निन्दा रस- हरिशंकर परसाई ।


‘क' कई महीने बाद आए थे। सुबह चाय पीकर अखबार देख रहा था कि वे तूफान की तरह कमरे में घुसे, साइक्लोन जैसा मुझे भुजाओं में जकड़ लिया। मुझे धृतराष्ट्र की भुजाओं में जकड़े भीम के पुतले की याद गई। जब धृतराष्ट्र की पकड़ में भीम का पुतला गया तो उन्होंने प्राणघाती स्नेह से उसे जकड़कर चूर कर डाला।
                   ‘क' से क्या मैं गले मिला? हरगिज नहीं। मैंने शरीर से मन को चुपचाप खिसका दिया। पुतला उसकी भुजाओं में सौंप दिया। मुझे मालूम था कि मैं धृतराष्ट्र से मिल रहा हूं। पिछली रात को एक मित्र ने बताया कि ‘क' अपनी ससुराल आया है और ‘ग' के साथ बैठकर शाम को दो-तीन घंटे तुम्हारी निंदा करता रहा। छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए।
          पर वह मेरा दोस्त अभिनय में पूरा है। उसके आंसू-भर नहीं आए, बाकी मिलन के हर्षोल्लास के सब चिह्न प्रकट हो गए। वह गहरी आत्मीयता की जकड़, नयनों से छलकता वह असीम स्नेह और वह स्नेहसिक्त वाणी।
                   बोला, ‘अभी सुबह गाड़ी से उतरा और एकदम तुमसे मिलने चला आया, जैसे आत्मा का एक खंड दूसरे खंड से मिलने को आतुर रहता है।' आते ही झूठ बोला। कल का आया है, यह मुझे मेरा मित्र बता गया था। कुछ लोग बड़े निर्दोष मिथ्यावादी होते हैं, वे आदतन, प्रकृति के वशीभूत झूठ बोलते हैं। उनके मुख से निष्प्रयास, निष्प्रायोजन झूठ ही निकलता है। मेरे एक रिश्तेदार ऐसे हैं। वे अगर बंबई जा रहे हैं और उनसे पूछें, तो वे कहेंगे, ‘कलकत्ता जा रहा हूं।' ठीक बात उनके मुंह से निकल नहीं सकती।
                   वह बैठा और ‘ग' की निंदा आरंभ कर दी। मनुष्य के लिए जो भी कर्म जघन्य है, वे सब ‘ग' पर आरोपित करके उसने ऐसे गाढ़े काले तारकोल से उसकी तस्वीर खींची कि मैं यह सोचकर कांप उठा कि ऐसी ही काली तस्वीर मेरी ‘ग' के सामने इसने कल शाम को खींची होगी।
सुबह से बातचीत के एजेंडा में ‘ग' प्रमुख विषय था।
अद्‌भुत है मेरा मित्र। उसके पास दोषों का ‘कैटलॉग' है। मैंने सोचा कि जब यह हर परिचित की निंदा कर रहा है, तो क्यों मैं लगे हाथ अपने विरोधियों की गत इसके हाथों करा लूं। मैं विरोधियों के नाम लेता गया और वह निंदा की तलवार से काटता चला गया। जैसे लकड़ी चीरने की आरा मशीन के नीचे मजदूर लकड़ी काटता है, वैसे ही।
                   मेरे मन में गत रात्रि उस निंदक मित्र के प्रति मैल नहीं रहा। दोनों एक हो गए। तीन चार घंटे बाद जब वह विदा हुआ तो मन में शांति और तुष्टि थी। निंदा की ऐसी ही महिमा है। निंदकों की सी एकाग्रता, परस्पर आत्मीयता, निमग्नता भक्तों में दुर्लभ है। इसलिए संतों ने निंदकों को ‘आंगन कुटी छवाय' पास रखने की सलाह दी है।
                   निंदा कुछ लोगों के लिए टॉनिक होती है। हमारी एक पड़ोसन वृद्धा बीमार थी। उठा नहीं जाता था। सहसा किसी ने आकर कहा कि पड़ोसी डॉक्टर साहब की लड़की किसी के साथ भाग गई। बस चाची उठी और दो-चार पड़ोसियों को यह बात अपने व्यक्तिगत ‘कमेंट' के साथ सुना आई। उस दिन से उनकी हालत सुधरने लगी।
                   ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निंदा भी होती है। लेकिन इसमें वह मजा नहीं, जो मिशनरी भाव से निंदा करने में आता है। निंदकों को दंड देने की जरूरत नहीं, खुद ही दंडित है। आप चैन से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता।
                   निंदा का उद्‌गम हीनता और कमजोरी से होता है। निंदा करके उसके अहं को तुष्टि मिलती है। ज्यों कर्म क्षीण होता जाता है, त्यों निंदा की प्रवृत्ति में दिनोंदिन इजाफा होता चला जाता है। इंद्र को बड़ा ईर्ष्यालू माना जाता है, क्योंकि वह निठल्ला है। स्वर्ग में देवताओं को बिना उगाया अन्न, महल मिल जाते हैं। अकर्मण्यता में उन्हें अप्रतिष्ठित होने का भय बना रहता है, इसलिए कर्मी मनुष्य से उन्हें ईर्ष्या होने लगती है।
                   निंदा कुछ लोगों की पूंजी होती है। बड़ा लंबा-चौड़ा व्यापार फैलाते हैं वे इस पूंजी से। कई लोगों की ‘रिस्पेक्टेबिलिटी' (प्रतिष्ठा) ही दूसरों की कलंक-कथाओं के पारायण पर आधारित होती है।
आप इनके पास बैठिए और सुन लीजिए, ‘बड़ा खराब जमाना गया। तुमने सुना? फलां...और अमुक...।' अपने चरित्र पर आंख डालकर देखने की इन्हें फुरसत नहीं होती। चेख़व की एक कहानी याद रही है। एक स्त्री किसी सहेली के पति की निंदा अपने पति से कर रही है। वह बड़ा उचक्का दगाबाज आदमी है। बेईमानी से पैसा कमाता है। कहती है कि मैं उस सहेली की जगह होती तो ऐसे पति को त्याग देती। तब उसका पति उसके सामने यह रहस्य खोलता है कि वह स्वयं बेईमानी से इतना पैसा लाता है। सुनकर स्त्री स्तब्ध रह जाती है। क्या उसने पति को त्याग दिया? जी हां, वह दूसरे कमरे में चली गई।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम में जो करने की क्षमता नहीं है, वह यदि कोई करता है तो हमारे अहम् को धक्का लगता है, हम में हीनता और ग्लानि आती है। तब हम उसकी निंदा करके उससे अपने को अच्छा समझकर तुष्ट होते हैं।
उस मित्र की मुलाकात के करीब दस-बारह घंटे बाद यह सब मन में रहा है। अब कुछ तटस्थ हो गया हूं। सुबह जब उसके साथ बैठा था तब मैं स्वयं निंदा के ‘काला सागर' में डूबता-उतरता था, कलोल कर रहा था। बड़ा रस है निंदा में। सूरदास ने इसे ‘निंदा सबद रसाल'कहा है।

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राष्ट्रभाषा की समस्या- डॉ. विद्यानिवास मिश्र।


राष्ट्रभाषा और भाषा में मुख्य अंतर यह नहीं है कि एक व्यापक भौगोलिक विस्तार की क्षमता रखती है, दूसरी नहीं, यह भी नहीं है कि राष्ट्रभाषा के बोलनेवालों की संख्या अपेक्षाकृत बड़ी होती है। मुख्य अंतर यह है कि राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा राष्ट्रीय मूल्य के रूप में होती है। अपनी भाषा के प्रति निष्ठा राष्ट्रभाषा के प्रति दी गई निष्ठा से उद्भूत होती है। दूसरे शब्दों में भाषा राष्ट्रभाषा बनती है, संख्या के बल पर नहीं, भाषा में निहित सांस्कृतिक सम्पदा के बल पर भी उतनी नहीं, वह राष्ट्रभाषा बनती है अपने बोलने वालों की निष्ठा के बल पर। जिस भाषा पर समस्त राष्ट्र गर्व करता है। जिस भाषा की प्रतिष्ठा को प्रत्येक राष्ट्रवासी राष्ट्र की प्रतिष्ठा का पर्याय मानता है, जिस भाषा के मूल्य को अपने मानवीय मूल्यों में सर्वप्रमुख स्थान देता है, वही भाषा राष्ट्रभाषा होती है। भारतवर्ष में राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा साधारण जन के उत्थान के लिए उठे संतों ने दी। नामदेव, कबीर, नानक, तुलसी, जायसी,सूर जैसे कवियों ने हिंदी को भक्ति की सूरसरि से अभिन्न माना, उस युग में छोटे-से-छोटे आदमी में भगवान को देखना ही सबसे बड़ा मानवीय मूल्य था। इस मूल्य का पर्याय बनी हिंदी। शास्त्रीय चिंतन की भाषा के रूप में संस्कृत बनी रही, पर शुष्क शास्त्रीय चिंतन जो जीवन से निरपेक्ष हो, मनुष्य की स्वाधीनता और मनुष्य की क्षमता का आवाहन न कर सकता हो, मध्य युग में द्वितीय श्रेणी का मूल्य था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से बीसवीं शती के पूर्वार्ध तक पूरा राष्ट्र जिस मूल्य की साधना करता रहा, वह था स्वातंत्र्य। स्वातंत्र्य की भी वाहिका बनी हिंदी। जब तक स्वाधीनता का बोध केवल कुछ थोड़े से बुद्धिजीवियों तक सीमित था तब तक’कण्टकेनैव कण्टकम्' की नीति से अंग्रेजी के प्रभुत्व को अंग्रेजी के द्वारा हटाने का प्रयत्न होता रहा, पर ज्योंही प्रथम विश्व युद्ध के बाद महात्मा गाँधी ने स्वाधीनता के आग्रह को जनता के सत्य के आग्रह के रूप में देखना शुरू किया, त्योंही स्वदेशी और हिंदी स्वाधीनता के पर्याय बन गए। हिंदी के माध्यम से ही राष्ट्रीय स्वाधीनता की पूर्णतम् अभिव्यक्ति हुई। हिंदी भाषी क्षेत्र में इसी से सबसे अधिक अदम्य विद्रोह बार-बार उमड़ता रहा, ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ का बोध दहकता रहा। राष्ट्रीय सत्र पर स्वाधीन शिक्षा के प्रयोग के रूप में काशी विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन, राष्ट्रभाषा प्रचार सभा जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई। हिंदी राष्ट्रभाषा किसी कानून से, किसी बहुमत से या किसी अनुचित दबाव से नहीं- स्वाधीनता की यज्ञ में आहुति देने वाली प्रत्येक यजमान की श्रद्धा से, उसके ऋत्विजों की श्रद्धा से और स्वाधीनता की आवश्यकता से बनी। हिंदी को राष्ट्रभाषा भूगोल ने नहीं, इतिहास ने बनाया। वह इतिहास हमसे काट दिया जाए तो हिंदुस्तान नहीं रहेगा। हिंदी को राष्ट्रभाषा नेताओं ने नहीं, नेताओं की नेता बनानेवाली उस भारतीय जनता ने बनाया जो संतों के सत्य की भाँति दूब बनकर बिछी रही, जिसे कुचलकर भी कुचला न जा सका। जिसे कोई भी आततायी उन्मूलित न कर सका। उस खेतिहर जनता ने, अपढ़ पर भी तर से संस्कृत जनता ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया। उस जनता की आकांक्षा को व्यक्त करने के लिए, उसकी प्रतिष्ठा को सबसे बड़ी प्रतिष्ठा देने के लिए अहिंदी भाषी दूरदर्शी जननायकों ने हिंदी के आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन का अंग बनाया।
                   राजनीतिक स्वाधीनता मिलने के बाद इस देश में सबसे बड़ी चिंताजनक स्थिति आयी- बुद्धिवादी जन में मूल्य-बोध के अभाव की। अपने बचाव के नाम पर, अपनी सुविधा के नाम पर तथा सबसे सीधे रास्ते की खोज के नाम पर दो परस्पर विरोधी शक्तियों का गठबंधन हुआ। एक थी जनता से शक्ति ग्रहण करने वाली, दूसरी थी जनता के विदेशी शासन से शक्ति ग्रहण करनेवाली। एक थी कंटकाकीर्ण पंथों की अभ्यस्त, दूसरी थी मखमली फर्शों पर चलने की आदी। एक थी भारतीय इतिहास के गंभीर दायित्व से दबी, दूसरी थी सास्कृतिकमात्र के दायित्व से मुक्त। परिणाम यह हुआ कि ऐसी युगसंध्या उपस्थित हुई, जिससे हर मूल्य धुँधला हो गया। इस धुँधलके में जो दिनभर सूरज के साथ खटते रहे, वे सो गए, पर जो दिन में आराम की नींद सोते रहे, उनके नैशविहार मुखर होने लगे। कृत्रिम रोशनी में उनकी अधनीदीं आँखें चमकने लगीं।  दिवास्वप्नों में रहने वाले लोग यथार्थ की रचना में लगे, राष्ट्रसाधना पर पटाक्षेप हुआ, स्वाधीनता का उपभोग शुरू हुआ। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्र की स्वाधीनता की विगत कहानी ही भूल गई, राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा कैसे न भूलती?
मैं इसीलिए इस पर बल देता हूँ कि हमारे देश में आज जो एक कृत्रिम प्रकाश में हर चीज विलग दिखती है, आकाश सत्ताईस नक्षत्रों में विभक्त दिखता है, अपने कमरे का कोना भी अलग कमरा प्रतीत होता है, एक छोटी सी कुर्सी की आड़ में पड़कर, इसका कारण है बुद्धिजीवी वर्ग की मूल्यबोध पर पर्दा पड़ गया है। इसका कारण है हममें से जो सुसंस्कृत होने का दावा करते हैं, वे भूल गए हैं कि भाषा का संस्कार भाषा के साथ जीने से आता है, भाषा के साथ खिलवाड़ करने से नहीं आता। इसका कारण है हम भावनात्मक एकता की बात तो करते हैं, पर स्वयं भावना से अछूते हैं। देश को एक, अविभाज्य और समग्र देखने वाली आँख तो थी हिंदी, उसी में उँगली घुसेड़कर देश की एकता की रक्षा करने की बात की जा रही है। हम अपने बुद्धि विलासकक्ष से बाहर निकल कर एक क्षण भी आस-पास में अपने को घोलते तो हमें अपना अपराध साफ जाहिर हो जाता। इसीलिए मेरी दृष्टि में राष्ट्रभाषा हिंदी की सबसे प्रमुख समस्या है राष्ट्रबोध की कमी, राष्ट्रभाषा के प्रतिष्ठाबोध की कमी और हिंदी के साथ अधिकतर बुद्धिजीवी जन के तादात्म्य की कमी। इस समस्या का समाधान तभी होगा, जब हम राष्ट्रभाषा के प्रश्न को दल-बद्ध राजनीति के चिंतन के स्तर से ऊपर ले जाकर राष्ट्रीय धरातल पर हल करने का संकल्प करेंगे। एक भाषा को दूसरी भाषा से छोटी बड़ी मानने से झगड़े होते हैं, पर जब हिंदी को राष्ट्रीय हित की संरक्षिका मान लेंगे, तो हिंदी किसी दूसरी भाषा से प्रतिस्पर्धा करने वाली नहीं रहेगी, वह भाषा की समृद्धि को और विस्तृत करने वाली उस भाषा की राष्ट्रीय प्रतिभा बन जाएगी।
                   इस भावना से काम करना शुरू हुआ था गुजरात, महाराष्ट्र, असम, उत्कल, आन्ध्र, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और सिंध तक में, पर वह कार्य हमारी गफलत से यंत्रवत् होने लगा, भावनाशून्य होने लगा, इसलिए विघटन के स्वर फूटने लगे। आज यह कार्य नए सिरे से करना आसान नहीं है। इसके लिए घोर परिश्रम, धैर्य और नैतिक साहस की आवश्यकता है।
                    शब्दकोश, ज्ञान राशि के अनुवाद, पाठ्य-पुस्तकें, भाषा-शिक्षक, प्रशिक्षक, शिक्षकों के आदान-प्रदान जैसे कार्य तब तक निष्प्रभाव बने रहेंगे, जब तक साध्य का ध्यान हमारे चित्त में नहीं आता। इसलिए इन साधनों की कमी या अपर्याप्तता को मैं राष्ट्रभाषा हिंदी की समस्या जैसी समस्या नहीं मानता। संकल्प की दृढ़ता के आगे ये कार्य समस्या नहीं रह जाते, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे सामने है। सन् 1949 में संविधान के मसविदे का एक अनुवाद एक बहुत ही कृत्रिम हिंदी में प्रस्तुत किया गया। श्रद्धेय टंडन जी ने उस अनुवाद को हिंदी के लिए एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। प्रयाग आकर उन्होंने आदेश दिया कि क्या समवेद का एक ऐसी हिंदी में अनुवाद एक सप्ताह के भीतर करके रखा जा सकता है, जो हिंदी की सहजता और विचार की सूक्ष्मता दोनों का निर्वाह कर सकें। स्व0 राहुल जी ने कहा- “हो सकता है” और राहुल जी और मैं दोनों आदमी बैठ गए। सात दिनों के भीतर ही अनुवाद लिखा गया, छपने को दिया गया और छापकर टंडन जी को अनुवाद की 500 प्रतियाँ समर्पित कर दी गई। आज भी अभाव की बाधाएँ  निष्ठा की चुनौती पर झुक जाएँगी। प्रश्न है- निष्ठा हो। निष्ठा बाहरी दबाव से आएगी नहीं, या विनाश की आशंका से आएगी या देश की संस्कृति से अपने को जोड़ने की भीतरी श्रद्धा से। भगवान न करें कि पहला विकल्प उपस्थित हो।
                   हिंदी के प्रति निष्ठा रखनेवाले का कार्य इसीलिए बहुत ही कठिन है। उसे राष्ट्र का निर्वाह और राष्ट्रभाषा का निर्वाह एक साथ करना है, पर एक के लिए दूसरे की बलि देकर नहीं। विनय और सत्य के लिए आग्रह एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं, इस विश्वास के साथ हिंदी-निष्ठ साहित्यसेवियों, विचारकों, कार्यकर्ताओं और शिक्षकों को देश की प्रतिमा हिंदी के साँचे में ढालते रहना चाहिए। देश में राष्ट्रीय मूल्यों की प्रतिष्ठा एक दिन होकर रहेगी।

