिन तुम भी इतना जान रखो कि मैं ईद की रात अपनी महजिद में जरूर नमाज पढ़ंगी और जरूर-जरूर रतजगा करूंगी। तुम मुझे रोक नहीं सकते, उसने कहा और इसके बाद हँसते हुए और 'अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी' गाते हए वह सिपाहियों के पहरे हवालात में चली गई।
"परसों सुबह उसे गोली मार दी गई, उसे मिट्टी भी दे दी गई। फिर भी जैसा कि में ऊपर लिख चुका हूँ, वह रात में मस्जिद में टहलते और गाते देखी गई । जिस सिपाही ने मुझे पहले यह खबर दी उसे मैंने डाँट दिया। परन्तु अपनी आँख और कान पर मैं कैसे अविश्वास करूं?
"प्रिय क्लैरा! आज ही ईद है। मस्जिद के ठीक सामने अपने कैम्प में बैठा हआ यह चिट्ठी मैं तुम्हें लिख रहा हूँ। रात के बारह बजना ही चाहते हैं। समूचे कैम्प में सन्नाटा छाया हुआ है। हवा साँय-साँय चल रही है। आसमान में चाँद नहीं है, तारे खूब खिले हैं। लो, सन्तरी ने बारह का घंटा भी बजा दिया, और वह देखो, मस्जिद के सहन में नकटी बुढ़िया ने भी चहलकदमी शुरू कर दी। उसके नकिया-नकियाकर गाने की आवाज़ मेरे कानों में आ रही है। अरे, आज यह क्या? वह शैतान मस्जिद से निकलकर मेरे कैम्प की ओर आ रही है। कितनी जल्दी-जल्दी आ रही है वह! लो, वह दरवाजे पर पहुँच गई! शायद सूअर का बच्चा मेरा सन्तरी सो गया। क्लैरा-क्लेरा, मुझे बचाओ! मेरी हालत खराब हुई जा रही है। अरे, वह तो कमरे में आ गई! इसका गाना सुनकर मेरा खून पानी हुआ जा रहा है। बन्द कराओ, बन्द कराओ, मेरा गला घुट रहा है। बन्द कराओ इसका यह गाना-“अल्ला तेरी महजिद...!"

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5. आए, आए, आए


आए, आए, आए

उस दिन ज्ञानवापी की आलमगीरी मस्जिद के मुअज़्ज़न ने भिनसहरी रात नमाज़ियों को जगाने के लिए मीनार पर चढ़कर अज़ान नहीं दी, गंगा-स्नान करके नवस्थापित विश्वनाथ मन्दिर में जानेवाले दर्शनार्थियों ने 'हर हर महादेव शम्भो' की ध्वनि
से नीचे गली नहीं गँजाई, पहरेदार ने भी 'जागते रहो, चार बजा है' चिल्लाकर मुहल्ले का फाटक खुलवाने के लिए अन्तिम रौंद नहीं लगाया, परन्तु मस्जिद के सामने वाले दोमंजिले मकान के बरामदे में टँगा हुआ तोता प्रतिदिन के अभ्यासवश ठीक समय पर बोल उठा, “राधेश्याम, राधेश्याम!"
पिंजरे के ठीक नीचे पड़ी तीन पैर की चारपाई पर बिछी जीर्ण कन्था पर लेटे वृद्ध और अन्धप्राय चित्रकार रामदयाल की ऊँघती आँखें कीर-कूजन से खुल गईं। उसने मुँह के आगे हाथ लगाकर जमुहाई ली और फिर चुटकी बजाते हुए स्वयं भी बोल उठा, “राधेश्याम, राधेश्याम!"
