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सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

 सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

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जयशंकर प्रसाद

 जयशंकर प्रसाद

1.आशा सर्ग- आशा सर्ग कामयनी महाकाव्य से लिया गया है ।

1.आशा सर्ग

ऊषा सुनहले तीर बरसती,जयलक्ष्मी सी उदित हुयी ।
उधर पराजित कालरात्रि भी,जल में अन्तर्निहित हुयी ।। 1

वह विवर्णमुख त्रस्त प्रकृति का, आज लगा हँसने फिर से ।
वर्षा बीती हुयी सृष्टि में, शरद विकास नए सिर से ।। 2

नवकोमल आलोक विखरता,हिम- संसृति पर भर अनुराग ।
सित सरोज पर क्रीडा करता,जैसे मधुमय पीत पराग ।। 3

धीरे-धीरे हिम-आच्छादन,हटने लगा धरातल से  
जगीं वनस्पतियाँ अलसाई,मुख धोती शीतल जल से ।। 4


नेत्र निमीलन करती मानो,प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने,
जलधि लहरियों की अँगड़ाई,बार-बार जाती सोने ।। 5

सिंधुसेज पर धरा वधू अब,तनिक संकुचित बैठी-सी,
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में,मान किये सी ऐठीं-सी। 6

देखा मनु ने वह अतिरंजित,विजन का नव एकांत,
जैसे कोलाहल सोया हो,हिम-शीतल-जड़ता-सा श्रांत। 7

इंद्रनीलमणि महा चषक था,सोम-रहित उलटा लटका। 
आज पवन मृदु साँस ले रहा,जैसे बीत गया खटका।  8

वह विराट था हेम घोलता,नया रंग भरने को आज। 
'कौन'? हुआ यह प्रश्न अचानक,और कुतूहल का था राज़! 9

विश्वदेवसविता या पूषा,सोममरूतचंचल पवमान । 
वरूण आदि सब घूम रहे हैं,किसके शासन में अम्लान?  10

किसका था भू-भंग प्रलय-सा,जिसमें ये सब विकल रहे। 
अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न,ये फिर भी कितने निबल रहे!  11

विकल हुआ सा काँप रहा था,सकल भूत चेतन समुदाय। 
उनकी कैसी बुरी दशा थी,वे थे विवश और निरुपाय।  12

देव न थे हम और न ये हैं,सब परिवर्तन के पुतले।
हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा,जितना जो चाहे जुत ले। 13

"महानील इस परम व्योम में,अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान।
ग्रहनक्षत्र और विद्युत्कण ,किसका करते से-संधान!  14

छिप जाते हैं और निकलते,आकर्षण में खिंचे हुए।
तृणवीरुध लहलहे हो रहे ,किसके रस से सिंचे हुए? 15

सिर नीचा कर किसकी सत्ता,सब करते स्वीकार यहाँ।
सदा मौन हो प्रवचन करते,जिसकावह अस्तित्व कहाँ? 16

हे अनंत रमणीय कौन तुम?यह मैं कैसे कह सकता।
कैसे होक्या होइसका तो,भार विचार न सह सकता। 17

हे विराट! हे विश्वदेव! तुमकुछ हो,ऐसा होता भान।
मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत,यही कर रहा सागर गान।" 18

यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल,सदय हृदय में अधिक अधीर।
व्याकुलता सी व्यक्त हो रही,आशा बनकर प्राण समीर। 19

यह कितनी स्पृहणीय बन गई,मधुर जागरण सी-छबिमान।
स्मिति की लहरों-सी उठती है,नाच रही ज्यों मधुमय तान। 20

जीवन-जीवन की पुकार है,खेल रहा है शीतल-दाह।
किसके चरणों में नत होता,नव-प्रभात का शुभ उत्साह। 21

मैं हूँयह वरदान सदृश क्यों,लगा गूँजने कानों में,
मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'शाश्वत नभ के गानों में।  22

यह संकेत कर रही सत्ता,किसकी सरल विकास-मयी।
जीवन की लालसा आज क्यों,इतनी प्रखर विलास-मयी? 23

तो फिर क्या मैं जिऊँ, और भी,जीकर क्या करना होगा?
देव बता दोअमर-वेदना,लेकर कब मरना होगा?"  24


एक यवनिका हटीपवन से प्रेरित मायापट जैसी। 
और आवरण-मुक्त प्रकृति थी हरी-भरी फिर भी वैसी।  25

