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पाठ 09. कर्मनाशा की हार-शिवप्रसाद सिंह

 कर्मनाशा की हार-शिवप्रसाद सिंह


काले सांप का काटा आदमी बच सकता हैहलाहल ज़हर पीने वाले की मौत रुक सकती हैकिंतु जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू लेवह फिर हरा नहीं हो सकता. कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ आये तो बिना मानुस की बलि लिये लौटती नहीं. हालांकि थोड़ी ऊंचाई पर बसे हुए नयी डीह वालों को इसका कोई खौफ न थाइसी से वे बाढ़ के दिनों मेंगेरू की तरह फैले हुए अपार जल को देखकर खुशियां मनातेदो-चार दिन की यह बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आतीमुखियाजी के द्वार पर लोग-बाग इकट्ठे होते और कजली-सावन की ताल पर ढोलकें उनकने लगतीं. गांव के दुधमुंहे तक ‘ई बाढ़ी नदिया जिया ले के माने’ का गीत गातेक्योंकि बाढ़ उनके किसी आदमी का जिया नहीं लेती थी. किंतु पिछले साल अचानक जब नदी का पानी समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ता हुआनयी डीह से जा टकरायातो ढोलकें बह चलींगीत की कड़ियां मुरझाकर होंठों पे पपड़ी की तरह छा गयींसोखा ने जान के बदले जान देकर पूजा कीपांच बकरों की दौरी भेंट हुईकिंतु बढ़ी नदी का हौसला कम न हुआ. एक अंधी लड़कीएक अपाहिज बुढ़िया बाढ़ की भेंट रहीं. नयी डीह वाले कर्मनाशा के इस उग्र रूप से कांप उठेबूढ़ी औरतों ने कुछ सुराग मिलाया. पूजा-पाठ कराकर लोगों ने पाप-शांति की.

एक बाढ़ बीतीबरस बीता. पिछले घाव सूखे न थे कि भादों के दिनों में फिर पानी उमड़ा. बादलों की छांव में सोया गांव भोर की किरण देखकर उठा तो सारा सिचान रक्त की तरह लाल पानी से घिरा था. नयी डीह के वातावरण में हौलदिली छा गयी. गांव ऊंचे अरार पर बसा थाजिस पर नदी की धारा अनवरत टक्कर मार रही थीबड़े-बड़े पेड़ जड़-मूल के साथ उलटकर नदी के पेट में समा रहे थेयह बाढ़ न थीप्रलय का संदेश थानयी डीह के लोग चूहेदानी में फंसे चूहे की तरह भय से दौड़-धूप कर रहे थेसबके चेहरे पर मुर्दनी छा गयी थी.

“कल दीनापुर में कड़ाह चढ़ा था पांड़ेजी,” इंसुर भगत हकलाते हुए बोला. कुएं की जगत से बाल्टी का पानी लिये जगेसर पांड़े उतर रहे थे. घबड़ाकर बाल्टी सहित ऊपर से कूद पड़े.

“क्या कह रहे थे भगतकड़ाह चढ़ा थाक्या कहा सोखा ने?” चौराहे पर छोटी भीड़ इकट्ठी हो गयी. भगत अपने शब्दों को चुभलाते हुए बोले“काशीनाथ की सरनभाई लोगोसोखा ने कहा कि इतना पानी गिरेगा कि तीन घड़े भरे जाएंगेआदमी-मवेशी की छय होगीचारों ओर हाहाकार मच जाएगापरलय होगी.”

“परलय न होगीतब क्या बरक्कत होगीहे भगवानजिस गांव में ऐसा पाप करम होगा वह बहेगा नहींतब क्या बचेगा?” माथे के लुग्गे को ठीक करती हुई धनेसरा चाची बोलीं“मैं तो कहूं कि फुलमतिया ऐसी चुप काहे है. राम रे रामकुतिया ने पाप कियागांव के सिर बीता. उसकी माई कैसी सतवंती बनती थी. आग लाने गयी तो घर में जाने नहीं दियामैं तो तभी छनगी की हो न हो दाल में कुछ काला है. आग लगे ऐसी कोख में. तीन दिन की बिटिया और पेट में ऐसी घनघोर दाढ़ी.”

“कुछ साफ़ भी कहोगी भौजी,” बीच में जगेसर पांड़े बोले“क्या हुआ आखिर?

“हुआ क्याफुलमतिया रांड मेमना लेके बैठकी है. विधवा लड़की बेटा बियाकर सुहागिन बनी है.”

“ऐ कब हुआ” सबकी आंखों में उत्सुकता के फफोले उभर आये. आगत भय से सबकी सांसें टंगी रह गयीं. तभी मिर्चे की तरह तीखी आवाज़ में चाची बोलीं“कोई आज की बात हैतीन दिन से सौरों में बैठी है डाइन. पाप को छाती से चिपकाये हैयह भी न हुआ कि गर्दन मरोड़कर गड़हे-गुच्ची में डाल दे.”

लोगों को परलय की सूचना देकरहवा में उड़ते हुए आंचल को बरजोरी बस में करती चाची दूसरे चौराहे की ओर बढ़ चलीं. गांव का सारा आतंकभयपाप उनके पीछे कुत्ते की तरह दुम दबाये चले जा रहे थे. सबकी आंखों में नयी डीह का भविष्य थारक्त की तरह लाल पानी में चूहे की तरह ऊभ-चूभ करते हुए लोग चिल्ला रहे थेमौत का ऐसा भयंकर स्वप्न भी शायद ही किसी ने देखा था.

भैरों पांड़े बैसाखी के सहारे अपनी बखरी के दरवाजे में खड़े बाढ़ के पानी का ज़ोर देख रहे थेअपार जल में बहते हुए सांप-बिच्छू चले आ रहे थे. मरे हुए जानवर की पीठ पर बैठा कौआ लहर के धक्के से बिछल जाताभीगे चूहे पानी से बाहर निकलते तो चील झपट पड़ते. विचित्र दृश्य है- पांडे न जाने क्यों बुदबुदाए. फिर मिट्टी की बनी पुरानी बखरी की ओर देखा. पांड़े के दादा-देस-दिहात के नामी-गिरामी पंडित थेउनका ऐसा इकबाल था कि कोई किसी को कभी सताने की हिम्मत नहीं करता था. उनकी बनवायी है यह बखरी. भाग की लेख कौन टारे. दो पुश्त के अंदर ही सभी कुछ खो गयामुट्ठी में बंद जुगनू हाथ के बाहर निकल गया और किसी ने जाना भी नहीं. आज से सोलह साल पहले मां-बांप एक नन्हा लड़का हाथ में सौंपकर चले गयेपैर से पंगु भैरों पांड़े अपने दो बरस के छेटे भाई को कंधे से चिपकाये असहायनिरवलम्ब खड़े रह गये- धन के नाम पर बाप का कर्ज़ मिलाकाम-धाम के लिए दुधमुंहे भाई की देख-रेखरहने के लिए बखरी जिसे पिछली बाढ़ के धक्कों ने एकदम जर्जर कर दिया है.

“अब यह भी न बचेगी”- पांड़े के मुंह से भवितव्य फूट रहा था जिसकी भयंकरता पर उन्होंने ज़रा भी ख्याल करना ज़रूरी नहीं समझा. दरारों से भरी दीवारें उनके खुरदरे हाथों के स्पर्श से पिघल गयींवर्षा का पानी पसीज कर हाथों में आंसू की तरह चिपक गया.

