रस अलंकार शब्दशक्ति

शास्त्री प्रथमवर्ष
सप्तम प्रश्नपत्र
रस, अलंकारशब्दशक्ति


सम्पादनकर्ता
चन्द्रदेव त्रिपाठी “अतुल”

श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी,अमेठी ।



रस

नहि रसादृते कश्चिदप्यर्थः प्रवर्तते (नाट्यशास्त्र)
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।  पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है। रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है । रस के सन्दर्भ में भरतमुनि’ का प्रसिद्ध सूत्र-
विभावानुभावव्यभिचारिभावसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः ।
अर्थात विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है । भरतमुनि ने रसों की संख्या आठ मानी है ।

विभिन्न सन्दर्भों में रस का अर्थ-
एक प्रसिद्ध सूक्त है- रसौ वै स:। अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। 'कुमारसम्भव' में पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रूचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अनुभूति के लिए 'कुमारसम्भव' में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आनन्द और प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।

भर्तृहरि सार, तत्व और सर्वोत्तम भाग के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग करते हैं। 'आयुर्वेद' में शरीर के संघटक तत्वों के लिए रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। सप्तधातुओं को भी रस कहते हैं। पारे को रसेश्वर अथवा रसराज कहा है। पारसमणि को रसरत्न कहते हैं। मान्यता है कि पारसमणि के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है। रसज्ञाता को रसग्रह कहा गया है। 'उत्तररामचरित' में इसके लिए रसज्ञ शब्द प्रयुक्त हुआ है। भर्तृहरि काव्यमर्मज्ञ को रससिद्ध कहते हैं। 'साहित्यदर्पण' प्रत्यक्षीकरण और गुणागुण विवेचन के अर्थ में रस परीक्षा शब्द का प्रयोग करता है। नाटक के अर्थ में रसप्रबन्ध शब्द प्रयुक्त हुआ है।
 आचार्यों ने रसों को दो भागों में विभाजित कर दिया।
1.     सुखात्मक वर्ग- श्रृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत और शान्त, ये पाँच रस अनुकूल वेदनीय होने के नाते सुखात्मक वर्ग में रखे गए ।
2.    दुखात्मक वर्ग- करुण, रौद्र, वीभत्स और भयानक, ये चार रस प्रतिकूल वेदनीय होने से दु:खात्मक वर्ग में माने गए।
रसों के इस वर्ग विभाजन का मूल स्रोत काफ़ी पुराना है, यद्यपि सर्वाधिक प्रसिद्धि इसके लिए रामचन्द्र गुणचन्द्र को ही मिली। उनके ‘नाट्यदर्पण’ की 109वीं कारिका है - ‘सुखदु:खात्मक को रस:।’ ‘नाट्यशास्त्र’ की ‘अभिनव भारती’ टीका में भी कहा गया है - ‘सुख-दु:खस्वभावो रस:’, अर्थात रस सुख-दु:ख स्वभाव वाले होते हैं। यह ‘नाट्यदर्पण’ से पहले की रचना है ।

रसों की संख्या- नाटक में भरतमुनि के अनुसार रसों की संख्या आठ (8) ही मानी गयी है । यद्यपि काव्य में नौ, दस, ग्यारह तक रसों की संख्या विद्वानों द्वारा स्वीकृत हुई है ।
श्रृंगारहास्यकरुणरौद्रवीरभयानकाः । वीभत्साद्भुतौसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः ।।


रस के अवयव
रस के चार अवयव या अंग हैं:-
1.स्थायी भाव- स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है । वे मुख्य भाव जो रसत्व को प्राप्त हो सकते हैं स्थायीभाव कहलाते हैं । स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों वात्सल्य और भगवद विषयक रति को स्थायी भाव की मान्यता दी है। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है।
2.विभाव- स्थायी भावों के उद्बोधक कारण को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं-
1.आलंबन विभाव, 2.उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव-  जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे- नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं:-आश्रयालंबन, विषयालंबन - जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।
उद्दीपन विभाव- जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।



3. अनुभावमनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर-विकार अनुभाव कहलाते हैं। इनकी संख्या 4 मानी गयी है ।
1.कायिक –शरीर के विविध अंग प्रत्यंगों की  सहज चेष्टाओं को कायिक अनुभाव कहते हैं ।
माथे लखन कुटिल भइ भौंहे । रद पट फरकत परम रिसौंहे ।।

 2.मानसिक -  जहाँ मन के द्वारा सहज चेष्टाएँ की जाती हैं वहाँ पर मानसिक अनुभाव होता है ।
देखि मनई मन कीन्ह प्रनामा

3.वाचिक- नायकादि का किसी  भाव व्यापार के वशीभूत होकर वाणी द्वारा उसकी अभिव्यक्ति को वाचिक अनुभाव कहते हैं।
जौ तुम्हार अनुसासन पावौं । कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं ।
काचे घट जिमि डारौ फोरी । सकउँ मेरू मूलक जिमि तोरी ।।

 4.सात्विक- सात्विक अनुभावों की संख्या 8 मानी गई है-
स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर-भंग, कम्प, विवर्णता (रंगहीनता), अश्रु, प्रलय (संज्ञाहीनता या निश्चेष्टता)।


4.संचारी या व्यभिचारी भाव- संचारी या व्यभिचारी भाव- मन में संचरण करने वाले (आने-जाने वाले) भावों को संचारी या व्यभिचारी भाव कहते हैं। संचारी भावों की कुल संख्या 33 मानी गई है-
हर्ष
विशाद
त्रास
लज्जा
ग्लानि
चिंता
शंका
असूया
अमर्श
मोह
गर्व
उत्सुकता
उग्रता
चपलता
दीनता
जड़ता
आवेग
निर्वेद[
धृति
मति
बिबोध
श्रम
आलस्य
निद्रा
स्वप्न
स्मृति
मद
उन्माद
अवहित्था
अपस्मार (मूर्च्छा)
व्याधि (रोग)
मरण




रस
स्थायी भाव
उदाहरण
रति/प्रेम
रंग- श्याम
देवता-विष्णु
श्रृंगार रस (संभोग श्रृंगार)
बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय। 
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय।         
वियोग श्रृंगार (विप्रलंभ श्रृंगार)
निसिदिन बरसत नयन हमारे, 
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥
हास
रंग-श्वेत
देवता- प्रमथ
 बार-बार बैल को निपट ऊचों नाद सुनि,
हुंकरत बाघ विरूझानों रस रेला मैं ।
भूधर भनत ताकी बास पाय सोर करि,
कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला मै ।
फुंकरत मूषक को दूषक भुजंग तासो ,
जंग जुरिबे को झुक्यो मोर हद हेला मैं ।
आपुस में पारसद कहत पुकारि कछु,
रारि सी मची  है त्रिपुरारि के तबेला में ।।
शोक
रंग- कपोतवर्ण
देवता- यम
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥ 
करहिं विलाप अनेक प्रकारा। परिहिं भूमि तल बारहिं बारा॥
उत्साह
 रंग- गौर
देवता- महेन्द्र
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। 
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो। 
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं॥ (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)
क्रोध
रंग- रक्त लाल
देवता- रुद्र
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। 
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥ 
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। 
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥
भय
रंग-काला
देवता- कालदेव
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। 
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों - सी॥
जुगुप्सा/घृणा
रंग-नील वर्ण
देवता- महाकाल
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। 
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत॥ 
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै माँस उपारत। 
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत॥(भारतेन्दु)
विस्मय/आश्चर्य
रंग-ब्रह्मा
देवता- पीत
अखिल भुवन चर- अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। 
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥(सेनापति)
शम\निर्वेद कुन्द पुष्प विष्णु
मन रे तन कागद का पुतला। 
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना॥ (कबीर)
वात्सल्य
किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। 
मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत॥
भगवद् विषयक रति\अनुराग
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। 
घोर भव नीर- निधि, नाम निज नाव रे॥
श्रृंगार रस
श्रृंगार  रस को रसराज या रसपति कहा गया है। मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता हैकिंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक परिस्थितियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्धनायिकारब्ध अथवा उभयारब्धप्रकाशन के विचार से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के विचार से संक्षिप्तसंकीर्णसंपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद किए जाते हैं तथा विप्रलंभ के पूर्वानुराग या अभिलाषहेतुकमान या ईश्र्याहेतुकप्रवासविरह तथा करुण प्रिलंभ नामक भेद किए गए हैं। श्रृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकारऋतु तथा प्रकृति का भी वर्णन किया जाता है।
उदाहरण
संयोग श्रृंगार- जहाँ पर रति स्थायी भाव प्रिय के संयोग से परिपुष्ट होकर विविध अनुभावों और संचारियों के द्वारा प्रकट होता है ।

                                     बतरस लालच लाल कीमुरली धरि लुकाय।
सौंह करेभौंहनि हँसैदैन कहैनटि जाय। -बिहारी लाल


विप्रलम्भ श्रृंगार-  भोजराज ने विप्रलम्भ श्रृंगार की यह परिभाषा दी है-जहाँ रति नामक भाव प्रकर्ष को प्राप्त करेलेकिन अभीष्ट को न पा सकेवहाँ विप्रर्लभ- श्रृंगार कहा जाता है। भानुदत्त का कथन है-युवा और युवती की परस्पर मुदित पंचेन्द्रियों के पारस्परिक सम्बन्ध का अभाव अथवा अभीष्ट अप्राप्ति विप्रलम्भ है। साहित्यदर्पण’ में भोजराज की परिभाषा दुहराई गई है-यत्र तु रति: प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भोऽसौ। इन कथनों में अभीष्ट का अभिप्राय नायक या नायिका से है। उक्त आचार्यों ने अभीष्ट की अप्राप्ति ही विप्रलम्भ की निष्पत्ति के लिए आवश्यक मानी है। लेकिन पण्डितराज ने प्रेम की वर्तमानता को प्रधानता दी है। उनके अनुसार यदि नायक-नायिका में वियोगदशा में प्रेम हो तोवहाँ विप्रलम्भ श्रृंगार होता है। उनका कथन है कि वियोग का अर्थ है यह ज्ञान की मैं बिछुड़ा हूँ’, अर्थात् इस तर्कणा से वियोग में भी मानसिक संयोग सम्पन्न होने पर विप्रलम्भ नहीं माना जायेगा। स्वप्न-समागम होने पर वियोगी भी संयोग माना जाता है।
इसे पाँच  भागों में विभक्त किया गया है । पूर्वराग, मान, प्रवास, विरहात्मक, करूणात्मक ।
वियोग की दस दशाएँ मानी गयी हैं- अभिलाष, चिन्ता, स्मरण, गुणकथन, उद्वेग, उन्माद, प्रलाप, व्याधि, जड़ता और मरण ।