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बहता पानी निर्मला- अज्ञेय ।


मुझे बचपन से नक्शे देखने का शौक है। आप समझेंगे कि कुछ भूगोल की तरफ प्रवृत्ति होगी- नहीं, सो बात नहीं। असल बात यह है कि नक्शों के सहारे दूर दुनिया की सैर का मजा लिया जा सकता है। यों तो वास्तविक जीवन में भी काफी घूमा-भटका हूँ, पर उसमें कभी तृप्ति नहीं हुई, हमेशा मन में यही रहा कि कहीं और चलें, कोई और नई जगह देखें, और इस लालसा ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है। नक्शों से यह फायदा होता है कि मन में घोड़े पर सवार होकर कहीं चले जाइए, कोई रोक नहीं, अड़चन नहीं, और जब चाहे लौट आइए, या ना भी लौटिए- कोई पूछने वाला नहीं कि हजरत कहाँ रम रहे।
                    यों तो नक्शों में तरह-तरह के रंगों से कुछ मदद मिलती है यह तय करने में कि कहाँ जाए? जिसे हरी-भरी जगह देखनी हो वह नक्शों की हरी-भरी जगहों में घूमे, जिसे पहाड़ी प्रदेश देखने हो- वह भूरे या पीले प्रदेशों में चला जाए, और जिसे एकदम अछूते, अपरिचित प्रदेश में जाने का जोखिम पसंद हो वह बिल्कुल सफेद हिस्सों की ओर चल निकले- आदिकालीन बर्फीले मरु प्रदेशों में, जंगलों में, समुद्र में, समुद्र-द्वीपों में। नक्शों में कहीं लिखा रहता है कि इस प्रदेश का सर्वेक्षण नहीं हुआ है। हिमालय के अनेक भाग ऐसे हैं या कि ‘अगम्य जंगल’- असमिया सीमा-प्रदेश में ऐसे स्थल हैं, जरा कल्पना कीजिए ऐसी जगहों में जा निकलने का आनंद!
                    लेकिन इससे अधिक सहायता मिलती है जगहों के नामों से। बचपन में एक नाम पढ़ा था ‘अमरकंटक’। यह नाम ही इतना पसंद आया कि मैंने चुपके से एक कंबल और दो-चार कपड़ों का बंडल बना लिया कि अभी चल दूंगा वहाँ के लिए। वहाँ जाना नहीं हुआ, अभी तक भी अमरकंटक नहीं देखा है और इस प्रकार उसका काँटा अभी तक सालता ही है, पर नक्शे की यात्रा तो कई बार की है, और अमरकंटक के बारे में उतना सब जानता हूँ जो वहाँ जाकर जान पाता। ऐसा ही एक और नाम था तरंगबाड़ी-यों नक्शे में उसका रूप विकृत होकर त्रांकुबार हो गया है। ‘तरंगों वाली बस्ती’- सागर के किनारे के गाँव का यह नाम सुनकर क्या आपके मन में तरंग नहीं उठती कि जाकर देखें? कई नाम ऐसे भी होते हैं जिनका अर्थ समझ में नहीं आता, पर ध्वनि ही मोह लेती है। जैसे ‘तिरुकुरंगुड़ि’ नाम सुनकर लगता है, मानो हिरनों का समूह चौकड़ी भरता जा रहा है। कुछ नाम ऐसे भी होते हैं कि अर्थ जानने पर ही उनका जादू चलता है, जैसे- ‘लू-हित’। ऊपरी ब्रह्मपुत्र के इस नाम को संस्कृत करके ‘लोहित्य’ बना लिया गया है जिससे अनुमान होता है कि वह लाल ताम्र वर्ण की होगी, पर वास्तव में लू-हित का अर्थ है ‘तारों की राजकन्या’ या ऐसे ही कुछ। ब्रह्मपुत्र का सौन्दर्य जिन्होंने नहीं देखा उनकी तो बात ही क्या ,जिन्होंने देखा भी है वे भी क्या इस नाम को जानकर ‘तारों की राजकन्या’ का तरुण लावण्यमय रूप देखने को ललक न उठेंगे?
                    होनहार बिरवान के होत चिकने पात में कुछ होनहार बिरवा तो नहीं था, पर नक्शों के बगदादी कालीन पर बैठकर हवाई यात्रा करने की इस आदत से यह तो पता लग सकता था कि आगे चलकर भी कहीं टिककर नहीं बैठूंगा। बात भी ऐसी है, लगातार कुछ दिन भी एक जगह रहता हूँ तो अपनी इच्छा से नहीं, लाचारी से और उस लाचारी में बहुत-से नक्शे जुटाकर फिर अपने लिए कोई हीला निकाल ही लेता हूँ। और आप सच मानिए, जीने की कला सबसे पहले एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की कला है- कम-से-कम आधुनिक काल में, जब मानव जाति का इतना बड़ा अंश या तो प्रवासी है या शरणार्थी ही। एक स्थान से दूसरे स्थान,एक पेशे से दूसरे पेशे में, एक घर से दूसरे घर, इत्यादि।
                   यात्रा करने के कई तरीके हैं। एक तो यह कि आप सोच-विचार कर निश्चय कर लें कि कहाँ जाना है, कब जाना है, कहाँ-कहाँ घूमना है, कितना खर्च होगा, फिर उसी के अनुसार छुट्टी लीजिए, टिकट कटाइए, सीट या बर्थ बुक कराइए, होटल, डाक-बंगले को सूचना देकर सुरक्षित कराइए या भावी अतिथियों को खबर कीजिए- और तब चल पड़िए। बल्कि तरीका तो यही एक है, क्योंकि वह व्यवस्थित तरीका है। और इसमें मजा बिल्कुल नहीं है यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बहुत से लोग ऐसे यात्रा करते हैं और बड़े उत्साह से भरे वापस आते हैं।
                    दूसरा तरीका यह है कि आप इरादा तो कीजिए कहीं जाने का, छुट्टी भी लीजिए, इरादा और पूरी योजना भी चाहे घोषित कर दीजिए पर एन मौके पर चल दीजिए कहीं और को। जैसे घोषित कर दीजिए कि आप बड़े दिनों की छुट्टियों में मुंबई जा रहे हैं, लोगों को ईर्ष्या से कहने दीजिए कि अमुक मुंबई का सीजन देखने जा रहा है, मगर चुपके से पैक कर लीजिए जबरदस्त गर्म कपड़े और जा निकलिए बर्फ से ढके श्रीनगर में।
                    लेकिन अपनी भी कुछ बातें कहूँ। मैं दूसरे तरीके का कायल हूँ यह तो आप समझ ही गए होंगे। लेकिन जब निकलता ही हूँ पर एक तीसरा तरीका भी अख्तियार करता हूँ। जैसे कहा तो सबसे यह कि मुंबई जा रहे हैं, मगर जब स्टेशन गए तो यह तय करके कि नैनीताल जा रहे हैं और वहाँ से हिमालय की भीतरी प्रदेशों में और इस तरह जा निकले- शिलांग!
           शिवसागर के आगे सोनारी के पास में डि-खू नदी की बाढ़ में कैसे फंस गया था, इसका यही रहस्य है।
                    अंग्रेजी में कहावत है कि ‘एक कील की वजह से राज्य खो जाता है’....वह यों कि कील की वजह से नाल, नाल की वजह से घोड़ा, घोड़े के कारण लड़ाई और लड़ाई के कारण राज्य से हाथ धोना पड़ता है। हमारे पास छिनने को राज्य तो था नहीं, पर दाँत मांजने के एक ब्रुश और मोटर की एक मामूली-सी ढिबरी के लिए हम कैसी मुसीबत में पड़े यह हम ही जानते हैं।                 सोनारी एक छोटा-सा गाँव है -अहोम राजाओं की पुरानी राजधानी, शिवसागर से कोई 18 मील दूर। वहाँ भी नाम के आकर्षण से चला गया था। यों असम में ‘सोना’ या ‘स्वर्ण’ बहुत से नामों में है-सुबनश्री, सोना भारती बगैरह- और असम भी ‘सोनार असम’- सोने का असम कहलाता है। बरसात के दिन थे, रास्ता खराब, एक दिन सवेरे घूमने निकला तो देखा कि नदी बढ़कर सड़क के किनारे आ गई है। मैं शिवसागर से तीन-चार मील पर था, सोचा कि एक नया दाँ- ब्रुश ले लूँ, क्योंकि पुराना घिस चला था, और मोटर की भी एक ढिबरी ठीक करवा कर ही लौंटू....... उसकी चूड़ी घिस जाने से थोड़ा-थोड़ा तेल चूता रहता था, वैसे कोई जरूरी काम नहीं था। खैर, इसमें कोई दो घंटे लग गए, तो खाना खाने में एक घंटा और। तीन घंटे बाद वापस लौटने लगे तो देखा ,सड़क पर पानी फैल गया है। पानी गहरा नहीं होगा यही सोचकर मैं मोटर बढ़ाता चला गया। आगे देखा, सब ओर पानी ही पानी है, सड़क का कहीं पता नहीं लगता, सिर्फ पेड़ों की कतार से अंदाज लग सकता था। पर पानी बड़े जोर से एक तरफ से दूसरी तरफ बह रहा था, क्योंकि सड़क के एक तरफ नदी थी, दूसरी तरफ नीची सतह से धान के खेत, जिनकी ओर बढ़ रहा था। पानी के धक्के से सड़क कई जगह टूट गई थी। मैं फिर भी बढ़ता गया, क्योंकि आख़िर पीछे भी पानी ही था। पर थोड़ी देर बाद पानी कुछ गहरा हो गया और धक्के से मोटर भी सड़क से हटकर किनारे की ओर जाने लगी। आगे कहीं कुछ दिखता नहीं था, क्योंकि सड़क की सतह शायद दो तीन मील आगे तक बहुत नीची ही थी। सड़क के दोनों ओर जो पेड़ थे उनमें कइयों पर साँप लटक रहे थे, क्योंकि बाढ़ से बचने के लिए पहले सड़क पर आते थे और फिर पेड़ों पर चढ़ जाते थे।
                     मैंने लौटने का ही निश्चय किया। पर सड़क दिखती तो थी नहीं, अंदाज से मैं बीच के पक्के हिस्से पर गाड़ी चला रहा था। मोड़ने के लिए उसे पटरी से उतारना पड़ेगा.. और इधर-उधर सड़क है भी कि नहीं, इसका क्या भरोसा? मैं और एक जगह देख भी चुका था की आंखों के सामने ही कैसे, समूचा ट्रक दलदल में धँसकर गायब हो जाता है। इसलिए मोटर को बिना घुमाए उल्टे गियर में कोई ढाई मील तक लाया, यहाँ सड़क कुछ ऊँची थी। उस पर गाड़ी घुमाकर शिवसागर पहुँचा।
                    शिवसागर से सोनारी को एक दूसरी सड़क भी जाती थी चाय बागानों में से होकर। यह सड़क अच्छी थी ,पर इसके बीच में एक नदी पड़ती थी जिसे नाव से पार करना होता था। मैंने सोचा इसी रास्ते चलें, क्योंकि सामान तो सब सोनारी में था। मैं डाक-बंगले से कुछ घंटों के लिए ही तो निकला था। शिवसागर में एक तो मोटर की ढिबरी कसवानी थी और दूसरे, दाँत-ब्रुश और कुछ तेल-साबुन लेना था, बस। वह भी लौटने की जल्दी के कारण नहीं लिया था।
                    इस सड़क से नदी तक पहुंच गए- वह बड़ी मुश्किल से, क्योंकि रास्ते में बड़ी फिसलन थी और गाड़ी बार-बार अटक जाती थी। नदी में नाव पर गाड़ी लाद भी ली, और पार भी चले गए। यहाँ भी नदी में बाढ़ आई थी और बहते हुए टूटे छप्पर बता रहे थे कि नदी किसी गाँव को लीलती हुई आई और पेड़-पौधों की गिनती क्या। उस पार नदी का किनारा ऊँचा था, मोटर के लिए उतारा बना हुआ था, लेकिन नाव के किनारे तक जो तख्ते डाले गए थे, वे ठीक नहीं लग रहे थे। मोटर जब तख्तों पर आई और नाव एक तरफ को झुकी तो तख्ते फिसल गए,नाव दूर हट गई, मोटर नीचे गिरी, आधी पानी में, आधी किनारे पर। मैं जोर से ब्रेक दबाए बैठा था, पर ऐसे अधिक देर तक तो नहीं चल सकता था। लेकिन मैं तो मोटर के साथ खुद बँधा बैठा था, उतर कर समझा नहीं सकता था। खैर, आधा घंटा उस स्वर्ग-नसैनी पर बैठे-बैठे असमिया, हिंदी और बांग्ला की खिचड़ी में लोगों को बताता रहा कि क्या करें, तब मोटर ऊपर चढ़ाई जा सकी। थोड़ा आगे ही ऊँची जगह गाँव था। वहाँ मोटर रोककर चाय की तलाश की। यहीं सोनारी से आए दो साइकिल-सवारों से मालूम हुआ कि वह कंधे तक पानी में से निकल कर आए हैं- साइकिल कंधों पर उठाकर! और मोटर तो कदापि नहीं जा सकती।
                    इस तरह इधर भी निराशा थी। पानी अभी बढ़ रहा था। यह गाँव ऊंची जगह था, पर यहाँ कैद हो जाना मैं नहीं चाहता था इसलिए फिर नाव पर मोटर चढ़ाकर उसी रास्ते नदी पार की। सबने मना किया पर मेरे सिर पर भूत सवार था और हठधर्मी का अपना अनूठा रस होता है।
                    रात शिवसागर पहुँचे। एक सज्जन ने ठहरने की जगह दी। भोजन बिस्तर का प्रबंध हो गया, पर दाँत का ब्रुश तो उधार नहीं लिया जा सकता। सबेरे- सबेरे चलकर 128 किलोमीटर दूर डिब्रूगढ़ पहुँचे, वहाँ ब्रुश लेकर मुँह-हाथ धोकर स्वस्थ हुए, यहाँ एक कमीज और पैंट खरीदकर कपड़े बदले, रात के लिए एक कंबल खरीदा। मन-ही-मन अपने को कोसा कि नया दाँत-ब्रुश लेने के लिए न सोनारी से निकले होते न मुसीबत होती, क्योंकि इसकी ऐसी तात्कालिक आवश्यकता तो थी नहीं, न मोटर की ढिबरी का मामला ही इतना जरूरी था। लेकिन उपाय क्या था?
                    इस तरह बारह  दिन और काटने पड़े, क्योंकि सोनारी के सब रास्ते बंद थे। लौटकर देखा, सोनारी डाक- बंगले में पानी भर गया था, कपड़े सब सेल कर रहे थे किताबें तो कल ही गई थी बचा था तो केवल स्नानघर में ऊँचे ताक पर रखा हुआ साबुन का डिब्बा और दाँतों का ब्रुश।
                   नक्शे मैं अब भी देखता हूँ।  वास्तव में जितनी यात्राएँ पैरों से करता हूँ, उससे ज्यादा कल्पना के चरणों से करता हूँ। लोग कहते हैं कि मैंने अपने जीवन का कुछ नहीं बनाया, मगर मैं बहुत प्रसन्न हूँ और किसी से ईर्ष्या नहीं करता। आप भी अगर इतने ही खुश हों तो ठीक- तो शायद आप पहले से मेरा नुस्खा जानते हैं- नहीं तो मेरी आपको सलाह है, “जनाब, अपना बोरिया- बिस्तरा समेटिये और जरा चलते- फिरते नजर आइए।” यह आपका अपमान नहीं है, एक जीवन- दर्शन का निचोड़ है। ‘रमता राम’ इसीलिए कहते हैं कि जो रमता नहीं, वह राम नहीं, टिकना तो मौत है।

