काव्य की परिभाषा एवं लक्षण
काव्य
की परिभाषा- अनेक
विद्वानों ने काव्य की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं जो कि निम्न हैं- भारतीय एवं
पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों ने काव्य की अनेक परिभाषाएँ तथा लक्षण दिये हैं यद्यपि
काव्य का स्वरूप इन लक्षणों या परिभाषाओँ में बँध नहीं पाता किन्तु काव्य के विविध
रूपों एवं तत्वों की जानकारी प्राप्त हो जाती है । भारतीय काव्यशास्त्रियों नें
सामान्य रूप से कवि कर्म-कौशल को काव्य मानते हुए उनके तत्वों के बारे में विचार
किया है और अनेक व्युत्पत्तिमूलक परिभाषाएँ दी हैं -
कवि शब्दस्य ‘कवृ’ वर्णे इत्यस्य धातोः । काव्य कर्मणो रूपं ।
अर्थात ‘कवि’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘कवृ’ धातु से हुयी है और कवि का कर्म ही काव्य
है ।
‘आचार्य
अभिनवगुप्त’ ने कहा कि- कवनीयम् इति काव्यम्- अर्थात रचना या व्यापार वर्णन ही काव्य है ।
‘आचार्य
मम्मट’ का मत है कि- लोकोत्तर
वर्णन निपुण कवि कर्म काव्यम् अर्थात आनन्द को दिलाने वाल कवि की भाषिक
रचना ही कविता है ।
इसी तरह ‘आचार्य विद्याधर’ ने भी कहा-‘कवयतीति इति कविः तस्य कर्मः काव्यम्’ अर्थात् कवि का
कर्म ही काव्य है ।
किन्तु ये सब परिभाषाएँ मात्र निर्देशात्मक ही हैं इनका
सम्बन्ध कविता-तत्व से नहीं है ।
भरतमुनि काव्य-लक्षण दृश्यकाव्य के आश्रय से इस
प्रकार प्रस्तुत करते हैं-"अर्थक्रियोपेतम् काव्यम्" अर्थक्रिया
से युक्त काव्य है। प्रारम्भिक काल में काव्य (वाणी) नाट्य का एक अंग था। नाट्य
में काव्यार्थ की प्रस्तुति अभिनय के द्वारा होती है तथा काव्य में वह शब्दों
द्वारा व्यक्त होता है। इसीलिये नाट्य में अर्थ और क्रिया का योग रहता है जबकि
काव्य में शब्द और अर्थ का। आचार्य भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में कविता के सम्पूर्ण
तत्वों को इंगित करने का प्रयास किया है-
1.मृदुललित पदाढ्यं गूढ़ शब्दार्थहीनम् ।
जनपद सुखबोध्यं युक्तिमनृत्ययोज्यं ।
बहुरसकृतमार्गं सन्धिसन्धानयुक्तं,
सभवति शुभकाव्यं नाटकंप्रेक्षकाणां ।।
आचार्य भरत (नाट्यशास्त्र)
भरतमुनि
ने नाट्य काव्य के लक्षण में जो स्थान “अभिनय" को दिया वही स्थान भामह ने
काव्यलक्षण में शब्दार्थ को दिया, क्योंकि
उन्होंने काव्य का लक्षण श्रव्यकाव्य के आश्रय से किया।
भामह के शब्दों में- "शब्दार्थो सहितौ काव्यम् गद्यं पद्यं च
तद्विधा" यहाँ
पर भामह ने काव्य के लिये शब्दार्थ सहित होना उसी प्रकार अनिवार्य माना जैसे भरतमुनि
ने नाट्यकाव्य के लिये अभिनय सहित होना। यहाँ पर एक महत्वपूर्ण शंका उठती है कि
शब्दार्थ सहित तो सम्पूर्ण वाङ्मया है फिर काव्य भी यदि शब्दार्थ सहित है तब
शास्त्र या
इतिहास से उसका पार्थक्य किस आधार पर किया जाय? इससे यह लक्षित होता है कि इस परिभाषा में "सहितौ" पद से कुछ और