                                                निसिदिन बरसत नयन हमारे,
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ -सूरदास
हास्य रस
 साहित्यदर्पणमें कहा गया है - "बागादिवैकृतैश्चेतोविकासो हास इष्यते", अर्थात वाणीरूप आदि के विकारों को देखकर चित्त का विकसित होना हास’ कहा जाता है। हास्य रस का स्थायी भाव हास है। इसके देवता विष्णु से भिन्न शैव प्रथम’ अर्थात् शिवगण है। यथा - "हास्य प्रथमदेवत:।"
पण्डितराज का कथन है - 'जिसकीवाणी एवं अंगों के विकारों को देखने आदि सेउत्पत्ति होती है और जिसका नाम खिल जाना हैउसे हास’ कहते हैं।"  भरतमुनि ने कहा है कि दूसरों की चेष्टा से अनुकरण से हास’ उत्पन्न होता हैतथा यह स्मितहास एवं अतिहसित के द्वारा व्यंजित होता है "स्मितहासातिहसितैरभिनेय:।"   भरत ने त्रिविध हास का जो उल्लेख किया हैउसे हास’ स्थायी के भेद नहीं समझना चाहिए।
केशवदास ने चार प्रकार के हास का उल्लेख किया है - मन्दहास, कलहास, अतिहास एवं
परिहास
अन्य साहित्यशास्त्रियों ने छ: प्रकार का हास बताये है – स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित, अतिहसित।
हरिऔध’ के अनुसार -
Ø  जब नेत्रों तथा कपोलों पर कुछ विकास हो तथा अधर आरंजित होंतब स्मित होता है।
Ø  यदि नेत्रों एवं कपोलों के विकास के साथ दाँत भी दीख पड़ें तो हसित होता है।
Ø  नेत्रों और कपोलों के विकास के साथ दाँत दिखाते हुए जब आरंजित मुख से कुछ मधुर शब्द भी निकलेंतब विहसित होता है,
Ø  विहसित के लक्षणों के साथ जब सिर और कन्धे कंपने लगेंनाक फूल जाए तथा चितवन तिरछी हो जाएतब उपहसित होता है।
Ø  आँसू टपकाते हुए उद्धत हास को उपहसित तथा आँसू बहाते हुए ताली देकर ऊँचे स्वर से ठहाका मारकर हँसने को 'अतिहसित’ कहते हैं।

उदाहरण
बार-बार बैल को निपट ऊचों नाद सुनि,
हुंकरत बाघ विरूझानों रस रेला मैं ।
भूधर भनत ताकी बास पाय सोर करि,
कुत्ता कोतवाल को बगानो बगमेला मै ।
फुंकरत मूषक को दूषक भुजंग तासो ,
जंग जुरिबे को झुक्यो मोर हद हेला मैं ।
आपुस में पारसद कहत पुकारि कछु,
रारि सी मची  है त्रिपुरारि के तबेला में ।।


वीर रस

श्रृंगार के साथ स्पर्धा करने वाला वीर रस है। श्रृंगाररौद्र तथा वीभत्स के साथ वीर को भी भरत मुनि ने मूल रसों में परिगणित किया है। वीर रस से ही अदभुत रस की उत्पत्ति बतलाई गई है। वीर रस का 'वर्ण' 'स्वर्णअथवा 'गौरतथा देवता इन्द्र कहे गये हैं। यह उत्तम प्रकृति वालो से सम्बद्ध है तथा इसका स्थायी भाव उत्साह’ है - अथ वीरो नाम उत्तमप्रकृतिरुत्साहत्मक: भानुदत्त के अनुसारपूर्णतया परिस्फुट उत्साह’ अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों का प्रहर्ष या उत्फुल्लता वीर रस है - परिपूर्ण उत्साह: सर्वेन्द्रियाणां प्रहर्षो वा वीर:।   सामान्यत: रौद्र एवं वीर रसों की पहचान में कठिनाई होती है। इसका कारण यह है कि दोनों के उपादान बहुधा एक - दूसरे से मिलते-जुलते हैं। दोनों के आलम्बन शत्रु तथा उद्दीपन उनकी चेष्टाएँ हैं। दोनों के व्यभिचारियों तथा अनुभावों में भी सादृश्य हैं। कभी-कभी रौद्रता में वीरत्व तथा वीरता में रौद्रवत का आभास मिलता है। इन कारणों से कुछ विद्वान रौद्र का अन्तर्भाव वीर में और कुछ वीर का अन्तर्भाव रौद्र में करने के अनुमोदक हैंलेकिन रौद्र रस के स्थायी भाव क्रोध तथा वीर रस के स्थायी भाव उत्साह में अन्तर स्पष्ट है।
क्रोध एवं उत्साह में भेद
प्रतिकूलेषु तैक्ष्ण्यस्य प्रबोध: क्रोध उच्यते। कार्यारम्भेषु संरम्भ: स्थेयानुत्साह इष्यते।  भोज क्रोध में प्रमोदप्रातिकूल्य’, अर्थात् प्रमाता के आनन्द को विच्छिन्न करने की शक्ति होती हैजब कि उत्साह में एक प्रकार का उल्लास या प्रफुल्लता वर्तमान रहती है। क्रोध में शत्रु विनाश एवं प्रतिशोध की भावना होती हैजब कि उत्साह में धैर्य एवं उदारता विद्यमान रहती है। क्रोधाविष्ट मनुष्य उछल-कूद अधिक करता हैलेकिन उत्साहप्रेरित व्यक्ति उमंग सहित कार्य में अनवरत अग्रसर होता है। क्रोध प्राय: अंधा होता हैजब कि उत्साह परिस्थितियों को समझते हुए उन पर विजय-लाभ करने की कामना से अनुप्राणित रहता है। क्रोध बहुधा वर्तमान से सम्बन्ध रखता हैजब कि उत्साह भविष्य से। 
वीर रस के भेद - यह उत्साह वास्तव में विभिन्न वस्तुओं के प्रतिजीवन के विभिन्न गुणों अथवा व्यवसाय के प्रति विकसित हो सकता है और इस दृष्टि से वीर रस के कई भेद हो सकते हैं।  आद्याचार्य भरतमुनि ने वीर रस के तीन प्रकार बताये हैं - दानवीरधर्मवीरयुद्धवीर।  
मुख्यतया यह चार प्रकार का माना गया है- दानवीरदयावीर, धर्मवीरयुद्धवीर।
उदाररण-
जौं तुम्हार अनुसासन पावौं । कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं ।।
काचे घट जिमि डारौं फोरी । सकौं मेरू मूलक जिमि तोरी ।।
तव प्रताप महिमा भगवाना । को बापुरो पिनाक पुराना ।।


करुण रस
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र’ में प्रतिपादित आठ नाट्यरसों में श्रृंगार और हास्य के अनन्तर तथा रौद्र से पूर्व करुण रस की गणना की गई है। रौद्रात्तु करुणो रस:’ कहकर 'करुण रसकी उत्पत्ति 'रौद्र रससे मानी गई है और उसका वर्ण कपोत के सदृश है तथा देवता यमराज बताये गये हैं ।भरत ने ही करुण रस का विशेष विवरण देते हुए उसके स्थायी भाव का नाम शोक’ दिया है। और उसकी उत्पत्ति शापजन्य क्लेश विनिपातइष्टजन-विप्रयोगविभव नाशवधबन्धनविद्रव अर्थात पलायनअपघातव्यसन अर्थात आपत्ति आदि विभावों के संयोग से स्वीकार की है। साथ ही करुण रस के अभिनय में अश्रुपातनपरिदेवन अर्थात् विलापमुखशोषणवैवर्ण्यत्रस्तागात्रतानि:श्वासस्मृतिविलोप आदि अनुभावों के प्रयोग का निर्देश भी कहा गया है। फिर निर्वेदग्लानिचिन्ताऔत्सुक्यआवेगमोहश्रमभयविषाददैन्यव्याधिजड़ताउन्मादअपस्मारत्रासआलस्यमरणस्तम्भवेपथुवेवर्ण्यअश्रुस्वरभेद आदि की व्यभिचारी या संचारी भाव के रूप में परिगणित किया है ।
भवभूति ने काव्य में करुण रस की  महत्ता और व्याप्ति का मुक्त उदघोष किया है -
एको रस: करुण एवं निमित्तभेदाद्भिन्न: पृथक्पृथगिव श्रयते विवर्तान्।
आवर्तबुदबुद-तरंगमयान्वकारानम्भो यथा सलिलमेव हि तत्समग्रम्’ ।।
करुण रस के भेद
साधनआलम्बन धर्म-अपचयमन-वचनक्रिया तथा प्रभाव की मात्रा को आधार मानकर करुण रस के अनेक भेद काव्यशास्त्र में मिलते हैं। साधन के आधार पर द्रष्टजन्य’, ‘स्मृत अनिष्टजन्य’ तथा श्रुत अनिष्टजन्य’ आदि भेद मिलते हैंजो मूलत: करुण रस के उत्पादक कारणों के ही, ‘इष्टनाश’ और अनिष्टप्राप्ति’ समानान्तर हैं। स्मृत और श्रुत केवल अनिष्टबोध के प्रकार को व्यक्त करते हैंजिनके और भी प्रकार हो सकते हैं
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र’ में करुण के तीन भेद मिलते हैं - धर्मोपघातज, अपचयोद्भव, शोककृत।
इनमें अन्तिम शोककृत सबसे अधिक प्रभावशाली होता है। भावप्रकाशकार ने मनवचन और क्रिया से अभिव्यक्ति लक्षित करके करुण को मानसवाचिका और कर्म तीन प्रकार का माना है। इन्हें अनुभाव-भेद कहा जा सकता है।
मात्रा के अनुसार किये गए करुण के पाँच भेद उक्त भेदों की अपेक्षा हिन्दी में अधिक प्रसिद्ध हैं - करुण, अतिकरुण,महाकरुण, लघुकरुण, सुखकरुण ।
उदाहरण-
वचन विनीत मुधुर रघुवर के  । सर सम लगे मातु उर करके ।
सहमि सूखि सुनि सीतल बानी । जिमि जवास परे पावस पानी ।।
कहि न जाई कछु हृदय विषादू । मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू ।।