स्वर्ण शालियों की कलमें थीं,दूर-दूर तक फैल रहीं। 
शरद-इंदिरा की मंदिर की,मानो कोई गैल रही। 26

विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह, सुख-शीतल-संतोष-निदान। 
और डूबती-सी अचला का, अवलंबनमणि-रत्न-निधान।  27

अचल हिमालय का शोभनतम, लता-कलित शुचि सानु-शरीर। 
निद्रा में सुख-स्वप्न देखता, जैसे पुलकित हुआ अधीर। 28

उमड़ रही जिसके चरणों में,नीरवता की विमल विभूति।
शीतल झरनों की धारायें,बिखरातीं जीवन-अनुभूति! 29

उस असीम नीले अंचल में,देख किसी की मृदु मुस्कान।
मानों हँसी हिमालय की है, फूट चली करती कल गान। 30

शिला-संधियों में टकरा कर,पवन भर रहा था गुंजार।
उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का,करता चारण-सदृश प्रचार। 31

संध्या-घनमाला की सुंदर,ओढे़ रंग-बिरंगी छींट।
गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ,पहने हुए तुषार-किरीट। 32

विश्व-मौनगौरवमहत्त्व की,प्रतिनिधियों से भरी विभा।
इस अनंत प्रांगण में मानों,जोड़ रही है मौन सभा। 33

वह अनंत नीलिमा व्योम की,जड़ता-सी जो शांत रही।
दूर-दूर ऊँचे से ऊँचेनिज अभाव में भ्रांत रही। 34 

उसे दिखाती जगती का सुख,हँसी और उल्लास अजान।
मानो तुंग-तुरंग विश्व की,हिमगिरि की वह सुघर उठान। 35

थी अंनत की गोद सदृश जो,विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय।
उसमें मनु ने स्थान बनाया,सुंदरस्वच्छ और वरणीय। 36

पहला संचित अग्नि जल रहा, पास मलिन-द्युति रवि-कर से। 
शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा,लगा धधकने अब फिर से। 37

जलने लगा निरंतर उनका,अग्निहोत्र सागर के तीर।
मनु ने तप में जीवन अपना,किया समर्पण होकर धीर।  38

सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति,देव-यजन की वर माया।
उन पर लगी डालने अपनी,कर्ममयी शीतल छाया। 39

उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है,क्षितिज बीच अरुणोदय कांत।
लगे देखने लुब्ध नयन से,प्रकृति-विभूति मनोहरशांत। 40

पाकयज्ञ करना निश्चित कर,लगे शालियों को चुनने।
उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना,लगी धूम-पट थी बुनने।  41

शुष्क डालियों से वृक्षों की,अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध।
आहुति के नव धूमगंध से,नभ-कानन हो गया समृद्ध। 42

और सोचकर अपने मन में"जैसे हम हैं बचे हुए।
क्या आश्चर्य और कोई हो,जीवन-लीला रचे हुए। " 43

अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ,कहीं दूर रख आते थे।
होगा इससे तृप्त अपरिचित,समझ सहज सुख पाते थे।  44

दुख का गहन पाठ पढ़कर अब,सहानुभूति समझते थे।
नीरवता की गहराई में,मग्न अकेले रहते थे ।  45

मनन किया करते वे बैठे,ज्वलित अग्नि के पास वहाँ।
एक सजीवतपस्या जैसे,पतझड़ में कर वास रहा।  46

फिर भी धड़कन कभी हृदय में,होती चिंता कभी नवीन।
यों ही लगा बीतने उनका,जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।  47

प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे,अंधकार की माया में।
रंग बदलते जो पल-पल में,उस विराट की छाया में।  48

अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते,प्रकृति सकर्मक रही समस्त।
निज अस्तित्व बना रखने में
,जीवन आज हुआ था व्यस्त।49

तप में निरत हुए मनु,नियमित-कर्म लगे अपना करने।
विश्वरंग में कर्मजाल के,सूत्र लगे घन हो घिरने। 50

उस एकांत नियति-शासन में
,चले विवश धीरे-धीरे।
एक शांत स्पंदन लहरों का
,होता ज्यों सागर-तीरे। 51

विजन जगत की तंद्रा में
,तब चलता था सूना सपना।
ग्रह-पथ के आलोक-वृत्त से
,काल जाल तनता अपना। 52

