ध्वनि की परिभाषा और स्वरूप
काव्य के विशिष्ट तत्त्व के रूप में
"ध्वनि" शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग नवम शताब्दी के मध्य में होने वाले
कश्मीरी विद्वान् आनन्दवर्द्धन के युगान्तरकारी ग्रन्थ "ध्वन्यालोक" में
मिलता है,यद्यपि आनन्दवर्द्धन से पूर्व भी ध्वनि तत्त्व विद्वत्गोष्ठियों में चर्चा
का विषय रहा होगा ऐसा आनन्दवर्द्धन स्वयं मानते हैं। भामह आदि प्रारम्भिक
आलंकारिकों ने यूँ तो ध्वनि शब्द का प्रयोग नहीं किया, लेकिन
वाच्यार्थ से परे अन्यार्थ की विद्यमानता को वे मानते हैं।
आनन्दवर्द्धन ने ध्वनि सम्बन्धी स्थापना
को विधि और निषेध दो रूपों में प्रस्तुत किया। विधि रूप स्फोटवाद है और निषेध रूप
में उन आचार्यों के मतों का खंडन किया जो अभिधा और लक्षणा से इतर व्यंजना शक्ति को
नहीं मानते।
अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में
"प्रथमे हि विद्वांसो वैयाकरणा:" कहकर आनन्दवर्द्धन ने वैयाकरणों के
प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। भारतीय भाषा-चिन्तन परम्परा में वैयाकरणों ने "शब्द"
का प्रयोग व्यापक संदर्भ में किया है। "शब्द" भाषा की मूल इकाई है तथा
शब्द व्याकरण और अर्थविज्ञान दोनों का मूल आधार भी। शब्द की इसी सार्वभौमिकता के
कारण वैयाकरणों ने इसे "स्फोट" को संज्ञा दी। "स्फुटिति अर्थो
अस्मादिति स्फोट:" अर्थ जिस शब्द से स्फुटित होता है वह "स्फोट"
कहलाता है। स्फोटवादियों के अनुसार, शब्द नित्य
और अनित्य दो प्रकार के होते हैं। उन्होंने सुनाई पड़ने वाले शब्द को
"ध्वनि" कहा और शाश्वत शब्द को "स्फोट"। इनके अनुसार
श्रोत्रेन्द्रिय तक पहुँचने वाली ध्वनियाँ शीघ्र ही विनष्ट हो जाती हैं जैसे
"घट" शब्द में "घ" उच्चरित होते ही विनष्ट हो जाता है और इसी
प्रकार "ट" भी। फिर विभिन्न ध्वनियों के समूह से बने हुए शब्दों और
विभिन्न शब्दों के समूह से बने वाक्यों से अर्थ-बोध कैसे हो सकता है? स्फोटवादियों के अनुसार, उच्चरित वर्णों की
पूर्वापरता से श्रोता के मन में अनुभव का संस्कार उत्पन्न होता है और पद के अन्तिम
वर्ण के उच्चारण के बाद मन में स्थित पद और उसके बाद पदार्थ की प्रतीति होती है।
वैयाकरणों के अनुसार "स्फोट" नित्य शब्द है तथा "ध्वनि"
श्रूयमाण शब्द है जो अनित्य है।
स्फोटवादियों से आनन्दवर्द्धन ने
"ध्वनि" का ग्रहण अवश्य किया, लेकिन उसे साहित्यशास्त्र
के अनुकूल बनाकर। उनका उनसे मौलिक अन्तर यह है कि व्याकरण में "ध्वनि"
का प्रयोग केवल अभिगंजक शब्द के लिये हुआ जबकि आनन्दवर्द्धन ने इसको
व्यापक अर्थ में प्रयुक्त किया। ध्वनि को
व्यंजक शब्द, व्यंग्य अर्थ, वस्तु,
अलंकार एवं रस जिसकी व्यंजना हो, व्यंजना
व्यापार तथा व्यंग्यार्थ समन्वित काव्य सबके लिये प्रयुक्त किया गया। वस्तुतः ये
