
ध्वनि- ध्वनि
शब्दों की आधारशिला है । उच्चारण करते समय जो स्वर निकलकर सुनाई पड़ता है उसे हम
ध्वनि कहते हैं ।
वर्ण- जिस
ध्वनि के टुकड़े न हो सकें, उसे हम वर्ण अथवा अक्षर कहते हैं। जैसे- अ, ई, क्,
च् ट्, त्, प् इत्यादि । या ध्वनियों के
लिखित रूप को वर्ण कहा जा सकता है । ध्वनि बोलने और सुनने में आती है लेकिन वर्ण
लिखने, देखने और पढ़ने में आता है ।

भाषा में प्रयुक्त सबसे छोटी ध्वनि वर्ण कहलाती
है।
जैसे एक शब्द लिया “मान”- इस शब्द में चार टुकड़े हैं- म्, आ, न्, अ अर्थात शब्द
चार वर्णों से बना है ।

वर्णों
के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में 52 वर्ण हैं किन्तु ‘कामता प्रसाद गुरु’ ने 43 हिन्दी वर्णों को ही
माना है । उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं- 1. स्वर, 2. व्यंजन
स्वर
|
अ
|
आ
|
इ
|
इ
|
उ
|
औ
|
ऊ
|
ऋ
|
ए
|
ऐ
|
ओ
|
||
व्यंजन
|
क
|
ख
|
ग
|
घ
|
ङ
|
|
च
|
छ
|
ज
|
झ
|
ञ
|
||
ट
|
ठ
|
ड
|
ढ
|
ण
|
||
त
|
थ
|
द
|
ध
|
न
|
||
प
|
फ
|
ब
|
भ
|
म
|
||
य
|
र
|
ल
|
व
|
श
|
||
ष
|
स
|
ह
|
कुल
संख्या- 52
|
|||
संयुक्त
व्यंजन
|
क्ष
|
त्र
|
ज्ञ
|
श्र
|
||
अयोगवाह
|
अं
|
अः
|
द्विगुण-
|
ड़
|
ढ़
|
5

स्वर- जिन वर्णों
का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर
कहलाते है। ये संख्या में ग्यारह हैं- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
उच्चारण
के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं-1. ह्रस्व 2. दीर्घ । 3. प्लुत
1. ह्रस्व स्वर- जिन स्वरों
के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये चार हैं- अ, इ, उ, ऋ। इन्हें मूल
स्वर भी कहते हैं।
2. दीर्घ स्वर- जिन स्वरों
के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये
हिन्दी में सात हैं- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

विशेष- दीर्घ स्वरों
को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहाँ दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण
में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।
3. प्लुत स्वर- जिन स्वरों के
उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः
इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।
मात्राएँ- स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों
की मात्राएँ निम्नलिखित हैं-
स्वर
|
मात्राएँ
|
शब्द
|
अ
|
×
|
कम
|
आ
|
ा
|
काम
|
इ
|
ि
|
किसलय
|
ई
|
ी
|
खीर
|
उ
|
ु
|
गुलाब
|
ऊ
|
ू
|
भूल
|
ऋ
|
ृ
|
तृण
|
ए
|
-े
|
केश
|
ऐ
|
ै
|
है
|
ओ
|
ो
|
चोर
|
औ
|
ौ
|
चौखट
|
·
अ
वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं- क्
च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।
·
अ
लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं-
क च छ ज झ त थ ध आदि।
अनुनासिक
(
̐ ) – ऐसे स्वरों
का उच्चारण नाक एवं मुँह से होता है । जैसे- गाँव, दाँत, आँगन आदि ।
अनुस्वार-
֗ -
यह स्वर के बाद आननेवाला व्यंजन है जिसकी ध्वनि नाक से निकलती है । अंगूर, अंगद,
