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प्रधान सेनापति-आचार्य द्रोण
गंगा पुत्र भीष्म के वाण-सैय्या पर लेट जाने के पश्चात् कौरवों में सेनापति चयन की समस्या उठ खड़ी हुई। सर्वसम्मति से द्रोणाचार्य को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया। द्रोण ने भीष्म पितामह से जाकर कहा कि- सम्भवतः मुझे आपसे पहले परम धाम जाना पड़े। अतः मैं अन्तिम प्रणाम करने आया हूँ। प्रत्युत्तर में गंगा पुत्र ने अपना युगल हाथ जोड़ लिया। दोनों ही अद्वितीय योद्धाओं ने मौन होकर ही अपनी वेदना को सम्प्रेषित किया। महाबली कर्ण ने भी महात्मा भीष्म से अमर्षपूर्वक प्रणाम करके अपने कर्तव्य- पथ पर चलने की अनुमति माँगी।
          दूसरे दिन आचार्य द्रोण ने गरुण-व्यूह की रचना की। कर्ण आज सबसे अधिक उत्साहित थे। उनकी चिर अभिलाषा आज पूर्ण होने वाली थी। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन से उन्हें दो हाथ करने का दुर्लभ अवसर मिलने वाला था। उनका आज प्रथम युद्ध-दिन था। दुर्योधन भी परम प्रसन्न था। आचार्य द्रोण ने व्यूह के उत्तर द्वार की जिम्मेदारी कृपाचार्य एवं अश्वत्थामा को दी और स्वयं पूर्व द्वार पर अडिग चट्टान की तरह, जम गये । महाबली कर्ण को पश्चिम द्वार पर रक्षा का दायित्व प्रदान किया। दक्षिण द्वार जयद्रथ-शकुनि
एवं मद्राधिप शल्य को नियुक्त करके स्वयं दुर्योधन को तेज कुमुक के साथ आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त सेना को तैयार रखने का आदेश दिया। जिस मोर्चे पर अपनी सेना कमजोर पड़ती, उसकी सहायता हेतु स्वयं दुर्योधन को सतर्क किया।
           युद्ध प्रारम्भ हुआ। दोनों प्रधान सेनापति आपस में द्वन्द्व युद्ध करने लगे। प्रलयंकर दृश्य उपस्थित हो गया। धृष्टद्युम्न ने आज अद्भुत रणकौशल का परिचय देते हुए आचार्य का दृढ़ता के साथ सामना किया। अजेय द्रोण के पराक्रम के आगे उसका बहुत देर तक टिकना सम्भव न देखकर महाराज युधिष्ठिर ने सात्यकि को उसकी सहायतार्थ भेजा। अवसर देखकर पाण्डव सेनापति ने वहाँ से हट जाना ही श्रेयष्कर समझा। उधर महाबली कर्ण अर्जुन से युद्ध में रत हो गया। दोनों ही समान रण-कौशल का प्रदर्शन करते हुए
अन्यान्य योद्धाओं को क्षण भर के लिए युद्ध विराम करने पर विवश कर दिया। श्री कृष्ण ने दोनों के हस्त-लाघव की सराहना की। लोग आश्चर्यपूर्वक दोनों का रण-कौशल निहार रहे थे। आज कर्ण ने अर्जुन को बहुत सताया, किन्तु अर्जुन ने भी सँभलकर कर्ण पर जोरदार हमला किया। उसके गाण्डीव की प्रत्यञ्चा से विषाक्त वाणों ने कर्ण का शरीर लाल टेशू की तरह रञ्जित कर दिया। उसे थका जानकर दुर्योधन की भारी कुमुक ने अर्जुन पर धावा बोल दिया, तब जाकर कर्ण ने राहत की साँस ली। अर्जुन ने भी थोड़े समय में ही
दुर्योधन की अच्छी खबर लेकर भागने पर विवश कर दिया।
.         आज कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने पाण्डवी सेना का खूब संहार किया। महाबली भीम ने आकर मोर्चा सँभाला। कृपाचार्य का अनेक रथ नष्ट करके भीम ने उन्हें हताश कर दिया। अश्वत्थामा ने अपने मामा की दुर्गति देखकर भीम को द्वन्द्व युद्ध के लिए ललकारा। भीम ने भी पहले वाणों द्वारा प्रत्युत्तर दिया किन्तु द्रोणी के सामने वृकोदर बहुत देर तक टिक न सके। तब भीम ने अपनी भारी गदा लेकर पैदल ही आचार्य-पुत्र पर जोरदार हमला किया। द्रोणी ने भी गदा लेकर भीम पर प्रहार करना शुरू कर दिया। दोनों ने ही विकराल युद्ध करके एक-दूसरे को परास्त कर दिया। दोनों थक चुके थे। समय पर दुःशासन ने आकर द्रोणी का स्थान ले लिया और वीर घटोत्कच ने अपने पिता को आराम देकर युद्ध की कमान अपने हाथ में ले ली । जयद्रथ और शकुनि के सामने सहदेव-नकुल ने भयानक युद्ध किया । जयद्रथ ने आज बडा ही अद्भुत रण करके पाण्डवों की सेना को तहस-नहस कर कर दिया। यह देखकर पाञ्चाल नरेश ने अपने वीर पुत्र शिखण्डी सहित आकर मोर्चा लिया। भयंकर युद्ध करके अपनी सेना का मनोबल लौटाया। आज किसी को
समय का भान हो न सका कि सूर्यदेव कब अस्ताचल पहँच गये। हठात् आचार्य द्रोण की शंख ध्वनि सुनकर लोगों ने देखा कि अँधेरा होने को आ गया। युद्ध बन्द हो गया। दोनों ही सेनाएँ अपने-अपने शिविर में लौटकर आवश्यक क्रिया सम्पन्न करने में लग गयी। आज कोई भी विशिष्ट वीर नहीं मारा गया। दुर्योधन ने कर्ण के कक्ष में पहुँचकर उसे साधुवाद दिया और कहने लगा कि आज अर्जुन को समझ में आया कि किसी अप्रतिम धनुर्धर से पाला पड़ा है। इसके पश्चात् दोनों ही द्रोण के कक्ष में पहुँचे।