भक्ति रस
भरतमुनि से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक संस्कृत के किसी प्रमुख काव्याचार्य ने भक्ति रस’ को रसशास्त्र के अन्तर्गत मान्यता प्रदान नहीं की। जिन विश्वनाथ ने वाक्यं रसात्मकं काव्यम् के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और मुनि-वचन’ का उल्लघंन करते हुए वात्सल्य को नव रसों के समकक्ष सांगोपांग स्थापित कियाउन्होंने भी 'भक्तिको रस नहीं माना। भक्ति रस की सिद्धि का वास्तविक स्रोत काव्यशास्त्र न होकर भक्तिशास्त्र हैजिसमें मुख्यतया गीता’, ‘भागवत’, ‘शाण्डिल्य भक्तिसूत्र’, ‘नारद भक्तिसूत्र’, ‘भक्ति रसायन’ तथा हरिभक्तिरसामृतसिन्धु’ प्रभूति ग्रन्थों की गणना की जा सकती है।मधुसूदन सरस्वती के भक्तिरसायन’ नामक ग्रन्थ में भक्ति के आलौकिक महत्त्व और रसत्व का विशद निरूपण करते हुए उसे एक ओर दसवाँ रस बताया गया हैतो दूसरी ओर सब रसों से श्रेष्ठ भी माना गया है। उसके रसांगों का निर्देश भी भक्तिरसायन’ में मिलता है।
भगवद्भक्तिचन्द्रिका नामक ग्रन्थ के रचयिता ने भी पराभक्ति को रस कहा है- पराभक्ति: प्रोक्ता रस इति।
गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रतिष्ठित आचार्य रूपगोस्वामी कृत हरिभक्तिरसामृतसिन्धु में काव्य शास्त्रीय दृष्टि से भक्ति रस का विस्तार एक सुनिश्चित व्यवस्था के साथ किया गया है। भागवत’ के बाद भक्ति रस की मान्यता का सर्वाधिक श्रेय रूपगोस्वामी को ही है। उन्होंने भक्ति के पाँच रूप माने हैं - शान्तिप्रीतिप्रेयवत्सलमधुर। ये शान्तदास्यसख्यवात्सल्यमाधुर्य पाँच भाव-भक्ति के मूल हैं। उत्कृष्टता के आधार पर भक्ति रस पराकोटि और अपराकोटि का माना गया है। इन भावों का मूल भागवत’ की नवधा भक्ति तथा नारद भक्ति सूत्र’ की एकादश आसक्तियों में मिल जाता है। ग्रन्थ के दक्षिण विभाग में भक्ति के रसांगों का विवेचन विस्तार सहित किया गया है। चैतन्य महाप्रभु गौड़ीय भक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। उनकी उपासना का आधार रसप्लावित तीव्र प्रमानुभूति रही है। अतएव उन्हीं के सम्प्रदाय में भक्ति रस का विशद विस्तार हुआयह स्वाभाविक ही था।
हिन्दी में रीतिकालीन काव्याचार्यों ने भक्तिमूलक काव्य की तो रचना कीपरन्तु काव्य रस के रूप में भक्ति की प्रतिष्ठा का कदाचित् कोई भी प्रयास उन्होंने नहीं किया
भक्ति रस या भाव - भक्ति को रस मानना चाहिए या भावयह प्रश्न इस बीसवीं शताब्दी तक के काव्य-मर्मज्ञों के आगे एक जटिल समस्या के रूप में सामने आता रहा है। कुछ विशेषज्ञ भक्ति को बलपूर्वक रस घोषित करते हैं। कुछ परम्परानुमोदित रसों की तुलना में उसे श्रेष्ठ बताते हैंकुछ शान्त रस और भक्ति रस में अभेद स्थापित करने की चेष्टा करते हैं ।
भक्ति रस के भेद- भक्ति रस के पाँच भेद माने गये हैं-
1.शान्त भक्तिरस
2.दास्य भक्तिरस
3. सख्य भक्तिरस
4.वात्सल्य भक्तिरस
5. मधुर भक्तिरसव ।



वात्सल्य रस
माता-पिता का अपने पुत्रादि पर जो नैसर्गिक स्नेह होता हैउसे वात्सल्य’ कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन आचार्यों ने देवादिविषयक रति को केवल भाव’ ठहराया है तथा वात्सल्य को इसी प्रकार की रति’ माना हैजो स्थायी भाव के तुल्यउनकी दृष्टि में चवर्णीय नहीं है । सोमेश्वर भक्ति एवं वात्सल्य को रति’ के ही विशेष रूप मानते हैं - स्नेहो भक्तिर्वात्सल्यमिति रतेरेव विशेष:’, लेकिन अपत्य-स्नेह की उत्कटताआस्वादनीयतापुरुषार्थोपयोगिता इत्यादि गुणों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि वात्सल्य एक स्वतंत्र प्रधान भाव हैजो स्थायी ही समझा जाना चाहिए । भोज इत्यादि कतिपय आचार्यों ने इसकी सत्ता का प्राधान्य स्वीकार किया है । विश्वनाथ ने प्रस्फुट चमत्कार के कारण वत्सल रस का स्वतंत्र अस्तित्व निरूपित कर वत्सलता-स्नेह’ को इसका स्थायी भाव स्पष्ट रूप से माना है - स्थायी वत्सलता-स्नेह: पुत्राथालम्बनं मतम्  हर्षगर्वआवेगअनिष्ट की आशंका इत्यादि वात्सल्य के व्यभिचारी भाव हैं।
उदाहरण -                     चलत देखि जसुमति सुख पावै।
                        ठुमुकि ठुमुकि पग धरनी रेंगतजननी देखि दिखावै
 इसमें केवल वात्सल्य भाव व्यंजित हैस्थायी का परिस्फुटन नहीं हुआ है। वात्सल्य शब्द वत्स से व्युत्पन्न और पुत्रादिविषयक रति का पर्याय है। इसका प्रयोग रस की अपेक्षा भाव के लिए अधिक उपयुक्त हैकदाचित इसीलिए प्राचीन आचार्यों ने वात्सल्य रस’ न लिखकर वत्सल रस’ लिखा और वत्सलता या वात्सल्य को उसका स्थायी भाव माना, मम्मट ने “रतिर्देवादविषयाः ” कहकर इसे भाव के रूप में ही स्वीकार कर लिया
भोजराज- ‘श्रृंगारवीर-करुणाद्भुतरौद्रहास्यवीभत्रावत्सलभयानकशान्तनाम्न:’ 
विश्वनाथ - स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रस विदु: स्थायी वत्सलतास्नेह: पुत्राद्यालम्बनंमतम्
 वात्सल्य स्नेह इसका स्थायी भाव होता है तथा पुत्रादि आलम्बन। आगे उसका विस्तार देते हुए कहते हैं - बाल सुलभ चेष्टाओं के साथ-साथ उसकी विद्याशौर्यदया आदि विशेषताएँ उद्दीपन हैं। आलिंगनअंगसंस्पर्शशिर का चूमनादेखनारोमांचआनन्दाश्रु आदि अनुभव है। अनिष्ट की आशंकाहर्षगर्व आदि संचारी माने जाते हैं। इस रस का वर्ण पद्य-गर्भ की छवि जैसा और देवतालोकमाता या जगदम्बा है
रस की अन्य दशाएँ-
रसाभास- जहाँ अपुष्ट रस का चित्रण किया जाए वहाँ रसाभास होता है ।
भावाभास- जहाँ अपुष्ट भाव का चित्रण हो वहाँ भावाभास होता है ।
भावशबलता- जहाँ क्रमशः भावों में उत्कर्ष प्रदर्शित किया जाए वहाँ भावशबलता कही जाती है ।
भावसन्धि- जहाँ दो विपरीत भावों को सन्धि दशा का चित्रण किया जाए, वहाँ भावसन्धि है ।
भावोदय- जहाँ अनेक भावों के बीच किसी विशिष्ट भाव की प्रबलता व्यंजित हो ।
भावशान्ति- भावों के उत्कर्ष को जिज्ञासा आदि के आधार पर चित्रित करके पुनः औत्सुक्य समाप्ति के माध्यमों से संयमित करना भावशान्ति है ।
9.शांत रस
शान्त रस साहित्य में प्रसिद्ध नौ रसों में अन्तिम रस माना जाता है - "शान्तोऽपि नवमो रस:।" इसका कारण यह है कि भरतमुनि के नाट्यशास्त्र’  मेंजो रस विवेचन का आदि स्रोत हैनाट्य रसों के रूप में केवल आठ रसों का ही वर्णन मिलता है। शान्त के उस रूप में भरतमुनि ने मान्यता प्रदान नहीं कीजिस रूप में शृंगारवीर आदि रसों कीऔर न उसके विभावअनुभाव और संचारी भावों का ही वैसा स्पष्ट निरूपण किया।
 अग्निपुराण’ में रति’ के अभाव से शान्त रस की उत्पत्ति मानी गई है।
रुद्रट ने सम्यक ज्ञान’ को आनन्दवर्धन ने तृष्णाक्षयसुख’ को तथा आगे कुछ अन्य विद्वानों ने सर्वचित्तवृत्तिप्रशम्’, ‘निर्विशेषचित्तवृत्ति’, ‘धृति’, ‘उत्साह’ आदि को भी शान्त रस का स्थायी निर्धारित किया। श्रृंगारादि की तरह शान्त रस के भेद-प्रभेद करने की ओर आचार्यों का ध्यान प्राय: नहीं गया है। केवल रस-कलिका’ में रुद्रभट्ट द्वारा चार भेद किये गए हैं - वैराग्य, दोष-विग्रह, सन्तोष, तत्त्व-साक्षात्कारजो कि मान्य नहीं हुए।
धनिक का कथन है - "मुनिराजों ने उस रस को शान्त कहा हैजिसमें सुखदु:खचिन्ताद्वेषरागइच्छादि कुछ नहीं रहते और जिसमें सब भावों का शम प्रधान रहता है।"
मम्मट - "निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति नवमो रस:"अर्थात् निर्वेद स्थायीवाला शान्त रस नवाँ रस होता है।
विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण’ में इस प्रकार की व्याख्या की है - "शान्त रस की प्रकृति उत्तमस्थायी भाव शमकुन्देन्दु वर्ण तथा देवता श्री नारायण हैं। संसार की अनित्यतावस्तुजगत की नित्सारता और परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान इसके आलम्बन हैं। भगवान के पवित्र आश्रयतीर्थस्थानरम्य एकान्त वन तथा महापुरुषों का सत्संग उद्दीपन है। अनुभाव रोमांचादि और संचारियों में निर्वेदहर्षस्मरणगतिउन्माद तथा प्राणियों पर दया आदि की गणना की जा सकती है।"
अष्टनाट्यरसों का स्वरूप निरूपित करने के पश्चात् नाट्यशास्त्र’ में शान्त रस की सम्भावना का निर्देश निम्नलिखित शब्दों में किया गया है और नवरस’ शब्द का भी उल्लेख सर्वप्रथम यहीं हुआ है -
"अत: शान्तो नाम.....।
मोक्षध्यात्मसमुत्थ.....शान्तरसो नाम सम्भवति।
......एवं नव रसा दृष्टा नाट्यशैर्लक्षणान्विता:"
अर्थात मोक्ष और आध्यात्म की भावना से जिस रस की उत्पत्ति होती हैउसको शान्त रस नाम देना सम्भाव्य है। इसका स्थायी भाव निर्वेद है तथा इसके देवता विष्णु एवं रंग कुन्द पुष्प या चन्द्रमा के समान शुक्ल है ।
आलम्बन संसार की असारता और क्षण भंगुरता है । उद्दीपन सत्संग, श्मसान, तीर्थदर्शन, मृतक आदि है । अनुभाव रोमांच अश्रु, पश्चाताप, ग्लानि इत्यादि है । संचारी भाव हर्ष धृति मति स्मरण इत्यादि है ।