कंकण
अं
तथा अः को अयोगवाह भी कहा जाता है ।
अनुस्वार
-
इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे- सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।
विसर्ग- इसका
उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न (:) है। जैसे-अतः, प्रातः।
चंद्रबिंदु - जब किसी स्वर का
उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया
जाता है । यह अनुनासिक कहलाता है।
जैसे-हँसना,
आँख।

जिन
वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते
हैं।
अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते । प्रत्येक व्यंजन
के उच्चारण में ‘अ’ की मात्रा छुपी होती है । जैसे- क्+ अ = क, ख्+अ = ख । हिन्दी में व्यंजन वर्णों की संख्या
33 हैं । इसके
निम्नलिखित तीन भेद हैं- 1. स्पर्श, 2. अंतःस्थ, 3. ऊष्म
1. स्पर्श
व्यंजन-
इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग
का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है जैसे-
कवर्ग-
क् ख् ग् घ् ड़्
चवर्ग-
च् छ् ज् झ् ञ्
टवर्ग-
ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ़्)
तवर्ग-
त् थ् द् ध् न्
पवर्ग-
प् फ् ब् भ् म्
2. अंतःस्थ- ये
निम्नलिखित चार हैं- य् र् ल् व्
3. ऊष्म- ये
निम्नलिखित चार हैं- श् ष् स् ह्
व्यंजनों
का वर्गीकरण-
व्यंजनों को दो आधारों पर वर्गीकरण किया जाता है ।
·
उच्चारण
स्थान के आधार पर।
·
प्रयत्न
स्थान के आधार पर ।
उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजनों का
वर्गीकरण
|
||
कण्ठ
से
|
कण्ठ्य
|
क,
ख, ग, घ, ङ
|
तालु
से
|
तालब्य
|
च,
छ, ज, झ,ञ
|
मूर्धा
से
|
मूर्धन्य
|
ट,
ठ,ड,ढ ण
|
दाँत
से
|
दन्त्य
|
त,
थ, द, ध,
|
दन्तमूल
से
|
वर्त्स्य
|
न,
स, र, ल
|
होठों
से
|
ओष्ठ्य
|
प,
फ, ब, भ, म
|
दन्तोष्ठ्य
से
|
दन्तोष्ठ्य
|
व,
फ
|
स्वर
यन्त्रीय
|
काकल्य
|
क
|
प्रयत्न
स्थान के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण- प्रयत्न के आधार पर किया गया विभाजन
दो प्रकार का होता है- आभ्यन्तर प्रयत्न, बाह्य प्रयत्न
आभ्यन्तर प्रयत्न
|
||
स्पर्श
व्यंजन
|
क
वर्ग
|
क,
ख, ग, घ, ङ
|
च
वर्ग
|
च,
छ, ज, झ,ञ
|
|
ट
वर्ग
|
ट,
ठ,ड,ढ ण
|
|
त
वर्ग
|
त,
थ, द, ध, न
|
|
प
वर्ग
|
प,
फ, ब, भ, म
|
|
अन्तस्थ
|
यणोऽन्तस्थ
|
य,
र, ल, व
|
ऊष्म
|
शलूष्म
|
श,
ष, स, ह
|
अर्ध
स्वर
|
य,
व
|
|
पार्श्विक
|
ल
|
|
लुंठित
|
प्रकंपित
|
र
|
अनुनासिक
|
ङ,ञ,ण,न,
म
|
8
बाह्य प्रयत्न- यह 11 प्रकार का
होता है
|
||
अल्प
प्राण
|
प्रत्येक
वर्ग का प्रथम, तृतीय एवं पंचम वर्ण
|
क,
ग, ङ, च, ज, आदि
|
महा
प्राण
|
प्रत्येक
वर्ग का द्वितीय एवं चतुर्थ वर्ण
|
ख,घ,
छ, झ, ठ, ढ, थ,ध
|
घोष
|
प्रत्येक
वर्ग का प्रथम एवं द्वितीय वर्ण
|
क,
ख, च, छ आदि
|
अघोष
|
प्रत्येक
वर्ग का तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम वर्ण
|
ग,
घ, ङ, ज झ आदि
|
विवार
|
वर्णों
के उच्चारण में जब कण्ठ को फैलाना पड़ता है तब विवार होता है
|
|
संवार
|
जब
कण्ठ नहीं फैनलाना पड़ता तब संवार
