1.गाइए गणपति जगवन्दन


1.गाइए गणपति जगबन्दन


श्री गणेशाय नमः करते हुए ‘विनय-पत्रिका’ में जिस समय गोस्वामी तुलसीदास ने ‘गाइए गणपति जगबंदन’ लिखा उस समय उन्हें यह कल्पना तक न थी कि ‘गणपति की वन्दना किसी राजवंश के संस्थापक के यहाँ दांपत्य-कलह और चिर अभिशाप का कारण बन जाएगी।

1.
गढ़ गंगापुर के परकोटे पर अपने सखा और सेनापति पाण्डेय बैजनाथसिंह के साथ टहलते हुए राजा बलवंतसिंह ने थाली बजने और ढोलक पर थाप पड़ने की आवाज़ सुनी। गानेवालियों के मुँह से ‘गाइए गणपति जगबंदन’ का मंगलगान आरंभ होते सुना और अनुभव किया कि पुरुष-कंठों से उठे तुमुल कोलाहल में गीत का स्वर अधूरे में ही सहसा बंद हो गया है। उन्होंने समझ लिया कि रानी पन्ना ने पुत्र-प्रसव करके उन्हें निपूता कहलाने से बचा लिया।
          और यह भी जान लिया कि मेरे ‘पट्टीदारों’ ने अनुचित हस्तक्षेप कर मंगलगान बंद करा दिया है। उन्हें यह भी प्रतीत हुआ कि उनका कोई चचेरा भाई काशी की गलियों में निर्द्वन्द्व बिचरने वाले साँड की तरह चिल्ला रहा है, “ढोल-ढमामा बंद करो। वर्ण-संकरों के पैदा होने पर बधाई नहीं बजाई जाती।” उन्होंनें घूमकर कहा, ‘सुनते हो सिंहा यह बेहूदापन¡”
 “बेहूदापन काहे का, राजा।” सिंह उपाधिधारी ब्राह्मण-तनय ने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहा, “इन्हीं बाबू साहब और आपके चाचा बाबू मायाराम का सिर काटकर रानी के पिता ने आपके पास भेजा था; बाबू साहब उसी का बदला ले रहे हैं।”
राजा ने बैजनाथ सिंह की ओर साहचर्य देखकर कहा, “बदला? वह तो तुम्हारे पराक्रम से मैंने पूरा-पूरा चुका लिया अब स्त्रियों से कैसा बदला?
 “मैं क्या जानूँ, अन्नदाता! आपने जो रास्ता दिखाया है, आपकी भाई उसी पर सरपट दौड़ रहे हैं," बैजनाथ ने उस उपेक्षा के भाव से कहा जो उत्सुकता उत्पन्न करती है।
“कुछ सनक गए हो क्या, सिंहा? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो!"राजा ने डाँटने का अभिनय किया।
"बहकता नहीं हूँ, सरकार!" अनुनय-भरे स्वर में सिंहा बोला, “आप ही स्मरण कीजिए, जब डोभी के ठाकुर की गुर्ज से आपका खाँडा दो टूक हो गया था, तो मैंने धर्म-यद्ध के नियमों की परवाह न कर आपके और उसके द्वन्द्व-युद्ध में हस्तक्षेप किया.यों कहिए कि उसे मार डाला। छत्र-भंग होते ही ठाकर के बचे-खुचे सिपाही भाग निकले। आपने पुरुषविहीन गढ़ी में निर्बाध प्रवेश किया था, सरकार!"
सिंहा की बोली में दर्प गूंजने लगा। राजा को चुप देखकर उसने पुनः कहा,“सामने ठाकुर की पुत्री, यही पन्ना, सिर के बाल बिखेरे, आँखों में आँसू भरे,हाथ से हँसुआ लिए आपका रास्ता रोके खड़ी थी।"
तुम भी स्मरण करो सिंहा, मुझसे आँख मिलते ही उसके हाथ से हँसुआ छूट गिरा था,” राजा ने कहा। जवाब में सिंहा फिर तड़पा, “मुझे स्मरण है, सरकार! आपने उसे गिरफ्तार करने का हुक्म दिया था। मैंने आपको रोकते हुए कहा था कि राजा, यह नारी है, इसे छोड़ दीजिए। बाबू साहब ने राजा के बेटे को वर्ण-संकर कहकर ठाकुरों को यही स्मरण कराया है, सरकार!" हाथ जोड़ते हुए अपनी बात समाप्त कर बैजनाथसिंह ने मूंछों पर ताव दिया और फिर उत्तर के लिए विनोदपूर्ण दृष्टि से राजा के मुख की ओर देखने लगा। राजा ने उसकी बात का जवाब न दे एक ठंडी साँस ली और सिर झका लिया। बैजनाथसिंह के अधर-प्रान्त पर वक्ररेखा-सी खिंच गई और वह पूनः धीरे से बोला, “पाप के वृक्ष में पाप का ही फल लगता है, राजा!"
"जानता हूँ। केवल यही नहीं जानता था कि विवाहिता पत्नी का पुत्र भी वर्ण-संकर कहला सकता है!"
“ईश्वर की दृष्टि में नहीं, समाज की दृष्टि में!"
“अब चेत हो गया सिंहा, मैंने भारी पाप किया।"
"तो जिसके पैदा होने से चेत हो गया उसका नाम चेतसिंह रखिएगा।"
"किन्तु यह जो उलझन पैदा हुई उसे क्या करूँ?"
“उसे तो समय ही सुलझाएगा, सरकार!"
“मैं भी प्रयत्न करूँगा," राजा ने कहा और वह अठारहवीं शताब्दी की यह समस्या सुलझाते हुए अन्तःपुर की ओर चले।