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संस्कृतियों का संगम-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी


अपने प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से हम ऐसी अनेक जातियों का परिचय पाते हैं जिनमें आचार-विचारगत पार्थक्य बहुत अधिक मात्रा में वर्तमान था । ये जातियाँ सभ्यता के नाना स्तरों पर स्थित थीं और उनमें अकारण और सकारण युद्ध बराबर होते रहते थे । अधिकांश युद्ध विभिन्न विश्वासों और संस्कारों के संघर्ष के कारण हो जाते थे । भौगोलिक- तत्व के पण्डितों का अनुमान है कि इस देश का मध्य और दक्षिणी भाग  पुराना है, हिमालय और राजपूताना अपेक्षाकृत नये भूखण्ड हैं जिनमें एक भूगर्भ के आकस्मिक उत्पात से समुद्र में उन्नत हो आया और दूसरा प्रकृति के सहज क्रम में सूखकर मरुभूमि बन गया है । इस पर से यह समझा जा सकता है कि यदि इस देश में प्रथम मनुष्य का वास कहीं हुआ होगा तो वह विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में ही कहीं रहा होगा । यह भूभाग कभी आस्ट्रेलिया के विशाल द्वीप के साथ स्थल मार्ग से सम्बद्ध था और निकोबार और मलक्का के द्वीप भी इस भूभाग के ही संलग्न अंश थे । इस भूखण्ड में कभी मुंडा या कोल श्रेणी की जातियों की बस्ती थी । ये जातियाँ अब ही वर्तमान हैं और अपनी पुरानी परम्परा को कथंचित् जिलाए रखने में समर्थ हैं । साधारणतः यह समझा जाता रहा है कि ये जातियाँ भारतीय सभ्यता के केन्द्रों, संचरण मार्गों और तीर्थस्थलों से दूर रहने के कारण इस सभ्यता को बहुत कम ‘संसर्ग-दुष्ट’ बना सकी हैं । पर आधुनिक शोधों से बिलकुल उलटे तथ्यों का आविष्कार हुआ है । प्रो. सिलवा लेवी ने अंग-बंग, कामरूप-तामरूप, कलिंग-त्रिलिंग आदि देशवाचक और स्थानवाचक नामों के अध्ययन से यह दिखा दिया है कि न जातियों की परम्परा एकदम उपेक्षणीय नहीं । लेवी के शिष्य प्रो. ज्युलुस्की ने मोनरूमेर श्रेणी की भाषाओं के साथ इन जातियों की भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन कर एकदम नयी जानकारियों का द्वार उद्घाटन कर दिया है । यह समक्षना गलत है कि ये जातियाँ हमारी सभ्यता में कुछ भी नहीं दे सकी हैं । अनेक वृक्षों के नाम, खेतीबाड़ी के औजारों और अन्य पारिभाषिक शब्दों के नाम इनकी भाषाओं में आये हैं । वृक्षपूजा इन जातियों की देन हो सकती है । मैंने अन्यत्र दिखाया है कि लिंग पूजा और लांगलधर और लांगूलधर देवता की पूजा भी इन जातियों से हिन्दू धर्म में आयी होंगी । ताम्बूल भी इसी श्रेणी की भाषा के किसी शब्द का संस्कृत रूप है । ताम्बूल को परवर्ती हिन्दू धर्म में और शिष्टाचार में जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है वह सर्वविदित है । उड़ीसा और बंगाल के अनेक धर्म-मतों पर और परवर्ती कबीर पंथ पर भी इनके प्रभाव का प्रमाण उपलब्ध हुआ है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेक हिन्दू जातियाँ भी मूलतः इसी श्रेणी की होंगी । हिन्दू समाज के निचले स्तर में खेतीबाड़ी करने वाली बहुत-सी जातियाँ इनका आर्यभाषी संस्करण हैं । इस प्रकार इन जातियों के अध्ययन से हमारे धर्म-जीवन की परम्परा के अध्ययन में बहुत सहायता मिल सकती है, पर दुर्भाग्यवश इनका जितना ठोस अध्ययन होना चाहिए उतना हुआ नहीं है ।

                             विन्ध्यपर्वत को पार करके दक्षिण जाने वाले सर्वप्रथम मुनि अगस्त्य समक्षे जाते हैं । साधारतः यह विश्वास किया जाता है कि श्रीरामचन्द्र ने दक्षिण को विजय किया और उन्होंने ही उस भूखण्ड में आर्य प्रभाव का विस्तार कियाव । यह बात केवल प्राचीन परम्परा की आधुनिक काल्पनिक व्याख्या मात्र हो सकती है और आंशिक रूप से सत्य भी हो सकती है । श्रीरामचन्द्र को दक्षिण की कई ऐसी जातियों का सहयोग मिला था जिन्हें कृषि कर्म का भी अभ्यास नहीं था और केवल वृक्षों की डाल और पहाड़ों के टुकड़े अर्थात पत्थर के अस्त्रों का ही व्यवहार जानती थी । इन्हें ‘बानर’ कहा गया है । राम के पास लोहे के बाण थे । आधुनिक शोधों से इस विचित्र रहस्य का उद्घाटन किया है कि उत्तर और दक्षिण के  प्रागैतिहासिक युग के इतिहास में एक बड़ा भारी अन्तर यह है कि उत्तर में प्रस्तर युग और लौह युग के बीच में ताम्र युग आता है जबकि दक्षिण में प्रस्तर युग के बाद एकदम लौह युग आ जाता है । छोटा नागपुर की खुदाइयों से इसी तथ्य की पुष्टि होती है । विद्वानों ने अनुमान से कहा है कि द्रविड़ जातियों ने मुंडा या कोल जातियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था । सन् 1924 ई. में एक महत्वपूर्ण बात का पता लगा । डॉ. राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ों में और पं. दयाराम साहनी ने हरप्पा में धरती के नीचे गड़ी हुई एक अत्यन्त समृद्ध आर्यपूर्व सभ्यता का पता लगाया ।
परम्परया हम सुनते आते हैं कि रावण बहुत बड़ा शिव साधक था, वह वेदों का व्याख्याता था, वह शिल्प- शाखा का उन्नायक भी था और उसको आयुर्वेदिक आचार्य होने का गौरव भी प्राप्त था इन बातों के सबूत में कोई ऐतिहासिक समझा जाने वाला प्रमाण नहीं मिला है । रावण लिखित बतायी जाने वाली आयुर्वेद की पुस्तक बहत आधुनिक  है और जिन शिल्पग्रंथों में रावण प्रवर्तित शिल्प शाखा का उल्लेख है वे भी  गप्प हैं औरइनको एकदम अस्वीकार कर देना चाहिए । ऐतिहासिक प्रमाण समर्थित परम्परा बहुत बहुमूल्य होगी, इसमें सन्देह नहीं, पर असमर्थित परम्परा एकदम त्याज्य नहीं मानी जानी चाहिए ।
            पण्डितों में यह विश्वास जमता जा रहा है कि वृक्ष-पूजा, नर-बलि, जीव-बलि, मद्य-मांस की बलि, प्रेत-पूजा आदि आचारों का मूल उत्स मुण्डा या कोल जातियाँ हैं और मूर्ति-पूजा, ध्यान, जप, गुरु-पूजा, अवतारवाद आदि के मूल प्रेरणास्त्रोत ऐसी जातियाँ हैं जो इन कोल मुण्डा आदि श्रेणी की जातियों से अधिक सभ्य और समृद्ध थीं । एक शब्द में इनका नाम ‘द्रविड़’ रख दिया गया है ।
            परवर्ती काल का वह तन्त्रवाद, जिसमें स्त्रीतत्व की प्रधानता थी और शरीर को ही समस्त सिद्धियो का श्रेष्ठ साधन माना जाता था ।यक्ष, गन्धर्व आदि किरात जातियों की देन रहा होगा । उत्तर से ही कापालिक और वाममार्गों का आगमन हुआ होगा । हमने अन्यत्र इस विषय की विशेष छानबीन की है । बंगाल में इन लोगों के साथ द्रविड़ जातियों के मिश्रण से एक नयी जाति का जन्म हुआ है । बाद में चलकर आर्यरक्त का भी इस जाति में मिश्रण हुआ है ।
            परन्तु इन सबसे अधिक प्रभावशाली जाति आर्य हैं, जिनका वैदिक साहित्य इस देश की सभी जातियों पर जबरदस्त प्रभाव-विस्तार कर सका है । वे आर्य लोग किस ओर से भारतवर्ष की मध्यभूमि की ओर आये यह सर्वसम्मत बात है । उत्तर-पश्चिम की ओर से ही वे लोग मध्य देश में आये पर इस ओर आने के पहले वे कहाँ रहते थे यह बात बहुत उलझी हुई है ।, कुछ थोड़े से तथ्यों का पता लगा है । इनकी व्याख्या बहुत भाँति की होने के कारण ये तत्व स्वयं ही अस्पष्ट हो गये हैं । कुछ यूरोपियन पण्डितों ने एक बार यह बताने का यत्न किया था कि आर्य लोग यूरोप से इधर आए थे पर आरमीनियन भाषा पर इसका कोई चिह्न न मिलने से यह सोचा गया कि यूरोप से ईरान के रास्ते वे उस भूभाग को छोड़कर किसी प्रकार भारत नहीं आ सकते थे ।सन् 1909 ई. में हिटाइट की राजधानी बेगाज केउई की खुदाई से यह साबित हुआ कि हिटाइट भाषा का कोई न कोई सम्बन्ध आर्यभाषाओं से है । यद्यपि विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद ही बना रहा है कि हिटाइट भाषा आर्य-भाषा ही है या आर्य-भाषा द्वारा प्रभावित है । परन्तु इससे भी अधिक मनोरंजक आविष्कार यह हुआ है कि यूफ्रेटस के उपरले हिस्से के मित्तानी राज्य ने 1400ई. पू. में हिटाइट के राज्य से सन्धि करते समय उन देवताओं के नाम साक्षीरूप में लिये हैं जो भारतीय वैदिक साहित्य के विद्यार्थी के निकट अत्यधिक परिचित हैं । ये देवता हैं-मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्य । निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस भूभाग में आर्यों का आगमन किस समय हुआ होगा । स्टेनकोनो के इस अनुमान का अभी भी युक्तिसंगत खण्डन नहीं उपस्थित किया जा सका कि इन देवताओं की उपासना करने वाला सम्प्रदाय भारत वर्ष से कैपेडोशिया के किनारे-किनारे दूर तक फैल गया था । ऐसा जान पड़ता है कि मध्य-एशिया के किसी स्थान से आर्य नाना दिशाओं में फैले थे । इनका एक हिस्सा ईरान होकर भारत आया था और दूसरा खाडिल्या और एशिया माइनर की ओर चला गया था । जो हो, इन आर्यों का प्रभाव भारतवर्ष की विभिन्न जातियों पर बहुत अधिक पड़ा । हमारा उच्चतर दर्शन, धर्मतत्व और आध्यात्म इन आर्यों के साहित्य से निरन्तर प्रेरणा पाता रहा है ।
                                                परन्तु जैसा कि रवीन्द्रनाथ ने कहा है, यह भारतवर्ष महामानवसमुद्र है । केवल आर्य, द्रविड़, कोल और मुण्डा तथा किरात जातियाँ ही इसमें नहीं आयी हैं । कितनी ही ऐसी जातियाँ यहाँ आयी हैं जिन्हे निश्चित रूप से किसी खास श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । फिर उत्तर-पश्चिम से नाना जातियाँ राजनीतिक और आर्थिक कारणों से आती रही हैं । उन सबके सम्मिलित प्रयत्न से वह महिमाशालिनी संस्कृति उत्पन्न हुई है जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं ।
                        आज केवल अनुमान के बल पर ही कहा जा सकता है कि अमुक प्रकार का आचार आर्य है, अमुक प्रकार का विचार द्रविड़ है, पर इसमें सन्देह नहीं कि अनेक आर्य-अनार्य जातियों ने इस देश के धर्मविश्वास को नाना भाव से समृद्ध किया है। आज भी उन जातियों की थोड़ी बहुत परम्परा बच रही है । उनके अध्ययन से हम निश्चित रूप से इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि हमारे धर्मविश्वास को सभी जातियों से किसी-न-किसी रूप में प्रभावित अवश्य किया है ।

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भारत की सांस्कृतिक एकता-श्री रामधारी सिंह 'दिनकर'