प्रहर
दिवसरजनी आती थी,चल-जाती संदेश-विहीन।
एक विरागपूर्ण संसृति में
,ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।  53

धवल
,मनोहर चंद्रबिंब से,अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ।
जिसमें शीतल पवन गा रहा
,पुलकित हो पावन उद्गीथ।  54

नीचे दूर-दूर विस्तृत था,उर्मिल सागर व्यथितअधीर।
अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा
,रहा चंद्रिका-निधि गंभीर।  55

खुलीं उसी रमणीय दृश्य में
,अलस चेतना की आँखें।
हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक,मधु से वे भीगी पाँखे।
  56

व्यक्त नील में चल प्रकाश का,कंपन सुख बन बजता था।
एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का
,मधुर रहस्य उलझता था। 57

नव हो जगी अनादि वासना
,मधुर प्राकृतिक भूख-समान।
चिर-परिचित-सा चाह रहा था
,द्वंद्व सुखद करके अनुमान। 58

दिवा-रात्रि या-मित्र वरुण की,बाला का अक्षय श्रृंगार
,
मिलन लगा हँसने जीवन के
,उर्मिल सागर के उस पार। 59

तप से संयम का संचित बल
,तृषित और व्याकुल था आज।
अट्टाहास कर उठा रिक्त का
,वह अधीर-तम-सूना राज। 60

धीर-समीर-परस से पुलकित,विकल हो चला श्रांत-शरीर।
आशा की उलझी अलकों से,उठी लहर मधुगंध अधीर। 61

मनु का मन था विकल हो उठा,संवेदन से खाकर चोट।
संवेदन जीवन जगती को,जो कटुता से देता घोंट।  62

"आह कल्पना का सुंदर,यह जगत मधुर कितना होता!
सुख-स्वप्नों का दल छाया में,पुलकित हो जगता-सोता। 63

संवेदन का और हृदय का,यह संघर्ष न हो सकता।
फिर अभाव असफलताओं की,गाथा कौन कहाँ बकता? 64

कब तक और अकेले?,कह दो हे मेरे जीवन बोलो!
किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत,अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।"  65

"तम के सुंदरतम रहस्य,हे कांति-किरण-रंजित तारा।
व्यथित विश्व के सात्विक शीतल,बिंदुभरे नव रस सारा। 66

आतप-तापित जीवन-सुख की,,शांतिमयी छाया के देश।
हे अनंत की गणना देते,तुम कितना मधुमय संदेश। 67

आह शून्यते चुप होने में,तू क्यों इतनी चतुर हुई?
इंद्रजाल-जननी रजनी तू,क्यों अब इतनी मधुर हुई?" 68

"जब कामना सिंधु तट आई,ले संध्या का तारा दीप।
फाड़ सुनहली साड़ी उसकी,तू हँसती क्यों अरी प्रतीप? 69

इस अनंत काले शासन का,वह जब उच्छंखल इतिहास।
आँसू औ'तम घोल लिख रही,तू सहसा करती मृदु हास। 70

विश्व कमल की मृदुल मधुकरी,रजनी तू किस कोने से।
आती चूम-चूम चल जाती,पढ़ी हुई किस टोने से। 71

किस दिंगत रेखा में इतनी,संचित कर सिसकी-सी साँस।
यों समीर मिस हाँफ रही-सी,चली जा रही किसके पास। 72

2.आँसू
बस गयी एक बस्ती हैं,स्मृतियों की इसी हृदय में
नक्षत्र लोक फैला है,जैसे इस नील निलय में। 1

ये सब स्फुलिंग हैं मेरी,इस ज्वालामयी जलन के
कुछ शेष चिह्न हैं केवल,मेरे उस महा मिलन के ।
2

शीतल ज्वाला जलती हैं,ईधन होता दृग जल का
यह व्यर्थ साँस चल-चल कर,करती हैं काम अनिल का ।
3

बाड़व ज्वाला सोती थी,इस प्रणय सिन्धु के तल में
प्यासी मछली-सी आँखें,थी विकल रूप के जल में। 
4

बुलबुले सिन्धु के फूटे,नक्षत्र मालिका टूटी
नभ मुक्त कुन्तला धरणी,दिखलाई देती लूटी। 5
 
छिल-छिल कर छाले फोड़े,मल-मल कर मृदुल चरण से
धुल-धुल कर बह रह जाते,आँसू करुणा के कण से। 6
 