8.अद्भुत रस
अद्भुत रस विस्मयस्य सम्यक्समृद्धिरद्भुत: सर्वेन्द्रियाणां ताटस्थ्यं या।  अर्थात विस्मय की सम्यक समृद्धि अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों की तटस्थता अदभुत रस है। कहने का अभिप्राय यह है कि जब किसी रचना में विस्मय 'स्थायी भावइस प्रकार पूर्णतया प्रस्फुट हो कि सम्पूर्ण इन्द्रियाँ उससे अभिभावित होकर निश्चेष्ट बन जाएँतब वहाँ अद्भुत रस की निष्पत्ति होती है।  भरतमुनि ने वीर रस से अद्भुत की उत्पत्ति बताई है तथा इसका वर्ण पीला एवं देवता ब्रह्मा कहा है।  विश्वनाथ के अनुसार इसके देवता गन्धर्व हैं।  विस्मय’ की परिभाषा सरस्वतीकण्ठाभरण’ में दी गई है - विस्मयश्चित्तविस्तार: पदार्थातिशयादिभि: किसी अलौकिक पदार्थ के गोचरीकरण से उत्पन्न चित्त का विस्तार विस्मय है।
विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण’ में इस परिभाषा को दुहराते हुए विस्मय को चमत्कार का पर्याय बताया है - चमत्कारश्चित्तविस्तार रूपो विस्मयापरपर्याय: 
अतएव चित्त की वह चमत्कृत अवस्थाजिसमें वह सामान्य की परिधि से बाहर उठकर विस्तार लाभ करता है, ‘विस्मय’ कहलायेगी। वास्तव में यह विस्मय या चमत्कार प्रत्येक गहरी अनुभूति का आवश्यक अंग है और इसीलिए यह प्रत्येक रस की प्रतीति में वर्तमान रहता है। भानुदत्त ने कहा है कि विस्मय सभी रसों में संचार करता है।
विश्वनाथ रसास्वाद के प्रकार को समझाते हुए कहते हैं कि रस का प्राण लोकोत्तर चमत्कार’ है । और इस प्रकार सर्वत्रसम्पूर्ण रसगर्भित स्थानों में अद्भुत रस माना जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में उन्होंने निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्धृत की हैं -
रसे सारश्चमत्कार: सर्वत्राप्यनुभुयते। तच्चमत्कारसारत्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रस:।
तस्मादद्भुतमेवाह कृती नारायणो रसम्।’  अर्थात सब रसों में चमत्कार साररूप से (स्थायी) होने से सर्वत्र अद्भुत रस ही प्रतीत होता है। अतएवनारायण पण्डित केवल एक अद्भुत रस ही मानते हैं।
आलम्बन विभाव -आलौकिकता से युक्त वाक्यशीलकर्म एवं रूप अद्भुत रस के आलम्बन विभाव हैं,
उद्दीनपन विभाव-  आलौकिकता के गुणों का वर्णन उद्दीनपन विभाव है,
अनुभाव- आँखें फाड़नाटकटकी लगाकर देखनारोमांचआँसूस्वेदहर्षसाधुवाद देनाउपहार-दानहा-हा करनाअंगों का घुमानाकम्पित होनागदगद वचन बोलनाउत्कण्ठित होनाइत्यादि इसके अनुभाव हैं,
अदभुत रस चार प्रकार का होता है- दृष्ट, श्रुत, अनुमति एवं संकीर्तित।

उदाहरण-                  केशव कहि न जाइ का कहिये ।
                   देखत तव रचना विचित्र अति समुझि मनै मन रहिये ।।

बीभत्स रस

'भरत' (तीसरी शती ई.) के नाट्यशास्त्र में बीभत्स रस को चार मुख्य उत्पत्ति हेतु रसों में माना गया है- बीभत्साच्च भयानक: । इसके अनुसार बीभत्स रस भयानक रस का उत्पादक है। बीभत्स रस के स्थायी भाव जुगुत्सा की उत्पत्ति दो कारणों से मानी गयी हैएक विवेक और दूसरा अवस्था भेद। पहले को विवेकजा’ और द्वितीय को प्रायकी’ संज्ञा दी जाती है। विवेकजा जुगुत्सा से शुद्ध बीभत्स तथा प्रायकी से क्षोभज और उद्वेगी बीभत्स को सम्बद्ध किया जा सकता है। अधिकांश हिन्दी काव्याचार्यों ने जुगुत्सा’ के स्थान पर घृणा’ को बीभत्स रस का स्थायी भाव बताया है। बीभत्स रस का स्थायी भाव 'जुगुत्साहैजो भयानक रस के स्थायी भय का मूल प्रेरक रहता है। भय यद्यपि आतंक आदि अनेक कारणों से भी उत्पन्न हो सकता हैपर सूक्ष्म दृष्टि से भयजनित पलायन के मूल में ऐसी किसी न किसी स्थिति की कल्पना अवश्य ही निहित प्रतीत होती हैजो भीतर से घृणा या जुगुत्सा का भाव जगाती है।
 'धनंजय' (दसवीं शती. ई.) ने रसों में कार्य कारण-सम्बन्ध मानने का विरोध किया है। ये उक्त हेतु भाव को सभेद’ की अपेक्षा द्वारा सिद्ध मानते हैं । बीभत्स रस श्रृंगार रस का विरोधी समझा जाता हैक्योंकि जुगुत्सा उत्पन्न करने वाले प्रसंग के आ जाने से श्रृंगार रस में रसाभास की स्थिति आ जाती है। श्रृंगार हृद्य’ है और बीभत्स अहृद्य’ अर्थात् हृदय द्वारा अग्राह्य।   नाट्यशास्त्र में ही बीभत्स रस का देवता महाकाल तथा वर्ण नील माना गया है। शैली की दृष्टि से उसके वर्णन में गुरु अक्षरों का प्रयोग उचित बताया गया है। करुण रस में भी यही विधान है। नाट्यशास्त्र में भरत ने बीभत्स रस के विभाजन की भी व्यवस्था कर दी हैयथा- बीभत्स: क्षोभज: शुद्ध: उद्वेगी स्यात्तृतीयक:। विष्ठाकृमिभिरुद्वेगी क्षोभजो रुधिरादिज:
इस कथन क अनुसार बीभत्स रस के तीन भेद होते हैं- क्षोभजशुद्धउद्वेगी ।

उदाहरण- सासु के विलोके सिंहनी सी जमुहाई लेति,
ससुर के देखे बाघिनी सी मुँह बावती ।।
ननद के देखे नागिनि सी फुफकारि बैठी,
देवर के देखे डाकिनी सी डरपावती ।।
भनत प्रधान मोछै जारति परोसिनि की,
खसम के देखे खाँव-खाँव करि धावती ।
कर्कसा कसाइन कुलच्छिनी कुबुद्धिनी ये,
करम के फूटे घर ऐसी नारि आवती ।।