पाँचों अर्थ एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं और एक संश्लिष्ट प्रक्रिया के
विभिन्न रूपों का द्योतन करते हैं।
आनन्दवर्द्धन के अनुसार,
"जहाँ अर्थ स्वयं को अथवा शब्द अपने अर्थ को गुणीभूत करके उस
(प्रतीयमान अर्थ) को अभिव्यक्त करते हैं उस काव्य विशेष को विद्वान् लोग ध्वनि
कहते हैं।" तात्पर्य यह कि वाच्यार्थ की अपेक्षा जहाँ व्यंग्यार्थ प्रधान ही
वह ध्वनि काव्य है। वैसे तो किसी भी शब्द या वाक्य से कोई न कोई व्यंग्यार्थ
निकाला ही जा सकता है, लेकिन प्रत्येक व्यंग्यार्थ को ध्वनि
काव्य नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: चमत्कारी व्यंग्य ही काव्य के रूप में समादृत हो
सकता है।
महाकवियों की वाणी में चमत्कारी व्यंग्य
रमणियों के लावण्य की भाँति एक विलक्षण अर्थ ही हुआ करता है जो सहृदयों द्वारा ही
मनोगत किया जा सकता है। शाब्दिक परिभाषा द्वारा उसे बाँध सकना बहुत कुछ संभव नहीं।
अत: वह कुछ और ही है आदि शब्दों द्वारा इसकी महत्ता व्यंजित की जाती है।
ध्वनि को काव्य की आत्मा के रूप में
प्रतिष्ठित करते हुए आनन्दवर्द्धन कहते हैं-
योऽर्थ सहृदयश्लाघ्यः
काव्यात्मेति व्यवस्थितः।
वाच्य प्रतीयमानाख्यौ तस्य
भेदाबुभौ स्मृतौ-ध्वन्यालोक
सहृदय जन के द्वारा प्रशंसनीय जो अर्थ
काव्य की आत्मा के रूप में व्यवस्थित है उसके वाच्य और प्रतीयमान दो भेद माने गये
हैं।
उल्लेखनीय है कि आनन्दवर्द्धन ने
प्रतीयमान अर्थ के साथ वाच्यार्थ की महत्ता भी घोषित की है। व्यंग्य अर्थ की
सामर्थ्य रखने वाला शब्द होता है। महाकवियों को इसीलिये शब्द और अर्थ, व्यंजक और व्यंग्य दोनों की पहचान होनी चाहिये। व्यंग्या की प्रतीति
वाच्यार्थ के द्वारा होती है। जिस प्रकार
प्रकाश को चाहने वाले व्यक्ति के लिये उसके आलोक का साधन होने के कारण दीपशिखा के
प्रति यत्नवान होना पड़ता है उसी प्रकार व्यंग्यार्थ के प्रति आदर रखने वाले
व्यक्ति को वाच्यार्थ के प्रति यत्र करना पड़ता है।
आनन्दवर्धन जिस प्रकार महाकवियों के लिये
प्रतिभा एवं काव्य तत्त्व का ज्ञान आवश्यक मानते हैं उसी प्रकार सहृदय की प्रतिभा
की सहकारिता को भी ध्वन्यर्थ की प्रतीति के लिये आवश्यक मानते हैं। उनके अनुसार
"प्रतीयमान अर्थ" केवल शब्द-अर्थ के नियमों के ज्ञान मात्र से नहीं जाना
जाता,
बल्कि जो सहृदय हैं, काव्यार्थ के तत्त्वज्ञ
हैं, उनकी तत्त्वार्थदर्शिनी बुद्धि में यह व्यंग्यार्थ या
प्रतीयमान अर्थ झट से प्रकाशित हो जाता है। ऐसा सहृदय व्यक्ति वाच्यार्थ से विमुख
होकर व्यंग्यार्थ की ही प्रतीति करता है। यह प्रतीयमान अर्थ ही ध्वनि है जो काव्य
की आत्मा है और कामिनी के अवयव संस्थान से भिन्न लावण्य की भाँति होता है। जैसे