इस विकल वेदना को ले,किसने सुख को ललकारा
वह एक अबोध अकिंचन,बेसुध चैतन्य हमारा।  7 

अभिलाषाओं की करवट,फिर सुप्त व्यथा का जगना
सुख का सपना हो जाना,भींगी पलकों का लगना।  8 

इस हृदय कमल का घिरना,अलि अलकों की उलझन में
आँसू मरन्द का गिरना,मिलना निश्वास पवन में। 9 

मादक थी मोहमयी थी,मन बहलाने की क्रीड़ा
अब हृदय हिला देती है,वह मधुर प्रेम की पीड़ा। 10

सुख आहत शान्त उमंगें,बेगार साँस ढोने में
यह हृदय समाधि बना हैं,रोती करुणा कोने में। 11

चातक की चकित पुकारें,श्यामा ध्वनि सरल रसीली
मेरी करुणार्द्र कथा की,टुकड़ी आँसू से गीली। 12

अवकाश भला हैं किसको,सुनने को करुण कथाएँ
बेसुध जो अपने सुख से,जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ ।13 

जीवन की जटिल समस्या,हैं बढ़ी जटा-सी कैसी
उड़ती हैं धूल हृदय में,किसकी विभूति हैं ऐसी? 14 

जो घनीभूत पीड़ा थी,मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आँसू बनकर,वह आज बरसने आयी। 15

मेरे क्रन्दन में बजती,क्या वीणाजो सुनते हो
धागों से इन आँसू के,निज करुणापट बुनते हो। 16

रो-रोकर सिसक-सिसक कर,कहता मैं करुण कहानी
तुम सुमन नोचते सुनते,करते जानी अनजानी। 17
 
मैं बल खाता जाता था,मोहित बेसुध बलिहारी
अन्तर के तार खिंचे थे,तीखी थी तान हमारी । 18

 झंझा झकोर गर्जन था,बिजली थी सी नीरदमाला,
पाकर इस शून्य हृदय को,सबने आ डेरा डाला।  19

घिर जाती प्रलय घटाएँ,कुटिया पर आकर मेरी
तम चूर्ण बरस जाता था,छा जाती अधिक अँधेरी। 20

बिजली माला पहने फिर,मुसक्याता था आँगन में
हाँ
कौन बरस जाता था,रस बूँद हमारे मन में? 21 

तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!,मेरे इस मिथ्या जग के
थे केवल जीवन संगी,कल्याण कलित इस मग के। 22
 

कितनी निर्जन रजनी में,तारों के दीप जलाये
स्वर्गंगा की धारा में,उज्जवल उपहार चढायें। 23
 
गौरव था 
,नीचे आये,प्रियतम मिलने को मेरे
मै इठला उठा अकिंचन,देखे ज्यों स्वप्न सवेरे। 24

मधु राका मुसक्याती थी,पहले देखा जब तुमको
परिचित से जाने कब के,तुम लगे उसी क्षण हमको। 25

परिचय राका जलनिधि का,जैसे होता हिमकर से
ऊपर से किरणें आती,मिलती हैं गले लहर से। 26
 

मै अपलक इन नयनों से,निरखा करता उस छवि को
प्रतिभा डाली भर लाता,कर देता दान सुकवि को। 27
 

निर्झर-सा झिर झिर करता,माधवी कुंज छाया में
चेतना बही जाती थी,हो मन्त्र मुग्ध माया में। 28
 

पतझड़ था
, झाड़ खड़े थे,सूखी-सी फूलवारी में
किसलय नव कुसुम बिछा कर,आये तुम इस क्यारी में। 29
 

शशि मुख पर घूँघट डाले,अंचल में चपल चमक-सी
आँखों मे काली पुतली,पुतली में श्याम झलक-सी।
 30

अरी वरुणा की शांत कछार !