भयानक रस

भयानक रस हिन्दी काव्य में मान्य नौ रसों में से एक है। भानुदत्त के अनुसार, ‘भय का परिपोष’ अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों का विक्षोभ भयानक रस है। अर्थात भयोत्पादक वस्तुओं के दर्शन या श्रवण से अथवा शत्रु इत्यादि के विद्रोहपूर्ण आचरण से हैतब वहाँ भयानक रस होता है। भरतमुनि ने इसका रंग काला तथा देवता कालदेव को बताया है। भानुदत्त के अनुसार इसका वर्ण श्याम और देवता यम हैं ।
भरत ने भयानक के कारणों में विकृत शब्द वाले प्राणियों का दर्शनगीदड़उलूकव्याकुलताख़ाली घरवन प्रदेशमरणसम्बन्धियों की मृत्यु या बन्धन का दर्शनश्रवण या कथन इत्यादि को निर्दिष्ट किया है। जबकि बीभत्स के विभावों में अमनोहर तथा अप्रिय का दर्शनअनिष्टा का श्रवणदर्शन या कथन इत्यादि को परिगणित किया है। इस उल्लेख से ही स्पष्ट होता है कि भय के उद्रेक के लिएजुगुत्सा की अपेक्षाअधिक अवसर तथा परिस्थितियाँ उपलब्ध हैं। अर्थात भय का क्षेत्र जुगुत्सा की तुलना में अधिक व्यापक हैऔर इसीलिए भय जुगुत्सा की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली मनोविकार सिद्ध होता है। पुन: भय के मूल में संरक्षण की प्रवृत्ति कार्यशील होती है। प्राणिमात्र में यह वर्तमान रहता है तथा मन पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। अतएव भयानक रस को बीभत्स से उत्पन्न बताना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता।
साहित्यदर्पण’ में भयानक रस को स्त्रीनीचप्रकृति:’ कहा गया है। इसका अभिप्राय यह है कि इस रस के आश्रय स्त्रीनीच प्रकृति वाले व्यक्तिबालक तथा कोई भी कातर प्राणी होते हैं-भयानको भवेन्नेता बाल: स्त्रीकातर: पुन:।अपराध करने वाला व्यक्ति भी अपने अपराध के ज्ञान से भयभीत होता है। भयानक के आलम्बन व्याघ्र इत्यादि हिंसक जीवशत्रुनिर्जन प्रदेशस्वयं किया गया अपराध इत्यादि हैं। शत्रु की चेष्टाएँअसहायता उद्दीपन हैं तथा स्वेदविवर्णताकम्पअश्रुरोमांच इत्यादि अनुभाव हैं। त्रासमोहजुगुत्सादैन्यसंकटअपस्मारचिन्ताआवेग इत्यादि उसके व्यभिचारी भाव हैं।
'सूवनि साजि पढ़ावतु है निज फौज लखे मरहट्ठन केरी।
औरंग आपुनि दुग्ग जमाति बिलोकत तेरिए फौज दरेरी।
साहि-तनै सिवसाहि भई भनि भूषन यों तुव धाक घनेरी।
रातहु द्योस दिलीस तकै तुव सेन कि सूरति सूरति घेरी
'
आचार्य भरत ने इसके तीन भेदों का उल्लेख किया है-
1.व्याधिजन्य (कृतृम)
2.अपराधजन्य
3.वित्रासितक(अनिष्ट की आशंका से उत्पन्न)

रौद्र रस

काव्यगत रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है । भरत ने  नाट्यशास्त्र में श्रृंगार  रौद्र, वीर तथा वीभत्सइन चार रसों को ही प्रधान माना हैअत: इन्हीं से अन्य रसों की उत्पत्ति बतायी हैयथा-तेषामुत्पत्तिहेतवच्क्षत्वारो रसा: शृंगारो रौद्रो वीरो वीभत्स इति  रौद्र से करुण रस की उत्पत्ति बताते हुए भरत कहते हैं कि रौद्रस्यैव च यत्कर्म स शेय: करुणो रस:  रौद्र रस का कर्म ही करुण रस का जनक होता है,

स्थायी भाव- रौद्र रस का 'स्थायी भाव' 'क्रोधहै तथा इसका वर्ण रक्त एवं देवता रुद्र है।

Ø  भानुदत्त ने रसतरंगिणी’ में लिखा है - परिपूर्ण:क्रोधो रौद्र: सर्वेन्द्रियाणामौद्धत्यं वा। वर्णोऽस्य रक्तो दैवतं रुद्र:अर्थात स्थायी भाव क्रोध का पूर्णतया प्रस्फुट स्वरूप रौद्र है अथवा सम्पूर्ण इन्द्रियों का उद्धत स्वरूप का ग्रहण कर लेना रौद्र है। इसका रंग लाल है तथा देवता रुद्र हैं। यह स्मरण रखना आवश्यक है कि यद्यपि रुद्र का रंग श्वेत माना गया हैतथापि रौद्ररस का रंग लाल बताया गया हैक्योंकि कोपाविष्ट दशा में मनुष्य की आकृतिक्षोभ के आतिशश्य सेरक्त वर्ण की हो जाती है।
बोरौ सवै रघुवंश कुठार की धार में बारन बाजि सरत्थहि।
बान की वायु उड़ाइ कै लच्छन लक्ष्य करौ अरिहा समरत्थहिं।
रामहिं बाम समेत पठै बन कोप के भार में भूजौ भरत्थहिं।
जो धनु हाथ धरै रघुनाथ तो आजु अनाथ करौ दसरत्थहि
 रौद्र रस का हास्यश्रृंगारभयानक तथा शान्त से विरोध बताया गया है और वीर एवं मैत्रीभाव कहा गया है।





4.वक्रोक्ति अलंकार-  “सादृश्य लक्षणा वक्रोक्तिः” जहाँ पर श्लेषार्थी शब्द से अथवा काकु (कंठ की विशेष ध्वनि) से प्रत्यक्ष अर्थ के स्थान पर दूसरा अर्थ कल्पित करे, वहाँ वक्रोक्ति होती है ।
यह दो प्रकार का होता है- श्लेष वक्रोक्ति, काकु वक्रोक्ति ।
हौं घनश्याम विरमि-विरमि, बरसौ नेह लगाय ।
प्रिय, हरि हौं, कित हौं यहाँ, रमौ कुंज बन जाय ।


व्यंजना

शब्द शक्तियों में तीसरी शब्द-शक्ति व्यंजना है। व्यंजना शब्द की निष्पत्ति वि अंजना दो शब्दों से हुई है। वि उपसर्ग है तो अंज प्रकाशन धातु है। व्यंजना का अर्थ विशेष प्रकार का अंजना है। अंजना लगाने से नेत्रों की ज्योति बढ़ जाती है। इसी प्रकार काव्य में व्यंजना प्रयुक्त करने से उसकी शोभा बढ़ जाती है।  मम्मट जी कहते हैं कि – “नाभिधा समयाभावात् हेत्वाभावान्न लक्षणा ।” व्यंजना के लक्षण: जब अभिधा शाक्ति अर्थ बतलाने में असमर्थ होती है तो लक्षणा के द्धारा अर्थ को बतलाने की चोष्टा की जाती है, पर कुछ अर्थ ऐसे होते है जिनकी प्रतीति अभिधा और  लक्षणा के द्धारा नही की जा सकती और तीसरी शब्द शक्ति को प्रयुक्त किया जाता है। व्यंजना के दो भेद हैं- शाब्दी व्यंजना, आर्थी व्यंजना ।

1.शाब्दी व्यंजना: शब्द के परिवर्तन के साथ ही अर्थ भी परिवर्तित हो जाता है। ये दो प्रकार के हैं

अभिधामूला शाब्दी व्यंजना: इस में संयोग आदि के द्धारा अनेक अर्थ वाले शब्दों का एक विशेष अर्थ निश्चित किया जाता है।
चिरजीवों जोरी जुरै, क्यों न सनेह गम्भीर ।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर ।।

लक्षणमूला शाब्दी व्यंजना: जहाँ पर मुख्यार्थ की बाधा होने पर लक्षणा शक्ति से दूसरा अर्थ निकलता है, किन्तु जब उसके बाद भी दूसरे अर्थ की प्रतीति हो, वहाँ लक्षणमूला शाब्दीव्यंजना होती है।
फली सकल मनकामना, लूट्यो अगणित चैन ।
आजु अचैं हरि रूप सखि, भये प्रफुल्लित नैन ।।

2.आर्थी व्यंजना: इसमें अर्थ की सहायता से व्यग्यार्थ का ज्ञान होता है। जहाँ पर व्यग्यार्थ किसी शब्द पर आधारित न हो, वरन् उस शब्द के अर्थ द्धारा ध्वनित होता है, वहाँ आर्थी व्यंजनाहोती है। यह तीन प्रकार का होता है । लक्ष्य सम्भवा, वाच्य सम्भवा, व्यंग्य सम्भवा।
1. लक्ष्य सम्भवा- जहाँ मुख्यार्थ की बाधा से भी अर्थ का समाधान न हो और व्यंजना का चमत्कार शब्दगत न होकर अर्थगत हो वहाँ लक्ष्यसम्भवा व्यंजना होती है ।

2. वाच्य सम्भवा- जहाँ व्यंग्य का आधार साक्षात् संकेतित अर्थ या अभिधा ही हो वहाँ वाच्यसंभवा व्यंजना होती है ।

3.व्यंग्य सम्भवा- जहाँ व्यंग्यार्थ से व्यंग्यार्थ को व्यंजित कराने की चेष्टा की जाये,वहाँ व्यंग्य सम्भवा व्यंजना होती है ।








गौणी प्रयोजनवती लक्षणा: गौणी लक्षणा में समान गुण या धर्म के कारण लक्ष्यार्थ की प्रतीति होती है। उदहरण:- मुख कमलयानि कि मुख कमल के समान सौम्य और सुंदर है।

शुद्धा प्रयोजनवती  लक्षणा: इसमें सामीप्य या निकटवर्ती संबंध के कारण लक्ष्यार्थ की प्रतीति होती है। उदहरण:- अगर कोई कहे कि मैं गंगा में झोपडी डाल कर रहूँगा तो इसका अर्थ ये नहीं कि वह गंगा नदी में झोपडी डाल कर रहेगा, इसका सामीप्य संबंध गंगा की पवित्रता और शीतलता से है।