प्रयत्न होता है
|
|
श्वास
|
वर्णों
के उच्चारण में जब श्वास चलता है तब श्वांस प्रयत्न होता है ।
|
|
नाद
|
उच्चारण
में जब विशेष प्रकार की अव्यक्त ध्वनि (नाद)
प्रयत्न कहलाता है
|
|
उदात्त
|
तालु
आदि के ऊर्ध्व भाग से उच्चरित स्वर उदात्त कहलाता है ।
|
|
अनुदात्त
|
तालु
आदि के अधोभाग से उच्चरित स्वर अनुदात्त कहलाता है ।
|
|
स्वरित
|
उदात्त
एवं अनुदात्त जिस स्वर में सम्मिलित हों उसे स्वरित कहते हैं ।
|

वर्णों
का प्रथम, द्वितीय वर्ण तथा श, ष, स एवं खर् प्रत्याहार के वर्ण का विवार ,
श्वास , अघोष प्रयत्न है ।
वर्गों
के तृतीय, चतुर्थ, पंचम वर्ण, य, र, ल, व, ह
तथा हश् प्रत्याहार के वर्ण संवार, नाद, घोष प्रयत्न हैं ।
वर्णों के उच्चारण-स्थान
मुख
के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते
हैं।
संस्कृत
सूत्र
|
वर्ण
|
उच्चारण
स्थान
|
अकुह
विसर्जनीयानां कण्ठः
|
अ
आ क् ख् ग् घ् ड़् ह् विसर्ग
|
कंठ
से
|
इचुयशानां
तालु
|
इ
ई च् छ् ज् झ् ञ् य् श
|
तालु
से
|
ऋटुरषाणां
मूर्धा
|
ऋ
ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष्
|
मूर्धा
से
|
लृतुलसानां
दन्तः
|
त्
थ् द् ध् न् ल् स्
|
दंत्य
से
|
उपूपध्मानीयानामोष्ठौ
|
उ
ऊ प् फ् ब् भ् म
|
ओष्ठ्य
से
|
ञमङणनानां
नासिका
|
ङ,
ञ, ण, न, म
|
नाक
से
|
एदैतो
कण्ठतालुः
|
ए,
ऐ
|
कंठ
तालु से
|
ओदौतोः
कण्ठोष्ठम्
|
ओ,
औ
|
कंठ
और होंठ से
|
वकारस्य
दन्तोष्ठम्
|
व्
|
दाँत
और होंठ
|
जिह्वामूलस्य
जिह्वामूलीय
|
जिह्वामूलीय
|
जिह्वामूल
से
|
नासिका
अनुस्वारस्य
|
अनुस्वार
|
नासिका
से
|
परिभाषा- एक या अधिक वर्णों से
बनी हुई स्वतंत्र सार्थक ध्वनि ‘शब्द’ कहलाता है । जैसे- एक वर्ण से निर्मित शब्द-न
(नहीं) व (और) अनेक वर्णों से निर्मित शब्द-कुत्ता, शेर,कमल, नयन, प्रासाद, सर्वव्यापी, परमात्मा।
शब्द
|
|
परिभाषा- ध्वनियों के मेल से बने सार्थक वर्ण समुदाय
को ‘शब्द’ कहते हैं ।
|
|
रचना और बनावट के आधार पर शब्द-भेद
|
1. रूढ़ 2. यौगिक 3. योगरूढ़
|
उत्पत्ति के आधार पर शब्द-भेद
|
1.तत्सम, 2.तद्भव , 3.देशज,
4.विदेशज
|
अर्थ के आधार पर शब्द भेद
|
1. सार्थक शब्द, 2.निरर्थक शब्द
|
विकार के आधार पर शब्द भेद
|
1.विकारी शब्द, 2. अविकारी शब्द
|
प्रयोग के आधार पर शब्द भेद
|
1.संज्ञा, 2.सर्वनाम, 3.क्रिया,
4. विशेषण, 5.क्रिया विशेषण, 6.सम्बन्ध बोधक, 7. समुच्चय बोधक, 8. विस्मयादिबोधक
|
व्युत्पत्ति (बनावट) के आधार पर
शब्द के निम्नलिखित तीन भेद हैं-
1. रूढ़- जो शब्द
किन्हीं अन्य शब्दों के योग से न बने हों और किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हों तथा
जिनके टुकड़ों का कोई अर्थ नहीं होता, वे रूढ़ कहलाते हैं। जैसे-कल, पर। इनमें क, ल, प, र का टुकड़े करने पर कुछ अर्थ नहीं हैं। अतः ये निरर्थक हैं।
2. यौगिक- जो शब्द
कई सार्थक शब्दों के मेल से बने हों,वे यौगिक कहलाते हैं। जैसे-देवालय=देव+आलय, राजपुरुष=राज+पुरुष, हिमालय=हिम+आलय, देवदूत=देव+दूत
आदि। ये सभी शब्द दो सार्थक शब्दों के मेल से बने हैं।
3.
