अभिज्ञान शाकुन्तलम का नामकरण


'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नामकरण का कारण
अभिज्ञानशाकुन्तल का नायक राजा दुष्यन्त कण्व ऋषि के आश्रम को प्राप्त करता है और
समयानुसार कण्व की धर्मसुता शकुन्तला का गान्धर्वविधि से पाणिग्रहण कर अपनी राजधानी
लौटते समय शकुन्तला को अभिज्ञान (पहचान) स्वरूप अपनी अँगूठी प्रदान करता है, जिस पर
‘दुष्यन्त' नाम खुदा हुआ है। शकुन्तला के पूछने पर कि पुनः आपका दर्शन कब होगा, राजा
कहता है कि इस अँगूठी पर खुदे हुए अक्षरों की एक-एक करके गणना करना (दु-ष्य-न्त)।
जब तुम अन्तिम अक्षर पर पहुँचोगी तो इसी बीच हमारे अन्तःपुर के सेवक तुम्हें हमारे
अन्तःकरण में पहुँचा देंगे। दैववश शकुन्तला आश्रम में दुष्यन्त के विरह में व्याकुल हो अपनी
सुध-बुध खोई हुई पड़ी होती है तभी उत्तम तपस्वी किन्तु क्रोधी दुर्वासा आश्रम में प्रवेश करते
हैं, किन्तु शकुन्तला दुष्यन्त के चिन्तन में निमग्न अपने द्वार पर उपस्थित अतिथि को न जान
सकी, आतिथ्यसत्कार तो दूर रहा। दुर्वासा ऋषि अपना अतिथिसत्कार न पाकर शाप दे देते
हैं कि ओह ! अतिथि का तिरस्कार करने वाली! अनन्य भाव से जिसका तू चिन्तन कर रही
है, वही तुझे भूल जाएगा। इसके बाद प्रियम्वदा के अनुनय-विनय करने पर ऋषि कहते हैं कि
अभिज्ञान (पहचान) का आभूषण अँगूठी दिखलाने से मेरा शाप समाप्त हो जाएगा। शकुन्तला
के दैव को अनुकूल करने के लिए सोमतीर्थ गये हुए कण्व ऋषि जब पुनः अपने आश्रम में
वापस आते हैं तब उन्हें शकुन्तला व दुष्यन्त के विवाह का समाचार प्राप्त होता है। फिर वे
शकुन्तला को राजा के पास भेज देते हैं, किन्तु दुर्वासा के शाप के कारण राजा उसे नहीं ।

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शकन्तला
पहचानता है। फिर शकुन्तला राजा के नाम की अँगूठी दिखलाना चाहती है, किन्त त
तो दैवातू शचीतीर्थ का वन्दन करते समय जल में गिर चुकी थी। निराश हो जब
अपने दैव को धिक्कारती हुई रुदन करने लगती है तभी उसकी माँ मेनका ने अदृश्य होकर
तेजोमयी मूर्ति बनकर उसे उठा ले गई और उसे हेमकूट पर्वत पर स्थित मारीच आ
पहुँचा दिया। इसी आश्रम में शकुन्तला एक पुत्र को जन्म देती है, जो सर्वदमन और भरत के
नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके बाद राजपुरुषों को राजा के नाम की अँगूठी एक धीवर के पास
से प्राप्त हुई। उस अँगूठी के साथ धीवर को भी उपस्थित किया जाता है। राजा जब अंगठी
देखता है तब उसे शकुन्तला के साथ गान्धर्वविवाह का वृत्तान्त स्मरण हो जाता है। तब वह
धीवर को पुरस्कृत करवाता है तथा स्वयं शकुन्तला के विरह में दुःखी रहने लगता है। इस
प्रकार इस नाटक के पञ्चम अंक में अँगूठी देखकर राजा को शकुन्तला की याद आती है।
अतएव प्रकृत नाटक को ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्' कहते हैं। इसमें दो अंश हैं—एक अभिज्ञान
दूसरा शकुन्तला । अभिज्ञान का अर्थ है पहचानने का साधन-अभिज्ञायतेऽनेनेति अभिज्ञानम्।
व्युत्पत्ति कई प्रकार से की जाती है-(१) अभिज्ञानम्=अभिज्ञानभूतं तत् शाकुन्तलम् इति
अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् शकुन्तलाविषयक वह नाटक जो अभिज्ञानस्वरूप हो। (२) अभिज्ञानेन
स्मृतं शाकुन्तलं=शकुन्तलाविषयकं वृत्तान्तं यस्मिन् तत् अभिज्ञानशाकुन्तलम्-अर्थात् शकुन्तला-
विषयक विवाह का वृत्तान्त, जिसमें निशानी के रूप में स्मृत हो आया हो।
(३) अभिज्ञानम्=परिचयस्वरूपं शाकुन्तलम्=शकुन्तलासम्बन्धिचुरितं यत्र=यस्मिन् नाटके
तत् अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् जिस नाटक में शकुन्तला का विवाह आदि वृत्तान्त अभिज्ञान
प्रधान हो। (५) अभिज्ञानं च शकुन्तला च अभिज्ञानशाकुन्तले ते अधिकृत्य कृतं नाटमिति
अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् शकुन्तला के विषय में निशानी या परिचय जिस नाटक में निबद्ध
हो, उसे अभिज्ञानशाकुन्तल कहते हैं। (६) अभिज्ञानेन स्मृता स्मृतिपथमानीता शकुन्तला
अभिज्ञानशकुन्तला तामधिकृत्य कृतं नाटकमिति अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् जिस नाटक में
अभिज्ञान से स्मृत ‘शाकुन्तलम्' नाम मिलता है। ऐसी स्थिति में इसकी व्याख्या इस प्रकार
होगी–‘अभिज्ञायते अनेन इति अभिज्ञानम्, अभिज्ञानेन स्मृता=स्मृतिपथमानीता शकुन्तला
यस्मिनु (नाटके) तत् अभिज्ञानशाकुन्तलम् । शाकपार्थिवादि समास होने से ‘शाकपार्थिवादीनां
सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्' वार्तिक द्वारा स्मृति का लोप हो जाता है। नाटक का
विशेषण होने के कारण दोनों में अभेद मानकर नपुसंकलिंग में ह्रस्व हो जाने से ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।
होगा। विशेष प्रचलित नाम ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्' ही है।।
| अभिज्ञान (पहचान) शब्द का प्रयोग आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में भी प्राप्त होता है।
संभवतः महाकवि के द्वारा ‘अभिज्ञान' शब्द यहीं से ग्रहण किया गया हो। सुन्दरकाण्ड में
हनुमान जी सीता जी से कहते हैं कि मेरे द्वारा आपका दर्शन कर लिया गया है। इसके
प्रमाणस्वरूप आप हमें कोई अपनी निशानी दे दें, ताकि श्रीरामचन्द्र जी को भी ज्ञात हो
जाय-“अभिज्ञानं प्रयच्छ त्वं जानीयाद् राघवो यतः ।।३८/१०।। सीता जी ने पहचान बताते हुए
कहा-“इदं श्रेष्ठमभिज्ञानं ब्रूयास्त्वं तु मम प्रियम् ।।३८/१२ ।।




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अलंकार सिद्धान्त


अलंकार सिद्धान्त


भामह शब्द और अर्थ दोनों के सहित भाव को काव्य मानते हुए शब्द और अर्थ की  वक्रता को काव्यसौंदर्य का मूल मानते है । शब्द और अर्थ को विभामय करने वाली वक्रोक्ति ही उसके अनुसार अलंकार है । तत्पश्चात दण्डी काव्य के समस्त शोभाकारक धर्मों को अलंकार की संज्ञा देते हुए कहते है कि- ‘काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते’
आचार्य रुद्रट के अनुसार कथन के प्रकार विशेष अलंकार हैं-अभिधानप्रकार विशेषा एव चालंकाराः
 आचार्य वामन ने अलंकार को व्यापक तथा सीमित दो रूपों में प्रयुक्त किया व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार मानते हुए कहा- “सौंदर्यमलंकारः”
लेकिन इसी के साथ वे अलंकार को काव्य का अनित्य धर्म और गुण को नित्य धर्म मानते हुए कहते हैं- काव्य शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः । तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः”
काव्य का शोभाकारक धर्म गुण है और उसकी अतिशयता का हेतु अलंकार है इस परिभाषा से अलंकारों की तुलना में गुण की महत्ता बढ़ गयी । आनन्दवर्धन ने अलंकारों के महत्व में गुणात्मक अन्तर करते हुए बताया कि-
“तत् (रस) प्रकाशिनो वाच्यविशेषा एव रूपकादयोलंकाराः”
“अंगाश्रितास्त्वलंकाराः मन्तव्याः कटकादिवत्”
इन्होंनें काव्य में “ध्वनि” को आत्मरूप स्थान देते हुए अलंकार को उसके प्रकाशन में तुरूप स्वीकार किया और इसके साथ ही कहा कि जिस प्रकार कटकादि आभूषण शरीर की शोभा का वर्धन करते है लेकिन उनका शरीर से अवयव की भाँति समवाय सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि संयोग सम्बन्ध होता है उसी प्रकार अलंकारों का भी