उपादान लक्षणा:  जहाँ मुख्यार्थ की बाधा के साथ अन्य अर्थ का योग हो साथ ही मुख्य अर्थ अपने ध्वनि अर्थ की सिद्धि के लिए अन्य अर्थों को अपने अर्थ के साथ समेटे हुए हो ।
सीता हरन तात जनि, कहेहु पिता सन जाइ।
जौ मै राम तौ कुल सहित कहहि दसानन आइ ।।

लक्षण-लक्षणा: मुख्यार्थ की बाधा होने पर अन्य अर्थ की सिद्धि के लिए अपने अर्थ का परित्याग लक्षित या लक्षण लक्षणा कहलाता है । अर्थात अपने अर्थ को छोड़ कर दूसरे के अर्थ को ग्रहण करना। उदाहरण:- कलिंग साहसिक कलिंग वासी साहसी है।

सारोपा लक्षणा: एक वस्तु से दूसरे वस्तु की अभेद प्रतीति को आरोप लक्षणाकहते है।

साध्यवसाना लक्षणा: इसमें विषयी के द्धारा विषय का ज्ञान होने से साध्यवसाना लक्षणा होती है।

सारोपा शुद्धा उपादान लक्षणा- जहाँ गुण के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध दिखाई पड़ें ।

सारोपा शुद्धा लक्षण लक्षणा- जहाँ विषय एवं विषयी के बीच स्थित आरोप स्पष्ट रूप से दिखाई पड़े ।

साध्यवसाना शुद्धा उपादान लक्षणा- सादृश्य के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध हों ।

साध्यवसाना शुद्धा लक्षण लक्षणा- मुख्यार्थ की बाधा एवं अन्य अर्थ का बोध हो । सादृश्य से भिन्न गुण के आधार पर विषयि-विषयी को निगीर्ण किये हुए हो ।



                                               

लक्षणा
मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढ़ितोsथ प्रयोजनात्
अन्योsर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया ।- मम्मट
अर्थात मुख्यार्थ की बाधा के कारण रूढ़ि अथवा प्रयोजनवश वच्यार्थ से भिन्न अर्थ का बोध हो तो वहाँ लक्षणा शब्दशक्ति होती है । शब्द का अर्थ अभिधा मात्र में ही सीमित नही रहता है। लाक्षणिक अर्थ को व्यक्त करने वाली शक्ति का नाम लक्षणा है। आशय यह है कि मुख्य अर्थ के ज्ञान में बाधा होते पर और उस (मुख्यार्थ) के साथ संबंध(योग)होने पर प्रसिद्धि या प्रयोजनवश अन्य अर्थ जिस शब्द शक्ति से विदित होता है,उसे लक्षणाकहते हैं। लक्षणा के व्यापार के लिए तीन तत्व आवश्यक हैं-1. मुख्यार्थ का बाधा, 2. मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ का योग (संबंध), 3 रूढ़ि या प्रयोजना ।
अर्थात लक्षणा में मुख्यार्थ का बाधा तथा लक्ष्यार्थ का परस्पर योग आवश्यक है रूढ़ि अथवा प्रयोजन में किसी एक का होना भी आवश्यक है। मुख्य रूप से लक्षणा के दो भेद है:---

1.रूढ़िमूला लक्षणा: इस प्रकार के लक्षणा में, मुख्यार्थ के बाधा होने पर जिस लक्ष्यार्थ का हम उपयोग करते है उसे प्रसिद्ध होना आवश्यक है।
उदाहरण:- अगर एक दोस्त, दूसरे से ये कहे कि तुम पूर के पूरे गधे हो, तो इसका अर्थ ये नहीं कि उसका दोस्त गधा है। मनुष्य कैसे गधा हो सकता है। गधा अपनी मूर्खता के लिए प्रसिद्ध है। तो इसका अर्थ ये हुआ कि उसका दोस्त मूर्ख है।

2.प्रयोजनवती लक्षणा: साहित्य में इस लक्षणा का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन के लिए करते है।  उदाहरण:
लहरै व्योम चूमती उठती, चपलाएँ असख्य नचती।
गरल जलद की खड़ी झड़ी में, बूँदें निज संसृति रचती।।

व्योम चूमती शब्द में लक्षणा है। लहरों का व्योम चूमना संभव नहीं है किंतु इसका अर्थ है स्पर्श करना।कवि इस शब्द का प्रयोग एक विशेष प्रयोजन से करता है और वह है प्रलय की भयंकरता बताना। यहाँ पर प्रयोजनवती लक्षणा है।प्रलय के समय समुद्र की लहरें मानो आकाश को छू रही थीं।
प्रयोजनवती लक्षणा के निम्न लिखित भेद हैं-

                                       गौणी प्रयोजनवती------ 1.सारोपा, 2. साध्यवसाना

प्रयोजनवती लक्षणा----
                             शुद्धा प्रयोजनवती------1. लक्षण लक्षणा, 2. उपादान लक्षणा
अलंकार

अलंकार की परिभाषा- मानव समाज सौन्दर्योपासक है ,उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है। शरीर की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए जिस प्रकार मनुष्य ने भिन्न -भिन्न प्रकार के आभूषण का प्रयोग किया ,उसी प्रकार उसने भाषा को सुंदर बनाने के लिए अलंकारों का सृजन किया। काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्दों को अलंकार कहते है। जिस प्रकार नारी के सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए आभूषण होते है,उसी प्रकार भाषा के सौन्दर्य के उपकरणों को अलंकार कहते है। इसीलिए कहा गया है - 'भूषण बिन  बिराजई कविता बनिता मित्त '
अलंकार शब्द की व्युत्तपत्ति अलम्+ कृ+ घञ् प्रत्यय के योग से हुयी है । जिसका अर्थ है अलंकृत करना ।  “जिसके द्वारा अलंकृत किया जाय वहीं अलंकार है । अलंकार की निम्न लिखित परिभाषाएँ हैं-
1.   अलंकरोति इति अलंकारः- अलंकृत करता है अतः अलंकार है ।
2.   अलंक्रियते अनेन इति अलंकारः- जिससे यह अलंकृत होता है वह अलंकार है ।
3.   अलंकृतिः अलंकारः- अलंकृति ही अलंकार है ।
4.   वाचां वक्रार्थ शब्दोक्तिरिष्टा वाचांलंकृतिः- शब्द और अर्थ की विभामय करने
वाली वक्रोक्ति ही अलंकार है – भामह
5.   काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान प्रचक्षते- काव्य के समस्त शोभाकारक धर्म ही अलंकार हैं- दण्डी
6.   काव्य शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः- काव्य का शोभाकारक धर्म गुण है और उसकी अतिशयता का हेतु अलंकार है – वामन
7.   काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयता प्रयोजका अलंकाराः- अलंकार उन्हें कहते हैं जो काव्य की आत्मा व्यंग्य की रमणीयता के प्रयोजक हैं- जगन्नाथ
अलंकार के तत्व-  अलंकार के मूल में कौन से तत्व रहते हैं इस पर संस्कृत विद्वानों नें अलग अलग मत दिये हैं-
    दण्डी- स्वभावोक्ति
भामह- वक्रोक्ति
           वामन व रूय्यक- सादृश्य
  उद्भट- अतिशयता
          अभिनवगुप्त- गुणभूतव्यंग्य
अलंकार के भेद

अलंकार के भेद - इसके तीन भेद होते है - १.शब्दालंकार २.अर्थालंकार ३.उभयालंकार

शब्दालंकार 
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उपस्थित हो जाता है और उन शब्दों के स्थान पर समानार्थी दूसरे शब्दों के रख देने से वह चमत्कार समाप्त हो जाता है,वह पर शब्दालंकार माना जाता है।
शब्दालंकार के प्रमुख भेद है - १.अनुप्रास २.यमक ३.श्लेष

१.अनुप्रास :- अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है । 'अनु' का अर्थ है :- बार- बार तथा 'प्रास' का अर्थ है - वर्ण । जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार -बार आवृत्ति होती है ,वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है । इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार -बार प्रयोग किया जाता है । जैसे -
जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप 
विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप । ।
यह पाँच प्रकार का होता है – 1.छेकानुप्रास, 2.वृत्यानुप्रास, 3.श्रुत्यानुप्रास, 4. अन्त्यानुप्रास, 5. लाटानुप्रास

२.यमक अलंकार :- जहाँ एक ही शब्द दो या दो से अधिक बार आये ,लेकिन अर्थ अलग-अलग हो वहाँ यमक अलंकार होता है। उदाहरण -
कनक कनक ते सौगुनी ,मादकता अधिकाय 
वा खाये बौराय नर ,वा पाये बौराय। ।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है - धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है । यह तीन प्रकार का होता है- आदिपद यमक, मध्यपद यमक, अन्तपद यमक