अक्सर कहा जाता है कि भारतवर्ष की एकता उसकी विविधताओं में छिपी हुई है, और यह बात जरा भी गलत नहीं है, क्योंकि अपने देश की एकता जितनी प्रकट है, उसकी विविधताएँ भी उतनी ही प्रत्यक्ष हैं।
                    भारतवर्ष के नक्शे को ध्यान से देखने पर यह साफ दिखाई पड़ता है कि इस देश के तीन भाग प्राकृतिक दृष्टि से बिल्कुल स्पष्ट हैं। सबसे पहले तो भारत का उत्तरी भाग है, जो लगभग हिमालय के दक्षिण से लेकर विंध्याचल के उत्तर तक फैला हुआ है। उसके बाद विंध्य से लेकर कृष्णा नदी के उत्तर तक फैला हुआ है। जिसे हम दक्षिणी प्लेटो कहते हैं। इस प्लेटों के दक्षिण, कृष्णा नदी से लेकर कुमारी अंतरीप तक का जो भाग है, वह प्रायद्वीप जैसा है। अचरज की बात है कि प्रकृति ने भारत के जो ये तीन खंड किए हैं, वे ही खंड भारतवर्ष के इतिहास के भी तीन क्रीडास्थल रहे हैं। पुराने समय में उत्तर भारत में जो राज्य कायम किए गए, उनमें से अधिकांश विंध्य की उत्तरी सीमा तक ही फैलकर रह गये। विंध्य को लाँघकर उत्तर भारत को दक्षिण भारत से मिलाने की कोशिश तो बहुत की गई, मगर इस काम में कामयाबी किसी-किसी को ही मिली। कहते हैं, पहले-पहल अगस्त्य ऋषि ने विंध्याचल को पार करके दक्षिण के लोगों को अपना संदेश सुनाया था। फिर भगवान श्री रामचंद्र ने लंका पर चढ़ाई करने के सिलसिले में विंध्याचल को पार किया। महाभारत के जमाने में उत्तर और दक्षिणी भारत के अंश एक राज्य के अधीन थे या नहीं, इसका कोई पक्का सबूत नहीं मिलता, लेकिन, रामचंद्र जी ने उत्तरी और दक्षिणी भारत के बीच जो एकता स्थापित की,  वह महाभारत काल में भी कायम थी और दोनों भागों के लोग आपस में मिलते जुलते रहते थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में दक्षिण के राजे भी आए थे और कुरुक्षेत्र के मैदान में जो महायुद्ध हुआ था, उसमें भी दक्षिण के वीरों ने हिस्सा लिया था। इसका प्रमाण महाभारत में ही मौजूद है। इसी तरह चंद्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य और उसके बाद मुगलों ने भी इस बात के लिए बड़ी कोशिश की कि किसी तरह सारा देश एक शासन के अधीन लाया जा सके, और उन्हें इस कार्य में सफलता भी मिली। लेकिन भारत के इतिहास की एक शिक्षा यह भी है कि देश को एक रखने के काम में यहाँ के राजाओं को जो भी सफलता मिली, वह ज्यादा टिकाऊ नहीं हो सकी। इस देश के प्राकृतिक ढाँचे में ही कोई ऐसी बात थी, जो सारे देश को एक रहने देने के खिलाफ पड़ती थी। यही कारण था कि जब कोई भी बलवान और दूरदर्शी राजा इस काम में लगा, सफलता थोड़ी बहुत उसे जरूर मिली, लेकिन स्वार्थी, अदूरदर्शी और कमजोर राजाओं के आते ही देश की एकता टूट गई। और जो कठिनाई बिन्ध्य के उत्तर को विन्ध्य के दक्षिण में हुई, वही कठिनाई कृष्णा नदी से उत्तर के भाग को उसके दक्षिण के भाग से मिलाकर एक रखने में होती रही।
                    इस देश में वैर-फूट का भाव इतना प्रबल क्यों रहा, इसके भी कारण हैं। बड़ी-बड़ी नदियों और बड़े-बड़े पहाड़ों के गुण अनेक हैं। लेकिन उनमें एक अवगुण भी होता है कि वे जहाँ रहते हैं, वहाँ देश के भीतर अलग-अलग क्षेत्र बना देते हैं और इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के भीतर एक तरह की प्रांतीयता या क्षेत्रीय जोश पैदा हो जाता है। यह देश है बहुत विशाल। इसके उत्तरी छोर पर कश्मीर पड़ता है, जिसकी जलवायु लगभग मध्य एशिया की जलवायु के समान है। इसके विपरीत भारत के दक्षिण छोर पर कुमारी अंतरीप है, जहाँ के घरों की रचना और लोगों के रंग-रूप आदि में श्रीलंका या सीलोन का नमूना शुरू हो जाता है। चेरापूँजी भी इसी देश में है, जहाँ साल में पाँच सौ इंच से अधिक वर्षा होती है, और थार की मरुभूमि भी यहीं है, जहाँ वर्षा होती ही नहीं, अथवा नाममात्र को होती है।
                             जलवायु एवं क्षेत्रीय सुविधा के अनुसार ही लोगों के पहनावे-ओढ़ावे और खानपान में भी भेद हो जाता है। जो भेद भारत में बहुत ही प्रत्यक्ष है। असल में, इन भेदों को मिटाकर अगर हम कोई एक राष्ट्रीय ढंग चलाना चाहे तो उससे अनेक लोगों को बहुत ज्यादा तकलीफ हो जाएगी। उदाहरण के लिए अगर हम रोटी और उड़द की दाल अथवा रोटी और मांस को देश का राष्ट्रीय भोजन बना दें, तो पंजाबी लोग तो मजे मे रहेंगे लेकिन बिहारी और बंगाल के लोगों का हाल बुरा हो जाएगा। इसी तरह, अगर हम यह कानून बना दें कि हर हिंदुस्तानी को चप्पल पहनना ही होगा तो काश्मीर के लोग घबरा उठेंगे, क्योंकि पहाड़ पर चलने वालों के पाँवों में चप्पल ठीक-ठाक नहीं चल सकते। पहनावे-ओढ़ावे में भी जगह-जगह भिन्नता मिलाती है और पोशाकें भी जलवायु एवं क्षेत्रीय की सुविधा के अनुसार ही यहाँ तरह-तरह की फैली हुई है।
                    मगर, विविधता का सबसे बड़ा लक्षण यह है कि हमारे देश में अनेक प्रकार की भाषाएँ फैली हुई हैं और इनके कारण हम आपस में भी अजनबी के समान हो जाते हैं। उत्तर भारत में तो गुजरात से लेकर बंगाल तक की जनता के बीच संपर्क खूब हुआ है, इसलिए वहाँ भाषा-भेद की कठिनाई उतनी नहीं अखरती। लेकिन, अगर कोई उत्तर-भारतवासी दक्षिण चला जाए अथवा कोई दक्षिण-भारतीय उत्तर चला जाए और वह अपनी मातृभाषा के सिवा अन्य की भाषा नहीं जानता हो तो वह, सचमुच बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। भाषा-भेद की यह समस्या हमारी राष्ट्रीय एकता की सबसे बड़ी बाधा है। राष्ट्रीय एकता में पहले यह बाधा थी कि पहाड़ों और नदियों को लाँघना आसान नहीं था। मगर, अब विज्ञान के अनेक सुगम साधनों के उपलब्ध हो जाने से वह बाधा दूर हो गई है। आज अगर देश के एक कोने में अकाल पड़ता है तो दूसरे कोने से अनाज यहाँ तुरंत पहुँचा दिया जाता है। इसी प्रकार पहले जब देश के एक कोने में विद्रोह होता था, तब दूसरे कोने में पड़ा हुआ राजा जल्दी से फौज भेजकर उसे दबा नहीं सकता था और विद्रोह की सफलता से देश की एकता टूट जाती थी। लेकिन आज तो देश के चाहे जिस कोने में भी विद्रोह हो, हम दिल्ली से फौज भेज उसे तुरंत दबा सकते हैं। प्राकृतिक बाधाएँ खत्म हो गई हैं यही कारण है कि आज हमारी एकता इतनी विशाल हो गई है जितनी विशाल रामायण, मौर्य और मुगल जमानों में भी कभी नहीं हुई थी। अब भी जो क्षेत्रीय जोश या प्रान्तीय मोह बाकी है, वह धीरे-धीरे कम हो जाएगा, क्योंकि इस जोश को पालनेवाली प्राकृतिक बाधाएँ अब शेष नहीं है। मगर, भाषा-भेद की समस्या जरा कठिन है और उसका हल तभी निकलेगा जब हिंदी-भाषा का अच्छा प्रचार हो जाए। सौभाग्य की बात है कि इस दिशा में काम शुरू हो गए हैं और कुछ समय बीतते-बीतते हम इस बाधा पर भी विजय प्राप्त कर लेंगे।
                    यह तो हुई भारत की विविधता की कहानी। अब जरा यह देखने की कोशिश करनी चाहिए कि इस विविधता के भीतर हमारी एकता कहाँ छिपी हुई है। सबसे विचित्र बात तो यह है कि यद्यपि हम अनेक भाषाएँ बोलते हैं ( जिनमें चौदह भाषाएँ तो ऐसी हैं, जिन्हें भारत सरकार ने स्वीकृति दे रखी है। ये भाषाएँ है- हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, पंजाबी, कश्मीरी और संस्कृत), किंतु भिन्न-भिन्न भाषाओं के भीतर बहने वाली हमारी भावनधारा एक है, तथा हम प्रायः एक ही तरह के विचारों और कथा-वस्तुओं को लेकर अपनी-अपनी बोली में साहित्य रचना करते हैं। रामायण और महाभारत को लेकर भारत की प्रायः सभी भाषाओं के बीच अद्भुत एकता मिलेगी, इसके सिवा, संस्कृत और प्राकृत में भारत का जो साहित्य लिखा गया था, उसका प्रभाव भी सभी भाषाओं की जड़ में काम कर रहा है। विचारों की एकता जाति की सबसे बड़ी एकता होती है। अतएव भारतीय जनता की एकता के असली आधार भारतीय दर्शन और साहित्य हैं, जो अनेक भाषाओं में लिखे जाने पर भी, अंत में जाकर एक ही साबित होते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि फारसी लिपि को छोड़ दें तो भारत की अन्य सभी लिपियों की वर्णमाला एक ही है, यद्यपि वह अलग-अलग लिपियों में लिखी जाती हैं। जैसे हम हिंदी में क,ख,ग आदि अक्षर पढ़ते हैं, वैसे ही ये अक्षर भारत की अन्य लिपियों में भी पढ़े जाते हैं, यद्यपि उनके लिखने का ढंग और है।
                     हमारी एकता का दूसरा प्रमाण यह है कि उत्तर या दक्षिण चाहे जहाँ भी जाएँ, आपको जगह-जगह पर एक ही संस्कृति के मन्दिर दिखाई देंगे, एक तरह के आदमियों से मुलाकात होगी, जो चंदन लगाते हैं, पूजा करते हैं, तीर्थ-व्रत में विश्वास करते हैं और जो नई रोशनी को अपना लेने के कारण इन बातों को कुछ शंका की दृष्टि से देखते हैं। उत्तर भारत के लोगों का जो स्वभाव है, जीवन को देखने की जो उनकी दृष्टि है, वही स्वभाव और वहीं दृष्टि दक्षिण वालों की भी है। भाषा की दीवार के टूटते ही, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय के बीच कोई भी भेद नहीं रह जाता और वे आपस में एक दूसरे के बहुत करीब आ जाते हैं। असल में, भाषा की दीवार के आर-पार बैठे हुए भी वे एक ही हैं। वे धर्म के अनुयायी और संस्कृति की एक विरासत के भागीदार हैं। उन्होंने देश की आजादी के लिए एक होकर लड़ाई लड़ी और आज उसकी पार्लियामेंट और शासन-विधान भी एक हैं।
                    और जो बात हिंदुओं के बारे में कही जा रही है, वही बहुत दूर तक मुसलमानों के बारे में भी कही जा सकती है। देश के सभी कोनों में बसने वाले मुसलमानों के भीतर जहाँ एक धर्म को लेकर एक तरह की आपसी एकता है, वहाँ वे संस्कृति की दृष्टि से हिंदुओं के भी बहुत करीब हैं, क्योंकि ज्यादा मुसलमान तो ऐसे ही हैं जिनके पूर्वज हिंदू थे और जो इस्लाम धर्म में जाने के समय अपनी हिंदू आदतें अपने साथ ले गये। इसके सिवा अनेक सदियों तक हिंदू-मुसलमान साथ रहते आए हैं। और इस लंबी संगति के फलस्वरूप उनके बीच संस्कृति और तहजीब की बहुत-सी समान बातें पैदा हो गई हैं, जो उन्हें दिनोंदिन आपस में नज़दीक लाती जा रही हैं।
                    संसार के हर एक देश पर अगर हम अलग-अलग विचार करें तो हमें पता चलेगा कि प्रत्येक देश की एक निजी सांस्कृतिक विशेषता होती है, जो उस देश के प्रत्येक निवासी की चाल-ढाल, बात-चीत, रहन-सहन, खान-पान, तौर-तरीके और आदतों से टपकती रहती है। चीन से आने वाला आदमी, विलायत से आने वालों के बीच नहीं छिप सकता और यद्यपि अफ्रीका के लोग भी काले ही होते हैं, मगर वे भारतवासियों के बीच नहीं खप सकते। भारतवर्ष में यूरोपीय पोशाकें खूब चली हैं, लेकिन योरोपीय लिबास में सजे हुए हिंदुस्तानियों के बीच एक अंग्रेज को खड़ा कर दिया जाय, तो आसानी से पहचान लिया जाए इस तरह भारत की हिंदू ही नहीं बल्कि हिंदुस्तानी क्रिस्तान पारसियों मुसलमान भारत से बाहर जाने पर वह आसानी से पहचान लिया जाएगा। इसी तरह भारत के हिन्दू ही नहीं,बल्कि हिन्दुस्तानी क्रिस्तान,पारसी और मुसलमान भी भारत से बाहर जाने पर आसानी से पहचान लिये जाते हैं कि वे हिंदुस्तानी हैं। और यह बात कुछ आज पैदा नहीं हुई है, बल्कि इतिहास के किसी काल से भारतवासी भारतवासी ही थे, यही वह सांस्कृतिक एकता या शक्ति है, जो भारत को एक रखे हुए हैं। यही वह विशेषता है, जो उन लोगों में पैदा होती है जो एक देश में रहते हैं, एक तरह की जिंदगी बसर करते हैं और एक तरह के दर्शन और एक तरह की आदतों का विकास करके एक राष्ट्र के सदस्य हो जाते हैं।

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वैदिक दर्शन – समग्र जीवन दृष्टि- आचार्यनन्ददुलारे वाजपेयी ।