अलंकार सिद्धान्त से तात्पर्य काव्य-सौन्दर्य निरूपक वह सिद्धान्त है जिसमें अलंकार की व्यापक परिकल्पना करते हुए समस्त काव्य-सौन्दर्य के मूल में उसे प्रतिष्ठित किया जाता है और काव्य के अन्य शोभाधायक तत्त्वों यथा रीति, गुण, रस, ध्वनि आदि को उसके अंगभूत रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भरतमुनि के "नाट्यशास्त्र" में रस का चिन्तन प्रधान है तथा अव्यकाव्य परम्परा के प्रथम प्रामाणिक आचार्य भामह के ग्रन्थ "काव्यालंकार" में अलंकार का। भामह ने मुख्य रूप से काव्य, काव्यालंकारों, गुण, दोष एवं शब्द शुद्धि जैसे विषयों का विवेचन किया है और रस का प्रायः विवेचन नहीं किया जिसे लक्ष्य कर कतिपय साहित्य चिन्तकों ने कहा कि भामह की काव्यचर्चा भरत के रस-प्राधान्य के विरोध में अग्रसर हुई। लेकिन ऐसा कहना भामह के प्रति अन्याय होगा क्योंकि उन्होंने काव्य में रस तत्त्व का कहीं निषेध नहीं किया है बल्कि महाकाव्य में रस का स्पष्ट निर्देश किया है। भामह का मुख्य उद्देश्य था श्रव्य-काव्य जो मूलतः शब्दार्थ का काव्य होता है उसमें शब्द और अर्थ के सौन्दर्य-परक सम्बन्ध की खोज करना।
भामह ने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही सत्कवित्व की गरिमा प्रतिष्ठित की और इतना ही नहीं,अपने समय में प्रचलित काव्य सम्बन्धी विविध मतों का उद्धरण देते हुए यह प्रतिपादित किया कि वस्तुतः काव्य क्या है? उनके शब्दों में-
रूपकादिरलंकारस्तस्यान्यैर्बहुधोदितः।
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम्॥
रूपकादिमलंकारं बाह्यमाचक्षते परे।
सुपा तिंग च व्युत्पत्तिं वाचां वाञ्छन्त्यलड्.कृतिम्॥
तदेतदाहुः सौशब्द्यं नार्थव्युत्पत्तिरीदृशी।
शब्दाभिधेयालंकारभेदादिष्टं द्वयं तु नः॥
शब्दार्थों सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद्विधा।
संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंशं इति त्रिधा॥
यहाँ पर भामह अपने समय में प्रचलित काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी विविध अवधारणाओं का परिचय देते हुए कहते हैं कि कुछ आलंकारिक अर्थ को महत्व देते हुए यह उत्कट रूप में मानते हैं कि रूपकादि अलंकार ही काव्य के शोभाधायक धर्म हैं, जिस प्रकार रमणी का मुख
सन्दर होने पर भी अलंकारविहीन होने से कान्तियुक्त नहीं होता उसी प्रकार रूपकादि अलंकार से विहीन काव्य सुन्दर नहीं होता। इसके विपरीत दूसरा मत उन आलंकारिकों का है जो रूपकादि अलंकारों को काव्य के लिये बाह्य मानते हुए कहते हैं कि वस्तुत: व्याकरणिक
शदि (सबन्त और तिङ्न्त) और शब्द निर्माण सौष्ठव (सौशब्द्य) पर ही काव्य का सौन्दर्य निर्भर करता है। इनके अनुसार, सर्वप्रथम हमें सुशब्द एवं उनका संयोजन आकर्षित करता है और उसके पश्चात उसका अर्थ। अतः सौशब्द्य का महत्व अपेक्षाकृत अधिक है। भामह ने
कि व्याकरण शुद्धि एवं सोशब्द्य के साथ अर्थ व्युत्पत्ति अर्थात अर्थ संस्कार भी होना अनिवार्य है क्योंकि काव्य तो "शब्दार्थों सहितौ" होता है जिसकी गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं। भामह ने यद्यपि अलंकार को सिद्धान्त के रूप में यत्नपूर्वक व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत
करने का कोई प्रयल नहीं किया तथापि यह निर्विवाद है कि उनके विषय विवेचन से काव्य सिद्धान्त को एक व्यवस्थित और शास्त्रीय रूप उपलब्ध हुआ। वाणी की अलंकृति कहाँ है इसका रहस्योद्घाटन करते हुए भामह कहते हैं-
न नितान्तादिमात्रेण जायते चारुता गिराम्।
वक्राभिधेयशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलकृतिः॥
वाणी की अलंकृति शब्द और अर्थ दोनों की वक्रता में है। भामह जितना वक्र अभिधेय के लिये कृत संकल्प हैं उतना ही शब्दोक्ति के लिये भी। इसीलिये इन्होंने नेयार्थ, क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक,गूढशब्दाभिधान, श्रुति दुष्ट आदि जैसे दोषों का भी उल्लेख किया है जिनके
प्रयोग से वाणी की चारुता हत होती है। भामह कवि की तुलना मालाकार से करते हुए कहते हैं जिस प्रकार मालाकार अनेक साधारण, असाधारण फूलों, पत्तियों आदि को लेकर माला पिरोने बैठता है, लेकिन उसकी माला तभी सुन्दर बनती है जब वह उन फूलों, पत्तियों का समुचित विन्यास कौशलपूर्वक करे। उसी प्रकार कवि का काव्य भी तभी वक्रतापूर्ण बनता है जब वह विदग्धतापूर्वक शब्दों का चयन एवं वाक्य में उनका विन्यास करता है। भामह अलंकार की व्यापक परिकल्पना करते हुए उसे मात्र शब्दालंकार एवं अर्थालंकार तक सीमित नहीं मानते वरन् काव्य-सौन्दर्य के पूरे स्वरूप को "अलंकार" शब्द में समाहित करते हैं और उसे कुछ विशिष्ट अलंकारों के रूप में प्रस्तुत भी करते हैं । वक्रार्थ विधायक शब्दोक्ति को अलंकार मानते हुए वे वक्रोक्ति को समस्त अलंकारों के बीज रूप में प्रतिष्ठित
करते हैं। वक्रोक्ति के बिना कोई अलंकार है ही नहीं क्योंकि अर्थ को विभामय करने वाली समस्त विधाएँ वक्रोक्ति ही हैं और कवियों को उसके लिये यत्न करना चाहिए।
वक्रोक्ति का स्वरूप
भामह ने वक्रोक्ति शब्द को कहीं व्याख्या नहीं की। अत: उनके ग्रन्थ में यत्र-तत्र बिखरे सूत्रों को पकड़कर वक्रोक्ति का स्वरूप जानना होगा। उन्होंने वक्रोक्ति से विरुक्त नीरस उक्ति को वार्ता कहा और प्रत्यक्षतः तो नहीं लेकिन प्रकारान्तर से स्वभावोक्ति को अलंकार नहीं
माना। उन्होंने अतिशयोक्ति सहित अन्य काव्यालंकारों का उल्लेख करने के पश्चात् कहा- "सै/ सर्वेव वक्रोक्तिः "
यह सब वक्रोक्ति ही है। इसर लक्षित होता है कि वास्तव में अतिशयोक्ति में ही वक्रोक्ति निहित है। अतिशयोक्ति को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं- "निमित्ततो वचो यत्तु लोका तेक्रान्त गोचरम्"-काव्यालंकार ११.८१
दण्डी इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि अलंकारों की वक्रता का मूल अतिशय वस्तुतः इस "लोकातिक्रान्ति गोचरता" में ही होता है। इससे. यह अभिव्यंजित होता है कि लोकोत्तीर्ण या विशिष्ट अभिव्यक्ति "वक्रता" को लक्षित करती है। भामह की यह निश्चित
मान्यता है कि वक्रोक्ति के बिना काव्य में अलंकार संभव नहीं हो सकता। उन्होंने सूक्ष्म, हेतु लेश जैसे अलंकारों को इसीलिये अस्वीकार किया है कि उनमें वक्रोक्ति का समावेश नहीं। वक्रोक्ति में एक प्रकार का "अतिशय" होता है इसे अनेक आचार्यों ने स्वीकार किया है
जैसे-दण्डी, कुन्तक आदि। आनन्दवर्द्धन के अनुसार भी प्रत्येक अलंकार में "अतिशय" का समावेश हो सकता है और कवि प्रतिभायुक्त अतिशयोक्ति में अत्यन्त चारुता होती है, अन्य केवल अलंकार मात्र होते हैं। आचार्य वामन प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने "वक्रोक्ति" का प्रयोग सीमित अर्थ में किया और इसे एक अर्थालंकार माना। वे सादृश्य पर आधारित लक्षणा को वक्रोक्ति अलंकार कहते हैं लेकिन यह धारणा परवर्ती आचार्यों द्वारा मान्य नहीं हुई क्योंकि गौणी लक्षणा और वक्रोक्ति में किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता।
आचार्य रुद्रट ने वक्रोक्ति को शब्दालंकार मानकर काकु वक्रोक्ति और श्लेष वक्रोक्ति इसके दो भेद किये जिसे प्रायः अधिकांश परवर्ती आचार्यों द्वारा मान्यता मिली। सारांशतः "वक्रोक्ति" को अलंकार के मूल में स्वीकार कर भामह ने अलंकार को जो व्यापकता एवं
महनीयता प्रदान की वह कालान्तर में सीमित हो गयी। इस संदर्भ में आचार्य कुन्तक को चर्चा अनिवार्य है क्योंकि इन्होंने पुनः एक बार भामह की "वक्रोक्ति" को व्यापकता प्रदान की और सर्वप्रथम "वक्रोक्ति" का अर्थ भी स्पष्ट किया। कुन्तक ने "वक्रोक्ति" को काव्य का जीवित सिद्ध करते हुए वक्रोक्ति सिद्धान्त की उद्भावना की और वक्रता के सम्पादन में कवि प्रतिभा के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित
किया। उल्लेखनीय है कि भामह एवं कुन्तक की वक्रोक्ति परिकल्पना में अन्तर है जो वक्रोक्ति सिद्धान्त के प्रतिपादन क्रम में स्पष्ट किया जायेगा। कुन्तक के समकालीन भोजराज ने वक्रोक्ति का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए "वक्र-वचन" को काव्य कहा और समस्त वाड्मय को तीन भागों में विभक्त किया-रसोक्ति, वक्रोक्ति और स्वभावोक्ति। कालान्तर में मम्मट, विश्वनाथ, रुय्यक, विद्यानाथ एवं अप्पय दीक्षित प्रभृति आचार्यों ने वक्रोक्ति को एक अलंकार विशेष ही माना, हाँ, प्रथम दो ने शब्दालंकार तो शेष तीन ने अर्थालंकार । इस प्रकार वक्रोक्ति की व्यापक परिकल्पना अलंकार विशेष में सीमित हो गयी जो अलंकार के महत्व के क्षीण होने का संकेत देती है।
                    अलंकार को सिद्धान्त रूप में व्यवस्थित करने का श्रेय भामह के परवर्ती आचार्यों को है जिनमें दण्डी, उद्भट का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वैसे इन आचार्यों की श्रेणी में आचार्य रुद्रट का भी नाम लिया जाता है, लेकिन जिस अर्थ में भामह,दण्डी और उद्भट ने अलंकार की परिकल्पना की उस अर्थ में रुद्रट ने नहीं। यद्यपि इन्होंने अलंकारों के वर्गीकरण तथा अलंकारों की संख्या के विकास आदि में उल्लेखनीय योगदान दिया। वस्तुत: अलंकार सिद्धान्त के प्रणेता रूप में उन्हीं आचार्यों के नाम परिगणित किये जा
सक हैं, जिन्होंने अलंकार को काव्य-सौन्दर्य के केन्द्र में रख कर अन्य सौन्दर्याधायक तत्वों की इ अगभूत रूप में प्रस्तुति की है।
भामह ने काव्य को अनेक रूपों में विभाजित किया जैसे भाषा के आधार पर, विषय के आधार पर और कहा कि ये सब काव्य के रूप महत्वपूर्ण तब होते हैं जब ये वक्र स्वभाव से युक्त हों।
                    भामह ने वामन द्वारा प्रतिपादित "रीति" तत्व का उल्लेख तो कहीं नहीं किया, लेकिन वैदी एवं गौडीय दो प्रकार की काव्य रचना का उल्लेख अवश्य किया है और यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि केवल वैदर्भी नाम से ही कोई काव्य न तो उत्तम हो जाता है न गौडीय नाम से हीन। इससे यह ज्ञात होता है कि उनके काल में वैदर्भी को श्रेष्ठ और गौडीय को हीन मानने की प्रवृत्ति प्रचलित थी। इसे भेड़चाल चलने वाली गतानुगतिक प्रवृत्ति कह कर भामह ने इसकी निन्दा की और कहा कि यदि गौडीय काव्य में अलंकारवत्ता है, अग्राम्यता है और समुचित, सम्पूर्ण अर्थ को वहन करने की क्षमता है, सरलता है तो वह वैदर्भी की तरह ही श्रेष्ठ है।
           भामह ने वामन की भाँति गुण का सम्बन्ध रीति से नहीं स्थापित किया बल्कि गुण का सम्बन्ध काव्य के स्वरूप से जोड़ा। भरत के दस रूढ़ गुणों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने केवल तीन गुणों की चर्चा की है और "गुण" और "अलंकार" के परस्पर भेद को कोई महत्व नहीं दिया। जहाँ तक "ध्वनि" का प्रश्न है भामह ने स्पष्ट रूप से "ध्वनि" का कहीं उल्लेख नहीं किया है लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि उन्हें व्यंग्यार्थ का ज्ञान नहीं था। उनके द्वारा प्रस्तुत पर्यायोक्ति, अप्रस्तुत प्रशंसा, याजस्तुति, समासोक्ति आदि अनेक ऐसे अलंकार हैं जो व्यंग्याश्रित हैं। अभिनवगुप्त ने अपने ग्रन्थ "लोचन" में कहा है कि भामह तथा उद्भट ने मुख्य के अतिरिक्त अमुख्य वृत्ति को स्वीकार कर ध्वनि की दिशा का उन्मीलन तो कर ही दिया क्योंकि जब "गंगायां घोषः" इस स्थल में भामह को स्वीकार हो चुका कि "गंगा" का अमुख्य अर्थ "तीर" है तब उन्होंने प्रयोजन रूप शीतलता-पावनता तक, जो ध्वनि का अपना पक्ष है प्राय: स्पर्श तो कर ही लिया था।
                    भामह के पश्चात् "काव्यादर्श" के रचयिता दण्डी का नाम उल्लेखनीय है जो अलंकार सिद्धान्त और रीति सिद्धांत के मध्य बिन्दु पर खड़े हैं। यद्यपि सर्वप्रथम दण्डी ने ही गुण का सम्बन्ध मार्ग (रीति) से जोड़ने की पहल की और इस प्रकार गुण तथा अलंकार में पार्थक्य दृष्टि का बीज वपन किया तथापि इन्हें अलंकार सिद्धान्त के आचार्य रूप में परिगणित करना अधिक तर्क सम्मत है।
इन्होंने स्पष्टत: कहा- "काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते" काव्य के शोभाकारक धर्म अलंकार हैं। उनकी इस धारणा के आधार पर कहा जा सकता है कि अनुप्रास, उपमा आदि अलंकार हैं ही; गुण, रस, ध्वनि आदि अन्य काव्य तत्व भी अलंकार ही हैं।
दण्डी ने प्रबन्ध-काव्य को "भाविक अलंकार" नाम दिया। महाकाव्यादि के वैशिष्ट्य एवं कथात्मक तत्वों तथा इसके अभिप्राय को भी इन्होंने अलंकार के रूप में स्वीकार किया। इतना ही नहीं, नाट्य से सम्बद्ध विषय यथा-पंच सन्धि एवं चौंसठ सन्ध्यंगों को भी भाविक
अलंकार के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिया।  रस तथा भाव को स्पष्ट रूप से उन्होंने प्रेयस, रसवत् एवं ऊर्जस्वि अलंकार के अन्तर्गत
समाहित किया। रसवत् अलंकार के अन्तर्गत इन्होंने आठों रसों तथा आठों स्थायी भावों का निर्देश किया है। ये माधुर्य गुण के अन्तर्गत भी रस का समावेश मानते हैं। गुण को यद्यपि दण्डी ने अलंकार नहीं कहा, लेकिन उनके एक कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि उपमा आदि अर्थालंकारों की तुलना में अनुप्रास आदि शब्दालंकारों तथा माधुर्य आदि दस गुणों को "साधारण अलंकार" कहना उन्हें अभीष्ट है। वैसे एक स्थल पर उन्होंने अलंकार और गुण दोनों को एक साथ स्पष्टत: अपने-अपने नामों से भी अभिहित किया है। -काव्यादर्श ३.१८६
भामह के प्राचीनतम मतानुयायी आचार्य उद्भट हैं जिनके तीन ग्रन्थों में केवल "अलंकार-संग्रह" उपलब्ध है और वह भी अत्यन्त संक्षिप्त। उद्भट ने अलंकार-निरूपण भामह की ही भाँति किया, लेकिन उनकी मौलिकता अलंकारों के भेद-निरूपण में है। इस काल में अलंकारों के सूक्ष्म भेदों की मीमांसा की गयी और तद्नुसार उनका वर्गीकरण किया गया किन्तु मौलिक सिद्धान्त अक्षुण्ण बने रहे। .
उद्भट की प्रेयस्, रसवत् आदि अलंकारों के सम्बन्ध में अपनी दृष्टि है। "ध्वन्यालोक" में उपलब्ध भाव, भावाभास, रस, रसाभास का बीज उद्भट के विवेचन में मिलता है। उद्भट के अनुसार, भाव चार प्रकार से और रस पाँच प्रकार से काव्य में आविर्भूत होते हैं। भरतमुनि ने केवल आठ प्रकार के रस की कल्पना नाट्य में की थी, उद्भट ने इसकी संख्या नौ कर दी-शान्त को भी रस माना। प्रेयस्वत अलंकार का लक्षण देते हुए वे कहते हैं जिस काव्य में अनुभाव आदि से रति आदि भावों का सूचन होता है वह काव्य प्रेयस्वत काव्य है।
परवर्ती आचार्यों ने भामह को छोड़कर उद्भट को ही अलंकार सिद्धान्त का प्रामाणिक आचार्य माना है। काव्य-सिद्धान्त के विभिन्न मत-मतान्तरों में उद्भट के विचारों का आदर है। आनन्दवर्द्धन, अभिनवगुप्त तथा रुय्यक के कथनानुसार उपमा भेद तथा श्लेष से सम्बन्धी
कुछ परवर्ती चिन्तन एवं तत्सम्बन्धी वाद-विवाद उद्भट के ही समय से आरम्भ हुए थे। परवर्ती आचार्यों की श्रृंखला में मम्मट और रुय्यक दोनों की काव्य-मीमांसा के लिये उद्भट ने मार्ग दर्शक का काम किया। भामह की परम्परा को प्रचलित रखने तथा उनके कथन की
व्यवस्थित रूप में व्याख्या करने का श्रेय उद्भट को प्राप्त है। भामह की भाँति उद्भट ने भी "गण" और "अलंकार" के परस्पर भेद को कोई महत्व नहीं दिया। उभट ने "मार्ग" या "रीति" का उल्लेख तो नहीं किया है लेकिन तीन वृत्तियों का उल्लेख किया जो अनुप्रास
अलंकार पर आश्रित हैं। यह कहना कठिन है कि उद्भट की तीन वृत्तियों, वामन की तीन रीतियों अथवा आनन्दवर्द्धन के तीन गुणों का कार्यक्षेत्र समान है। वस्तत: जिस समय दाम, दंडी के कथन के आधार पर रीति-सिद्धान्त को व्यवस्थित करने के पयल में व्यस्त थे उसी समय उदट ने अलंकार-सिद्धान्त का प्रतिष्ठापन किया। अलंकार सिद्धान्त के आचार्य रूप में रुद्रट का भी नाम परिगणित किया जाना कछ
विद्वानों ने स्वीकार किया है लेकिन रुद्रट द्वारा "अलंकार" की जिस रूप में परिकल्पना की गयी उससे यह ज्ञात होता है कि इन्होंने इसका क्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित कर दिया अत: इन्हें भामह, दण्डी, उद्भट की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता लेकिन अलंकार के विवेचन की
दृष्टि से इनका मौलिक योगदान है।
                    अन्य आलंकारिक आचार्यों की तरह रुद्रट ने रीति और उसके गुणों को विशेष महत्व नहीं दिया। यद्यपि इन्होंने चार प्रकार की रीतियों का उल्लेख किया है, लेकिन उनका तत्सम्बन्धी विवेचन रीति सिद्धान्त से प्रभावित नहीं। इनके अनुसार, रीति सर्वथा शब्द-विन्यास के निश्चित नियमों अथवा समास पर आश्रित होती है अत: इसे शब्द की "समासवृत्ति" कहते अलंकारों का सविस्तार विवेचन करने में रुद्रट के ग्रन्थ की विशेषता है। उन्होंने उद्भट के अलंकारों की सीमित संख्या में लगभग तीस अलंकार बढ़ाए। इसके अतिरिक्त शब्द तथा अर्थ के महत्व के अनुसार अलंकारों का विभाजन दो वर्गों में किया जिसका संकेत पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी एवं उद्भट ने तो किया था पर उस भेद को प्रत्यक्षत: निर्दिष्ट नहीं किया था। इसके अतिरिक्ति सामान्य अथवा विशिष्ट लक्षणों के आधार पर प्रत्येक अलंकार को एक निश्चित जाति के अंतर्गत निर्धारित करने के लिये उन्होंने पहली बार एक विशिष्ट सिद्धान्त प्रस्तुत किया। मम्मट जैसे परवर्ती आचार्यों ने रुद्रट के अलंकार विषयक विश्लेषण को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया है।
                    रुद्रट ने अपने ग्रन्थ में रस का भी विवेचन किया है। अलंकार ग्रन्थों में रस का विवेचन करने वाला रुद्रट ही प्रथम ग्रन्थकार है। शान्त और प्रेयान मिलाकर ये दस रस मानते हैं। इन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि शब्दार्थ रस युक्त होना चाहिये। दण्डी, उद्भट ने जहाँ रसवत् काव्य को भी अलंकृत काव्य माना वहाँ रुद्रट ने रस को अलंकार से अलग करके काव्य का गुण माना।
अलंकारवादी आचार्यों की श्रृंखला में आगे चलकर प्रतिहारेन्दुराज, जयदेव, भोजराज, अप्पय दीक्षित प्रभृति आचार्यों के नाम लिये जाते हैं, लेकिन जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है रुद्रट के काल से ही अलंकार को अपेक्षाकृत सीमित संदर्भ में देखा जाने लगा,
अतः अलंकार को सिद्धान्त रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय तो भामह, दण्डी, उद्भट को दिया जाना चाहिये और परवर्ती अलंकारवादी आचार्यों को अलंकार सम्प्रदाय के अन्तर्गत परिगणित करना चाहिए।यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना समीचीन जान पड़ता है कि सिद्धान्त एवं सम्प्रदाय में अन्तर है जिसे प्रायः एक समझ लिया जाता है। सिद्धान्त का संबंध है उन मूलभूत स्थापनाओं से जो काव्य-सौन्दर्य के निरूपण के संदर्भ में किये जाते हैं। सिद्धान्त को सम्प्रदाय का रूप तब - मिलता है जब उसके मतानुयायी हों एवं जो उन सिद्धान्तों का अनुसरण एवं उपबृंहण करते हों। प्रायः ऐतिहासिक क्रम में देखा जाता है कि काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी स्थापनाओं का खंडन-मंडन होता रहा है और नयी स्थापनाएँ की जाती रही हैं, लेकिन इस क्रम में आचार्यों का एक वर्ग वह भी होता है जो पुरानी मान्यताओं से सहमति रखते हुए, कतिपय बदलाव के