३.श्लेष अलंकार :- जहाँ पर शब्द एक ही बार आए किन्तु अर्थ अलग-अलग हो वहाँ श्लेष अलंकार होता है । ऐसे शब्दों का प्रयोग हो ,जिनसे एक से अधिक अर्थ निलकते हो ,वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है । साहित्य दर्पण में इसे आठ प्रकार का बताया गया है ।
चिरजीवो जोरी जुरे क्यों  सनेह गंभीर 
को घटि ये वृष भानुजा ,वे हलधर के बीर। ।
यहाँ वृषभानुजा के दो अर्थ है - १.वृषभानु की पुत्री राधा २.वृषभ की अनुजा गाय । इसी प्रकार हलधर के भी दो अर्थ है - १.बलराम २.हल को धारण करने वाला बैल
शब्दशक्ति
महर्षि पतंजलि ने शब्द को परिभाषित करते हुए बताया कि – श्रोतोपलब्ध बुद्धिनिग्राह्यः प्रयोगेनाभिज्वलति आकाशदेशः शब्दः । अर्थात शब्द की चार विशेषताएँ होती हैं-
1. शब्द कर्णेन्द्रियों द्वारा ग्राह्य होते हैं ।
2. बुद्धि द्वारा ग्रहण किये जाते हैं ।
3.प्रयोग द्वारा स्फुटित होते हैं।
4. आकाश के धर्म होते है ।
शब्द का अर्थ बोध कराने वाली शक्ति ही शब्दशक्तिहै। वह एक प्रकार से शब्द और अर्थ का समन्वय है। हिन्दी के रीतिकाल आचार्य चिंतामणि ने लिखा है:- जो सुन पडे सो शब्द है, समुझि परै सो अर्थअर्थात जो सुनाई पडे वह शब्द है तथा उसे सुनकर जो समझ में आवे वह उसका अर्थ है। शब्द की तीन शक्तियाँ हैं---1.    अभिधा 2. लक्षणा 3. व्यंजना । तात्पर्य नामक शब्द शक्ति को कुछ विद्वान चौथी शब्द शक्ति बताते हैं ।

1.अभिधा
साक्षात् संकेतितम् योˢर्थम् अभिधत्ते स वाचकः ।- मम्मट
सांकेतिक अर्थ को बतलाने वाली शब्द की प्रथम शक्ति कोअभिधाकहते है।वह शब्द वाचक कहलाता है।पं.जगन्नाथ कहते है–“शब्द एवं अर्थ के परस्पर संबंध को अभिधा कहते है। यानि कि जो भी बात सीधा सीधा कह दें और समझ में आ जाय वह अभिधा शक्तिहोता है।  अभिधा तीन प्रकार के होते हैं:-

रूढ़िः रूढ़ि शब्द वे हैं, जिनकी व्युत्पत्ति नहीं की जा सकती,जो समुदाय के रूप में अर्थ की प्रतीति कराते हैं।
उदाहरण:-पेड़, चन्द्र, पशु, घर, धोड़ा आदि।

यौगिक: यौगिक शब्द वे हैं,जिनकी व्युत्पत्ति हो सकती है। इन शब्दों का अर्थ उनके अवयवों से ज्ञात होता है।
उदाहरण:-नरपति, भूपति, सुधांशु आदि।
भूपति शब्द भू+पति से निर्मित है। भू का अर्थ भूमि या पृथ्वी’, पति का अर्थ स्वामीहै। इन दोनों के मिलने से पृथ्वी का स्वामीअर्थ होता है।

 योगरूढ़ि: ये शब्द वे हैं,जो यौगिक होते है किंतु उनका अर्थ रूढ़ होता है।  उदाहरण:- पंकज -पंक+ज
यौगिक अर्थ है पंक से जन्म लेने वाला। पंक(कीचड़)से जन्म लेने वालें पदार्थों में सेवार,घोंघा,कमल आदि हैं। किंतु यह शब्द केवल कमलके अर्थ में रूढ़ हो गया है।

अर्थालंकार
जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है ,वहाँ अर्थालंकार होता है । अर्थालंकार में किसी शब्द विशेष के कारण चमत्कार नहीं रहता, वरन उसके स्थान पर यदि समानार्थी दूसरा शब्द रख दिया जाए तो भी अलंकार बना रहेगा  इसके प्रमुख भेद है - १.उपमा २.रूपक ३.उत्प्रेक्षा ४.दृष्टान्त ५.संदेह ६.अतिशयोक्ति इत्यादि

१.उपमा अलंकार :- जहाँ पर उपमेय से उपमान की तुलना की जाती है वहाँ उपमा अलंकार होता है । उपमा के चार अंग हैं- उपमेय, उपमान, वाचक और साधारण धर्म ।

उपमा के अंग - 
१- उपमेय (प्रस्तुत ) - जिसके लिए उपमा दी जाती है , या जिसकी तुलना की जाती है .
२- उपमान (अप्रस्तुत )- जिससे उपमा दी जाती है , या जिससे तुलना की जाती है .
३- वाचक शब्द - वह शब्द , जिसके द्वारा समानता प्रदर्शित  की जाती है . जैसे - ज्यों , जैसे , सम , सरिस , सामान आदि
४- समान धर्म - वह गुण अथवा क्रिया , जो उपमेय और उपमान , दोनों में पाया जाता है . अर्थात जिसके कारन इन दोनों को समान बताया जाता है .
जैसे - राधा      चन्द्र          सी             सुन्दर 
            |              |              |                  |
      उपमेय     उपमान  वाचक शब्द     समान धर्म
उदाहरण-
          पीपर पात सरिस मन डोला ।

उपमा के दो भेद होते है -  
१- पूर्णोपमा  - जब उपमा में इसके चारो अंग प्रत्यक्ष हो  ।
          जैसे - मुख मयंक सम मंजु मनोहर । मुख चन्द्रमा के समान सुन्दर है .
२- लुप्तोपमा  - जब उपमा के चारो अंगो में से कोई एक या अधिक अंग लुप्त हो । जैसे- कुन्द इन्दु सम देह
यहाँ पर साधारण धर्म लुप्त है
२.रूपक अलंकार :- रूपकं रूपितारोपोविषयेनिरपह्नवे।” जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाय ,वहाँ रूपक अलंकार होता है , यानी उपमेय और उपमान में कोई अन्तर न दिखाई पड़े । उदाहरण -
बीती विभावरी जाग री।
अम्बर -पनघट में डुबों रही ,तारा -घट उषा नागरी '
यहाँ अम्बर में पनघट ,तारा में घट तथा उषा में नागरी का अभेद कथन है। यह तीन प्रकार का होता है-
सांग रूपक- जहाँ पर उपमान का उपमेय में अंगों सहित आरोप होता है, वहाँ सांगरूपक अलंकार होता है ।                    उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृग ।।

निरंग रूपक- जहाँ सम्पूर्ण अंगों का साम्य न होकर केवल एक अंग का ही आरोप किया जाता है वहाँ निरंग रूपक होता है-  मुख-कमल समीप सजे थे, दो किसलय दल पुरइन के ।

परम्परित रूपक – जहाँ पर मुख्य रूपक एक अन्य रूपक पर आश्रित रहता है और वह बिना दूसरे रूपक के स्पष्ट नहीं होता है वहाँ परम्परित रूपक होता है ।
                                          सुनिय तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खल बधिक ।

३.उत्प्रेक्षा अलंकार :- जहाँ उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है यानी अप्रस्तुत को प्रस्तुत मानकर वर्णन किया जाता है। वहा उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यहाँ भिन्नता में अभिन्नता दिखाई जाती है। उत्प्रेक्षा अलंकार में मनु,मानो, जनु, जानों इत्यादि वाचक शब्द का प्रयोग होता है । उदाहरण -
सोहत ओढ़े पीत पट श्याम सलोने गात ।
मनो नीलमनि शैल पर आतप पर् यो प्रभात । ।
यह तीन प्रकार का होता है- फलोत्प्रेक्षा, हेतुत्प्रेक्षा, गम्योत्प्रेक्षा ।

४.अतिशयोक्ति अलंकार :- जहाँ पर लोक -सीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय का वर्णन होता है । वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण -
हनुमान की पूंछ में लगन  पायी आगि 
सगरी लंका जल गई ,गये निसाचर भागि। ।
यहाँ हनुमान की पूंछ में आग लगते ही सम्पूर्ण लंका का जल जाना तथा राक्षसों का भाग जाना आदि बातें अतिशयोक्ति रूप में कहीं गई है। यह सात प्रकार का होता है । रूपकातिशयोक्ति, भेदकातिशयोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति, सापह्नुवातिशयोक्ति, चपलातिशयोक्ति, अक्रमातिशयोक्ति, अत्यन्तातिशयोक्ति


5.संदेह अलंकार :- जहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत का संशयपूर्ण वर्णन हो ,वहाँ संदेह अलंकार होता है। जैसे -
'सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी है 
कि सारी हीकी नारी है कि नारी हीकी सारी है '
इस अलंकार में नारी और सारी के विषय में संशय है अतः यहाँ संदेह अलंकार है ।

6.दृष्टान्त अलंकार :- जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब -प्रतिबिम्ब भाव होता है ,वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती -जुलती बात उपमान रूप में दूसरे वाक्य में होती है। उदाहरण :-
'एक म्यान में दो तलवारें , कभी नही रह सकती है 
किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है । । '
इस अलंकार में एक म्यान दो तलवारों का रहना वैसे ही असंभव है जैसा कि एक पति का दो नारियों पर अनुरक्त रहना । अतः यहाँ बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव दृष्टिगत हो रहा है।

7.भ्रांतिमान अलंकार - जहाँ भ्रमवश उपमेय को उपमान समझ लिया जाता है , वहाँ भ्रांतिमान अलंकार होता है ।जैसे –                         
पाँय महावर देन को नाईन बैठी आय ।
फिरि-फिरि जानि महावरी, एड़ी मीड़त जाय ।।
   
8. विभावना अलंकार – जहाँ कारण के उपस्थित न होने पर भी कार्य हो रहा हो वहाँ विभावना अलंकार होता है ।जैसे –
बिनु पद चले , सुने बिनु काना  कर विनु कर्म करै विधि नाना ।
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु वाणी वक्ता बड़ जोगी ।।

9. व्यतिरेक अलंकार  - जहाँ उपमेय से उपमान की अधिकता अथवा न्यूनता बताया जाये वहाँ व्यतिरेक अलंकार होता है । जैसे –
साधू ऊँचे शैल सम , किन्तु प्रकृति  सुकुमार 
सन्त हृदय नवनीत समाना । कहा कविन्ह परि कहै न जाना ।।

