1.कवि और कविता - महावीर प्रसाद द्विवेदी


यह बात सिद्ध समझी गयी है कि अच्छी कविता अभ्यास से नहीं आती । जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्दा होता है वहीं कविता कर सकता है। देखा गया है कि जिस विषय पर बड़े-बड़े विद्वान अच्छी कविता  नहीं कर सकते उसी पर अपढ़ और कम उम्र के लड़के कभी-कभी अच्छी कविता लिख देते हैं। इससे स्पष्ट है कि किसी-किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती है ,ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी । वह निरर्थक नहीं हो सकती । इसमें समाज को कुछ न कुछ लाभ अवश्य पहुँचता है। अतएव कोई यह समझता हो कि कविता करना व्यर्थ हेै तो वह इसकी भूल है, हाँ कविता के लक्षणों से च्युत तुले हुए वर्णों या मात्राओ की पद्य नामक पंक्तियाँ व्यर्थ हो सकती हैं । आजकल पद्यमालाओं का प्राचुर्य है। इससे यदि कविता को कोई व्यर्थ समझे तो आश्चर्य नहीं होगा ।
                   कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि उसे सुनकर सुनने वाले पर कुछ असर न हो । कविता से दुनिया में आजतक बहुत बड़े -बड़े काम हुए हैं । इस बात के प्रमाण मौजूद हैं अच्छी कविता सुनकर कवितागत रस के अनुसार दुख शोक क्रोध करुणा और जोश आदि भाव पैदा हुए बिना नहीं रहते । जैसा भाव मन में पैदा होता है कार्य के रूप में फल भी वैसा ही होता है। हम लोगों में पुराने जबाने में भाट चारण आदि अपनी कविता ही की बदौलत बीरता का संचार कर देते थे। पुराणादि में कारुणिक प्रसंगो का वर्णन सुनने और उत्तररामचरित आदि दृश्य काव्यों का अभिनय देखने से जो अश्रुपात होने लगता है वह क्या है? वह अच्छी कविता का ही प्रभाव है ।
    संसार में जो बात जैसी दीख पड़े कवि को उसे वैसी ही वर्णन करना चाहिए। उसके लिए किसी तरह की रोक या पाबन्दी का होना अच्छा नहीं। दबाव से कवि का अंश दब जाता है। उसके मन में जो भाव आप ही आप पैदा होता हैं उन्हें जब वह निडर होकर अपनी कविता में प्रकट करता है तभी उसका असर लोगों पर पूरा-पूरा पड़ता है। बनावट से कविता बिगड़ जाती है। किसी राजा या किसी व्यक्ति विशेष के गुण-दोषोको देख कर कवि के मन में जो भाव उद्भूत हों उन्हे यदि वह बेरोक-टोक प्रकट कर दे तो उसकी कविता हृदयद्रावक हुए बिना ना रहे, परन्तु परतन्त्रता या पुरस्कार प्राप्ती या और किसी कारण से, यदि उसे अपने मन की बात कहने का साहस नहीं होता तो, कविता का रस जरूर कम हो जाता है।इस दशा से अच्छे कवियों की भीरविता नीरस, अतएव प्रभावहीन हो जाती है। सामाजिक और राजनीतिक बिषयों में कटु होने के कारण, सच कहना भी जहॉं मना है वहॉं इन बिषयों पर कविता करने वाले कवियों के उक्तियों का प्रभाव क्षीण हुए बिना नहीं रहता। कवि के लिए कोई रोक न होनी चाहिए अथवा जिस बिषय पर रोक हो उस बिषय पर कवित ही न लिखनी चाहिए। नदी, तालाब, वन, पर्वत, फूल, पत्ती, गरमी, सरदी आदि के ही वर्णन से उसे संतोष करना उचित है।
खुशामद के जमाने में कविता की बुरी हालत होती है। जो कवि राजों नबाबों या बादशाहों के आश्रय में रहते हैं, अथवा उनको खुश करने के इरादे से कविता करते हैं, उनको खुशामद करनी पड़ती है। वे अपने आश्रयदाताओं की इतनी प्रशंसा करते हैं,इतनी स्तुति करते हैं कि उनकी उक्तियाँ असलियत से बहुत दूर जा पड़ती हैं। ससे कविता को बहुत हानि पहुँचती है। विशेष करके शिक्षित और सभ्य देशों में कवि का काम प्रभावोत्पादक रीति से यथार्थ घटनाओं का वर्णन करना है। आकाश-कुसुमों के गुलदस्ते तैयार करना नहीं। अलंकार शास्त्र के आचार्यों ने अतिशयोक्त एक अलंकार जरूर माना है परन्तु अभावोक्तियाँ भी क्या कोई अलंकार है, किसी कवि की बेसिर-पैर की बातें सुनकर किस समझदार आदमी को आनन्द-प्राप्ति हो सकती है¿ जिस समाज के लोग अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते हैं वह समाज कभी प्रशंसनीय नहीं समझा जाता ।
             कारणवश अमीरों की झूठी प्रशंसा करने,अथवा किसी एक की विषय की कविता में कवि समुदाय के आमरण लगे रहने से कविता की सीमा कटछँट कर बहुत थोड़ी रह जाती है। इस तरह की कविता उर्दू में बहुत अधिक है। यदि यह कहें कि आशिकाना (श्रृंगारिक) कविता के सिवा और तरह की कविता उर्दू में है ही नहीं,तो बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। किसी दीवान को उठाइए, किसी मसनबी को उठाइए,आशिक-माशूकों को रंगीन रहस्यों से आप उसे आरम्भ से अन्त तक रंगी हुई पाइएगा। इश्क भी यदि सच्चा हो तो कविता में कुछ असलियत आ सकती है। पर क्या कोई कह सकता है कि आशिकाना शेर कहने वालों का सारा रोना, कराहना,ठंडी साँसे लेना,जीते जी अपनी कब्रों पर चिराग जलाना सब सच है¿ सब न सही,उनके प्रलापों का क्या थोड़ा सा भी अंश सच है¿ फिर,इस तरह की कविता सैकड़ों वर्षों से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके,जिन्होंने इस विषय पर न मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा में नये कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं¿ वही तुक,वही छन्द, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक। इस पर भी लोग पुरानी लकीर को बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त,सवैये,घनाक्षरी,दोहे-सोरठे लिखने से बाज नहीं आते। नख-शिख, नायिका-भेद,अलंकारशास्त्र पर पुस्तकों पर पुस्तकें लिखते चले जाते हैं।अपनी व्यर्थ बनावटी बातों से देवी-देवताओं तक को बदनाम करने से नहीं सकुचाते। फल इसका यह हुआ है कि कविता की असलियत काफूर हो गई है। उसे सुनकर सुनने वाले के चित्त पर कुछ भी असर नहीं होता उल्टा कभी मन में घृणा का द्रेक अवश्य उत्पन्न हो जाता है।
            साहित्य के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है। यह बरबाद हो जाता है। भाषा में दोष आ जाता है। जब कविता की प्रणाली बिगड़ जाती है तब उसका असर सारे ग्रन्थकारों पर पड़ता है। यही क्यों,साधारण तक की बोलचाल तक में कविता के दोष आ जाते हैं। जिन शब्दों जिन भावों, जिन उक्तियों का प्रयोग कवि करते हैं उन्हीं का प्रयोग और लोग भी करने लगते हैं। भाषा और बोलचाल के सम्बन्ध में कवि ही प्रमाण माने जाते हैं, कवियों ही के प्रयुक्त शब्दों और मुहावरों को कोशकार अपने कोशों में रखते हैं, मतलब यह है कि भाषा और बोलचाल का बनना और बिगड़ना प्रायः कवियों के हाथ में ही रहता है। जिस भाषा के कवि अपनी कविता में बुरे शब्द और बुरे भाव भरते रहते हैं, उस भाषा की उन्नति तो होती नहीं, उल्टी अवनति हो जाती है ।
            कविता प्रणाली के बिगड़ जाने पर कोई नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निन्दा करते हैं। कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते हैं यह बड़ी भद्दी कविता है। कुछ कहते है यह कविता ही नहीं। कुछ कहते है कि यह कविता तो छन्दोदिवाकर में दिये लक्षणों में च्युत है अतएव यह निर्दोष नही। बात यह है कि जिसे अब तक कविता कहते आते हैं वहीं उनकी समझ में कविता है और सब कोरी काँव-कांव। इसी तरह की नुक्ताचीनी से तंग आकर अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सान्तवना की  है वह कहता है कविते यह बेकदरी का जमाना है। लोगों के चित्त तेरी तरफ खिंचने तो दूर रहे उल्टी सब कहीं तेरी निन्दा होती है। तेरी बदौलत सभा समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना प़ड़ता है । पर जब मैं अकेला होता हूं तो तब तुझपर मैं घमण्ड करता हूँ। याद रख तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं वे निर्धन होकर भी आनन्द से रह सकते हैं पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद जरूर चूर्ण हो जाता है।