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तीसरा आदमी

नहबिह
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लक्ष्मी का स्वागत

ूहबवुदब
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एक दिन

ुिक
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चारुमित्रा

कतचरपगजद
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स्ट्राइक

पि
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एक घूँट


एक घूँट (प्रतीकात्मक एकांकी)
जयशंकर प्रसाद
अरुणाचल आश्रम
अरुणाचल पहाड़ी के समीप, एक हरे भरे प्राकृतिक वन में कुछ लोगों ने मिलकर एक स्वास्थ्य निवास बसा लिया है। कई परिवारों ने उसमें छोटे-
छोटे स्वच्छ घर बना लिये हैं। उन लोगों की जीवन-यात्रा का अपना निराला ढंग है, जो नागरिक और ग्रामीण जीवन की संधि है। उनका आदर्श हैं। सरलता, स्वास्थ्य और सौन्दर्य ।

पात्र-परिचय
कुंज-आश्रम का मंत्री। एक सुदक्ष प्रबंधकार और उत्साही संचालक। सदा प्रसन्न रहने वाला अधेड़ मनुष्य।।
रसाल-एक भावुक कवि। प्रकृति से और मनुष्यों से तथा उनके आचार-व्यवहारों से अपनी कल्पना के लिए सामग्री जुटाने में व्यस्त सरल प्राणी।।
वनलता--रसाल कवि की स्त्री। अपने पति की भावुकता से असंतुष्ट। उसकी समस्त भावनाओं को अपनी ओर आकर्षित करने में व्यस्त रहती है।
मुकुल-उत्साही तर्कशील युवक ! कुतूहल से उसका मन सदैव उत्सुकता-भरी प्रसन्नता में रहता है।
झाड़वाला-एक पढ़ा-लिखा किन्तु साधारण स्थिति का मनुष्य अपनी स्त्री की प्रेरणा से उस आश्रम में रहने लगता है; क्योंकि उस आश्रम में कोई साधारण काम करनेवालों को लाजत होने की आवश्यकता नहीं। सभी कुछ न कुछ करते थे। उसकी स्त्री के हृदय में स्त्री-जन-सुलभ लालसाएँ होती हैं किन्तु पूर्ति का कोई उपाय नहीं।
चंदुला-एक विज्ञापन करने वाला विदूषक।।
प्रेमलता-मुकुल को दूर के सम्बन्ध की बहन। एक कुतूहल से भरी कुमारी उसके मन में प्रेम और जिज्ञासा भरी है।
आनन्द -एक स्वतन्त्र प्रेम का प्रचारक, घुमक्कड़ और सुन्दर युवक। कई दिनों से आश्रम का अतिथि होकर मुकुल के यहाँ ठहरा है।।