           आज युद्ध का बारहवाँ दिन है। कर्ण के साथ दुर्योधन सेनापति द्रोण के शिविर कक्ष में मंत्रणा के लिए उपस्थित हुआ। दुर्योधन ने कहा कि हे गुरुश्रेष्ठ! आप प्रधान सेनापति हैं। इस समय भगवान परशुराम को छोड़कर आपके समान सम्पूर्ण भू-मण्डल पर कौन योद्धा है? यदि आप चाह लें तो  युद्ध एक दिन में समाप्त हो जाय। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आप भी । पितामह की भाँति लड़ते तो मेरे पक्ष में हैं, किन्तु पाण्डवों के प्रति आपके मन में स्नेहाधिक्य है। इसीलिए आजका युद्ध निर्णायक भूमिका के बिना ही समाप्त हो गया। हे आचार्य ! यदि ऐसा ही रहा तो हम एक दिन युद्ध अवश्य ही हार जायेंगे। खिन्न मन से आचार्य ने कहा- हे वत्स! विधाता की संरचना कौन जानता है? हम सभी नियति के हाथ खेल रहे हैं। महात्मा भीष्म को कौन हरा सकता था, किन्तु वे सहज ही धराशायी हो गये। हम जी-जान से तुम्हारे पक्ष में युद्ध कर रहे हैं, किन्तु तुम्हें मुझ पर अविश्वास है। यदि तुम चाहो तो अपने मन की सेनापति चुन लो। इस पर धृतराष्ट्र-पुत्र ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा-और इस प्रकार आप जाकर अपने प्रिय शिष्य के पक्ष में युद्ध कर सकें। मैं आपको सहज छोड़ने वाला नहीं। मेरा मन्तव्य है कि आप ऐसा कुछ करें कि पाण्डवों के वध से भी मुक्ति मिल जाय और मेरी जीत भी हो जाय। द्रोण ने सहर्ष कहा कि हे पुत्र! क्या ऐसी कुछ योजना लेकर तुम आये हो ? मुझे बताओ कि मैं कौन सा प्रिय कार्य कर सकता हूँ? दुर्योधन ने कहा-'हे गुरुवर! यदि आप युधिष्ठिर को बन्दी बनाकर मुझे सौंप दें तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि युद्ध बन्दी को मैं घोषणा कर दूँगा।
          सहज दयालु गुरु ने कहा- मैं समझ गया कि तुम्हारे मन में पाण्डवों के प्रति कोई मालिन्य नहीं है। बस, युधिष्ठिर को बन्दी बनाकर उन्हें उनका राज्य वापस करके यह सन्देश देना चाहते हो कि हम जीत कर भी तुम्हारा राज्य वापस कर सकते हैं। हे गान्धारीनन्दन, मैं तुम्हें अवश्य ही युधिष्ठिर को सौंप दूंगा, किन्तु तुम्हें. इसके लिए मुझे दो बात का प्रत्यय देना होगा। एक तो तुम युधिष्ठिर का वध नहीं करोगे और दूसरे अर्जुन को मेरे सामने नहीं आने दोगे। कर्ण ने कहा कि अर्जुन को दूर ले जाने का कार्य कौन करेगा? इसके लिए युद्ध - भूमि में उससे हारने का अभिनय करना होगा और मैं ऐसा कदापि नहीं कर सकता। दुर्योधन ने कहा-नहीं मित्र! मैं तुमसे ऐसा दुष्कर्म नहीं करा सकता। मेरे पास इसके लिए अन्यान्य उपाय है। मैं अपने प्रमुख वीरों को लगाकर अर्जुन को दूर ले जाकर उलझाये रखूगा, तब तक गुरुदेव हमारा कार्य सम्पन्न कर देंगे और युद्ध बन्द हो जायेगा। द्रोण का अभिवादन करके कर्ण सहित दुर्योधन अपने-अपने शिविर में चले गये। रात में ही दुर्योधन ने अपने अनुज दु:शासन को बुलवाया और घोड़े पर सवार होकर दोनों ही महावीर शर्म और शुशर्म के शिविर में चले गये। उन्हें सारी योजना बताकर इस पर राजी कर लिया कि वे युद्ध में अर्जुन से युद्ध करते हुए पीछे हुटकर दूर तक ले जायेंगे। पाण्डवों के दूतों से यह समाचार युधिष्ठिर ने सुना।
          प्रातः दोनों ही सेनाएँ कुरुक्षेत्र में आ डटीं । उभयत: वाणों से प्रत्युत्तर होने लगा। आज द्वन्द युद्ध का प्राविधान किया। अपने मन पसन्द वीरों से लोग जूझने लगे। भीम ने गांधारी पुत्रों को अपना निशाना बनाया। गुरु द्रोण से सेनापति धृष्टद्युम्न ने घनघोर युद्ध प्रारम्भ कर दिया। कर्ण ने सात्यकि से लड़ना प्रारम्भ किया। युधिष्ठिर ने अपने मामा शल्य पर आक्रमण कर दिया। जयद्रथ से अभिमन्यु लड़ रहा था। विराट ने शकुनि पर धावा बोल दिया। शिखण्डी ने कृपाचार्य से और पाञ्चाल नरेश द्रुपद ने अश्वत्थामा पर धावा बोल दिया। कपिध्वज श्रीकृष्णार्जुन को दूर से ही देख शर्म और शुशर्म ने ललकारा- हे अर्जुन ! तुम बिना किसी से लड़े ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की उपाधि लेकर घूम रहे हो। हमने निश्चय किया है कि