(पूर्वमेघः)
मेघदूतम् के पद्यों का अन्वय एवं टिप्पणी हमने डॉ रमाशंकर त्रिपाठी की 'सरस्वती-व्याख्या' पुस्तक से लिया है । अंकन में त्रुटियाँ हो सकती हैं, हम इसमें लगातार सुधार कर रहे हैं। आशा है आप इन त्रुटियों को टिप्पणी के माध्यम से अवश्य सूचित करेंगे । यह एक कॉपीराईट सामग्री है अतः इसका व्यवसायीकरण अथवा कॉपी-पेस्ट करने का प्रयास न करें ।
यदि आपको सामग्री आधा-अधूरा दिखाई दे रहा हो तो आप अपने मोबाईल को लैण्डस्केप (घुमा लें) कर लें।
1
|
कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा
स्वाधिकारात्प्रमत्तः
शापेनास्तङ्गमितमहिमा
वर्षभोग्येण भर्तुः।
यक्षश्चक्रे
जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु
वसतिं रामगिर्याश्रमेषु ॥१॥
|
अन्वयः-स्वाधिकारात्, प्रमत्तः, ( अतः ), कान्ताविरहगुरुणा,
वर्षभोग्येण,भर्तुः, शापेन,
अस्तङ्गमितमहिमा, कश्चित्, यक्षः, जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु,स्निग्धच्छायातरुषु, रामगिर्याश्रमेषु, वसतिम्, चक्रे ॥१॥
|
शब्दार्थ- स्वाधिकारात् = अपने कर्तव्य-पालन में, प्रमत्तः =
असावधान, ( अतः = इसीलिए ),
कान्ताविरहगुरुणा=प्रिया के वियोग से दुःसह, वर्षभोग्येण-वर्ष
पर्यन्त भोगे जावेवाले, भर्तुः-स्वामी के, शापेन शाप से, अस्तङ्गमितमहिमा शक्ति-विहीन, कश्चित् - किसी, यक्षः = यक्ष ने, जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु =जानकी के स्नान करने से पावन जलवाले, स्निग्धच्छायातरुषु =
घने नमेरु वृक्षों से युक्त, रामगिर्याश्रमेषु = रामगिरि ( नामक पर्वत के ) आश्रमों में, वसतिम् = निवास, चक्रे = किया
|
संस्कृत व्याख्या-
|
हिन्दी अर्थः-अपने कर्तव्य पालन में असावधान, (अतः) प्रिया के वियोग के कारण दुःसह,
वर्षपर्यन्त भोगे जानेवाले, स्वामी के शाप
से शक्ति-विहीन किसी यक्ष ने, जानकी के स्नान करने से पावन
नलवाले तथा घने नमेरु वृक्षों से युक्त राम-गिरि ( नामक पर्वत के ) आश्रमों में निवास किया ॥१॥
|
टिप्पणी-
|
तस्मिन्नद्रौ कतिचिदबलाविप्रयुक्तः स कामी
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः।
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श ॥२॥
अन्वयः-तस्मिन्,
अद्रौ,
अबलाविप्रयुक्तः,
(अतः, दौर्बल्येन
), कनकवलय भ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः,
कामी,
सः,
( यक्षः ), तिचित्,
मासान्,
नीत्वा आषाढस्य,
प्रथमदिवसे,
आश्लिष्टसानुम्,
वप्रक्रीडा परिणतगजप्रेक्षणीयम्,
मेघन
ददर्श ॥२॥
अर्थः-
उस पर्वत पर प्रियतमा से वियुक्त ( अतः दुर्बलता सुवर्ण कंकण के खिसककर गिर जाने
से खाली कलाई वाले, कामुक
ने कुछ महीने ( आठ महीने बिता कर आषाढ के प्रथम दिन पहाड़ की चोटी पर स्थित, वप्रक्रीड़ा (ढूसा मारने) में तिरछा दंत-प्रहार करने वाले हाथी की तरह दर्शनीय मेघ को देखा ।
तस्य स्थित्वा कथमपि पुरः कौतुकाधानहेतो-
रन्तर्बाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ।
मेघालोके भवति सुखिनोऽप्यन्यथावृत्तिचेतः
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनरसंस्थे॥३॥
अर्थः-यक्षराज
कुबेर का सेवक आँखों में आँसू रोककर उत्कंठा की उत्पत्ति करनेवाले उस ( मेघ ) के
सामने किसी-किसी तरह ( अर्थात् बड़े कष्ट से ) खड़ा होकर बड़ी देर तक चिंतामग्न
रहा। मेघ-दर्शन होने पर ( जब) प्रियतमा से सनाथ व्यक्ति का भी चित्त चञ्चल हो उठता
है ( तो ) गले से लिपट जाने की अभिलाषावाली प्रियतमा के दूर रहने पर फिर क्या कहना ?
प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम् ।
स प्रत्यग्रैः कुटजकुसुमैः कल्पितार्घाय तस्मेै
प्रीतःप्रीतिप्रमुखवचनं
स्वागतं व्याजहार ॥४॥
अन्वयः-नभसि, प्रत्यासन्ने ( सति ),दयिताजीवितालम्बनार्थी, सः, जीमू-तेन, स्वकुशलमयीम्, प्रवृत्तिम्, हारयिष्यन, प्रत्यग्रैः, कुटजकुसुमैः, कल्पितार्घाय, तस्मै, प्रीतः ( सन् ), प्रीतिप्रमुखवचनम्, स्वागतम्, व्याजहार ॥ ४॥
अर्थः-श्रावण
मास के अतिनिकट होने पर प्रियतमा की जीवन-रक्षा चाहने वाले उस ( यक्ष ) ने मेघ के
द्वारा अपने कुशलमय समाचार को भेजने की इच्छा से, तत्काल
तोड़े गये गिरिमल्लिका के पुष्पों से ( पहले ) पूजा करके उस (मेघ) के प्रति, प्रसन्न होकर प्रणयभरे
वचनों से पूर्ण स्वागत कहा ( अर्थात् प्रणयभरे वचनों से मेघ का स्वागत किया ) ॥ ४॥
धूम्र ज्योतिसलिलमरुता सन्निपातः क्व मेघः
सन्देशार्थाः क्व पटुकरणैः प्राणिभिः
प्रापणीयाः।
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन् गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥५॥
अन्वयः-धूमज्योतिःसलिलमरुतां
सन्निपातः (जड़ः) मेघः क्व ? (तथा
), पटुकरणः,
प्राणिभिः,
प्रापणीयाः,
सन्देशार्थाः,
क्व
? इति, औत्सुक्यात.अपरिगणयन्,
गुह्यकः,
तम्,
ययाचे;
हि,
कामार्ताः,
चेतनाचेतनेषु,
प्रकृतिकृपणाः,(भवन्ति
) ॥ ५॥
अर्थः-धुंआ,
तेज,
जल
और वायु का समूह (निर्जीव ) मेघ कहाँ और कुशल इंद्रियवाले प्राणियों के द्वारा
भेजे जाने योग्य संदेश कहाँ ? इस
बात का उत्कंठा के कारण विचार न करते हुए यक्ष ने उस (मेघ) से याचना की;
क्योंकि
कामातुर व्यक्ति सजीव और निर्जीव के विषय में विवेकशून्य (होते हैं)॥ ५॥
जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः ।
तेनाथित्वं त्वयि विधिवशाददूरबन्धुगतोऽहं