आदि कवि वाल्मीकि के काव्य में करुण की प्रतीति यद्यपि वाच्यार्थ के द्वारा होती
है परन्तु वह वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न और स्वतंत्र है। प्रतिभावान सहदय को काव्य
में वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से भिन्न एक अन्य ही अर्थ प्रतीत होता है जो
व्यंग्यार्थ है और इसी व्यंग्या को आचार्यों ने ध्वनि की संज्ञा दी। यह अर्थ
प्रतीतिगम्य होता है अत: इसे प्रतीयमान भी कहते हैं।
महाकवियों की वाणी में जब प्रतीयमान अर्थ
स्पन्दित होता है तभी उन कवियों की अलोक सामान्य प्रतिभा भी उसमें प्रकट होती है
और उस अर्थ की प्रतिभावान सहृदय समकाल ही प्रतीति करता है।
इस प्रतीयमान अर्थ तथा उसके अभिव्यंजक
शब्द या शब्द समूह की विशिष्टता होना ही महाकवित्व की पहचान है। महाकवियों के
काव्य में वाच्य और वाचक का प्रयोग केवल व्यंग्यार्थ के साधन के रूप में किया जाता
है। अलंकारों का प्रयोग भी साधन रूप में व्यंग्यार्थ को प्रधानता से अभिव्यक्त
करने के उद्देश्य से होता है। इसीलिये जिस काव्य में वाचक शब्द एवं अर्थ स्वयं को
गौण करके प्रतीयमान अर्थ को प्रधानता से अभिव्यक्त करते हैं उस काव्य विशेष को
"ध्वनि" अथवा "ध्वनि-काव्य" कहते हैं।
ध्वनि काव्य का सुन्दर उदाहरण वाल्मीकि
के मुख से अनायास निःसृत यह वाणी है-
"मा निषाद प्रतिष्ठां
त्वमगमः शाश्वतीः समाः"
निहत सहचर क्रौंच के वियोग से कातर
क्रौंची के रुदन को सुनकर मुनि का हृदय विगलित हो गया और शोक में परिणत कवि का भाव
वाणी में मूर्त हुआ जो प्रत्यक्षत: व्याध को अनन्तकाल तक प्रतिष्ठा को न प्राप्त
करने का शाप दे रहा है। लेकिन अप्रत्यक्षत: इस वाणी से अनेक अर्थों की व्यंजना हो
रही है जो "प्रतीयमान" या "व्यंग्यार्थ" है।
ध्वनि सिद्धान्त
कश्मीरी विद्वान् आनन्दवर्द्धन ने अनेक
काव्यग्रन्थों एवं शास्त्रीय ग्रन्थों की रचना की।इनकी ख्याति का कारण है इनका
युगान्तकारी ग्रन्थ "ध्वन्यालोक" जिसमें चार उद्योत हैं और जिसे लिखकर
इन्होंने अलंकारशास्त्र में आलोचना को नयी दिशा दी। पंडितराज जगन्नाथ की इनके विषय
में यह सम्मति कि इन्होंने आलंकारिकों का मार्ग सदा के लिये व्यवस्थापित और प्रतिष्ठित
कर दिया,
एकदम समीचीन है। अब तक जो सिद्धान्त प्रचलित थे वे प्राय: एकांगी
थे-रीति और अलंकार तो काव्य के बहिरंग को छूकर रह जाते थे, रस
सिद्धान्त भी "निर्विघ्नसंविद्विश्रान्ति" को सर्वस्व मानता हुआ बुद्धि
और कल्पना के प्रति उदासीन था। इसके अतिरिक्त उसमें एक कमी यह थी कि
नाटक एवं प्रबन्ध काव्य के साथ तो इसका
सम्बन्ध ठीक बैठ जाता था, परन्तु स्फुट छंदों के विषय
में विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी आदि का
संघटन सर्वत्र न हो सकने के कारण अनेक चमत्कारपूर्ण मुक्तक काव्य रस के क्षेत्र