 [ अरुणाचल आश्रम का एक सधन कुज। श्रीफल, वट, आम, कदंब मौलसिरी के बड़े बड़े वक्षों की झमट में प्रभात को धूप घुसने की चाटा कर
है। उधर समीर के झोंके, पत्तियों और टालों को हिला हिलाकर, जैसे किरणे निर्विरोध प्रवेश में बाधा डाल रहे हैं। वसंत के फूलों को भीनी भीनी सुगंध हरी भरी छाया में कलोल कर रही है। वृक्षों के अन्तराल में गुजार पूर्ण नभखण्ड की नीलिमा में जैसे पक्षियों का कलरव साकार दिखाई देता है।
मौलसरी के नीचे वेदी पर वनलता बैठी हुई, अपनी साड़ी के अंचल को खेल देख रही है। आश्रम में ही कहीं होते हुए संगीत को कभी सुन लेती है, कभी। अनसुनी कर जाती हैं।
(नेपथ्य में गान )
खोल तू अब भी आँखें खोल!
जीवन-उदधि हिलोरें लेता उठतीं लहरें लोल!
छवि की किरनों से खिल जा तू, अमृत झड़ी सुख से झिल जा तू।।
इस अनंत स्वर से मिल जा तू, वाणी में मध घोल।।
जिससे जाना जाता सब यह, उसे जानने का प्रयत्न! अह।
भूल अरे अपने को मत रह, जकड़ा बंधन खोल ।
खोल तू अब भी आँखें खोल।।
[ संगीत बन्द होने पर कोकिल बोलने लगती है। वनलता अंचल छोड़कर खड़ी हो जाती है। उसकी तीखी आँखें जैसे कोकिल को खोजने लगती हैं। उसे न देखकर हताश सी वनलता अपने-ही-आप कहने लगती है ।
          कितनी टीस है, कितनी कसक है, कितनी प्यास है, निरन्तर पंचम की पुकार ! कोकिल ! तेरा गला जल उठता होगा। विश्व-भर से निचोड़कर यदि डाल सकता तेरे सूखे गले में एक घंट। ( कुछ सोचती है ) किन्त एक संगीत का क्या अर्थ हैं....बंधनों को खोल देना, एक विशृंखलता फैलाना, परन्तु मेरे हृदय की पुकार क्या कह रही है। आकर्षण किसी को बाहुपाश में जकड़ने को प्रेरित कर रहा है। इस संचित स्नेह से यदि किसी रूखे मन को चिकना कर सकती ? ( रसाल के आते देखकर ) मेरी विश्व-यात्रा के संगी, मेरे स्वामी ! तुम काल्पनिक विचारों के
आनन्द में अपनी सच्ची संगिनी को भूल..... ( रसाल चुपचाप वनलता के आँखें बंद कर लेता है, वह फिर कहने लगती है) कौन है? नीलो, शीला प्रेमलता ! बोलती भी नहीं: अच्छा, मैं भी खूब छकाऊँगी, तुम लोग बड़े दुलार " चढ़ गयी हो न !
रसाल : (निःश्वास लेकर हाथ हटाते हुए ) इन लोगों के अतिरिक्त और कोई दूसरा तो हो ही नहीं सकता। इतने नाम लिये किन्तु.....एक
मेरा ही स्मरण न आया। क्यों वनलता ?
वनलता : ( सिर पर साड़ी खींचती हुई ) आप थे? मैं नहीं जान....
रसाल ( बात काटते हुए ) जानोगी कैसे लगा ! मैं भी जानने की, स्मरण होने की वस्तु होऊँ तब न ! अच्छा तो है, तुम्हारी विस्मृति भी मेरे
लिए स्मरण करने की वस्तु होगी। (नि:श्वास लेकर ) अच्छा, चलती हो आज मेरा व्याख्यान सुनने के लिए?
वनलता : ( आश्चर्य से ) व्याख्यान ! तुम कब से देने लगे? तुम तो कवि हो कवि, भला तुम व्याख्यान देना क्या जानो, और वह विषय कौन-
सा होगा जिस पर तुम व्याख्यान दोगे? घड़ी-दो-घड़ी बोल सकोगे ! छोटी-छोटी कल्पनाओं के उपासक ! सुकुमार सूक्ति के
संचालक! तुम भला क्या व्याख्यान दोगे?
रसाल | : तो मेरे इस भावी अपराध को तुम क्षमा न करोगी। आनन्दजी के स्वागत में मुझे कुछ बोलने के लिए आश्रमवालों ने तंग कर दिया
है। क्या करूँ वनलता !
वनलता : (मौलसीरी की एक डाल पकड़कर झुकाती हुई ) आनन्दजी का स्वागत ! अब होगा! कहते क्या हो ! उन्हें आये तो कई दिन हो
गये!
रसाल : (सिर पकड़कर) ओह ! मैं भूल गया था, स्वागत नहीं उनके परिचय-स्वरूप कुछ बोलना पड़ेगा।
वनलता : हाँ परिचय ! अच्छा मुझे तो बताइये, यह आनन्दजी कौन है, क्यों आये हैं और कब ! नहीं-नहीं; कहाँ रहते हैं ?
रसाल : मनुष्य है, उनका कुछ निज का संदेश है; उसी का प्रचार करते हैं। कोई निश्चित निवास नहीं। (जैसे कुछ स्मरण करता हुआ)
तुम भी चलो न! संगीत भी होगा। आनन्दजी अरुणाचल पहाड़ी की तलहटी में घूमने गये हैं; यदि नदी की ओर भी चले गये हों
तो कुछ विलंब लगेगा, नहीं तो अब आते ही होंगे। तो मैं चलता हूँ
[ रसाल जाने लगता है। वनलता चुप रहती है। फिर रसाल के कुछ दूर जाने पर उसे बुलाती है। ]
वनलता : सुनो तो!

रसाल  : ( लौटते हुए ) क्या?
वनलता : यह अभी-अभी जो संगीत हो रहा था ( कुछ सोचकर) उसका पद स्मरण नहीं हो रहा है, वह......
रसाल : मेरी एक घूँट' नाम की कविता मधुमालती गाती रही होगी ।
वनलता क्या नाम बताया--एक बूंट'? उहूँ ! कोई दूसरा नाम होगा भूल रहे हो; वैसा स्वर-विन्यास एक बूंट नाम की कविता में
नहीं सकता।
रसाल : तब ठीक है। कोई दूसरी कविता रही होगी। तो मैं जाऊ न।
वनलता : ( स्मरण करके ) ओहो, उसमें न जकड़े रहने के लिए, बंधन खोलने के लिए, और भी क्या-क्या ऐसी ही बातें थीं। वह किसकी कविता है?
रसाल : ( दूसरी ओर देखकर ) तो, तो वह मेरी--हाँ-हाँ-मेरी ही कविता थी।
वनलता (त्योरी चढ़ाकर) अच्छा, तो आप बंधन तोड़ने की चेष्टा में हैं। आजकल ! क्यों, कौन बंधन खोल रहा है ?
रसाल | : ( हँसने की चेष्टा करता हुआ) यह अच्छी रही ! किन्तु लता! यह क्या पुराने ढंग की साड़ी तुमने पहन ली है? यह तो समय के अनुकूल नहीं; और मैं तो कहूँगा, सुरुचि के भी प्रतिकूल है।
वनलता : समय के अनुकूल बनने की मेरी बात नहीं, और सुरुचि के सम्बन्ध में मेरा निज का विचार है। उसमें किसी दूसरे की सम्मति की मुझे आवश्यकता नहीं।
रसाल : उस दिन जो नई साड़ी मैं ले आया था, उसे पहन आओ न!
(
जाने लगता है)
वनलता: अच्छा-अच्छा, तुम जाते कहाँ हो ? व्याख्यान कहाँ होगा? ए कवि जी, सुनँ भी!
रसाल : यही तो मैं भी पूछने जा रहा था।
[
वनलता दाहिने हाथ की तर्जनी से अपना अधर दबाये, बाँए हाथ की दाहिनी कुहनी पकड़े हँसने लगती है और रसाल उस
मुद्रा साग्रह देखने लगता है, फिर चला जाता है।] ।
वनलता : ( दाँतों से ओंठ चबाते हुए ) हूँ। निरीह, भावुक प्राणी पक्षियों के बोल, फूलों की हँसी और नदी के कलनाद
समझ लेते हैं। परन्तु मेरे आर्तनाद को कभी समझने का चेष्टा भी नहीं करते। और मैंने ही.....।

