रीति सिद्धान्त परिभाषा एवं स्वरूप


रीति सिद्धान्त परिभाषा एवं स्वरूप

संस्कृत साहित्य में रीति शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ‘वामन’ ने किया, वामन ने रीति को काव्य के विशिष्ट तत्व के रूप में परिकल्पित किया । वामन संस्कृत काव्य के उत्कर्ष की अन्तिम और अपकर्ष की प्रथम अवस्था की सन्धि पर स्थित हैं किन्तु उनके पूर्व यह सिद्धान्त वर्तमान था । आचार्य भरत ने रीति को प्रवृत्ति के नाम से पुकारा है । उनका कथन है- ‘अत्राह प्रवृत्तिरिति कस्मादिति । उच्यते,पृथिव्यां नानादेशवेष भावाचारः वार्ताः स्थापयति इति वृत्तिः । प्रवृत्तिः निवेशने।’ आचार्य भरत ने इस प्रवृत्ति को भाषाचार से जोड़ा और परिवेश,रहन-सहन तथा भाषाचार के आधार पर इसे चार भागों में विभक्त किया-
दाक्षिणात्य- महाराष्ट्र विदर्भ प्रदेश ।
औद्री-मागधी-वंग,कलिंग,उड़ीसा,मिथिला,मगध ।
पाँचाली- पांचाल,शूरसेन,कश्मीर,मद्र ।
अवन्तिका- अवन्ती,मालव,सिन्धु,सौराष्ट्र ।
इस प्रकार आचार्य भरत ने सम्पूर्ण भारत के रहन-सहन, भाषा एवं आचरण के आधार पर उनकी वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों का निरूपण किया । आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में एक स्थान पर  मार्ग शब्द का प्रयोग किया है-
एते मार्गस्तु निर्दिष्टा यथा भाव रसानि च ।
काव्याबन्धास्तु निर्दिष्टा द्वादशाभिनयात्मकः ।।