वैदिक वाङ्मय का प्रकाश उस समय हुआ था, जिसे हम सृष्टि का उषाकाल कहते हैं। उस प्रथम जागृति के काल में मनुष्य-मात्र एक ही साथ निवास करते थे। यद्यपि स्थान-विशेष के संबंध में मतभेद पाया जाता है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि वेदों में आदिमानवीय एकता के स्मारक भाव और भाषा अंकित हैं। इस आदिम एकता की स्मृति आज विशेष रूप से आह्लादजनक हो गई है, क्योंकि इतने दीर्घ समय के पश्चात पुनः उसी एकता की घड़ी निकट आ रही है। समय के सूने पथ पर चलते हुए मानव-यात्री या तो उस आदिकाल में ही एक साथ थे, या आज ही जब वे दुबारा मिल रहे हैं। इस मिलन-पर्व का केवल भावना-मूलक या मौखिक महत्व ही नहीं है, इसका महत्व मानवसत्ता के मध्यवर्तिनी प्राणशक्ति के समान ही अपरिमित है। वह महत्व तो हम सब समझ सकेंगे जब यह देख लेंगे कि उस प्राकृतिक एकता का मार्ग छोड़कर भटकते हुए मनुष्यों में कितने भ्रांत और बीहड़ पथों पर पैर रखा। कितने कृतृम बंधन बनाए और अब भी किस प्रकार उनमें जकड़े हुए हैं। वैदिक ऋषियों ने मूल-मानव-एक्य का अनुभव वास्तविक रूप में किया था- मनुष्य की यथार्थ सत्ता जिसमें भूत-भविष्य का भेद नहीं है, अपनी आँखों देखी थी। शताब्दियों के जीवन विकास के रहस्य वैदिक कवियों के करतलगत थे, उसी के आधार पर उन्होंने अपने शास्वत तंत्र की स्थापना की थी। प्रकाश में आने के पूर्व वेद सहत्रों वर्षों तक आर्यों की व्यापक जीवन की कसौटी में कसे जा चुके थे। अतः जब उनका आविर्भाव हुआ तब वे संस्कृति के पूर्व प्रतिबिंब ही हुये। देश और काल तो उनके उपादान ही थे, उन्हीं पर तो वह इमारत ही खड़ी हुई थी, इसीलिए समय और स्थिति की सापेक्षता उसमें नहीं है। इतने दीर्घ समय तक सुचिंतित और प्राकृतिक अनुभूतियों से ओतप्रोत रचना संसार में कोई दूसरा नहीं है। आज तो वेद हिंदुओं के धर्म ग्रंथ बने हुए हैं, शतशः मतमतांतर इनकी ऋचाओं से निकल कर तंतुवाय के तंतुओं की तरह फैल गए हैं। मेरा प्रयोजन उन तंतुओं की अनेकता प्रदर्शित करना नहीं है। मुझे तो उनकी एकता के संबंध में ही आज निवेदन करना है।
                    वैदिक ऋचायें क्या है? वे किस प्रकार प्रकाश में आईं? किस वस्तु का प्रकाश करती हैं? उनके भाव और भाषा में क्या विशेषता है? धर्म, दर्शन आदि की भित्ति उनमें कहाँ मिलती है? मनुष्यता के लिए उनका संदेश क्या है? रहस्य और महत्व क्या है? ये सभी प्रश्न इस स्थल पर उपस्थित हैं। वेदों का उर्जस्वी शब्द-चयन उसे सर्वोच्च कोटि के साहित्य का पद प्रदान करता है। उसके भावों में एक संशयहीन आवाहन और आदेश है जिसने समस्त आर्य जाति को आकर्षित कर एक सूत्र में सुसंलग्न किया था।                       वेद की अधिकांश ऋचाएँ देवताओं के लिए की गई स्तुतियाँ हैं। देवताओं में से ऊषा,अग्नि,सविता,अपा,वायु,पर्यजन्य तथा पृथ्वी आदि तो स्पष्टतः प्राकृतिक पदार्थ हैं अर्थात उनका रूप प्रत्यक्ष है। शेष कतिपय वरुण, इन्द्र सोम आदि यद्यपि किसी दृश्य वस्तु के प्रतिनिधि नहीं है तथापि उनका घनिष्ठ संबंध आर्यों के दैनिक जीवन से था। इन्द्र उनके बल, वीर्य और पराक्रम के, वरुण उनकी मानसिक तथा आचारपरक प्रवृत्तियों के और सोम उनके सुख के देवता जान पड़ते हैं। इन्हीं देवताओं की स्तुति में आर्यों ने ऋचायें बनाईं और इन्हीं के लिए यज्ञों के विधान किए। तत्कालीन संपूर्ण जीवन का निरूपण इन्हीं देवताओं का आधार लेकर किया गया, जिसका अर्थ है कि संपूर्ण वैदिक संपत्ति इन्हीं निधियों में निहित है। आर्यों का सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान, भाव-भक्ति और क्रिया-कर्म समर्पित किए गए थे, इन्हीं के अवलम्ब से सम्पूर्ण आर्य-जीवन, उनकी समस्त विद्याओं, कलाओं और कार्य-प्रणालियों की संघटित प्रतिमा खड़ी हुई थी। एक-एक देवता की स्तुति में शतशः उपकरण ऐसे मिलते हैं, जो वैदिक इतिहास के स्थायी अंग हैं। इन्हीं अंगों की पूर्ण प्रतिमा प्रतिष्ठित होकर वैदिक या आर्य संस्कृति कहलाई। इनका निरीक्षण हमें शून्य दृष्टि से करना चाहिए।
     यद्यपि संक्षेप में कहना चाहें तो कर सकते हैं कि वेदों की प्रधान शिक्षा देवतार्चन की ही है। ये देवता हैं क्या? एक शब्द में हम इन्हें दिव्य अथवा हित-वस्तु कह सकते हैं। वेदों के कुछ अन्वेषक कहते हैं कि पहले-पहल आर्यों की देवार्चना में भय का भाव प्रधान था। पीछे आदर-भाव प्रतिष्ठित हुआ और अंत में बहुत दिनों के बाद प्रेम या भक्ति की भावना दृढ़ हुई। उनका यह अन्वेषण कहाँ तक प्रमाणित माना जा सकता है यह तो वैदिक साहित्य के पण्डित ही बतला सकते हैं, मेरे लिए तो यही कहना पर्याप्त होगा कि भय से हो या भाव से, स्तुति तो हित समझ कर ही की गई है। यदि ऐसा ना होता, तो आर्यगण इन्हें अपने दैनिक कार्यों में क्यों आमंत्रित करते? इनका स्वागत-सत्कार करने की, इनके उपलक्ष्य में बड़े-बड़े यज्ञ करने की, इन्हें अपनी पाई हुई संपत्ति अर्पण करने की क्या आवश्यकता थी?
                   इसी हित वस्तु का दूसरा नाम संस्कृति या विकास है। इतिहास इसका शरीर और दर्शन प्राण है। भिन्न-भिन्न विद्याएँ इसके विविध अंग है। इस हित-वस्तु की मीमांसा करने पर प्रकट होता है कि उसके अंग-प्रत्यंगों की अनेकविध रूपरेखा है। उन सबका सम्मिलित न्यास ही संस्कृति को स्वरूप प्रदान करता है। जिस प्रकार एक बड़े चक्र के अंतर्गत कितने ही छोटे चक्र हों और वे सब अपनी-अपनी गति के कारण संपूर्ण चक्र के साथ, जो स्वयं गतिशील हैं, नए-नए नाम-रूप धारण कर संलग्न दिखाई दें, उसी प्रकार संस्कृति या विकास-क्रम में भी नाम-रूपात्मक परिवर्तन होते रहते हैं, किन्तु ग्रहों की भिन्न-भिन्न स्थितियों के कारण सौरमंडल अपनी विशेषता का परित्याग नहीं करता। उसी प्रकार संस्कृति भी अपने हित-स्वरूप को कभी नहीं बदलती जैसे पृथ्वी आदि ग्रहों पर ऋतुओं का बदलता हुआ प्रभाव दिखाई देता है, कभी शीत, कभी ग्रीष्म और कभी वर्षां की ऋतुएँ आती हैं, उसी प्रकार सांस्कृतिक परिवर्तन भी होते हैं।
                    भेद चाहे जितने हों, एक अखंड अभेद तत्व युगों की मानवीय साधना का लक्ष्य सदैव रहा है। संसार के बड़े-बड़े विचारक और महर्षि इसका निरूपण करने को अग्रसर हुए हैं। उनमें से बहुतों को आंशिक सफलता प्राप्त हुई और संभव है कुछ को न भी मिली हो। वैदिक काल में वह उत्कृष्ट तत्व जो देवता नाम से अभिहित हुआ, और जिसके कारण वैदिक संस्कृति देव- संस्कृति कही गई, बड़े विशद् रूप में प्रतिष्ठित किया गया। वैदिक देवतागण राक्षस या अनिष्ट-सत्ता के विनाशक प्रसिद्ध हैं। परन्तु यह ना समझना चाहिए कि बिना राक्षस का विनाश किए देवता की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। ऊषा या सरस्वती या पृथ्वी आदि देवियाँ तथा अनेक देवगण राक्षसी भक्ति से कुछ भी सापेक्षता नहीं रखते। वैदिक देवताओं में इन्द्र ही प्रधानतः राक्षसों के संहारक हैं। इसीलिए यह कहना संगत नहीं है कि देवता के अस्तित्व के लिए दानव का होना अनिवार्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह कल्याणकारिणी विभूति शास्वत सत्ता है। किसी में सौंदर्य की, किसी में बुद्धि की, किसी में लोक-हित की, किसी में पौरुष की और किसी में द्रव्य की विशेषता समन्वित पाकर उसकी उपासना की गई। यह निर्देश जैसे प्रकृति का ही था और राक्षसी या अनिष्ट सत्ता का उन्मूलन भी संकल्प-विकल्पात्मक बुद्धि-विकास से रहित पूर्ण प्राकृतिक ही अंकित किया गया। इसीलिए वैदिक धर्म शास्वत-मानव धर्म कहा जाता है। जिसका पालन करता हुआ मनुष्य प्रतिक्षण स्वस्थ और सुखी रहता है। मानव-जीवन की यह व्यापक व्यवस्था ही मेरे विचार से वैदिक कालीन सर्वश्रेष्ठ आदर्श और वैदिक सभ्यता की सर्वोत्कृष्ट देन है।
                   देवता या प्रिय वस्तु की उपासना में आर्यगण अपने सर्व कर्म समर्पित करते थे, इसलिए वे सहज ही कर्म-बन्धन से विनिर्मुक्त हो सके। प्रकृति की ही पाठशाला में शिक्षित होकर वे द्विधा बुद्धि का अंकुशपूर्ण भार वहन करने से विरत रह सके। शत-प्रतिशत खुले मैदान में संस्कृति सब ओर दौड़ लगा सकी। आर्यों की देवोपासना का रहस्य अभी तक यथेष्ट स्पष्ट नहीं हो सका है। बिना इसका स्वरूप समझे हम आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि संपूर्ण परवर्ती विकास इसी पर अवलंबित है। किसी एक देवता को ही लेकर वेदों में उसका वृतांत देखिए। उदाहरणार्थ इन्द्र को ही लीजिए। यह इन्द्र,बल वीर्य या उत्साह का प्रतीक देवता है। इस देवता का विकास किस रूप में हुआ,यह अभी वैदिक विद्वान निर्णय नहीं कर सके। इतिहासज्ञ इन्द्र को तत्कालीन आर्य महापुरुष या सम्राट मानते हैं। इसने राक्षसों या शत्रुओं का नाश कर अनेक हितकारी कार्य किए।  मालूम होता है इन्द्र की आरंभिक उपासना इसी रूप में हुई। आगे चलकर जब यह उपासना अधिक बढ़ी, तब वे एक ऐसी प्राकृतिक शक्ति के प्रतिनिधि बन जो आर्यों को इष्ट थी और इस नवीन रूप में भी वे शक्ति या पौरुष के ही प्रतिनिधि बने रहे। पर्वतों से युद्ध कर उनमें रुकी हुई जलधारा को प्रवाहित करना वज्रधारी इन्द्र का ही कार्य माना गया। और आगे चलकर जब समय की लंबी अवधि पार कर जन-समाज इंद्र को अधिक ऊपर छोड़ आया, तब इंद्र की सत्ता स्वर्गीय हो गई। वे स्वर्ग में निवास करने लगे। वहाँ भी वे देवताओं के प्रधान या सुरपति के रूप में सम्मानित हुए। दीर्घकाल के पश्चात जब इंद्र का आदिमस्वरूप, जनता के स्मृतिपटल से लुप्त होने लगा और इंद्र अप्सराओं के अखाड़े में आमोद-प्रमोद करने वाले व्यक्ति रह गए, तब इंद्र की उपासना बंद करने के लिए श्रीकृष्ण ने उपदेश किया। उस समय इन्द्र की पूजा रूढ़ हो गई थी। इंद्र का तत्व विस्मृत हो गया था। उसके पुनरुद्धार का कार्य श्रीकृष्ण ने किया। उन्होंने गोवर्धन पूजा के बहाने पुनः वास्तविक बल-वीर्य और आत्मनिर्भरता की वह शिक्षा दी जो इंद्र की प्राथमिक शिक्षा थी। इस प्रकार इन्द्रत्व पुनरुज्जीवित और जागृत किया गया, यद्यपि इन्द्र नाम का महत्व जाता रहा। नाम-रूप बदलकर इंद्र की शास्वत सत्ता भारतीय जीवन विकास की अंग बनी रही। आज जब इन्द्र की प्रत्यक्ष सत्ता की कोई स्मृति नहीं है, तब स्वामी दयानंदजी ने इंद्र को साक्षात ईश्वर या निराकार का तत्व मान लेने का संदेश सुनाया है। उनका कहना है कि इंद्र सृष्टि को उत्पन्न करने वाला, परमपिता है। प्राणायाम पूर्वक उसका ध्यान करना चाहिए। उसकी स्तुति विशेषणों से रहित अथवा निर्विशेष होनी चाहिए। जो इन्द्र प्रत्यक्ष स्वरूप आरंभ होकर वेदों में पूजित हुए और जो परवर्ती काल में भी अपने वीरत्व गुणों के लिए प्रसिद्ध थे, उन्हें स्वामी दयानंद जी ने यह आकृति या आकृतिहीनता प्रदान की है। यह नवीन वेदव्याख्या आदिम वैदिक विचारधारा से दूर जा पड़ती है।
                   वैदिक इन्द्र, जीवन की वास्तविक सत्ता से एकाकार होकर उनका उन्नयन करते हैं, जबकि स्वामी जी उनकी सृष्टि -निरपेक्ष दैवी सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। जीवन प्रवाह से भिन्न एक ऐसी काल्पनिक वस्तु को सृष्टि का संरक्षक और सर्वशक्तिमान मानने की प्रवृत्ति वेदों में नहीं पाई जाती। वेदों में तो जीवन ही एकमात्र तत्व है और देवता उसके उन्नायक हैं। देवता अनेक हैं और उनमें से एक-एक का समय-क्रम में परिवर्तन भी हुआ है। इन देवताओं में वे सभी विशेषताएं हैं जो एकत्र होकर मानव-जीवन की पूर्णता स्थापित करती हैं। इनके आकार-प्रकार एवं व्यक्तित्व में यद्यपि सब प्रकार के भेद हैं परन्तु वे प्राकृतिक भेद जो मानवीय विकास के लिए अनिवार्य हैं, एक मौलिक अभेद में अंतर्लीन हो जाते हैं।
                   एक ही चित्र के अनेक रंगों की भाँति वे देवता छाया-प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्राएँ व्यक्त करते हैं। इनमें से कोई अत्यंत प्रत्यक्ष और स्थूलसत्ता की प्रतिमा, कोई उससे सूक्ष्म, कोई उससे भी सूक्ष्म है। कोई स्त्री-सौंदर्य, कोई पुरुष-सौंदर्य के प्रतीक, कोई पराक्रम के, कोई शील-सदाचार और कोई तेज-ओज के प्रतिनिधि हैं।