या तो हम तुम्हें रणभूमि में मौत की नींद सुला देंगे अथवा स्वयं ही वीर गति को प्राप्त कर लेंगे। यह कहकर भीषण युद्ध प्रारम्भ कर देता है। सभी अपने-अपने मोर्चे पर युद्ध में संलिप्त हैं। थोड़े ही समय में  द्रोण से पराजित होकर धृष्टद्युम्न ने अपना पीछा छुड़ाया। इतने में जयद्रथ को हराकर वीर अभिमन्यु ने आचार्य द्रोण पर तीखा हमला कर आश्चर्यचकित कर दिया । द्रोण ने अपना बचाव करते हुए मन ही मन अभिमन्यु की प्रशंसा की। हे अभिमन्यु ! तुम तो अपने पिता से भी बढ़कर धनुर्धर हो। जज द्रोण को दिन भर किसी न किसी महावीर ने अपने युद्धकौशल से उलझाये रखा। दुर्योधन ने आकर गुरुदेव को पुन: चैतन्य किया-आचार्य अब क्या देर है? अर्जुन तो बहुत दूर चला गया है। आप युधिष्ठिर को पकड़कर अपना वचन पूरा कीजिये। इसके बाद भरद्वाज पुत्र ने प्रलयंकर युद्ध प्रारम्भ करके सभी को पीछे हटने पर विवश कर दिया। राजा विराट की सेना के संरक्षण में महाराज युधिष्ठिर लड़ रहे थे। कर्ण ने भी आज सभी पाण्डवों को बहुत सताया और जीवनदान दिया।
          सबको हटाते हुए आचार्य द्रोण महाराज युधिष्ठिर के समक्ष आ गये। इतने में भीमसेन ने आचार्य पर हमला बोलकर उनके रथ को ध्वस्त कर दिया। भीम ने आज आचार्य के कई रथ तोड़ डाले। भीम पर अंकुश लगाने के लिए आचार्य ने जमकर वाण बरसाना प्रारम्भ कर दिया। भीम लहूलुहान होकर रथ पर बैठ गये। सारथी ने अन्यत्र ले जाकर उनके प्राणों की रक्षा की। युधिष्ठिर को अकेला पाकर द्रोण ने झटपट उनके रथ को ध्वस्त कर दिया और उन्हें बन्दी बनाना ही चाहते थे कि कहीं से अर्जुन आकर दहाड़े-आचार्य ! सावधान। इस प्रकार युधिष्ठिर की आज रक्षा हो गयी। |
          युद्ध की समाप्ति पर सभी अपने-अपने शिविर में आकर दैनन्दिन कार्य के सम्पादन में लग गये। आचार्य से मिलने वालों में प्रमुख थे-कृपाचार्य, अश्वत्थामा, कृतवर्मा, शकुनि, शल्य, जयद्रथ । इन लोगों को विदा कर द्रोण दिन की थकान दूर करने के लिए शय्या पर लेटे ही थे कि दुर्योधन ने कर्ण के आकर आचार्य का अभिवादन किया। व्यंग्य-वाण द्वारा आचार्य को ल करता हुआ बोला-हे आचार्य आप तो जैसे अर्जुन के आने की क्षा कर रहे थे कि वह आकर धर्मराज की रक्षा करे। आज का निर्णायक जड़ने का वादा करके और असफल होकर मुझे उपहासास्पद बना दिया। आज पाण्डवी सेना चैन से सो रही होगी। आपके प्रति उनका कैसा भाव होगा-इसका मुझे भान नहीं है, किन्तु वे मुझे अवश्य ही मिथ्याप्रलापी कह रहे होंगे।
          आचार्य द्रोण ने दुखी मन से दुर्योधन को धीरज बँधाया। वे बोले-हे वत्स! तुम अर्जुन की शक्ति से अनभिज्ञ हो, इसीलिए ऐसा कहते हो। सम्पूर्ण युद्ध भूमि पर उसकी दृष्टि रहती है। अपनी परिधि तक जाकर वह कभी किसी की रक्षा करने में समर्थ है। मैंने इसीलिए उसे काफी दूर ले जाने की बात कही थी। कल उसे पुनः दूर ले जाने का उपक्रम करो। मैं उसकी अनुपस्थिति में चक्रव्यूह की रचना करूंगा। अर्जुन के अतिरिक्त चक्रव्यूह कोई तोड़ नहीं सकता। इसका लाभ लेकर मैं तुम्हें युधिष्ठिर को पकड़कर सौंप दूंगा। अब जाओ मुझे थोड़ा विश्राम करने दो। इसके पश्चात् दोनों प्रणाम करके चले गये। दुर्योधन अपने अनुज दुःशासन के साथ शर्म और
शुशर्म से मिलने उसके शिविर में चला गया। अपने शिविर में दुर्योधन का स्वागत करते हुए शर्म ने कहा कि हे राजन् ! हमें खेद है कि अर्जुन को रोक पाने में हम असफल रहे। दुर्योधन ने उसका साहस बढ़ाते हुए कहा कि–अरे बन्धु ! तुमने तो वह दुर्लभ कार्य किया है जो कोई भी नहीं कर सकता। दिन भर लड़ना अर्जुन को उलझाना आचार्य द्रोण-कृप-अश्वत्थामा के लिए भी सम्भव नहीं है फिर भी तुम दिन भर अर्जुन को अपने साथ युद्ध में रोके रहे। तुम इसके लिए धन्यवाद के पात्र हो। बस इसी तरह तुम अर्जुन को कल भर
और उलझाये रहो, मेरा उद्देश्य अवश्य ही पूर्ण हो जायेगा।
          आज युद्ध का तेरहवाँ दिन था। शर्म और शुशर्म ने युद्ध भूमि में प्रवेश कर अर्जुन को ललकारा। हे धनञ्जय ! आज हम दोनों भाइयों ने संसप्तक व्रत की विधिवत दीक्षा लेकर रणभूमि में उपस्थित हुए हैं। हमने शपथ ली है कि आज इस युद्ध भूमि से वापस नहीं आयेंगे। हम शत्रु का अवश्य ही वध कर ही चैन की साँस लेंगे अथवा युद्ध भूमि में वीर गति को प्राप्त कर ही दम लेंगे। अर्जुन ने तीव्र प्रतिघात से उनका उत्तर दिया। भयंकर संग्राम छिड़ जाता है। शर्म और शुशर्म रणनीति के अनुसार लगातार पीछे हटते जा रहे हैं और