रीति सिद्धान्त
 'रीति'' को काव्य के विशिष्ट तत्व के रूप में परिकल्पित कर निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर प्रस्तुत करने वाला सिद्धान्त रीति-सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। इन दोनों दृष्टियों से आठवीं-नवीं शताब्दी के मध्य होने वाले कश्मीरी विद्वान् वामन निश्चित रूप से इस सिद्धान्त के प्रवर्तक हैं।
          वामन, संस्कृत काव्य के उत्कर्ष की अन्तिम और अपकर्ष की प्रथम अवस्था की संधि पर स्थित हैं। इन्होंने अपने समय के दो प्रकार के कवियों का उल्लेख किया है-अरोचकी एवं सतृणाभ्यवहारी। अरोचकी विवेकशील होते हैं, लेकिन उनकी रुचि किसी कारणवश नष्ट हो जाती है। इन्हें शास्त्र ज्ञान कराने से ये काव्य-दोष के निरसन की चेष्टा करते हैं। वामन ने अपना ग्रन्थ "काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' इन्हीं अरोचक शिष्यों के लिये लिखा और उन्हीं को दिशा निर्देश करने के लिये ''शब्द- शुद्धि'' जैसा प्रकरण लिखा, महाकवियों के उदाहरणों को प्रस्तुत कर शब्द प्रयोग का आदर्श रखा, अज्ञात कवियों के उदाहरण देकर दोष-प्रकरण समझाया, गुण और अलंकार में विवेक करना सिखाया तथा गुण का शब्द-गुण और अर्थ-गण में विभाजन कर उदाहरण के साथ विस्तार में उसका विवेचन किया।
           रीति सिद्धान्त 'रीति'' का प्रवर्तन काव्य-तत्त्व के रूप में करने में सर्वप्रथम है। गुण और अलंकार में प्रत्यक्षत: परस्पर भेद दिखाने का गौरव भी इसे ही प्राप्त है। भरत और भामह ने गुण और अलंकार में भेद नहीं दिखाया, दण्डी ने वैसे प्रत्यक्षत: काव्य के शोभाकर समस्त धर्मों को अलंकार कहा, लेकिन गुण का सम्बन्ध मार्ग से उल्लिखित कर प्रकारान्तर से उन्होंने गुण और अलंकार के पार्थक्य तथा गुण और मार्ग के सम्बन्ध का संकेत दे दिया। वामन ने सर्वप्रथम गुण और अलंकार में प्रत्यक्षत: पार्थक्य दिखाया। एक ओर उन्होंने अलंकार को व्यापक अर्थ में ग्रहण करते हुए ''सौन्दर्यमलंकार:'' कहा तो दूसरी ओर गुण को शब्दार्थ का कारक धर्म और अलंकार को उत्कर्षाधायक हेतु कहा। गुण को उन्होंने काव्य का नित्य और अलंकार को अनित्य धर्म कहा। परिणामस्वरूप परम्परा से चली आती हुई अलंकार की महत्ता गुण की तुलना में कम हो गयी।
          'रीति'' को काव्य के विशिष्ट तत्त्व के रूप में प्रतिपादित करते हुए वामन उसका निरूपण इस प्रकार करते हैं-
"विशिष्टा पद रचना रीतिः''
अर्थात् रीति कोरी पद रचना न होकर विशिष्ट पद रचना है। और यह 'विशेष'' क्या है। इसे वे इस प्रकार कहते हैं-
"विशेषो गुणात्मा। रीतिरात्मा काव्यस्य।''
यह विशिष्टता गुणों के संयोजन से आती है। गुण रीति का सर्वस्व है और गुणों से युक्त रीति ही काव्य की आत्मा है। काव्यात्मा का प्रश्न उठाने वाले प्रथम आचार्य वामन हैं। इन्होंने तीन रीतियों-वैदर्भी, गौडीय और पांचाली का उल्लेख किया जिसमें वैदर्भी समग्र गुणों से युक्त होने के कारण सर्वश्रेष्ठ होती है। वामन के अनुसार, जिस प्रकार रेखाओं के भीतर चित्र प्रतिष्ठित हो जाता है उसी प्रकार इन तीन रीतियों में सम्पूर्ण काव्य।
           वामन के पूर्ववर्ती आचार्य भरत एवं भामह ने गुणों का सम्बन्ध काव्य के सामान्य स्वरूप से स्थापित किया। भरत ने दस गुणों का उल्लेख किया और भामह ने—तीन । भामह ने वैदर्भी और गौडीय-अपने समय में प्रचलित दो प्रकार के काव्यों का उल्लेख किया है जिसमें वैदर्भी को गौडीय की तुलना में अधिक सम्मान प्राप्त था। भामह ने कहा कि हमें आँख मूंदकर परम्परा का पालन नहीं करना चाहिये और इस प्रकार एक की अभ्यर्थना और दूसरे की अवहेलना न करके यदि गौडीय काव्य भी अलंकारवत्ता, अग्राम्यत्व, अर्ध्यत्व आदि गुणों से समन्वित है तो उसे भी वैदर्भी की ही भाँति श्रेष्ठ मानना चाहिये। भामह को आशय है गुण का सम्बन्ध काव्य के स्वरूप से होता है।
दण्डी ने सर्वप्रथम ‘‘मार्ग'' शब्द का प्रयोग किया। इनके समय में मार्गों का स्वरूप निश्चित हो गया था। वैदर्भी सौन्दर्य और सुकुमारता का व्यंजक था तथा गौडीय-औद्धत्य एवं उग्रता का। दण्डी ने सर्वप्रथम गुणों का सम्बन्ध काव्य के स्वरूप से न नियत कर ''मार्ग'' से किया। इन्होंने भरत के अनुसार दस गुण मानते हुए इसे वैदर्भ मार्ग के गुण बतलाये और गौड़ मार्ग में इन गुणों का प्राय: विपर्यय माना। ‘प्राय:' इसलिये कि प्रसाद, श्लेष, समता सौकमार्य अर्थव्यक्ति ओज कान्ति समाधि, माधुर्य और औदार्य इन दस गणों में औदार्य अर्थव्यक्ति और समाधि गुण तो दोनों मार्गों में समान रूप से विद्यमान रहते हैं, लेकिन शेष सात का गौड मार्ग में विपर्यय रहता है, इसीलिये गौड़ मार्ग को इन्होंने वर्जनीय माना। दण्डी के काल में इन मार्गों का भौगोलिक महत्व था। विदर्भ देश के कवियों द्वारा प्रयुक्त काव्य लेखन वैदर्भी और गौड (बंगाल) देश का लेखन गौडीय कहा जाता था।