में प्रवेश नहीं पा सकते थे। ध्वनिकार ने इन सब त्रुटियों को पहचाना और सभी का
उचित परिहार करते हुए शब्द की तीसरी शक्ति व्यंजना पर आश्रित ध्वनि को काव्य की
आत्मा पद पर आसीन करते हुए ध्वनि सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
आनन्दवर्द्धन के पूर्व भी ध्वनि तत्त्व
विद्वत्गोष्ठियों में चर्चा का विषय रहा होगा ऐसा आनन्दवर्द्धन स्वयं मानते हैं।
इनसे पूर्व भामह, दंडी, वामन,उद्भट प्रभृति आलंकारिकों के ग्रन्थों में यद्यपि "ध्वनि" शब्द
का प्रयोग तो नहीं मिलता लेकिन अनेक अलंकारों के लक्षण, उदाहरणों
में प्रतीयमान अर्थ के संकेत अवश्य मिलते हैं। इन आचार्यों ने अलंकार को काव्य का
सर्वस्व माना तथा रस और भाव को रसवत, प्रेयस् एवं उर्जस्विन
अलंकारों के रूप में प्रतिपादित किया।
आनन्दवर्द्धन ने "अलंकार" और
"रीति" की व्यापकता का निराकरण करते हुए उसे "ध्वनि" के
अन्तर्गत समाहित कर लिया और "रस" को ध्वनि का सर्वोत्तम भेद घोषित करके
रस को महत्तम स्थान दिया।
ध्वनिकार अपने समक्ष दो निश्चित लक्ष्य
लेकर चले-(1) ध्वनि सिद्धान्त की निर्धान्त शब्दों में स्थापना करना, (2) रस, अलंकार, रीति, गुण और दोष विषयक सिद्धान्तों का सम्यक परीक्षण करते हुए ध्वनि के साथ
उनका सम्बन्ध स्थापित करना।
इसकी सिद्धि दो प्रकार से हुई-एक तो रस
की भाँति गुण, रीति, अलंकार एवं
वक्रता आदि काव्य तत्त्वों को व्यंग्य मानकर; क्योंकि वाचक
शब्द द्वारा न तो माधुर्य आदि गुणों का कथन होता है, न
वैदर्भी आदि रीतियों का, न उपमादि अलंकारों का और न वक्रता
आदि का ही। ये सब व्यंग्य रूप ही उपस्थित रहते हैं। आनन्दवर्द्धन ने काव्य के सब
विशिष्ट तत्त्वों को ध्वनि में समाहित करने के उद्देश्य से रसध्वनि के साथ
वस्तुध्वनि और अलंकार ध्वनि की कल्पना की जिसमें अलंकार और रीति का सम्पूर्ण
क्षेत्र समाहित हो गया। गुण, रीति, अलंकार
आदि काव्य तत्त्व वाच्यार्थ द्वारा मन को आह्लाद नहीं देते। अतएव ये सब ध्वन्यर्थ
के सम्बन्ध से, उसी का उपकार करते हुए अपना अस्तित्व सार्थक
करते हैं। इसमें गुणों का सम्बन्ध रस के साथ उसी प्रकार है जैसे शौर्यादि का आत्मा
के साथ। अलंकारों की स्थिति आभूषणों जैसी है जो अनित्य रूप से शरीर की शोभा बढ़ाते
हुए अन्ततः आत्मा की ही सौंदर्य वृद्धि करते हैं। शरीर सौन्दर्य की स्थिति आत्मा के
बिना संभव नहीं, क्योंकि शव के लिये आभूषण व्यर्थ है।इस
प्रकार अलंकारों क महत्व शब्दार्थ के आश्रित रहकर परम्परा सम्बन्ध से रस का उपकार करने
में माना जाने लगा, गुण रस के उत्कर्षक धर्म घोषित किये गये
और रीति को "पद संघटना" मानकर रस की उपकी रूप में स्वीकृत किया गया।
यहाँ तक कि दोषों की नित्यानित्य व्यवस्था का मूलाधार भी रस को ही माना गया।