उसे फिर जमुहाई आई। मुँह बाए और उस पर हथेली लगाए ही उसने अस्पष्ट शब्दों में कहा, “आज भी अमीरन न आई तो...:" और जमुहाई का क्रम अटूट-सा हो गया।
टिकियावाली बुढ़िया अमीरन का गत तीन दिन से पता न था, इसीलिए उसके ग्राहक घबरा उठे। जाड़ा हो, गरमी हो, बरसात हो, टिकियावाली अमीरन बिना नागा अपने गिने-चुने ग्राहकों के लिए छोटी-सी टोकरी में टिकिया और अम्बरी
तम्बाकू लेकर नगर की प्रदक्षिणा करने सूर्य के साथ ही निकल पड़ती। उसकी ताज़ी कुरकुराती टिकियों और खुशबूदार नशीली तम्बाकू के चाहक हाथ में चिलम और टिकिया धराने के लिए चिलम में रखा अंगारा फूंक से जिलाते हुए टिकियावाली
की प्रतीक्षा में अपने घरों से निकल आए रहते।
टिकियावाली भी सुँघनी रंग का चूड़ीदार पाजामा और हरे रंग का कुरता पहने, सिर पर गेरुए रंग की चादर डाले, एक हाथ से लठिया टेकते और दूसरे हाथ से कमर के सहारे टोकरी सँभाले अपनी जर्जर जूतियाँ चटकाती आती। आतुर ग्राहक के सामने पहुँच हाँफते हुए लाठी पर टेक देकर खड़ी हो जाती, चबूतरे या सीढ़ी पर टोकरी रख देती और कानों में पड़ी चाँदी की छोटी-छोटी आध दर्जन बालियों में प्रभाती पवन के कारण उलझे श्वेत केशों को चाँदी के ही छल्लों से गूँथी कम्पित और शीर्ण अंगुलियों से सँवारती हुई क्षण-भर दम लेती। फिर सिल पर कूँचकर मँह में जमाया ज़र्दपान जीभ से गाल की ओर हटा देती। खखारकर गला साफ करने का प्रयत्न करती और हँसकर चुटकी बजाते हुए, फूटे परन्तु सधे गले से गा उठती-
"पिया आवन की भई बेरिया
दरवजवाँ लागि रहूँ।"
तत्पश्चात कौड़ी-दो कौड़ी की टिकिया बेच आगे बढ़ जाती। उसकी इन मुद्राओं पर उसके ग्राहक मुसकरा देते। कभी-कभी कोई उसी-जैसा बुड्ढ़ा ग्राहक यह भी कह बैठता, “बीबी, अब तो तुम्हारी वह उमर नहीं रही, नहीं तो लोगों को कुछ और ही शक हो जाता।" डाँटने का अभिनय करती हुई अमीरन जवाब देती, “मियाँ बुड्ढे हुए, लेकिन अकल न आई। सच तो यह है कि जिनकी शक के लायक उमर नहीं रही उन्हीं पर सबसे ज्यादा शक करना चाहिए।" इस पर कोई और बोल उठता, “यह कानून बनाओगी तो तुम भी शक से रिहाई न पा सकोगी।" वह उसे भी चमकाती हुई कहती, “हमारी फिक्र न करो। हम औरतों को शक का रास्ता बचाकर चलने का अभ्यास होता है।" और इस जवाब के बाद सिवा झेंपकर हँसने के बात आगे बढ़ाने का रास्ता न रह जाता। उसके चले जाने के बाद वहाँ एकत्र लोगों में निर्मूछिए कहते, “बेहया है," अधेड़ कहते, “बेलौस है,” बुड्ढ़े कहते, “जोगिन है" और स्वयं अमीरन पूछने पर कहती, “मैं क्या थी, यह भूले जुगों बीत गए। अभी आगे चलकर क्या हो जाऊँगी, यह अल्लाह ही जानता है। अलबत्ता मैं इतना ही जानती हूँ कि मैं इस बखत चाहू।" इस पर भी यदि कोई कहता कि “अच्छा यही बताओ कि तुम इस वक्त क्या हो,” तो उसके मुखमंडल पर विचित्र गम्भीरता छा जाती। वह धीरे-धीरे कहती, "मैं घर-घर अलख जगानेवाली भैरवी हूँ।"
2.
बरामदे से संलग्न कोठरी में चित्रकार की पत्नी कृष्णप्रिया भी जाग चुकी थी और बिछौने पर लेटे-ही-लेटे गुनगुना रही थी-“जागिए ब्रजराज कुँवर पंछी सब बोले।”
सवेरा हो चुका था। रामदयाल को भ्रम हुआ कि कोई उसका दरवाजा खटखटा रहा है। उसने अपनी पत्नी को पुकारा, "अजी सुनती हो, उठो दरवाजा खोलो। शायद अमीरन आ गई।"
 तुम तो जैसे रात-भर अमीरन का ही सपना देखते रहे हो," कहते कहते कृष्णप्रिया उठी और बरामदे में आकर गली के नीचे झाँका। किसी को न देख उसने कहा, "क्या अमीरन को अपनी जान भारी पड़ी है कि वह इस खन-खराबी में घर से बाहर निकले?"