          वामन ने सर्वप्रथम दण्डी के कथन को स्पष्टता दी और उसे व्यवस्थित कर एक नये सिद्धान्त के रूप में प्रवर्तित किया । वामन की 'रीति" अंग्रेजी के स्टाइल से पृथक है क्योंकि इसमें कवि व्यक्तित्व के समावेश की स्वीकृति कदापि नहीं।
          वामन के अनुसार पद-विन्यास का वैशिष्ट्य निर्भर करता है गुणों के निश्चित संयोजन पर। इसके लिये इन्होंने भरत एवं दण्डी की भाँति दस गुणों की सत्ता स्वीकार की और उसके नाम भी वही दिये लेकिन उसमें मौलिकता का समावेश दो रूपों में किया, एक तो गुण को दो भागों-शब्द गुण और अर्थ गुण में विभाजित कर तथा दूसरे उनकी सर्वथा नवीन ढंग से व्याख्या कर  वामन के द्वारा गुणों की संख्या बीस कर दी गयी क्योंकि इन्होंने शब्द गुण एवं अर्थ गुण दोनों के दस-दस प्रकार माने। इन्होंने गुणों के भीतर अलंकार और रस का भी सन्निवेश किया जिससे गुण को व्यापकता मिली और इन गुणों के अस्तित्व के कारण रीति काव्य का एक महनीय तत्त्व बन सका। गुण की कल्पना को व्यापकता देते हुए इन्होंने  कहा कि गुणों की संख्या में न्यूनता और आधिक्य होने के कारण रीतियों में भिन्नता होती है।
दण्डी ने गौडीय मार्ग को निकृष्ट इस दृष्टि से बतलाया था कि उसमें कतिपय गुणों का विपर्यय होता है परन्तु वामन की दृष्टि में किसी भी मार्ग में गुणों के विपर्यय नहीं होते बल्कि गुणों की संख्या में न्यूनता या आधिक्य होता है जिसके कारण रीतियों में भिन्नता होती
           रीतियों की संख्या तीन–वैदर्भी, पांचाली और गौडीय, बतलाते हुए वामन ने उनके लक्षण इस प्रकार दिये-
वैदर्भी- समग्र गुणा: वैदर्भी - ओज प्रसादादि समस्त गुणों से युक्त और दोष की मात्रा से रहित वीणा के शब्द के समान मनोहारिणी वैदर्भी रीति होती है। सिद्धहस्त कवि सुन्दर, चमत्कारपूर्ण अर्थ और शब्दशास्त्र पर पूर्ण अधिकार होने पर भी यदि इस वैदर्भी रीति का अवलम्बन नहीं करता है तो उसकी वाणी अमृतमयी नहीं हो सकती । वामन सम्मत वैदर्भी सदा असमस्तपदा तो नहीं होती पर जब वह समासरहित होती है तब उसे शुद्ध वैदर्भी कहते हैं।
गौडीया-ओज: कान्तिमती गौडीया- ओज और कान्तिगुण से युक्त गौडीय रीति है।
पांचाली-माधुर्यसौकुमार्योपपन्ना पांचाली- माधुर्य और सुकुमार गुणों से युक्त पांचाली है।
वामन ने समस्त काव्य को इन तीन रीतियों में समाविष्ट कर दिया और वैदर्भी को सर्वश्रेष्ठ मानते हुए कहा कि कवि को केवल वैदर्भी का ही अभ्यास करना चाहिये क्योंकि जैसे बुनकर यदि जूट पर बुनाई का अभ्यास करता है तो वह रेशम की बुनाई की कुशलता नहीं प्राप्त कर सकता। एक में गरिमा है, दूसरे में शब्दाडम्बर और तीसरे में वाग्विस्तार।।
          वामन ने ‘‘रीति'' को भौगोलिक बन्धन से मुक्त कराया। उनके अनुसार, रीति का सम्बन्ध देश विशेष के कवियों के लेखन प्रणाली से नहीं अपितु गुणों के समावेश से है। वस्तुत: वामन प्रतिपादित ‘‘रीति'' एक प्रकार की शैली नहीं, अपितु न्यूनाधिक निश्चित रूढ़ काव्य गुणों के संयोग से उत्पन्न काव्य-सौन्दर्य की बाह्य अभिव्यक्ति है।
          वामन द्वारा प्रयुक्त ‘‘पद रचना'' केवल शब्द-विन्यास का सूचक नहीं, क्योंकि संस्कृत आचार्यों ने अर्थ तत्व को स्पष्टतः स्वीकार किया है और कहा है कि उपयुक्त अर्थ की अभिव्यक्ति उपयुक्त शब्द से ही की जानी चाहिये। अत: वामन द्वारा प्रयुक्त गुण, पद रचना और अर्थ दोनों का 'विशेष'' है।
          वामन ने रीति सिद्धान्त में अलंकार ध्वनि, रस आदि अन्य काव्य तत्त्वों का समाहार करते हुए रीति को काव्यात्मा पद पर आसीन किया। उन्होंने अलंकार को काव्य के शोभावर्द्धक हेतु के रूप में स्वीकार किया। भामह द्वारा परिकल्पित “वक्रोक्ति' जो समस्त अलंकारों का मूल था और काव्य को विभामय करने वाले तत्त्व के रूप में प्रतिपादित किया गया था, वामन के द्वारा आलंकारिक अभिव्यक्ति का एक प्रकार मात्र माना गया। उनके अनुसार अलंकार का काव्य के साथ संयोग सम्बन्ध है और गुण का समवाय सम्बन्ध।
          रस का समावेश वामन ने गुण के अन्तर्गत कर वस्तुत: रस को काव्य में महत्तम स्थान दिया। उन्होंने कांति नामक अर्थगुण का लक्षण किया है “दीप्ति रसत्वं''। श्रृंगारादि रस उद्दीप्त होकर जहाँ प्रकट होते हैं वहीं कांति गण होता है। गण काव्य का अन्तरंग धर्म है और गुण के अन्दर रस का विधान करने के कारण ही वामन ने रसवत् आदि अलंकार का विधान अपने ग्रन्थ में नहीं किया है।