चुनौती देकर युद्ध के लिए पार्थ को उत्साहित करते जा रहे हैं। इस प्रकार दोपहर बीतने लगा। अर्जुन को माधव बारम्बार युद्ध परिधि से दूर न जाने की सलाह देते हैं। अर्जुन उनकी बात पर ध्यान न देकर लगातार शर्म की सेना का संहार करता हुआ सुशर्म सहित दोनों का पीछा करता रहा। अब अर्जुन काफी दूर चला गया। युधिष्ठिर के यहाँ उसका पहुँचना सम्भव न था। इलका लाभ लेकर गुरु द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना कर डाली।
          पाण्डवी सेना में हलचल मच गयी। गुरुदेव की इस चाल से सभी हैरान थे। भीम, सात्यकि, धृष्टिद्युम्न, विराट, द्रपदादि काफी चिन्तित हुए। युधिष्ठिर का म्लान मुख देखकर वीर अभिमन्यु से न रहा गया। वह धर्मराज के पास जाकर बोला-हे महाराज! आप चिन्ता छोड़ दें मैं आज चक्रव्यूह में कौरवों का अभिमान चूर्ण करूंगा। युधिष्ठिर ने कहा-वत्स! हमारे पक्ष में अर्जुन के अतिरिक्त चक्रव्यूह भेदन कोई नहीं जानता, तुम कैसे हमें धैर्य दे रहे हो? इस पर अभिमन्यु ने कहा-नहीं पिताजी ! मैं चक्रव्यूह में प्रवेश तो जानता हूँ। किन्तु अन्तिम द्वार तोड़कर उससे बाहर निकलना नहीं जानता। भीम ने उत्साहित करते हुए गर्जना की-अन्तिम फाटक को मैं अपनी गदा से चूर्ण कर दूंगा। तुम आगे बढ़ो हम सभी तुम्हारे पीछे अन्दर प्रवेश करेंगे। अभिमन्यु के नेतृत्व में चक्रव्यूह का युद्ध प्रारम्भ हो गया।
          अभिमन्यु ने बारीकी से चक्रव्यूह का निरीक्षण करते हुए अपने रथ को उस रक्षा-पंक्ति को तोड़कर व्यूह में प्रवेश किया जहाँ कमजोर सेना लड़ रही थी। अभिमन्यु ने जयद्रथ को हराकर व्यूह में प्रवेश कर लिया किन्तु शीघ्रतापूर्वक जयद्रथ ने सँभलकर पुनः रक्षा द्वार बन्द कर अन्य पाण्डवों वीरों को अन्दर जाने से रोक दिया। आज जयद्रथ का दिन था। अकेले ही सम्पूर्ण पाण्डवों की सेना को उसने विवश करके अन्दर प्रवेश नहीं करने दिया। अकेला अभिमन्यु कौरवों की सेना का संहार करके तबाही मचाता रहा। उसने समस्त कौरव महारथियों के गर्व को खण्डित करके प्रलयंकर युद्ध करते हुए भानुमती का दुलारा दुर्योधन का प्रिय पुत्र लक्ष्मण का वध कर दिया। इससे उत्तेजित होकर दुर्योधन ने आचार्य-द्रोण-कृपाचार्य-अश्वत्थामा-कर्ण-दुःशासन-शकुनि के साथ स्वयं मिलकर अभिमन्यु पर समवेत प्रहार करना शुरु कर दिया। सबके दाँत खट्टा करने वाले अभिमन्यु ने आज पिता से भी बढ़कर भयानक युद्ध करके सभी के मनोबल को ध्वस्त कर दिया। सातों महारथियों से लड़कर अभिमन्यु थक चुका था। उसके शस्त्रास्त्र समाप्त हो गये। निहत्था होकर उसने आचार्य से कहा -हे गुरुदेव! आपने पितामह भी की बनाई रणनीति पर अपनी सहमति प्रदान की थी, जिसमें यह निश्चय किया गया था कि समान स्तर के योद्धा द्वन्द्व युद्ध करेंगे। घायल और थके निशस्त्र योद्धा को कोई नहीं मारेगा । आप स्वयं अपनी बनाई रणनीति को क्यों नहीं मान रहे हैं। इस सयम मेरे पास कोई भी शस्त्रास्त्र नहीं है। मैं अकेला हूँ। आप सात महारथी हैं। आप सभी श्रेष्ठ धनुर्धर हैं। न्याय के पक्षधर हैं और हमारे पूज्य हैं। मेरे साथ इस प्रकार का अन्याय क्यों हो रहा है ? इस पर आक्रोश में आकर दुर्योधन ने कहा कि इस सपोले को सभी मिलकर मार डालो। सचमुच ही सभी ने मिलकर अभिमन्यु का वध करके ही विश्राम लिया।
          अभिमन्यु का वध सुनकर पाण्डवी सेना में कोहराम मच गया। युधिष्ठिर सहित सभी पाण्डव शोकमग्न होकर विलाप करने लगे कि, हम अर्जुन को क्या बतायेंगे कि हम सभी मिलकर भी अकेले अभिमन्यु की रक्षा नहीं कर सके। अभी अभिमन्यु बालक था। उसकी बात पर विश्वास के कैसे हम लोगों ने उसे काल कवलित हो जाने दिया। अभिमन्यु हम सभी का दुलारा था। उसे खोकर हमने अपना सर्वस्व खो दिया। हम सभी अर्जुन के सामने कैसे मुँह दिखायेंगे ? युद्ध समाप्ति के पहर बीत जाने पर अर्जुन माधव के साथ अपनी शिविर में आकर हतप्रभ हैं। चारो तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। खामोशी चीखकर किसी अनहोनी को बता रही थी। अभी तय थे। किसी में भी साहस नहीं कि आगे बढ़कर नीरवता त्यागकर वस्तुस्थिति स्पष्ट कर सके। आज नित्य की भाँति अभिमन्यु की विहँसता मुखमण्डल न देखकर अर्जुन के मुख से सहसा निकल पड़ा कि मेरा अभिमन्यु कहाँ है ?  