“वही तो," बूढ़े चित्रकार ने कहा, “परन्तु क्या करूँ? अमल बुरी चीज है। देखो, कोने-अन्तरे में अगर थोड़ी-बहुत तम्बाकू पड़ी हो तो मुझे दे दो।
जो कुछ था सब समाप्त हो गया, अब तुम्हीं खोजो,” उसने कहा और फिर भुनभुनाने लगी, “दंगे का दिन है, अड़ोसी-पड़ोसी भी भाग गए हैं, नहीं तो उन्हीं से सवेरे-सवेरे भीख माँगती।"
असहाय रामदयाल ने पत्नी के वचन सुने और यह जानते हुए भी कि अभीप्सित वस्तु मिलनेवाली नहीं, उसने एक कोने में हाथ बढ़ा टटोलना आरम्भ किया। वह जो कुछ खोज रहा था वह तो हाथ न लगा, परन्तु उसका हाथ अपनी ही बनाई हुई एक तसवीर पर पड़ गया। चित्र पर हाथ पड़ते ही उसकी हथेली एक बार पुनः वैसे ही जलने लगी जैसे सत्ताईस वर्ष पूर्व यही चित्र चुराने के अभियोग में अग्नि-परीक्षा के अवसर पर जलते हुए लौह गोलक से वह जली थी। उसने तत्काल चित्र पर से हाथ खींच लिया, परन्तु बुझी आग धधक चुकी थी। उसने स्मृति के धुएँ में स्पष्ट देखा-
जमुना का किनारा है और किनारे काली मिट्टी के एक टीले पर फूँस से छाई हुई एक झोंपड़ी। झोंपड़ी की चूना-पुती भीत पर कोयले के छोटे-से टुकड़े से बारह-तेरह वर्ष का एक बालक एक बालिका का चित्र बनाने के प्रयत्न में तल्लीन है। लड़का गत बारह घंटे से भूखा है, परन्तु चित्र-रचना के आगे उसे क्षुधा भी भूल गई है। उसकी पीठ पर तीखी धूप पड़ रही है, परन्तु उसे इसकी चिन्ता नहीं। उसी समय उसी की तरह धुन की पक्की सात-आठ वर्ष की एक लड़की एक हाथ में मट्ठे से भरा लोटा और दूसरे में पत्ते में लपेटा नमक, मिर्च और मोटी-मोटी दो रोटियाँ लिए, बालू में झुलसते पैरों की ओर से सर्वथा लापरवाह जल्दी-जल्दी वहाँ आई। लड़के के पीछे खड़ी होकर आदेश के स्वर में उसने कहा, "हंस, पहले इसे खा ले, चित्र पीछे लिखना!"
लड़का चौंक पड़ा। लड़की को देखकर बोला, “काका देख लेंगे तो बिना पीटे न छोड़ेंगे।"" किंकिनी खिलखिलाकर हँसी। उसने कहा, "काका तो खा-पीकर चौपाल में पडे नागलीला बाँच रहे हैं। मैं देखकर तब आई हैं। विरथा परिश्रम काहे करते  हो? तुमसे मेरी तसवीर न बन सकेगी।" और उसने लोटा तथा पत्ते सहित रोटी उसके सामने रख दी। पुनः तत्काल ही प्रश्न किया, “तुम काका से इतना डरते क्यों हो?"
बप्पा कह गए हैं कि गरीबों को अमीरों से डरना चाहिए" हंस ने कहा।
किंकिनी फिर हंसी । उसने पूछा, “इसी से तुम मेरे घर कभी नहीं आते?" “हाँ” सिर झुकाए हंस ने कहा और सहसा अपनी चमकीली आँखें किंकिनी के चेहरे पर जमाकर बोला, "मैं तुम्हारी तसवीर जरूर बनाऊँगा।” “अच्छा, पहले खा लो!" किंकिनी बोली। हंस खाने लगा। किंकिनी ने वार्ता आगे बढ़ाई।
"अच्छा. जब मेरा ब्याह हो जाएगा और मैं अपने घर जाऊँगी तब तुम वहाँ आना। आओगे न?"
हंस ने कहा, "हूँ!"