विवक्षित है। लेकिन भामह ने इस पद का स्पष्टीकरण अपने ग्रन्थ में नहीं किया है।
संभवतः उन्होंने इसके स्पष्टीकरण की कोई अपेक्षा ही
न समझी हो। लेकिन हाँ, इतना अवश्य है कि
संस्कृत काव्यशास्त्र के प्राय: सभी आचार्यों ने शब्द और अर्थ दोनों के सहभाव को
ही काव्य माना और कालान्तर में 'सहितौ' पद की समुचित व्याख्या कुन्तक ने की।
भामह के पश्चात् दूसरे आचार्य दण्डी
का नाम लिया जाता है जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करते हुए कहा-
वाचां विचित्रमार्गाणां
निबबन्धुः क्रियाविधिम्
तैः शरीरं काव्यानामलकाराश्च
दर्शिताः। -काव्यादर्श
प्राचीन
विद्वानों ने विचित्र मार्गों से युक्त काव्यवाणी के रचना प्रकारों का वर्णन किया
है जिसमें उन्होंने काव्य के शरीर और उसके अलंकारों का वर्णन किया है। यहाँ पर
दण्डी का संकेत भामह की ओर है। भामह के काव्यलक्षण में आये "शब्दार्थ"
पद को उन्होंने काव्य "शरीर" कहा है।
दण्डी ने जो काव्य का लक्षण दिया उसमें शरीर अर्थात् शब्दार्थ के वैशिष्ट्य को
बताने का प्रयास किया- "शरीरं तावदिष्टार्थ-व्यवच्छिन्ना पदावली" इष्ट
अर्थ से युक्त पदावली काव्य शरीर है। "इष्टार्थ" से दण्डी का क्या
प्रयोजन है इसे उन्होंने
स्वयं स्पष्ट नहीं किया, लेकिन चूँकि दण्डी काव्य
के शोभाकारक धर्मों को अलंकार की संज्ञा देते हैं इससे यह अनुमान किया जा सकता है
कि संभवत: उनका अभिप्राय अलंकारजन्य आह्लाद से हो।
दण्डी की काव्य परिभाषा पर आलोचकों ने यह आरोप लगाया है कि
इन्होंने भी भामह की भाँति केवल काव्य शरीर तक ही अपने को सीमित रखा, काव्य की आत्मा की चिन्ता नहीं की। वस्ततः भामह और दण्डी दोनों की काव्य
परिभाषा अत्यन्त संक्षिप्त है, उनसे काव्य का स्वरूप पूर्णत:
स्पष्ट नहीं होता। आचार्य वामन ने यूँ तो काव्यलक्षण स्वतंत्र रूप से कहीं नहीं दिया,
लेकिन यत्र-तत्र सूत्र रूप में उन्होंने काव्य के विषय में जो मत
अभिव्यक्त किया है उससे काव्य के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इसके
अतिरिक्त भामह एवं दण्डी द्वारा प्रतिपादित काव्य शरीर की आत्मा का अनुसन्धान करने
का सर्वप्रथम प्रयत्न उन्होंने ही किया। “अलंकार" को
"सौन्दर्य" का पर्याय मानकर वामन ने काव्य का सौन्दर्य से अभिन्न
सम्बन्ध स्थापित किया। उनके शब्दों में- "काव्यंम् ग्राह्यमलंकारात्।
सौन्दर्यमलंकारः।" काव्य अलंकार से ही
ग्राह्य होता है तथा सौन्दर्य अलंकार है। यहाँ पर अलंकार का
अर्थ
"शोभा" से है। पुनः वे कहते हैं-काव्य में यह सौन्दर्य दोषों के त्याग
और गुणों तथा अलंकारों के ग्रहण से आता है।
"स दोष गुणाऽलंकार हानादानाभ्याम्" गुण
और अलंकार से युक्त शब्दार्थ को काव्य कहते हुए उनका कहना है-
काव्यशब्दोऽयं गुणाऽलंकार
संस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तते
भक्त्या तु
शब्दार्थमात्रवचनोऽत्र गृह्यते ।-का०सू०वृ० १.१.२.