सनसनाती हवा गांव के इस छोर से उस छोर तक चक्कर लगा रही थी. विधवा फुलमतिया को बेटा हुआ हैबेटा-कुतिया के पाप से गांव तबाह हो रहा हैराम राम ऐसा पाप भैरों पांड़े के कानों में आवाज़ के स्पर्श से ही भयंकर पीड़ा पैदा हो गयी. बैसाखी उनके शरीर के भार को सम्भाल न सकी और वे धम्म से चौखट पर बैठ गये. बाजू के धक्के से कुहनी छिल गयीचिनचिनाती कुहनी का दर्द उनके रोयें-रोयें में बिंध रहा थाऔर पांड़े इस पीड़ा को होंठों के बीच दबाने का प्रयत्न कर रहे थे.

“सब कुछ गया”- वे बुदबुदाए. कर्मनाशा की बाढ़ उनकी उस जर्जर बखरी को हड़पने नहींउनके पितामह की उस अमूल्य प्रतिष्ठा को हड़पने आयी हैजिसे अपनी इस विपन्न अवस्था में भी पांड़े ने धरती पर नहीं रखा. दुलार से पली वह प्रतिष्ठा सदा उनके कंधे पर पड़ी रही. “मैं जानता था कि वह छोकरा इस खानदान का नाश करने आया है”- पांड़े की आंखों में उनके छोटे भाई की तस्वीर नाच उठी. अठारह वर्ष का छरहरा पानीदार कुलदीपजिसकी आंखों में भैरों को मां की छाया तैरती नज़र आतीउसके काले काकुल को देखकर मुखियाजी कहते कि इस पर भैरों पांड़े के दादा की लौछार पड़ी है. पांड़े हो-हो कर हंस पड़ते. “जा रे कुलदीपबरामदे में बैठकर पढ़.” भैरों पांड़े मन में बुदबुदाते- ‘तेरे आंख में सौ कुंड चालूहरामी कहीं कालड़के पर नज़र गड़ाता हैकुछ भी हुआ इसे तो भगवान कसम तेरा गला घोंट दूंगाबड़ा आया मुखियाजी’फिर ज़रा बढ़ के बोलते- “क्या लौछार पड़ेगी मुखियाजीदादा के पास तो पांच पछाहीं गाएं थींएक से एकदो धन दुह लें तो पंचसेरी बाल्टी भर जाती थी. यहां तो इस लौंडे को दूध पचता ही नहीं. फिर साल-बारह महीने हमेशा मिलता भी कहां है हम गरीबों को?

“अब वह पुराने जमाने की बात कहां रही पांड़ेजी,” मुखिया कहता है और अपने संकेतों से शब्दों में मिर्चे की तिताई भरकर चला जाता. काले-काले काकुलों वाला नवजवान कुलदीप उसे फूटी आंखों नहीं सुहाताकिंतु भैरों पांड़े के डर से वह कुछ कह न पता.

भैरों पांड़ेदिन-भर बरामदे में बैठकर रुई से बिनौले निकालतेतूंमतेसूत तैयार करते और अपनी तकली नचा-नचाकर जनेऊ बनातेजजमानी चलातेपत्रा देख देतेसत्यनारायण की कथा बांच देतेऔर इससे जो कुछ मिलताकुलदीप की पढ़ाई और उसके कपड़े-लत्ते आदि में खर्च हो जाता.

यह सब-कुछ मर-मर कर किया था इसी दिन को- पांड़े की आंखों में प्यास छा गयीलड़के ने उन्हें किसी ओर का नहीं रखा. आज यहां आफत मची हैआप पता नहीं कहां भाग कर छिपा है.

“राम जाने कैसे हो,” सूखी आंखों से दो बूंदें गिर पड़ीं“अपने से तो कौर भी नहीं उठा पाता थाभूखा बैठा होगा कहींबैठे-मरे हम क्या करें.” पांडे ने बैसाखी उठायी. बगल की चारपाई तक गये और धम्म से बैठ गये. दोनों हाथों में मुंह छिपा लिया और चुप लेटे रहे.

पूरबी आकाश पर सूरज दो लट्ठे ऊपर चढ़ आया था. काले-काले बादलों की दौड़-धूप जारी थीकभी-कभी हल्की हवा के साथ बूंदें बिखर जातीं. दूर किनारों पर बाढ़ के पानी की टकराहट हवा में गूंज उठती. भैरों पांड़े उसी तरह चारपाई पर लेटे आंगन की ओर देख रहे थे. बीचोंबीच आंगन के तुलसी-चौरा था जो बरसात के पानी से कटकर खुरदरा हो गया था. पुराने पौधे के नीचे कई मासूम मरकती पत्तियों वाले छोटे-छोटे पौधे लहराने लगे थे. वर्षा की बूंदें पुराने पौधे की सख्त पत्तियों पर टकराकर बिखर जातींटूटी हुई बूंदों की फुहार धीरे-से मासूम पौधों पर फिसल जातींकितने आनंद-मग्न थे वे मासूम पौधे. पांड़े की आंखों के सामने कातिक की वह शाम भी नाच उठी. दो बरस पहले की बात होगी. शाम के समय जब वे बरामदे में लेटे थेफुलमत आयीअपनी बाल्टी मांगनेसुबह भैरों पांड़े ले आये थे किसी काम से.

“कुलदीपज़रा भीतर से बाल्टी दे देना,” कहा था पांड़े ने. सफेद साड़ी में लिपटी-लिपटाई गुड़िया की तरह फुलमत आंगन में इसी चौरे के पास आकर खड़ी हो गयी थी. और बाल्टी उठाने के लिए जब कुलदीप झुका था तो फुलमत भी अपने दोनों हाथों से आंचल का खूंट पकड़कर तुलसीजी की वंदना करने के लिए झुकी थी. कुलदीप के झटके से उठने पर वह उसकी पीठ से टकरा गयी थी अचानक. तब न जाने क्यों दोनों मुस्करा उठे थे. भैरों पांड़े क्रोध से तिलमिला गये थे. वे गुस्से के मारे चारपाई से उठे तो देखा कि कुलदीप बाल्टी लिये खड़ा था और फुलमत तुलसी-चौरे पर सिर रखकर प्रार्थना कर रही थी. न जाने क्योंपांड़े की आंखें भर आयीं. बरसात के दिनों के बाद इस खुरदरे चौरे को उनकी मां पीली मिट्टी के लेवन से संवार फिर श्वेत बलुई माटी से पोत कर सफेद कर देतीं. शाम को सूखे हुए चबूतरे पर घी के दीपक जलाकर माथा टेककर वे लड़कों के मंगल के लिए विनय करतीं. तब वे भी ऐसे ही झुककर आशीर्वाद मांगतीं और पांड़े बगल में चुपचाप खड़े दियों का जलना देखा करते थे.

पांड़े को सामने खड़ा देख कुलदीप हड़बड़ाया और फुलमत बाल्टी लेकर चुपचाप बाहर चली गयी. पांड़े के चेहरे पर एक विचित्र भाव थाजिसे सम्भाल सकने की ताकत उन दोनों के मन में न थीऔर दोनों ही भय की कम्पन लिये इधर-उधर भाग खड़े हुए.

बहुत दिनों तक पांड़े के चेहरे पर अवसाद का यह भाव बना रहा. कुलदीप डर के मारे उनकी ओर देख नहीं पातान तो पहले जैसी ज़िद कर सकने को हिम्मत होतीन हंसी के कलरव से घर के कोने-कोने को गुंजान बनाने का साहस. पांड़े ने अपने दिल को समझायाइसे लड़कों का क्षणिक खिलवाड़ समझा. सोचाधरती की छाती बड़ी कड़ी है. ठेस लगते ही सारी गुलाबी पंखुरियां बिखर जाएंगीदोनों को दुनिया का भाव-ताव मालूम हो जाएगा.