2.
अन्तःपुर में पुरुषार्थी पुरुषों की परुष हुंकार से ढोल बन्द होते ही प्रसूति-पीड़ा से कातर रानी पन्ना के पीले मुख पर स्याही दौड़ गई। उसने विषादपूर्ण दृष्टि से दाई की गोद में आँखें बन्द किए पड़े सद्यःजात शिशु को देखा। उसके सूखे अधरों पर रुदनपूर्ण स्मिति क्षण-भर चमककर उसी प्रकार तिरोहित हो गई जैसे किसी पयःस्विनि की क्षीण धारा मरुभूमि की सिकताराशि का चुम्बन लेकर उसी में विलीन हो जाती है। उसने उठकर शिशु का रक्ताभ ललाट चूम लिया। उसके हृदय में स्नेह की नदी उमड़ पड़ी, मस्तक में भावनाओं का तूफान बह चला और आँखों से झरने की तरह वारि-धारा फूट पड़ी।
बुद्धिमती दासी चुप रही। तूफान का प्रथम वेग उसने निकल जाने दिया और तब सान्त्वना के स्वर में वह कहने लगी, “क्या करोगी रानी, मन को पीड़ा पहुँचाकर? सोने की लंका तो दहन होती ही है। सहन करो।"
जामुन-जैसी रस-भरी काली आँखें अपनी विश्वस्त दासी की आँखों से मिलाती हुई पन्ना बोली, “वैभव की आग में कब तक जलूँ, लाली? कभी-कभी तो घृणा के मारे मन में आता है कि बगल में सोए राजा की छाती में कटार उतार दूँ,
परन्तु...।"
परन्तु...रुक क्यों जाती हो?"
मेरी दृष्टि के सामने वही मूर्ति आ जाती है जिसे देखकर मेरे हाथ का हँसुआ छूट गिरा था। मैं कटार रख देती हूँ। चुपचाप लेटकर आँख मूंद लेती हूँ जिससे वही मूर्ति दिखाई पड़ती रहे।" आँख बन्द करके कुछ देखती हुई-सी पना ने कहा।
"तब तो तुम सुखी हो, रानी!"
अपमान, उपेक्षा और उत्पीड़न में क्या कम सुख है, लाली! इन तीनों से हृदय में जो दारुण घृणा उत्पन्न होती है वह क्या परमं सन्तोष की वस्तु नहीं?" रानी के स्वर में तीव्रता आ गई।
श्रम से हाँफते हुए भी उसने आवेश-भरे चढे गले से कहा, “भला सोचो तो! उस आदमी से मन-ही-मन घोर घृणा करने में कितना आनन्द आता है जो तुम्हें दबाकर, बेबस बनाकर समझता है कि उसके दबाव से तुम उसका बड़ा सम्मान करती हो, उस पर बड़ी श्रद्धा रखती हो।"