इस शब्द को सुनकर सभी चीत्कार उठे। साहस कर धर्मराज ने सम्पूर्ण इतिवृत्ति माधव और अर्जुन को कह सुनाया। हम लोगों की जयद्रथ ने कैसे अभिमन्यु पीछे जाने से रोक दिया। इतना ही नहीं, वह नीच अभिमन्यु के शव के मस्तक पर पक्षाघात किया। इस घटना से आगबबूला अर्जुन ने सहसा लाल होकर भीषण प्रतिज्ञा कर डाली। आज संसार के सभी योद्धागण सुनें-कल सूर्यास्त होने के पूर्व ही में पापी जयद्रथ का वध नहीं कर सका तो स्वये अग्नि में प्रवेश कर अपना अन्त कर लूँगा। रात में ही अभिमन्यु को अन्त्येष्टि में सभी सम्मिलित हा अपने-अपने श्रद्धासुमन समर्पित किये। जयद्रथ भी पुष्पाञ्जलि देने जा रहा था कि अर्जुन ने दहाड़ा-“तुम नहीं और उसे पुण्य अर्पण से रोक दिया। पितामह भीष्म को भी श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जब यह दखद समाचार सुनाया। तो वे अपने आँसुओं को रोक न पाये। उन्होंने भी जयद्रथ वध का अनुमोदन
किया।
          आज युद्ध का चौदहवाँ दिन है। गुरु द्रोणाचार्य ने जयद्रथ को समझाया कि तू वीर है। मैं तुम्हें अर्जुन तक पहुँचने ही नहीं दूंगा। कर्ण-शकुनि दु:शासन तथा दुर्योधन सभी ने सिन्धु नरेश की रक्षा का भरोसा दिलाया। आज गुरुदेव ने 'गरुणव्यूह' की रचना की। स्वयं व्यूह के प्रथम द्वार पर अडिग चट्टान की तरह आ डटे। पिछले दरवाजे पर अपने समान योद्धा पुत्र द्रोणी को नियुक्त किया। मध्य कमन अंगराज कर्ण को सौंप दिया। पाश्र्व भाग में भूरिश्रवा और कृतवां की तैनाती की। जयद्रथ को कृपाचार्य के संरक्षण में चुनिंदा वीरों की परिधि में रखकर युद्ध का संचालन प्रारम्भ किया। दुर्योधन, दु:शासन, शकुनी, प्रभृति के संरक्षण में भरोसे के सैनिकों को साथ लेकर संरक्षित एवं सचल सैन्य दल तैयार किया। जिस मोर्चे पर कमजोर स्थिति तिला देगी समय पर जाकर उसकी सहायता करना इसका उद्देश्य था। युद्ध का विगुल बज चुका था। अपने अपने शंख बजाकर गुप्त संदेश भेजे गये। आज युद्ध का वातावरण अत्यन्त भयानक था। दोनों ही सेनाएँ शत्रु विनाश करने लगीं।
          कपिध्वज लिए माधव के रथ सर्वप्रथम गुरुदेव से जा टकराया। विहँसकर अर्जुन से द्रोण ने कहा-हे पार्थ, आज मुझे सन्तुष्ट कर अपनी गुरु जा चुकाओ-यह मुझे अभीष्ट है। जो आज्ञा कहकर सव्य साँची ने वाणों की झड़ी लगा दो गुरु द्रोण ने उनको सहज ही काट डाला। गुरु शिष्य का यह संग्राम देखकर लोगों को परशुराम और भीष्म का युद्ध स्मरण हो आया। दर्शक की भूमिका में पाश्र्ववर्ती सैनिकों ने युद्ध विराम कर उस महासमर को स्मरणीय बनाया। युद्ध अपने चरम पर चल रहा था। श्रीकृष्ण ने धीरे से अर्जुन को परामर्श दिया कि गुरुदेव से युद्ध करना व्यर्थ समय गँवाना है। सहसा उन्होंने बायें तरफ अपना रथ सरपट दौड़ा दिया। गुरुदेव ने रोकने का प्रयास किया किन्तु तब तक अर्जुन का रथ गुरु के पकड़ से बाहर हो गया। आचार्य ने गम्भीर स्वर में कहा-कौन्तेय! तुम तो शत्रु को पराजित किये बिना आगे नहीं हटते। मुझे हराये बिना क्यों भाग रहे हो। पार्थ ने हसकर कहा कि आप मेरे गुरु हैं, शत्रु नहीं। गुरु दक्षिणा अभी बाकी है, फिर कभी सूद समेत चुका दूंगा। अभी जाने दें। अर्जुन के पीछे महाबली भीम का रथ आ गया। गुरु ने गर्जना की-भीम! तुम्हें अन्दर जाने की आज्ञा मैं नहीं दूंगा। अर्जुन तो मुझसे अनुमति लेकर चला गया। भीम भी आवेग के साथ गुरुदेव पर प्रहार करने लगा, किन्तु विशाल पर्वत पर जैसे जल-प्रवाह अपना असर खो देता है, वैसे ही दोण ने थोड़े ही समय में भीम का उत्साह भङ्ग कर दिया। गज-घटा की ओट लेकर भीम ने भी गुरुदेव से किनारा कस लिया। व्यूह के भीतर पहुँचकर दोनों ही भाई आज प्रलय मचाने लगे। शत्रु-सेना में खलबली मच गयी। जिधर दृष्टिपात करते उधर ही मैदान साफ हो जाता। दुर्योधन के कई भाई फिर