पांड़े के रुख से फुलमत भी सशंक हो गयी थीवह इधर कम आती. कुलदीप के उठने-बैठनेपढ़ने-लिखने पर पांड़े की कड़ी नज़र थी. वह किताब खोलकर बैठता तो दीये की टेम में श्वेत वत्रों में लिपटी फुलमत खड़ी हो जातीपुस्तक के पन्ने खुले रह जाते और वह एकटक दीये की लौ की ओर देखता रह जाता. पांड़े को उसकी यह दशा देखकर बड़ा क्रोध आतापर कुछ कहते नहीं.

“कुलदीप”एक बार टोक भी दिया था- “क्या देखते रहते हो इस तरहतबीयत तो ठीक है न?

“जी,” इतना ही कहा था कुलदीप नेऔर फिर पढ़ने लग गया था. दीये की टेम कुलदीप के चेहरे पर पड़ रही थीजिसे पीछे घने अंधकार में लेटे पांड़े क्रोधमोह और न जाने कितने प्रकार के भावों के चक्कर में झूल रहे थे. उन्हें फुलमत पर बेहद गुस्सा आता. टीमल मल्लाह की यह विधवा लड़की मेरा घर चौपट करने पर क्यों तुली हैबाप मरापति मराअब न जाने क्या करेगी. जाने कौन-सा मंत्र पढ़ दिया. यह कबूतर की तरह मुंह फुलाये बैठा रहता है. न पढ़ता हैन लिखता है. हंसनाखेलनाखाना सब भूल गया. पांड़े चारपाई से उतरकर इधर-उधर चक्कर लगाते रहे. पर कुछ निर्णय न कर सके.

समय बीतता गया. कुलदीप भी खुश नज़र आता. हंसता-खेलता. पांड़े की छाती से चिंता का भारी पत्थर खिसक गया. एक बार फिर उनके चेहरे पर हंसी की आभा लौटने लगी. रुई-सूत का काम फिर शुरू हुआ. गांव के दो-चार उठल्ले-निठल्ले आकर बैठ जातेदिन गपास्टक में बीत जाता. सुरती मल-मल ताल ठोंकने और पिच्च से थूककर किसी को गाली देते या निंदा करते. इन सब चीज़ों से वास्ता ना रखते हुए भी पांड़े सुनते जाते. उनका मन तो चक्कर खाती तकली के साथ ही घूमता रहताहूं-हां करते जाते और निठल्लों की बातों में सन्नाटे को किसी तरह झेल ले जाते.

पांड़े उसी चारपाई पर लेटे थे. अंतर इतना ही था कि दिन थोड़ा और ऊपर चढ़ आया थालहरों की टकराहट थोड़ी और तेज़ हो गयी थीरक्त की तरह खौलता हुआ लाल पानी गांव के थोड़ा और निकट आ गया था. उनकी नसें किसी तीव्र व्यथा से जल रही थीं. “पांड़े के वंश में कभी ऐसा नहीं हुआ था”- वे फुसफुसाये. बगल को दीवार में ताखे पर रामायन की गुटका रखी थीउन्होंने उठायाएक जगह लाल निशान लगा था. पिछले दिनों कुलदीप रात में रामायन पढ़ा करता था. जब से वह गया है आज तक गुटका खुली नहीं. पांड़े के हाथ कांपेगुटका उलटकर उनकी छाती पर गिर पड़ी. उठाकर खोलावही लाल निशान-

वह सीता भा विधि प्रतिकूला ।

मिलइ न पावक मिटइ न सूला ।।

सुनहु विनय नम विटप असोका ।

सत्य नाम करु हरु मम सोका ।।

पांड़े की आंखें भरभरा आयी. झरझर आंसू गिरने लगे. हिचकी लेकर वे टूट पड़े. “यह चुड़ैल मेरा घर खा गयी”- शब्द फूटेकिंतु भीतर घुमड़कर रह गये. “गाली देने से ही क्या होगा अबइतने तक रहता तो कोई बात थीआज उसे बच्चा हुआ हैकहीं कह दे कि लड़का कुलदीप का है तो नहींनहींऐसा नहीं हो सकता,” पांड़े बडबड़ाये. उन्होंने अपने बालों को मुट्ठियों से कसकर खींचाजैसे इनकी जड़ में पीड़ा जम गयी हैखींचने से थोड़ी राहत मिलेगी. वे उठना चाहते थेकिंतु उठ न सके. आंखों के सामने चिनगारियां फूटने लगीं. उन्हें आज मालूम हुआ कि वे इतने कमज़ोर हो गये हैं. कुलदीप के जाने के बाद से आज तक उनका जीवन अव्यवस्था की एक कहानी बनकर रह गया है. चार-पांच महीने से कुलदीप भागा हैपहले कई दिनों तक वे ज़रूर बहुत बेचैन थेकिंतु समय ने दुख को भुलाने में मदद की थी. आज फिर कुलदीप उनकी आंखों के सामने आकर खड़ा हो गया. बीती घटनाएं एक-एक कर आंखों के सामने नाचने लगीं.

फागुन का आरम्भ था. मुखिया जी की लड़की की शादी थी. गांवभर में खुशी छायी रहतीजैसे सबके घर शादी होने वाली हो. शादी के दिन तो गांववालों में बनने-संवरने की होड़ लग गयी. सब लोग पट्टी कटा रहे थेशौकीनों की पट्टी चार-चार अंगुल चौड़ीछुरे से बनी थी. कुएं की जगत पर दोपहर के दो घंटे पहले से भीड़ लगी थीऔर अब दो बजने को आयेसाबुन लग रही थीपैरों में जमी मैल सिकड़े से रगड़-रगड़ कर छुड़ायी जा रही थी.

बारात आयी. द्वार-पूजा की शोभा का क्या कहनाबनारस की रंडी नाचने आयी थी. छैल-छबीलों की भीड़ जम गयी थी. शाम को महफिल जमी. मुखिया जी का दरवाज़ा आदमियों से खचाखच भरा था. एक ओर गली में सिमटकर औरतें बैठी हुई थीं. गांव की लड़कियांबूढ़ियां और कुछ मनचली बहुएं. बाई जी आयी. अपना ताम-झाम फैलाकर बैठ गयी. सारंगी लेकर बूढ़े मियां ने किन-किन कियाबाई जी ने अलाप के बाद गाया–

नीच उंच कुछ बूझत नाहींमैं हारी समझाव

वे दोनों नैना बड़े बेदरदी दिल में गड़ि गयो हाव

महफिल से बहुत दूरगांव के छोर पर आमों के पेड़ों पर फागुन के पीले चांद की छाया फैली थीजिसके नीचे चितकबरे के चाम की तरह फैली चांदनी में एक प्रश्न उठा“मुखिया जी की महफिल में पतुरिया ने जो गीत गाया थाकितना सही था?

“कौन-सा गीत?

“ये दोनों नैना बड़े बेदरदी”

“धत्!”

“उस दिन मैं बड़ी देर तक इंतज़ार करता रहा!”

“मेरी मां के सिर में दर्द था.”

“कौन है?” ज़ोर की आवाज़ गूंज उठी थी.

पास की गली में एक छाया खो गयी थी.

“कौन है?” फिर आवाज़ आयी थी.

“मैं हूं कुलदीप!”

“यहां क्या कर रहे हो?

“नदी की ओर चला गया था!”

“इस समय?

“पेट में दर्द था!”