                    ऊपर के उल्लेख के आधार पर संभवतः हम यह कहने के अधिकारी हैं कि वैदिक संस्कृति कोई सापेक्ष वस्तु नहीं है, वरन् संपूर्ण हित की सत्ता ही है। इस हित की व्यापकता के संबंध में यही कहना पर्याप्त होगा कि सहस्त्रों वर्षों के मानव -जीवन का विकास उसी के अंतर्गत है और आर्य- जाति की धारणा तो यह है कि उन दिव्यद्रष्टा वैदिक महर्षियों ने शाश्वत विकास का रहस्य ही उद्घाटित कर दिया है। उनकी निरूपित संस्कृति नृत्य है, आनन्द-स्वरूप और संपूर्णता के सहित है।
                    जैसा की संस्कृति शब्द से ही सूचित होता है, इसकी मूल वस्तु कृति या क्रिया है। प्रकृति में भी क्रिया की ही प्रधानता पाई जाती है। यह सृष्टि -चक्र शास्वत क्रियाचक्र ही है। क्रियामात्र का समन्वय ही सांस्कृतिक समन्वय कहा जा सकता है। वैदिक आर्यों ने यह समन्वय किस प्रकार किया, यही देखना है। हम देखते हैं कि वे आर्य प्रकृति से ही संरक्षणशील और विवेकवाक् थे, इसलिए आरंभ से ही वे अनिष्ट क्रिया का परित्याग और इष्ट का संचय,संग्रह और स्तुति करने को उद्यत हुए। उन्होंने इस विस्तृत वस्तु जगत का रहस्योद् घाटन करने वाली  अनेक विद्याओं की सृष्टि की। उनके उद्योगों में सामूहिक प्रयास की छाप लगी हुई है। आरंभिक वैदिक संस्कृति से हम व्यक्ति या वर्ग की विभिन्नता नहीं पाते। आर्यों के सभी कार्यों की निर्णायिका प्राकृतिक चेतना ही थी, इसलिए किसी प्रकार का द्विधा भाव उनमें दिखाई नहीं देता। जीवन की परिस्थिति में क्लेश की सत्ता को उन्होंने शक्ति से जीतने की चेष्टा की और जीता। इन्द्र देवता इस शक्ति और विजय के ही स्मारक हैं। प्राकृतिक विभूतियों से आदर और अनुराग, प्राकृतिक पदार्थों का अन्वेषण और अनुसंधान, प्राकृतिक अनिष्टों का तिरस्कार और पराभव, यही आर्यों की आदिम संस्कृति कही जा सकती है। नवीन अनुभव प्राप्त करने की, नवीन प्रयोग सिद्ध करने की, नवीन विजय-लाभ करने की लालसा उनमें भरी हुई थी। यद्यपि यह सृष्टिचक्र क्रिया-मात्र है, परंतु वह अभिनव क्रियाओं का युग शिशु प्रकृति की विकासोन्मुख अवस्था की ओर संकेत कर रहा था, उसके यौवन की सूचना दे रहा था। उस काल में जीवन का सारा आनंदोल्लास प्रत्यक्ष हुआ था। प्रकृति के अंग-अंग खिल उठे थे। आर्यों ने उन सम्पूर्ण अंगों को एक-एक कर देखा, किन्तु उनमें कहीं कोई वैषम्य न पाया। जड़, चेतन, स्थूल, अस्थूल सभी एक अनुपम सौंदर्य से ओतप्रोत दिखाई दिये। केवल प्राकृतिक में जो अप्राकृतिक था, दुरूह था, अनिष्ट था, आर्यगण उसी के एक मात्र संहारक हुए। बादाम के कड़े छिलके को फोड़कर खाना ही नियम है। अनिष्ट की सत्ता को दूर कर देना ही संस्कृति है।
                   यह इष्टानिष्ट-विवेक आर्यों ने प्राकृतिक प्रेरणा, सबज बुद्धि या व्यापक चेतना के द्वारा प्राप्त किया था, इसलिए उनकी संस्कृति भी पूर्ण प्राकृतिक हो सकी। व्यक्तिगत मनुष्य-स्वभाव की परीक्षा और विकास की पहचान सामूहिक क्रिया-कलाप और रीति-नीति, प्राकृतिक आवश्यकताओं का ध्यान और प्राकृतिक भेदों की परख और समन्वय, विस्तृत जगत की रहस्यों का परिचय और मानव-हित के लिए उसका उपयोग-ये सभी संस्कृति की रचनात्मक चेष्टायें वैदिक विचारणा में उपस्थित हैं। फलतः मनुष्य को किसी मार्ग विशेष से चलने के लिए बाध्य न कर लक्ष्य-लक्ष्य जीवनोपाय स्वीकार करना वैदिक संस्कृत की विशेषता हुई। तो भी यदि पूछा जाए कि वह एक वस्तु क्या है जिससे आधार पर वैदिक संस्कृत की रूपरेखा गठित हुई या कम-से-कम उसकी प्रमुख आकृति का निर्माण हुआ, तो निसंदेह वह वस्तु देवता के लिए सर्व-कर्म-समर्पण की साधना ही कही जाएगी। इस साधना में त्याग,सहिष्णुता,क्रियाशीलता, बुद्धि की दृढ़ता आदि वे सभी गुण सन्निहित हैं जिनका उल्लेख शास्त्रों में प्रचुरता से प्राप्त होता है। विकास का यही प्रधान उपाय वेदों में प्रदर्शित किया गया है। यह संपूर्ण तपस्या देवताओं के लिए करने की व्यवस्था इसलिए चलाई गई की संस्कृति एक केंद्र में स्थित हो और युगों-युगों में उसकी स्मृति जागृत रहे। विकास का मार्ग दिव्य शक्तियों के आश्रित कर देने से सत्कार्य की अधिक प्रवृत्ति होने की संभावना थी। क्रिया के अंकुश, अभिमान, संकल्प-विकल्प आदि भी उत्पन्न न हों और संपूर्ण शुभ का एक स्थान पर समाहार भी हो सके, दोनों ही लक्ष्य इससे सिद्ध हुए।
                    जैसे-जैसे मनुष्य की तपस्या के आख्यान बढ़ने लगे और जगत के अनेक क्षेत्रों और विभागों में उसके उदाहरण आने लगे, वैसे-वैसे देवताओं का स्वरूप अधिकाधिक विशेषणों से संयुक्त होकर रहस्यमय होता गया। इतिहास की सभी उल्लेखनीय घटनाएँ देवताओं के व्यक्तित्व में स्थान पाने लगीं। धीरे-धीरे उनका स्वरूप अनेकविध वार्ताओं से आच्छादित होने लगा।  यद्यपि आर्यों ने उन-उन देवताओं के मूल व्यक्तित्व के अनुसार ही बहुविध घटनाओं का संग्रथन किया, तथापि समय की बढ़ती हुई घटना वली के लिए वे देवता कहाँ तक पर्याप्त हो सकते थे? परिणाम यह हुआ कि आख्यानों की अधिकता के कारण देवताओं का व्यक्तित्व  दुरूब और अज्ञेय हो उठा।यद्यपि वे सब आख्यान सांस्कृतिक विकास अथवा तपस्या-संबंधी ही थे, तथापि उनमें स्वतः इतनी अनेकरूपता आ गई कि उन्होंने देवताओं के साथ संयुक्त होकर उनका रूप अविज्ञेय बना दिया। आगे चलकर देवतागण उन-उन कथाओं के स्मारक-मात्र रह गए। मनुष्य उनका अनुकरण करने के योग्य न रहे। इस प्रकार वैदिक देवताओं का आरंभ तो व्यक्तिगत, प्राकृतिक और सामूहिक संस्कृति के भारवाही के रूप में हो गई। आज जब हम देवताओं के चरित्रों को पढ़ते हैं और उनमें कई प्रकार की विश्रृंखलता और आचारहीनता भी प्राप्त करते हैं। कुछ लोग इसका समाधान इस प्रकार करते हैं कि महान विभूतियाँ आचार की क्षुद्र श्रृंखलाओं को तोड़ डालती हैं। उत्कर्ष-पूर्ण व्यक्तित्व का अर्थ ही है सामान्य मानवीय हिताहित की धारणाओं से ऊपर उठना, परंतु मेरे विचार से प्राकृतिक और नैतिक आचार ही संस्कृति का मेरुदंड है। इसी पथ पर चलकर मानव-व्यक्तित्व उच्चातिउच्च हो सकता है। देवता भी तभी तक देवता हैं, जब तक वे भी इस पथ के पथिक हैं। उनकी सत्ता तब जीर्ण हो उठती है जब अनेक आख्यायिकाएँ उनसे जुड़कर उन्हें एक अलौकिक स्वरूप प्रदान करती हैं। उस अवस्था में महत्व उन आख्यायिकाओं का रहता है, उस देवता को ही स्तुति मिलती है। वह मानवीय समस्याओं का कोई आदर्श नहीं होता, केवल अपना रहस्यमय व्यक्तित्व लेकर संस्कृति के संरक्षण का उपादान बना रहता है। तब उसकी सत्ता अतिमानवीय या लोकोत्तर बन जाती है।
                   मैं यह नहीं कहता कि इस लोकोत्तर सत्ता का मनुष्य-जीवन में कोई उपयोग नहीं, वह सत्ता तो युगों के जीवन को सुव्यवस्थित करती और सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री बनकर सुरक्षित रहती है। परंतु कठिनाई यह होती है कि हम उसकी यथार्थता न समझकर उसके तथाकथित कार्यों की अनुकृति करना चाहते हैं।
                    देवताओं की यह अतिमानवीय सत्ता एक ओर तो संस्कृति की अत्यंत विकसित अवस्था की सूचना देती है और दूसरी ओर उसके ह्रास की भी। विकास तो संस्कृति के अंतरंग या भाव का हुआ और ह्रास उसके बहिरंग रूप या शरीर का। जैसे प्रौढ़ वय का मनुष्य प्रौढ़ता के साथ-साथ से शैथिल्य की ओर बढ़ता जाता है, वैसी ही अवस्था संस्कृत की भी होती है। वह अवस्था सांस्कृतिक इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है। जातियों का उत्थान या विनाश यही से आरंभ होता है। देश के दार्शनिक नेताओं के बुद्धि वैभव की परीक्षा इसी समय होती है। साधारण जन-समाज अंतरंग या भाव की बात नहीं समझता, उसे तो बाह्य रूप ही चाहिए, किंतु वैदिक संस्कृति का बाह्य रूप ही चाहिए, किन्तु वैदिक संस्कृति का बाह्य रूप तो शिथिल हो चुका था, फलतः इस देश के दार्शनिक ने जगत के बाह्य रूप की निस्सारता का प्रचार आरंभ किया। उपनिषदों और गीता आदि में आत्मतत्व की प्रधान शिक्षा दी गई। स्मरण रखना चाहिए कि इस उपनिषद्-शिक्षा का प्रकाश उच्चातिउच्च सांस्कृतिक स्थिति में हुआ था, तो भी बिना बहिरंग के जन-समाज का समाधान नहीं हो सका। परिणामस्वरुप वैदिक संस्कृति कुछ काल के लिए पिछड़ गई और इस देश में महात्मा बुद्ध के प्रभाव से नवीन बौद्ध संस्कृति का उदय हुआ। किंतु यह बात कदापि न भूलनी चाहिए कि वैदिक युग का अंतरंग सांस्कृतिक विकास अक्षुण्ण बना रहा। इसी प्रकार आर्य संस्कृति की धारा अटूट रूप से बहती रही,यद्यपि ऐतिहासिक कारणों से उनकी वेदकालीन प्रांजल और प्रशस्त गति में विक्षेप भी पड़े। बौद्धों ने समायोजित सांस्कृतिक रक्षा का कार्य कम नहीं किया और अपनी अपूर्व प्रतिभा से उन्होंने इस देश के जातीय जीवन को वह संजीवनी शक्ति दी जिसके बिना ‘यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहाँ से, बाकी है जग में अब भी, नामोंनिशा हमारा’ की उक्ति चरितार्थ न होती।
 किंतु ऊपर के वक्तव्य का यह अर्थ नहीं है कि उपनिषदों के आम तत्व का प्रचार कर वैदिक ऋषियों ने देव-संस्कृति का अंत कर दिया। हमारा सर्वोत्कृष्ट दर्शन संस्कृति का विघातक कैसे हो सकता है? निर्जीव रूढ़ियों के परिवर्तन के लिए संस्कृति देहान्तर प्राप्ति की आवश्यकता थी, एतदर्थ उन आर्य मनीषियों ने कुछ भी मोह नहीं किया, और उस उच्चातिउच्च तत्व की शिक्षा दी जो नितांत अविनश्वर है। वेदांत दर्शन के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि संसार के संबंध छोड़ देने पर ही इसकी साधना की जा सकती है। परंतु वेदांत के मैं दो प्रधान उद्देश्य मानता हूँ -एक तो देवता तत्व या मूल वैदिक संस्कृति के प्रति जन-समाज की बढ़ती हुई भ्रांति को दूर करना और दूसरे, एक परमोत्कृष्ट तत्व की घोषणा कर उखड़ती हुई संस्कृति को नवजीवन प्रदान करना। ये दोनों ही कार्य भारतीय इतिहास में अपूर्व महत्व रखते हैं। हम कह चुके हैं कि वैदिक देवता, जो आरंभ में हित के प्रयत्नस्वरूप ही थे, आगे चलकर अत्यधिक भारग्रस्त हो गए। वैदिक समाज, जो आरंभ में क्रियाशील था, आगे चलकर उसी अनुपात में अनुकरणशील होने लगा। संस्कृति, जो उत्थानमूलक थी,प्रसरणशील होनने लगी। स्तुतियाँ, जो पहले रूप-प्रधान थीं, अब भाव-प्रधान होने लगीं। उद्भावना का स्थान संरक्षण ने ले लिया। यह परिवर्तन तो समय की स्वाभाविक गति से ही हो रहा था,पर इसके कारण विकास की गति मंद न पड़ जाए, उसकी दिशाएँ विस्मृत न हो जाएं, यह आशंका हो रही थी, इसलिए हित-तत्व या संस्कृति की एक नवीन व्याख्या आत्मसत्ता या आनंद की संज्ञा से की गई। आत्मा एक नित्य-तत्व कहकर उद्घोषित हुआ।
                   सामूहिक आनंद की धारणा ही वेदांत आत्मसत्ता के मूल में है, परंतु मैं यही नहीं मानता कि इसकी साधना जंगल में रहकर ही हो सकती है। इस आत्मतत्व के अंतर्गत तो साधारण से साधारण सांस्कृतिक मनोभाव भी आ सकते हैं। और संसार-त्यागी महात्माओं की ऊंची-से-ऊंची साधानएँ भी आ सकती हैं। जो विद्या अपनी प्रिय वस्तु की भावना में अपने को भूल जाती हैं वही तो श्रेयस्कर हैं। वेदों का प्राकृतिक विकास का मार्ग यही है। क्रिया-मात्र का मूल्य उस आनंद में ही है जिसकी वह सृष्टि करती है। उसका स्वतः कोई मूल्य नहीं है। क्रिया की स्तुति नहीं की जाती, स्तुति देवता की की जाती है, जो आनंद-स्वरूप हैं। स्तुति तो संस्कृति की की जाती है, जो व्यक्ति में तपस्या रूप से और समूह में आनंद-रूप से प्रतिफलित होती है। क्रियाओं की सापेक्षता से भ्रम उत्पन्न होता है। क्रियाएँ आनंद में प्रवृत्त करने के लिए भी हो सकती हैं। निरानंद से निवृत्त करने के लिए भी हो सकती है, इसलिए वे प्रायः द्विधा-भाव उत्पन्न कर देती हैं। इस प्रकार की भ्रामक विपर्ययों से बचने के लिए ही चेतन आत्म-तत्व की प्रतिष्ठा की गई, और वह दोरंगी दुनिया से अलग रखी गई। फिर किसी विशेष क्रिया-चक्रया आचार-क्रम का निरूपण और भी कई प्रकार की कठिनाइयाँ उपस्थित करता है जिनका उल्लेख करना यहाँ आवश्यक नहीं। प्राकृतिक अनुभूतियों की सत्ता स्वीकार कर उन्हीं का परिष्कार करना आत्मिक साधना की परिपाटी कही जा सकती है। वेदों में यह परिष्कार जिस व्यापक और सर्वतोन्मुखी रूप में किया गया, दुख के उच्छेद और सुख की समृद्धि के जितने व्यवस्थित उपाय वैदिक युग में किए गए, शायद ही कभी किए गए हों या किए जाएं। इसलिए वैदिक संस्कृति पर हमें इतना गर्व है। इस वैदिक संस्कृति का पूर्ण परिपाक वेदांत में हुआ। इसलिए हमें उसका इतना गौरव है।