याञ्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्बकामा ॥६॥
अन्वयः-(हे
मेघ ! अहम् ), त्वाम्,
भुवनविदिते,
पुष्करावर्तकानाम्,
वंशे,जातम्,
कामरूपम्,
मघोनः,
प्रकृतिपुरुषम्,
जानामि
। तेन, विधिवशात्,
दूरबन्धुः,
अहम्,
त्वयि,
अर्थित्वम्,
गतः
। अधिगुणे, यात्रा,
मोघा,
अपि,
वरम्;
( किन्तु ),
अधमे,
लब्धकामा,
अपि,
न,
( वरम् ) ॥ ६॥
अर्थः-(हे
मेघ ! मैं ) तुझे जगद्विख्यात पुष्कर और आवतंक (नामवाले मेघों ) के कुल में
उत्पन्न, अपनी इच्छा के अनुसार
रूप धारण करने वाला, इंद्र
का प्रधान पुरुष जानता हूँ। यही कारण है कि भाग्यवश प्रियतमा से बिछुड़ा हुआ मैं
तुम्हारे पास याचना करने आया हूँ। क्योंकि अधिक गुणशाली व्यक्ति से (की
गयी ) याचना निष्फल होने पर भी कुछ ठीक है। परंतु निर्गुण व्यक्ति से की गयी याचना
सफल होने पर भी अच्छी नहीं है ॥६॥
सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद प्रियायाः
सन्देशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य ।
गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या॥७॥
अन्वयः-हे
पयोद ! त्वम्, सन्तप्तानाम्,
शरणम्,
असि,
तत्,
धनपतिक्रोध-विश्लेषितस्य,
मे,
सन्देशम्,
प्रियायाः,
हर,
बायोद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधीत-हा,
अलका
नाम, यक्षेश्वराणाम्,
वसतिः,
ते,
गन्तव्या
।। ७।।
अर्थः-हे
मेघ ! तुम संतप्तजनों के रक्षक हो। अतः कुबेर के कोप के कारण ( पत्नी से ) बिछड़े
हुए मेरे संदेश को प्रिया के पास पहुँचा दो। बाहर के उद्यान में विद्यमान शिव जी
के शिर पर स्थित चंद्रिका के कारण धवल प्रासादों से संपन्न अलका नाम वाली,
यक्षेश्वरों
की नगरी में तुम्हें जाना है ॥७॥
त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ताः
प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिताः
प्रत्ययादाश्वसत्यः ।
कः सन्नद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योऽप्यहमिव जनो यः पराधीनवृत्तिः॥८॥
अन्वयः-पवनपदवीम्,
आरूढम्,
त्वाम्,
पथिकवनिताः,
प्रत्ययात्,
आश्व-सत्यः,
उद्गृहीतालकान्ताः
( सत्यः ), प्रेक्षिष्यन्ते,
त्वयि,
सन्नद्धे
( सति ), अहम्,
इव,
यः,
जनः,
पराधीनवृत्तिः,
न,
स्यात्,
(सः ), कः,
अन्यः,
विरह-विधुराम्,
जायाम,
उपेक्षेत
॥८॥
स्त्रियाँ
( पति के शीघ्र आगमन के ) विश्वास से आश्वस्त होकर ( अपने ) धुंघराले केशों के
अग्र-भागों को उठाकर देखेंगी। तुम्हारे आकाश में उमड़ने पर मेरी तरह जो व्यक्ति पराधीन
नहीं होगा, ( ऐसा ) कौन दूसरा
व्यक्ति है जो वियोग से दुर्बल पत्नी को भुला सकेगा? ॥८॥
मन्दं मन्दं
नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां
वामश्चायं नदति मधुरं चातकस्ते सगन्धः ।
गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूनमाबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥9।।
वामश्चायं नदति मधुरं चातकस्ते सगन्धः ।
गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूनमाबद्धमालाः
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाकाः॥9।।
अन्वयः-अनुकूलः,
पवनः,
यथा,
मन्दं
मन्दम्, त्वाम्,
नुदति,
च,
सगन्धः,ते,
वामः,
अयम्,
चातकः,
मधुरम्,
नुदति,
गर्भाधानक्षणपरिचयात्,
खे,
आबद्ध-मालाः,
बलाकाः,
नयनसुभगम्,
भवन्तम्,
नूनम्,
सेविष्यन्ते
॥९॥
अर्थः-अनुकूल
( अर्थात् पीछे की ओर से बहनेवाला ) वायु भावी फल के अनुरूप हो अत्यंत धीरे-धीरे
तुम्हें प्रेरित कर रहा है। तथा गर्वीला, तुम्हारे
बायीं ओर स्थित, यह चातक मधुर शब्द कर
रहा है। गर्भाधान के आनंद के समय परिचय होने से, आकाश
में पंक्तिबद्ध बगुलियाँ नेत्रों को सुंदर लगनेवाले आपका निश्चय ही आश्रय लेंगी
॥९॥
तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नी-
मव्यापन्नामविहतगतिर्द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम्
।
आशाबन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां
सद्यःपाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि
॥१०॥
अन्वयः-(हे
मेघ),
अविहतगतिः, (त्वम् ), दिवसगणनातत्पराम्,
अव्या-पन्नाम्, एकपत्नीम्, ताम्, भ्रातृजायाम् , अवश्यम्,
द्रक्ष्यसि, च ( यतः ), आशा-बन्धः,
प्रणयि, कुसुमसदृशम्, विप्रयोगे,
मद्यपाति, अङ्गनानाम्, हृदयम्
, प्रायशः,रुणद्धि ॥१०॥
अर्थः-(हे
मेघ),
विघ्नरहित गतिवाले तुम ( विरह के अवशिष्ट ) दिनों की गणना में लगी
हुई, ( मेरे आने की आशा से ) जीवन धारण की हुई, पति-व्रता उस ( अपनी) भाभी ( अर्थात् मेरी पत्नी ) को निश्चय ही देखोगे,
क्योंकि आशारूप बंधन प्रेमपूर्ण, फूलों की तरह
( सुकुमार ), वियोग की अवस्था में तत्क्षण नष्ट हो जाने वाले,
सुंदरियों के जीवन को प्रायः रोक रखता है ॥ १०॥
कर्तुं यच्च प्रभवति
महीमुच्छिलीन्ध्रामबन्ध्यां
तच्छ्रुत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं
मानसोत्काः।
आकैलासाद्विसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः
संपत्स्यन्ते नभसि भवतो राजहंसाः सहायाः॥ ११ ॥
अन्वयः-यत्, महीम्, उच्छिलोन्ध्राम्, च,
अबन्ध्याम, कर्तुम्, प्रभवति,श्रवणसुभगम्, ते, तत्, गजितम्, श्रुत्वा, मानसोत्काः,
विसकिसलयच्छेदपाथेय-वन्तः, राजहंसाः, नभसि, आकैलासात्, भवतः,
सहायाः, संपत्स्यन्ते ॥ ११ ॥
आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुङ्गमालिङ्गय शैलं