कालकवलित हो गये। दुर्योधन अमर्षपूर्वक गुरु द्रोण के सम्मुख आकर बोला-हे आचार्य श्रेष्ठ! भीम और अर्जुन का गतिरोध करने में आपको छोटकर कोई समर्थ नहीं हो रहा है। समय रहते यदि आप चलकर उन्हें नहीं रोकते तो निश्चय ही सिन्धु नरेश तक अर्जुन पहुँच जायेगा और तब उससे जयद्रथ की रक्षा कोई नहीं कर सकता। आचार्य ने कहा कि मेरा यहाँ से हटना उचित नहीं है। मेरे हटते ही पाण्डवों की सारी सेना अन्दर आ जायेगी। ऐसी स्थिति में उनसे मोर्चा लेना सम्भव नहीं होगा। मात्र भीमार्जुन से तुम सभी मिलकर सहज ही अवरोधपूर्वक उनका मुकाबला करो। मैं यह मन्त्रारक्षित कवच तुम्हें दे रहा हैं। इसे धारण कर तुम इन्द्र की भाँति अजेय हो जाओगे। प्रफुल्लित मन से गान्धारी तनय ने भीतर जाकर भीम पर धावा बोल दिया। दोनों को आज भयानक युद्ध हुआ। दोनों ही अजेय थे। दोनों ही लहूलुहान होकर थक चुके थे, किन्तु मोर्चा कोई भी छोड़ना नहीं चाहता। इसी बीच अर्जुन ने कौरव वीरों से रणभूमि पाट दिया। इधर दृष्टिपात करने मात्र की असावधानी पर भीम ने अपनी भारी-भरकम गदा से दुर्योधन पर प्रहार कर दिया। कवच के प्रभाव से वह बच गया किन्तु युद्ध भूमि में अचेत होने के बाद उठकर रथ पर चढ़ गया। सारथी ने उसे रण-स्थल से दूर सुरक्षित स्थान
पर ले जाकर उसके प्राणों को बचा लिया।
          आज भीमार्जुन ने कौरवों की सेना को मथ डाला। मदमत्त गजराज की तरह आज भीम का पराक्रम देखते बनता था। श्रीकृष्ण ने भीम का उत्साहवर्धन करते हुए कहा कि आज मझले भइया तो कौरवों के लिए साक्षात् यमराज हो गये हैं। आज लोग सूर्य की तरफ बार-बार देख रहे हैं। लगता है कि सूर्यदेव भी उनके ऊपर सदय होकर अस्ताचल की ओर शीघ्रताशीघ्र जाना चाह रहे हैं। शेष पाण्डवी सेना आज गुरुदेव के सामने असहाय दीख रही है। अर्जुन का देवदत्त नहीं बज रहा है, भीम का सिंहनाद अवश्य सुनाई पड़ रहा है।
इससे भीम की तरफ से महाराज युधिष्ठिर निश्चिन्त हैं। उन्हें अर्जुन की चिंता सता रही है। पाञ्चजन्य अवश्य ही बज उठता है। अभिमन्यु के निधन से धर्मराज की चिन्ता बढ़ गयी है। उन्हें लगता है कि अर्जुन को कुछ हो गया है। उनके स्थान पर माधव ही लड़ रहे हैं। हमें ढाढस देने के लिए रुक-रुककर अपना शंखनाद कर देते हैं। उन्होंने अपनी रक्षा में तैनात सात्यकि को अपनी चिन्ता से अवगत कराया। उसने धर्मराज से कहा कि जिसकी रक्षा स्वयं त्रिलोकीनाथ कर रहे हैं, उनकी चिन्ता आप न करें। हम सभी आपकी रक्षा में लगे हैं। गुरु द्रोण की दृष्टि आप पर लगी है। हम सभी मिलकर भी द्रोण से नहीं जीत पा रहे हैं। कहीं थोड़ी भी चूक हमें भारी न पड़े। यह
कहकर उसने द्रोण पर हमला तेज कर दिया। थोड़ी ही देर में सूर्य की लालिमा ने धर्मराज को विह्वल कर दिया। जयद्रथ का वध अगर नहीं होता तो अर्जुन का बचना असम्भव है। अपनी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए पार्थ निश्चय ही अग्नि-प्रवेश कर लेगा। इतने में सहसा अन्धकार छा गया। युद्ध विराम की घोषणा हो गयी। कौरवों में हर्ष एवं पाण्डवों में विषाद की लहर दौड़ गयी। युद्धभूमि में ही अर्जुन ने आत्मोत्सर्ग का मन बना लिया। अर्जुन ने अपने लिए चिता की व्यवस्था करके पाण्डवों का शोकवर्धन करते हुए कौरवों को उत्साहित किया। सभी कौरव-पाण्डव उस स्थान पर इकट्टे होकर अर्जुन का अन्तिम दर्शन कर रहे थे। इसी बीच जयद्रथ भी आकर अपने व्यंग्य वाण से श्रीकृष्णार्जुन को घायल करने लगा। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संकेत दिया और वहाँ तेज प्रकाश छा गया। अर्जुन ने भी श्रीकृष्ण का संकेत समझकर जयद्रथ का शिर काट दिया।
          जयद्रथ के पिता ने पुत्र जयद्रथ को यह आशीर्वाद दिया था कि जिसके हाथों उसका (जयद्रथ का) सिर पृथ्वी पर गिरेगा, वह स्वयं खण्ड-खण्ड होकर मृत्यु को प्राप्त होगा। इसकी चर्चा अर्जुन से पहले ही माधव ने कर चेतावनी दी थी। अर्जुन ने ऐसा वाण मारा कि आकाश मार्ग से उड़ता हुआ जयद्रथ का मुण्ड उसके पिता वृहदक्षत्र की गोद में जा गिरा। वह उस समय सन्ध्या करने बैठा था। मुण्ड को देखकर वे घबड़ाकर उठ खड़े हुए; जिससे मुण्ड भी जमीन पर जा गिरा और उसका शरीर हजारों खण्ड में विभक्त हो
गया। इस प्रकार पिता-पुत्र की एक ही साथ मौत हो गयी। यह दृष्य देखकर सभी दंग रह गये। अर्जुन की प्रतिज्ञा तो पूर्ण हो गयी किन्तु दु:श्वला का संसार उजड़ गया। उसका विलाप सुनकर धृतराष्ट्र और गान्धारी का हृदय फूट पड़ा। उन्हें दुर्योधन की हठ पर पश्चाताप होने लगा, किन्तु वे मन ही मन पछताकर रह गये। उनके हाथ में अब कुछ नहीं था।