विष-जर्जर हँसी हँसती हुई पन्ना थककर चुप हो गई और शय्या पर उसने धीरे से अपनी शिथिल काया लुढ़का दी। रानी के मन में घृणा का यह विराट कालकूट अनुभव करके लाली भी पीली पड़ गई। पन्ना ने लेटे-लेटे फिर कहा, "इन लोगों ने आज मेरी प्रथम सन्तान के जन्म पर मगलगान नहीं गाने दिया। गणेशजी की स्थापना होते ही उनकी मूर्ति उलट दी। मैं तुमसे कहे देती हूँ लाली,कि यदि मेरे बेटे को इन लोगों ने राजा न होने देकर मुझे मेरी आजीवन व्यथा-साधना के मूल्य से वंचित किया तो ये वंशाभिमानी तीन पीढ़ी भी लगातार राज न कर सकेंगे। हर दूसरी पीढ़ी इन्हें गोद लेकर वंश चलाना पड़ेगा और तीन गोद होते-होते राज्य समाप्त हो जाएगा।" अपलक नेत्रों से देखती हुई आविष्ट-सी होकर रानी ने अपना कथन समाप्त किया और तुरन्त ही राजा को सामने खड़ा देख वह सशब्द रो पड़ी।
सूतिकागार का परदा हटाकर राजा चौखट पर खड़े थे। उन्होंने सहानुभूति और अनुनय से सम्पुटित वाणी से कहा, “शाप मत दो रानी, मेरे बाद तुम्हारा ही लड़का राजा होगा। क्लेश मत करो।" राजा ने रानी के प्रसूतिपांडुर मुख पर स्निग्ध दृष्टि डाली। वह यह भूल गए कि व्रण के दाह को शीतल करनेवाला घृत आग में पड़कर उसे और भी दहका देता है। उन्होंने भ्रमवश समझ लिया था कि रानी उनके अत्याचारों की चोट से जर्जर है। इसीलिए वह उस पर मधुर वचनों का लेप लगाने आए थे। वह नहीं जानते थे कि रानी अपमान की आग में जल रही है। अतः उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि रानी की मुख-मुद्रा सहसा सघन गगन-सी गम्भीर हो गई, मुख लाल हो उठा, आँखों से चिनगारियाँ-सी छूटती प्रतीत हुईं। सहानुभूति के चाबुक का आघात रानी सह न सकी। उसने आवेश में कहा, “जले पर नमक न छिड़को, राजा! जिसके जीते उसके बेटे के जन्म पर गाया जानेवाला मंगलगान लोग रोक सकते हैं वे लोग बाप के मर जाने पर बेटे को राजा न जाने कैसे बनने देंगे! साहस हो तो अधूरी वन्दना पूरी कराओ, राजा!"
कुटुम्बियों से ही मेरा सैनिक बल है, रानी! राजनैतिक कारणों से...."
"चुप रहो । देखू, कब तक तुम लोग राजनीति के नाम पर नारी के गौरव और हृदय की बलि चढ़ाते हो!"
रानी!” राजा ने कुछ धमकी-भरे स्वर में कहा।
"मैं न डरूँगी, राजा!" रानी वैसे ही उद्धत स्वर में बोलती गई, “मैं न डरूँगी! तुम्हारी राजनीति रानी के गर्भ से राजकुमार के जन्म पर बधाई-वादन रोक सकती है, परन्तु माता को अपने पुत्र के जन्मोत्सव पर मंगलगान करने से न तुम रोक सकते हो, न तुम्हारे कुटुम्बी रोक सकते हैं और न तुम्हारी राजनीति ही रोक सकती है। समझे! मैं बधाई गाती हूँ। बुलाओ अपने भाइयों को, रोकें!"