वन्यैः पुंसां रघुपतिपदैरङ्कितं मेखलासु ।
काले काले भवति भवतो यस्य संयोगमेत्य
स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहजं मुञ्चतो बाष्पमुष्णम्
॥१२॥
अन्वयः-प्रियसखम्, तुङ्गम्, पुंसाम्, वन्द्यैः,
रघुपतिपदैः, मेखलासु, अङ्कितम्,
अमुम् , शैलम् , आलिङ्गय,
आपृच्छस्व, काले काले, भवतः,
संयोगम् , एत्य, चिरविरहजम्,
उष्णम् , बाष्पम्, मुञ्चतः,
यस्य, स्नेहव्यक्तिः , भवति
॥१२॥
अर्थः-(
अपने ) प्रिय मित्र, उन्नत और प्राणियों के लिये
वन्दनीय श्रीराम के चरणों से चिह्नित, इस पर्वत का आलिङ्गन
करके बिदा माँग लो । समय-समय पर तुम्हारे साहचर्य को पाकर बहुत दिनों के विरह से
उत्पन्न गरम बाष्प ( आँसू,
भाप
) को छोड़ने से जिस ( रामगिरि पर्वत ) के स्नेह की अभिव्यक्ति होती है।॥ १२॥
मार्गं तावच्छृणु कथयतस्त्वत्प्रयाणानुरूपं
सन्देशं मे तदनु जलद श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम् ।
खिन्नःखिन्नः शिखरिषु पदं न्यस्य गन्तासि यत्र
क्षीणः क्षीणः परिलघु पयः स्रोतसां चोपभुज्य
॥१३॥
अन्वयः-हे
जलद,
तावत्, कथयतः, ( मत्तः ),
त्वत्प्रयाणानुरूपम्, मार्गम्,शृणु, तदनु, श्रोत्रपेयम्,
मे, सन्देशम्, श्रोष्यसि,
यत्र, खिन्नः खिन्नः, (त्वम्
),शिखरिषु, पदम्, न्यस्य, क्षीणः क्षीणः ( सन् ), स्रोतसाम्, परिलघु, पयः,
च, उपभुज्य, गन्ता,
असि ।। १३ ॥
अर्थ:-हे
पयोद,
पहले बतलाने वाले मुझसे अपनी यात्रा के योग्य मार्ग को सुन लो । फिर
मेरे मधुर सन्देश को सुनना । जिस मार्ग में अत्यन्त श्रान्त हुए (तुम ) पर्वतों पर पैर रखकर ( अर्थात् पर्वत-शिखरों पर विश्राम कर ) अति क्षीण
होकर सरिताओं के हलके जल को पीकर ( पुनः आगे ) जाओगे ।। १३ ।।
अद्रेः शृङ्गं हरति पवनः
किंस्विदित्युन्मुखीभि-
दृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः।
स्थानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोदङ्मुखः खं
दिङ्नागानां पथि परिहरन् स्थूलहस्तावलेपान्
॥१४॥
अन्वयः-पवनः, अद्रेः, शृङ्गम्, हरति,
किंस्वित् ? इति, उन्मुखीभिः,
मुग्ध-सिद्धाङ्गनाभिः, चकितचकितम्, दृष्टोत्साहः, ( त्वम् ), सरसनिचुलात्,
अस्मात्,स्थानात्, पथि,
दिनागानाम्, स्थूलहस्तावलेपान्, परिहरन, उदङमुखः ( सन् ),खम,
उत्पत ॥ १४ ॥
अर्थ:-'वाय पर्वत के शिखर को उड़ाकर ले जा रहा है क्या ?' ऐसा
सोच कर ऊपर मुख उठाई हुई सिद्धों की भोली-भाली सुन्दरियाँ साश्चर्य ( तुम्हारे उत्साह
को देखें)। यह दृश्य देखते हुए ( तुम ) हरित स्थल वेतसों से भरे हुए इस स्थान से,
मार्ग में दिग्गजों की मोटी-मोटी सूँड़ों के प्रहारों को बचाते हुए, उत्तर की ओर
मुख करके आकाश में उड़ो।14
रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ता-
दूल्मीकानात्प्रभवति धनुःखण्डमाखण्डलस्य ।
येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः॥१५॥
अन्वयः--रत्नच्छायाव्यतिकर इव, प्रेक्ष्यम् , एतत्, आखण्डलस्य,
धनुःखण्डम्,पुरस्तात्, वल्मीकानात,
प्रभवति; येन, ते,
श्यामम्, वपुः, स्फुरितरुचिना,
बहण,गोपवेषस्य, विष्णोः ,
(श्यामम्, वपुः ), इव,
अतितराम, कान्तिम्, आपत्स्यते
।१५।।
अर्थः-(पद्मराग
आदि) मणियों की प्रभा के संमिश्रण की तरह दर्शनीय यह इन्द्र के धनुष का टुकड़ा
सामने वल्मीक (बाँबी) के ऊपर से निकल रहा है, जिससे तुम्हारा श्यामल शरीर, उज्जवल
कान्तिवाले मोरपंख से गोपवेश धारण करने वाले विष्णु के (श्याम शरीर के ) के समान
अत्यन्त शोभायमान होगा ।
त्वय्यायत्तं कृषिफलमिति भ्रविलासानभिजः
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः ।
सद्यःसीरोत्कषणसुरभि क्षेत्रमारुह्य मालं
किञ्चित्पश्चाद् व्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण
॥१६॥
अन्वयः
--कृषिफलम्, त्वयि, आयत्तम्,
इति, प्रीतिस्निग्धैः, भ्रूविलासाऽनभिज्ञैः,जनपदवधूलोचनैः, पीयमानः, ( त्वम्
) मद्यः, सीरोत्कपणमुरभि, मालम्,
क्षेत्रम्,आरुह्य, किञ्चित्,
पश्चात्, लघुगतिः ( मन् ), भूयः, उत्तरेण, एव, व्रज ॥१६॥
अर्थः-खेती
का फल तम्हारे ही अधीन है, इसलिए स्नेहभरी, भूविलासों से।अनभिज्ञ, गाँव की वधुओं की आँखों से
प्यारपूर्वक देखे जाते हुए ( तुम) तत्काल हल से जोतने के कारण सोंधी मालव-भूमि में
घेरा डालकर कुछ समय के पश्चात्
वेग
से फिर उत्तर की ओर चल देना ।। १६ ।।
स्वामासारप्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ना
वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूटः।
न क्षुद्रोऽपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
प्राप्ते मित्रे भवति विमुखः किं
पुनर्यस्तथोच्चैः॥१७॥
अन्वयः-आम्रकूटः, सानुमान्, आसारप्रशमितवनोपप्लवम्, अध्वश्रमपरि-गतम्, त्वाम्, मूर्ना,
साधु, वक्ष्यति; संश्रयाय,
मित्रे, प्राप्ते ( सति ), क्षुद्रः, अपि,प्रथमसुकृतापेक्षया,
विमुखः, न, भवति,
पुनः, यः, तथा, उच्चैः, (आस्ते, तस्य) किम् !
॥
१७॥
अर्थः-आम्रकूट
नामक पर्वत मुसलधार वृष्टि से ( अपनी) बनाग्नि को। बुझाने वाले तथा मार्ग के थके
हए तुझे ( अपने ) मस्तक पर (शिखर पर) भली-भांति धारण करेगा। आश्रय के लिए मित्र के
( अपने पास ) आने पर तुच्छ व्यक्ति भी (उस मित्र के द्वारा किये गये) पहले के
उपकार को सोंचकर विमुख नहीं होता है, तो फिर जो उस प्रकार ऊँचा (महान) है उसका
क्या कहना !