                        गोल्डस्मिथ ने इस विषय में बहुत कुछ कहा है पर हमने उसके कथन का सारांश बहुत ही थोड़े शब्दों में दे दिया है। इससे प्रकट है कि नई कविता प्रणाली पर भृकुटी टेढ़ी करने वाले कवि प्रकाण्डों के कहने की कुछ भी परवाह न करके अपने स्वीकृत पथ से जरा भी इधर-उधर होना उचित नहीं। कई बातों से घबराना और उनके पक्षपातियों की निन्दा करना मनुष्य का स्वभाव सा ही हो गया है। अतएव नयी भाषा और नयी कविता पर यदि कोई नुक्ताचीनी करे तो कोई आश्चर्य नहीं।
            आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज समझ रखा है यह भ्रम है। कविता और पद्य में वहीं भेद है जो अंग्रेजी की पोयेट्री और वर्स में है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजन लेख बात या वक्तृता का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुयी सतरों का नाम पद्य है । जिस पद्य को पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता यह कविता नहीं वह नपी-तुली शब्दस्थापना मात्र है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबन्दी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं। संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबन्दी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो। अरब में भी सैकडों अच्छे-अच्छे कवि हो गये हैं। वहाँ भी शुरू-शुरू में तुकबन्दी का बिलकुल ख्याल न था। अंग्रेजी में भी अनुप्रास हीन बेतुकी कविता होती है। हाँ एकबात जरूर है कि वजन और काफिये से कविता अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है। पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही है जैसे कि शरीर के लिए वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उसमें न हो तो इसका होना निष्फल समझना चाहिए। पद्य के काफिये वगैरह की जरूरत है कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बाते एक प्रकार से उल्टा हानिकारक है। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक अनुप्रास आदि ढ़ूढ़ने से कवियों के विचार स्वातत्र्य में बड़ी बाधा आती है। पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेड़या हैं। उनके जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करें पर काफिये और वजन उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं। वे उसे अपने भावों को स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट होने देते। काफिये और वजन को पहले ढूंढ़कर कवि को मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं। इसका यह मतलब हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है। इससे कवि अपने भाव स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता। फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है। कभी-कभी तो यह बिलकुल ही जाता रहता है। अब आप ही कहिये कि जो वजन और काफिया कविता के लक्षण का कोई अंश नही उन्हे ही प्रधानता देना भारी भूल है या नहीं।
          कवि का सबसे बड़ा गुण नई-नई बातों का सूझना है। उसके लिए कल्पना की बड़ी जरूरत है। जिसमें जितनी अधिक यह शक्ति होगी वह उतनी ही अच्छी कविता लिख सकेगा। कविता के लिए उपज चाहिए, नये-नये भावों की उपज जिसके हृदय में ही नहीं वह कभी अच्छी कविता नही लिख सकता। यें बातें प्रतिभा की बदौलत होती है। इस लिए संस्कृत वालों ने प्रतिभा को प्रधानता दी है। प्रतिभा ईश्वरदत्त होती है। अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती है। इसी की बदौलत वह भूत और भविष्यत् को हस्तामलकवत् देखता है, वर्तमान की तो कोई बात ही नहीं। इसी की कृपा से वह सांसारिक बातों को एक अजीव निराले ढंग से बयान करता है जिसे सुनकर सुनने वाले के हृदयोदधि में नाना प्रकार के सुख, दुःख, आश्चर्य आदि विकारों की लहरें उठने लगती हैं। कवि कभी-कभी ऐसी अद्भुत बातें कह देते हैं कि जो कवि नहीं है उनकी पहुँच वहाँ तक कभी हो ही नहीं सकती।
  कवि का काम है कि वह प्राकृतिक विकास को खूब ध्यान से देखे। प्रकृति की लीला का कोई ओर-छोर नहीं। वह अनन्त है। प्रकृति अदभुत-अदभुत खेल खेला करती है। एक छोटे से फूल में वह अजीब-अजीब कौशल दिखाती है। वे साधारण आदमियों के ध्यान में नही आते। वे उनको समझ ही नहीं सकते। पर कवि अपनी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति के कौशल अच्छी तरह देख लेता है, उनका वर्णन भी करता है उससे नाना प्रकार की शिक्षा भी ग्रहण करता है और अपनी कविता के द्वारा संसार को लाभ भी पहुँचाता है। जिस कवि में प्राकृतिक दृश्य औऱ प्रकृति के कौशल देखने और समझने का जितना भी अधिक ज्ञान होता है वह उतना बड़ा कवि भी होता है। कवि-कुल-गुरू कासिदास में विश्व-विख्यात काव्य रघुवंश तथा कविवर बिहारी लाल की सतसई से, विषय का, एक-एक प्रत्युदाहरण सुनिए-
इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकखोद्घातं शालिगोप्यो जगुर्यशः।।
-रघुवंश
रघु की दिग्विजय यात्रा के उपोद्घात में शरदृतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघ का यश गाती थां। शरत् काल में जब धान के खेत पकते है, तब ईख इतनी-इतनी बड़ी हो जाती है कि उसकी छाया में हैठकर खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत प्रायः पास ही पास हुआ करते हैं। कवि को ये सब बाते विदित थीं। श्लोक में इस दशा का-इस वास्तविक घटना का चित्र सा खींच दिया गया है। शलोक पढ़ते ही वह समाँ आँखों में फिरने लगता है।
  महाराजाधिराज विक्रमादित्य के सखा राजसी ठाठ से रहने वाले कालिदास ने गरीब किसानों की, नगर से दूर जंगल में सम्बन्ध रखने वाली एक वास्तविक घटना का कैसा मनोहर चित्र उतारा है। यह उसके प्रकृति पर्यायलोचक होने का दृढ़ प्रमाण है। दूसरा प्रत्युदाहरण-
सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखरि।
हरी-हरी अरहर अजौं धर घर हर हिय नारि।।
-सतसई
पहले सन सूखता है, फर बन-बाड़ी या कपास के खेत की बहार खत्म होती है। पुनः ईख उखड़ने की बारी आती है और इन सबसे पीछे गेहुँओं के साथ तक अरहर हरी-भरी खड़ी रहती है।
प्रकृति पर्य्यालोचना के सिवा कवि को मानव स्वभाव की आलोचना का अभ्यास करना चाहिए। उसकी दशा कभी एक सी नहीं रहती। अनेक प्रकार के विकार तरंग उसके मन में उठा ही करते है। इन विकारों की जाँच ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इनके अनुभव करने और कविता द्वारा औरों को इनका अनुभव कराने में समर्थ होता है। जिसे कभी पुत्र शोक नहीं हुआ उसे उस शोक का यथार्थ ज्ञाना होना सम्भव नहीं। पर यदि वह कवि है तो वह पुत्र शोकाकुल पिता या माता की आत्मा में प्रवेश सा करके उसका अनुभव कर लेता है।उस अनुभव का वह इस तरह वर्णन करता है कि सुनने वाला तन्मनस्क होकर उस दुःख से अभिभूत हो जाता है। उसे ऐसा मालूम होने लगता है कि स्वयं उसी पर वह दुःख पड़ रहा है। जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता।