क्रोध की हालत में भी भैरों पांड़े मुस्करा उठे थे- झूठेपेट में दर्द था कि आंख में. कुलदीप का सिर लज्जा से झुक गया था. उसे लगा जैसे एक क्षण का यह भयप्रद जीवन उसकी आत्मा पर सदा के लिए छा जाएगा. एक क्षण के लिए बोला हुआ यह झूठ उसके जीवन को झूठा साबित कर देगा. एक क्षण के लिए झुका यह माथा फिर कभी न उठ सकेगा. वह झूठ के इस पर्दे को फाड़ डालना चाहता थाकिंतु “कुलदीप” भैरों पांड़े ने आहिस्ते-आहिस्ते कहा“तुम गलत रास्ते पर पांव रख रहे होबेटातुमने कभी अपने बाप-दादों की इज्जत के बारे में सोचा हैबड़े पुण्य के बाद इस घर में जन्म मिला है भाईइसे कभी मत भूलना कि अच्छे घर में जन्म लेने से कोई बहुत बड़ा नहीं हो जाताकिंतु इस अवसर को गलत कहकर नीचे गिरने से बड़ा पाप और कोई नहीं है.” कुलदीप को लगा कि तीखे कांटों वाली कोई जीवित मछली उसके गले में फंस गयी हैगर्दन को चीरती हुई यदि वह निकल जाए तो भी गनीमतकिंतु यह असह्य पीड़ा तो नहीं सही जाती और न जाने क्यों वह हिचकियों से फूट-फूटकर रो उठा था. भाई के मन की पीड़ा की कल्पना भी उसके लिए कष्टकर थीकिंतु उसकी आत्मा अपने सम्पूर्ण भाव से जिस वस्तु को वरेण्य समझती हैउसे वह एकदम ही व्यर्थ कैसे कह दे! जिस छाया में न जाने क्यों उसे एक अजाने आनंद का अनुभव होता हैउसे कालिख कह सकना उसके वश की बात नहीं थीऔर इस कष्ट के भार को उसकी आंखें सम्भाल न सकीं. भैरों पांड़े भी भाई से लिपट गये थे. उसकी पीठ सहला रहे थे और उसे बार-बार चुप हो जाने को कह रहे थे“यदि कोई देख ले तो,” उनके मन में आया और वे कुलदीप को जल्दी-जल्दी खींचते हुए एक ओर चले गये.

आंसुओं में जो पश्चाताप उमड़ता हैवह दिल की कलौज को मांज डालता है. पांड़े ने सोचा था कि कुलदीप अब ठीक रास्ते पर आ जाएगा. उनके वंश की मर्यादा अपमान के तराजू पर चढ़ने से बच जाएगीभूखों रहकर भी पांड़े ने इज्जत के जिस बिरवे को खून से सींचकर तरोताज़ा रखा हैउस पर किसी के व्यंग-कुठार नहीं चलेंगे. किंतु एक महीना भी नहीं बीता कि कुलदीप फिर उसी रास्ते पर चल पड़ा. छोटे भाई के इस कार्य को छिपकर देखने की पापाग्नि में भैरों पांड़े अपनी आत्मा को जलते हुए देखतेकिंतु वे विवश थे.

चैत के दिनों में गर्मी से जली-तपी कर्मनाशा किनारे के नीचे सिमट गयी थी. नदी के पेट में दूर तक फैले हुए लाल बालू का मैदानचांदनी में सीपियों के चमकते हुए टुकड़ेसामने के ऊंचे अरार पर घन-पलास के पेड़ों की आरक्त पांतेंबीच में घुग्घूचारों ओर जल-विहार करने वाले पक्षियों का स्वर कगार से नदी तीर तक बने हुए छोटे-बड़े पैरों के निशानों की दो पंक्तियां सिर्फ दो.

“तुम मुझे मझधार में लाकर छोड़ तो नहीं दोगे!” घुटन और शंका में खोये हुए धीमे स्वर. श्यामा की चीरती दर्द-भरी आवाज़.

एक चुप्पीफिर हकलाती आवाज़“मैं अपना प्राण दे सकता हूंकिंतु तुमको… कभी नहीं”.

चांदनी की झीनी परतें सघन होती जा रही थींसुनसान किनारे पर भटकी हवा की सनसनाहट में आवाज़ों का अर्थ खो जाताकभी हल्के हास्य की नर्म ध्वनिकभी आक्रोश के बुलबुलेकभी उल्लास तरंगकभी सिसकियों की सरसराहट.

भैरों पांड़े एक बार चांदनी के इस पवित्र आलोक में अपनी क्रूरता और निर्ममता पर विचार करने के लिए रुक गयेतो क्या आज तक का उनका सारा प्रयत्न निष्फल थाक्या वे असाध्य को सम्भव बनाने का ही प्रयत्न करते रहेएक क्षण के लिए भैरों पांड़े ने सोचा- काशफुलमत अपनी ही जाति की होती! कितना अच्छा होतायह विधवा न होती. तुलसी चौरे की वंदना पांड़े के मस्तिष्क में चंदन की सुगंध की तरह छा गयी. उसका रूपचाल-चलनसंकोच सब-कुछ किसी को भी शोभा देने लायक था. एक क्षण के लिए उनकी आंखों के सामने सफेद साड़ी में लिपटी फुलमत की पतली-दुबली काया हाथ जोड़कर खड़ी हो गयीजैसे वह आंचल फैलाकर आशीर्वाद मांग रही हो. भैरों पांड़े विजड़ित खड़े थेदिग्मूढ़.

“यह असम्भव है!” पांड़े ने बैसाखी सम्भाली और नीचे की ओर लपके.

“कुलदीप!” बड़ी कर्कश आवाज़ थी पांड़े की.

दोनों सिर झुकाये सामने खड़े थेआज पहली बार पाप की साक्षी में दोनों समवेत दिखाई पड़े थे. पांड़े फिर एक क्षण के लिए चुप हो गये.

“मैं पूछता हूंयह सब क्या है?” पांड़े चिल्लाये“इतने निर्लज्ज हो तुम दोनों?” पांड़े बढ़कर सामने आयेफुलमत की ओर मुंह फेरकर बोले“तू इसकी ज़िंदगी क्यों बिगाड़ना चाहती हैक्या तू नहीं जानती कि तू जो चाहती है वह स्वप्न में भी नहीं हो सकताकभी नहीं!”

फुलमत चुप थीपांड़े दूने क्रोध-से बोले“चुप क्यों है चुड़ैलबोलती क्यों नहीं?

“मैं क्यों इनकी ज़िंदगी बिगाडूंगीदादा?”- वह सहसा एकदम निचुड़ गयी“मैंने तो इन्हें कई बार मना किया.”

“कुलदीप!” पांड़े दहाड़े“सीधे रास्ते पर आ जाओअच्छा होगा. तुमने भैरों का प्यार देखा है क्रोध नहींजिन हाथों से मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया हैउसी से तुम्हारा गला घोटते मुझे देर न लगेगी.”

“दादा!” कुलदीप हकलाया“हम दोनों.”

“पापीनीच” भैरों पांड़े के हाथ की पांचो अंगुलियां कुलदीप के चेहरे पर उभर आयी“मैं सोचता था तू ठीक हो जाएगा!” पांड़े क्रोध से कांप रहे थे“लेकिन नहींतू मेरी हत्या करने पर तुल ही गया है.” वे फुलमत की ओर घूमकर चिल्लाये“क्या खड़ी है डायनभाग नहीं तो तेरा गला घोंटकर इसी पानी में फेंक दूंगा!”

