श्री स्वामिने नमः
श्री स्वामी परमहंस जी का संक्षिप्त इतिहास
हमारा भारत देश संसार की
वह पावन भूमि है, जहाँ अतीत काल से ही ऐसे नर-नारी जन्म लेते आये हैं, जो अपने त्याग,तपस्या वीरता एवं सेवा से देवताओं के समान
पूज्य हो गए हैं । उन्हीं में से हमारे आराध्य स्वामी श्री परमहंस जी महाराज भी हैं
जो कि अपनी दिव्य तपस्या से सबके वन्दनीय हो गए हैं ।
श्री स्वामी जी
का जन्म-स्थान ग्राम-कल्यानपुर, तहसील- मुसाफिरखाना,
जिला-अमेठी है । आपके पिता श्री रामानन्द जी द्विवेदी थे जो कि व्याकरण
व ज्योतिष के अद्वितीय विद्वान थे । आपने एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर अपनी
कठोर तपस्या से अभूतपूर्व ख्याति अर्जित की
। 15 वर्ष की छोटी सी अवस्था में आप अपना घर-परिवार छोड़कर निकल पड़े और भयानक
जंगलों तथा पर्वतों की गुफाओं में निवास करते हुए कठिन तपस्या की । परमपिता परमात्मा
की कृपा से आपका मनोरथ पूर्ण हो गया और आप एक सिद्ध सन्त हो गए । तत्पश्चात परोपकाराय
सतां विभूतयः को अपना सिद्धान्त बनाकर अनेकों दुख-पीड़ित मनुष्यों के दुख को दूर किया
। अल्पकाल में ही आपकी उज्जवल कीर्ति संसार को प्रकाशित करती हुयी सर्वत्र व्याप्त
हो गयी ।
यह अति सौभाग्य
है कि आपने अपना आश्रम टीकरमाफी में बनाया और यहाँ पर गौशाला तथा संस्कृत महाविद्यालय
स्थापित किया । यह विद्यालय एक आदर्श विद्यालय है । सघन कानन के मध्य सुरम्य स्थल स्थित
यह सरस्वती मन्दिर प्राचीन गुरुकुलों की याद दिलाता है । यहाँ विद्यार्थियों को प्रथमा
से आचार्य पर्यन्त निःशुल्क शिक्षा दी जाती है । तथा विद्यार्थियों को भोजन व वस्त्र
भी प्रदान किया जाता है । उनके निवास के लिए छात्रावास की भी व्यवस्था है ।
स्वामी जी फाल्गुन
शुक्लपक्ष त्रयोदशी दिन- मंगलवार, सन् 1947 को
ब्रह्मलीन हो गए । उनके पुण्य स्मृति में प्रत्येक वर्ष उसी तिथि को श्री रुद्रमहायज्ञ
व भण्डारे का आयोजन किया जाता है । स्वामी जी के ब्रह्मलीन हो जाने पर उनके दिव्य समाधि
का निर्माण आश्रम में किया गया है जहाँ प्रतिदिन
आश्रम में महात्माओं, अध्यापकों, छात्रों
व दर्शनार्थियों के द्वारा प्रातः व सायं दोनों वेला में स्तुति की जाती है । स्तुति
के पश्चात प्रसाद वितरण होता है ।
यद्यपि स्वामी
जी कीर्ति का वर्णन सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है फिर भी यथाशक्ति जैसी स्तुति
यहाँ पर प्रतिदिन होती है उसे प्रस्तुत किया जा रहा है ।
इस पुस्तक के
लघु कलेवर का प्रकाशन सर्वप्रथम यहाँ के स्वनामधन्य सन्त स्वामी शान्तानन्द जी ने कराया
था उसी का पुनः संस्करण आपकी सेवा में उपस्थित करते हुए महान हर्ष का अनुभव हो रहा
है ।
प्रकाशक
श्री स्वामी परमहंस स्तुति
योऽहर्दिवं पोषयते जनानां, वृन्दं स्वपोषं शरणागतानाम् ।
संतर्पयन् स्वस्वमनोरथैश्च, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।। 1
जो शरण में आए हुये जनसमूह के प्रति अभिलाषाओं की पूर्ति करते
थे और अपने ही धन से सबका पोषण करते थे, उन सर्वश्रेष्ठ
श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है।
संलग्न चित्तं सुरवाक् प्रचारे, श्रीसच्चिदानन्दविचार चेताः ।
योस्त्यत्रलोके करुणावतारं, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।। 2
संस्कृत विद्या के प्रचार में तथा ब्रह्म विवेचन में ही जिनका चित्त सदैव लगा रहता था और जो इस लोक में साक्षात