गुण
तथा अलंकार से संस्कृत शब्दार्थ को ही काव्य कहते हैं, गौण वृत्ति से भले ही शब्दार्थ मात्र को काव्य कह दिया जाय। दोष, गुण और अलंकार को काव्य-स्वरूप के विवेचन में स्थान देकर वामन ने परवर्ती
आचार्यो, यथा--अग्निपुराणकार, भोजराज,
मम्मट आदि का इस दिशा में पथ प्रदर्शन किया है। वामन का सबसे बड़ा
योगदान यह है कि इन्होंने काव्य शरीर में आत्मा का संधान किया और
कहा-"रीतिरात्मा काव्यस्य। विशिष्टा पदरचना रीतिः
। विशेषो गुणात्मा"-का.सू.वृ. १.२.७-८
रीति काव्य की आत्मा है। विशिष्ट पद रचना रीति है, यह विशिष्टता गुण से आती है। तात्पर्य यह कि गुणयुक्त पद विन्यास ही रीति
है जो काव्य की आत्मा है। वामन ने पद रचना के वैशिष्ट्य रूप में गुण का आख्यान
करके प्रकारान्तर से अलंकार की अपेक्षा गुण को अधिक महत्व दे दिया। एक स्थल पर गुण
को उन्होंने नित्य भी कहा है। उनके अनुसार, काव्य के
शोभाकारक धर्म को गुण कहते हैं, अलंकार उस शोभा के वर्द्धन
का हेतु है। गुण और अलंकार में भेद करके गुण को अलंकार की तुलना में महत्वपूर्ण
घोषित करना वामन द्वारा संपन्न हुआ।
वामन के पश्चात् रुद्रट
ने ९वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भामह के ही अनुरूप काव्य लक्षण दिया जिसमें
कोई नवीनता नहीं। "ननु शब्दार्थों काव्यम्"
इसी प्रकार इह विशिष्ट शब्दार्थो काव्यम् - समुद्रबन्ध,
अदोषौसगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थो काव्यम् -हेमचन्द्र
।
भामह से रुद्रट तक की काव्य-परिभाषाएँ
प्रायः शब्दार्थ के वैशिष्ट्य से सम्बन्धित हैं। वामन, जिन्होंने "रीति" को काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित किया
वह, भी शब्दार्थ या पद रचना का ही वैशिष्ट्य है।
"रीति" अंग्रेजी के स्टाइल या शैली का पर्याय नहीं जिसमें कवि
व्यक्तित्व का अनिवार्य रूप से समावेश होता है। रुद्रट के पश्चात् आने वाले
आचार्यों ने काव्य-लक्षण में उसके अन्तरंग पक्ष को केन्द्र में रखा।
९वीं शताब्दी
के मध्य में होने वाले आचार्य आनन्दवर्द्धन का नाम विशेष रूप में उल्लेखनीय
है क्योंकि इन्होंने सर्वप्रथम काव्य-लक्षण में उसके अन्तरंग पक्ष का उल्लेख किया। इनका
मुख्य उद्देश्य काव्य की आत्मा का संधान करना था, काव्य का लक्षण देना नहीं। इनके अनुसार-"काव्यस्यात्मा
ध्वनिरिति" काव्य की आत्मा"ध्वनि" है। वस्तुतः शब्दार्थ को
तो काव्य शरीर के रूप में प्रतिष्ठा मिल ही चुकी थी, अब
प्रश्न था काव्यात्मा का।"रीति" के
लिये ध्वनिकार ने "संघटना" शब्द का प्रयोग किया और कहा कि काव्य में
इसका स्थान अवयव-संस्थान की भाँति है-आत्मा की भाँति नहीं। वामन ने गुण को रीति का
अभिन्न तत्व घोषित किया था, लेकिन
आनन्दवर्द्धन गुण का सम्बन्ध शब्दार्थ से न मानकर रस से स्थापित करते हैं। उनके
अनुसार "ध्वनि" या प्रतीयमान अर्थ के बिना सन्दर शब्दार्थ भी निर्जीव
शरीर की तरह त्याज्य है। यह "ध्वनि'' महाकवियों की वाणी
में उसी प्रकार व्यंजित होती है जिस प्रकार रमणी के मुख से लावण्य और केवल सहृदय
के ही द्वारा यह मनोगत