कहते-कहते जैसे किसी स्वजन की मृत्यु पर लोग छाती पीटते हुए रोते हैं वैसे ही दोनों हाथों से अपनी छाती धड़ा-धड़ पीटती हुई रानी चिल्ला-चिल्लाकर विक्षिप्तों के समान गाने लगी-“गाइए गणपति जगबन्दन! गाइए गणपति जगबन्दन!!"

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शास्त्री द्वितीय अष्टम


माडल प्रश्नपत्र-2019
शास्त्रिपरीक्षायाम्
द्वितीयवर्षे
हिंदीविषये
‘ख’वर्गे
अष्टमप्रश्नपत्रम्
समय-घण्टात्रयम्                                               सम्पूर्णांकाः-100
                                                                     उत्तीर्णांकाः-36
खण्ड क
(व्याख्यात्मक /निबंधात्मक )
1.निम्नलिखित गद्य खंडों में से किन्ही दो की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए- 10*2=20
(अ)      संसार में जो बात जैसी दीख पड़े कवि को उसे वैसी ही वर्णन करना चाहिए। उसके लिए किसी तरह की रोक या पाबन्दी का होना अच्छा नहीं। दबाव से कवि का अंश दब जाता है। उसके मन में जो भाव आप ही आप पैदा होता हैं उन्हें जब वह निडर होकर अपनी कविता में प्रकट करता है तभी उसका असर लोगों पर पूरा-पूरा पड़ता है। बनावट से कविता बिगड़ जाती है।
(ख) रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को 'महामानव समुद्रकहा है। विचित्र देश है यह! असुर आएआर्य आएशक आएहूण आएनाग आएयक्ष आएगंधर्व आए - न जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा गईं। जिसे हमें हिंदू रीति-नीति कहते हैंवह अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है।
(ग) शैशव की स्मृतियों में एक विचित्रता है। जब हमारी भावप्रणवता गम्भीर और प्रशान्त होती है, तब अतीत की रेखाएँ कुहरे में से स्पष्ट होती हुई वस्तुओं के समान अनायास ही स्पष्ट-से-स्पष्टतर होने लगती हैं; पर जिस समय हम तर्क से उनकी उपयोगिता सिद्ध करके स्मरण करने बैठते हैं, उस समय पत्थर फेंकने से हटकर मिल जाने वाली, पानी की काई के समान विस्मृति उन्हें फिर-फिर ढक लेती है।

2.'गुण्डा' अथवा ‘चीफ की दावत’ कहानी की तात्विक समीक्षा कीजिए । 20

खण्ड-ख
(लघूत्तरीय)
3.'आत्मकथा' अथवा 'जीवनी' के उद्भव एवं विकास का संक्षिप्त परिचय दीजिए । 10
4. ‘आँगन का पंक्षी’ अथवा ‘मारेसि मोहि कुठाँव’ शीर्षक निबन्ध का सारांश लिखिए । 10
5 ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी’ अथवा ‘हरिशंकर परसाई’ की निबन्ध कला पर प्रकाश डालिए। 10

खण्ड – ग
(अतिलघूत्तरीय)
5.अधोलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए- 3*10=30  
(क)किन्ही तीन जीवनी लेखकों के नाम लिखिए ।
(ख) सरस्वती पत्रिका का सम्पादन किसने और कब किया ।
(ग)शिव प्रसाद सिंह की तीन कहानियों के नाम लिखिए ।
(घ) ‘वापसी’ किसकी कृति है ।
(ङ) ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी’ के निबन्ध संग्रहों का नांम लिखिए ।
(च) ‘मुंशी प्रेमचन्द’ की तीन कहानियों का नाम लिखिए ।
(छ) किन्हीं दो संस्मरणकारों के नाम लिखिए ।
(ज) रेखाचित्र किसे कहते हैं । दो रेखाचित्रकारों के नाम लिखिए ।
(झ) ‘रामा’ किसकी कृति है ।
(ञ) प्रेमचन्दोत्तर तीन कहानीकारों के नाम लिखिए।

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अलंकार


अलंकार

अलंकार की परिभाषा
मानव समाज सौन्दर्योपासक है ,उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है। शरीर की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए जिस प्रकार मनुष्य ने भिन्न -भिन्न प्रकार के आभूषण का प्रयोग किया ,उसी प्रकार उसने भाषा को सुंदर बनाने के लिए अलंकारों का सृजन किया ।   काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्दों को अलंकार कहते है जिस प्रकार नारी के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए आभूषण होते है,उसी प्रकार भाषा के सौन्दर्य के उपकरणों को अलंकार कहते है। इसीलिए कहा गया है - 'भूषण बिन  बिराजई कविता बनिता मित्त '
अलंकार शब्द की व्युत्तपत्ति अलम्+ कृ+ घञ् प्रत्यय के योग से हुयी है । जिसका अर्थ है अलंकृत करना ।  जिसके द्वारा अलंकृत किया जाय वहीं अलंकार है । 