योगरूढ़-वे शब्द, जो यौगिक तो हैं, किन्तु
सामान्य अर्थ को न प्रकट कर किसी विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं, योगरूढ़ कहलाते हैं। जैसे-पंकज, दशानन आदि। पंकज=पंक+ज (कीचड़
में उत्पन्न होने वाला) सामान्य अर्थ में प्रचलित न होकर कमल के अर्थ में रूढ़ हो गया
है। अतः पंकज शब्द योगरूढ़ है। इसी प्रकार दश (दस) आनन (मुख) वाला रावण के अर्थ में
प्रसिद्ध है।
उत्पत्ति के आधार पर शब्द के निम्नलिखित चार
भेद हैं-
1.
तत्सम- जो शब्द
संस्कृत भाषा से हिन्दी में बिना किसी परिवर्तन के ले लिए गए हैं वे तत्सम कहलाते
हैं। जैसे-अग्नि, क्षेत्र, वायु, रात्रि, सूर्य आदि।
2.
तद्भव- ऐसे शब्द जो
रूप बदलने के बाद संस्कृत और प्राकत से
हिन्दी में आए हैं वे तद्भव कहलाते हैं। जैसे-आग (अग्नि), खेत(क्षेत्र), रात (रात्रि), सूरज (सूर्य)
आदि।
3.
देशज- जो शब्द
क्षेत्रीय प्रभाव के कारण परिस्थिति व आवश्यकतानुसार बनकर प्रचलित हो गए हैं वे
देशज कहलाते हैं। जैसे-पगड़ी, गाड़ी, थैला, पेट, खटखटाना आदि।
4.
विदेशी
या विदेशज-
विदेशी जातियों के संपर्क से उनकी भाषा के बहुत से शब्द हिन्दी में प्रयुक्त होने
लगे हैं। ऐसे शब्द विदेशी अथवा विदेशज कहलाते हैं। जैसे-
अंग्रेजी- कॉलेज, पैंसिल, रेडियो, टेलीविजन, डॉक्टर, लैटरबक्स, पैन, टिकट, मशीन, सिगरेट, साइकिल, बोतल आदि।
फारसी- अनार,चश्मा, जमींदार, दुकान, दरबार, नमक, नमूना, बीमार, बरफ, रूमाल, आदमी, चुगलखोर, गंदगी, चापलूसी आदि।
अरबी- औलाद, अमीर, कत्ल, कलम, कानून, खत, फकीर, रिश्वत, औरत, कैदी, मालिक, गरीब आदि।
तुर्की- कैंची, चाकू, तोप, बारूद, लाश, दारोगा, बहादुर आदि।
पुर्तगाली- अचार, आलपीन, कारतूस, गमला, चाबी, तिजोरी, तौलिया, फीता, साबुन, तंबाकू, कॉफी, कमीज आदि।
फ्रांसीसी- पुलिस, कार्टून, इंजीनियर, कर्फ्यू, बिगुल आदि।
चीनी- तूफान, लीची, चाय, पटाखा आदि।
यूनानी- टेलीफोन, टेलीग्राफ, ऐटम, डेल्टा आदि।
जापानी- रिक्शा
आदि।
2 टिप्पणियां:
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धन्यवाद महोदय....यह चैप्टर अभी अधूरा है, इसे जल्दी ही पूरा करने के लिए प्रयासरत हैं
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