आनन्दवर्द्धन ने कवियों को रसध्वनि की ओर अधिक प्रवृत्त रहने का आदेश दिया।
आनन्दवर्द्धन ने देखा कि दो प्रकार की
ऐसी रचनाएँ जो चमत्कारपूर्ण होते हुए भी ध्वनि के प्रमुख तीन भेदों में
अन्तर्भुक्त नहीं हो सकतीं तब उन्होंने व्यंग्यार्थ के तारतम्य की दृष्टि से काव्य
के तीन प्रकार गिना गिये जिससे सभी प्रकार के काव्य, ध्वनि
के क्षेत्र में समाहित हो गये-
1-ध्वनि काव्य- यह उत्तम
काव्य है।
2-गुणीभूत व्यंग्यकाव्य -यह
मध्यम कोटि का काव्य है। इस काव्य में व्यंग्यार्थ वाच्यार्थ की अपेक्षा कम
चमत्कारोत्पादक
होता है या उसका अंग बन जाता
है।
3-चित्रकाव्य- यह अधम कोटि
का होता है, इसमें व्यंग्यार्थ अस्फुट
रहता है।
इस प्रकार आनन्दवर्द्धन ने यह सिद्ध किया
कि ध्वनि एक ऐसा तत्त्व है जो स्फुट या अस्फुट रूप में सभी प्रकार के काव्य में
विद्यमान होता है।
वस्तुत: ध्वनि सिद्धान्त न तो अलंकार
सिद्धान्त का विरोधी है, न रस सिद्धान्त का वरन् पहली
बार इसको सैद्धान्तिक सीमा के अन्तर्गत नाट्यशास्त्र से आया हुआ रस और
काव्यशास्त्र की श्रव्य-परम्परा से विकसित हुआ अलंकार एक-दूसरे की समकक्षता में
एकात्मभाव से उपस्थित हुआ। इस प्रकार उत्तम काव्य या ध्वनि-काव्य के सार्वभौम
सिद्धान्त के अन्तर्गत रसध्वनि की श्रेष्ठता ही नहीं प्रतिपादित की गयी वरन् सभी
पूर्ववर्ती आचार्यों की गवेषणाओं के विच्छिन्न सूत्रों को सर्वोत्कृष्ट रसध्वनि से
अन्त: सम्बन्धित करके काव्य जिज्ञासुओं के समक्ष एक अत्यन्त पूर्ण, व्यापक और सर्वमान्य काव्य सिद्धान्त उपस्थित कर दिया गया। इस विशद सिद्धान्त
की महत्ता इस बात में भी देखी जा सकती है कि इसके बाद प्रतिपादित होने वाले
वक्रोक्तिवाद एवं औचित्यवाद भी इसके काव्यलक्षण की परिधि से बाहर न जा सके और न
कोई परवर्ती आचार्य इसके मूल स्वरूप को ही विकृत कर सका। लेकिन ध्वनि जैसे सबल तथा
सशक्त सिद्धान्त को भी निर्विरोध रीति से स्वीकार नहीं किया गया। स्वयं
आनन्दवर्द्धन ने अपने ग्रन्थ में ध्वनि विरोधियों के तीन प्रमुख वर्गों का
उल्लेख किया है-
अभाववादी- इसमें अलंकारवादी
आचार्य आते हैं जो ध्वनि की सत्ता मानते ही नहीं।
लक्षणावादी- ये ध्वनि को
लक्षणागम्य मानकर शब्द की व्यंजना शक्ति का निषेध करते हैं।
अलक्षणीयतावादी- ध्वनि की
सत्ता मानते हुए भी इसे अनिर्वचनीय मानते हैं।
अभाववादी आचार्य- इसके
अन्तर्गत अलंकारवादी आचार्य आते हैं। इन्होंने काव्य सौन्दर्य का विश्लेषण कर देखा
कि उसमें गुण, अलंकार, रीतियाँ,
उपनागरिका वृत्तियाँ आदि तत्त्व तो हैं लेकिन ध्वनि नाम का कोई
तत्त्व नहीं। इन्होंने अन्य अर्थ की जो प्रतीति होती है, उसका
अन्तर्भाव पर्यायोक्त, समासोक्ति आदि अलंकारों द्वारा होता
हुआ दिखाया और रस आदि को भी रसवत् अलंकारों में समाविष्ट माना। इस प्रकार ध्वनि