[ दूर से कुछ लोगों के बातचीत करते हुए आने का शब्द सुनाई पड़ता है। वनलता चुपचाप बैठ जाती है। प्रेमलता और आनन्द
का बात करते हुए प्रवेश। पीछे-पीछे और भी कई स्त्री-पुरुषों का आपस में संकेत से बात करते हुए आना। वनलता जैसे उस ओर
ध्यान ही नहीं देती।]
आनन्द : ( एक ढीला रेशमी कुरता पहने हुए हैं, जिसकी बाहें उसे बार-बार चढ़ानी पड़ती हैं, बीच-बीच में चदरा भी सम्हाल
लेता है। पान को रूमाल से पोंछते हुए प्रेमलता की ओर गहरी दृष्टि देखकर ) जैसे उजली धूप सबको हँसाती हुई आलोक
फैला देती है, जैसे उल्लास की मुक्त प्रेरणा फूलों की पंखुड़ियों को गद्गद कर देती है, जैसे सुरभि का शीतल झोंका सबका
आलिंगन करने के लिए विह्वल रहता है, वैसे ही जीवन की निरन्तर परिस्थिति होनी चाहिए।
प्रेमलता : किन्तु जीवन की झंझटें, आकांक्षाएँ, ऐसा अवसर आने दें तब न ! बीच-बीच में ऐसा अबसर आ जाने पर भी वे चिरपरिचित निष्ठुर विचार गुर्राने लगते हैं। तब !
आनन्द : उन्हें पुचकार दो, सहला दो; तब भी न मानें, तो किसी एक का पक्ष न लो। बहुत संभव है कि वे आपस में लड़ जायें और तब तुम तटस्थ दर्शक मात्र बन जाओ और खिलखिलाकर हँसते हुए वह दृश्य देख सको। देख सकोगे न !
प्रेमलता : असंभव ! विचारों का आक्रमण तो सीधे मुझ पर होता है। फिर वे परस्पर कैसे लड़ने लगें ?. (स्वगत) अहा, कितना मधुर यह प्रभात है! यह मेरा मन जो गुदगुदी का अनुभव कर रहा है, उसका संघर्ष किससे करा दें।
[
मुकुल भवों को चढ़ाकर अपनी एक हथेली पर तर्जनी से प्रहार करता है, जैसे उसकी समझ में प्रेमलता की बात बहुत सोच-
विचारकर कही गई हो। आनन्द दोनों को देखता है, फिर उसकी दृष्टि वनलता की ओर चली जाती है।]
आनन्द : (सँभलते हुए) जब तुम्हारे हृदय में एक कटु विचार आता है, उसके पहले से क्या कोई मधुर भाव प्रस्तुत नहीं रहता? जिससे तुलना करके तुम कटुता का अनुभव करती हो।
प्रेमलता : हाँ, ऐसा ही समझ में आता है।
आनन्द : तो इससे स्पष्ट हो जाता है कि पवित्र-मन्दिर में दो मधुर-भावों का द्वंद्व चला करता है, और उन्हीं में एक, दूसरे पर आतंक जमा लेता है।
|
प्रेमलता : लेता है, किन्तु; यह बात मेरी समझ में.....
आनन्द : ( हँसकर ) न आई होगी। किन्तु तुम उस द्वंद्व के प्रभाव से मुक्त हो सकती हो। मान लो कि तुम किसी से स्नेह करती हो (ठहरकर) प्रेमलता की ओर गूढ़ दृष्टि से देखकर ) और तुम्हारे हृदय में इसे सूचित करने.....व्यस्त करने के लिए इतनी व्याकुलता.....
प्रेमलता : ठहरिये तो, मैं प्यार करती हूँ कि नहीं, पहले इस पर भी मुझे दृढ निश्चय कर लेना चाहिये।
आनन्द : (विरक्ति प्रकट करता हुआ) उँह, दृढ़ निश्चय को बीच में लाकर तुमने मेरी विचार-धारा दूसरी ओर बहा दी। दृढ़ निश्चय
एक बंधन है। प्रेम की स्वतन्त्र आत्मा को बंदीगृह में न डालो। इससे उसका स्वास्थ्य, सौन्दर्य और सरलता सब नष्ट हो जायेगी।
प्रेमलता : ऐं ! (और भी कई व्यक्ति आश्चर्य से ) ऐ !
आनन्द : हाँ-हाँ, उस नियमबद्ध प्रेम-व्यापार का बड़ा ही स्वार्थपूर्ण विकृत रूप होगा। जीवन का लक्ष्य भ्रष्ट हो जायेगा।
प्रेमलता : ( आश्चर्य से) और वह लक्ष्य क्या है?
आनन्द : विश्व-चेतना के आकार धारण करने की चेष्टा का नाम 'जीवन' है। जीवन का लक्ष्यसौन्दर्य' है, क्योंकि आनन्दमयी प्रेरणा जो उस चेष्टा या प्रयत्न का मूल रहस्य है, स्वस्थ-आत्मभाव में, निर्विशेष रूप से-रहने पर सफल हो सकती है। दृढ़ निश्चय कर
लेने पर उसकी सरलता न रहेगी, अपने मोह-मूलक अधिकार के लिए वह झगड़ेगी। किन्तु अभी-अभी आपने नदी-तट पर जाल की कड़ियों को आपस में लड़ाते हुए मछुओं की बातें सुनी हैं। वे न-जाने.....
आनन्द : सुनी हैं। आनन्द के सम्बन्ध में पहले एक बात मेरी सुन लो।आनन्द का अंतरंग सरलता है और बहिरंग सौन्दर्य है, इसी में वह स्वस्थ रहता है।
प्रेमलता : किन्तु आपकी ये बातें समझ में नहीं आतीं।
आनन्द : (हँसकर) तो इसमें मेरा अपराध नहीं। प्रायः न समझने कारण मेरे इस कथन का अर्थ उलटा ही लगाया जायेगा, या तो
पागल का प्रलाप समझा जायेगा। किन्तु करूँ क्या, बात तो जैसी है वैसी ही कही जायगी न ! उन मछुओं को सरलता और सौन्दर्य
दोनों का ज्ञान नहीं। फिर आनन्द के नाम पर वे दु:ख का नाम क्यों लें ?
प्रेमलता : ( उदास होकर ) यदि हम लोगों की दृष्टि में उनके यहाँ सौन्दर्य का अभाव हो, तो भी उनके पास सरलता नहीं है, मैं ऐसा नहीं मान सकती ।।
आनन्द : तुम्हारा न मानने का अधिकार मैं मानता हूँ, किन्तु वे अपने भीतर ज्ञाता बनने का निश्चय करके, अपने स्वार्थों के लिए दृढ़ अधिकार प्रकट करते हुए, अपनी सरलता की हत्या कर रहे थे और सौन्दर्य को मलिन बना रहे थे। काल्पनिक दु:खों को ठोस मानकर.....
मुकुल : ( बात काटते हुए ) ठहरिये तो, क्या फिर 'दुःख' नाम की वस्तु कोई हुई नहीं? आनन्द होगा कहीं ! हम लोग उसे खोज निकालने का प्रयत्न क्यों करें ? अपने काल्पनिक अभाव, शोक, ग्लानि और दु:ख के काजल आँखों के आँसू में घोलकर सृष्टि के सुन्दर कपोलों को क्यों कलुषित करें ? मैं उन दार्शनिकों से मतभेद रखता हूँ जो यह कहते । आये हैं कि संसार दुःखमय है और दु:ख के नाश का उपाय सोचना ही पुरुषार्थ है।
[
वनलता चुपचाप तीव्र दृष्टि से दोनों को देखती हुई अपने बाल सँवारने लगती है और प्रेमलता आनन्द को देखती हुई अपने-आप
सोचने लगती है।
प्रेमलता : (स्वगत ) अहा ! कितना सुन्दर जीवन हो, यदि मनुष्य को इस बात का विश्वास हो जाय कि मानव-जीवन की मूल सत्ता में आनन्द है। आनन्द! आह ! इनकी बातों में कितनी प्रफुल्लता है! हृदय को जैसे अपनी भूली हुई गति स्मरण हो रही है। (वह
प्रसन्न नेत्रों से आनन्द को देखती हुई कह उठती है) और!
आनन्द : और दु:खं की उपासना करते हुए एक-दूसरे के दुःख से दुःखी होकर परंपरागत सहानुभूति-नहीं-नहीं, यह शब्द उपयुक्त नहीं; हाँ–सहरोदन करना मूर्खता है। प्रसन्नता की हत्या का रक्त पानी बन जाता है। पतला, शीतल ! ऐसी संवेदनाएँ संसार में उपकार से अधिक अपकार ही करती हैं।
प्रेमलता : (स्वगत सोचने लगती है ) सहानुभूति भी अपराध है ? अरे यह कितना निर्दय! आनन्द ! आनन्द ! यह तुम क्या कह रहे हो ? इस
स्वच्छंद प्रेम से या तुमसे क्या आशा !
मुकुल : फिर संसार में इतना हाहाकार !
आनन्द :  उँह, विश्व विकासपूर्ण है; है न? तब विश्व की कामना का मूल रहस्य' आनन्द' ही है, अन्यथा वह 'विकास' न होकर दूसरा ही
कुछ होता।
मुकुल : और संसार में जो एक-दूसरे को कष्ट पहुँचाते हैं, झगड़ते हैं!
आनन्द : दु:ख के उपासक उसकी प्रतिमा बनाकर पूजा करने के लिए द्वेष, कलह और उत्पीड़न आदि सामग्री जुटाते रहते हैं। तुम्हें हँसी के हल्के धक्के से उन्हें टाल देना चाहिए।
मुकुल : महोदय, आपका यह हल्के जोगिया रंग का कुरता जैसे आपके सुन्दर शरीर से अभिन्न होकर हम लोगों की आँखों में भ्रम उत्पन्न कर देता है, वैसे ही आपको दु:ख के झलमले अंचल में सिसकते हुए संसार की पीड़ा का अनुभव स्पष्ट नहीं हो पाता। आपको क्या मालूम कि बुद्ध के घर की काली-कलूटी हाँड़ी भी कई दिन से उपवास कर रही है। छुन्नू मूंगफली वाले का एक रुपये की पूँजी का खोमचा लड़कों ने उछल-कूदकर गिरा भी दिया और लूटकर खा भी गये, उसके घर सात दिन की उपवासी रुग्ण बालिका मुनक्के की आशा में पलक पसारे बैठी होगी या खाट पर खड़ी होगी।
प्रेमलती ( आनन्द की ओर देखकर ) क्यों ?
आनन्द : ठीक वही बात ! यही तो होना चाहिए। स्वच्छंद प्रेम को जकड़कर बाँध रखने का, प्रेम की परिधि संकुचित बनाने का यही फल है, यही परिणाम है (मुस्कुराने लगता है)।
मुकुल : तब क्या सामाजिकता का मूल उद्गम-वैवाहिक प्रथा तोड़ देनी चाहिए? यह तो साफ-साफ दायित्व छोड़कर उद्भ्रांत जीवन बिताने की घोषणा होगी। परस्पर सुख-दुःख में गला बाँधकर एक दूसरे पर विश्वास करते हुए, संतुष्ट दो प्राणियों की आशाजनक परिस्थिति क्या छोड़ देने की वस्तु है ? फिर.....।
प्रेमलता : (स्वगत ) यह कितनी निराशामयी शून्य कल्पना है-( आनन्द को देखने लगती है)।
आनन्द : ( हताश होने की मुद्रा बनाकर ) ओह ! मनुष्य कभी न समझेगा। अपने दु:खों से भयभीत कंगाल दूसरों के दुःख में श्रद्धावान बन
जाता।
मुकुल : मैंने देखा है कि मनुष्य एक ओर तो दूसरे से ठगा जाता है, फिर भी दूसरे से कुछ ठग लेने के लिए सावधान और कुशल बनने का
अभिनय करता रहता है।
प्रेमलता : ऐसा भी होता होगा!
आनन्द : यह मोह की भूख......
वनलता ( पास आकर) और पेट की ही भूख-प्यास तो मानव-जीवन में नहीं होती। हृदय को-( छाती पर हाथ रखकर) कभी इसको भी टटोलकर देखा है ? इनकी भूख-प्यास का भी कभी अनुभव किया है ? ( आनन्द कौतुक से वनलता की ओर देखने लगता है। आश्रम के मंत्री कुंज के साथ रसाल का प्रवेश )।
आनन्द : ( मुस्कराकर ) देवी, तुम्हारा तो विवाहित जीवन है न! तब भी । हृदय भूखा और प्यासा ! इसी से मैं स्वच्छंद प्रेम का पक्षपाती हूँ।
वनलता : वही तो मैं समझ नहीं पाती, प्रतिकूलताएँ.....( कहते-कहते रसाल को देखकर रुक जाती है, प्रेमलता को देखकर ) प्रेमलता ! तुमने आज प्रश्न करके हम लोगों के अतिथि श्री आनन्द जी को अधिक समय तक थका दिया है। अच्छा होता कि कोई गान सुनाकर इन शुष्क तक से उत्पन्न हुई हम लोगों की ग्लानि को दूर करती।