अंधड़ को पीते हुए तृषित सांप जैसा स्वर“यह सब मैंने किया था.” पांड़े चारपाई पर घायल सांप की तरह तड़फड़ाते हुए बुदबुदाये. उनकी छाती से सरककर रामायण की गुटका ज़मीन पर गिर पड़ी और उस पवित्र आराध्य वस्तु को उठाने का उन्हें ध्यान न रहा. कुलदीप दूसरे ही दिन लापता हो गया. पांड़े अपनी बैसाखी के सहारे दिन भर गांव-गिरांव की खाक छानते फिरेकिंतु वह नहीं मिला. थककरहार कर पांड़े वापस आ गये. बाप-दादों की इज्ज़त की प्रतीक इतनी विशाल बखरीजिसकी दीवारें मुंह दबाये शांतपुजारी के तप की तरह अडिग खड़ी थींकिंतु कितनी सुनसानडरावनीनिष्प्राण पिंजर की तरह लगती थीं यह बखरी. चौखट पर पैर रखते हुए पांड़े की आत्मा कराह उठी- “चला गया!” बैसाखी रखकर पांड़े आंगन के कोने में बैठ गये- “अब वह कभी नहीं लौटेगा.”

रात में उन्हें बड़ी देर तक नींद नहीं आयी. कुलदीप को बचपन से लेकर आज तक उन्होंने कभी अपनी आंख की ओट नहीं होने दिया. छुटपन से लेकर आज तक खिलाया-पिलायापाला-पोसाऔर आज लड़का दगा देकर निकल गया. पांड़े अधरों की मेड़ के पीछे बिथा के सैलाब को रोकने का असफल प्रयत्न करते रहे.

भोर होने में देर थीउनींदी आंखें करुआ रही थींकिंतु मन की जलन के आगे उस दर्द का मोल. पांड़े उठकर टहलने लगे. सामने की बंसवार के भीतर से पूरबी क्षितिज पर ललछौहां उजास फूटने लगा था. गली के मोड़ के कच्चे मकान के भीतर से जांत की घर्र-घर्र गूंज रही थी. एक घुमड़ता गरगराहट का स्वरजिसके पीछे जांत वाली के कंठ की व्यथा की एक सुरीली तान टूट-टूटकर कौंध उठती थी.

मोहे जोगिनी बनाके कहां गइले रे जोगिया

पांड़े एक क्षण अवाक् होकर इस दर्दीले गीत को सुनते रहे. प्यासेभूले-भटकेथके हुए स्वरपांड़े की आत्मा में जैसे समान वेदना को पहचानकर उतरते चले जा रहे हों. “अब रोने चली है चुड़ैल!” पांड़े पागल की तरह बड़बड़ाते रहे“रो-रोकर मरमैं क्या करूं?

बाढ़ के लाल पानी में सूरज डूब रहा थापांड़े बैसाखी के सहारे आकर दरवाजे पर खड़े हुए नदी की ओर आदमियों की भीड़ खड़ी थी. वे धीरे-धीरे उधर ही बढ़े. सामने तीन-चार लड़के अरहर की खूंटियां गाड़कर पानी का बढ़ाव नाप रहे थे.

“क्या कर रहा हैछबीला!” पांड़े बलात चेहरे पर मुस्कराहट का भाव लाकर बोले.

“देखता नहीं लंगड़ेबाढ़ रोक रहे हैं!”

पांड़े मुस्कराये- “जैसा बाप वैसा बेटा. तेरा बाप भी खूंटिया गाड़ कर कर्मनाशा की बाढ़ को रोकना चाहता है.”
“वह भीड़ कैसी है रेछबीले?

“नहीं जानतेफुलमत को नदी में फेंक रहे हैं. उसके बच्चे को भी. उसने पाप किया है.” छबीला फिर गम्भीर खड़े पांड़े से सटकर बोला- “क्यों पांड़े चाचाजान लेकर बाढ़ उतर जाती है न?

“हांहां” पांड़े आगे बढ़ा. बोतल की टीप खुल गयी थी. पांड़े के मन में भयानक प्रेत खड़ा हो गया. “चलोन रहेगा बांसन बजेगी बांसुरी. हूंचली थी पांड़े के वंश में कालिख पोतने. अच्छा ही हुआ कि वह छोकरा भी आज नहीं है.”

फुलमत अपने बच्चे को छाती से चिपकाये टूटते हुए अरार पर एक नीम के तने से सटकर खड़ी थी. उसकी बूढ़ी मां जार-बेजार हो रही थीकिंतु आज जैसे मनुष्य ने पसीजना छोड़ दिया थाअपने-अपने प्राणों का मोह इन्हें पशु से भी नीचे उतार चुका थाकोई इस अन्याय के विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं करता था. कर्मनाशा को प्रणों की बलि चाहिएबिना प्रणों की बलि लिये बाढ़ नहीं उतरेगी फिर उसी की बलि क्यों न दी जाय जिसने पाप किया… परसाल जान के बदले जान दी गयीपर कर्मनाशा दो बलि लेकर ही मानी… त्रिशुंक के पाप की लहरें किनारों पर सांस की तरह फुफकार रही थीं. आज मुखिया का विरोध करने का किसी में साहस न था. उसके नीचता के कार्यों का ऐसा समर्थन कभी न हुआ था. “पता नहींकिस बैर का बदला ले रहा है बेचारी से.” भीड़ में कई इस तरह सोचतेऐसा तो कभी नहीं हुआ थाकिंतु कौन बोले सब मुंह सिये खड़े थे.

“तुम्हारी क्या राय है भैरों पांडे!” मुखिया बोला“सारे गांव ने फैसला कर दिया- एक के पाप के लिए सारे गांव को मौत के मुंह में नहीं झोंक सकते. जिसने पाप किया है उसका दंड भी वही भोगे.”

एक वीभत्स सन्नाटा. पांड़े ने आकाश की ओर देखाआगे बढ़ेफुलमत भय से चिल्ला उठी. पांड़े ने बच्चे को उसकी गोद से छीन लिया. “मेरी राय पूछते हो मुखिया जीतो सुनोकर्मनाशा की बाढ़ दुधमुंहे बच्चे और एक अबला की बलि देने से नहीं रुकेगीउसके लिए तुम्हें पसीना बहाकर बांधों को ठीक करना होगा. कुलदीप कायर हो सकता हैवह अपने बहू-बच्चे को छोड़कर भाग सकता हैकिंतु मैं कायर नहीं हूं. मेरे जीते-जी बच्चे और उसकी मां का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता समझे?

“तो यह है बूढ़े पांड़े जी की बहू!” मुखिया व्यंग से बोला“पाप का फल तो भोगना ही होगापांड़े जीसमाज का दंड तो झेलना ही होगा.”

“ज़रूर भोगना होगामुखिया जी मैं आपके समाज को कर्मनाशा से कम नहीं समझता. किंतुमैं एक-एक के पाप गिनाने लगूं तो यहां खड़े सारे लोगों को परिवार समेत कर्मनाशा के पेट में जाना पड़ेगा. है कोई तैयार जाने को?

लोग अवाक् पांड़े को देख रहे थेजो अपने कंधे से छोटे बच्चे को चिपकाये अपनी बैसाखी के सहारे खड़े थे. पत्थर की विशाल मूर्ति की तरह उन्नतप्रशस्तअटल कर्मनाशा के लाल पानी में सूरज डूब
रहा था.

जिन उद्धत लहरों की चपेट से बड़े-बड़े विशाल पीपल के पेड़ धराशायी हो गये थेवे एक टूटे नीम के पेड़ से टकरा रही थींसूखी जड़ें जैसे सख्त चट्टान की तरह अडिग थींलहरें टूट-टूटकर पछाड़ खाकर गिर रही थीं. शिथिल-थकी पराजित.