होती है। वस्तुत: ध्वनि रूप आत्मा की प्रतिष्ठा होने पर ही शब्दार्थ काव्य होते
हैं। वैसे तो आनन्दवर्द्धन के पूर्व भी विद्वान् "ध्वनि" के मर्म से
परिचित थे जैसा कि आलंकारिक आचार्यों द्वारा प्रस्तुत समासोक्ति या अप्रस्तुत
प्रशंसा अलंकारों के लक्षणों से ज्ञात होता है, लेकिन "ध्वनि" को काव्य के एक विशिष्ट तत्व के रूप में
परिकल्पित कर उसे काव्य की आत्मा के रूप में प्रस्तुत करने का प्रथम श्रेय
आनन्दवर्द्धन को ही है। उनकी "ध्वनि" की ४१ परिकल्पना में महाकवि एवं
सहृदय दोनों की सहभागिता अनिवार्य है। वैसे जहाँ तक काव्य लक्षण का प्रश्न है आनन्दवर्द्धन
का यह कथन "शब्दार्थ शरीरं तावत्काव्यम्"
काव्य के स्वरूप को उद्घाटित करने में सक्षम नहीं। वस्तुतः उनका उद्देश्य काव्य
लक्षण देना नहीं वरन् काव्यात्मा का संद्यान करना था।
आनन्दवर्द्धन के पश्चात् कुन्तक
द्वारा दी गयी काव्य परिभाषा उल्लेखनीय है जो इस प्रकार है-
शब्दार्थों सहितौ
वक्रकविव्यापारशालिनि।
बन्थे व्यवस्थितौ काव्यं
तद्विदाह्लादकारिणि॥
-वक्रोक्तिजीवितम् १/७११
वक्र
कवि व्यापार से शोभित होने वाला तथा तद्विद (बुधजन) को आह्लादित करने वाला शब्दार्थ
सहित व्यवस्थित बन्ध काव्य कहलाता है। कुन्तक प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने
स्पष्टतया काव्य को "कवि व्यापार" कहा और इस व्यापार का
"वैशिष्ट्य", "वक्र" पद से
अभिहित किया।
काव्य परिभाषा में "कवि व्यापार" का समावेश कर कुन्तक ने सर्वप्रथम कवि
को महत्व दिया और कवि शक्ति को जन्मजात एवं अर्जित संस्कारों का परिपाक मानते हुए
कवि व्यापार की वक्रता को काव्य का प्राण कहा। वे कहते हैं- "वक्रोक्ति काव्यस्य जीवितम्" आनन्दवर्द्धन
द्वारा प्रतिपादित "ध्वनि" को काव्य की आत्मा के रूप में न स्वीकार कर कुन्तक
ने "वक्रोक्ति" को काव्य का जीवित माना और वक्रोक्ति के अनेक भेद-प्रभेद
करके वक्रोक्ति सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। कुन्तक की इस काव्य-परिभाषा का एक
वैशिष्ट्य यह भी है कि इन्होंने तद्विदजन के आह्लाद को काव्य-सौन्दर्य के मानदण्ड
रूप में परिगणित किया। इसके अतिरिक्त "शब्दार्थो सहितौ" के
"सहितौ" पद की विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या करने वाले प्रथम आचार्य भी
कुन्तक ही हैं। यद्यपि यह विस्तार उन्होंने अन्यत्र किया है, इस परिभाषा में नहीं तथापि उनके अनुसार "सहितौ" का तात्पर्य है
जहाँ शब्द और अर्थ में परस्पर प्रतिस्पर्धा का भाव हो और सौन्दर्य की दृष्टि से यह
निश्चित करना कठिन हो कि शब्द और अर्थ में किसका सौन्दर्य अधिक है, किसका न्यून? कुन्तक की काव्य-परिभाषा में उनके
पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा दिये गये काव्य-तत्वों का समाहार मिलता है। कुन्तक द्वारा
प्रतिपादित "वक्रोक्ति" को काव्यात्मा के रूप में स्वीकृति नहीं मिली। परवर्ती
आचार्य विश्वनाथ इस पर आपत्ति करते हुए कहते हैं कि वक्रोक्ति तो एक अलंकार मात्र
है, वह काव्य का जीवित कैसे हो सकता है?