अलंकार की निम्न लिखित परिभाषाएँ हैं-
1.    अलंकरोति इति अलंकारः- अलंकृत करता है अतः अलंकार है ।
2.   अलंक्रियते अनेन इति अलंकारः- जिससे यह अलंकृत होता है वह अलंकार है ।
3.   अलंकृतिः अलंकारः- अलंकृति ही अलंकार है ।
4.   वाचां वक्रार्थ शब्दोक्तिरिष्टा वाचांलंकृतिः- शब्द और अर्थ की विभामय करने वाली वक्रोक्ति ही अलंकार है – भामह
5.   काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान प्रचक्षते- काव्य के समस्त शोभाकारक धर्म ही अलंकार हैं- दण्डी
6.   काव्य शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः- काव्य का शोभाकारक धर्म गुण है और उसकी अतिशयता का हेतु अलंकार है – वामन
7.   काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयता प्रयोजका अलंकाराः- अलंकार उन्हें कहते हैं जो काव्य की आत्मा व्यंग्य की रमणीयता के प्रयोजक हैं- जगन्नाथ

अलंकार के तत्व-  अलंकार के मूल में कौन से तत्व रहते हैं इस पर संस्कृत विद्वानों नें अलग अलग मत दिये हैं-
    दण्डी- स्वभावोक्ति
भामह- वक्रोक्ति
           वामन व रूय्यक- सादृश्य
  उद्भट- अतिशयता
          अभिनवगुप्त- गुणभूतव्यंग्य


अलंकार के भेद
अलंकार के भेद - इसके तीन भेद होते है - १.शब्दालंकार २.अर्थालंकार ३.उभयालंकार

शब्दालंकार 
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उपस्थित हो जाता है और उन शब्दों के स्थान पर समानार्थी दूसरे शब्दों के रख देने से वह चमत्कार समाप्त हो जाता है,वहाँ पर शब्दालंकार माना जाता है।
शब्दालंकार के प्रमुख भेद है - १.अनुप्रास २.यमक ३.श्लेष, ४.वक्रोक्ति

१.अनुप्रास :- अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है । 'अनु' का अर्थ है :- बार- बार तथा 'प्रास' का अर्थ है - वर्ण । जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार -बार आवृत्ति होती है ,वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है । इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार -बार प्रयोग किया जाता है । जैसे -
जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप 
विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप । ।
यह पाँच प्रकार का होता है – 1.छेकानुप्रास, 2.वृत्यानुप्रास, 3.श्रुत्यानुप्रास, 4. अन्त्यानुप्रास, 5. लाटानुप्रास

२.यमक अलंकार :- जहाँ एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आये ,लेकिन अर्थ अलग-अलग हो वहाँ यमक अलंकार होता है। उदाहरण -
कनक कनक ते सौगुनी ,मादकता अधिकाय 
वा खाये बौराय नर ,वा पाये बौराय। ।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है - धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है । यह तीन प्रकार का होता है- आदिपद यमक, मध्यपद यमक, अन्तपद यमक

३.श्लेष अलंकार :- जहाँ पर शब्द एक ही बार आए किन्तु अर्थ अलग-अलग हो वहाँ श्लेष अलंकार होता है । ऐसे शब्दों का प्रयोग हो ,जिनसे एक से अधिक अर्थ निलकते हो ,वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है । साहित्य दर्पण में इसे आठ प्रकार का बताया गया है ।
चिरजीवो जोरी जुरे क्यों  सनेह गंभीर 
को घटि ये वृष भानुजा ,वे हलधर के बीर। ।
यहाँ वृषभानुजा के दो अर्थ है - १.वृषभानु की पुत्री राधा २.वृषभ की अनुजा गाय । इसी प्रकार हलधर के भी दो अर्थ है - १.बलराम २.हल को धारण करने वाला बैल