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पाठ 08. वापसी -उषा प्रियंवदा

 वापसी -उषा प्रियंवदा


गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नजर दौड़ाई - दो बक्‍सडोलचीबालटी - 'यह डिब्‍बा कैसा हैगनेशी?' उन्‍होंने पूछा। गनेशी बिस्‍तर बाँधता हुआकुछ गर्वकुछ दुखकुछ लज्‍जा से बोला, 'घरवाली ने साथ को कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहाबाबूजी को पसंद थे। अब कहाँ हम गरीब लोगआपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव कियाजैसे एक परिचितस्‍नेहआदरमयसहज संसार से उनका नाता टूट रहा हो।

'कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।गनेशी बिस्‍तर में रस्‍सी बाँधता हुआ बोला।

'कभी कुछ जरूरत हो तो लिखना गनेशी। इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।'

गनेशी ने अँगोछे के छोर से आँखें पोंछीं, 'अब आप लोग सहारा न देंगेतो कौन देगाआप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।'

गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेलवे क्‍वार्टर का यह कमराजिसमें उन्‍होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका सामान हट जाने से कुरूप और नग्‍न लग रहा था। आँगन में रोपे पौधे भी जान-पहचान के लोग ले गए थे और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी। पर पत्‍नीबाल-बच्‍चों के साथ रहने की कल्‍पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठ कर वि‍लीन हो गया।

गजाधर बाबू खुश थेबहुत खुश। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर हो कर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्‍होंने अकेले रह कर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्‍होंने इसी समय की कल्‍पना की थीजब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि में उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्‍होंने शहर में एक मकान बनवा लिया थाबड़े लड़के अमर और लड़की कांति की शादियाँ कर दी थींदो बच्‍चे ऊँची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्रायः छोटे स्‍टेशनों पर रहे और उनके बच्‍चे और पत्‍नी शहर मेंजिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्‍वभाव से बहुत स्‍नेही व्‍यक्ति थे और स्‍नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ थाड्यूटी से लौट कर बच्‍चों से हँसते-बोलतेपत्‍नी से कुछ मनोविनोद करतेउन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। खाली क्षणों में उनसे घर में टिका न जाता। कवि प्रकृति के न होने पर भी उन्‍हें पत्‍नी की स्‍नेहपूर्ण बातें याद आती रहतीं। दोपहर में गर्मी होने पर भीदो बजे तक आग जलाए रहती और उनके स्‍टेशन से वापस आने पर गरम-गरम रोटियाँ सेंकती... उनके खा चुकने और मना करने पर भी थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देतीऔर बड़े प्‍यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आतेतो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वार पर निकल आती और उसकी सलज्‍ज आँखें मुस्‍करा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती और वह उदास हो उठते... अब कितने वर्षों बाद वह अवसर आया थाजब वह फिर उसी स्‍नेह और आदर के मध्‍य रहने जा रहे थे।

टोपी उतार कर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दीजूते खोल कर नीचे खिसका दिएअंदर से रह-रह कर कहकहों की आवाज आ रही थी। इतवार का दिन था और उनके सब बच्‍चे इकठ्ठे हो कर नाश्‍ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे चेहरे पर स्निग्‍ध मुस्‍कान आ गईउसी तरह मुस्कराते हुए वह बिना खाँसे अंदर चले आए। उन्‍होंने देखा कि नरेंद्र कमर पर हाथ रखे शायद गत रात्रि की फिल्‍म में देखे गए किसी नृत्‍य की नकल कर रहा था और बसंती हँस-हँस कर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदनआँचल या घूँघट का कोई होश न या और वह उन्‍मुक्‍त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेंद्र धप से बैठ गया और चाय का प्‍याला उठा कर मुँह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढक लियाकेवल बसंती का शरीर रह-रह कर हँसी दबाने के प्रयत्‍न में हिलता रहा।

गजाधर बाबू ने मुस्कराते हुए उन लोगों को देखा। फिर कहा, 'क्‍यों नरेंद्रक्‍या नकल हो रही है?' 'कुछ नहीं बाबूजी।नरेंद्र ने सिटपिटा कर कहा। गजाधर बाबू ने चाहा था कि वह भी इस मनोविनोद में भाग लेतेपर उनके आते ही जैसे सब कुंठित हो चुप हो गए। उससे उनके मन में थोड़ी-सी खिन्‍नता उपज आई। बैठते हुए बोले, 'बसंतीचाय मुझे भी देना। तुम्‍हारी अम्‍मा की पूजा अभी चल रही है क्‍या?'

बसंती ने माँ की कोठरी की ओर देखा, 'अभी आती ही होंगी', और प्‍याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहू चुपचाप पहले ही चली गई थीअब नरेंद्र भी चाय का आखिरी घूँट पी कर उठ खड़ा हुआकेवल बसंतीपिता के लिहाज मेंचौके में बैठी माँ की राह देखने लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पीफिर कहा, 'बिट्टी - चाय तो फीकी है।'

'लाइए चीनी और डाल दूँ।बसंती बोली।

'रहने दोतुम्‍हारी अम्‍मा जब आएगीतभी पी लूँगा।'

थोड़ी देर में उनकी पत्‍नी हाथ में अर्ध्‍य का लोटा लिए निकली और अशु्द्ध स्‍तुति कहते हुए तुलसी में डाल दिया। उन्‍हें देखते ही बसंती भी उठ गई। पत्‍नी ने आ कर गजाधर बाबू को देखा और कहा, 'अरेआप अकेले बैठे हैं - ये सब कहाँ गए?' गजाधर बाबू के मन में फाँस-सी करक उठी, 'अपने-अपने काम में लग गए है - आखिर बच्‍चे ही है।'

पत्‍नी आ कर चौके में बैठ गईंउन्‍होंने नाक-भौं चढ़ा कर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा, 'सारे में जूठे बर्तन पड़े हैं। इस घर में धरम-धरम कुछ नहीं। पूजा करके सीधे चौके में घुसो।फिर उन्‍होंने नौकर को पुकाराजब उत्‍तर न मिला तो एक बार और उच्‍च स्‍वर मेंफिर पति की ओर देख कर बोलीं, 'बहू ने भेजा होगा बाजार।और एक लंबी साँस ले कर चुप हो रही।

गजाधर बाबू बैठ कर चाय और नाश्‍ते का इंतजार करते रहे। उन्‍हें अचानक ही गनेशी की याद आ गई। रोज सुबहपैसेंजर आने से पहले वह गरम-गरम पूरियाँ और जलेबी बनाता था। गजाधर बाबू जब तक उठ कर तैयार होतेउनके लिए जलेबियाँ और चाय ला कर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़ियाकाँच के गिलास में ऊपर तक भरी लबालबपूरे ढाई चम्‍मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचेगनेशी ने चाय पहुँचाने मे कभी देर नहीं की। क्‍या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े।

पत्‍नी का शिकायत-भरा स्‍वर सुन उनके विचारों में व्‍याघात पहुँचा। वह कह रही थीं, 'सारा दिन इसी खिच-खिच में निकल जाता है। इस गृहस्‍थी का धंधा पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई जरा हाथ भी नहीं बँटाता।'

'बहू क्‍या किया करती है?' गजाधर बाबू ने पूछा।

'पड़ी रहती है। बसंती को तोफिर कहो कॉलेज जाना होता है।'

गजाधर बाबू ने प्‍यार से समझाया, 'तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्‍हारी माँ बूढ़ी हुईउनके शरीर में अब वह शक्ति नहीं बची हैं। तुम होतुम्‍हारी भाभी हैदोनों मिल कर काम में हाथ बँटाना चाहिए।'

बसंती चुप रह गई। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने धीरे से कहा, 'पढ़ने का तो बहाना है। कभी जी ही नहीं लगता। लगे कैसेशीला से ही फुरसत नहींबड़े-बड़े लड़के हैं उनके घर मेंहर वक्‍त वहाँ घुसा रहनामुझे नहीं सुहाता। मना करूँ तो सुनती नहीं।'