            कविता को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उचित शब्द-स्थापना की भी बड़ी जरूरत होती है। किसी मनो-विकार या दृश्य के वर्णन में ढूँढ़-ढूढ़ कर ऐसे शब्द रखने चाहिए जो सुनने वालों की आँखों के सामने वर्ण्य विषय का चित्र सा खींच दे। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो,यदि वह तदनुकूल शब्दों में न प्रकट किया गया तो उसका असर यदि जाता नहीं रहता तो कम जरूर हो जाता है। इसीलिए कवि को चुन-चुन कर ऐसे शब्द रखने चाहिए और इस क्रम से रखने चाहिए,जिससे उसके मन का भाव पूरे तौर पर व्यक्त हो जाय। उस पर कसर न पड़े। मनोभाव शब्दों ही के द्वारा व्यक्त होता है। अतएव युक्तिसंगत शब्द स्थापना के बिना कवि की कविता तादृश्य जानता अथवा यों कहिए कि उसके पास काफी शब्द समूह नहीं है कि किस शब्द में उनका भाव प्रकट करने की एक बाल भर की कमी होती है,उसका वे कभी प्रयोग नहीं करते। आजकल पद्य रचनाकर्ता महाशयों को इस बात का बहुत कम ख्याल रहता है इसी से उनकी कविता,यदि अच्छे भाव से भरी हुई भी हो तो भी बहुत कम असर पैदा करती है। जो कवि प्रति पंक्ति में, निरर्थक सु,जु और रु का प्रयोग करता है,वह मानों इस बात का खुद ही सार्टिफिकेट दे रहा है कि मेरे अधिकृत शब्दकोष में शब्दों की कमी है। ऐसे कवियों की कविता सर्व-सम्मत और प्रभावोत्पादक नहीं हो सकती।
            अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने कविता के तीन गुण वर्णन किये हैं। उनकी राय है कि कविता सादी हो,जोश से भरी हो और असलियत से गिरी हुयी न हो ।
         सादगी से यह मतलब नहीं कि सिर्फ शब्द-समूह ही सादा हो, किन्तु विचार परम्परा भी सादी हो, भाव और विचार ऐसे सूक्ष्म और छिपे हुए न हों कि उनका मतलब समझ में न आवे, या देर से समझ आवे। यदि कविता में कोई ध्वनि हो तो इतनी दूर की न हो जो उसे समझने में गहरे विचार की जरूरत हो। कविता पढ़ने या सुनने वाले को ऐसी साफ-सुथरी सड़क मिलनी चाहिए जिस पर कंकड़, पत्थर, टीले, खंदक, काँटे और झाड़ियों का नाम न हो। वह खूब साफ और हमवाय हो, जिससे उस परचलने वाला आराम से चला जाय। जिस तरह सड़क जरा भी ऊँची-नीची बाइसिकल (पैरगाड़ी) के सवार को दचके लगते हैं, उसी तरह यदि कविता की सड़क यदि थोड़ी भी नाहमवार हुई तो पढ़ने वाले के हृदय पर धक्का लगे बिना नहीं रहता। कविता रूपी सड़क के इधर-उधर स्वच्छ पानी के नदी-नाले बहते हों, दोनो तरफ फल-फूलों से लदे हुए पेड़ हों, जगह-जगह पर विश्राम करने योग्य स्थान बने हों, प्राकृतिक दृश्यों की नई-नई झाँकियाँ आँखों को लुभाती हों। दुनिया में आजतक जितने भी अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं उनकी कविता ऐसी ही देखी गयी है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द प्रयोग करने वाले कवियों की कद्र नहीं हुयी। यदि कभी किसी की कुछ हुयी भी है तो थोड़े ही दिनों तक ऐसे कवि विस्मृत के अन्धकार में ऐसे छुप गये हैं कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता । एकमात्र सूची शब्द झंकार की जिन कवियों की करामात है उन्हे चाहिए कि वे एकदम ही बोलना बन्द कर दें।
                        भाव चाहे कैसा ही ऊँचा क्यों न हो, पेचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए जिनसे सब लोग परिचित हों। मतलब यह कि भाषा बोलचाल की हो। क्योंकि कविता की भाषा बोलचाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है,उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है । बोलचाल से मतलब उस भाषा से है जिसे खास और आम सब बोलते हैं विद्वान और अविद्वान दोनों जिसे काम में लाते हैं। इसी तरह कवि को मुहावरों का भी ख्याल रखना चाहिए जो मुहाविरा सर्वसम्मत है,उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी और उसमें कुछ शब्द अन्य भाषाओं के भी आ गए हैं। वे यदि बोलचाल के हैं तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता। उन्हें त्याज्य नहीं समझना चाहिए। कोई-कोई ऐसे शब्दों को उनके मूल रूप में लिखना ही सही समझते हैं पर यह उनकी भूल है। जब अन्य भाषा का कोई शब्द किसी और भाषा में आ जाता है,तब वह उसी भाषा का हो जाता है। अतएव उसे उसकी मूल भाषा के रूप में लिखते जाना ही भाषा विज्ञान के नियमों के खिलाफ है।
            असलियत से मतलब नहीं कि कविता एक प्रकार का इतिहास समझा जाय और हर बात में सच्चाई का ख्याल रखा जाय। यह नहीं कि सच्चाई की कसौटी पर यदि कुछ भी कसर मालूम हो तो कविता का वितापन जाता रहे । असलियत से सिर्फ इतना ही मतलब है कि कविता बेबुनियाद न हो, उसमें जो उक्ति हो वह मानवी मनोविकारों और प्राकृतिक नियमों के आधार पर कही गई हो। स्वाभाविकता से उसका लगाव न छूटा हो। क्योंकि स्वाभाविक अर्थात नेचुरल(Natural) उक्तियाँ ही सुनने वाले के हृदय पर असर कर सकती हैं,अस्वाभाविक नहीं। असलियत को लिए हुए कवि स्वतंत्रतापूर्वक जो चाहे कह सकता है,असल बात को एक नये साँचे में ढाल कर कुछ दूर इधर-उधर भी उड़ान भर सकता है, पर असलियत के लगाव को वह नहीं छोड़ता। असलियत को हाथ से जाने देना मानो कविता को प्रायः निर्जीव कर डालना है। शब्द और अर्थ दोनों ही के सम्बन्ध में उसे स्वाभाविकता का अनुधावन करना चाहिए। जिस बात के कहने में लोग स्वाभाविक रीति का जैसे और जिस क्रम से शब्द प्रयोग करते हैं वैसे ही कवि को भी करना चाहिए। कविता में कोई बात ऐसी न कहनी चाहिए जो दुनिया में न होती हो। जो बाते हमेशा हुआ करती हैं अथवा जिन बातों का होना सम्भव है, वही स्वाभाविक हैं।      
            जोश से मतलब है कि कवि जो कहे इस तरह कहे मानों उसके प्रयुक्त शब्द आप ही आप उसके मुँह से निकल गये हैं। उनसे बनावट न जाहिर हो। यह न मालूम हो कि कवि ने कोशिक करके यह बाते कही हैं,किन्तु यह मालूम हो कि उसके हृदयगत भावों ने कविता के रूप में अपने को प्रकट कराने के लिए उसे विवश किया है। जो कवि है,उसमें जोश स्वाभाविक होता है। वर्ण्य वस्तु को देखकर,किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से वह उस पर कविता करने के लिए विवश सा हो जाता है। उसमें एक अलौकिक शक्ति पैदा हो जाती है। इसी शक्ति के बल से वह सजीव ही नहीं निर्जीव चीजों तक का वर्णन ऐसे प्रभावोत्पादक ढंग से करता है कि यदि उन चीजों में बोलने की शक्ति होती तो खुद वे भी उससे अच्छा वर्णन न कर सकतीं।
                        सादगी,असलियत और जोश यदि ये तीनों गुण कविता में हो तो कहना ही क्या है परन्तु बहुधा अच्छी कविता में भी इनमें से एकाध गुण की कमी पाई जाती है। कभी-कभी देखा जाता है कि कविता में केवल जोश रहता है,सादगी और असलियत नहीं। परन्तु बिना असलियत के जोश का होना बहुत कठिन है। अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए।
                        अच्छी कविता की सबसे बड़ी परीक्षा यह है कि उसे सुनते ही लोग बोल उठें कि सच कहा। वही कवि सच्चे कवि हैं,जिनकी कविता सुनकर लोगों के मुँह से सहसा यह उक्ति निकलती है, ऐसे कवि धन्य हैं और जिस देश में ऐसे कवि पैदा होते हैं वह देश भी धन्य है। ऐसे ही कवियों की कविता चिरकाल तक जीवित रहती है।