किकिनी कहती गई, “तुम्हारे बप्पा के मर जाने के बाद यहाँ तो अब तुम्हारा कोई और रहा नहीं। वहाँ तुम्हें बड़े सुख से रखूगी। ऐसे ही नदी-किनारे कोठेदार घर होगा। सामने अमराई होगी। पीछे फूलों का बगीचा होगा। वहाँ मैं दौड़-दौड़कर
तितली पकडूंगी। तुम बैठकर मेरी तसवीर बनाना। अच्छा, बप्पा ने तुम्हें मेरे यहाँ आने से मना क्यों कर दिया?"
किंकिनी की प्रत्येक बात पर हंस हूँ', "हूँ' करता जाता था। इस प्रश्न  पर भी उसे यही करना पड़ा। कारण, उसे ज्ञात न था कि उसके कथावाचक पिता ने यह जानकर कि मैं स्वयं पुत्र का नाम परमहंस रख देने के सिवा उसे और कुछ न दे जा सकूँगा, वंश-गौरव के बल पर नम्बरदार से उसकी बेटी माँगी थी और धनमत्त नम्बरदार ने अपमानपूर्वक प्रस्ताव ठुकरा दिया था। उसके घर से लौटकर आत्मग्लानि में गले पिता भगवती ने स्वप्न में भी नम्बरदार की देहली न लाँघने का आदेश पुत्र को दे दिया।
हंस का भोजन समाप्त हो गया। वह नदी पर जाकर पानी पीने और लोटा माँजने के लिए उठ खड़ा हुआ, किन्तु किंकिनी ने पहले ही लोटा उठा लिया और वह नदी की ओर दौड़ चली। उसने बालू से रगड़कर लोटा माँजा, पानी भरा और लौटने के लिए घमी किपास ही खड़ा एकमात्र नाव पर से एक लम्बा-चौड़ा बलवान व्यक्ति किनारे कूदा। उसने एक हाथ से किंकिनी का मुँह बन्द कर दिया और दूसरा हाथ उसकी कमर में डाल उसे उठाकर वह नाव में चला गया।
किंकिनी के हाथ से छूटा लोटा लुढ़ककर पानी में जा गिरा। पाँच सात मिनट बाद नाव खुल गई।
हंस टीले पर खड़ा किंकिनी हरण देखता रहा। सहसा उसे अपने पीछे कुछ लोगों के आने की आहट लगी। उसने सुना कि नम्बरदार अपने पियादे से कह रहा है "रामदयाल, पैर पर ऐसी लाठी मारना कि सदा के लिए लँगडा हो जाए। बालक समझकर तरह मत दे जाना।" रामदयाल की क्रूरता से परिचित हंस जल्दी से पार्श्ववर्ती पलाशवन में भागा । भागते-भागते कई कोस निकल गया। थककर एक स्थान पर गिर पड़ा। घंटे भर पड़े रहने के बाद एक पथिक ने उसे उठाकर उससे उसका नाम पूछा। नशे में चूर आदमी की तरह हंस ने कहा "ऐं, मेरा नाम रामदयाल है।"
इसके बाद उस गाँव में किंकिनी का शब्द फिर कभी न सुनाई पड़ा। हंस तो सदा के लिए उड़ ही गया।
2.
"कोने में आँख फाड़-फाड़कर क्या देख रहे हो?" चित्रकार की पत्नी ने पूछा।
"कुछ नहीं," अपनी भावना में खोए हुए चित्रकार ने उत्तर दिया, परन्तु उसने अपनी आँखें कोने की ओर से नहीं हटाईं। उसकी स्मृतियाँ उसके मानस-चक्षु के सामने विचित्र-विचित्र चित्र प्रस्तुत कर रही थीं और जन्मजात चित्रकार उन चित्रों की ये खूबियाँ बारीकी से निहार रहा था-
नवाब अस्करी मिर्जा का दरबार नित्य की तरह गुलों-बुलबुलों से महक-चहक रहा। अस्करी मिर्जा एक मसनद पर टेक दिए अधलेटे-से थे। उनके गोरे-गोरे हाथ-पाँवों में कलापूर्ण ढंग से मेंहदी सजाई हुई थी। छल्लेदार जुल्फें मसनद पर बिखरी पड़
थीं। सामने अफीम की पीनक में झूमते-बैठते ख्वाजा फसीह एक शेर का मतला माँजते जा रहे थे। उन्हीं के पार्श्व में मिरजई पहने और सिर पर भारी पगड़ी बाँध 'दिव्य' कवि डटे थे। उन्होंने हाथ बाँधकर कहा-"खुदाबन्द! श्रीमती नई बेगम साहिबा के रूप की परसंसा में मैंने एक सवैया रची है, मरज़ी होय तो अरज़ करू।
“अभी नहीं। यह मुसव्विर रामदयाल हैं। इन्हें मैंने दिल्ली से बुलाया है, मिर्जा ने कहा, और चित्रकार से पछा. "सफर में तकलीफ तो नहीं हुई।
यथोचित उत्तर-प्रत्युत्तर के बाद नवाब ने कहा, "मैंने अपनी नई बेगम की तसवीर बनाने के लिए आपको बुलाया है। आपने भी शायद उनका नाम सुना है। बनारस में क्या, दूर-दर तक उनके नाचने-गाने की धूम थी।" नवाब समाप्त भी न कर पाए थे कि एक मुसाहिब ले उड़े; बोले, "तलवार की धार पर वह नाचे, बताशे पर फिरकी की तरह वह घूमे, सिर पर पानी-भरी थाली रख धमा-चौकड़ी मचाए और क्या मजाल कि एक बूंद भी छलके!"