नाश्‍ता कर गजाधर बाबू बैठक में चले गए। घर छोटा था और ऐसी व्‍यवस्‍था हो चुकी थी कि उसमें गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्‍थान न बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्‍थायी प्रबंध कर दिया जाता हैउसी प्रकार बैठक में कुरसियों को दीवार से सटा कर बीच में गजाधर बाबू के लिए पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे में पड़े-पड़ेकभी-कभी अनायास हीइस अस्‍थायित्‍व का अनुभव करने लगते। उन्‍हें याद हो आती उन रेलगाड़ियों कीजो आतीं और थोड़ी देर रुक कर किसी और लक्ष्‍य की ओर चली जातीं।

घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब अपना प्रबंध किया था। उनकी पत्‍नी के पास अंदर एक छोटा कमरा अवश्‍य थापर वह एक ओर के मर्तबानदाल-चावल के कनस्‍तर और घी के डिब्‍बों से घिरा थादूसरी ओर पुरानी रजाइयाँ दरियों में लिपटी और रस्‍सी से बँधी रखी थींउसके पास एक बड़े-से टीन के बक्‍स में घर भर के गरम कपड़े थे। बीच में एक अलगनी बँधी हुई थीजिस पर प्रायः बसंती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास थातीसरा कमराजो सामने की ओर थाबैठक था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमें अमर की ससुराल से आया बेंत की तीन कुरसियों का सेट पड़ा थाकुरसियों पर नीली गद्दियाँ और बहू के हाथों के कढ़े कुशन थे।

जब कभी उनकी पत्‍नी को काई लंबी शि‍कायत करनी होतीतो अपनी चटाई बैठक में डाल पड़ जाती थीं। वह एक दिन चटाई ले कर आ गईं। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्‍थी की बातें छेड़ींवह घर का रवैया देख रहे थे। बहुत हल्‍के से उन्‍होंने कहा कि अब हाथ में पैसा कम रहेगाकुछ खर्च कम होना चाहिए।

'सभी खर्च तो वाजिब-वाजिब हैंकिसका पेट काटूँयही जोड़-गाँठ करते-करते बूढ़ी हो गईन मन का पहनान ओढ़ा।'

गजाधर बाबू ने आहतविस्मित दृष्टि से पत्‍नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्‍नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्‍लेख करतीं। यह स्‍वाभाविक थालेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उनसे यदि राय-बात की जाय कि प्रबंध कैसे होतो उन्‍हें चिंता कमसंतोष अधिक होता। लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थीजैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही जिम्‍मेदार थे।

'तुम्‍हें किस बात की कमी है अमर की माँ - घर में बहू हैलड़के-बच्‍चे हैंसिर्फ रुपए से ही आदमी अमीर नहीं होता।गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया। यह उनकी आंतरिक अभिव्‍यक्ति थी - ऐसी कि उनकी पत्‍नी नहीं समझ सकती। 'हाँबड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई हैदेखो क्‍या होता है?'

कह कर पत्‍नी ने आँखें मूँदीं और सो गईं। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्‍नी को देखते रह गए। यही थी क्‍या उनकी पत्‍नीजिसके हाथों के कोमल स्‍पर्शजिसकी मुस्‍कान की याद में उन्‍होंने संपूर्ण जीवन काट दिया थाउन्‍हें लगा कि लावण्‍यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई है और उसकी जगह आज जो स्‍त्री हैवह उनके मन और प्राणों के लिए नितांत अपरिचित है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्‍नी का भारी-सा शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा थाचेहरा श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्‍संग दृष्टि से पत्‍नी को देखते रहे और फिर लेट कर छत की और ताकने लगे।

अंदर कुछ गिरा और उनकी पत्‍नी हड़बड़ा कर उठ बैठीं, 'लो बिल्‍ली ने कुछ गिरा दिया शायद', और वह अंदर भागीं। थोड़ी देर में लौट कर आईं तो उनका मुँह फूला हुआ था, 'देखा बहू कोचौका खुला छोड़ आईबिल्‍ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी तो खाने को हैंअब क्‍या खिलाऊँगी?' वह साँस लेने को रुकीं और बोलीं, 'एक तरकारी और चार पराँठे बनाने में सारा डिब्‍बा घी उँड़ेल कर रख दिया। जरा-सा दर्द नहीं हैकमाने वाला हाड़ तोड़े और यहाँ चीजें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नहीं है।'

गजाधर बाबू को लगा कि पत्‍नी कुछ और बोलेगी तो उनके कान झनझना उठेंगे। ओंठ भींचकरवट ले कर उन्‍होंने पत्‍नी की ओर पीठ कर ली।

रात का भोजन बसंती ने जान-बूझ कर ऐसा बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके। गजाधर बाबू चुपचाप खा कर उठ गएपर नरेंद्र थाली सरका कर उठ खड़ा हुआ और बोला, 'मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।'

बसंती तुनक कर बोली, 'तो न खाओकौन तुम्‍हारी खुशामद करता है।'

'तुमसे खाना बनाने को कहा किसने था?' नरेंद्र चिल्‍लाया।

'बाबूजी ने।'

'बाबूजी को बैठे-बैठे यही सूझता है।'

बसंती को उठा कर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बना कर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्‍नी से कहा, 'इतनी बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का शऊर नहीं आया।'

'अरेआता तो सब कुछ हैकरना नहीं चाहती।पत्नी ने उत्तर दिया। अगली शाम माँ को रसोई में देखकपड़े बदल कर बसंती बाहर आईतो बैठक से गजाधर बाबू ने टोक दिया, 'कहाँ जा रही हो?'

'पड़ोस में शीला के घर।बसंती ने कहा।

'कोई जरूरत नहीं हैअंदर जा कर पढ़ो।गजाधर बाबू ने कड़े स्‍वर में कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रह कर बसंती अंदर चली गई। गजाधर बाबू शाम को रोज टहलने चले जाते थेलौट कर आए तो पत्‍नी ने कहा, 'क्‍या कह दिया बसंती सेशाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नहीं खाया।'

गजाधर बाबू खिन्‍न हो आए। पत्‍नी की बात का उन्‍होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। उन्‍होंने मन में निश्‍चय कर लिया कि बसंती की शादी जल्‍दी ही कर देनी है। उस दिन के बाद बसंती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना होता तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्‍नी से पूछा तो उत्तर मिला, 'रूठी हुई है।गजाधर बाबू को रोष हुआ। लड़की के इतने मिजाजजाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं। फिर उनकी पत्‍नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग रहने की सोच रहा है।

'क्‍यों?' गजाधर बाबू ने चकित हो कर पूछा।

पत्‍नी ने साफ-साफ उत्तर नहीं दिया। अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थीं। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैंकोई आने-जानेवाला हो तो कहीं बिठाने को जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते थे और मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं। 'हमारे आने से पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी?' गजाधर बाबू ने पूछा। पत्‍नी ने सिर हिला कर बताया कि नहीं। पहले अमर घर का मालिक बन कर रहता थाबहू को कोई रोक-टोक न थी, अमर के दोस्‍तों का प्रायः यहीं अड्डा जमा रहता था और अंदर से नाश्‍ता चाय तैयार हो कर जाता रहता था। बसंती को भी वही अच्‍छा लगता था।

गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा, 'अमर से कहोजल्‍दबाजी की कोई जरूरत नहीं है।'