अरी वरुणा की शांत कछार !
   तपस्वी के वीराग की प्यार !
सतत व्याकुलता के विश्राम
अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज!
जगत नश्वरता के लघु त्राण
लतापादप,सुमनों के पुञ्ज!
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप
चल रहा था उज्ज्वल व्यापार.
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि
गूंजता था जिससे संसार .
          अरी वरुणा की शांत कछार !
          तपस्वी के वीराग की प्यार !
तुम्हारे कुंजो में तल्लीन
दर्शनों के होते थे वाद .
देवताओं के प्रादुर्भाव
स्वर्ग के सपनों के संवाद .
स्निग्ध तरु की छाया में बैठ
परिषदें करती थी सुविचार-
भाग कितना लेगा मस्तिष्क
,हृदय का कितना है अधिकार?
          अरी वरुणा की शांत कछार !
          तपस्वी के वीराग की प्यार !
छोड़कर पार्थिव भोग विभूति
प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार .
पिता का वक्ष भरा वात्सल्य
पुत्र का शैशव सुलभ दुलार .
दुःख का करके सत्य निदान
प्राणियों का करने उद्धार .
सुनाने आरण्यक संवाद
, तथागत आया तेरे द्वार .
           अरी वरुणा की शांत कछार !
           तपस्वी के वीराग की प्यार !
मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़
,जगत की ज्वाला करती शांत .
तिमिर का हरने को दुख भार
तेज अमिताभ अलौकिक कांत .
देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध
, प्राणियों से कह उठा पुकार –
तोड़ सकते हो तुम भव-बंध
, तुम्हें है यह पूरा अधिकार .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
छोड़कर जीवन के अतिवाद
, मध्य पथ से लो सुगति सुधार.
दुःख का समुदय उसका नाश
तुम्हारे कर्मो का व्यापार .
विश्व-मानवता का जयघोष
यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र .
मिला था वह पावन आदेश
आज भी साक्षी है रवि-चंद्र .           
अरी वरुणा की शांत कछार !          
 तपस्वी के वीराग की प्यार !
तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार .
सकल वसुधा को दे संदेश
, धन्य होता है बारम्बार.
आज कितनी शताब्दियों बाद
उठी ध्वंसों में वह झंकार .
प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त
विश्व वाणी का बने विहार .

अरी वरुणा की शांत कछार !

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मैथिलीशरण गुप्त

 मैथिलीशरण गुप्त

राधा
उर्मिला का विरह वर्णन
यशोधरा का विरह वर्णन (सखि वे मुझसे कहकर जाते, आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा)

        1. राधा

शरण एक तेरे मैं आई,
धरे रहें सब धर्म हरे !
बजा तनिक तू अपनी मुरली,
नाचें मेरे मर्म हरे !
नहीं चाहती मैं विनिमय में
उन वचनों का वर्म हरे !
तुझको—एक तुझी को—अर्पित
राधा के सब कर्म हरे !
यह वृन्दावनयह वंशीवट,
यह यमुना का तीर हरे !
यह तरते ताराम्बर वाला
नीला निर्मल नीर हरे !
यह शशि रंजित सितघन-व्यंजित
परिचितत्रिविध समीर हरे !
बसयह तेरा अंक और यह
मेरा रंक शरीर हरे !
कैसे तुष्ट करेगी तुझको,
नहीं राधिका बुधा हरे !
पर कुछ भी होनहीं कहेगी
तेरी मुग्धा मुधा हरे !
मेरे तृप्त प्रेम से तेरी
बुझ न सकेगी क्षुधा हरे !
निज पथ धरे चला जाना तू,
अलं मुझे सुधि-सुधा हरे !
सब सह लूँगी रो-रोकर मैं,
देना मुझे न बोध हरे !
इतनी ही विनती है तुझसे,
इतना ही अनुरोध हरे ! 
क्या ज्ञानापमान करती हूँ,
कर न बैठना क्रोध हरे !
भूले तेरा ध्यान राधिका,
तो लेना तू शोध हरे !
झुकवह वाम कपोल चूम ले
यह दक्षिण अवतंस हरे !
मेरा लोक आज इस लय में
हो जावे विध्वंस हरे !
रहा सहारा इस अन्धी का
बस यह उन्नत वंश हरे !
मग्न अथाह प्रेम-सागर में
मेरा मानस-हंस हरे !           
                                                                                    ’द्वापर’ खण्डकाव्य से’

2.उर्मिला का विरह वर्णन

सखिनील नभस्सर से उतरायह हंस अहा! तरता- तरता ।
अब तारकमौक्तिकशेष नहींनिकला जिनको चरता- चरता ।।
अपने हिम बिंदु बचे तब भीचलता उनको धरता-धरता ।
गड़ जायँ न कंटक भूतल केकर डाल रहा डरता डरता ।। 1

मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनीकुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदनपटुतुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलतातुम्हें विफलताठहरोश्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोईजो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो !
रूप-दर्प कंदर्पतुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लोयह मेरी चरण-धूलि, उस रति के सिर पर धारो! 2