10.अनन्वय अलंकार -जब उपमेय का कोई उपमान न होने के कारन उपमेय को ही उपमान बना दिया जाता है , तब उसे अनन्वय अलंकार होता है ।
जैसे - मुख मुख ही के सामान सुन्दर है
                                   ताते मुख मुखै सखि कमलौ न चन्द री ।
11.अपह्नुति अलंकार:-   जहाँ प्रस्तुत को छिपाकर अप्रस्तुत का आरोपण हो अर्थात जहाँ उपमान को ही सत्य की भाँति  प्रतिष्ठित किया जाए वहाँ अपह्नुति अलंकार होता है। जैसे
                   किंसुक गुलाब कचनार और अनारन की
                             डारन पर डोलत अंगारन को पुंज है ।

12. प्रतीप अलंकार -  यह उपमा का उल्टा होता है । अर्थात जब उपमेय को उपमान और उपमान को उपमेय बना दिया जाता है , तो वहां प्रतीप अलंकार होता है ।
जैसे - चन्द्रमा मुख के सामान सुन्दर है ।
  
13. उल्लेख अलंकार - जहाँ एक वस्तु का वर्णन अनेक प्रकार से किया जाए, वहाँ उल्लेख अलंकार होता है ।   उदाहरण
तू रूप है किरण में, सौंदर्य है सुमन में,
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में।
यहाँ रूप का किरण, सुमन, में और प्राण का पवन, गगन कई रूपों में उल्लेख है।

14. अर्थान्तरन्यास अलंकार - जहाँ सामान्य कथन का विशेष से या विशेष कथन का सामान्य से समर्थन किया जाए, वहाँ अर्थान्तरन्यास अलंकार होता है ।
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग ।।

15. विशेषोक्ति अलंकार- जहाँ पर कारण के उपस्थित होते हुए भी कार्य पूर्ण न हो रहा हो वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है । यह विभावना का उल्टा होता है । जैसे-
फूलई फलहिं न बेत, जदपि सुधा बरसहिं जलद ।
मूरख हृदय न चेत, जौ गुरु मिलइ बिरंचि सम ।।

16. विरोधाभास अलंकार- जहाँ पर किसी पदार्थ, गुण या क्रिया में बिरोध दिखलाई पड़े वहाँ पर विरोधाभास अलंकार होता है । जैसे-
जाकी सहज स्वासि श्रुति चारी। सो हरि पढ़ि कौतुक भारी ।

17.व्याजस्तुति अलंकार- जहाँ निन्दा के बहाने स्तुति तथा स्तुति के बहाने निन्दा का वर्णन किया जाता है वहाँ पर व्याजस्तुति अलंकार होता है ।
बाउ कृपा मूरति अनूकूला । बोलत बचन झरत जनू फूला।




18. असंगति अलंकार- कार्य तथा कारण का अलग-अलग स्थानों पर वर्णन ही असंगति अलंकार कहलाता है ।जैसे-
पलनि पीक अंजन अधर, धरे महावर भाल ।
आजु मिले सु भली करी भले बने हो लाल ।
यहाँ अधरों पर पीक है तथा गालों पर महावर है । अर्थात कार्य एवं कारण में भिन्नता है इसलिये यहाँ पर असंगति अलंकार है ।

19.समासोक्ति अलंकार- जहाँ पर अप्रस्तुत को लक्ष्य करके उसके सादृश्य अन्य वस्तु के प्रति कथन किया जाता है वहाँ पर समासोक्ति अलंकार होता है । जैसे-
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इह काल ।
अली कली हीं सौ बध्यौं आगे कवन हवाल ।।

20. स्मरण अलंकार- जहाँ पर किसी सादृश्य उपमान के कारण उपमेय का स्मरण हो वहाँ पर स्मरण अलंकार होता है । जैसे
स्याम सुरति करि राधिका, तकति तरनजा तीर ।
अँसुवनि करति तरौंस कौ, छिनकु खरौंहे नीर ।।

अर्थालंकारों पर एक नजर-
आपका मुख चंद्रमा के समान है- उपमा
चंद्रमा आपके मुख के समान है- प्रतीप
आपका चंद्रमुख- रूपक
यह आपका मुख है कि चन्द्र- संदेह
यह चन्द्र है आपका मुख नहीं है- अपह्नुति
चन्द्र आपके मुख के समान है, आपका मुख चन्द्र के समान है- उपमेयोपमा
आपका मुख आपके मुख के समान ही है- अनन्वय
चन्द्र को देखकर आपके मुख का स्मरण हुआ- स्मरण
आपके मुख को चन्द्र जानकर चकोर आपके मुख की ओर उडा- भ्रान्तिमान
यह चन्द्रकमल है ऐसा समझकर चकोर तथा भ्रमर आपके मुख की ओर उड़ रहे हैं – उल्लेख
आपका मुख मानों चन्द्र है- उत्प्रेक्षा
यह द्वितीय चन्द्र है- अतिशयोक्ति
रात्रि में चन्द्रमा और आपका मुख दोनों आनन्दित होते हैं- दीपक
चन्द्र रात्रि में उल्लसित होता है किन्तु आपका मुख सदैव उल्लसित रहता है- व्यतिरेक
 जिस प्रकार आकाश में चन्द्र है उसी प्रकार पृथ्वी पर आपका मुख है- दृष्टान्त
आकाश में चन्द्र विराजमान है पृथ्वी पर आपका मुख विराजमान है- प्रतिवस्तूपमा
आपका मुख चन्द्रमा की शोभा को धारण करता है- निदर्शना
आपके मुख के सम्मुख चन्द्रमा फीका है- अप्रस्तुत प्रशंसा
आपके चन्द्रमुख के कारण कामाग्नि शान्त हो जाती है- परिणाम
चंद्रमा तुम्हारे मुख के साथ रात के समय प्रसन्न रहता है- सहोक्ति
रस
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे 'रस' कहा जाता है।  पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायीभाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस के रूप में परिणत हो जाता है। रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना जाता है।
 आचार्यों ने रसों को दो भागों में विभाजित कर दिया।
सुखात्मक वर्ग- श्रृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत और शान्त, ये पाँच रस अनुकूल वेदनीय होने के नाते सुखात्मक वर्ग में रखे गए ।
दुखात्मक वर्ग- करुण, रौद्र, वीभत्स और भयानक, ये चार रस प्रतिकूल वेदनीय होने से दु:खात्मक वर्ग में माने गए।
रसों के इस वर्ग विभाजन का मूल स्रोत काफ़ी पुराना है, यद्यपि सर्वाधिक प्रसिद्धि इसके लिए रामचन्द्र गुणचन्द्र को ही मिली। उनके नाट्यदर्पणकी 109वीं कारिका है - सुखदु:खात्मक को रस:। नाट्यशास्त्रकी अभिनव भारतीटीका में भी कहा गया है - सुख-दु:खस्वभावो रस:’, अर्थात रस सुख-दु:ख स्वभाव वाले होते हैं। यह नाट्यदर्पणसे पहले की रचना है।

रस के अवयव- रस के चार अवयव या अंग हैं:-
1.स्थायी भाव- स्थायी भाव का मतलब है प्रधान भाव। प्रधान भाव वही हो सकता है जो रस की अवस्था तक पहुँचता है। काव्य या नाटक में एक स्थायी भाव शुरू से आख़िरी तक होता है। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है। स्थायी भाव ही रस का आधार है। एक रस के मूल में एक स्थायी भाव रहता है। अतएव रसों की संख्या भी 9 हैं, जिन्हें नवरस कहा जाता है। मूलत: नवरस ही माने जाते हैं। बाद के आचार्यों ने 2 और भावों वात्सल्य और भगवद विषयक रति को स्थायी भाव की मान्यता दी है। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 तक पहुँच जाती है और तदनुरूप रसों की संख्या भी 11 तक पहुँच जाती है।
विभाव- स्थायी भावों के उद्बोधक कारण को विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं-
1.आलंबन विभाव
2.उद्दीपन विभाव
आलंबन विभाव-  जिसका आलंबन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं आलंबन विभाव कहलाता है। जैसे- नायक-नायिका। आलंबन विभाव के दो पक्ष होते हैं:-आश्रयालंबन, विषयालंबन   जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालंबन तथा जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह विषयालंबन कहलाता है। उदाहरण : यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।

उद्दीपन विभाव- जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चाँदनी, कोकिल कूजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान, नायक या नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ आदि।











क्रोध
रंग- रक्त लाल
देवता- रुद्र
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। 
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥ 
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। 
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥
भय
रंग-काला
देवता- कालदेव
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। 
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों - सी॥
जुगुप्सा/घृणा
रंग-नील वर्ण
देवता- महाकाल
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। 
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत॥ 
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै माँस उपारत। 
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत॥(
भारतेन्दु)
विस्मय/आश्चर्य
रंग-ब्रह्मा
देवता- पीत
अखिल भुवन चर- अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। 
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥(सेनापति)
शम\निर्वेद कुन्द पुष्प विष्णु
मन रे तन कागद का पुतला। 
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना॥ (
कबीर)
वात्सल्य
किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। 
मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत॥
भगवद् विषयक रति\अनुराग
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। 
घोर भव नीर- निधि, नाम निज नाव रे॥

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4 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

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Admin ने कहा…

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चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल' ने कहा…

धन्यवाद;

Acchisiksha ने कहा…

हिंदी व्याकरण में रस को काव्य की आत्मा माना गया है, रस शब्द का अर्थ आनन्द है जब हम किसी काव्य को पढ़ते या सुनते है उस समय हमारे मन को जिस आनन्द की अनुभूति होती है उसे रस कहा जाता है| रस – परिभाषा, प्रकार और उदाहरण – Ras Kya Hai Prakar Aur Udahran (Ras In Hindi) रीतिकाल के आचार्य चिंतामणि लिखते है “जो सुन पड़े सो शब्द है, समुझि परे सो अर्थ” इस पंक्ति का अर्थ है जो सुनाई पड़े वो शब्द है, और जो समझ आये वो उस शब्दका अर्थ है

शास्त्री I & II सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य प्रथम एवं द्वितीय सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य तृतीय एवं चतुर्थ सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा प्रथम (9)- पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा द्वितीय (10) पाठ्यपुस्तक

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
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