छन्नोपान्तः
परिणतफलद्योतिभिः काननाने-
स्त्वय्यारूढे शिखरमचलः
स्निग्धवेणीसवर्णे।
नूनं
यास्यत्यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्था
मध्ये श्यामः स्तन इव
भुवः शेषविस्तारपाण्डुः ॥१८॥
अन्वयः--परिणतफलद्योतिभिः, काननाम्रः, छन्नोपान्तः, (आम्र कूटः),अचलः, स्निग्धवेगीसवणे,
त्वयि, शिखरम्, आरूढे (
सति), मध्ये, श्यामः, शेष-विस्तारपाण्डुः, भुवः, स्तनः,
इव, अमरमिथुनप्रेक्षणीयाम्, अवस्थाम्, नूनम्,यास्यति ।।
१८॥
अर्थ:--पके फलों से प्रकाशमान वन के आम्रवृक्षों से
आच्छादित पावभागों वाला (आम्रकट) पर्वत, चिकनी चोटी जैसे श्याम वर्णवाले तुम्हारे शिखर पर चढ़ जाने पर, बीच में श्यामल तथा शेष स्थानों में चारों ओर गौर, (अतः)
पृथिवी
के स्तन की तरह (प्रतीत होता हुआ) देव-दम्पतियों के लिए
निश्चय ही अतिशय दर्शनीय हो जायगा। ( अवलोकनीय अवस्था को निश्चयही प्राप्त
होगा)।१८।
स्थित्वा
तस्मिन्वनचरवधूभुक्तकुळे मुहूर्त
तोयोत्सर्गद्रुततरगतिस्तत्परं
वर्त्म तीर्णः।
रेवां
द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णा
भक्तिच्छेदैरिव विरचितां
भूतिमङ्ग गजस्य ॥ १९ ॥
अर्थः-वनवासियों की कामिनियों के द्वारा उपभुक्त कुञ्जों से
युक्त उस ( आम्रकूट ) पर्वत पर
तनिक ठहर कर, जल की वृष्टि कर देने से अति शीघ्र- गामी होकर,
आम्रकूट के बाद वाले मार्ग को पार कर ( तुम ) ऊँचे-नीचे पत्थरों के
कारण विषम (अबड़-खाबड़ ) विन्ध्याचल के चरण-प्रान्त में बिखरी हुई नर्मदा नदी को,
हाथी के शरीर में बनायी गयी शृङ्गार रेखा के समान, देखोगे ॥ १९॥
तस्यास्तिक्तैर्वनगजमदैर्वासितं
वान्तवृष्टि-
जम्बूकुञ्जप्रतिहतरयं
तोयमादाय गच्छेः ।
अन्तःसारं घन ! तुलयितुं
नानिलः शक्ष्यति त्वां
रिक्तः सर्वो भवति हि
लघुः पूर्णता गौरवाय ॥ २० ॥
'अन्वयः-वान्तवृष्टिः, ( त्वम् ), तिक्तः, वनगजमदैः,
वासितम्, जम्बूकुञ्ज-पूपण प्रतिहतरयम्,
तस्याः , तायम्, आदाय,
गच्छे:; ( तदा ), अन्तःसारम्,
त्वाम्, अनिलः, तुलयितम्,
न, शक्ष्यति; हि,
रिक्तः, सर्वः, लघुः,
भवति, पूर्णता, गौरवाय,
(भवति ) ॥ २०॥
अर्थ:-जल-वृष्टि कर ( तुम ) जंगली हाथियों के कड़वे मदों से
सुरभित,जामन के कुञ्जों से टकरा कर बहने वाले उस (
नर्मदा ) के जल को पीकर जाना । ( उस समय ) अन्तर्बल बढ़ जाने पर वायु तुम्हें इधर
से उधर उड़ा देने में समर्थ नहीं होगा। क्योंकि आंतरिक बल से रहित होकर सभी हलके
होते हैं और पूर्णता गौरव प्रदान करती है ॥ २०॥
नीपं दृष्ट्वा हरितकपिशं केशरैरर्द्धरूलै-
राविर्भूतप्रथममुकुलाः कन्दलीश्वानुकच्छम् ।
जग्ध्वारण्येष्वधिकसुरभि गन्धमाघ्राय चोाः ।
__सारङ्गास्ते जललवमुचः
सूचयिष्यन्ति मार्गम् ॥२१॥
अन्वयः--सारङ्गाः, अर्धरूढः, केसरैः, हरितकपिशम्,
नीपम्, दृष्ट्वा,अनुकच्छम्,
आविर्भूतप्रथममुकुलाः, कन्दलीः, च, जग्ध्वा, अरण्येषु, अधिकसुरभिम्, उर्व्याः, गंधम्,
आघ्राय, जललवमुचः, ते,
मार्गम्, सूचयिष्यन्ति ॥ २१॥
अर्थः-भृङ्ग, कुरङ्ग और मतङ्ग (क्रमशः) अर्धस्फुट केसरों से, हरित-पीत
कदम्ब को देखकर, कछारों में उत्पन्न नवीन कलियों से युक्त,
कदली-राशि को चबाकर, जङ्गलों में अधिक सोंधी
पृथिवी की महक को सूंघ कर, जलबिन्दुओं को बरसाने वाले
तुम्हारे पथ को सूचित करेंगे ॥ २१ ॥
अम्भोबिन्दुग्रहणचतुराश्चातकान् वाक्षमाणाः
श्रेणीभूताः परिगणनया निर्दिशन्तो बलाकाः ।
त्वामासाद्य स्तनितसमये मानयिष्यन्ति सिद्धाः
सोत्कम्पानि प्रियसहचरीसंभ्रमालिङ्गितानि ॥ २१
क ॥
अन्वयः -अम्भोबिन्दुग्रहणचतुरान्, चातकान्, वीक्षमाणाः, ( तथा)
श्रेणी-भूताः, बलाकाः, परिगणनया,
निर्दिशन्तः, सिद्धाः, स्तनितसमये,
सोत्कम्पानि,प्रियसहचरीसंभ्रमालिङ्गितानि,
आसाद्य , त्वाम्, मानयिष्यन्ति
॥ २१ ॥
अर्थः-जलबिन्दुओं
के ग्रहण करने में निपुण चातकों को देखते हुए ( और ) पक्तिबद्ध बकावलियों को
गिन-गिन कर बतलाते हुए सिद्ध (तुम्हारे) गजन के समय डरकर काँपती हई प्रिय सहचरियों
के वेग के साथ दौड़कर किये गये।
आलिङ्गनों
को पाकर तुम्हारा सम्मान करेंगे ॥ २१-क ।।
उत्पश्यामि द्रुतमपि सखे मत्प्रियार्थ यियासोः
कालक्षेपं ककुभसुरभौ पर्वते पर्वते ते।
शुक्लापाङ्गः सजलनयनः स्वागतीकृत्य केकाः
प्रत्युद्यातः कथमपि भवान् गन्तुमाशु
व्यवस्येत् ॥22
अन्वयः--हे सखे, मत्प्रियार्थम्,
द्रुतम्, यियासोः, अपि,
ते, ककूभसूरभौ.पवते-पर्वते, कालक्षेपम्, उत्पश्यामि, सजलनयनः,
शुक्लापाङ्गः, केकाः, स्वागती-कत्य,
प्रत्युद्यातः, भवान्, कथमपि,
आशु, गन्तुम्, व्यवस्येत
॥ २२॥
अर्थः-हे
मित्र,
मेरी प्रियतमा के लिए शीघ्र जाने की इच्छा करनेवाले भी आपके ककुभ (
कहुआ) पुष्पों से सुगन्धित पर्वतों पर, कालक्षेप की संभावना करता
हूँ। अश्रुपूरित नेत्रोंवाले मयूरों के द्वारा अपनी स्वरलहरियों को स्वागतार्थ
फैलाकर अगवानी किये गये आप जिस किसी तरह हो तुरन्त जाने के लिये उद्योग कीजिएगा ॥
२२ ॥
पाण्डुच्छायोपवनवृतयः
केतकैः सचिभिन्नैः
नीडारम्भहबलिभुजामाकुलग्रामचैत्याः।
त्वय्यासन्ने
परिणतफलश्यामजम्बवनान्ताः
सम्पत्स्यन्ते
कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णाः ॥२३॥
अन्वयः-(हे मेघ, ), त्वयि, आसन्ने ( सति ), दशार्णाः,
सुचिभिन्नैः,केतकः, पाण्डुच्छायोपवनवृतयः,
गृहबलिभुजाम्, नीडारम्भैः, आकुलग्रामचैत्याः,परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ताः,
कतिपयदिनस्थायिहंसाः, सम्पत्स्यन्ते ॥ २३ ॥
तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां
राजधानी
गत्वा सद्यः फलमविकलं
कामकत्वस्य लब्धा ।
तीरोपान्तस्तनितसुभगं
पास्यसि स्वादु यस्मा-
त्सभ्रूभङ्ग मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोमि
॥ २४ ॥
अन्वयः-दिक्षु, प्रथितविदिशालक्षणाम् , तेषाम्, राजधानीम्, गत्वा, सद्यः,
कामकत्वस्य, अविकलम्, फलम्, लब्धा; यस्मात्, स्वादु, चलोमि,
वेत्रवत्याः, पयः सभ्रूङ्गम्, मुखम्, इव, तीरोपान्तस्तनितसुभगम्,
पास्यसि ॥ २४ ॥
अर्थः-(हे बादल,) तुम्हारे निकट आने पर दशार्ण देश के भाग ( आधुनिक छत्तीसगढ़ ) अग्रभाग में विकसित केतकी के फलों के कारण
कुछ धवल-पीत कान्ति बाले पुष्पा स सम्पन्न उपवन के घेरों से युक्त, घर की बलि को खाने वाले (काए आदि ) पक्षियां के घामलों की रचना से व्यास ग्राम
की गलियों के पवित्र (पीपल आदि ) वृक्ष वाले, पवे. फलों के कारण श्याम जामुन-वनों से व्याप्त छोर वाले तथा कुछ ही दिनों तक ठहरने वाले हंगों से
युक्त होंगे ।। २३ ॥
अर्थः -दिशाओं में विदिशा नाम से प्रसिद्ध उस ( दशार्ण जनपद
) की राजधानी
में पहुंच कर तःकाल कामुकता के समय फल को प्राप्त करोगे । क्योंकि
मघर, चञ्चल
तरजीवालो वेत्रवती के जल का, वक्र भ्र कटि से युक्त मुख की
भौति, तट
के समीप किये गये गर्जन को मनोहरता के साथ पान करोगे ॥ २४ ॥
नीचैराख्यं
गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतो-
स्त्वत्संपर्कात्पुलकितमिव
प्रौढपुष्पैः कदम्बैः ।
यः
पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिर्नागराणा-
मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभिर्योवनानि
॥ २५ ॥
अन्वयः-तत्र, विश्रामहेतोः, प्रौढपुष्पैः, कदम्बः,
त्वत्सम्पर्कात्, पुलकितम्,इव, नीचैराख्यम्, गिरिम् ,
अधिवसेः; यः, पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिः,
शिला- वेश्मभिः, नागराणाम् , उद्दामानि, यौवनानि, प्रथयति ॥
२५॥
अर्थः-वहाँ विदिशा के समीप विश्राम के लिए पूर्ण विकसित
फूलों वाले कदम्ब वृक्षों से तुम्हारे सम्बन्ध के कारण रोमाञ्चित से 'नीच' नामक पर्वत पर ठहरना;
जो पर्वत वेश्याओं की सुरत-क्रीड़ाओं में ( प्रयुक्त ) सुगन्ध को
फैलाने-बाले शिलागहों से नागरिकों के उद्दाम यौवन को प्रकट कर रहा है ॥ २५ ॥
विश्रान्तः सन् व्रज
वननदीतीरजातानि सिञ्चन
उद्यानानां नवजलकणैयूंथिकाजालकानि
।
गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानां
।
छायादानात् क्षणपरिचितः
पुष्पलावीमुखानाम् ॥ २६॥
अन्वयः-विश्रान्तः सन्, वननदीतीरजातानि, उद्यानानाम्, यूथिकाजाल-कानि,
नवजलकणैः, सिञ्चन्, गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्गोत्पलानाम,
पुष्पलावी-मुखानाम्, छायादानात्, क्षणपरिचितः ( सन् ), व्रज ॥२६॥
अर्थ:-विश्राम करके, बन की नदियों के तटों में उत्पन्न उद्यानों की जूही
की कलियों को नवीन जलबिन्दुओं से सींचते हुए, कपोलों पर (उद्गत ) पसीनों
को पोंछने से उत्पन्नपीड़ा से मुरझाये कर्णोत्पलवाली, फूल चुनने वाली स्त्रियों के
(मालिनों के) मुखों को छाया प्रदान करने से क्षणभर के लिए परिचय प्राप्तकर आगे बढ़
जाना ।
वक्रः पन्था यदपि भवतः प्रस्थितस्योत्तराशां
सौघोत्सङ्गप्रणयविमुखो मा स्म भूरुज्जयिन्याः।
विद्युद्दामस्फुरितचकितैस्तत्र पौराङ्गनानां
लोलापाङ्र्यदिन रमसे लोचनैर्वञ्चितोऽसि ॥ २७ ॥
अन्वयः-उत्तराशाम्, प्रस्थितस्य, भवतः, पन्थाः,
यदपि, वक्रः, ( भविष्यति,तथापि ), उज्जयिन्याः, सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखः,
मा स्म भूः । तत्र, विद्युद्दामस्फु-रितचकितैः,
लोलापाङ्गः, पौराङ्गनानाम्, लोचनैः, यदि, न, रमसे, (तहि, त्वम् ),
वञ्चितः, असि ॥ २७ ॥
अर्थः-उत्तर
दिशा की ओर जाने के लिए तुम्हारा मार्ग यद्यपि टेढा (हो जायगा, तो भी) उज्जयिनी के प्रासादों के ऊर्ध्व भागों के परिचय करने से विमुख मत
होना । वहाँ बिजली की रेखा की चमक से चञ्चल कटाक्षों वाले, नागरिक-
सुन्दरियों
के नयनों से यदि क्रीड़ा नहीं करोगे तो तुम ( जन्म की सफलता के विषय में ) वञ्चित
ही रह जाओगे ॥ २७ ॥
वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकालीगुणायाः
संसर्पन्त्याः स्खलितसुभगं दशितावर्तनाभः ।
निविन्ध्यायाः पथि भव रसाभ्यन्तरः सन्निपत्य
स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु
॥ २८॥
अन्वयः-पथि, वीचि-क्षोभ-स्तनित-विहग
श्रेणि-काञ्ची-गणायाः, स्वलित-सुभगम, संसर्पन्त्याः
, दशितावर्तनाभेः, निर्विन्ध्यायाः,
सनिपत्य, रमाभ्यन्तर,भव
। हि, स्त्रीणाम्, प्रियेषु, विभ्रमः, आद्यम्, प्रणयवचनम् ॥
२८॥
अर्थः-मार्ग
में,
तरङ्गों के चलने से शब्द करते हुए पक्षि-समूह रूपी कर-धनी को धारण
करने वाली, (पत्थरों पर ) गिरने से मनोहरतापूर्वक बहनेवाली, भँवररूपी नाभि को प्रदर्शित
करने वाली निर्विन्ध्या नाम की नदी के सम्पर्क में आकर ( उसके ) रस (जल अथवा
शृङ्गार) को ग्रहण करने में अन्तरङ्ग बनो।क्योंकि स्त्रियों की प्रेमी जनों के
प्रति ( प्रदर्शित ) शृङ्गार-चेष्टा ही प्रथम प्रणय-याचना हुआ करती है ॥ २८ ॥
वेणीभूतप्रतनुसलिला तामतीतस्य सिन्धुः
पाण्डुच्छाया तटरुहतरुभ्रंशिभिः शीर्णपणः।
सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यञ्जयन्ती
काश्य येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः ॥
२९ ॥
अर्थ:-हे भाग्यशाली मेघ, स्त्रियों की चोटी के समान क्षीण जलधारवाली,तट पर