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ठिठुरता हुआ गणतंत्र


चार बार मैं गणतंत्र दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूं. पांचवी बार देखने का साहस नहीं. आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता. छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है. शीतलहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूंदाबांदी होती है और सूर्य छिप जाता है. जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है. अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं.
इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूं, जिस साल मैं समारोह देखता हूं, उसी साल ऐसा मौसम रहता है. हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है.
आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है?
जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा, ‘जरा धीरज रखिए. हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए. पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं. वक्त लगेगा. हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए.’
दिए. सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए. सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप ऑपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे.
इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा. उसने कहा, ‘हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे. अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएंगे.’
एक सिण्डीकेटी पास खड़ा सुन रहा था. वह बोल पड़ा, ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है. वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो. उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा. हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता?’
मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूं. वह कहता है, ‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है. उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था. कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-कांग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे.’
जनसंघी भाई से भी पूछा. उसने कहा, ‘सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता. इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी. हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा.’
साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा, ‘यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है. सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं.’
स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा, ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा?’
प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा, ‘सवाल पेचीदा है. नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा. तब बताऊंगा.’
राजाजी से मैं मिल न सका. मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है.’
मैं इंतजार करूंगा, जब भी सूर्य निकले.
स्वतंत्रता दिवस भी तो भरी बरसात में होता है. अंग्रेज बहुत चालाक हैं. भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए. उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए. वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है.
स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है.
मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं. प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं. रेडियो टिप्पणीकार कहता है, ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है.’ मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है. हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं. बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है. हाथ अकड़ जाएंगे.
लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रहीं हैं. मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है. लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है. गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है. पर कुछ लोग कहते हैं, ‘गरीबी मिटनी चाहिए.’ तभी दूसरे कहते हैं, ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं.’

गणतंत्र समारोह में हर राज्य की झांकी निकलती है. ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं. ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं. इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं. असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहां प्रदर्शित करना चाहिए, जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ. गुजरात की झांकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे. पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झांकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएंगे. मगर ऐसा नहीं दिखा. यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झांकी सजाए लघु उद्योगों की. दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं. मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुंचने की कोशिश की थी. झांकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे. पर सत्य अधूरा रह गया था. मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था. मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झांकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अंगूठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता. नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता. उस झांकी में वह बात नहीं आई. पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ. मैं पिछले साल की झांकी में यह दृश्य दिखाता- ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं.
जो हाल झांकियों का, वही घोषणाओं का. हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है. पर अभी तक नहीं आया. कहां अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा.
मैं एक सपना देखता हूँ. समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है. बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं. पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी. उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊंगा.
समाजवाद टीले से चिल्लाता है, ‘मुझे बस्ती में ले चलो.’
मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं, ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा.’
समाजवाद की घेराबंदी है. संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसी वाले समाजवादी हैं. क्रांतिकारी समाजवादी हैं. हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है, ‘लो, मैं समाजवाद ले आया.’
समाजवाद परेशान है. उधर जनता भी परेशान है. समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है. समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं. ‘खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है. तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं. लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है.
इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है. लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं. सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं. सहकारिता तो एक स्पिरिट है. सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं. समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं. यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है.
मैं एक कल्पना कर रहा हूं.
दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा, ‘समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है. उसे सब जगह पहुंचाया जाए. उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए.’
एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा, ‘लो, ये एक और वीआईपी आ रहे हैं. अब इनका इंतजाम करो. नाक में दम है.’
कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा. कलेक्टर एसडीओ को लिखेगा, एसडीओ तहसीलदार को.
पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुंचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो.
दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे, ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’
तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे. बड़े बाबू फिर से कहेंगे, ‘अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया. कोई लेने नहीं गया स्टेशन. तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो. बड़ी खराब आदत है तुम्हारी.’
तमाम अफसर लोग चीफ सेक्रेटरी से कहेंगे, ‘सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे. पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है.’
मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा, ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं. उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए.’
जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएं और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ. मुझे खास ऐतराज भी नहीं है. जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी.

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आत्मकथा


आत्मकथा
बनारसीदास- अर्धकथानक(1641)-हिन्दी की पहली आत्मकथा ।
श्याम सुन्दरदास- मेरी आत्म कहानी(1941)
हरिभाऊ उपाध्याय- साधना के पथ पर(1946)
राहुल सांकृत्यायन- मेरी जीवन यात्रा- 5 खण्डों मे विभक्त 1-(1946), 2-(1952), 3-4-5-(1967)
वियोगी हरि- मेरा जीवन प्रवाह(1947)
यशपाल- सिंहावलोकन-तीन खण्ड में (1951-52-53)
सत्यदेव परिव्राजक- स्वतंत्रता की खोज में(1957)
शान्ति प्रिय द्विवेदी- परिव्राजक की प्रजा(1952)
देवेन्द्र सत्यार्थी- सूरज के वीरन(1952) नील यक्षिणी(1985)
चतुरसेन शास्त्री- यादों की परछाइयाँ(1956) मेरी आत्मकहानी(1967)
सेठ गोविन्ददास- आत्म निरीक्षण- तीन खण्ड (1957)
पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र- अपनी खबर(1960)
हरिवंशराय बच्चन- क्या भूलूँ क्या याद करूँ(1969) नीड़ का निर्माण(1970) बसेरे से दूर(1977) दस द्वार से सोपान तक(1985)
पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी- मेरी अपनी कथा(1958)
वृन्दावन लाल वर्मा- अपनी कहानी(1972)
कमला पति त्रिपाठी- स्वतंत्रता आन्दोलन एवं उसके बाद(19)
व्रजमोहन व्यास- मेरा कच्चा चिट्ठा(1995)
यशपाल जैन- मेरी जीवनधारा(1987)
डा. नगेन्द्र- अर्धकथा(1988)
फणीश्वरनाथ रेणु- आत्मपरिचय(1988) सम्पादक- भरत यायावर
उपेन्द्रनाथ अश्क- चेहरे अनेक(1988)
हंसराज रहबर- मेरा सात जनम (तीन खण्ड)
अमृतलाल नागर- टुकड़े-टुकडे दास्तान
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर- तपती पगडण्डियों की पदयात्रा(1989)
रामदरश मिश्र- समय सहचर(1990)
राम विलास शर्मा- अपनी धरती अपने लोग(195) घर की बात(1983)
भगवती चरण वर्मा- कहि न जाइ का कहिये
नरेश मेहता- हम अनिकेतन(1995)
कमलेश्वर- जो मैने जिया(1997) यादों का चिराग(1997) जलती हुयी नदी(1999)
वीरेन्द्र सक्सेना- क्रम और व्युत्क्रम(1998)
अखिलेश- वह जो यथार्थ था(2001)
स्वदेश दीपक- मैने मांडू नही देखा(2003)
भीष्म साहनी – आज के अतीत(2003)
विष्णु प्रभाकर- पंखहीन मुक्त गगन में  पंछी उड़ गया(2004)
रमानाथ अवस्थी- वनफूल(2005)
मनोहर श्याम जोशी-लखनऊ मेरा लखनऊ
                                                       महिला आत्मकथाकार
कुसुम अंसल- जो कहा नही गया
कृष्णा अग्निहोत्री- लगता नही दिल मेरा
पद्मा सचदेव- बूँद बावड़ी
मैत्रेयी पुष्पा- कस्तूरी कुंडल बसै गुड़िया भीतर गुड़िया
कौशल्या वैसंती- दोहरा अभिशाप
अमृता प्रीतम- रसीदी टिकट
शीला झुनझुनवाला- कुछ कही कुछ अनकही
सुनीता जैन- शब्द काया
रमणिका गुप्ता- हादसे
चन्द्रकिरण सौनरिक्सा-पिंजरे में मैना
प्रभा खेतान- अन्या से अनन्या

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10. भूषण


10. भूषण

विकट अपार भव-पथ के चले को श्रम-
हरन-करन बिजना-से ब्रह्म ध्याइए ।
यह लोक परलोक सुफल करन कोक,
नद से चरन हिए आनि कै जुड़ाइए ।
अलिकुल-कलित-कपोल, ध्यान ललित,
अनंदरूप-सरित में भूषण अन्हाइए ।
पाप-तरु भंज बिघन-गढ़ गंजन,
जगत-मन-रंजन द्विरदमुख गाइए ।। 1
शब्दार्थ-विकट=कठिन, जटिल। भवपथ–सांसारिक मार्ग। हरन=हरण करने गाइए।ले सफल करन=सफलता प्रदान करने वाले। कोकनद=लाल कमल। हिये=हृदय, मानस। जुड़ाइये -शांति प्राप्त कीजिए। अलिकुल=भ्रमरवृन्द। कलित=सुशोभित। ललित-लुभावना, हृदयाकर्षक। भजन-विध्वंस करने वाले, उन्मूलित करने वाले। द्विरदमुख=हाथी के समान मुख वाले।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘शिवराज भूषण' से उदधृत की गई हैं। इन पंक्तियों में कवि ने परम्परानुसार ग्रन्थारम्भ में गणेश-स्तुति की है।
व्याख्याभूषण कवि कहते हैं कि हे मन! तू सांसारिक कष्टों को दूर करने वाले | श्री गणेश जी का ध्यान कर, वे ही तेरी सांसारिक बाधाओं को दूर कर सकते हैं। इस लोक तथा परलोक की कामनाओ को पूर्ण करने वाले गणेश के लाल रंग के कमलों के समान चरणों में तू अपने मन को समर्पित कर और सांसारिक बाधाओं से अपने हृदय को मुक्त करके शांतिलाभ प्राप्त कर। कवि आगे कहता है कि हे मन! तू गणेश जी के उस सौम्य गण्ड-मण्डल का ध्यान कर जिससे निरन्तर मद की वर्षा होती रहती है और जिसके कारण भक्त-गण रुपी भौंरो की भीड़ लगी रहती है। वे सभी पाप रुपी वृक्षों को नष्ट करने वाले हैं और विघ्न रूपी गुणों के समूह को विनष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं अर्थात् भक्तों के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने वाले हैं और संसार के हृदय को आनन्द प्रादान करने वाले हैं। इसलिए हे मनः तू गणेश जी का ध्यानरुपी नद में स्थान कर अपने सब पापों से मुक्ति लें। संसार के मन को प्रसन्न करने वाले (हाथी के समान मुख वाले) गणेश जी का स्त्रवन कर।
विशेष१. वृत्यानुप्रास का प्रयोग द्रष्टव्य है।
२. भव-पंथ आनन्द रूप सरित, पाप तरु विघ्नगढ़ में रुपक अलंकार है एवं कोकनद से चरन तथा द्विरद मुख में उपमा है।

साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है
भूषण भनत नाद बिहद नगारन के
नदी-नद मद गैबरन के रलत है
ऐल-फैल खैल-भैल खलक में गैल गैल
गजन की ठैल –पैल सैल उसलत है
तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि
थारा पर पारा पारावार यों हलत है ।। 2
शब्दार्थ-चतुरंग=चारों अंग (हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल) वाली सेना, चतुरंगी सेना। रंग-उमंग में, मौज में। तुरगं=घोड़े, सरजा=शिवाजी की उपाधि, बहुत वीर। नद=बड़ी नदियों को नद कहते हैं। बिहद=बहुत अधिक। गैबरन=श्रेष्ठ हाथी। खैल भैल=खलबली। खलक=संसार। गैलगैल=एक साथ गली-गली। सैल=पहाड़। ठेल- पेल=धक्कमधक्का। उसलत=उखड़ना। तरनि=सूर्य। पारावार=समुद्र।।
प्रसंग-इन पंक्तियों में कवि भूषण ने शिवाजी की चतुरंगिणी सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि---
व्याख्या-कवि कहते हैं कि-'सरजा' उपाधि से विभूषित अत्यन्त श्रेष्ठ एवं वीर शिवाजी अपनी चतुरंगिणी सेना (पैदल, हाथी, घोड़े और रथ) को सजाकर तथा अपने अंग-अंग में उत्सह का संचार करके युद्ध जीतने के लिए जा रहे हैं। भूषण कहते हैं कि उस समय नगाड़ों का तेज स्वर हो रहा था। हाथियों की कनपटी से बहने वाला मद (हाथी जब उन्मत्त होता है तो उसके कान से एक तरल स्राव होता है जिसे उसका मद कहते हैं) नदी-नालों की तरह बह रहा था। अर्थात् शिवाजी की सेना में मदमत्त हाथियों की विशाल संख्या थी और युद्ध के लिए उत्तेजित होने के कारण हाथियों की कनपटी से अत्यधिक मद गिर रहा था जो नदी-नालों की तरह बह रहा था। शिवाजी की विशाल सेना के चारों ओर फैल जाने के कारण संसार की गली गली में खलबली मच गई। हाथियों की धक्कामुक्की से पहाड़ भी उखड़ रहे थे। विशाल सेना के चलने से बहुत अधिक धूल उड़ रही थी। अधिक धूल उड़ने के कारण आकाश में चमकता हुआ सूर्य तारे के समान लग रहा था और समुद्र इस प्रकार हिल रहा था जैसे थाली में रखा हुआ पारा हिलता है, उसी प्रकार सारे भूमण्डल में समुद्र हिलने लगा।
 विशेष—१. शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रस्थान का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया है।

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करैं कंद मूल भोग करैं
तीन बेर खातीं, ते वै तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥ 3
शब्दार्थ-मंदर=महल। ऊँचे घोर मंदर=अत्यन्त ऊँचे ऊँचे महल। ऊँचे-घोर उत्तंग भयंकर पर्वत। रहनवारी=रहनेवाली। रहाती हैं=रहती हैं। कंदमूल=बढ़िया गोठा, सारपूर्ण मिष्ठान। भोग करें=खाती थीं। कन्दमूल भाग करें=कन्दा और जड़ अर्थात् जंगली वनस्पतियों की जड़े खाती हैं। तीन बेर=दिन भर में तीन बार। तीन बेर=वेर के तीन फल। भूषन=आभूषणों के भार से। शिथिल=सुस्त। भूषनशिथिल अंग=मारे भूख के उनके अंग शिथिल रहते हैं। विजन डुलाती=पंखे झलती थी। विजन डुलाती हैं=निर्जन जंगलों में भटकती है। नगन जड़ाती=नग्न, नंगी। जड़ाती=जाड़ा खाती है, ठंड में ठिठुरती है।
प्रसंग–शिवाजी के भय से प्रतिपक्षी मुगल बादशाओं की बेगमों की दयनीय अवस्था का चित्रण आलंकारिक शैली में प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या- शिवाजी के प्रतिपक्षी राजाओं और बादशाहों की रानियों जो पहले ऊंची-ऊँची अट्टालिकाओं में निवास करती थीं, वे आज उनके आतंक के कारण महलों को छोड़कर जंगलों में छिप गई हैं और ऊँचे-ऊँचे भयंकर पर्वते की गुफाओं में निवास कर रही है। जो बेगमें बढ़िया किस्म की मिठाईयाँ खाया करती थीं। वे अब जंगलों में रहने के कारण वहाँ उपलब्ध होने वाले कन्दा और जड़ों पर ही निर्वाह कर रही हैं। वे बेगमें दिन में तीन बार भोजन किया करती थीं, वे अब किसी प्रकार जंगली बेर की तीन फलों हा दिन काट रहीं हैं। जिन साम्राज्ञियों के शारीरिक अंग आभूषणों के भार से शिथिल  थे अब वे अंग भूख के कारण सुस्त हो गये हैं। जो बेगमें महलों में पंखा झलती  थीं, अब वे सुनसान जंगलों में अकेली ही भटकती फिर रही हैं। भूषण कवि कहते हैं। कि हे महाराज शिवाजी! उन नारियों में तेरा ऐसा आतंक छाया हुआ है कि पहले जो बेगमेंरत्नजड़ित आभूषण धारण किया करती थीं वे अब वस्त्राभाव एवं भयाधिक्य के कारण नग्न हैं और ठंड से ठिठुरती जा रही हैं।
विशेष—१. अभंग यमक अलंकार के प्रयोग से पूरे छन्द में चमत्कार आ गयाहै। चमत्कारिता एवं आलंकारिता के साथ ही पूरे छन्द में एक सहज प्रवाह भी है।
२. भयानक रस की सफल अभिव्यंजना। ब्रजभाषा।
३. शिवाजी के आतंक का इतना चमत्कारिक वर्णन है कि छन्द में अतिश्योक्ति की गन्ध आने लगती है। तुलनीय पंक्तियाँ-भूषण के एक अन्य छन्द में भी इसी प्रकार की व्यंजना दर्शनीय है-
भूषण भनत शिवराज तेरी धाक सुनि
हार डारि चीर फारि मन झुंझलाती हैं।
ऐसी परी हरम बादसाहन की
नासपाती खातीं ते वनासपाती खाती हैं।।


उतरि पलंग ते न दियो है धरा पै पग
तेऊ सगबग निसि दिन चली जाती हैं।
अति अकुलातीं मुरझाती न छिपातीं गात,
 बात न सुहातीं बोले अति अनखाती हैं।।
भूषन' भनत सिंह साहि के सपूत सिया,
तेरी धाक सुनि अरिनारी बिललाती हैं।
कोऊ करें घाती कोऊ रोतीं पीटि छाती घरौं,
तेरी बेर खाती तेऽब तीन बेर खाती हैं।। 4
शब्दार्थ-अनखाती हैं=खीझ उठती हैं। बिललाती हैं=बिलखती हैं। धाती=आत्मघात। तीन बेर=तीन बार। तीन बेर=बेर के तीन फल।।
व्याख्याहे शाह जी के पुत्र शिवाजी आपके शौर्य को देखकर प्रतिपक्षी राजाओं की रानियाँ जो कभी अपने महलों में अपने बड़े-बड़े आलीशान पलंग से उतरते समय धरती पर सीधे पैर भी नहीं रखती थीं। आज आपके आतंक से इतनी भयभीत हैं कि दिन भर बस भागती चली जाती हैं। सुनसान जंगलों में वे बहुत ही व्याकुल और बहुत ही मुरझाई हुई हैं कि अपने आप को इस सुनसान जंगल में कहाँ छुपाऊँ, इसीकारण उन्हें
कोई बात भी अच्छी नहीं लगती है और जब कोई बोलता है तो हमेशा खीझ उठती हैं। एक-दूसरे पर। भूषण कहते हैं कि हे शाह जी के पुत्र शिवाजी महाराज। आपके शौर्य वीरता को सुनकर वो नारियाँ अपनी छाती को जोर-जोर से पीट-पीटकर रोती हैं और अपने आपको आत्मघात करती हैं। अत: जो रानी बनकर अपने महलों में तीन बार शी वे आज आपके भय से इस जंगल में तीन बेर खा के अपना जीवन जी रही हैं।

सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग।
ताहि खरी कियो छ हजारिन के नियरे।।
जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों न सलाम न बचन बोले सियरे।।
भूषन' भनत महावीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उड़ाय गये जियरे।
तमक ते लाल मुख सिवा को ‘निरखि भयो,
स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे।। 5
शब्दार्थ- जोग=योग्य। खरो कियो=खड़ा किया। जानि गैरि मिसिल=अपने स्वागत को असम्मान पूर्ण समझकर। गुसीले=क्रोधित स्वभाव के। सियरे=शीतल। कीन्हों ना.....सियरे—किसी भी शिष्टाचार का पालन नहीं किया। बलकन लाग्यो—क्रोध से आग-बबूला होकर बड़बड़ाने लगा। उड़ाय गये, जियरे—जी उड़ गये, डर गये। तमक=क्रोध। स्याह=काला। पियरे=पीला।।
प्रसंग—इस कवित्त में मुगलदरबार में आयोजित शिवाजी की औरंगजेब से भेंट का वर्णन है। शिवाजी को छह हजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा किया गया था। इस अपमान को शिवाजी सहन न कर सके और भरे दरबार में क्रोधावेश में बड़बड़ाने लगे। उसी दृश्य का चित्रण इस पद में प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या-जो सरजा शिवाजी मुगल दरबार में सबसे ऊपर खड़े होने योग्य थे,उनको अपमानित करने की नियत से औरंगजेब ने उन्हें छःहजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। अपने प्रति किये गये इस अनुचित व्यवहार से गुस्साबर शिवाजी अत्यधिक कुपित हो उठे और उस समय अवसर की मर्यादा के अनुकूल न तो शंहशाह औरंगजेब को सलाम किया और न विनम्र शब्दों का ही प्रयोग किया। भूषण कहते हैं कि
महाबली शिवाजी क्रोधावेश से गरजने लगे और उनके इस क्रोधावस्था के व्यवहार को देखकर मुगलदरबार के सभी लोगों के जी उड गये। अर्थात् भय से हक्का-बक्का हो गये। व स लाल हुए शिवाजी के मखमण्डल को देखकर औरंगजेब का मुंह काला हो गया आर सिपाहियों के मख भय की अतिशयता के कारण पीले पड़ गये। ।
विशेष—१. शिवाजी के रौद्र रुप के वर्णन में रौद्र रस के सभी अंगों की सफल व्यंजना हुई है।
२. मुहावरों के प्रयोग एवं शब्दावली की सहजता से भाषा में जीवन्तता एवं गतिशीलता का पूर्ण समावेश है।


गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर,
दावा नाग जूह पर सिंह सिरताज को
दावा पूरहूत को पहारन के कूल पर
दावा सब पच्छिन के गोल पर बाज को
भूषण अखंड नव खंड महि मंडल में
रवि को दावा जैसे रवि किरन समाज को ।
पूरब पछांह देश दच्छिन ते उत्तर लौं
जहाँ पातसाही तहाँ दावा सिवराज को । 6
शब्दार्थ- गरुड़=एक पक्षी अथवा भगवान विष्णु की सवारी जो सबसे तेज गति से उड़ने वाला माना जाता है। नाग=सर्प। दावा=अधिकार। नागजूह=हाथियों का समूह। सिरताजमुकुट, श्रेष्ठ। पुरहूत=इन्द्र। पहारन=पहाड़ो। गोल=समूह। अखंड=सम्पूर्ण। नवखंड=नौ खण्ड। महिमंडल=पृथ्वी। किरनसमाज=किरणों का समूह। लौं–तक। पातसाही=मुसलमान बादशाह का शासन। तम=अन्धकार।।
प्रसंग–शिवाजी के शौर्य, शक्ति और अधिकारक्षेत्र का वर्णन करते हुए भूषण जी बताते हैं कि-
व्याख्या- कवि कहते हैं कि जिस प्रकार सर्यों के समूह पर गरुड़ का अधिकार रहता है। हाथियों के समूह पर महाबली सिंह का अधिकार होता है। जिस प्रकार पहाड़ों के कुल पर इन्द्र का अधिकार है एवं पक्षियों के सभी कुलों पर बाज सदा ही अपना आधिपत्य करता रहता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें अपना अधिकार करके अंधकार को नष्ट करता है, भूषण जी कहते हैं कि उसी प्रकार पूर्व से पश्चिम तक उत्तर से दक्षिण तक जहाँ-जहाँ बादशाही है वहाँ-वहाँ शिवाजी महाराज का दावा है।
विशेष—१. कवि के लिए यहाँ शिवाजी राष्ट्रीय चेतना और स्वतन्त्रता का प्रतीक है जबकि बादशाही विदेशी शासन और गुलामी का अर्थ दे रही है।
         २. यहाँ पर निदर्शना अलंकार है।