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आधुनिक नारी-महादेवी वर्मा


मध्य और नवीन युग के सन्धिस्थल में नारी ने जब पहले-पहले अपनी स्थिति पर असंतोष प्रकट किया, उस समय उसकी अवस्था उस पीड़ित के समान थी, जिसकी प्रकट वेदना के अप्रकट कारण का निदान न हो सका हो। उसे असह्य व्यथा थी, परन्तु इस विषय में ‘कहाँ’ और ‘क्या’ का कोई उत्तर न मिलता था। अधिक गूढ़ कारणों की छानबीन करने का उसे अवकाश भी ना था। अतः उसने पुरुष से अपनी तुलना करके जो अन्तर पाया उसी को अपनी दयनीय स्थिति का स्पष्ट कारण समझ लिया। इस क्रिया से उसे अपनी व्याधि के कुछ कारण भी मिले सही, परन्तु यह धारणा नितान्त निर्मूल नहीं कि इस खोज में कुछ भूले भी संभव हो सकीं। दो वस्तुओं का अंतर सदैव ही उसकी श्रेष्ठता और हीनता का द्योतक नहीं होता। यह मनुष्य प्रायः भूल जाता है। नारी ने भी यहीं चिरपरिचित भ्रांति अपनाई। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, शारीरिक विकास के विचार से और सामाजिक जीवन की व्यवस्था से स्त्री और पुरुष में विशेष अन्तर रहा है और भविष्य में भी रहेगा। परन्तु यह मानसिक या शारीरिक भेद न किसी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है और न किसी की हीनता का विज्ञापन करता है। स्त्री ने स्पष्ट कारणों के अभाव में इस अंतर को विशेष त्रुटि समझा केवल यही सत्य नहीं हैं, वरन् यह भी मानना होगा कि उसने सामाजिक अंतर का कारण ढूँढने के लिए स्त्रीत्व को क्षत-विक्षत कर डाला।
                    उसने निश्चय किया कि वह उस भावुकता का आमूल नष्ट कर डालेगी, जिसका आश्रय लेकर पुरुष उसे रमणी समझता है, उस गृह-बंधन को छिन्न-भिन्न कर देगी जिसकी सीमा ने उसे पुरुष की भार्या बना दिया है और उस कोमलता का नाम भी न रहने देगी जिसके कारण उसे बाह्य जगत् के कठोर संघर्ष से बचने के लिए पुरुष के निकट रक्षणीय होना पड़ा है। स्त्री ने सामूहिक रूप से जितना पुरुष जाति को दिया है उतना उससे पाया नहीं, यह निर्विवाद सिद्ध है। पर आदान-प्रदान की विषमता के मूल में स्त्री और पुरुष की प्रकृति भी कार्य करती है,यह न भूलना चाहिए। स्त्री अत्यधिक त्याग केवल इसलिए नहीं करती, अत्यधिक सहनशील केवल इसलिए नहीं होती कि पुरुष इसे हीन समझ कर उसके लिए बाध्य करता है। यदि हम ध्यान से देखेंगे तो ज्ञात होगा कि उसे ये गुण मातृत्व की पूर्ति के लिए प्रकृति से मिले हैं। ये अच्छे हैं या बुरे इसकी विवेचना से विशेष अर्थ न निकलेगा। जानना इतना ही है कि प्राकृतिक हैं या नहीं। इस विषय में स्त्री स्वयं भी अंधकार में नहीं है। वह अपनी प्रकृतिजनित कोमलता को त्रुटि चाहे मानती हो, परंतु उसे स्वाभाविक अवश्य समझती है अन्यथा उसके इतने प्रयास का कोई अर्थ न होता। परिस्थितिजन्य दोष जितने शीघ मिट सकते हैं उतने संस्कारजन्य नहीं मिटते, यहीं विचार स्त्री को आवश्यकता से अधिक कठोर बने रहने को विवश कर देता है परन्तु यह कठिनता इतनी सयत्न होती है कि स्त्री स्वयं भी सुखी नहीं हो पाती। कवच बाहर की बाण-वर्षा से शरीर को बचाता है, परन्तु अपना भार शरीर पर डाले बिना नहीं रह सकता।
                   आधुनिक स्त्री ने अपने जीवन को इतने परिश्रम और यत्न से जो रूप दिया है वह कितना स्वाभाविक हो सकता है, यह कहना अभी संभव नहीं। हाँ, इतना कह सकते हैं कि वह बहुत सुंदर भविष्य का परिचायक नहीं जान पड़ता। स्त्री के लिए यदि उसे किसी प्रकार उपयोगी समझ भी लिया जाए तो भावी नागरिकों के लिए उनकी उपयोगिता समझ सकना कठिन ही है।
                    आधुनिकता की वायु में पली स्त्री का यदि स्वार्थ में केन्द्रित विकसित रूप देखना चाहते हो तो हम उसे पश्चिम में देख सकेंगे। स्त्री वहाँ आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र हो चुकी है, अतः सारे सामाजिक बन्धनों पर उसका अपेक्षाकृत अधिक प्रभुत्व कहा जा सकता है। उसे पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने की आवश्यकता नहीं है, अतः वह चाहे तो परम्परागत रमणीत्व को तिलांजलि देकर सुखी हो सकती है। परन्तु उसकी स्थिति क्या प्रमाणित कर सकेगी कि आदिम नारी की दुर्बलता से रहित है? संभवतः नहीं। श्रृंगार के इतने संख्यातीत उपकरण, रूप को स्थित रखने के इतने कृतृम साधन, आकर्षित करने के उपहास-योग्य के प्रयास आदि क्या इस विषय में कोई संदेह का स्थान रहने देते हैं। नारी का रमणीत्व नष्ट नहीं हो सका, चाहे उसे गरिमा देने वाले गुणों का नाश हो गया हो। यदि पुरुष को उन्मत्त कर देने वाले रूप की इच्छा नहीं मिटी, उसे बांध रखने वाले आकर्षण की खोज नहीं की गई तो फिर नारीत्व की ही उपेक्षा क्यों की गई, यह कहना कठिन है। यदि भावुकता ही लज्जा का कारण थी तो उसे समूल नष्ट कर देना था, परंतु आधुनिक नारी ऐसा करने में भी असमर्थ रही। जिस कार्य को वह बहुत सफलतापूर्वक कर सकी है वह प्रकृति से विकृति की ओर जाना मात्र था। वह अपनी प्रकृति को वस्त्रों के समान जीवन का बाह्य आच्छादनमात्र बनाना चाहती है, जिसे इच्छा और आवश्यकता के अनुसार जब चाहे पहना या उतारा जा सके। बाहर के संघर्षमय जीवन में जिस पुरुष को नीचा दिखाने के लिए वह सभी क्षेत्रों में कठिन से कठिन परिश्रम करेगी, जीवन-यापन के लिए आवश्यक प्रत्येक वस्तु को अपने स्वेदकणों से तौल कर स्वीकार करेगी, उसी पुरुष में नारी के प्रति जिज्ञासा जागृत करने के लिए वह अपने सौंदर्य और अंग-सौष्ठव के रक्षार्थ असाध्य से असाध्य कार्य करने के लिए प्रस्तुत है। आज उसे अपने रूप, अपने शरीर और अपने आकर्षण का जितना ध्यान है उसे देखते हुए कोई भी विचारशील, स्त्री को स्वतंत्र न कह सकेगा।