प्रेमलता : (सिर झुकाकर प्रसन्न होती हुई ) अच्छा, सुनिए-
[ सब प्रसन्नता प्रकट करते हुए एक-दूसरे को देखते हैं |
प्रेमलता : (गाती है )-
जीवन-वन में उजियाली है।
यह किरनों की कोमल धारा-
बहती ले अनुराग तुम्हारा-
व्यथा घूमती मतवाली है।
हरित दलों के अन्तराल से-
बचता-सा इस सघन जाल से-
। यह समीर किस कुसुम-बाल से-
माँग रहा मधु की प्याली है।
एक पूँट का प्यासा जीवन-
निरख रहा सबको ५ लोचन।
कौन छिपाये है उसका घन-
कहाँ सजल वह हरियाली है।
[ गान समाप्त होने पर एक प्रकार का सन्नाटा हो जाता है। संगीत की प्रतिध्वनि उस कुंज में अभी भी जैसे सब लोगों को मुग्ध कि हैं। वनलता सब लोगों से अलग कुंज (आश्रम के मंत्री का प्रतीक) से धीरे-धीरे कहती है ।
वनलता : कुछ देखा आपने।।
कुंज : क्या?
वनलता : हमारे आश्रम में एक प्रेमलता ही तो कुमारी है। और यह आनन्दजी भी कुमार ही हैं।
कुंज : तो इससे क्या?
वनलता : इससे ! हाँ, यही तो देखना है कि क्या होता है? होगा कुछ अवश्य ! देखें तो मस्तिष्क विजयी होता है कि हृदय! आपको....
(चिंतित भाव से ) मुझे तो इसमें.....जाने भी दो वह देखो रसालजी कुछ कहना चाहते हैं क्या? मैं चलँ। ।
[ दोनों आनन्दजी के पास जाकर खड़े हो जाते हैं ।
कुंज  : महोदय ! मेरे मित्र श्री रसालजी आपके परिचय स्वरूप एक भाषण देना चाहते हैं। यदि आपकी आज्ञा हो तो आपके व्याख्यान के पहले ही-
आनन्द  : (जैसे घबराकर) क्षमा कीजिए मैं तो व्याख्यान देना नहीं चाहता; परन्तु श्री रसालजी की रसीली वाणी अवश्य सुनूंगा। आप लोगों ने तो मेरा वक्तव्य सुन ही लिया। मैं वक्ता नहीं हैं। जैसे सब लोग बातचीत करते हैं, कहते हैं, सुनते हैं, ठीक उसी तरह मैंने भी आप । लोगों से वाग्विलास किया है। ( रसाल को देखकर सविनय) हाँ, तो श्रीमान् रसाल जी !
प्रेमलता : किन्तु बैठने का प्रबंध तो कर लिया जाय!
वनलता : आनन्दजी इस वेदी पर बैठ जायँ और हम लोग इन वक्षों का ठण्डी छाया में बड़ी प्रसन्नता से यह गोष्ठी कर लेंगे।
आनन्द : हाँ-हाँ, ठीक तो है।
[ सब लोग बैठ जाते हैं और वनलता एक वृक्ष से टिक कर खड़ी हो जाती है। रसाल आनन्द के पास खड़ा होकर, व्याख्यान देने की चेष्टा करता है। सब मुस्कराते हैं। फिर वह सम्हल कर कहने लगता है।].
रसाल | : व्यक्ति का परिचय तो उसकी वाणी, उसके व्यवहार से वस्तुतः स्वयं हो जाता है; किन्तु यह प्रथा-सी चल पड़ी है कि.....
वनलता  : (सस्मित, बीच में ही बात काटकर), कि जो उस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी कुछ नहीं जानते, उन्हीं के सिर पर परिचय देने का भार लाद दिया जाता है।
[ सब लोग वनलता से असन्तुष्ट होकर देखने लगते हैं और वह अपनी स्वभाविक हँसी से सबका उत्तर देती है और कहती है ]-
अस्तु, कविजी, आगे फिर.....( सब लोग हँस पड़ते हैं)।
रसाल। : अच्छा, मैं भी श्री आनन्द जी का परिचय न देकर आपके संदेश के सम्बन्ध में दो-एक बातें कहना चाहता हूँ, क्योंकि आपका संदेश हमारे आश्रम के लिए एक विशेष महत्त्व रखता है। आपका कहना है कि-( रुककर सोचने लगता है।)
मुकुल : कहिए-कहिए!
रसाल कि अरुणाल-आश्रम इस देश की एक बड़ी सुन्दर संस्था है, इसका उद्देश्य बड़ा ही स्फूर्तिदायक है। इसके आदर्श वाक्य, जिन्हें आप लोगों ने स्थान-स्थान पर लगा रखे हैं, बड़े ही उत्कृष्ट हैं; किन्तु उन तीनों में एक और जोड़ देने से आनन्द जी का संदेश पूर्ण हो जाता है-
। स्वास्थ्य, सरलता और सौन्दर्य में प्रेम को भी मिला देने से इन तीनों की प्राण-प्रतिष्ठा हो जायेगी। इन विभूतियों का एकत्र होना विश्व के लिए आनन्द का उत्स खुल जाना है।
। प्रेमलता : किन्तु महोदय ! मैं आपके विरुद्ध आप ही की एक कविता गाकर सुनाना चाहती हूँ।
मुकुल : ठहरो प्रेमलता!
वनलता : वाह ! गाने न दीजिए ! अब तो मैं समझती हूँ कि कविजी को जो कुछ कहना था, कह चुके।
[ सब लोग एक दूसरे का मुंह देखने लगते हैं, आनन्द, ' विचार-विमूढ़-सा देखकर हँसने लगता है।]
प्रेमलता : तो फिर क्या आज्ञा है ?
आनन्द : हाँ-हाँ, बड़ी प्रसन्नता से ? हम लोगों के तर्को, विचारों , विवादों से अधिक संगीत से आनन्द की उपलब्धि होती है।
प्रेमलता : किन्तु यह दु:ख का गान है। तब भी मैं गाती हूँ।
( गान )
जलधर की माला
घुमड़ रही जीवन-घाटी पर-जलधर की माला।
-आशा लतिका कॅपती थरथर-
गिरे कामना-कुंज हहरकर ।
-अंचल में है उपल रही भर--यह करुणा-बाला।
यौवन ले आलोक किरन की
डूब रही अभिलाषा मन की
क्रंदन चंबित निठुर निधन की-बनती वनमाला।
अंधकार गिरि-शिखर चूमती-
असफलता की लहर घूमती
क्षणिक सुखों पर सतत झूमती-शोकमयी ज्वाला।
[ संगीत समाप्त होने पर सब एक-दूसरे का मुंह बड़ी गंभीरता की मद्रा से देखने लगते हैं।
आनन्द : यह स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक है। ऐसी भावनाएँ हृदय को कायर बनाती हैं। रसालजी, यह आपकी ही कविता है। में
आपसे प्रार्थना करता हूँ कि.....।
रसाल : मैं स्वीकार करता हूँ कि यह मेरी कल्पना की दुर्बलता है। मैं इससे । बचने का प्रयत्न करूंगा। (सब लोगों की ओर देखकर ) और।
आप लोग भी अनिश्चित जीवन की निराशा के गान भूल जाइये। प्रेम का प्रचार करके, परस्पर प्यार करके, दु:खमय विचारों का दूर भगाइये।
मुकुल : किन्तु प्रेम में क्या दु:ख नहीं है ?
रसाल : होता है, किन्तु वह दुःख मोह का है, जिसे प्रायः लोग प्रेम के सिर मढ़ देते हैं। आपका प्रेम, आनन्दजी के सिद्धान्त पर सबसे सस ।
भाव का होना चाहिए। भाई, पिता, माता और स्त्री को भी इन विशेष उपाधियों से मुक्त होकर प्यार करना सीखिए। सीखिए कि हम मानवता के नाते स्त्री को प्यार करते हैं। मानवता के नाम.....( सब लोग वनलता की ओर देख व्यंग्य से हँसने लगते हैं। रसाल जैसे अपनी भूल समझता हुआ चुप हो जाता है ।
वनलता: (भंवें चढ़ाकर तीखेपन से ) हाँ, मानवता के नाम पर, बात तो बड़ी अच्छी है। किन्तु मानवता आदान-प्रदान चाहती है, विशेष स्वार्थों के साथ। फिर क्यों न झरनों, चाँदनी रातों, कुंज और वनलताओं को ही प्यार किया जाय–जिनकी किसी से कुछ माँग नहीं। ( ठहरकर) प्रेम की उपासना का एक केन्द्र होना चाहिए, एक अन्तरंग साम्य होना चाहिए।
 प्रेमलता: मानवता के नाम पर प्रेम की भीख देने में प्रत्येक व्यक्ति को बड़ा गर्व होगा। उसमें समर्पण का भाव कहाँ?
कुंज: सो तो ठीक है, किन्तु अन्तरंग साम्यवाली बात पर मैं भी एक बात कहना चा+हता हूँ। अभी कल ही मैंने 'मधुरा' में एक टिप्पणी देखी
थी और उसके साथ कुछ चित्र भी थे, जिनमें दो व्यक्तियों की आकृति का साम्य था। एक वैज्ञानिक कहता है कि प्रकृति जोड़े उत्पन्न करती है।
वनलता : (शीघ्रता से) और उसका उद्देश्य दो को परस्पर प्यार करने का संकेत करना है। क्यों, यही न? किन्तु प्यार करने के लिए हृदय
का साम्य चाहिए, अंतर की समता चाहिए। वह कहाँ मिलती है? दो समान अंत:करणों का चित्र भी तुमने देखा है? सो भी-
कुंज : एक स्त्री और एक पुरुष का, यही न! ( मुँह बनाकर) ऐसा न देखने का अपराध करने के लिए मैं क्षमा माँगता हूँ।
[ सब हँसने लगते हैं। ठीक उसी समय एक चंदुला, गले में विज्ञापन लटकाये आता है। उसकी चंचली खोपड़ी पर बड़े अक्षरों में लिखा है ‘एक बूंट-और विज्ञापन में लिखा है “पीते ही सौन्दर्य चमकने लगेगा।'' स्वास्थ्य के लिए सरलता से सुधारस मिला हुआ सुअवसर हाथ से न जाने दीजिए। पीजिए एक बँट')
कुंज : ( उसे देखकर आश्चर्य से ) हमारे आश्रम के आदर्श शब्द! सरलता, स्वास्थ्य, और सौन्दर्य । वाह!
रसाल : और मेरी कविता का शीर्षक 'एक चॅट'!
चंदुला : ( दाँत निकालकर) तब तो मैं भी आप ही लोगों की सेवा कर रहा हूँ। है न? आप लोग भी मेरी सहायता कीजिये। मैं यहाँ.....।।
रसाल : ( उसे रोककर ) किन्तु तुमने अपनी खोपड़ी पर यह क्या भद्दापन अंकित कर लिया है ?
चंदुला : (सिर झुकाकर दिखाते हुए ) महोदय ! प्रायः लोगों की खोपड़ी में ऐसा ही भद्दापन भरा रहता है। मैं तो उसे निकाल जाट का प्रयत्न कर रहा हूँ। आपको इससे सहमत होना चाहिए। यदि इस समय आप लोगों की कोई सभा, गोष्ठी या ऐसी ही कोई समिति इत्यादि हो रही हो तो गिन लीजिए, मेरे पक्ष में बहुमत होगा। होगा न?
रसाल : किन्तु यह अ-सुन्दर है।
चंदुला : किन्तु मैं ऐसा करने के लिए बाध्य था। महोदय, और करता ही क्या?
रसाल क्या?
चंदुला  : मैंने खिड़की से एक दिन झाँककर देखा, एक गोरा-गोरा प्रभावशाली मुख, उसके साथ दो-तीन मनुष्य सीढ़ी और बड़े-बड़े कागज लिये मेरे मकान पर चढ़ाई कर रहे हैं। मैंने चिल्लाकर कहा-हैं- हँ-हँ-हूँ, यह क्या?
रसाल : तब क्या हुआ?
चंदुला : उसने कहा, विज्ञापन चिपकेगा। मैंने बिगड़कर कहा-तुम उस पर लगा हुआ विज्ञापन स्वयं नहीं पढ़ रहे हो, तब तुम्हारा विज्ञापन दूसरा कौन पढ़ेगा। वह मेरी दीवार पर लिखा हुआ विज्ञापन पढ़ने लगा-'यहाँ विज्ञापन चिपकाना मना है।' मैं मुँह बिचकाकर उसकी मूर्खता पर हँसने लगा था कि उसने डाँटकर कहा-''तुम । नीचे आओ।''
रसाल : और तुम नीचे उतर आये, क्यों ?
चंदुला : उतरना ही पड़ा। मैं चंदुला जो था। वह मेरा सिर सहलाकर बोला-अरे तुम अपनी सब जगह बेकार रखते हो। इतनी बड़ी दीवार !उस पर विज्ञापन लगाना मना है! और इतना बढ़िया प्रमुख स्थान, जैसा किसी अच्छे पत्र में मिलना असंभव है। तुम्हारी खोपड़ी खाली ! आश्चर्य ! तुम अपनी मूर्खता से हानि उठा रहे हो तुमको नहीं मालूम कि नंगी खोपड़ी पर प्रेत लोग चपत लगाते हैं ।