विरह संग अभिसार भी   ,
भार जहाँ आभार भी   |
मैं पिंजड़े में पड़ी हूँ किन्तु खुला है द्वार भी   ,
काल कठिन क्यों न हो किन्तु है मेरे लिए उदार भी   |
जहाँ विरह ने गार दिया है किया वहाँ उपकार भी  ,
सुधबुध हर ली किन्तु दिया है कालज्ञान विचारभी |
जना दिया है उसने मुझको जनजीवन है भार भी   ,
और मरणवह बन जाता है कभी हिये का हार भी  |
जाना मैंने इस उर में थी ज्वाला भी जलधार भी   ,
प्रिय ही नहीं यहाँ मैं भी थीओर एक संसार भी  |3

कहती मैंचातकिफिर बोल,
ये खारी आँसू की बूँदें दे सकतीं यदि मोल!
कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलों की तोल? 
फिर भी फिर भी इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल। 
श्रुति-पुट लेकर पूर्वस्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल,
देखआप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल!
जाग उठे हैं मेरे सौ सौ स्वप्न स्वयं हिल-डोल, 
और सन्न हो रहेसो रहेये भूगोल-खगोल। 
न कर वेदना-सुख से वंचितबढ़ा हृदय-हिंदोल, 
जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल! 4

यशोधरा विरह वर्णन                          

सखिवे मुझसे कहकर जाते,
कहतो क्या मुझको वे ,
अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
मैंने मुख्य उसी को जाना
                              जो वे मन में लाते।
                               सखिवे मुझसे कहकर जाते।
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम कोप्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
                                    क्षात्र-धर्म के नाते
                                    सखिवे मुझसे कहकर जाते।
हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया थात्यागा;
                             रहे स्मरण ही आते!
                                 सखिवे मुझसे कहकर जाते।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
                        गये तरस ही खाते!
                           सखिवे मुझसे कहकर जाते।
जायेंसिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
                                     आज अधिक वे भाते!
                                    सखिवे मुझसे कहकर जाते।
गयेलौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
                                  पर क्या गाते-गाते ?
                                    सखिवे मुझसे कहकर जाते।


अब कठोर हो वज्रादपि, ओ कुसुमादपि सुकुमारी ।
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
मेरे लिए पिता ने सबसे धीर-वीर वर चाहा ।
आर्यपुत्र को देख उन्होंने सभी प्रकार सराहा ।।
फिर भी हठकर हाय! वृथा ही उन्हें उन्होंने थाहा ।
किस योद्धा ने बढ़कर उनका शीर्ष-सिन्धु अवगाहा ।
क्योंकर सिद्ध करूँ अपने को  मैं उन नर की नारी
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
देख कराल-काल-सा जिसको काँप उठे सब भय से,
गिरे प्रतिद्वन्दी नन्दार्जुन, नागदत्त जिस हय से,
वह तुरंग पालित-कुरंग सा नत हो गया विनय से,
क्यों न गूँजती रंगभूमि फिर उनके जय-जय-जय से,
निकला वहाँ कौन उन जैसा प्रबल पराक्रमकारी ।
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
सभी सुन्दरी बालाओं में मुझे उन्होंने माना,
सबने मेरा भाग्य सराहा, सबने रूप बखाना,
खेद किसी ने उन्हें न फिर भी ठीक-ठीक पहचाना,
भेद चुने जाने का अपने मैंने भी अब जाना,
इस दिन के उपयुक्त पात्र की उन्हें खोज थी सारी ।
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
मेरे रूप-रंग, यदि तुझको अपना गर्व रहा है,
तो उसके झूठे गौरव का तूने भार सहा है,
तू परिवर्तनशील उन्होंने कितनी बार कहा है-
फूला’ दिन किस अन्धकार में डूब और बहा है,
किन्तु अन्तरात्मा भी मेरा था क्या विकृत-विकारी ।
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
सिद्धिमार्ग की बाधा नारी! फिर उसकी क्या गति है,
पर उनसे पूछूँ क्या, जिनको मुझसे आज विरति है,
अर्धविश्व में व्याप्त शुभाशुभि मेंरी भी कुछ गति है,
मैं भी नहीं अनाथ जगत में मेंरे भी प्रभु पति हैं ,
यदि मैं पतिव्रता तो मुझको कौन भार-भय-भारी ।
आर्यपुत्र दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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