नाम से किसी पृथक तत्त्व के निर्देश को निरर्थक माना। अभिनवगुप्त के निर्देश के
अनुसार, मनोरथ नाम का कोई कवि था जिसने यह आलोचना की कि
अलंकारवादियों की स्थापनाओं में से ही ध्वनि वादियों ने एक अंश उठा लिया एवं उसी
को ध्वनि नाम देते हुए आनन्दवश नाचने लगे कि "हमने कुछ नई बात खोज निकाली
है।" आनन्दवर्द्धन इस मत का खंडन करते हुए कहते हैं कि समासोक्ति आदि कतिपय
अलंकारों में, व्यंग्य है अवश्य किन्तु वह वाच्यार्थ की
अपेक्षा गौण है। वह ध्वनिकाव्य नहीं है। ध्वनि काव्य तभी होता है जब वाच्यार्थ की
अपेक्षा व्यंग्यार्थ प्रधान हो। इसके अतिरिक्त कुछ अलंकारों में यदि ध्वनि है तो
इसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि सब अलंकारों में ध्वनि है। ध्वनि का विषय
अलंकारों से बहुत व्यापक है।
लक्षणावादी आचार्य- ये
आचार्य ध्वनि को लक्षणा पर आश्रित मानते हैं। आनन्दवर्द्धन का इनके लिये उत्तर यह है
कि यद्यपि ध्वनि लक्षणामूला होती है तथापि इससे सम्पूर्ण ध्वनि का अन्तर्भाव
लक्षणा में नहीं किया जा सकता। लक्षणा कतिपय ध्वनि भेदों की उपलक्षण हो सकती है पर
ध्वनि का लक्षण नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त ध्वनिकार ने अनेक युक्तियों के द्वारा
यह प्रतिपादित किया है कि ध्वनि के लिये क्यों लक्षणा से आगे बढ़कर एक अन्य शक्ति
व्यंजना की आवश्यकता है।
अनिर्वचनीयतावादी- ये
संभवत: ध्वनि का लक्षण न कर पाने के कारण उसे अनिर्वचनीय कह देते हैं। ध्वनि
सिद्धान्त के प्रबल विरोधियों में भट्टनायक, कुन्तक,
महिमभट्ट प्रभृति विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। स्वयं अभिनवगुप्त
ने अपने ग्रन्थ "ध्वन्यालोक लोचन" में भट्टनायक कृत
"हृदयदर्पण" का उल्लेख किया है जिससे स्पष्ट होता है कि भट्टनायक रस की अभिव्यक्ति
में व्यंजना शक्ति की महत्ता को स्वीकार नहीं करते। इसके स्थान पर वे "भावकत्व"
और "भोजकत्व" नामक दो नवीन शक्तियों को प्रतिपादित करते हैं। वे ध्वनि सिद्धान्त को पूर्णतया अस्वीकृत तो नहीं करते पर उसे
शाब्दिक परिभाषा से परे "स्वसंवेद्य" मानते हैं।
कुन्तक ने अपने ग्रन्थ
"वक्रोक्तिजीवितम्" में ध्वनि के स्वतंत्र अस्तित्व को अस्वीकृत करते
हुए "वक्रोक्ति" के चमत्कार को काव्य-जगत् में प्रतिष्ठित किया। उनका
लक्ष्य ध्वनि को अपदस्थ करना नहीं, अपितु ध्वनि
के भेदोपभेदों को वक्रोक्ति के विविध भेदों में अन्तर्भूत
कर एक नये सिद्धान्त की अवतारणा करना था। लेकिन ध्वनि के
भेदों को वक्रोक्ति के भेदों में अन्तर्भूत करने का अर्थ ही था कि वे व्यंग्यार्थ
की महत्ता को स्वीकार करते थे। ये अभिधावादी आचार्य थे, अभिधा के व्यापार को दीर्घ से दीर्घतर मानते थे।
ध्वनि सिद्धान्त को ध्वंस करने के