"अच्छा, बकिए मत," नवाब ने मुसाहिब को डाँटा और खड़े होकर मुसव्विर ने कहा, "आप मेरे साथ आइए।" मुसव्विर और नवाब साथ-साथ ज़नाने महल में जा रहे थे और नवाब कह रहे थे, "बेगम को आपकी कलम बहुत पसन्द
है। उन्हीं की ज़िद थी कि तसवीर बनवाऊँगी तो उस्ताद रामदयाल से ही।"
एक बाहरी आदमी के साथ नवाब को महल के भीतर आते देख बाँदियाँ आश्चर्यचकित हो गईं। नवाब ने एक दासी से कहा, "बेगम से कह दो कि उस्ताद रामदयाल आए हैं । गुनियों से क्या परदा!" बेगम ने सुना तो दौड़ी आईं, परन्तु चित्रकार को देखकर स्तब्ध हो गईं। उनके मुँह से निकला, "हंस!"
चित्रकार की भी वही दशा थी, उसके मुँह से भी निकल पड़ा, “किंकिनी!"
दोनों एक-दूसरे की ओर एकटक देखते रहे। नवाब ने पूछा, “क्या आप लोग एक-दूसरे को पहले से पहचानते हैं?" रामदयाल चुप रहा।
"हाँ भी, नहीं भी," बेगम ने प्रकृतिस्थ होकर कहा, "हाँ यों कि हम दोनों हीं इसलिए कि मैं यह नहीं जान पाई थी कि
आप ही उस्ताद रामदयाल हैं।"
"हंस-किंकिनी क्या?"
“एक रागिनी का नाम है," हँसकर बेगम ने कहा, “उसी से तो हम दोनों ने एक ही बार मुलाक़ात रहने पर एक-दूसरे को इतनी जल्दी पहचान लिया। मैंने हंस-किंकिनी रागिनी गाई थी। इन्होंने मजाक में कहा था कि हंस के पैर में किंकिनी बाँध दी जाएगी तो वह निश्चय शिकारी के तीर का शिकार बन जाएगी।"
"ओह!" नवाब ने कहा था।
“ओह!' चित्रकार के मुँह से निकला। उसकी पत्नी ज़ोर से उसका कन्धा हिला रही थी।
ओह! मस्जिद के दक्षिणवाला हनुमानजी का मन्दिर मुसलमान तोड़ रहे हैं। इसके बाद वे हम लोगों पर टूट पड़ेंगे। मैं पहले ही कहती थी कि घर छोड़कर कहीं हट चलो!"
इतना हल्ला क्यों करती हो?" चित्रकार ने झल्लाकर कहा, “आज सत्ताईस वर्ष से मैं बाहर नहीं निकला। अब आज बाहर निकलकर दुनिया को क्या मुँह दिखाऊँगा?"
4.