          वामन ने नाटक को काव्य की सर्वोत्तम विधा माना और नाटक में रस का महत्व प्रारम्भ से ही स्वीकृत है। अतः रस के महत्व का अनुभव कर वामन ने उसे काव्य का एक आवश्यक लक्षण मान लिया, लेकिन उसका विवेचन गुण के ही अन्तर्गत किया।
          जहाँ तक "ध्वनि'' का प्रश्न है वामन ने आनन्दवर्द्धन की भाँति तो "ध्वनि'' का समावेश अपने काव्य सिद्धान्त में नहीं किया है, लेकिन एक स्थल पर उन्होंने वक्रोक्ति को लक्षणा का पर्याय मानते हुए उसे अर्थालंकारों में स्थान दिया है। वक्रोक्ति का लक्षण करते हुए वे कहते हैं "सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्ति:" लेकिन वक्रोक्ति में लक्षणा का अन्तर्भाव संभव नहीं, अत: उनका यह मत विद्वानों को मान्य नहीं हुआ।
          सारांशत: रीति-सिद्धान्त में गुण और रीति में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करते हुए अलंकार, ध्वनि और रस जैसे काव्य के विशिष्ट तत्त्वों का समाहार कर लिया गया और निश्चित रूढ़ काव्य-गुणों से युक्त पद रचना को 'रीति'' पद से विभूषित करते हुए ''रीति" को काव्य की आत्मा पद पर आसीन किया गया।
          अलंकार सिद्धान्त से रीति सिद्धान्त कई दृष्टियों से आगे है। रीति सिद्धान्त को स्पष्टता से परिभाषित कर तथा काव्य की उन विशेषताओं को उल्लिखित करके जो दार्शनिक या तकनीकी लेखन से इसे अलग करता है, रीति आचार्य ने लगता है, सबसे पहले इस बात की खोज शरू की कि काव्य के चमत्कार को उत्पन्न करने वाले तत्व क्या हैं, जिसे भामह ने वक्रोक्ति के रूप में संकेतित किया था।
          इसके अतिरिक्त इसने रस को भी काव्य के अनिवार्य गुणों में परिगणित किया। सौन्दर्य को काव्य का अन्तिम प्रमाण मानते हुए इस सिद्धान्त में सौन्दर्य को सावधानीपूर्वक किया गया पद-विन्यास माना गया जो उन तथाकथित साहित्यिक गुणों को नहीं अपनाता जो दोषपूर्ण हैं और अलंकार को सौन्दर्य का उत्कर्षक हेतु मानते हुए भी उसकी अनिवार्यता पर बल नहीं देता।
          वामन के इतने तार्किक देग से सिद्धान्त प्रतिपादन करने पर भी इसे परतत विनों द्वारा उतनी मान्यता नहीं मिली, संभवत: इसे वामन जैसा विद्वान् अनुयायी के रूप में नहीं मिला।
          आनन्दवर्द्धन के काल से ही इस सिद्धान्त को काफी आलोचना होने लगी। आनन्दवर्द्धन यद्यपि काव्य में “रोति'' तत्व को तो महत्वपूर्ण मानते हैं तथापि उसे आत्मा का स्थान नहीं देते। उन्होंने 'रोति'' को ''संघटना'' नाम दिया तथा “संघटना'' का अर्थ किया 'पदों की सम्यक् रचना''। पदों का सम्यकत्व गुणों पर आश्रित है, लेकिन उनके अनुसार पद गुणों का आश्रय लेकर रस को ध्वनित करता है। इस परिवर्तित दृष्टिकोण के कारण रोति का जितना विस्तार और वर्गीकरण हुआ था उन सबको मूल्य आच्छादित हो गया।
          आगे चलकर कृन्तक ने रीति' के लिये पुन: मार्ग शब्द का प्रयोग करते की ये ढंग से व्याख्या की। उन्होंने रीतियों का सम्बन्ध कवि स्वभाव से जोडा और कहा कि जिस स्वभाव का कवि होता है उसी प्रकार का पद विन्यास करता है। इन्होंने तीन मार्गों सुकुमार, विचित्र और मध्यम मार्ग का उल्लेख किया और कहा कि सुकुमार मार्ग को ग्रहण वे कवि करते हैं जिनका स्वभाव नैसर्गिकता और सहजता पर बल देने वाला होता है। ऐसे कवियों को दृष्टि भाव और रस पर विशेष होती है। विचित्र मार्ग अपनाने वाले वे कवि होते हैं जिनको दृष्टि काव्य के कलापक्ष पर अधिक होती और वे अलंकार एवं कलात्मक शब्द सौष्ठव पर बल देते हैं। मध्यम मार्ग अपनाने वाले कवि के काव्य में दोनों मार्गों को संतुलित प्रयोग होता कुन्तक का मत परवर्ती आचार्यों द्वारा मान्य नहीं हुआ। आनन्दवर्धन के मत को ही प्रतिष्ठा मिली।
          आनन्दवर्द्धन के अनुयायी मम्मट ने रीति'' को “वृत्ति'' कहते हुए इसे रस विषयक व्यापार कहा तथा गुण को रस का उत्कर्षक हेतु माना। तत्पश्चात् विश्वनाथ ने 'रीति' को "पद संघटना' कहा और रीति को आत्मा के आकाश से उतारकर अंग संस्थान के धरातल र सर कर दिया। कहने रोति को रस भाव आदि को उपकारक माना है। उक्त आचार्यों के अतिरिक्त वाग्भट प्रथम, वाग्भट द्वितीय, विद्याधर, विद्यानाथ और केशव मिश्र ने भी रीति निरूपण किया है, लेकिन उनमें कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं।
          निष्कर्षत: रीति सिद्धान्त अपने मूल रूप में आगे चलकर मान्य नहीं हुआ क्योंकि यह अन्ततः काव्य के बाह्य पक्ष को निर्धारित करता है जबकि परवती आचार्य काव्य के आन्तरिक पक्ष को उद्घाटित करने में प्रयत्नशील रहे। रीति की वस्तुनिष्ठ परिभाषा एवं स्थापना काव्य सौन्दर्य के चरम सिद्धांत की प्रस्तुति नहीं कर पाते। रीति मत में जहाँ गुणों के इतने भेद-प्रभेद हो रहे थे और उनके आधार पर रीतियों के संग में वृद्धि हो रही थी ।

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8 टिप्‍पणियां:

अमित सिंह ने कहा…

उत्तम लेखन ।

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल' ने कहा…

धन्यवाद अमित भाई

डॉ कल्पना थपलियाल ने कहा…

रीति सिद्धांत की अत्यंत ही उत्कृष्ट वर्णन

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल' ने कहा…

डॉ कल्पना थपलियाल जी बहुत-बहुत धन्यवाद।

Major Tarini Shen ने कहा…

धन्यवाद इस आर्टिकल के लिए।

LRseju ने कहा…

आपने बहुत अच्छी जानकारी दी । पढ़कर बहुत अच्छा लगा ।
आपने Global health tricks

Deepak Sikhwal ने कहा…

भरत मुनि कृत नाट्य शास्त्र में रीति विषयक निरूपण किस अध्याय में किया गया है कृपया मार्गदर्शन करें।

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल' ने कहा…

रीति सिद्धान्त आचार्य वामन द्वारा प्रतिपादित है, भरत मुनि ने 14 वें अध्याय में पांचाली गौड़ी इत्यादि के बारे में चर्चा की है, पद-संरचना जो वामन का मत है की आंशिक व्याख्या 22वें अध्याय में भी मिल जाएगी परन्तु 14वें अध्याय में रीति का विवेचन मिलता है

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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