उद्देश्य से आचार्य महिमभट्ट ने व्यक्ति विवेक नामक ग्रन्थ की रचना की और काव्य का
कोई समीचीन लक्षण न प्रस्तुत कर सकने के कारण वे ध्वनिकार की खिल्ली उड़ाते रहे।
बे व्यंजना को शब्दशक्ति न मानकर अनुमान की प्रक्रिया द्वारा वाच्यार्थ से
व्यंग्यार्थ की प्रतीति मानते हैं। ध्वन्यालोक में जो ध्वनि का स्वरूप बतलाया गया
है उसे वे काव्यानुमिति मानते हैं। वस्तुत: व्यंजना का विरोध करते हुए भी वे रस की
अभिव्यंजना को वही महत्व देते हैं जो ध्वनि सिद्धान्त के आचार्य को मान्य था। अतः
ध्वनि सिद्धान्त से उनका विरोध मात्र विरोध प्रदर्शन हेतु सिद्ध होता है। वस्तुतः
ध्वनि सिद्धान्त के विरोध में जितने भी ग्रन्थ लिखे गये उससे यह सिद्धान्त वैसे ही
चमकता गया जैसे अग्नि में तपाने पर स्वर्ण। इस सिद्धान्त के विरोध में वैयाकरणों, नैयायिकों एवं मीमांसकों की जितनी आवाजें उठीं, उनका
प्रबल युक्तियों से खंडन कर आचार्य मम्मट ने ध्वनि सिद्धान्त की पुनः स्थापना की।
पूर्वोक्त सभी सिद्धान्तों से यह सिद्धान्त अधिक व्यापक, मौलिक
और सूक्ष्म चिन्तनपरक दिखाई देता है। अभिनवगुप्त की "ध्वन्यालोक-लोचन"
द्वारा ध्वन्यालोक की व्याख्या एवं मम्मट के "काव्यप्रकाश' में ध्वनि सिद्धान्त की प्रतिष्ठा के उपरान्त यह सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ
एवं महत्वपूर्ण काव्य सिद्धान्त के रूप में स्थापित हुआ। विश्वनाथ के पश्चात्
पंडितराज जगन्नाथ ने भी ध्वनि सिद्धान्त को मान्य समझा और इसकी स्थापनाएँ इतनी
सर्वप्रिय सिद्ध हुई कि इसके भेदोपभेदों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म वर्गीकरण सहस्रों की
संख्या तक जा पहुंचा।
ध्वनि सिद्धान्त की सर्वग्राहिता का
मुख्य कारण यह है कि ध्वनि की इसमें इतनी व्यापक परिकल्पना है कि इसमें न केवल
पूर्ववर्ती अलंकार, रीति, गुण,
दोष आदि का समाहार होता है वरन् परवर्ती वक्रोक्ति और औचित्य भी
इसकी सीमा से बाहर नहीं जा सकते। इसके अतिरिक्त आनन्दवर्द्धन ने रस को ध्वनि का
अनिवार्य तत्त्व माना जिसे आगे चलकर अभिनवगुप्त ने एक रूप कर दिया। ध्वनि रस के
बिना उत्तम काव्य नहीं और रस ध्वनित हुए बिना केवल कथित होकर काव्य नहीं हो सकता।
काव्य में ध्वनि को सरस और रमणीय होना पड़ेगा और रस को व्यंग्य। रस को यहाँ पर
व्यापक रूप में ग्रहण करना चाहिये,मूलतः परम्परागत संकीर्ण
भावानुभाव व्यभिचारी के संयोग से निष्पन्न रस के रूप में नहीं। रस के अन्तर्गत
समस्त भावविभूति या अनुभूति वैभव आ जाता है। अनुभूति की वाहक बनकर ही ध्वनि रमणीय
होती है।
4 टिप्पणियां:
Dhavanyalok padhne me mere liye sahayak hua
dhanyavad.
Dhanyavad
Humko Bahut hi esse Gyan prapt huaa Aaj ka dhanyawad
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