4.वक्रोक्ति अलंकार-  सादृश्य लक्षणा वक्रोक्तिः” जहाँ पर श्लेषार्थी शब्द से अथवा काकु (कंठ की विशेष ध्वनि) से प्रत्यक्ष अर्थ के स्थान पर दूसरा अर्थ कल्पित करे, वहाँ वक्रोक्ति होती है ।
यह दो प्रकार का होता है- श्लेष वक्रोक्ति, काकु वक्रोक्ति ।
हौं घनश्याम विरमि-विरमि, बरसौ नेह लगाय ।
प्रिय, हरि हौं, कित हौं यहाँ, रमौ कुंज बन जाय ।


अर्थालंकार

जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है ,वहाँ अर्थालंकार होता है । अर्थालंकार में किसी शब्द विशेष के कारण चमत्कार नहीं रहता, वरन उसके स्थान पर यदि समानार्थी दूसरा शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहेगा  इसके प्रमुख भेद है - १.उपमा २.रूपक ३.उत्प्रेक्षा ४.दृष्टान्त ५.संदेह ६.अतिशयोक्ति इत्यादि

१.उपमा अलंकार :- जहाँ पर उपमेय से उपमान की तुलना की जाती है वहाँ उपमा अलंकार होता है । उपमा के चार अंग हैं- उपमेय, उपमान, वाचक और साधारण धर्म ।

उपमा के अंग - 
१- उपमेय (प्रस्तुत ) - जिसके लिए उपमा दी जाती है , या जिसकी तुलना की जाती है .
२- उपमान (अप्रस्तुत )- जिससे उपमा दी जाती है , या जिससे तुलना की जाती है .
३- वाचक शब्द - वह शब्द , जिसके द्वारा समानता प्रदर्शित  की जाती है . जैसे - ज्यों , जैसे , सम , सरिस , सामान आदि
४- समान धर्म - वह गुण अथवा क्रिया , जो उपमेय और उपमान , दोनों में पाया जाता है . अर्थात जिसके कारन इन दोनों को समान बताया जाता है .  
जैसे - राधा      चन्द्र             सी             सुन्दर 
          |         |              |                |
      उपमेय     उपमान     वाचक शब्द     समान धर्म
उदाहरण- पीपर पात सरिस मन डोला ।

उपमा के दो भेद होते है -  
१- पूर्णोपमा  - जब उपमा में इसके चारो अंग प्रत्यक्ष हो 
          जैसे - मुख मयंक सम मंजु मनोहर । मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है . 
२- लुप्तोपमा  - जब उपमा के चारो अंगो में से कोई एक या अधिक अंग लुप्त हो । जैसे- कुन्द इन्दु सम देह
यहाँ पर साधारण धर्म लुप्त है
२.रूपक अलंकार :- “रूपकं रूपितारोपोविषयेनिरपह्नवे।” जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाय ,वहाँ रूपक अलंकार होता है , यानी उपमेय और उपमान में कोई अन्तर न दिखाई पड़े । उदाहरण -
बीती विभावरी जाग री।
अम्बर -पनघट में डुबों रही ,तारा -घट उषा नागरी '
यहाँ अम्बर में पनघट ,तारा में घट तथा उषा में नागरी का अभेद कथन है। यह तीन प्रकार का होता है-
सांग रूपक- जहाँ पर उपमान का उपमेय में अंगों सहित आरोप होता है, वहाँ सांगरूपक अलंकार होता है ।                           उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृग ।।

निरंग रूपक- जहाँ सम्पूर्ण अंगों का साम्य न होकर केवल एक अंग का ही आरोप किया जाता है वहाँ निरंग रूपक होता है-  मुख-कमल समीप सजे थे, दो किसलय दल पुरइन के ।

परम्परित रूपक – जहाँ पर मुख्य रूपक एक अन्य रूपक पर आश्रित रहता है और वह बिना दूसरे रूपक के स्पष्ट नहीं होता है वहाँ परम्परित रूपक होता है ।
                                          सुनिय तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खल बधिक ।