करुणा के अवतार थे, उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी
को नित्य प्रणाम है ।
मानापमानेऽपि च शत्रु -मित्रे, लाभेप्यलाभेऽपि च तुल्य वृत्तिः ।
योऽशेष जीवेषु च साधु शीलं, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।3
जो मान-अपमान, शत्रु-मित्र,
लाभ-हानि को एक बराबर मानते थे और सब जीवों पर साधुता का व्यवहार करते
थे, उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।
यः सन्ततं तर्पयते सुराणां वृन्दं जगत्पावनमीश्वरञ्च।
सायं च प्रातर्निगमाग्निहोत्रैः, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।4
जो
जगत को पालन करने वाले, देश समूह को और ईश्वर को सायं
काल और प्रातःकाल वेदपाठ द्वारा तथा अग्निहोम के द्वारा तृप्त करते थे उन सर्वश्रेष्ठ
श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।।
घर्मं च शीतं सहते च वृष्टिं, गच्छन् श्वभिश्छात्रवरैश्च भूमिम् ।
योहर्दिवं दीनदयालु दृष्टिं, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।5
जो
कुत्तों एवं श्रेष्ठ छात्रों के साथ पृथ्वी पर विचरते हुए धूप,शीत एवं वर्षा को सहते थे तथा प्रतिदिन जिनकी दीनों पर दया दृष्टि रहती थी
उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।
यस्यार्थियनोयान्ति नखिन्नचित्ताः, शत्रुश्चनस्यादिहकोपिबन्धुः ।
श्रीमन्महाराजधुरन्धराय, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।6
जिनके
यहाँ याचक लोग आकर कभी भी निराश होकर नहीं लौटे और न जिनका कोई मित्र था न शत्रु, उन सर्वसमर्थ सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।
मध्ये यतीनां परिवर्णनीयः, सद्भिःसमस्तै रविवन्दनीयः
योऽसौ परिव्राजकराजराजः, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।7
जो
सम्पूर्ण सन्यासियों के मध्य में वर्णनीय थे तथा सम्पूर्ण सज्जनों से वन्दनीय थे और
योगियों के योगिराज थे उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।।
यद् दर्शनं श्रेष्ठकरं नराणां, यद् ब्रह्मचर्यं भुविनास्त्यनेकम् ।
यस्मिन्न कामादि गणोपवेशः तस्मै नमः स्वामिवराय
नित्यम् ।।8
जिनका दर्शन मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ बनाने वाला था, और जिनमें किसी प्रकार का कामादि (काम,क्रोध,
लोभ, मोह, मद, मात्सर्य) का प्रवेश भी नहीं हुआ था । उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य
प्रणाम है ।
स्वामिन् त्वदीयौ चरणाब्जकेशरौ, सुशोभितौ रक्त नखावलीकुलैः ।
मुहुर्मुहुर्योगिकराभिलालितौ, पुनः-पुनः काञ्छति मन्मधुव्रतः ।।
हे स्वामिन् आपके चरणारविन्द के केशर को जो कि आपके लाल-लाल
नख समूहों से सुशोभित थे और योगियों के करों से पुनः-पुनः पूजित थे उन्हें भ्रमररुपी
मैं आपका अनन्य सेवक सदैव चाहता हूँ ।
विजेजीयतां पाठशाला दिगन्ते अधीतां सुखैश्छात्रमालाचिरन्ते
।
चिरन्टीवकीर्तिं सदानूतनाते, हसन्ती रमन्ती विरामं न यायात् ।। 10
आपका
विद्यालय सर्वत्र विजयी रहे तथा छात्रवृन्द सुख से सदैव अध्ययन करते रहें और युवती
की तरह आपकी नित्य नूतन कीर्ति हँसती हुयी सर्वत्र रमण करे, कभी भी विश्राम न करे ।।
श्लोक
त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव वन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव सर्वं मम देव देव ।।
दोहा
बार-बार बर मागहुँ, हरषि देहुँ श्रीरंक ।