गोरों और तिलंगों को लेकर सैंडल साहब आ गए। अब जान बच जाएगी, शान्ति की साँस लेकर चित्रकार ने पत्नी से कहा।
चित्रकार की पत्नी ने जिसे 'जैंडल साहब' समझा वह वास्तव में बर्ड थे। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर बर्ड ने आते ही दंगाइयों को फुर्र से उड़ा दिया। इतने में उसकी निगाह ऊपर बरामदे में खड़े वृद्ध दम्पती की ओर गई। उसने समझा कि ये असहायता के कारण नहीं भाग सके हैं। उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना उसने अपना कर्तव्य समझा। बरामदे के नीचे आकर उसने रामदयाल को कुछ दिन के लिए किसी सुरक्षित स्थान में चले जाने के लिए समझाना आरम्भ किया, परन्तु रामदयाल के पास एक ही जवाब था-“साहब, सत्ताईस बरस में मैं एक बार भी घर से बाहर नहीं निकला। इस उम्र में मेरी प्रतिज्ञा भंग न कराइए।"
लाचार होकर बर्ड चला गया। चित्रकार की पत्नी अपने पति पर पुनः हँसने लगी, “क्यों नहीं चले गए? साहब इतना समझा रहा था। बेमौत मरने से क्या लाभ?"
"बेमौत कोई नहीं मरता," चित्रकार ने झल्लाकर उत्तर दिया, “बेमौत मरना होता तो मैं मिर्जा अस्करी के ही हाथों कभी का मर चुका होता; सत्ताईस बरस से चोरी के कलंक का बोझ न ढोता।"
"परन्तु तुमने तो तसवीर नहीं चुराई थी।"
"बहुत दिन तक मैं भी यही समझता था कि मैंने तसवीर नहीं चुराई, परन्तु इधर विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि जो कुछ मैंने किया वह मेरी अधमता ही थी।"
"मुझे तो तुमने कभी कुछ बताया नहीं।"
"कोई यज्ञ तो किया नहीं था जो तुमसे कहता! वह सब सोचने से भी दुख होता है।"
"फिर भी?"
चुप रहो।"
रामदयाल ने पत्नी को चुप करा दिया, परन्तु स्वयं उसका मन चुप न रह सका। वह उससे बार-बार चुपके-चुपके कहने लगा, 'कह क्यों नहीं देते कि...'
'तम्बाकू में अफ़ीम की पुट देनेवाली यह टिकियावाली अमीरन तेरी बाल्यसंगिनी किंकिनी है। यही किसी समय काशी की प्रसिद्ध वेश्या अमीरजान थी। अपने रूप और गुण के बल पर वह नवाब अस्करी मिर्जा की बेगम भी होगई थी। परन्तु पूस का एक अँधेरी रात में, जबकि बिजली चमक रही थी और मूसलाधार पानी बरस रहा था, वह झाड़ मारकर नवाब के महल से निकाल दी गई थी। उसका अपराध यही था कि उसने बचपन के एक साथी को पहचान लिया था। उसकी कला पर मुग्ध हो गई थी और पति की वस्तु होते हुए भी उसका बनाया चित्र अपना समझकर तुझे ही पुरस्कार में दे दिया था; तूने उसे स्वीकार कर किकिनी का दूसरी बार सर्वनाश किया। क्योंकि नवाब ने यह सूचना पाकर भरी महफ़िल में कहा था, "बेगम बनने पर भी बाजारी बू नहीं गई।" और उन्होंने ऋषीश्वर भट्ट को चित्र का स्वामी बनाकर तुझ पर चोरी
का अभियोग लगाया। तेरे दम्भ ने तुझे सत्य का दर्शन न होने दिया। तूने चोरी करना अस्वीकार किया, तेरा हाथ जला और तू सदा के लिए घर में मुंह छिपाकर बैठा रहा। कह दे, अपनी पत्नी से यह सब कह दे। तेरा भी बोझ उतर जाए!'