३.उत्प्रेक्षा अलंकार :- जहाँ उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है यानी अप्रस्तुत को प्रस्तुत मानकर वर्णन किया जाता है। वहा उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यहाँ भिन्नता में अभिन्नता दिखाई जाती है। उत्प्रेक्षा अलंकार में मनु,मानो, जनु, जानों इत्यादि वाचक शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरण -
सोहत ओढ़े पीत पट श्याम सलोने गात ।
मनो नीलमनि शैल पर आतप पर् यो प्रभात । ।
यह तीन प्रकार का होता है- फलोत्प्रेक्षा, हेतुत्प्रेक्षा, गम्योत्प्रेक्षा ।

४.अतिशयोक्ति अलंकार :- जहाँ पर लोक -सीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय का वर्णन होता है । वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण -
हनुमान की पूंछ में लगन  पायी आगि 
सगरी लंका जल गई ,गये निसाचर भागि। ।
यहाँ हनुमान की पूंछ में आग लगते ही सम्पूर्ण लंका का जल जाना तथा राक्षसों का भाग जाना आदि बातें अतिशयोक्ति रूप में कहीं गई है। यह सात प्रकार का होता है । रूपकातिशयोक्ति, भेदकातिशयोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति, सापह्नुवातिशयोक्ति, चपलातिशयोक्ति, अक्रमातिशयोक्ति, अत्यन्तातिशयोक्ति
5.संदेह अलंकार :- जहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत का संशयपूर्ण वर्णन हो ,वहाँ संदेह अलंकार होता है। जैसे -
'सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी है 
कि सारी हीकी नारी है कि नारी हीकी सारी है '
इस अलंकार में नारी और सारी के विषय में संशय है अतः यहाँ संदेह अलंकार है ।

6.दृष्टान्त अलंकार :- जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब -प्रतिबिम्ब भाव होता है ,वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात उपमान रूप में दूसरे वाक्य में होती है। उदाहरण :-
'एक म्यान में दो तलवारें , कभी नही रह सकती है 
किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है । । '
इस अलंकार में एक म्यान दो तलवारों का रहना वैसे ही असंभव है जैसा कि एक पति का दो नारियों पर अनुरक्त रहना । अतः यहाँ बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव दृष्टिगत हो रहा है।

7.भ्रांतिमान अलंकार - जहाँ भ्रमवश उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है , वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है ।जैसे –                         
पाँय महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एड़ी मीड़त जाय ।। 
     
8. विभावना अलंकार – जहाँ कारण के उपस्थित न होने पर भी कार्य हो रहा हो वहाँ विभावना अलंकार होता है ।जैसे –
बिनु पद चले , सुने बिनु काना  कर विनु कर्म करै विधि नाना ।
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी ।।

9. व्यतिरेक अलंकार  - जहाँ उपमेय से उपमान की अधिकता अथवा न्यूनता बताया जाये वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है । जैसे –
साधू ऊँचे शैल सम , किन्तु प्रकृति  सुकुमार 
सन्त हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह परि कहै न जाना ।।
10.अनन्वय अलंकार -जब उपमेय का कोई उपमान न होने के कारन उपमेय को ही उपमान बना दिया जाता है , तब उसे अनन्वय अलंकार होता है ।
जैसे - मुख मुख ही के सामान सुन्दर है
                                   ताते मुख मुखै सखि कमलौ न चन्द री ।
11.अपह्नुति अलंकार:-   जहाँ प्रस्तुत को छिपाकर अप्रस्तुत का आरोपण हो अर्थात जहाँ उपमान को ही सत्य की भाँति  प्रतिष्ठित किया जाए वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है। जैसे
                   किंसुक गुलाब कचनार और अनारन की
                             डारन पर डोलत अंगारन को पुंज है ।

12. प्रतीप अलंकार -  यह उपमा का उल्टा होता है । अर्थात जब उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बना दिया जाता है , तो वहां प्रतीप अलंकार होता है ।
जैसे - चन्द्रमा मुख के सामान सुन्दर है ।
  
13. उल्लेख अलंकार - जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाए, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है ।   उदाहरण
तू रूप है किरण में, सौंदर्य है सुमन में,
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में।
यहाँ रूप का किरण, सुमन, में और प्राण का पवन, गगन कई रूपों में उल्लेख है।

14. अर्थान्तरन्यास अलंकार - जहाँ सामान्य कथन का विशेष से या विशेष कथन का सामान्य से समर्थन किया जाए, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है ।
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग ।।