अगले दिन वह सुबह घूम कर लौट तो उन्‍होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं है। अंदर जा कर पूछने ही वाले थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अंदर बैठी पत्‍नी पर पड़ी। उन्‍होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ हैपर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्‍नी की कोठरी में झाँका तो अचाररजाइयों और कनस्‍तरों के मध्‍य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टाँगने को दीवार पर नजर दौड़ाई। फिर उसे मोड़ कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसका कर एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी होतन आखिरकार बूढ़ा ही था। सुबह-शाम कुछ दूर टहलने अवश्‍य चले जातेपर आते-जाते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा क्‍वार्टर याद आ गया। निश्चित जीवनसुबह पैसेंजर ट्रेन आने पर स्‍टेशन की चहल-पहलचिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट-खटजो उनके लिए मधुर संगीत की तरह थी। तूफान और डाक गाड़ी के इंजनों की चिंघाड़ उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजी मल की मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठतेवही उनका दायरा थावही उनके साथी। वह जीवन अब उन्‍हें एक खोई निधि-सा प्रतीत हुआ। उन्‍हें लगा कि वह जिंदगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्‍होंने जो कुछ चाहाउसमें से उन्‍हें एक बूँद भी न मिली।

लेटे हुए वह घर के अंदर से आते विविध स्‍वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़पबाल्टी पर खुले नल की आवाजरसोई के बर्तनों की खटपट और उसी में दो गौरैयों का वार्तालाप और अचानक ही उन्‍होंने निश्‍चय कर लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्‍वामी के लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह नहीं हैतो यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएँगे। यदि बच्‍चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्‍थान नहींतो अपने ही घर में परदेसी की तरह पड़े रहेंगे... और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र रुपए माँगने आया तो बिना कारण पूछे उसे रुपए दे दिए। बसंती काफी अँधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस में रही तो भी उन्‍होंने कुछ नहीं कहा - पर उन्‍हें सबसे बड़ा गम यह था कि उनकी पत्‍नी ने भी उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्‍य नहीं किया। वह मन-ही-मन कितना भार ढो रहे हैंइससे वह अनजान ही बनी रहीं। बल्कि उन्‍हें पति के घर के मामले में हस्‍तक्षेप न करने के कारण शांति ही थी। कभी-कभी कह भी उठतीं, 'ठीक ही हैआप बीच में न पड़ा कीजिएबच्‍चे बड़े हो गए हैंहमारा जो कर्तव्य थाकर रहे हैं। पढ़ा रहे हैंशादी कर देंगे।'

गजाधर बाबू ने आह‍त दृष्टि से पत्‍नी को देखा। उन्‍होंने अनुभव किया कि वह पत्‍नी और बच्‍चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त मात्र हैं। जिस व्‍यक्ति के अस्तित्‍व से पत्‍नी माँग में सिंदूर डालने की अधिकारिणी हैसमाज में उसकी प्रतिष्‍ठा हैउसके सामने वह दो वक्‍त भोजन की थाली रख देने से सारे कर्तव्‍यों से छुट्टी पा जाती है। वह घी और चीनी के डिब्‍बों में इतनी रमी हुई है कि अब वही उसकी संपूर्ण दुनिया बन गई है। गजाधर बाबू उनके जीवन के केंद्र नहीं हो सकतेउन्‍हें तो अब बेटी की शादी के लिए भी उत्‍साह बुझ गया। किसी बात में हस्‍तक्षेप न करने के निश्‍चय के बाद भी उनका अस्तित्‍व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी असंगत लगने लगी थीजैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी। उनकी सारी खुशी एक गहरी उदासीनता में डूब गई।

इतने सब निश्‍चयों के बावजूद एक दिन बीच में दखल दे बैठे। पत्‍नी स्‍वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थीं, 'कितना कामचोर हैबाजार की भी चीज में पैसा बनाता हैखाने बैठता हैतो खाता ही चला जाता है।गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके घर का रहन-सहन और खर्च उनकी हैसियत से कहीं ज्‍यादा है। पत्‍नी की बात सुन कर कहते कि नौकर का खर्च बिलकुल बेकार है। छोटा-मोटा काम हैघर में तीन मर्द हैंकोई न कोई कर ही देगा। उन्‍होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली, 'बाबूजी ने नौकर छुड़ा दिया है।'

'क्‍यों?'

'कहते हैं खर्च बहुत है।'

यह वार्तालाप बहुत सीधा सा थापर जिस टोन में बहू बोलीगजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नहीं गए थे। आलस्‍य में उठ कर बत्ती भी नहीं जलाई थी - इस बात से बेखबर नरेंद्र माँ से कहने लगा, 'अम्‍माँतुम बाबूजी से कहती क्‍यों नहींबैठे-बिठाए कुछ नहीं तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबूजी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेहूँ रख आटा पिसाने जाऊँगातो मुझ से यह नहीं होगा।' 'हाँ अम्‍माँ,' बसंती का स्‍वर था, 'मैं कॉलेज भी जाऊँ और लौट कर घर में झाड़ू भी लगाऊँयह मेरे बस की बात नहीं है।'

'बूढ़े आदमी हैं,' अमर भुनभुनाया, 'चुपचाप पड़े रहें। हर चीज में दखल क्‍यों देते हैं?' पत्‍नी ने बड़े व्‍यंग्‍य से कहा, 'और कुछ नहीं सूझातो तुम्‍हारी बहू को ही चौके में भेज दिया। वह गई तो पंद्रह दिन का राशन पाँच दिन में बना कर रख दिया।बहू कुछ कहेइससे पहले वह चौके में घुस गईं। कुछ देर में अपनी कोठरी में आईं और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाईं। गजाधर बाबू की मुख-मुद्रा से वह उनमें भावों का अनुमान न लगा सकीं। वह चुप आँखें बंद किए लेटे रहे।

गजाधर बाबू चिट्ठी हाथ में लिए अंदर आए और पत्‍नी को पुकारा। वह भीगे हाथ निकलीं और आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुईं। गजाधर ने बिना किसी भूमिका के कहा, 'मुझे सेठ रामजी मल की चीनी मिल में नौकरी मिल गई है। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएँवही अच्‍छा है। उन्‍होंने तो पहले ही कहा थामैंने ही मना कर दिया था।फिर कुछ रुक करजैसे बुझी हुई आग में चिनगारी चमक उठेउन्‍होंने धीमे स्‍वर में कहा, 'मैंने सोचा था कि बरसों तुम सबसे अलग रहने के बादअवकाश पा कर परिवार के साथ रहूँगा। खैरपरसों जाना है। तुम भी चलोगी?' 'मैं?' पत्‍नी ने सकपका कर कहा, 'मैं चलूँगी तो यहाँ का क्‍या होगाइतनी बड़ी गृहस्‍थीफिर सियानी लड़की...'

बात बीच में काट गजाधर बाबू ने हताश स्‍वर में कहा, 'ठीक हैतुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था।और गहरे मौन में डूब गए।

नरेंद्र ने बड़ी तत्‍परता से बिस्‍तर बाँधा और रिक्‍शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टीन का बक्‍स और पतला-सा बिस्‍तर उस पर रख दिया गया। नाश्‍ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया हाथ में लिए गजाधर बाबू रिक्‍शे पर बैठ गए। दृष्टि उन्‍होंने अपने परिवार पर डाली। फिर दूसरी ओर देखने लगे और रिक्शा चल पड़ा।

उनके जाने के बाद सब अंदर लौट आए। बहू ने अमर से पूछा, 'सिनेमा ले चलिएगा न?' बसंती ने उछल कर कहा, 'भइयाहमें भी।'

गजाधर बाबू की पत्‍नी सीधे चौके में चली गईं। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रख कर अपने कमरे में लाईं और कनस्‍तरों के पास रख दियाफिर बाहर आ कर कहा, 'अरे नरेंद्रबाबू की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है।'

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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