ब्रह्म के आनन ते निकसे ते अत्यन्त पुनीत तिहूँ पुर मानी,
राम युधिष्ठिर के बरने बलमीकिहु व्यास के संग सोहानि।
भूषण यों कलि के कविराजन राजन के गुन पाय नसानी,
पुन्य चरित्र सिवा सरजा सर न्हाय पवित्र भई पुनि बानी।। 7
शब्दार्थ-ब्रह्म के आनन तें=ब्रह्म के मुख से (सरस्वत के लिए कहा गया है।) कलि के कविराजन=कलियुग के कवियों ने। राजन के गुन पाय नसानी=लौकिक राजाओं का गुणगान करके। सरस्वती को अपवित्र कर दिया था। पुन्य चरित्र....बानी=पुण्य चरित्र शिवाजी महाराज के यश-सरोवर में स्नान करके सरस्वती पवित्र हो गई है।
प्रसंग-कवि का मुख्य कार्य सोये हुए को जगाना और उनमें देश-प्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना भरना था। उनके शब्दों में अपार शक्ति और वाणी में ज्वाला थी। भूषण राजाश्रय में अवश्य रहते थे किन्तु वे उन राजाओं के यहाँ नहीं गये जिनकी दष्टि कभी कामिनी के ऊपर से हटती ही नहीं थी। ऐसों के यहाँ रहना भूषण की अन्तरात्मा ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपना आश्रयदाता अपने मन के अनुकूल विचारों वाला चुना। उन्होंने वीर काव्य का सृजन किया, उनकी लेखनी का सहारा पाकर सरस्वती भी।धन्य हो गयीं। इसकी चर्चा स्वयं कवि ने ही की है।
व्याख्याकवि कहते हैं कि ब्रह्मा के मुख से निकली प्रत्येक बात सत्य और पवित्र होती है। यह तीनों लोक मानता है। अर्थात् ब्रह्मा के मुख से अत्यन्त पवित्र वेदों की रचना हुयी इससे तीनों लोकों में सरस्वती सम्मानित हुयी। वाल्मीकी ने रामकथा और व्यास ने युधिष्ठिर की कथा (महाभारत) लिखकर सरस्वती का मान बढ़ाया। भूषण कहते हैं कि कलियुग के कवियों द्वारा सामान्य राजाओं का गुणगान करने से सरस्वती अपवित्र हो गयीं। पुण्य चरित्र महाराज शिवाजी के यश शरोवर में स्नान करके सरस्वती पुनः पवित्र हो गयी हैं।

 कामिनि कंत सौं जामिनि चंद सों, दामिनि पावस मेघ घटासों,
कीरति दान सों सूरति ज्ञानसों प्रीति बड़ी सनमान महासों।
भूषन भूषन सों तरुनी नलिनी नव पूषनदेव प्रभा सों,
जाहिर चारिहु ओर जहान लसै हिंदुआन खुमान सिवा सों।। 8
शब्दार्थ-जामिनि (यामिनी)=रात्रि। पावस मेघ घटा=वर्षा के बादलों की घटा। मूरति (मूर्ति)=मानव शरीर। भूषण=अलंकार। तरुनी=युवती स्त्री। पूषनदेव=सूर्य देव। लसै=शोभित होती है। खुमान=आयुष्मान् ।।
प्रसंग–शिवाजी को कवि हिन्दुओं की आशा का बिन्दु मान रहा है।
व्याख्याजिस प्रकार स्त्री पति के साथ ही शोभायमान होती है अथवा रात्रि-चन्द्र के साथ शोभा पाती है और बिजली वर्षा की मेघ-घटाओं से शोभित होती है, या कीर्ति दान से सुन्दर रुप ज्ञान से तथा प्रीति सम्मान प्रदान करने से सुशोभित होती है। अथवा शरीर आभूषणों से और कमलिनी प्रातःकालीन सूर्यदेव के प्रकाश से सुशोभित होती हैं उसी प्रकार यह बात सारे संसार में चारों ओर विदित है कि हिन्दू राष्ट्र को सुशोभित करने वाले महाराज शिवाजी हैं।
विशेष—शिवाजी के गौरव का आलंकारिक वर्णन है। उक्त यश वर्णन में नीति,अनुभव, लोकव्यवहार तथा प्रकृति का आधार लिया गया है। अत: कलात्मकता के साथ ही उनमें जीवन की वास्तविकता भी है। भाषा में प्रसाद तथा माधुर्य गुण प्रमुख हैं। संगठन तथा प्रभाव भी स्पष्ट है।
अलंकार–दीपक अलंकार के आधार पर ‘हिन्दुआन खुमान सिवा सोलर्से के उपमान वाक्य हैं।' कामिनी कंत सों लसै आदि। इसी प्रकार उपमेय और उपमान वाक्यों का एक धर्म है। ‘लसै..........' यह दीपक अलंकार हैं। अनुप्रास तथा यमक का स्वाभाविक प्रयोग हैं।

निकसत म्यान ते मयूखै प्रलै भानु कैसी,
फारे तम तोम से गयंदन के जाल को।
लागति लपटि कंठ बैरिन के नागिन सी,
रुद्रहि रिझावै दै दै मुंडन के माल को।।
लाल छितिपाल छत्रसाल महा बाहुबली,
। कहाँ लौ बखान करीं तेरी करवाल को।
प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि,
कालिका सी किलकि कलेऊ देति काल को।। 9
शब्दार्थ-निकसत=निकलते ही। मयूखै=किरणे। प्रलैभानु=प्रलयकालीन सूर्य। तमतोय=गहन अंधकार। गयन्दन=बड़े-बड़े हाथी। जाल=समूह। बखान करौ=वर्णन करूं। करवाल=तलवार। प्रतिभट=शत्रु पक्ष के वीर, कटक=सैन्य समूह। कटीले=तीक्ष्ण, प्रबल, कलेऊ=सबेरे का जलपान।।
प्रसंग-इस छन्द में महाकवि भूषण ने परम यशस्वी हिन्दू धर्म संरक्षक तथा महाप्रतापी छत्रशाल की युद्ध-वीरता की प्रशंसा तथा उनकी तलवार का ओजपूर्ण भाषा में वर्णन किया है।
व्याख्यामहाकवि भूषण कहते हैं कि छत्रसाल की तलवार म्यान से निकलते ही प्रलयकालीन सूर्य के समान प्रचण्ड और भयंकर रूप से चमकने लगती हैं और घने अन्धकार के समान काले और विशालकाय हाथियों के समूह को चीर देती है। वह तलवार सर्पिणी के समान शत्रुओं के कण्ठों से लिपटकर उनके प्राणों को हर लेती है और इस प्रकार मुण्डों की माला देकर शिवजी को प्रसन्न करती है। तात्पर्य यह है कि छत्रसाल की तलवार मुण्डों की माला पहनने वाले रुद्र को शत्रुओं के मुण्ड देकर प्रसन्न कर देती है।
कवि भूषण कहते हैं कि–'हे महाप्रतापी! पृथ्वीपति और चिरंजीवी छत्रसाल आपकी इस तलवार की अदभूत और चमत्कारिणी शक्ति का वर्णन कहाँ तक करें? अर्थात शब्दों के माध्यम से आपकी इस तलवार की प्रशंसा करना संभव नहीं है। महाराज छत्रसाल की यह तलवार कांटेदार झाड़ियों के समान दुःखदायी शत्रुओं की सेना को काट-काटकर तथा कालीदेवी के समान किलकारी मारती हुई यमराज को नाश्ता कराती है।”
विशेषइस छन्द में महाराज छत्रसाल की वीरता का ओजपूर्ण वर्णन किया गया है। छत्रासल को युद्ध में निपुण वीर के रूप में दिखाया गया है।
अलंकारअनुप्रास की छटा आद्योपात दर्शनीय है। साथ ही उपमा, अतिश्योक्ति एवं पुनरुक्तिप्रकाश का भी प्रयोग है।