स्त्री के प्रति पुरुष की एक रहस्यमयी जिज्ञासा सृष्टि के समान ही चिरंतन है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता, परन्तु यह जिज्ञासा इनके सम्बन्ध का ‘अथ’ है ‘इति’ नहीं। प्राचीन नारी के इस ‘अथ’ से आरम्भ करके पुरुष से अपने सम्बन्ध की ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया है जहाँ उन दोनों के स्वार्थ एक और व्यक्तित्व सापेक्ष हो गए।यहीं नारी की विशेषता थी जिसने उसे मनोविनोद के सुन्दर साधनों की श्रेणी से उठाकर गरिमामयी विधात्री के ऊँचे आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया।
                    आधुनिक नारी पुरुष के और अपने सम्बन्ध को रहस्यमयी जिज्ञासा से आरम्भ करके उसे वहीं स्थिर रखना चाहती है, जो संभवतः उसे किसी स्थायी आदान-प्रदान का अधिकार नहीं देता। संध्या के रंगीन बादल या इंद्रधनुष के रंग हमें क्षण भर विस्मय-विमुग्ध कर सकते हैं किंतु इससे अधिक उनकी कोई सार्थकता नहीं हो सकती है, यह हम सोचना भी नहीं चाहते। आज की सुन्दर नारी भी पुरुष के निकट और कोई विशेष महत्व नहीं रखती। उसे स्वयं भी इस कटु सत्य का अनुभव होता है, परंतु वह उसे परिस्थिति का दोषमात्र समझती है। आज पुरुष के निकट स्त्री प्रसाधित-श्रृंगारित स्त्रीत्व मात्र लेकर खड़ी है, यह वह मानना नहीं चाहेगी, परन्तु वास्तव में यह सत्य है। पहले की नारी जाति केवल रूप और वय का पाथेय लेकर संसार-यात्रा के लिए नहीं निकलती थी। उसने संसार को वह दिया जो पुरुष नहीं दे सकता था, अतः उसे अक्षय वरदान का ‘वह’ आज तक कृतज्ञ है। यह सत्य है कि उसने अयाचित वरदान को संसार अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा, जिससे विकृति भी उत्पन्न हो गयी परंतु उसके प्रतिकार के जो उपाय हुए वे उस विकृति को दूसरी ओर फेरने के अतिरिक्त और कुछ ना कर सके।
                    पश्चिम में स्त्रियों ने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया, परन्तु सब कुछ पाकर भी उनके भीतर की चिरन्तन नारी नहीं बदल सकी। पुरुष उसके नारीत्व की उपेक्षा करे, यह उसे भी स्वीकार न हुआ, अतः वह अथक मनोयोग से अपने बाह्य आकर्षण को बढ़ाने और अस्थायी रखने का प्रयत्न करने लगी। पश्चिम की स्त्री की स्थिति में जो विशेषता है उसके मूल में पुरुष के प्रति उनकी स्पर्धा के साथ ही उसे आकर्षित करने की प्रवृति भी कार्य करती है। पुरुष भी उसकी प्रवृति से अपरिचित नहीं रहा, इससे उसके व्यवहार में मोह और अवज्ञा ही प्रधान है। यदि रंगीन खिलौने के समान आकर्षक है तो वह विस्मय-विमुग्ध हो उठेगा।यदि नहीं तो वह उसे उपेक्षा की वस्तुमात्र समझेगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दोनों ही स्थितियाँ मात्र स्त्री के लिए अपमानजनक हैं। पश्चिमी स्त्री की स्थिति का अध्ययन कर यदि हम अपने देश की आधुनिकता से प्रभावित महिलाओं का अध्ययन करें तो दोनों ही ओर असंतोष और उसके निराकरण में विचित्र साम्य मिलेगा।
                    हमारे यहाँ की स्त्री शताब्दियों से अपने अधिकारों से वंचित चली आ रही है। अनेक राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने उसकी अवस्था में परिवर्तन करते-करते उसे जिस अधोगति तक पहुँचा दिया है वह दयनीयता की सीमा के अतिरिक्त और कुछ नहीं कही जा सकती। इस स्थिति को पहुँचकर भी जो व्यक्ति असंतोष प्रकट नहीं करता उसे उस स्थित के योग्य ही समझना चाहिए। कोमल तूल-सी वस्तु भी बहुत दबाए जाने पर अन्त में कठिन जान पड़ने लगती है। भारतीय स्त्री भी एक दिन विद्रोह कर ही उठी। उसने भी पुरुष के प्रभुत्व का कारण अपनी कोमल भावनाओं को समझा और उन्हीं को परिवर्तित करने का प्रयत्न किया। अनेक सामाजिक रूढ़ियों और परंपरागत संस्कारों के कारण उसे पश्चिमी स्त्री के समान न सुविधाएं मिली और न सुयोग, परंतु उसने उन्हीं को अपना मार्गप्रदर्शक बनाना निश्चित किया।
                   शिक्षा के नितान्त अभाव और परिस्थितियों की विषमता के कारण कम स्त्रियाँ इस प्रगति को अपना सकीं और जिन्होंने इन बाधाओं से ऊपर उठकर इसे अपनाया भी उन्हें इसका बाह्य रूप ही अधिक आकर्षक लगा। भारतीय स्त्री ने भी अपने आप को पुरुष की प्रतिद्वंद्विता में पूर्ण देखने की कल्पना की, परंतु केवल इसी रूप में उसकी चिरंतन नारी भावना संतुष्ट ना हो सकी। उसकी भी प्रकृतिजन्य कोमलता आस्तिनास्ति के बीच डगमगाती रही। कभी उसने संपूर्ण शक्ति से उसे दबाकर अपनी ऐसी कठोरता प्रगट की जो उसके कुचले मर्मस्थल का विज्ञापन करती थी और कभी क्षणिक आवेश में प्रयत्नप्राप्त निष्ठुरता का आवरण उतार कर अपने अहेतुक हल्केपन का परिचय दिया। पुरुष कभी उससे वैसे ही भयभीत हुआ जैसे संज्ञान विक्षिप्त से होता है और कभी वैसे ही उस पर हँसा जैसे बड़ा व्यक्ति बालक के आयास पर हंसता है। कहना नहीं होगा कि पुरुष के ऐसे व्यवहार से स्त्री का और अधिक अनिष्ट हुआ, क्योंकि उसे अपनी योग्यता का परिचय देने के साथ-साथ अपने सज्ञान और बड़े होने का प्रमाण देने का प्रयास भी करना पड़ा।
                    उसके सारे प्रयत्न प्रयास अपनी आवश्यकता के कारण ही कभी-कभी दयनीय जान पड़ते हैं परंतु वह करे भी तो क्या करे! एक ओर परंपरागत संस्कार ने उसके हृदय में यह भाव भर दिया है कि पुरुष विचार, बुद्धि और शक्ति में उससे श्रेष्ठ है और दूसरी ओर उसके भीतर की नारी प्रवृत्ति भी उसे नहीं रहने देती। इन्हीं दोनों भावनाओं के बीच में उसे अपनी ऐसी आश्चर्यजनक क्षमता का परिचय देना है जो उसे पुरुष के समकक्ष बैठा दे। अच्छा होता यदि स्त्री प्रतिद्वन्द्विता के क्षेत्र में उतरे हुए ही अपनी उपयोगिता के बल पर स्वत्वों की मांग सामने रखती, परंतु परिस्थितियाँ इसके अनुकूल नहीं थी। जो अप्राप्त है उसे पा लेना कठिन नहीं है, परंतु जो प्राप्त था उसे खोकर फिर पाना अत्यधिक कठिन है। एक में पाने वाले की योग्यता संभावित रहती है दूसरे में अयोग्यता। इसी में एक कार्य उतना श्रमसाध्य नहीं होता जितना दूसरे का। स्त्री के अधिकारों के विषय में भी यही सत्य है।
                    इस समय हम जिन्हें आधुनिक काल की प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं, वे महिलाएं तीन श्रेणियों में रखी जा सकती हैं। त्रिवेणी की तीन धाराओं के समान वे एक-सी होकर भी अपनी विशेषताओं में भिन्न हैं। कुछ ऐसी हैं जिन्होंने अपने युगान्तरदीर्घ बंधनों की अवज्ञा कर पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक आंदोलन को गतिशील बनाने के लिए पुरुषों को अभूतपूर्व सहायता दी। कुछ ऐसी शिक्षिताएँ हैं जिन्होंने अपनी अनुकूल परिस्थितियों में भी सामाजिक जीवन की त्रुटियों का कोई उचित समाधान न पाकर अपनी शिक्षा और जागृति को आजीविका और सार्वजनिक उपयोग या साधन बनाया। और कुछ ऐसी संपन्न महिलाएँ हैं, जिन्होंने थोड़ी-सी शिक्षा के साथ बहुत सी पाश्चात्य आधुनिकता का संयोग कर अपने गृहजीवन को एक नवीन सांचे में ढाला है।
                   यह कहना अनुचित होगा कि प्रगतिशील नारी-समाज के ये विभाग किसी वास्तविक अंतर के आधार पर स्थित हैं, क्योंकि ऐसे विभाग ऐसी विशेषताओं पर आश्रित होते हैं, जो जीवन के गहन तल में एक हो जाती हैं।
                    यह समझना कि राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाली स्त्रियाँ अन्य क्षेत्रों में कार्य नहीं करती या शिक्षा आदि क्षेत्रों में कार्य करने वाली पाश्चात्य आधुनिकता से दूर रह सकी हैं, भ्रान्तिपूर्ण धारणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वास्तव में ये श्रेणियाँ उनके बाह्य जीवन के सादृस्य के भीतर कार्य करनेवाली वृत्तियों को समझने के लिए ही हैं। आधुनिकता की एकरूपता को भारतीय जाग्रत महिलाओं ने अनेक रूपों में ग्रहण किया है, जो स्वाभाविक ही था। ऐसी कोई नवीनता नहीं है, जो प्रत्येक व्यक्ति को भिन्न रूप में नवीन नहीं दिखाई देती, क्योंकि देखने वाले का भिन्न दृष्टिकोण ही उसका आधार होता है। प्रत्येक स्त्री ने अपनी असुविधा, अपने सुख-दुख और अपने व्यक्तिगत जीवन के भीतर से इस नवीनता पर दृष्टिपात किया,अतः प्रत्येक को उसमें अपनी विशेष त्रुटियों के समाधान के चिन्ह दिखाई पड़े।
                    इन सबके आचरणों को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करने वाले दृष्टिकोणों का पृथक-पृथक अध्ययन करने के उपरान्त ही हम आधुनिकता के वातावरण में विकसित नारी की कठिनाइयाँ समझ सकेंगे। उनकी स्थिति प्राचीन रूढ़ियों के बंधन में वंदिनी स्त्रियों की स्थिति से भिन्न जान पड़ने पर भी उससे स्पृहणीय नहीं है। उन्हें प्राचीन विचारों का उपासक पुरुष-समाज अवहेलना की दृष्टि से देखता है, आधुनिक दृष्टिकोण वाले समर्थन का भाव रखते हुए भी क्रियात्मक सहायता देने में असमर्थ रहते हैं और उग्र विचार वाले प्रोत्साहन देकर भी उन्हें अपने साथ ले चलना कठिन समझते हैं। वस्तुतः आधुनिक स्त्री जितनी अकेली है, उतनी प्राचीन नहीं, क्योंकि उसके पास निर्माण के उपकरण मात्र हैं, कुछ भी निर्मित नहीं। चौराहे पर खड़े होकर मार्ग पर निश्चय करने वाले व्यक्ति के समान वह सबका ध्यान आकर्षित करती रहती है, किसी से कोई सहायतापूर्ण सहानुभूति नहीं पाती। यह स्थिति आकर्षक चाहे जान पड़े, परन्तु सुखकर नहीं कही जा सकती।
                    राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाली महिलाओं ने आधुनिकता को राष्ट्रीय जागृति के रूप में देखा और उसी जागृति की ओर अग्रसर होने में अपने सारे प्रयत्न लगा दिए। इस उथल-पुथल के युग में स्त्री ने जो किया वह अभूतपूर्व होने के साथ-साथ उसकी शक्ति का प्रमाण भी था। यदि उसके बलिदान, उसके त्याग भूले जा सकेंगे तो उस आंदोलन का इतिहास भी भूला जा सकेगा। इस प्रगति द्वारा सार्वजनिक रूप से स्त्री-समाज को भी लाभ हुआ। उनके चारों ओर फैली हुई दुर्बलता नष्ट हो गई, उसकी कोरी भावुकता छिन्न-भिन्न हो गई और उसके स्त्रीत्व से शक्तिहीनता का लांछन दूर हो गया।पुरुष ने अपनी आवश्यकतानुसार ही उसे साथ आने की आज्ञा दी, परंतु स्त्री ने उससे पग मिलाकर चलकर प्रमाणित कर दिया है कि पुरुष ने उसकी गति पर बंधन लगाकर अन्याय ही नहीं, अत्याचार भी किया। जो पंगु है, उसी के साथ गतिहीन होने का अभिशाप लगा है, गतिवान को पंगु बना कर रखना सबसे बड़ी क्रूरता है।
                   राष्ट्र को प्रगतिशील बनाने में स्त्री ने अपना भी कुछ हित साधन किया यह सत्य है, परंतु इस मधु के साथ कुछ क्षार भी मिला था। उसने जो पाया वह भी बहुमूल्य है और जो खोया वह भी बहुमूल्य था, इस कथन में विचित्रता के साथ-साथ सत्य भी समाहित है।
                    आंदोलन के समय जिन स्त्रियों ने आधुनिकता का आह्वान सुना उसमें सभी वर्ग की शिक्षिता और अशिक्षिता स्त्रियाँ रहीं। उनकी नेत्रियों के पास इतना अवकाश भी नहीं था कि वे उन सबके बौद्धिक विकास की ओर ध्यान दे सकतीं।
                    यह सत्य है कि उन्हें कठोरतम संयम सिखाया गया, परंतु यह सैनिकों के संयम के समान एकांगी ही रहा। वे यह न जान सकीं कि युद्धभूमि में प्रतिक्षण मरने के लिए प्रस्तुत सैनिक का संयम, समाज में युगतक जीवित रहने के लिए इच्छुक व्यक्ति के संयम से भिन्न है। एक बंधनों की रक्षा के लिए प्राण देता है तो दूसरा बंधनों की उपयोगिता के लिए जीवित रहता है। एक अच्छा सैनिक मरना सिखा सकता है और एक सच्चा नागरिक जीना। एक में मृत्यु का सौंदर्य है और दूसरे में जीवन का वैभव। परन्तु अच्छे सैनिक का अच्छा नागरिक होना यदि अवश्यम्भावी होता तो सम्भवतः जीवन अधिक सुन्दर बन गया होता।
                   स्वभावतः सैनिक का जीवन उत्तेजना-प्रधान होगा और नागरिक का समवेदना-प्रधान। इसी से एक के लिए जो सहज है वह दूसरे के लिए असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य है।
                    आंदोलन के युग में स्त्रियों ने तत्कालीन संयम और उससे उत्पन्न कठोरता को जीवन का एक आवश्यक अंग मानकर स्वीकार किया, अपने प्रस्तुत उद्देश्य का साधन मात्र मानकर नहीं। इससे उनके जीवन में जो रूक्षता व्याप्त हो गई है, उसने उन्हीं तक सीमित न रहकर उनके सुरक्षित गृहजीवन को स्पर्श किया है। वास्तव में उनमें से अधिकांश महिलाएँ रूढ़ियों के भार से दबी जा रही थीं, अतः देश की जागृति के साथ-साथ उनकी क्रांति ने भी आत्मविज्ञान का अवसर और उसके उपयुक्त साधन पा लिए। यही उन परिस्थितियों में स्वाभाविक भी था, परंतु वे यह स्मरण न रख सकीं कि विद्रोह, केवल जीवन के विशेष विकास का साधन होकर ही उपयोगी रह सकता है। वह सामाजिक व्यक्ति का परिचय नहीं, उसके असंतोष की अभिव्यक्ति है।
                    उस करुण युग के अनुष्ठान में भाग लेने वाली स्त्रियों ने जीवन की सारी सुकोमल कला नष्ट करके संसार-संग्राम में विद्रोह को अपना अमोघ अस्त्र बनाया। समाज उनके त्याग पर श्रद्धा रखता है, परंतु उनकी विद्रोहमयी रूक्षता से सभीत है। जीवन का पहले से सुंदर और पूर्ण चित्र उनमें नहीं मिलता। आधुनिकता के पोषक भी उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं। अनन्त काल से स्त्री का जीवन तरल पदार्थ के समान सभी परिस्थितियों के उपयुक्त बनता आ रहा है, इसलिए उसकी कठिनता आश्चर्य और भय का कारण बन गई है। अनेक व्यक्तियों की धारणा है कि उच्छृंखलता की सीमा का स्पर्श करती हुई स्वतंत्रता, प्रत्येक अच्छे बुरे बंधन के प्रति उपेक्षा का भाव, अनेक अच्छे-बुरे व्यक्तियों से सख्यत्व और अकारण कठोरता आदि उनकी विशेषताएँ हैं। इस धारणा में भ्रांति का भी समावेश है। परन्तु यह नितान्त निर्मलू नहीं कही जा सकती। अनेक परिवारों में जीवन की कटुता का प्रत्यक्ष कारण स्त्रियों की कठोरता का सीमातीत हो जाना ही है, यह सत्य है। परंतु इसके लिए केवल स्त्रियां ही दोषी नहीं ठहराई जा सकतीं। परिस्थिति इतनी कठोर थी कि उन्हें उस पर विजय पाने के लिए कठोरतम अस्त्र ग्रहण करना पड़ा। उनमें जो विचारशील थीं, उन्होंने प्राचीन नारियों के समान कृपाण और कंकण का संयोग कर दिया, जो नहीं थी उन्होंने अपने स्त्रीत्व से अधिक विद्रोह पर विश्वास किया। वे जीने की कला नहीं जानती हैं। जो वास्तव में अपूर्ण है। संघर्ष की कला लेकर तो मनुष्य उत्पन्न ही हुआ है, उसे सीखने कहीं जाना नहीं पड़ता। यदि वास्तव में मनुष्य ने इतने युगों में कुछ सीखा है तो वह जीने की कला कही जा सकती है। संघर्ष जीवन का आदि हो सकता है, अंत नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि संघर्षहीन जीवन ही जीवन है। वास्तव में मनुष्य जाति नष्ट करने वाले संघर्ष से अपने आप को बचाती हुई विकास करने वाले संघर्ष की ओर बढ़ती जाती है।
                   सामाजिक प्रगति का अर्थ भी यही है कि मनुष्य अपनी उपयोगिता बढ़ाने के साथ साथ नष्ट करने वाली परिस्थितियों की संभावना कम करता चले। किसी परिस्थिति में वह हिम के समान अपने स्थान पर स्थिर हो जाता है और किसी परिस्थिति में जल के समान तरल होकर अज्ञात दिशा में बह चलता है। स्त्री का जीवन भी अपने विकास के लिए ऐसी ही अनुकूलता चाहता है, परंतु सामाजिक जीवन में परिस्थिति की अनुकूलता में विविधता है। हम अपना एक ही केंद्र-बिंदु मानकर जीवन-संघर्ष में नहीं ठहर सकते और अपना कल्याण ही कर सकते हैं। स्त्री की जीवनी-शक्ति का ह्रास इसी कारण हुआ कि वह अपने आपको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के अनुरूप बनाने में असमर्थ रही। उसने एक केंद्र-बिंदु पर अपनी दृष्टि को तब तक स्थिर रखा, जब तक चारों ओर से परिस्तितियों ने उसकी दृष्टि नहीं रोक ली। उस स्थिति में प्रकाश से अचानक अंधकार में आए हुए व्यक्ति के समान वह कुछ भी न देख सकी। फिर प्रकृतस्थ होने पर उसने वही पिछला अनुभव दोहराया।
                    जागृति-युग की उपासिकाओं के जीवन भी इस त्रुटि से रहित नहीं रहे। उन्होंने अपनी दृष्टि का एक ही केंद्र बना रखा है, अतः उन्हें अपने चारों ओर से संदिग्ध वातावरण को देखने का न अवकाश है और न प्रयोजन। वे समझती है कि वे राष्ट्रीय जागृति की अग्रदूती के अतिरिक्त और कुछ न बन कर भी अपने जीवन को सफलता के चरम सोपान तक पहुँचा देंगी। इस दिशा में उनकी गति का अनुरोध करने वालों की संख्या कम नहीं रही, यह सत्य है। परन्तु इसीलिए वे अपना गन्तव्य भी नहीं देखना चाहती, यह कहना बहुत तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता। ऐसा कोई त्याग या बलिदान नहीं जिसका उद्गम नारीत्व न रहा हो। अतः केवल त्याग के अधिकार को पाने के लिए अपने आप को ऐसा रूक्ष बना लेने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती।
                    जिन शिक्षिताओं ने गृह के बंधनों की अवहेलना पर सार्वजनिक क्षेत्र में अपना मार्ग प्रशस्त किया उनकी कहानी भी बहुत कुछ ऐसी ही है। उनके सामने नवीन का आह्वान और पीछे अनेक रूढियों का भार था। किसी विशेष त्याग या बलिदान की भावना लेकर नए जीवन-संग्राम में अग्रसर हुई थीं, यह कहना सत्य न होगा। वास्तव में गृह की सीमा में उनसे इतना अधिक त्याग और बलिदान मांगा गया कि उसके प्रति विद्रोह कर उठीं। स्वेच्छा से दी हुई छोटी से छोटी वस्तु मनुष्य का दान कहलाती है, परंतु अनिच्छा से दिया हुआ अधिक से अधिक द्रव्य भी मनुष्य का अधीनतासूचक कर ही समझा जाएगा। स्त्री को जो कुझ भी बलात् देना पड़ता है वह उसके दान की महिमा न बढ़ा सकेगा, यह शिक्षिता स्त्री भलीभाँति जान गई थी।
                    भविष्य में भारतीय समाज की क्या रूपरेखा हो, उसमें नारी की कैसी स्थिति हो, उसके अधिकारों की क्या सीमा हो आदि समस्याओं का समाधान आज की जागृत और शिक्षित नारी पर निर्भर है। यदि वह अपनी दुरवस्था के कारणों को स्मरण रख करे और पुरुष की स्वार्थपरता को विस्मरण कर सके तो भावी समाज का स्वप्न सुन्दर और सत्य हो सकता है, परंतु यदि वह अपने विरोध को चरम लक्ष्य मान ले और पुरुष से समझौते के प्रश्न को ही पराजय का पर्याय समझ ले तो जीवन की व्यवस्था अनिश्चित और विकास का क्रम शिथिल होता जाएगा।
                    क्रान्ति की अग्रदूती और स्वतंत्रता की ध्वजधारणी नारी का कार्य जीवन के स्वस्थ निर्माण में शेष होगा, केवल ध्वंस नहीं।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
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