          द्रोणाचार्य पर अपनी झुझलाहट उतारता हुआ दुर्योधन गुरुदेव के कक्ष में प्रविष्ट हुआ। साथ में उसके प्रपञ्ची मित्र भी थे। कर्ण ने अपनी खीझ तल्ख शब्दों में उतारी, किन्तु इसका द्रोण पर कुछ असर न था। वे मानों कुछ सुन ही नहीं रहे थे। आखिर थक हारकर दुर्योधन ने रुँआसे स्वर में कहा -हे तपोधन द्विज श्रेष्ठ! यह अनुचित बात कहकर मुझे भी अपार कष्ट होता है,किन्तु मै विवश हूँ। आपके और साथी कर्ण के अतिरिक्त मैं अपनी व्यथा किससे कहूँ? आखिर आपही लोग मेरे अहं की रक्षा करने में समर्थ हैं। हमारे अनुजों का संहार नित्य ही भीम के हाथों हो रहा है। आज रात में भी युद्ध विराम नहीं हुआ मशाल जलाई गयी। युद्ध का विगुल असमय में ही बज
उठा। पाण्डवों की सेना का संचालन आज भीम पुत्र घटोत्कच कर रहा था। रात अधिक हो गयी थी इसलिए उसकी आसुरी शक्ति आज कौरवी सेना पर कहर बरपा रही थी। उससे मुक्ति पाना आज दुर्योधन की प्राथमिकता थी।आचार्य द्रोण भी उसका समाधान ढूँढने में विफल सिद्ध हुए। इन्द्र द्वारा कर्ण को प्राप्त एकघ्नी शक्ति के अतिरिक्त घटोत्कच को ठिकाने लगाने के लिए और कोई चारा नहीं था। रात के अन्तिम पहर तक उसने कौरवों की सेना को तहस-नहस कर दिया। अत्यन्त दुखी मन से कर्ण ने उस शक्ति से घटोत्कच का प्राणान्त कर दिया। सभी दुखी हुए। श्रीकृष्ण प्रसन्न थे।
          आज युद्ध का पन्द्रहवाँ दिन है। दुर्योधन ने नित्य की भाँति आज भी गुरु द्रोण को मानसिक दु:ख पहुँचाया। विषण्ण मन से गुरुदेव ने गान्धारी-नन्दन का अभिवादन किया। द्रोण ने समझ लिया कि अब हमें भी इस संसार को त्यागना श्रेयस्कर होगा। आज उन्होंने निर्णायक युद्ध करने की ठान ली। भूखे बाघ की तरह वे भयानक युद्ध करके पाण्डवी सेना का संहार करते हुए अबाध आगे बढ़े। आज उनके सामने किसी की नहीं चली। यह देखकर उनके मित्र एवं महा पराक्रमी द्रुपद ने सामने आकर भयंकर संग्राम शुरु कर
दिया। घोर युद्ध करते हुए दोनों ही वृद्धों के श्वेत वस्त्र रक्तरंजित हो गये।अन्तत: द्रोण के तरकस से निकले एक वाण ने द्रुपद का वध कर दिया। द्रोण का मन भी अपने मित्र के मारे जाने से पसीज गया। इसके पहले विराट नरेश का भी द्रोण ने शिरोच्छेदन करके भू-लुण्ठित कर दिया। अर्जुन भी गुरुदेव का सामना कर कुछ देर के लिए अवरोध करके दूर चले गये। महाबली भीम का भी द्रोण पर वश नहीं चला। आज लगता है गुरु द्रोण पाण्डवी सेना का सर्वनाश ही कर डालेंगे। सम्पूर्ण पाण्डव-सेना का ही आज भारद्वाज-पुत्र
द्रोण ने हिलाकर रख दिया। किसी प्रसंग में अर्जुन से गुरु द्रोण ने कहा था कि यदि एक भी शस्त्र अथवा अस्त्र मेरे हाथ में हो तो मैं किसी भी देव-दनुज-दानव-गन्धर्व-यक्ष-किन्नर-मनुज एवं राक्षस के लिए अवध्य हूँ। यह मुझे भगवान परशुराम का आशीर्वाद है।
          माधव के सामने जब अर्जुन ने यह प्रसंग उठाया तो श्रीकृष्ण का मन प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने एक योजना बनाई। योजना सुनकर अर्जुन ने इसका खुला विरोध किया, किन्तु भीमसेन ने इसका समर्थन किया। कृष्ण के समझाने पर महाराज युधिष्ठिर ने यह पाप अपने सिर पर लेना स्वीकार कर लिया। योजनानुसार अश्वत्थामा नामक हाथी को अपने गदा से भीम ने प्रहार कर मार डाला और पागलों की तरह चिल्लाना प्रारम्भ कर दिया-'मैंने आज अश्वत्थामा को मार डाला, मैंने अश्वत्थामा का वध कर डाला।' भीम का भीषण रव सुनकर सभी स्तब्ध रह गये। आचार्य द्रोण को भी यह कर्ण-कटु शब्द सुनकर आश्चर्य हुआ। वे अपने रथ को सरपट दौड़ाते हुए धर्मराज की ओर लपके।रास्ते में जो भी पड़ा उसे यमलोक का पथिक बना दिया। सभी लोग स्तब्ध हो यह भयानक दृष्य देखने लगे। लोगों ने समझा कि द्रोणाचार्य इस अप्रिय समाचार का प्रचार करने वाले को ही काल-कवलित कर देंगे। युधिष्ठिर के समक्ष आकर द्रोण ने पूछा कि “बेटा युधिष्ठिर यह मैं क्या सुन रहा हूँ? मुझे तुम सच-सच बताओ।