वनलता : तो उसने भी चपत लगाया होगा ?
चंदुला : नहीं-नहीं, (मुँह बनाकर ) वह बड़ा भलामानुष था। उसने कहा-'तुम लोग उपयोगिता का कुछ अर्थ नहीं जानते । मैं तुम्हें प्रतिदिन एक सोने का सिक्का देंगा और तब मेरा विज्ञापन तुम्हारी चिकनी खोपड़ी पर खूब सजेगा।' सोच लो।
रसाल . : और तुम सोचने लगे ?
चंदुला : हाँ, किन्तु मैंने सोचने का अवसर कहाँ पाया? ऊपर से वह बोली।
रसाल : ऊपर से कौन?
चंदुला : वही-वही, ( दाँत से जीभ दबाकर ) जिनका नाम धर्मशास्त्र की आज्ञानुसार लिया ही नहीं जा सकता।
रसाल : कौन, तुम्हारी स्त्री ?
चंदुला : (हँसकर ) जी-ई-ई, उन्होंने तीखे स्वर में कहा-‘चुप क्यों हो, कह दो कि हाँ! अरे पन्द्रह दिनों में एक बढ़िया हार ! बड़े मूर्ख हो तुम!' मैंने देखा कि वह विज्ञापनवाला हँस रहा है। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं मूर्ख तो नहीं-ही बनूंगा, और चाहे कुछ भी बन जाऊँ। तुरन्त कह उठा-हाँ, ना नहीं निकला, क्योंकि जिसकी कृपा से खोपड़ी चंदुली हो गई थी उसी का डर गला दबाये था।
रसाल । : (निश्वास लेकर वनलता की ओर देखता हुआ ) तब तुमने स्वीकार कर लिया?
चंदुला : हाँ, और लोगों के आनन्द के लिए।
आनन्द : (आश्चर्य से ) आनन्द के लिए?
चंदुला : जी, मुझे देखकर सब लोग प्रसन्न होते हैं। सब तो होते हैं, एक आप ही का मुँह बिचका हुआ देख रहा हूँ। मुझे देखकर हँसिए तो ! और यह भी कह देना चाहता हूँ कि उसी विज्ञापनदाता ने यह गुरु-भार अपने ऊपर लिया है-बीमा कर लिया है कि कोई मुझे चपत नहीं लगा सकेगा। आप लोग समझ गये ? यही मेरी कथा है।
आनन्द । किन्तु आनन्द के लिए तुमने यह सब किया! कैसे आश्चर्य की बात है ? (वनलता को देखकर ) यह सब स्वच्छंद प्रेम को सीमित करने का कुफल है, देखा न?
चंदुला  : आश्चर्य क्यों होता है महोदय !'मान लिया कि आपको मेरा विज्ञापन देखकर आनन्द नहीं मिला, न मिले; किन्तु इन्हीं पन्द्रह दिनों में जब मेरी श्रीमती हार पहनकर अपने मोटे-मोटे अधरों की पगडण्डी पर हँसी को धीरे-धीरे दौड़ावेंगी और मेरी चंदुली खोपड़ी पर हल्की-सी चपत लगावेंगी तब क्या मैं आँख मूंदकर आनन्द न लूँगा-आप ही कहिये? आपने ब्याह किया है तो!
आनन्द : (डाँटते हुए ) मैंने ब्याह नहीं किया है; किन्तु इतना मैं कर सकता हूँ कि आनन्द को इस गड़बड़-झाला में घोटना ठीक नहीं। अन्तरात्मा के उस प्रसन्न-गंभीर उल्लास को इस तरह कदर्थित करना अपराध है।
चन्दुला : कदापि नहीं, एक पँट सुधारस पान करके देखिए तो, वही भीतर की सुन्दर प्रेरणा आपकी आँखों में, कपोलों पर, सब जगह, चाँदनी-सी खिल जायगी। और सम्भवतः आप ब्याह करने के लिए..... .
रसाल  : (डॉटकर ) अच्छा बस, अब जाइए।
चंदुला: ( झुककर) जाता हूँ। किन्तु इस सेवक को न भूलियेगा। सुधारस भेजने के लिए शीघ्र ही पत्र लिखियेगा। मैं प्रतीक्षा करूंगा ( जाता
है)।
 [ कुछ लोग गम्भीर होकर निश्वास लेते हैं जैसे प्राण बचा हो, और कुछ हँसने लगते हैं।
रसाल: (निश्वास लेकर ) ओह ! कितना पतन है? कितना बीभत्स! कितना निर्दय। मानवता ! तू कहाँ है?
: आनन्द में, मेरे कवि-मित्र! यह जो दुःखवाद का पचड़ा सब धर्मों ने, दार्शनिकों ने गाया है उसका रहस्य क्या है ? डर उत्पन्न करना विभीषिका फैलाना ! जिससे स्निग्ध गम्भीर जल में, अबोधगति से तैरनेवाली मछली-सी विश्वसागर की मानवता चारों ओर जाल-ही-जाल देखें, उसे जल न दिखाई पड़े; वह डरी हुई संकुचित-सी अपने लिए सदैव कोई रक्षा की जगह खोजती रहे।सब से भयभीत, सब से सशंक!
रसाल  : यही कि हम लोगों को शोक-संगीतों से अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिए। आनंदातिरेक से आत्मा की साकारता ग्रहण
करना ही जीवन है। उसे सफल बनाने के लिए स्वच्छंद प्रेम करना सीखना-सिखाना होगा।
वनलता : ( आश्चर्य से ) सीखना होगा और सिखाना होगा? क्या उसके लिए कोई पाठशाला खुलनी चाहिए?
आनन्द : नहीं; पाठशाला की कोई आवश्यकता इस शिक्षा के लिए नहीं है।
हम लोग वस्तु या व्यक्ति से मोह करके और लोगों से द्वेष करना सीखते हैं न! उसे छोड़ देने ही से सब काम चल जायगा।
प्रेमलता  :  तो फिर हम लोग किसी प्रिय वस्तु पर अधिक आकर्षित न हों- आपका यही तात्पर्य है क्या?
[ आनन्द कुछ बोलने की चेष्टा करता है कि आश्रम का झाडूवाला और उसकी स्त्री कलह करती हुई आ जाती है। सब लोग उसकी बातें सुनने लगते हैं।]
झाडूवाला : (हात से झाड़ को हिलाकर) तो तेरे लिए मैं दूसरे दिन उजली साड़ी कहाँ से लाऊँ? और कहाँ से उठा लाऊँ सत्ताईस रुपये का सितार (सब लोगों की ओर देखकर) आप लोगों ने यह अच्छा रोग फैलाया।
मंत्री- क्या है जी
झाड़वाला : (सिसकती हुई अपनी स्त्री को कुछ कहने से रोककर) आप लोगों ने स्वास्थ्य, सरलता और सौन्दर्य का ठेका ले लिया है; परन्तु मैं कहूँगा कि इन तीनों का गला घोंटकर आप लोगों ने इन्हें बंदी बनाकर सड़ा डाला है, सड़ा; इन्हीं आश्रम की दीवारों के भीतर ! उनकी अन्त्येष्टि कब होगी ?
रसाल- तुम क्या बक रहे हो ?
झाड़ूवाला : हाँ बक रहा हूँ! यह बकने का रोग उसी दिन से लगा जिस दिन मैंने अपनी स्त्री से इस विष-भरी बातों को सुना! और सुना अरुणाचल-आश्रम नाम के स्वास्थ्य-निवास का यश। स्वास्थ्य, सरलता और सौन्दर्य के त्रिदोष ने मुझे भी पागल बना दिया।विधाता ने मेरे जीवन को नये चक्कर में जुतने का संकेत किया।मैंने सोचा कि चलो इसी आश्रम में मैं झाड़ लगाकर महीने में पन्द्रह रुपये ले लूंगा और श्रीमतीजी सरलता का पाठ पढ़ेगी।
किन्तु यहाँ तो....
झाड़ूवाले : अत्यन्त कठोर अपमान ! भयंकर आक्रमण ! स्त्री होने के कारण में की स्त्री. कितना सहती रहूँ। सत्ताईस रुपये के सितार के लिए कहना विष हो गया विष ! (कान छूती है ) कानों के लिए फूल नहीं ( हाथों को दिखाकर) इनके लिए सोने की चूड़ियाँ नहीं माँगती.
केवल संगीत सीखने के लिए एक सितार माँगने पर इतनी विडंबना--( रोने लगती है।)
सब लोग : (झाड़ वाले से सक्रोध) यह तुम्हारा घोर अत्याचार है। तुम श्रीमती से क्षमा माँगो। समझे ?
झाड़वाला : (जैसे डरा हुआ ) समझ गया।( अपनी स्त्री से ) श्रीमती जी, मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ। और, कृपाकर अपने लिए, तुम इन लोगों
से सितार के मूल्य की भीख माँगो। देखें तो ये लोग भी कुछ.....
रसाल : (डाँटकर) तुम अपना कर्त्तव्य नहीं समझते और इतना उत्पात मचा रहे हो !
झाड़वाला : जी, मेरा कर्त्तव्य तो इस समय यहाँ झाड़ लगाने का है। किन्तु आप लोग यहाँ व्याख्यान झाड़ रहे हैं। फिर भला मैं क्या करूँ।।
अच्छा तो आप लोग यहाँ से पधारिये, मैं.....(झाड़ देने लगता है। सब रूमाल नाक से लगाते हुए एक स्वर से ‘हैं-हैं-हैं करने लगते हैं।)
आनन्द चलिये यहाँ से!
झाड़वाला : वायुसेवन का समय है। खुली सड़क पर, नदी के तट, पहाड़ी के नीचे या मैदानों में निकल जाइये। किन्तु-नहीं-नहीं, मैं सदा भूल करता आया हूँ। मुझे तो ऐसी जगहों में रोगी ही मिले हैं। जिन्हें वैद्य ने बता दिया हो-मकरध्वज के साथ एक घण्टा वायुसेवन। अच्छा, आप लोग व्याख्यान दीजिये। मैं चलता हूँ। चलिये श्रीमतीजी ! उँहूँ आप तो सुनेंगी न! आप ठहरिये। (झाडू के देना बंद कर देता है।)
आनन्द : मुझे भी आज आश्रम से बिदा होना है। आप लोग आज्ञा दीजिए। किन्तु.....नहीं, अब मैं उस विषय पर अधिक कुछ न कहकर केवल इतना ही कह देना चाहता हूँ कि इस परिणाम से स्वच्छंद। प्रेम को बंधन में डालने से कुफल-आप लोग परिचित तो हैं; पर उसे टालते रहने का अब समय नहीं है।
[ वनलता, झाड़वाला और उसकी स्त्री को छोड़कर सबका प्रस्थान ]
वनलता : ( झाड़वाले से ) क्यों जी, तुम तो पढ़े-लिखे मनुष्य हो, समझदार हो ?
झाड़वाला : हाँ, देवि, किन्तु समझदारी में एक दुर्गुण है। उस पर चाहे अन्य लोग कितने ही अत्याचार कर लें; परन्तु वह नहीं कर सकता-ठीक-ठीक उत्तर भी नहीं देने पाता! ( झाड़ फटकार कर एक वृक्ष से टिका देता है)।
वनलता : प्लेटो-अफलातून ने कहा है कि मनुष्य-जीवन के लिए संगीत और व्यायाम दोनों ही आवश्यक हैं। हृदय में संगीत और शरीर में
व्यायाम नवजीवन की धारा बहाता रहता है। मनुष्य.....
झाड़वाला : और पतंजलि ने कहा है कि जो मनुष्य क्लेश, कर्म और विपाक इत्यादि से अर्थात् रहित तात्पर्य, वही-वही कुछ-कुछ सूना-सूना जो पुरुष मनुष्य हो, वही ईश्वर है।
वनलता : इससे क्या?
झाड़वाला : आपने प्लेटो को पुकारा, मैंने पतंजलि को बुलाया। आपने एक प्रमाण कहकर अपनी बातों का समर्थन किया और मैंने भी एक बड़े आदमी का नाम ले लिया। उन्होंने इन बातों को जिंस रूप में समझा था वैसी मेरी और आपकी परिस्थिति नहीं-समय नहीं, हृदय नहीं। फिर मुझे तो अपनी स्त्री को समझाना है, और आपको अपने पति को हृदय समझना है।
वनलता : (चौंककर) मुझे समझना है और तुमको समझाना है! कहते क्या हो?
| झाडवाला : (अपनी स्त्री से ) कहो, अब भी तुम समझ सकी हो या नहीं।
झाडूवाले : मैंने समझ लिया है कि मुझे सितार की आवश्यकता नहीं,
की स्त्री' क्योंकि-