उगे हुए वृक्षों से गिरने वाले सूखे पत्तों से पीली कान्तिवाली, वियोग की अवस्था द्वारा प्रवासस्थित तुम्हारे सौभाग्य को व्यक्त करती हुई
वह (निविन्ध्या ) नदी जिस विधि से दुर्बलता को छोड़े वही विधि तुम्हें अपनानी
चाहिए ॥ २९ ॥
प्राप्यावन्तीनुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान् ।
पूर्वोद्दिष्टामनुसर पुरीं श्रीविशालां
विशालाम् ।
स्वल्पोभूते सुचरितफले स्वगिणां गां गतानां
शेषैः पुण्यैहृतमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्
॥३०॥
अन्वयः-उदयन-कथा-कोविद-ग्राम-वृद्धान्, अवन्तीन्, प्राप्य, ( त्वम् ),सुचरितफले, स्वल्पीभूते, गाम्,
गतानाम्, स्वर्गिणाम्, शेषैः,
पुण्यैः, हृतम्, कान्ति-मत,
दिवः, एकम्, खण्डम्,
इव, पूर्वोद्दिष्टाम्, श्रीविशालाम्,
विशालाम्, पुरीम् ,अनुसर
।।
अर्थः-उदयन
की कथाओं के विज्ञ ग्राम-वृद्धों से मण्डित अवन्ति देश को पाकर ( तुम ) पुण्य-फल
के कम हो जाने पर पृथिवी पर आये हुए स्वर्ग-निवासियों के बचे-खुचे पुण्यों के
द्वारा लाये गये उज्ज्वल, स्वर्ग के एक खण्ड-सा,
पूर्व-चचित, उज्जयिनी पुरी का अनुसरण करना (
उसकी ओर बढ़ना) ॥३०॥
दीर्घाकुर्वन् पटु मदकलं कूजितं सारसानां
प्रत्यूषेषु स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः।
यत्र स्त्रीणां हरति सुरतग्लानिमङ्गानुकूलः
शिप्रावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः ॥
३१॥
अन्वयः-यत्र, प्रत्यूषेषु, पटु, मदकलम्,
सारसानाम्, कूजितम्, दीर्घाकुर्वन्,स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः, अङ्गानुकूलः, शिप्रावातः, प्रार्थनाचाटुकारः, प्रिय-तमः, इव, स्त्रीणाम्,
सुरतग्लानिम्, हरति ॥ ३१ ॥
अर्थः-जिस
विशाला में प्रातःकाल प्रस्फुट, मद के कारण मनोहर,
सारसों के कलरव को फैलाता हुआ, विकसित कमलों
के आमोद के संसर्ग से सुगन्धित, अङ्गों को सुखदायक शिप्रा
नदी का पवन ( रति की ) याचना में खुशामद करने-
वाले
प्रियतम के समान स्त्रियों की सम्भोग-क्रीडा के श्रम को दूर करता है ॥३१॥
हारांस्तारांस्तरलगुटिकान् कोटिशः शङ्खशुक्तोः
शष्पश्यामान् मरकतमणीनुन्मयूखप्ररोहान् ।
दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान् विद्रुमाणां च
भङ्गान्
संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस्तोयमात्रावशेषाः ॥ ३१
॥
अन्वयः-यस्याम्, कोटिशः, विपणिविरचितान्, तारान्,
तरलगुटिकान्,हारान्, शङ्खशुक्तीः,
शष्पश्यामान्, उन्मयूखप्ररोहान्, मरकतमणीन्, विद्रुमाणाम्,भङ्गान्,
च, दृष्ट्वा, सलिलनिधयः,
तोयमात्रावशेषाः, संलक्ष्यन्ते ॥ ३१ क ॥
अर्थः-जिस
(विशाला ) के करोड़ों, बाजारों में ( विक्री के लिये
) सजाये गये शुद्ध, हारों के मध्य में गूथे जाने वाले
महारत्नों को, मोतियों की मालाओं को, शङ्खों
और मीपियों को, घास के समान हरितवर्ण, अङ्करों
के समान ऊपर उठती
हुई किरणों से चमकती हुई मरकत मणियों को, मूगों के
टुकड़ों को देख कर ऐसा प्रतीत होता है मानो रत्नाकरों ( सागरों ) में केवल जल
मात्र अवशिष्ट रह गया हो ॥ ३१ क ॥
प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजोऽत्र जह
हेमं तालद्रुमवनमभूदत्र तस्यैव राज्ञः ।
अत्रोद्भ्रान्तः किल नलगिरिः स्तम्भमुत्पाटय
दर्पा-
दित्यागन्तून् रमयति जनो यत्र बन्धूनभिज्ञः ॥
३१ ख ॥
अन्वयः-अत्र, वत्सराजः, प्रद्योतस्य, प्रियदुहितरम्,
जहू; अत्र, तस्य,
एव,राज्ञः, हैमम्,
तालद्रुमवनम्, अभूत्; अत्र,
नलगिरिः, दात्, स्तम्भम्,
उत्पाट्य, उद्भ्रान्तः, किल;
इति, अभिज्ञः, जनः,
आगन्तून्, बन्धून्, यत्र,
रमयति ॥३१ ॥
अर्थः
--यहाँ वन्मराज ( उदयन) ने (महाराज ) प्रद्योत की प्रिय पुत्री ( वासवदत्ता ) का
हरण किया था; यहाँ उसी राजा का सुनहला ताल वृक्षों का वन
था; यहाँ नलगिरि नामक हाथी मद की विह्वलता के कारण खम्भे को
उखाड़ कर घूमता रहा; ऐसी प्रसिद्धि सी प्रसिद्धि है । इस
प्रकार ( पुरानी कथाओं के ) जानकार व्यक्ति ते आये हुए बन्धुओं का जहाँ पर
मनोरञ्जन करते हैं ॥ ३१ ख ।
पत्रश्यामा दिनकरहयस्पधिनो यत्र वाहाः
शैलोदप्रास्त्वमिव करिणो वृष्टिमन्तः
प्रभेदात् ।
योधाग्रण्यः प्रतिदशमुखं संयुगे तस्थिवांसः
प्रत्यादिष्टाभरणरुचयश्चन्द्रहासवणाकैः ॥ ३१
ग॥
अन्वयः-यत्र, वाहाः, पत्रश्यामाः, (तथा ),
दिनकरहयस्पधिनः, ( सन्ति ); प्राः, करिणः, प्रभेदात,
त्वमिव, वृष्टिमन्तः, ( सन्ति
); योधामण्यः, संयुगे, प्रतिदशमुखम्, तस्थिवांसः, चन्द्रहासव्रणाङ्कः,
प्रत्यादिष्टाभरणरुचयः, (सन्ति ) ॥ ३१ ग॥
अर्थ:-जिस
उज्जयिनी में घोड़े पत्तों के समान श्यामवर्ण वाले तथा सूर्य के घोड़ों के साथ
स्पर्धा करने वाले (हैं ), पर्वत के समान ऊँचे हाथी मद
बहाने के कारण तुम्हारी तरह वर्षा करने वाले ( हैं), योद्धा-शिरोमणि
युद्ध में रावण के विरुद्ध लड़कर चन्द्रहास ( रावण की तलवार ) के घावों के चिह्नों
से आभूषण की रुचि का तिरस्कार करने वाले हैं ॥ ३१ ग ।।
जालोद्गीणरुपचितवपुः केशसंस्कारधूपै-
बन्धुप्रोत्या भवनशिखिभिर्दत्तनृत्योपहारः।
हर्येष्वस्याः कुसुमसुरभिष्वध्वखेदं नयेथाः
लक्ष्मों पश्यन् ललितवनितापादरागाङ्कितेषु ॥
३२ ॥
अन्वयः-जालोद्गीण
ः,
केशसंस्कारधूपैः, उपचितवपुः, बन्धुप्रीत्या, भवन-शिखिभिः, दत्तनृत्योपहारः,
कुसुमसुरभिषु, ललितवनितापादरागाङ्कितेषु,
हर्येषु, अस्याः, लक्ष्मीम्,
पश्यन्, अध्वखेदम्, नयेथाः
॥ ३२॥
अर्थः-(खिड़कियों