रामदयाल पत्नी की तरह मन को न डाँट सका। उलटे स्वयं अपराधी की तरह उसने बिना बोले ही कहा, 'यह जानता तो दिल्ली से न आता!' मन ने पुनः टोका, 'यहाँ आने में तूने कोई भूल नहीं की। भूलें की हैं तूने यहाँ आकर जब तू चित्र बनाकर नवाब के पास गया तो उनके यह कहने पर कि "बेगम का रंग बहुत उजला है, आपने यह रंग क्यों दिया," तू चुप क्यों नहीं रह गया? और यदि बोला भी तो यह क्यों कह बैठा कि रंग सफ़ेद नहीं है, किन्तु इस भूरे और फीके केसरिया रंग के साथ आकाशीय नीले रंग का जो सम्मिश्रण है उसकी शोभा का आनन्द रसिक वैष्णव ही जानते हैं। यह तेरी पहली भूल थी। दूसरी भूल तूने अमीरन से तसवीर लेते समय की। उससे वार्ता करने में तूने ख़याल न किया कि दरवाज़े से कान लगाए नवाब की बड़ी बीवी मुलतानी बेगम एक-एक शब्द सुन रही है।
चित्रकार को वे बातें स्मरण हो आईं। वह बेगम के पास रात्रि के समय प्रथम बार एकान्त में आया था। पूर्व-व्यवस्था के अनुसार बेगम उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसने उसे देखते ही कहा था-"तुमने तो वास्तव में बड़ी उन्नति की है हंस, याद है तुमने मुझे इसका वचन दिया था?" कहते-कहते उसका स्वर आर्द्र हो उठा था। वह गद्गद गले से बोली थी-“देखा, नारी का प्रेम पुरुष को उन्नत बनाता है, परन्तु पुरुष का प्रेम नारी को गिराता है।"
किंकिनी अपूर्व रूपशालिनी थी। वह आदर्श प्रतिमा थी, जिस पर कलाकार जान देते थे। सौ दीपकोंवाले झाड़ के उज्ज्वल प्रकाश में हंस किंकिनी को एकटक देख रहा था। उसने उत्तर नहीं दिया, स्वयं एक क़दम आगे बढ़ा। दो कदम पीछे हटते हए किंकिनी बोली, “आगे मत आओ, पतन की ओर न बढ़ो । मैं लाल-लाल आँखों के पहरे में रहकर अस्पृश्य हो गई हूँ।"
इस बार हंस का मुँह खुला। वह बोला, “ललाई की तलछट को हरियाली कहते हैं।" वह पुनः आगे बढ़ा। बाहर से किसी के ठठाकर हँसने की आवाज आई। किंकिनी ने तसवीर उठाकर हंस के हाथों में देते हए कहा कि और जल्दी चले जाओ।" हंस ने चित्र लिया और तत्काल ही चोर-दरवाजे में अदृश्य हो गया।
सोचते-सोचते रामदयाल के समक्ष मुलतानी का चित्र खड़ा हो गया।
मुलतानी के शरीर में सौन्दर्य के अनेक उपादान थे, परन्तु भेद-वृद्धि ने उन्हें ढंक रखा था। नाक के दोनों ओर स्थूल कपोल और अधरोष्ठ तथा चिबुक के नीचे एकत्र वसा का स्मरण आते ही रामदयाल ने घृणा से मुँह बिचका लिया और तत्काल ही अत्यन्त आवेश में आ अपनी अंगुलियों के बढ़े हए नखों पर अँगूठा फेरकर उनकी प्रखरता परखते हुए वह ज़ोर से बोल उठा, “यदि इस समय मुलतानी सामने होती तो अंगुलियों से उनकी आँखें निकाल लेता और नहीं तो मुँह का मांस नोच डालता।"
वैष्णव कलाकार ही मुखमुद्रा अत्यन्त हिंस्र हो उठी। पत्नी ने सत्ताईस वर्ष बाद जीवन में दूसरी बार पति का यह स्वरूप देखा। वह डर गई। किसी ने नीचे दरवाजा खटखटाते हुए कहा, “दरवाज़ा खोलो, मैं मुलतानी हूँ।"
5.
मुलतानी रामदयाल के सामने पहुँची। रामदयाल ने देखा कि सामने ग्यारह-बारह वर्ष की एक मैली-सी लड़की छींट का गन्दा कुरता-पाजामा पहने रटे हुए तोते की तरह कहती जा रही थी-
बुआ अमीरन बहुत बीमार है। उन्होंने कहा है कि मैं अब कुछ दम की ही मेहमान हूँ। क्या आप मेरे घर कभी न आइएगा? बुआ ने यह भी कहा है कि समझाकर कह देना कि मैं अपने घर की बात कर रही हूँ, उन घरों का नहीं जहाँ से कोई मुझे भगा या उठा ले जा सकता हो।"
"तुम बड़ी बहादुर हो मुलतानी, दंगे में भी घर से निकल पडी हो!"
"इसमें बहादुरी क्या है?" मुलतानी ने कहा, “सडक पर तो लोग चल-फिर रहे हैं। अलबत्ता, गली-कूचों में कहीं-कहीं लडाई हो रही है। मगर मेरा नाम मुलतानी नहीं, रकिया है। मैं नन्हें खाँ की लड़की हूँ।"
"तमने तो मुलतानी बताया था?'