 साहि तनै सरजा सिवा की सभा जा मधि है,
मेरुवारी सुर की सभा कौ निदरति है।
भूषन' भनत जाके एक एक सिखर ते,
चारों ओर नदिन की पाँति।।
जोन्ह को हंसति जोति हीरामनि मंदिरन,
कन्दरन मैं छबि कुहू की उछरति है।
एतो ऊँचो दुरग महाबली को जामें।
नखतावली सों बहस दिपावली करति है।। 10
शब्दार्थ-जामधि=जिस दुर्ग के मध्य, जिस के बीच में। सुमेरवारी=सुमेर पर्वत वाली। निदरति=निरादर करती है। सिखर=चोटी। नदिन=नदियों। पाँति=पंक्ति, कतारें, जौन्ह=चाँदनी। हँसति=उपहास करती है। कंदरनि=गुफाओं में। कुहूँ=अमावस्या। उछरति=उछलती हैं। दुरग=दुर्ग, किला। बहस=वाद, विवाद। नखतवाली=नक्षत्रों क समूह।
प्रसंगप्रस्तुत छन्द में कवि बड़े ही आलंकारिक ढंग से रायगढ़ के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए कहता है कि-
व्याख्यासुमेरु पर्वत पर आयोजित देवताओं की सभा शाहजी के पुत्र शिवाजी की सभा के समक्ष तिरस्कृत हो जाती है। भूषण कहते हैं कि उस रायगढ़ दुर्ग से शिवाजी की कीर्ति रुपी नदियाँ चतुर्दिक प्रसृत होती हैं। महलों को जड़ित हीरा आदि मणियों की कांति चन्द्रमा के ज्योति का उपहास करती है। उस दुर्ग की गुफाओं में व्यापत कालिमा अमावस्या की रात्रि की कालिमा के समान सुशोभित होती हैं। अर्थात् रायगढ़ की कन्दरायें
इतनी गहन हैं कि उसमें रातो-दिन अंधकार का ही साम्राज्य विद्यमान रहता है। रायगढ़ दुर्ग इतना ऊँचा है कि जिसमें जाज्वल्यमान दीपों की पंक्तियाँ आकाश के नक्षत्रों के प्रकाश को मन्द कर देती हैं।
विशेष१. उपमा दर्शनीय है।
२. यत्र-तत्र अनुप्रास भी देखा जा सकता है।
३. शैली चित्रात्मक शैली है।
 सीय संग सोभित सुलच्छन सहाय जाके,
भू पर भरत नाम भाई नीति चारु है।
भूषन भनत कुल- सूर कुल- भूषन हैं,
दासरथी सब जाके भुज भुव भारु है।।
अरि-लंग तोर जोर जाके संग बानर हैं,
सिंधुर हैं बाँधे जाके दल को न पार है।
तेगहि कै भेटै जैन राकस मरद जानै,
सरजा शिवाजी राम ही को अवतारु है।। 11
शब्दार्थसी=सीता जी, श्री लक्ष्मी। सुलच्छन=अच्छे लक्ष्मण, अच्छे लक्षणों वाले। भरत=राम के भाई भरत, भरते हैं अर्थात् फैलाते हैं। नाम=कीर्ति। चारु=सुन्दर भनत=कहते हैं। दासरथी=दशरथ के पुत्र। भुवभारु=पृथ्वी का भार। अरिलंक=शत्रु की लंका, शत्रु की कमर। तोर=तोड़ दिया, विनष्ट कर दिया। जोर-शक्ति, बल। सदा साथ वानर हैं—सदा साथ में बन्दर रहते हैं, सदैव साथ में वाण रहता है। सिंधुर=समुद्र, शत्रु।। पार=सीमा। तेगहि कै भैटे=वे पकड़ कर मारे, तलवार से ही विनष्ट करता है। गहिके=पकड़कर। जौ=जोराकस राक्षस। मरदजांन्यो=मर्दन किया, मारा।।
प्रसंग-कवि शिवाजी को ईश्वर का अंशावतार मानकर कहता है-
व्याख्यासीताजी के साथ जो शोभित होते हैं। सुन्दर लक्ष्मण जिनके सहायक हैं। धरती पर सुन्दर नीति वाले भरत नाम वाले जिनके भाई हैं। भूषण जी कहते हैं कि जो सूर्य कुल अर्थात् सूर्य वंश की शोभा बढ़ाने वाले हैं ऐसे वे दशरथ के पुत्र हैं जिसने सम्पूर्ण पृथ्वी का भार अपने ऊपर धारण कर लिया है। जिन्होंने रावण की लंका को विनष्ट किया, जिसके साथ सदा वानर हरते हैं। जिसने समुद्र को बाँधा है। उनके बल की कोई
'सीमा नहीं है। जिन्होंने पकड़-पकड़कर राक्षसों का मर्दन किया है। ऐसे राम के अवतार सरजा शिवाजी हैं।
दूसरे अर्थों में श्री (लक्ष्मी) जिनके साथ सुशोभित हैं। अच्छे लक्षणों वाले व्यक्ति जिनके सहायक हैं। जो पृथ्वी पर अपने यश को भरते अर्थात् फैलाते हैं। भूषण कहते हैं कि (शिवाजी) जो सूर्यकुल के और उनके शूर सैनिक वीर कुल के आभूषण हैं। सभी रथी-महारथी जिनके दास हैं, जिनके ऊपर पृथ्वी का भार निहित है। जिसने अपने जोर से शत्रुओं की कमर तोड़ डाली है तथा जिनके साथ सदैव बाण रहते हैं। जिन्होंने
हाथी को बाँधा है, उनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है, जो शत्रुओं को तलवार से ही मिटाता है। जो (दुष्ट) मनुष्यों का शत्रु है। ऐसी वीरता के गुणों से युक्त शिवाजी राम के ही हैं।

कारो जल जमुना को काल सो लगत आली,
छाइ रह्यौ मानों यह काली विष नाग को ।
बैरन भई है कारी कोयल निगोड़ी यह,
तैसे ही भंवर कारो वासी बन बाग को ।
भूषन भनत कारे कान्ह को वियोग हियै,
 सबै दुखदाई जो करैया अनुराग को ।
कारो घन घेरि-घेरि मार् यो अब चाहत हैं
ऐते पर करति भरोसो कारे काग को ।। 12

शब्दार्थ-आली=सखी। कारो=काला। छाइ रह्यो=मानो यह विष काली नाग को=जमुना जल (श्यामरंग का) ऐसा प्रतीत होता है मानो कालिय नाग का विष हो। भंवर=भौरा। कान्ह=कृष्ण। कारे=काले। काग=कौआ।।
प्रसंग-प्रस्तुत पद में कवि ने विरहिणी नायिका व वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए वियोग पक्ष को उजागर किया है।
व्याख्या-कवि ने वर्णन किया है कि नायिका काले रंग को दोषी साबित करते हए अपने सखी से कहती है कि हे सखी! यमुना का जल नायक के वियोग में काला सा लग रहा है। लग रहा है मानों कालिया नाग का विष सर्वत्र इस जल में व्याप्त हो गया है। यह कोयल भी मेरे लिए शत्रुवत् लग रहा है। यह उद्यान में फूलों पर मंडराने वाला काला भौंरा भी शत्रु लग रहा है। कवि नायिका के शब्दों में कहता है कि जितने भी प्यार में सहायक माने गये हैं वे सब के सब श्याम (काले) कृष्ण के वियोग में दुःखदायी हो गये हैं तथा मुझे घेरकर मारना चाहते हैं। किन्तु यह सब होने के बावजूद विश्वास है कि यह काला काग प्रिय के आने का सन्देश सुना देगा।
विशेष—यह वियोग शृङ्गार का छन्द है। वियोगिनी नायिका के कृष्ण के वियोग में कभी (संयोग काल में) सुखद प्रतीत होने वाली काले रंग की (श्याम वर्ण कृष्ण के रंग की होने के कारण) सभी वस्तुएँ अब अत्यन्त दुःखद प्रतीत हो रही हैं फिर भी उस काले रंग के कौवे का भरोसा करना पड़ रहा है। (इसलिए कि शायद यह प्रिय का संदेश सुना दे।)

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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इमेल- atul15290@gmail.com
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