झाड़वाला : क्योंकि हम लोग दीवार से घिरे हुए एक बड़े भारी कुंजवन में सुखी और सन्तुष्ट रहना सीखने के लिए बंदी बने हैं। जब जगत से, आकांक्षा और अभाव के संसार से, कामना और प्राप्ति के उपायों की क्रीड़ा से विरत होकर एक सुन्दर जीवन, बिता देने के लोभ से मैंने झाड़ लगाना स्वीकार किया है; विद्यालय की परीक्षा और उपाधि को भुला दिया है तब तुम मेरी स्त्री होकर.....
झाड़वाले : बस-बस, में अब तुमसे कुछ न कहूँगी; मेरी भूल थी। अच्छा है।
की स्त्री मैं जाती हूँ।
झाडूवाला : में भी चलता हूँ-( दोनों का प्रस्थान)
वनलता : यंही तो, इसे कहते हैं झगड़ा, और यह कितना सुखद है, एक-दूसरे को समझाकर जब समझौता करने के लिए, मनाने के लिए,उत्सुक होते हैं तब स्वर्ग हँसने लगता है-हा, इस भीषण संसारमें। मैं पागल हूँ। ( सोचती हुई करुण मुखमुद्रा बनाती है, फिर धीरे-धीरे सिसकने लगती है ) वेदना होती है। व्यथा कसकती है। प्यार के लिए प्यार करने के लिए। प्यार करने के लिए नहीं, प्रेम पाने के लिए। विश्व की इस अमूल्य सम्पत्ति में क्या मेरा अंश नहीं। इन असफलताओं के संकलन में मन को बहलाने के लिए, जीवन-यात्रा में थके हृदय के संतोष के लिए कोई अवलंबन नहीं। मैं प्यार करती हैं और प्यार करती रहूँ: किन्तु मुझे मानवता के लिए.....इसे सहने के लिए मैं कदापि प्रस्तुत नहीं। आह!
कितना तिरस्कार है (वनलता सिर झुकाकर सिसकने लगती है। आनन्द का प्रवेश )।
आनन्द : "आप कुछ दु:खी हो रही हैं क्यों ?
: मान लिजिये कि हाँ मैं दु:खी हूँ।
आनन्द : और वह दु:ख ऐसा है कि आप रो रही हैं।
वनलता : ( तीखेपन से ) मुझे यह नहीं मालूम कि कितना दु:ख हो तब रोना चाहिए और कैसे दु:ख में न रोना चाहिए। आपने इसका
श्रेणी-विभाग किया होगा। मुझे तो यही दिखलाई देता है कि सब द:खी हैं, सब विकल हैं, सबको एक-एक बूंट की प्यास बनी।
वनलता.
आनन्द ।
वनलता
आनन्द  किन्तु मैं दु:ख का अस्तित्व ही नहीं मानता। मेरे पास तो प्रेम रूपी अमूल्य चिंतामणि हैऔर मैं उसी के अभाव से दु:खी हूँ।
आश्चर्य। आपको प्रेम नहीं मिला। कल्याणी! प्रेम तो.....
हाँ, आश्चर्य क्यों होता है आपको! संसार में लेना तो सब चाहते हैं. कुछ देना ही तो कठिन काम है। गाली, देने की वस्तुओं में सुलभ है; किन्तु सबको वह भी देना नहीं आता। मैं स्वीकार करती हूँ कि, मुझे किसी ने अपना निश्छल प्रेम नहीं दिया; और बड़े दु:ख के साथ इसे न देने का, संसार का, उपकार मानती हूँ।
( आँखों में जल भर लेती है, फिर जैसे अपने को सम्हालती हुई ) क्षमा कीजिए, मेरी यह दुर्बलता थी।
: नहीं श्रीमती ! यही तो जीवन की परम आवश्यकता है। आह! कितने दु:ख की बात है कि आपको....."
: तो आप दु:ख का अस्तित्व मानने लगे!
: ( विनम्रता से ) अब मैं इस विवाद को न बढ़ाकर इतना मान लेता हूँ कि आपको प्रेम की आवश्यकता है। और दु:खी हैं। क्या आप
मुझे प्यार करने की आज्ञा देंगी? क्योंकि.....
‘क्योंकि' न लगाइये; फिर प्यार करने में असुविधा होगी। क्योंकि में एक कड़वी दुर्गन्ध है।
[ रसाल चुपचाप आकर दोनों की बातें सुनता है और समय- समय पर उसकी मुख-मुद्रा में आश्चर्य, क्रोध और विरक्ति के चिह्न झलकने लगते हैं।)
: क्योंकि मैं किसी को प्यार नहीं करता, इसलिए आपसे प्रेम करता वनलता
वनलता : (सक्रोध) वाग्जालसे क्या तात्पर्य ?
आनन्द : मैं-मैं।
वनलता : हाँ, आप ही का, क्या तात्पर्य है ?
आनन्द : मेरा किसी से द्वेष नहीं, इसलिए मैं सबको प्यार कर सकता हूँ। प्रेम करने का अधिकारी हूँ।
वनलता : कदापि नहीं, इसलिए कि मैं आपको प्यार नहीं करती। फिर आपके प्रेम का मेरे लिए क्या मूल्य है ?
आनन्द : तब ! ( ओठ चाटने लगता है )
वनलता : तब यही कि ( कुछ सोचती हुई ) मैं जिसे प्यार करती हूँ वही-केवल वही व्यक्ति-मुझे प्यार करे, मेरे हृदय को प्यार करे, मेरे शरीर को-जो मेरे सुन्दर हृदय का आवरण है:--संतृष्ण देखे। उस प्यास में तृप्ति न हो, एक-एक बूंट वह पीता चले, मैं भी पिया करूं। समझे ? इसमें  आपकी पोली दार्शनिकता या व्यर्थ के वाक्यों को स्थान नहीं।
: (जैसे झेंप मिटाता हुआ ) मैं तो पथिक हूँ और संसार ही पथ  है। सब अपने-अपने पथ पर घसीटे जा रहे हैं, मैं अपने को ही क्यों कहूँ। एक क्षण, एक युग कहिए या एक जीवन कहिए. वह एक ही क्षण, कहीं विश्राम किया और फिर चले। वैसा ही निर्मोह प्रेम सम्भव है। सबसे एक-एक बूंट पीते-पिलाते नूतन जीवन का संचार करते चल देना। यही तो मेरा संदेश है।
वनलता , शब्दावली की मधुर प्रवंचना से आप छले जा रहे हैं।
आनन्द : क्या मैं भ्रांत हूँ।
वनलता अवश्य ! असंख्य जीवनों की भूल-भूलैया में अपने चिरपरिचित को खोज निकालना और किसी शीतल छाया में बैठाकर एक पैंट
पीना और पिलाना-क्या समझे ? प्रेम का एक बूंट ! बस इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।
आनन्द : (हताश होकर अन्तिम आक्रमण करता हुआ) तो क्या आपने खोज लिया है-पहचान लिया है?
वनलता : मैंने तो पहचान लिया है। किन्तु वही, मेरे जीवन-धन अभी नहीं पहचान सके। इसी का मुझे.....
[ रसाल आकर प्यार से वनलता का हाथ पकड़ता है और आनन्द को गूढ दृष्टि से देखता है : ]
आनन्द : अरे आप यहीं-
रसाल : जी.....(वनलता से ) प्रिये ! आज तक मैं भ्रांत था। मैंने आज पहचान लिया। यह कैसी भूल-भुलैया थी।
आनन्द : तो मैं चलू.....( सिर खुजलाने लगता है )
वनलता : यही तो मेरे प्रियतम!
आनन्द : ( अलग खड़ा होकर ) यह क्या ! यही क्या मेरे संदेश का मेरी आकांक्षा का, व्यक्ति रूप है! (वनलता और रसाल परस्पर
स्निग्ध दृष्टि से देख रहे हैं आनन्द उस सुन्दरता को देखकर धीरे-धीरे मन में सोचता-सा ) असंख्य जीवनों की भूल-भुलैया
में अपने चि...............रि.....चि.....त
[ रसाल और वनलता दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े आनन्द की ओर देखकर हँसते हुए, चले जाते हैं; आनन्द उसी तरह चिन्ता में निमग्न अपने आप कहने लगता है :-.] ।
चिरपरिचित को खोज निकालना ! कितनी असंभव बात ! किन्तु.....परन्तु.....बिल्कुल ठीक.....मिलते हैं---हाँ मिल ही जाते हैं, खोजने वाला चाहिए।
प्रेमलता : ( सहसा हाथ में शर्बत लिए प्रवेश करके ) खोजते-खोजते में थक गयी। और शर्बत छलकते-छलकते कितना बचा, इसे आप ही देखिए। आप यहीं बैठे हैं और मैं कहाँ-कहाँ खोज आई।
आनन्द : मुझे आप खोज रही थीं ?
प्रेमलता हाँ-हाँ, आप ही को (हँसती है )
आनन्द : ( रसाल और वनलता की बात मन-ही-मन स्मरण करता हुआ ) सचमुच! बड़ा आश्चर्य है ! ( फिर भी कुछ सोचकर ) अच्छा क्यो ? ( प्रेमलता को गहरी दृष्टि से देखने लगता है।)
प्रेमलता : ( जैसे खीझकर ) आप ही ने कहा था न ! कि मैं जा रहा हूँ। भोजन तो न करूंगा। हाँ, शर्बत या ठंडाई एक बूंट पी लूंगा। कहा था न? मीठी नारंगी का शर्बत ले आयी हूँ। पी लीजिए एक पूँट !
आनन्द : एक पूँट ! मुझे पिलाने के लिए खोजने का अपने कष्ट उठाया है ! (विमूढ़-सा सोचने लगता है और शर्बत लिये प्रेमलता जैसे कुछ लज्जा का अनुभव करती है।)
प्रेमलता : आप मुझे लज्जित क्यों करते हैं?
आनन्द : (चौंककर ) ऐं! आपको मैं लज्जित कर रहा हूँ ! क्षमा कीजिये। मैं कुछ सोच रहा था।
प्रेमलता: यही आज न जाने की बात ! वाह, तब तो अच्छा होगा। ठहरिये- दो-एक दिन !
आनन्द : नहीं प्रेमलता। आह! क्षमा कीजिये। मुझसे भूल हुई। मुझे इस तरह आपका नाम.....
| [ हँसती हुई वनलता का प्रवेश ।।
वनलता : कान पकड़िये, बड़ी भूल हुई। क्यों आनन्दजी, यह कौन हैं आप? बिना समझे-बूझे नाम जपने लगे।
[ प्रेमलता लज्जित-सी सिर झुका लेती है। वनलता फिर अदृश्य हो जाती है। आनन्द प्रेमलता के मधुर मुख पर अनुराग की लाली को सतृष्ण देखने लगता है। और प्रेमलता कभी आनन्द को देखती है, कभी आँखें नीची कर लेती है।]
आनन्द : प्रेमलता ! प्रेमलता। तुम्हारी स्वच्छ आँखों में तो पहले इसका संकेत भी न था। यह कितना मादक है।
प्रेमलता: क्या, मैंने किया क्या?
आनन्द : मेरा भ्रम मुझे दिखला दिया। मेरे कल्पित संदेश में सत्य का कितना अंश था, उसे अलग झलका दिया। मैं प्रेम का अर्थ समझ चुका हूँ। आज मेरे मस्तिष्क के साथ हृदय का जैसे मेल हो गया
वनलता। : (फिर हँसती हुई प्रवेश करके ) मैं कहती थी न ! खोजते-खोजते चिरपरिचित को पाकर एक पूँट पीना और पिलाना। कैसे पते की कही थी ? हमारे आश्रम की एकमात्र सरला कुमारी प्रेमलता आपसे एक पूँट पीने का अनुरोध कर रही है तब भी....
आनन्द : क्षमा कीजिए श्रीमती ! मैं अपनी मूर्खता पर विचार कर रहा हूँ। इतनी ममता कहाँ छिपी थी प्रेमलता? लाओ एक घूँट पी लें।
वनलता : ( प्रेमलता के साथ ) महाशय! आज से यही इस अरुणाचल-आश्रम का नियम होगा उच्छृङ्खल प्रेम को बाँधने का। चलो।
प्रेमलता।
[ वनलता के संकेत करने पर प्रेमलता सलज्ज अपने हाथों से आनन्द को पिलाती है-आश्रम की अन्य स्त्रियाँ पहुँचकर गाने लगती हैं, रसाल, मुकुल और कुंज भी आकर फूल बरसाते हैं।
मधुर मिलन कुंज में-
जहाँ खो गया जगत का, सारा श्रम-संताप।
सुमन खिल रहे हों जहाँ, सुखद सरल निष्पाप।
उसी मिलन कुंज में-
तरु लतिका मिलते गले, सकते कभी न छूट।
उसी स्निग्ध छाया तले....पी....लो..........एक घूट॥

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हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
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