15. विशेषोक्ति अलंकार- जहाँ पर कारण के उपस्थित होते हुए भी कार्य पूर्ण न हो रहा हो वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है । यह विभावना का उल्टा होता है । जैसे-
फूलई फलहिं न बेत, जदपि सुधा बरसहिं जलद ।
मूरख हृदय न चेत, जौ गुरु मिलइ बिरंचि सम ।।

16. विरोधाभास अलंकार- जहाँ पर किसी पदार्थ, गुण या क्रिया में बिरोध दिखलाई पड़े वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है । जैसे-
जाकी सहज स्वासि श्रुति चारी। सो हरि पढ़ि कौतुक भारी ।

17.व्याजस्तुति अलंकार- जहाँ निन्दा के बहाने स्तुति तथा स्तुति के बहाने निन्दा का वर्णन किया जाता है वहाँ पर व्याजस्तुति अलंकार होता है ।
बाउ कृपा मूरति अनूकूला । बोलत बचन झरत जनू फूला।
18. असंगति अलंकार- कार्य तथा कारण का अलग-अलग स्थानों पर वर्णन ही असंगति अलंकार कहलाता है ।जैसे-
पलनि पीक अंजन अधर, धरे महावर भाल ।
आजु मिले सु भली करी भले बने हो लाल ।
यहाँ अधरों पर पीक है तथा गालों पर महावर है । अर्थात कार्य एवं कारण में भिन्नता है इसलिये यहाँ पर असंगति अलंकार है ।

19.समासोक्ति अलंकार- जहाँ पर अप्रस्तुत को लक्ष्य करके उसके सादृश्य अन्य वस्तु के प्रति कथन किया जाता है वहाँ पर समासोक्ति अलंकार होता है । जैसे-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इह काल ।
अली कली हीं सौ बध्यौं आगे कवन हवाल ।।

20. स्मरण अलंकार- जहाँ पर किसी सादृश्य उपमान के कारण उपमेय का स्मरण हो वहाँ पर स्मरण अलंकार होता है । जैसे
स्याम सुरति करि राधिका, तकति तरनजा तीर ।
अँसुवनि करति तरौंस कौ, छिनकु खरौंहे नीर ।।






अर्थालंकारों पर एक नजर-
आपका मुख चंद्रमा के समान है- उपमा
चंद्रमा आपके मुख के समान है- प्रतीप
आपका चंद्रमुख- रूपक
यह आपका मुख है कि चन्द्र- संदेह
यह चन्द्र है आपका मुख नहीं है- अपह्नुति
चन्द्र आपके मुख के समान है, आपका मुख चन्द्र के समान है- उपमेयोपमा
आपका मुख आपके मुख के समान ही है- अनन्वय
चन्द्र को देखकर आपके मुख का स्मरण हुआ- स्मरण
आपके मुख को चन्द्र जानकर चकोर आपके मुख की ओर उडा- भ्रान्तिमान
यह चन्द्रकमल है ऐसा समझकर चकोर तथा भ्रमर आपके मुख की ओर उड़ रहे हैं – उल्लेख
आपका मुख मानों चन्द्र है- उत्प्रेक्षा
यह द्वितीय चन्द्र है- अतिशयोक्ति
रात्रि में चन्द्रमा और आपका मुख दोनों आनन्दित होते हैं- दीपक
चन्द्र रात्रि में उल्लसित होता है किन्तु आपका मुख सदैव उल्लसित रहता है- व्यतिरेक
 जिस प्रकार आकाश में चन्द्र है उसी प्रकार पृथ्वी पर आपका मुख है- दृष्टान्त
आकाश में चन्द्र विराजमान है पृथ्वी पर आपका मुख विराजमान है- प्रतिवस्तूपमा
आपका मुख चन्द्रमा की शोभा को धारण करता है- निदर्शना
आपके मुख के सम्मुख चन्द्रमा फीका है- अप्रस्तुत प्रशंसा
आपके चन्द्रमुख के कारण कामाग्नि शान्त हो जाती है- परिणाम
चंद्रमा तुम्हारे मुख के साथ रात के समय प्रसन्न रहता है- सहोक्ति

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हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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