"ओहो, वह तो अमीरन बुआ सभी पाजी लड़कियों और औरतों को मुलतानी पुकारती हैं। मेरी शराफ़तों से उन्होंने मेरा नाम मुलतानी रख दिया है," रकिया उर्फ मुलतानी ने कहा।
 रामदयाल चुपचाप उठ खड़ा हुआ। उसने एक चीथड़ा-सा कन्धे पर डाल लिया. टटोलकर लकड़ी उठा ली, फिर रकिया से कहा, चल!"
कृष्णप्रिया चुपचाप बैठी सब देख-सुन रही थी। अब उससे न रहा गया। उसने उठकर पति का हाथ पकड़ा, फिर पूछा, “कहाँ जा रहे हो?"
अमीरन के यहाँ,” भर्राए स्वर में रामदयाल ने कहा। कृष्णप्रिया ने क्षण-भर पति का मुख ध्यान से देख फिर हाथ छोड़ दिया। रामदयाल ने एक हाथ से रकिया का कन्धा पकड़ा और दूसरे से लाठी ठकठकाता हुआ घर से निकल गया।
वह पग-पग ठोकर खाता था, गिरते-गिरते बचता था, फिर भी आतुरतापूर्वक चलता जा रहा था। सहसा 'दीन, दीन' के नारों से एक बार उसके कान सुन्न-से हो गए। रकिया सकपकाकर रामदयाल से सट गई। इतने में ही दस-पन्द्रह आदमियों ने दोनों को घेर लिया। रामदयाल ने मन-ही-मन कहा, 'अब सचमुच मौत आ गई। आध घंटा बाद आती तो प्रसन्नता से स्वागत करता।' “मुसलमान की लड़की भगाए लिए जा रहा है। देखते क्या हो, मारो!" एक दंगई ने कहा।
दूसरे दंगई ने लड़की का हाथ पकड़कर उसे खींच लिया। उसके सहारे खड़ा चित्रकार मुँह के बल ज़मीन पर आ रहा। नाक और बचे-खुचे दाँत टूट गए।चेहरा रक्तरंजित हो गया।
सहसा दंगाइयों में भगदड़ मच गई। एक तेजस्वी तरुण ने तलवार से उन पर आक्रमण कर दिया था। क्षण-भर तो दंगई ठहरे, परन्तु तरुण की सहायतार्थ बरकन्दाज़ों की पलटन आते देख वे भाग खड़े हुए। तरुण ने आहत चित्रकार से कहा, “जहाँ कहो, तुम्हें भेज दूं। मैं काशी-नरेश का भाई प्रसिद्धनारायण हूँ।"
 "भगवान आपका भला करे," पुनः पार्श्व में आकर खड़ी रकिया के कन्धे पर हाथ रखते हुए कलाकार ने कहा, "मैं तो इस लड़की के साथ जाऊँगा।" तरुण चला गया। वे दोनों भी अपनी राह चले।
सहसा एक झोंपड़ी की चौखट पर चित्रकार को खड़ा करती रकिया ने कहा, “आप इसमें जाइए। बगल में मेरा घर है। अपने घर जाती हूँ।"
रकिया अपने घर चली गई। दुविधा में पड़ा रामदयाल चौखट पर खड़ा रहा। उसने सुना कि भीतर अमीरन वायु के प्रकोप में गाने का प्रयत्न कर रही है-“मोरे मन्दिर अजहूँ नहीं आए!"
अमीरन के स्वर में तेज का प्रकाश नहीं रह गया था। उसकी जगह करुणा की आर्द्रता आ गई थी। रामदयाल सुनने लगा-
"मैं का हाय करूँ मोरी आली,
किन सौतिन बिलमाए!"
उसने आलाप लेने का प्रयत्न किया। गिटकिरी भरना चाहा, परन्तु भीषण हिचकी आई। केवल इतना ही सुन पड़ा-“आए, आए, आए।"
रामदयाल अब न रुक सका। वह लपककर भीतर घुसा। उसने पुकारा, "किकिनी!"
परन्तु किंकिनी मौन पड़ गई थी। उसकी आँखें खुली थीं और उसके मुख पर विजय-गर्व की मुसकान थी।
कोठरी में स्वर गूंज रहा था-'आए, आए, आए!'
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हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

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