लेकिन कुन्तक द्वारा प्रतिपादित "वक्रोक्ति" को एक अलंकार
विशेष के रूप में ग्रहण करना उनके सिद्धान्त को न समझने का परिणाम है और यह कुन्तक
के प्रति अन्याय है।
काव्य की आत्मा का अनुसन्धान करने वाले आचार्यों की श्रृंखला
में क्षेमेन्द्र का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने "औचित्य रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम्" कह कर औचित्य को
काव्य का जीवित कहा। बिना औचित्य के काव्य में रस की सृष्टि नहीं हो सकती।वस्तुतः
उचित का ही भाव होता है औचित्य। औचित्य की चर्चा भरतमुनि से ही प्रारम्भ हो गयी
थी। वैसे औचित्य के सर्वमान्य आचार्य हैं आनन्दवर्द्धन, औचित्य और ध्वनि परस्परोपकारक
तथ्यों के रूप में काव्यजगत में अवतीर्ण होते हैं। क्षेमेन्द्र अभिनवगुप्त के
शिष्य थे-ध्वनिवादी थे उन्होंने औचित्य को महनीय स्थान दिया। औचित्य को उन्होंने
साहित्य शास्त्र में व्यवस्थित रूप अवश्य दिया, लेकिन उसके वे उद्भावक नहीं थे। एक अन्य परिभाषा में उन्होने कहा- काव्यं विशिष्टशब्दार्थ साहित्यसदलङ्कृतिः।
तदनन्तर
आचार्य मम्मट द्वारा दी गयी काव्य परिभाषा इस प्रकार है- "तददोषौ शब्दार्थी सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि" ऐसा
शब्दार्थ जो दोषरहित एवं गुण युक्त हो कभी-कभी अनलंकृत होने पर भी काव्य कहलाता
है। इस परिभाषा में मम्मट ने "शब्दार्थों" के तीन विशेषण दिये हैं
"अदोषौ" "सगुणौ" और "अनलंकृती पुनः क्वापि" जिस पर
परवर्ती आचार्य विश्वनाथ, जयदेव एवं जगन्नाथ ने आपत्ति
की है। इतना ही नहीं, जगन्नाथ ने तो विशेष्य
"शब्दार्थो" पद पर भी आपत्ति की है। "अदोषौ" पद का काव्य
लक्षण में रखे जाने पर आपत्ति प्रकट करते हुए विश्वनाथ एवं जगन्नाथ कहते हैं कि-
1.
किसी भी पदार्थ के स्वरूप निर्देश में दोषाभाव का उल्लेख नितान्त अनुचित है। जैसे कीड़े
के खाने से रत्न का रत्नत्व नष्ट नहीं होता, उसका मूल्य भले
ही कम हो जाय वैसे ही श्रुति कटु आदि दोष होने से काव्य काव्यत्व से च्युत नहीं
होता। अतः लक्षण में "अदोष" पद की सार्थकता सिद्ध नहीं होती।
2."अदोष"
विशेषण से यह भी स्पष्ट नहीं होता कि एक दोष से रहित शब्दार्थ काव्य है या अनेक
दोषों से क्योंकि महाकवियों की रचना भी पूर्णतया दोषहीन नहीं होती। इस आक्षेप के
खंडन में यह कहा जा सकता है कि "अदोषौ" से मम्मट का तात्पर्य यह नहीं
था कि कोई भी दोष स्वरूपतः दोष होता है, उनका तो
अभिप्राय मात्र इतना ही था कि. जब वह रसानुभूति में बाधक हो तभी दोष है। वे साधारण
दोष के विद्यमान होने से काव्यत्व की हानि नहीं मानते। वे स्पष्टतया कहते हैं
"रसापकर्षका दोषाः"। मम्मट का काव्य लक्षण, आदर्श
तथा अनुपहसनीय काव्य के स्वरूप का निर्देश करता है इस दृष्टि से श्लाघ्य है। वस्तुत:
इस काव्य-लक्षण का प्रथम उपादेय अंश है-'अदोषौ' मम्मट से पूर्व वामन ने तथा इनके परवर्ती आचार्य हेमचन्द्र ने भी
निर्दोषत्व को काव्य का आवश्यक अंग बतलाया है। "सगुणौ" पद पर आक्षेप
करते हुए विश्वनाथ कहते हैं कि काव्यलक्षण में "सगुण" विशेषण भ्रामक और
अनावश्यक है। क्या शौर्यविहीन प्राणी मनुष्य नहीं कहलायेगा? दूसरा
तर्क वे यह देते हैं कि गुण (प्रसाद, माधुर्य, ओज) तो रस के धर्म होते हैं शब्द और अर्थ के नहीं, अतः
मम्मट का यह प्रयोग दोषपूर्ण है। तीसरा तर्क यह है कि गुण युक्त शब्दार्थ को ही
काव्य मानने से अनेक वाक्यों को काव्य नहीं कहा जायेगा, क्योंकि
वक्ता और श्रोता के वैशिष्ट्य से भी काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है। जैसे
"जो मैं राम त कुल सहित, कहहि दसासन जाय" में वक्ता
ने अपने "राम" नाम के प्रयोग द्वारा वाक्य में सौन्दर्य का समावेश किया
है।
वस्तुतः
मम्मट को इस तथ्य की जानकारी थी कि "गुण" रस के धर्म हैं लेकिन जिस प्रकार
शौर्य और वीर्य शरीर के धर्म नहीं हैं, लेकिन लोक
व्यवहार में शरीर के धर्म कहे जाते हैं उसी प्रकार यहाँ पर गुण को
"शब्दार्थ" का विशेषण कहा गया है। सर्वाधिक आक्षेप मम्मट के
"अनलंकृती पुनः क्वापि" पर किया गया। मम्मट ने कहीं-कहीं अलंकारविहीन
काव्य को भी काव्य की संज्ञा दी। इस पर सबसे पहला प्रहार जयदेव ने किया और कहा कि
ऐसा कहना उतना ही हास्यास्पद है जितना अग्नि को उष्णता से विहीन कहना।
आचार्य
विश्वनाथ के अनुसार, गुणों के समान अलंकार भी
काव्य के उत्कर्ष विधायक मात्र है उनमें काव्य का स्वरूप निर्धारण करने की क्षमता
नहीं है अत: काव्य लक्षण में इसे स्थान नहीं मिलना चाहिये था। वस्तुतः मम्मट के इस
कथन पर आक्षेप करना उनके कथन को पूर्ण रूप से न समझने का परिणाम है। मम्मट का
अलंकारविहीन काव्य से तात्पर्य था "स्फुटालंकार-विरह" अर्थात जहाँ
अलंकार स्फुट रूप में न हो वहाँ भी काव्य होता है, जैसे
घनानन्द के प्रस्तुत पद में विषम वियोग से सन्तप्त किसी सुन्दरी की पूर्वावस्था की
तुलना वर्तमान दीन-दशा से की गयी है जिसमें कोई अलंकार स्फुट रूप में नहीं,
लेकिन इसे काव्य सौन्दर्य से हीन नहीं कहा जा सकता--
'तब हार पहार से लागत हैं, अब बीच में आनि पहार अरे'
आचार्य
जगन्नाथ मम्मट के "शब्दार्थों" पद पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि
काव्यत्व न तो शब्द और अर्थ की समष्टि में होता है, न दोनों की व्यष्टि में अलग-अलग काव्यत्व होता है, अपितु केवल
"शब्द" में काव्यत्व होता है। जैसे लोकव्यवहार में भी कहा जाता है,
कि "काव्य सुना पर अर्थ समझ में नहीं आया" यहाँ काव्य
"शब्द" का वाचक है। यह तर्क निराधार है, शब्द तथा
अर्थ के सहित भाव में काव्यत्व मानने वाला मत ही बहुजन समाहत है।
वस्तुत: मम्मट का काव्यलक्षण आदर्श
काव्य के स्वरूप का परिचायक है। रस को लक्ष्य करके प्रवृत्त होने वाला रचनाकार गुण
की ओर दृष्टिपात करता ही है और इसके साथ ही दोष से भी बचने का प्रयास करता है। मम्मट
के पश्चात् आचार्य विश्वनाथ ने काव्य को इस प्रकार परिभाषित किया- "वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्"-साहित्यदर्पण इसमें
काव्य की रसात्मकता पर बल है और "वाक्य" को काव्य कहा गया जबकि अब तक
"शब्दार्थ" को काव्य कहा गया है। पंडितराज जगन्नाथ ने विश्वनाथ की
परिभाषा को अव्याप्ति दोष से ग्रस्त बतलाया और कहा कि जिस काव्य में वस्तु और
अलंकार प्रधान है वहाँ यह लक्षण समन्वित नहीं हो सकता।
आचार्य जगन्नाथ का काव्यलक्षण है- रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् ।रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द काव्य है। इस
लक्षण में कुछ लोग आपत्ति उठाते हैं कि काव्य में सदैव अर्थ की रमणीयता नहीं रहती।
वाक्य में रमणीयता प्रतिपादित होती है अतः यहाँ रमणीय अर्थ देने वाला वाक्य काव्य
होना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है कभी-कभी शब्द में भी अर्थ की उपयुक्तता सिद्ध की जा
सकती है। हाँ यह सही है कि पूर्णार्थद्योतक वाक्य ही होता है। चमत्कार शब्द एवं
अर्थ दोनों में होता है नहीं तो शब्दालंकार और अर्थालंकार की जरूरत ही नहीं पड़ती।
इसलिए यहाँ रमणीयता शब्द और अर्थ दोनों की है।
16.काव्यं
रसादिमद्वाक्यं श्रुतिसुखविशेषकृत। शौद्धौदनि
17.साधु
शब्दार्थ सन्दर्भ गुणालंकार विभूषितम् ।
स्फुटरीति रसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तयै । केशव मिश्र
18. शब्दार्थयोर्थावत
सहभावेन विद्य साहित्य विद्या- राजशेखर
19- निर्दोषं गुणवत् काव्यालङ्कारैरलंकृतम्। रसात्मकं कविः कुर्वन् कीर्तिं प्रीतिं च विन्दति।- भोज
20- निर्दोषा लक्षणवती सरीतिगुणगुम्फिता। सालङ्काररसानेकवृत्तिर्वाक् काव्यनामभाक्।-जयदेव
21- साधुशब्दार्थसन्दर्भगुणालङ्कारभूषितम्। स्फुटरीतिरसोपेतं काव्यं कुर्वीत कीर्तये। वाग्भट
22- शब्दार्थवपुस्तावत् काव्यम्। विद्याधर
23- गुणालङ्कारसहितौ शब्दार्थौ दोषवर्जितौ, गद्यपद्योभयमयं काव्यं काव्यविदो विदुः, इति। विद्यानाथ
24- सगुणालङ्कृती काव्यं पदार्थौ दोषवर्जितौ। धर्मसूरि
25. तत्र निर्दोषशब्दार्थगुणत्वे सति स्फुटम्, गद्यादिबन्धरुपत्वं काव्यसामान्यलक्षणम् । अच्युतराय
26- गुणालङ्कारसंयुक्तौ शब्दार्थौ रसभावगौ, नित्यदोषविनिर्मुक्तौ काव्यमित्यभिधीयते। न्यायवागीश
हिन्दी आचार्यों द्वारा भी काव्य की परिभाषा दी गयी है-
जदपि सुजात सुलक्षनी सुबरन सरस सुवृत्त
भूषन बिनु न विराजई कविता वनिता मित्त ।। केशवदास
यद्यपि
दोष बिनु,गुन सहित,अलंकार सो लीन ।
कविता
वनिता छवि नहीं, रस बिन तदपि प्रवीन ।। श्रीपति (काव्य सरोज)
बत
कहाउ रस मैं जु है कवित्त कहावै सोय ।
सगुण
अलंकारन सहित,दोष रहित जो होइ ।
शब्द
अर्थ वारौ कवित, बिबुध कहत सब कोइ ।। चिंतामणि
(कविकुलकल्पतरु)
दोष
रहित अरू गुन सहित कछुक अल्प अलंकार ।
शब्द-अर्थ
सो कवित्त है ताको करो विचार ।। (रस -रहस्य)
जग
ते अद्भुत सुभ सदन शब्दरू अर्थ कवित्त ।
यह
लक्षण मैंने कियो समुझि ग्रन्थ बहुचित्त ।।
शब्द
जीव तिहिं अरथमय रसमय सुजस शरीर ।
चलत
वहै जुग छन्द गति अलंकार गम्भीर ।। देव (काव्य
रसायन)
बरनन
मनरंजन जहाँ, रीति अलौकिक होइ ।
निपुन
कर्म कवि कौ जु तिहिं काव्य कहत सब कोइ ।। सूरति मिश्र (काव्य सिद्धान्त)
सगुन
पदारथ दोष बिनु पिंगल मत अविरुद्ध
भूषण
जुत कवि कर्म जो सो कवित्त कहि बुद्ध ।। सोमनाथ
पण्डित
और प्रवीनन क जो चित्त हरै सो कवित्त कहावै- ठाकुर
व्यंग्य
जीव कहि कवित को हृदय सु धुनि पहिचानि ।
शब्द
अर्थ कहि देह पुनि भूषण-भूषण आनि ।। प्रताप साहि (काव्य
विलास)
कविता
प्रभावशाली रचना है जो पाठक या श्रोता के मन पर आनन्दमयी प्रभाव डालती है । महावीर
प्रसाद द्विवेदी
अन्तःकरण
की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है । महावीर
प्रसाद द्विवेदी ।
सत्वोद्रेक
य हृदय की मुक्तावस्था के लिए किया हुआ शब्दविधान काव्य है ।
जिस
प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की यह
मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है । हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी
जो शब्दविधान करती आयी है से कविता कहते हैं । रामचन्द्र
शुक्ल
काव्य
आत्मा की संकल्पनात्कम अनुभूति है जिसका सम्बन्ध विश्लेषण विकल्प या विज्ञान से
नहीं है वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है । जयशंकर
प्रसाद
कविता
कवि विशेष की भावनाओं का वर्णन है और वह चित्रण इतना ठीक है कि उससे वैसी ही भावनाएँ
किसी दूसरे के हृदय में आविर्भूत होती हैं ।- महादेवी
वर्मा
कविता
हमारे परिपूर्ण छणों की वाणी है ।- सुमित्रानन्दन
पन्त
अंग्रेजी के आचार्यों ने काव्य के लक्षण इस प्रकार दिये हैं-
कविता सुस्पष्ट संगीत है- ड्राइडन (Poetry is articulate music.-Dryden)
मुँह
में बचे हुए/ चावल के स्वाद को / कुछ अदृश्य कँकड़ियों के हस्तक्षेप से बचाने का
नाम है कविता- केदारनाथ सिंह ।
कविता
/ शब्दों की अदालत में / अपराधियों के कटघरे में एक निर्दोष आदमी का हलफनामा है ।
धूमिल
कविता
भाषा में आदमी होने की तमीज है- धूमिल
कविता
सबसे पहले शब्द है और अन्त में भी यहीं बात रह जाती है कि कविता शब्द है ।-अज्ञेय
6 टिप्पणियां:
कोटि कोटि धन्यवाद महोदय
आभार महोदय
ज्ञानवर्धक तिवारी जी
सर्वेश्वर जी आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत बहुत धन्यवाद
सपने में खुद को गर्भवती देखने का क्या मतलब <a "https://newsak47.in/sapane-mein-bandar-dekhana/"
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