          आचार्य को यह विश्वास था कि त्रिलोक का राज्य पाकर भी धर्मराज झूठ नहीं बोलेंगे। गुरु के सम्मुख कुन्तीनन्दन ने म्लान मुख, नीची दृष्टि करके गम्भीर वाणी में कहा-'अश्वत्थामा मारा गया किन्तु मनुष्य नहीं हाथी।'' धर्मराज के प्रथम वाक्य के पश्चात् ही श्रीकृष्ण ने अपना पाञ्चजन्य जोर से निनादित कर दिया। इसकी ध्वनि के कारण गुरुदेव ने युधिष्ठिर का दूसरा वाक्य नहीं सुना। उन्होंने युद्ध भूमि में ही शस्त्र त्यागकर प्रायोपवेशन करना प्रारम्भ कर दिया। उन्हें समाधिस्थ देखकर पाञ्चाल कुमार धष्टिद्युम्न ने पिता के वध से व्यथित होकर निहत्थे द्रोण का शिर अपनी तलवार से काट डाला। चारो ओर हाहाकार मच गया। समीपस्थ अर्जुन अपने गुरु की यह दशा देखकर धृष्टद्युम्न का वध करने के लिए दौड़ पड़े। उनका क्रोधित मुख देख श्रीकृष्ण का संकेत पाकर सेनापति धृष्टद्युम्न भागते हुए द्रौपदी के शिविर में जा छिपे । उनका पीछा करते करते हुए पार्थ द्रौपदी के कक्ष तक लपके। श्रीका और भीम-युधिष्ठिर भी उनके पीछ हो लिये। द्रौपदी बंकिम दष्टि से अपने 'बीरन' का बचाव करते हुए अर्जुन के सामने आ डटी। उसने प्रश्न किया कि तुम उस गुरु के लिए मेरे भाई का वध करना चाहते हो जिसने उसकी वहिन को भरी सभा में नंगी होने का तमाशा देखा और अपने कुटिल शिष्यों का मौन समर्थन किया। उस भयंकर पाप के लिए तो आचार्य द्रोण को यह सजा मिलनी ही थी। मेरे भाई को मारना है तो मुझे पहले मारो-यह कहकर चट्टान की तरह अर्जुन के सामने खड़ी हो गई। तब तक अर्जुन का आवेग समाप्त हो चुका था। श्रीकृष्ण और धर्मराज ने आकर बीच-बचाव किया। अपने गुरुदेव के इस प्रकार निधन से अर्जुन फूट-फूटकर रोये। युधिष्ठिर भी ग्लानि से भर गये, किन्तु भीम और पाञ्चाल सेना में इसकी खुशी देखी गयी।
          कौरवों की सेना में खलबली मच गयी। इस घटना की सर्वत्र निन्दा हो रही थी कि इतने में वहाँ अश्वत्थामा आ गया। उसे देखकर सभी स्तब्ध रह गये। पिता का शव अपने अंग में लेकर वह फूट-फूटकर रोया। उसने सौगन्ध खाई कि सम्पूर्ण पाञ्चाल सेना सहित धृष्टद्युम्न का सर्वनाश करके ही दम लूंगा। इसे सुनकर दुर्योधन को चैन आया। गुरुदेव की अन्त्येष्टि में सभी सम्मिलित हुए। आज पाण्डव अपराध बोध से आहत थे। वे प्रायश्चित करने के लिए पितामह भीष्म के पास गये, किन्तु तब तक छलपूर्वक द्रोण-वध समाचार पाकर भीष्म अत्यन्त दुखी थे। पाण्डवों के पहुँचने पर वे बोले–मुझे अकेले रहने दो। मेरी नीरवता भंग मत करो, मैं उस विजय की आशा नहीं करता जिसमें धर्मराज को भी मिथ्या भाषण करना पड़े। थोड़े समय की निस्तब्धता को भङ्ग करते हुए माधव ने कहा-पितामह ! पाण्डव असहाय होकर भी इस कार्य में संलग्न हए। सभी पाण्डव एक साथ भी लड़ते तो भी गुरु द्रोण के सामने नहीं टिक सकते थे। ऐसी स्थिति में बेचारे पाण्डव क्या करते ? पितामह ने कहा कि पाण्डव असहाय हो सकते थे, किन्तु तुम तो असहाय नहीं थे? तुम क्यों नहीं चक्र उठाकर द्रोण का वध कर देते ? तुम्हारे सामने कहाँ के द्रोण और कहाँ के भीष्म?‘‘पितामह ! मैं तो हथियार नहीं उठाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हूँ'' तो क्या तुमने मुझे मारने के लिए हथियार नहीं उठाया?"वह तो आपकी प्रतिज्ञा का सम्मान करना था।'' वाह केशव ! तुमने हमारी प्रतिज्ञा के लिए अपनी प्रतिज्ञा तोड दी ? मैंने तो सुना था कि तुम अपना नटखटपना गोकुल में ही छोड़ आये ? माधव ने हँसकर कहा-पितामह ! तो आपने निरीह पाण्डवों को क्षमा कर दिया? पितामह ने कहा कि तुम्हारी अनुशंसा कौन टाल सकता है? पितामह के यहाँ से आने पर पाण्डवों की पीड़ा कुछ कम हुई ।
          दूसरे दिन की युद्ध-नीति तय करने में लोग लग गये । गुप्तचरों ने सूचना दी कि द्रोणी ने कृपाचार्य को सेनापति बनाने का प्रस्ताव किया जिसे दुर्योधन ने अस्वीकार कर दिया। इस पर काफी मन्त्रणा के पश्चात् अंगराज कर्ण का सामने आने पर अश्वत्थामा नाराज हो गया। कर्ण और अश्वत्थामा ने पर दुर्वाद किया। इस पर शकुनी और दु:शासन ने बीच-बचाव करके मामले शान्त कराया। द्रोणी ने भी क्रोध में आकर प्रतिज्ञा कर डाली कि जब यह सत पुत्र सेनापति रहेगा मैं इसके झण्डे के नीचे युद्ध में भाग नहीं लूंगा। दुर्योधन भी क्रोधावेग में द्रोणाचार्य, कृपाचार्य सहित अश्वत्थामा के लिए अप्रिय बात कह दी। इससे नाराज होकर अश्वत्थामा और कृपाचार्य ने दुर्योधन की शिविर से प्रस्थान कर अपने शिविर में जाकर विश्राम किया। दूतों से यह समाचार सुनकर पाण्डवों की शिविर में हर्ष छा गया। थोड़ी देर में कृष्ण ने कर्ण के कौरव सेनापति होने का समाचार पाने पर कल की रणनीति पर विचार-विमर्श करना प्रारम्भ हुआ।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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