की) जालियों से निकलते हुए ( स्त्रियों के ) केशों को सुगंधित करने वाले धूपादि
सुगंधित द्रव्यों से परिपुष्ट शरीरवाले, भाईचारे की
प्रीति से प्रासादों के मयूरों द्वारा दिये गये नृत्यरूपी उपहार वाले, फूलों से सुवासित, सुंदरी नारियों के पैरों में
लगाये गये महावर से चिह्नित प्रासादों में इस उज्जयिनी की शोभा को देखते हुए (तुम)
मार्ग की थकान को दूर करना ।३२।
भर्तः कण्ठच्छविरिति गणैः सादरं वीक्ष्यमाणः
पुण्यं यायास्त्रिभुवनगुरोर्धाम चण्डीश्वरस्य
।
धतोद्यानं कुबलयरजोगन्धिभिर्गन्धवत्या-
स्तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तैर्मरुद्धिः॥३३॥
अन्वयः-भर्तुः, कण्ठच्छविः, इति, गणैः,
सादरम्, वीक्ष्यमाणः, ( त्वम्
),कुवलयरजोगन्धिभिः, तोयक्रीडानिरतयुवतिस्नानतिक्तः,
गन्धवत्याः, मरुद्भिः, धूतो-द्यानम्,
त्रिभुवनगुरोः, चण्डीश्वरस्य, पुण्यम्, धाम, यायाः ॥ ३३ ॥
अर्थ:-स्वामी
( शिव ) के कंठ के समान कांतिवाले हो, इसीलिए उनके
)गणों के द्वारा सादर देखे जाते हुए ( तुम ) कमलों के पराग की गन्ध से युक्त,जल विहार में तल्लीन यवतियों के स्नान ( करने के समय धुलने वाले चंदन आदि
) से सुगंधित, गंधवती नामक नदी की वायु से प्रकम्पित उद्यान
वाले, त्रिलोकी के अधिपति पार्वती-पति ( महाकाल ) के स्थान
को जाना ॥ ३३ ॥
अन्वय
-हे जलधर,
महाकालम्, अन्यस्मिन्, अपि,
काले, आसाद्य, यावत्,जाता. नयनविषयम्, अत्यति, ( तावत्
),ते, स्थातव्यम्, श्लाघनीया, शूलिनः,साबलिपटहताम्,
कुर्वन्, आमन्द्राणाम्, गजितानाम्,
अविकलम, फलम्, लप्स्य से
।। ३४॥
अर्थ:-हे
पयोद,
महाकाल के मंदिर को ( संध्या के अतिरिक्त) दूसरे भी समय में प्राप्त
कर जब तक सूर्य अस्त नहीं हो जाते तब तक तुम्हें (वहाँ) ठहरना चाहिए। वहाँ तुम
महादेव की सायंकालीन पूजा में प्रशंसनीय नगाड़े के काम को
करते
हुए कुछ गंभीर गर्जनों को अखंड रूप से सफल बना लोगे ॥ ३४॥
पादन्यासैः क्वणितरसनास्तत्र लीलावधूतै-
रत्नच्छायाखचितवलिभिश्चामरैः क्लान्तहस्ताः।
वेश्यास्त्वत्तो नखपदसुखान् प्राप्य
वर्षाग्रबिन्दून् ।
आमोक्ष्यन्ते त्वयि मधुकरश्रेणिदीर्घान्
कटाक्षान् ॥ ३५ ॥
अन्वयः-तत्र, पादन्यासः, क्वणितरसनाः, लीलावधतः,
रत्नच्छायाखचित । बलिभिः, चामरैः, क्लान्तहस्ताः, वेश्याः, त्वत्तः,
नखपदसूखान, वर्षाग्रबिन्द्र,प्राप्य, त्वयि, मधुकरश्रेणिदीर्घान्,
कटाक्षान, आमोक्ष्यन्ते ॥ ३५ ॥
अर्थः
-वहाँ (सन्ध्याकाल में,) पैरों को गति के साथ बजती
हुई कटि-मेखलाओं वाली तथा विलासपूर्वक डुलाये जा रहे, ( कङ्कणों
के ) रत्नों को कान्ति से मण्डित दण्डवाले चामरों से धान्त हाथों वाली वेश्याएं
तुमसे नख-क्षतों पर सुखदायक वर्षा की प्रथम बंदों को पाकर तुम्हारे ऊपर
भ्रमर-पांतसी लम्बी चितवने डालेगी ॥ ३५ ॥
पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलोनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः।
नृत्यारम्भ हर पशुपतेराड़नागाजिनेच्छां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्याः
॥३६॥
अन्वयः-पश्चात्, नृत्यारम्भे,
प्रतिनवजपापुष्परक्तम्, सान्ध्यम्, तेजः, दधान,उच्चैः, भुजतरुवनम्, मण्डलेन, अभिलीनः,
भवान्याः, शान्तोगस्तिमित
गच्छन्तीनां रमणवसति योषितां यत्र नक्तं
रुद्धालोके नरपतिपथे सूचिभेद्यैस्तमोभिः।
सौदामन्या कनकनिकषस्निग्धया दर्शयोवी
तोयोत्सर्गस्तनितमुखरो मा स्म भूविक्लवास्ताः॥
३७॥
अन्वयः-तत्र, नक्तम्, रमणवसतिम, गच्छन्तीनाम,
योषिताम्, सूचिभधा तमोभिः, रुद्धालोके, नरपतिपथे, नकनिकषस्निग्धया,
सौदामन्या, उवाम्, (तदा),
तोयोत्सर्गस्तनितमुखरः, मास्म भूः, (यतः), ताः, विक्लवा
अर्थः-वहाँ
उज्जयिनी में रात्रि के समय अत्यन्त गाढ़े अन्धकार के कारण न दिखलाई पड़ने वाले
राजमार्ग पर प्रियतम के घर जाती हुई स्त्रियों के लिए ( तुम कसौटी पर खींची गयी) सुवर्ण रेखा की तरह चमकने वाली बिजली से भूतल को
प्रकाशित कर देना । वे प्रकृत्या भीरु होती हैं, अतः (उस समय
तुम) वर्षा और गर्जन से मुखरित न होना ( शांत वातावरण में अशांति मत उत्पन्न करना)
॥ ३७॥
तां कस्यानिवनवलभौ सुप्तपारावतायां
नोत्वा रात्रि चिरविलसनात्
खिन्नविद्युत्कलत्रः।
दृष्टे सूर्ये पुनरपि भवान् वाहयेदध्वशेष
मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः
॥३८॥
अन्वयः--चिरविलसनात्, खिन्नविद्युत्कलत्रः, भवान्, सुप्तपारावतायाम्,कस्यांचित्, भवनवलभौ, ताम्,
रात्रिम्, नीत्वा, सूर्य,
दृष्टे ( सति ) पुनरपि,अवशेषम्, वाहयेत्; ( तथा हि ), सुहृदाम्,
अभ्युपेतार्यकृत्याः, खलु, न, मन्दायन्ते ॥ ३८॥
तस्मिन् काले नयनस लिलं योषितां खण्डितानां
शान्ति नेयं प्रणयिभिरतो वम भानोस्त्यजाशु ।
प्रालेयास्त्रं कमलवदनात् सोऽपि हतुं नलिन्याः
प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः
॥ ३९ ॥
अन्वयः-तस्मिन्, काले, प्रणयिभिः, खण्डितानाम्,
योषिताम्, नयनसलिलम्,शान्तिम्,
नेयम्, अतः, भानोः,
वर्म, आशु, त्यज । सः,
अपि, नलिन्याः , कमल-वदनात,
प्रालेयास्रम्, हर्तुम्, प्रत्यावृत्तः, ( भविष्यति, तदा),
त्वयि, कररुधि,
अनल्पाभ्यसूयः, स्यात् ॥ ३९ ॥
अर्थः-उस
समय ( अर्थात् सूर्योदय के समय ) प्रणयी जनों के द्वारा खंडिता नायिकाओं के आँसुओं
को शांत करना चाहिए। अतः ( तुम ) सूर्य के मार्ग का शीघ्र छोड़ देना । वह ( सूर्य
) भी कमलिनी के कमलरूपी मुख पर से ओसरूपी
सिओं
को पोंछने के लिए वापस (होगा, उस समय) वह तुम्हारे