पद सरोज अनपायनी, भक्ति सदा सत्संग ।।1
नहिं विद्या नहिं बाहुबल नहिं खरचन को दाम ।
मो सम पतित अनाथ के, पति राखहुँ भगवान ।।2
अर्थ न धर्म न काम रुचि, गति न चहहुँ निर्वान ।
जन्म जन्म श्री स्वामि पद, यह अन्तिम वरदान ।।3
सुनहुँ राम रघुनाथ जी, तुम लग मेरी दौर ।
जैसे काग जहाज को, सूझत और न ठौर ।।4
हरहुँ सकल दुख, सुख करहुँ, देखि दीनता मोरि ।
मैं सेवक तुम स्वामि मम, विनय करहुँ कर जोरि ।। 5
तुम बिन मेरा कौन है, हे अनाथ के नाथ ।
इस असार संसार से, पकरि उबारहुँ हाँथ ।। 6
पितु
मातु सहायक स्वामि सखा, तुमही एक नाथ हमारे हो ।
जिनके
कछु और अधार नहीं,
तिनके तुम ही रखवारे हो ।
प्रतिपाल
करौं सिगरे जग को,
अतिशय करुणा उर धारे हो ।
भुलिहौं
हमही तुमको,
तुम तो, हमरी सुधि नाहिं बिसारे हो ।
उपकारन
को कछु अन्त नहीं,
क्षण ही क्षण जो विस्तारे हो ।
महराज
महा- महिमा तुम्हरी, समुझै विरलै बुधि
वारे हो
शुभ
सन्तन के तुम प्रेमनिधे, मन-मन्दिर के उजियारे हो ।
इस
जीवन के तुम जीवन हो, इन प्राणन से तुम प्यारे हो ।।
नाथ
एक बर मागहुँ,
मोहि कृपा करि देहुँ ।
जन्म
जन्म श्री स्वामि पद, कबहुँ न घटिय सनेह ।।
मो
सम दीनन दीन हित,
तुम समान रघुवीर ।
अस
बिचारि रघुवंशमणि,
हरहुँ सकल भवभीर ।
श्रवण
सुयश सुनि आयहुँ,
प्रभु भंजव भव भीर ।
त्राहि-त्राहि
आरति हरन,
परमहंस मतिधीर ।।
आपन
दारुण दीनता,
सबहिं कहेहुँ समुझाइ ।
बिनु
देखे श्री स्वामि पद, जिय की जरनि न जाइ ।।
श्रीरामचन्द्र स्तुति
श्रीरामचन्द्र कृपालु- भज- मन- हरण भवभय दारुणं,
नवकंज -लोचन कंज- मुख करकंज- पद कंजारुणं।
कन्दर्प अगणित- अमित- छवि -नव -नील- नीरद -सुन्दरं,
पटपीत मानहुँ तड़ित- रुचि- सुचि -नौमि जनक सुतावरं,
भजु दीनबन्धु- दिनेश- दानव- दैत्यवंश- निकन्दनं,
रघुनन्द-आनन्द-कन्द कौशल-चन्द दशरथ-नन्दनं ,
सिरमुकुट- कुण्डल- तिलक- चारु उदार अंग- विभूषणं,
आजनभुज- सर- चाप धर- संग्राम -हित- खरदूषणं,
इति वदति तुलसीदास शंकर -शेष -मुनि- रंजनम् ,
मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि- खल- दल- गंजनम्,
श्रीरामचन्द्र कृपालु -भजमन-
हरण -भवभय- दारुणम् ।।
त्वमेव
माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव
वन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव
विद्या द्रविणं त्वमेव,
त्वमेव
सर्वं मम देव देव ।।
हरे
राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे
कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे
स्वामिन् हरे स्वामिन् स्वामिन् स्वामिन् हरे हरे ।।
शान्ताकारं
भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ।
विश्वाधारं
गगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम् ।।
लक्ष्मीकान्तं
कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।
वन्दे
विष्णुं भवभयहरणं सर्वलोकैकनाथम् ।।
ध्येयं
सदा परिभवघ्नमभीष्ठदोऽहं,
तीर्थास्पदं
शिवविरंचि नुतं शरण्यम् ।
भृत्यार्थिहं
प्रणतपाल भवाब्धिपोतं,
वन्दे
महापुरुषते चरणारविन्दम् ।।
लोकाभिरामं
रणरंकधीरं, राजीवनेत्रंरघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरूपं
करुणाकरन्तम्, श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये
।।
हे
नाथ नारायण दीनबन्धो, कृपाविधेयामहिपाप सिन्धौ
।
निरर्थकं
जन्मगतं मदीयं, न चिन्तितं ते चरणारविन्दम् ।।
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