द्वारा किरणों के रोकने पर अत्यन्त क्रुद्ध होगा ॥ ३९ ॥
गम्भीराया पयसि सरितश्चेतसोव प्रसन्ने
छायात्माऽपि प्रकृतिसुभगो लप्स्यते ते
प्रवेशम् ।
तस्मादस्याः कुमुदविशदान्यर्हसि त्वं न
धैर्या-
न्मोघीकतुं चटुलशफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि ॥४०॥
अन्वयः-गम्भीरायाः, सरितः, चेतसि, इव, प्रसन्ने, पयसि, प्रकृतिसुभगः,ते, छायाऽऽत्मा, अपि, प्रवेशम्, लप्स्यते; तस्मात्,
अस्याः, कुमुदविशदानि, चटुल-शफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि,
त्वम्, धैर्यात्, मोघीकर्तुम्,
न अर्हसि ॥ ४०॥
अर्थः-गम्भीरा
नदी के,
चित्त की तरह, प्रसन्न (निर्मल ) जल में भावतः
सुन्दर तुम्हारा छायारूप शरीर ( अर्थात् प्रतिबिम्ब ) भी प्रवेश को प्राप्त करेगा।
अतः इस ( गम्भीरा) के कुमुदों की तरह उज्ज्वल, चञ्चल मछलियों
के कलोल रूपी चितवनों को तुम निष्ठुरतावश निष्फल मत करना ॥ ४० ॥
तस्याः किञ्चित्करधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं
नीत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोधोनितम्बम् ।
प्रस्थानं ते कथमपि सखे लम्बमानस्य भावि
ज्ञातास्वादो विवृतजघनां को विहातुं समर्थः
॥४१॥
अन्वयः-हे
सखे,
प्राप्तवानीरशाखम्, किञ्चित्, करधृतम् , इव, मुक्तरोधो नितम्बम्,
नीलम्, तस्याः, सलिलवसनम्,
नीत्वा, लम्बमानस्य, ते,
प्रस्थानम्,कथमपि, भावि;
( यतः ), ज्ञातास्वादः, कः,
विवृतजघनाम्, विहातुम् समर्थः ॥४१॥
त्वन्निष्यन्दोच्छ्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः
स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं दन्तिभिः पीयमानः ।
नीचैर्वास्यत्युपजिगमिषोर्देवपूर्व गिरि ते
शोतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम् ॥४२॥
अन्वयः-त्वन्निष्यन्दोच्छ्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः, स्रोतोरन्ध्रध्वनित-सुभगम्, दन्तिभिः, पीयमानः, काननोदुम्बराणाम्, परिणमयिता,
शीतः, वायुः,देवपूर्वम्,
गिरिम्, उपजिगमिषोः, ते,
नीचैः, वास्यति ॥ ४२ ॥
अर्थः-तुम्हारे
बरसने से कुछ फूली हुई पृथिवी को गन्ध के सम्पर्क से सुगन्धित, सूंड़ों के छिद्रों से सिसकी भरके अच्छी तरह हाथियों के द्वारा सूंघा गया,
वन के गूलरों को पकानेवाला, शीतल पवन देवगिरि
को जाने की इच्छा वाले तुम्हारे नीचे-नीचे बहेगा ॥ ४२ ॥
आराध्यैनं शरवणभवं देवमुल्लविताध्वा
सिद्धद्वन्द्वैर्जलकणभयाद
वीणिभिस्त्यक्तमार्गः ।
व्यालम्बेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्
स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रन्तिदेवस्य
कीर्तिम् ॥४५॥
अन्वयः--शरवणभवम्, एनम्, देवम्, आराध्य, वीणिभिः सिद्धद्वन्द्वैः, जल-कणभयात्, मुक्त मार्गः ( सन् ), उल्लविताध्वा, सुरिभतनयाऽऽम्भजाम्, भुवि,स्रोतोमूर्त्या,
परिणताम्, रन्तिदेवस्य, कीर्तिम्,
मानयिष्यन्, व्यालम्बेथाः ॥ ४५ ।।
त्वय्यादातुं जलमवनते शाङ्गिणो वर्णचौरे
तस्याः सिन्धोः पृथुमपि त दूरभावात्प्रवाहम् ।
प्रेक्षिष्यन्ते गगनगतयो नूनमावर्त्य दृष्टी-
रेकं मुक्तागुणमिव भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलम्
॥ ४६॥
अन्वयः-शाङ्गिणः, वर्णचौरे, त्वयि, जलम्,
आदातुम्, अवनते (सति), पृथुम्,अपि, दूरभावात्, तनुम्,
तस्याः , सिन्धोः, प्रवाहम्,
गगनगतयः, दृष्टीः, आवयं,
एकम्, स्थूलमध्येन्द्रनीलम्, भुवः, मुक्तागुणम्, इव,
नूनम्, प्रेक्षिष्यन्ते ॥ ४६ ॥
अर्थ:-श्रीकृष्ण के वर्ण को चुराने वाले (
अर्थात् नील वर्ण वाले ) तुम्हारे जल को लेने के लिए झुकने पर स्थूल होते हुए भी
दूरी के कारण पतले (प्रतीत होने वाले ) उस चर्मण्वती नदी के प्रवाह को, आकाश में विचरण करने वाले सिद्ध आदि ) आँखों को नीची करके, एक लड़ीवाली तथा मध्य में स्थूल इन्द्रनील मणि से युक्त पृथिवी की
मुक्ता-माला की तरह अवश्य ही देखेंगे ॥४६।।
तामुत्तीर्य ब्रज परिचितभ्रलताविभ्रमाणां
पक्ष्मोत्क्षेपादुपरिविलसत्कृष्णशारप्रभाणाम्
।
कुन्दक्षेपानुगमधुकरश्रीमुषामात्मबिम्ब
पात्रीकुर्वन् दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम् ॥ ४७
॥
अन्वयः-ताम्, उत्तीर्य, आत्मबिम्बम्, परिचित5 लताविभ्रमाणाम्, पक्ष्मोक्षेपात्, उपरिविलसत्कृष्णशारप्रभाणाम्, कुन्दक्षेपाऽनुगमधुकरश्रीमुषाम्,
दशपुर-वधूनेत्रकौतूहलानाम्, पात्रीकुर्वन्,
व्रज ।। ४७ ।।
तस्योत्सने प्रणयिन इव स्रस्तगङ्गादुकूलां
न त्वं दृष्ट्वा न पुनरलकां ज्ञास्यसे कामचारिन्
।
या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैविमाना
मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम् ॥ ६३
॥
अन्वयः-हे कामचारिन्, प्रणयिनः,
इव, तस्य, उत्सङ्गे,
सस्तगङ्गा.दुकूलाम्, अलकाम्, दृष्ट्वा , त्वम्, पुनः,
नः ज्ञास्यसे, ( इति), न,
उच्चैविमाना,या, वः,
काले, सलिलोद्गारम्, अभ्रवृन्दम्,
कामिनी, मुक्ताजालग्रथितम्, अलकम,इव, वहति ।। ६३ ॥
अर्थः-इच्छानुसार विचरण करनेवाले हे मेघ, प्रेमी की तरह उस ( कैलास पर्वत ) की गोद में खिसक गयी है गंगारूपी साड़ी
जिसकी ऐसी अलका को देख कर तुम तो नहीं पहचानोगे ( ऐसी बात ) नहीं है ( अर्थात्
अवश्य ही पहचान जाओगे) ।
ऊँचे-ऊँचे सात मंजिले महलों से युक्त जो अलका वर्षाकाल में बरसने वाले मेघ-समूह को
उसी तरह धारण करती है जैसे कोई सुन्दरी स्त्री मोती की लड़ियों से गूँथे गये केश-कलाप
को धारण करती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें