बहती गंगा BAHTI GANGA लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बहती गंगा BAHTI GANGA लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

17- सारी रंग डारी लाल-लाल



1.
गुलाबबाड़ी की गुलाबी महफ़िल में गुलाबी परिच्छेद और गुलाब के ही गहने पहनकर गुलशन, गुलबदन और गुलबहार ने अपने कोकिल-कंठ से बसन्तराग में गलेबाज़ी का वह गुल खिलाया कि श्रोताओं की मंडली बुलबुल बन बैठी।
ऊपर गुलाबी चँदवे से लटकते गुलाबी शीशे के झाड़-फानूस से गुलाबी प्रकाश झलक रहा था और नीचे फ़र्श गुलाब की पंखरियों से ढंक-सा गया था। उस पर बैठे श्रोताओं की आँखें नैश जागरण और नशा-सेवन से लाल हो रही थी। उस पर गुलाबी वातावरण में 'सारी रंग डारी लाल-लाल' की टीप ने उनका रंग और भी गाढ़ा कर दिया। प्रभाती बयार में सूरखमुखी के गुच्छों की तरह उनके सिर हिलने लगे और मस्ती का समाँ ऐसा बँधा कि हिमालय के मुकुट की शोभा बढ़ानेवाले भारी-भरकम देवदारु के वृक्षों की भाँति वे बार-बार झूमने लगे। वे भौंरों की तरह गुनगुनाते रह गए–'सारी रंग डारी लाल-लाल।' जाड़े के उतरते दिन थे, फिर भी सेठ देवीचरण ने साधारणतया चैत्र मास में होनेवाली गुलाबबाड़ी की महफ़िल बेमौसम ही जमा रखी थी। काले बाज़ार की बरकत से मुँह की लाली बची रह जाने का यह स्वाभाविक परिणाम था।
उनका दीवाला पिटने ही वाला था कि समय ने पलटा खाया और उनकी साख की जड़ ने सीधे शेषनाग के मस्तक पर जाकर आसन जमा लिया। इसी खुशा में चैती गुलाब फूलने की प्रतीक्षा न कर उन्होंने गुलाब के साधारण फूलों से ही गुलाबबाड़ी का आयोजन कर डाला, और इसके लिए उन्हें बहाना मिल गया अपने इकलौते बेटे लल्लन की वर्षगाँठ का। व्यापार के जंगली शिकारान ही ढेले से दो शिकार कर लिए।
2.
जिस जवान बेटे की वर्षगाँठ के व्याज से बूढ़ा बाप महफिल सजाने का लड़कपन कर नगर के बाहर महआहीड के बगीचे के बारहदरी में विलास का रास रचा रहा था वही बेटा उसी बगीचे के एक कोने में उपेक्षित खड़ी झोपड़ी की एक कुत्सित  अन्धकारमयी कोठरी में अपने साईस सुलोचन के शिशु-पुत्र की परिचर्या के व्याज से बैठ अपने साथियों अर्थात् अपनी पार्टी के लाल सदस्यों के साथ उसी शाम हुई एक घटना की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में गूढ़ विचार कर रहा था।
घटना बहुत साधारण थी, परन्तु अपने अनोखेपन के कारण वह परम असाधारण बन बैठी थी। बात यह थी कि एक ऊँचे सरकारी अधिकारी की कम्युनिस्ट पुत्री को उसके कॉलेज के होस्टल में गिरफ्तार करने जाकर कोतवाल को बड़ी झक उठानी पड़ी थी। और जब कोतवाल ने उसे गिरफ्तार करने में किसी प्रकार सफलता पाई तो उक्त तरुणी ने उनके श्रम के पुरस्कारस्वरूप उन पर अपनी चप्पल फेंक दी। चप्पल कोतवाल को लगी या नहीं, यह किसी ने न देखा, लेकिन शहर में शोर मच गया कि एक तरुणी ने कोतवाल को चप्पलों से मारा। यह समाचार प्रकाश में आते ही शहर-भर के कम्युनिस्ट सहसा अन्धकार में चले गए।
वे अँधेरे में छिपकर और छिटपुट गुट बनाकर मन्त्रणा करने लगे। लल्लन का कॉमरेड दल विचार कर रहा था कि कुल रात-भर की बात है, सवेरे घटना की प्रतिक्रिया स्पष्ट हो उठेगी, तब भावी कार्यक्रम बना लेना सरल होगा। लल्लन देख रहा था कि कम्युनिस्ट क्रीड़े में दीक्षित उसके वे छात्र साथी इस साधारण-सी घटना से ही भयभीत हो उठे हैं। वह उन्हें उत्साहित करने के लिए बोला, “साथियो, घबराना नहीं, मैं साल-दो-साल तक ज़रूरत पड़ने पर तुम्हें छिपाए रख सकता हूँ।
उसकी बात काटकर एक लाल तरुण ने कहा, “साथी, तुम समझते हो कि हम डर रहे हैं? हरगिज़ नहीं, भय तो अज्ञान का परिणाम होता है।" दूसरा बोला, “फ्रायड ने इसे सेक्स काम्प्लेक्स (यौन दुर्बलता) बताया है। हम लोग कमजोरी के शिकार कभी नहीं हो सकते।"
तीसरे लाल जवान ने कहा, “समाज में आज भी यह भीषण विषमता व्याप्त है, उसके मूल में भी यही भय की वृत्ति काम कर रही है।"
लल्लन ने समझ लिया कि उसके साथी आश्वस्त हैं और इसलिए वे अब बहस में रस ले रहे हैं। उसने बगलवाली कोठरी की ओर देखा और धीरे से उठकर वह उसमें घुसा।
यह काठरी ऐसी थी जिसमें एक छोटे दरवाज़े को छोड़कर वायु के प्रवेश के लिए दूसरा रन्ध्र तक न था। दिन में भी उसमें प्रकाश ले जाने की आवश्यकता पड़ती थी। लल्लन ने सिर झुकाकर कोठरी में प्रवेश किया। उसने घुसते ही देखा कि उसके पिता के मोटरचालक झींगुर की पत्नी सुधा सास के बच्चे को गोद में लिए कोने में जलते मन्द दीपक के प्रकाश में उसका मुंह बड़े ध्यान से देख रही है। उस धुमिल प्रकाश में सुधा के सुरुचि से सँवारे केशपाश के बीच ललाट से लेकर आधे सिर तक लिपटी सिन्दूर की मोटी रेखा चमक रही है। उसके कानों की लौ से लटकते लाल काँच-जड़े टप दीपक के लौ की तरह
रह-रहकर हिल उठते हैं। उसके शुभ्र परिधान ने कोठरी के कुत्सित वातावरण को भी जैसे ढंक रखा है।
लल्लन पैर दबाए खड़ा मिनट-भर सुधा को देखता रह गया। सुधा अब युवती नहीं रह गई थी, अर्थात् सैंतीस वर्षों तक निरन्तर दुनिया देख लेने के बाद नारी में युवती का अल्हड़पन नहीं रह जाता, समझदारी आ जाती है और समझदारी की प्रशंसा उसके प्रौढ़त्व पर निर्भर है। सुधा समझदार थी और वह स्नान से भीगी पतली साडी की तरह धीरे-धीरे कठिनाई से अपना यौवन-चीर उतारती जा रही थी, फिर भी वह किसी-किसी अंग में लिपटा ही रहता था। वह सुन्दरी तो थी ही, शिक्षिता भी थी। आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने झींगुर जैसे परम असांस्कृतिक नामवाले एक अपढ़ और श्रमिक श्रेणी के व्यक्ति को पति रूप से कैसे वरण कर लिया! सील भरी उस गन्दी कोठरी में शुचिता की मूर्ति उस नारी को देखकर लल्लन के मुँह से लम्बी साँस निकल पड़ी।
उस शून्य और शान्त कोठरी में निःश्वास की ध्वनि धनष-टंकार हो गई। सुधा ने चौंककर सिर उठाया। लल्लन को सामने खड़ा देख उसने कहा, “दवा तो कुछ भी असर नहीं कर रही है।"
लल्लन उसकी बात अनसुनी करता हुआ उसे एकटक देखता रहा। सुधा ने स्मितिपूर्वक पूछा, “क्या सोचते हो, लल्लन बाबू?"
यही सोचता हूँ सुधा देवी, कि राजा से विवाह होने के बावजूद एक कंगाल के साथ दीनता और अभाव का यह कराहमय जीवन तुमने क्यों स्वीकार कर लिया? इतने ऊपर रहकर भी इतने नीचे क्यों उतर पड़ीं?"
"बहुत ऊपर जाने के लिए कभी-कभी बहुत नीचे आना पड़ता है लल्लन बाबू!"
"फिर भी?"
"लल्लन बाबू! आपने जो प्रश्न किया है उसका उत्तर कब किसने दिया है? कहना ही पड़े तो यही कह सकती हूँ कि राजा के समीप मेरा कोई मूल्य न था। उसके यहाँ मैं काँच की माला थी-कोने में पड़ी, उपेक्षित। परन्तु जब भिखारी के हाथ लगी तो उसने मणिमाला की भाँति मुझे सिर पर स्थान दिया, अपने गले का हार बना लिया। बताइए, मैंने उन्नति की या अवनति?"
सुधा की गोद में पड़े बच्चे ने हिचकी ली, सुधा ने घबराकर कहा, "गरीब के बच्चे की जान बचाइए, लल्लन बाबू!"
बच्चे की हालत खराब होती जा रही थी। लल्लन ने भी परिस्थिति की गुरुता महसूस की। उसने सुधा से पूछा, "क्या झींगुर को डॉक्टर बुलाने नहीं भेजा?"
भेज तो दिया है शाम ही से। इधर आधी रात बीत रही है। न जाने, क्यों नहीं लौटे?" सुधा ने जवाब दिया।
लल्लन ने कुछ सोचते हुए कहा, "वैसे तो झींगुर अपढ़ होते हुए भी समझदार है। गरीब भी है, फिर भी न जाने कैसे उसके संस्कार बुर्जुआ हो गए हैं, गरीबों से तम्हारी-जैसी सहानभति और शोषण के प्रति तुम्हारे जैसा आक्रोश उसे कहाँ?"
सुधा को लल्लन की बात में चापलूसी की गन्ध लगी। उसने लल्लन की ओर मार्मिक दृष्टि से देखते हुए कहा, “बुर्जुआ संस्कार और प्रोलेटेरियट संस्कार में मुझे तो कुछ विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता, लल्लन बाबू! एक में हृदय का योग आवश्यकता से अधिक है तो दूसरे में बुद्धि का। पहला स्वार्थ की अधिकता से चिपचिपा हो गया है तो दूसरा प्रतिहिंसा से रूखा। यही कारण है कि आप प्रोलेटेरियट संस्कार रखते हुए भी इस पीड़ित शिशु की उपेक्षा कर बहस में अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं।"लल्लन के मुँह पर जैसे तमाचा पड़ा। उसने तत्काल कहा, "मैं ही डॉक्टर को बुलाने जाता हूँ।"
3
सेठ देवीचरण की बारहदरी में सर्दी भले गुलाबी हो गई हो, परन्तु सड़क पर चलनेवालों लिए वह अब भी बहत कडी थी। उस पर जिस समय लल्लन डॉक्टर बुलाने लए सड़क पर निकला उसी समय न जाने कहाँ से बादल का एक टुकडा भी आकाश में भटकता हआ आ निकला। वह जैसे शून्य में अकेले भटकते-भटकते दुःखी होकर रो पड़ा और टपाटप बँदें गिरने लगीं। अँधेरे में लल्लन ठोकर खाता हुआ बढ़ा जा रहा था। वह कट स्वर में बड़बड़ा उठा-"पिताजी को मेरी वर्षगाँठ मनाने की जितनी चिन्ता है उतनी जाडे की वर्षा में मेरे भीगने की नहीं।'
बेमौसम की इस वर्षा को लल्लन ने विष-दष्टि से देखा । उसे अपने ऊपर यह आकाश का अत्याचार प्रतीत हआ। उसने सोचा कि आकाश भा बहुत ऊँचा है न. इसके भी संस्कार बर्जआ ही दिखाई पड़ता है। और सिकता पर वह मन-ही-मन हँस पड़ा। उसे ख्याल आया कि यही रात आज मर पिता का बारहदरी में मध की वर्षा कर रही है। वहाँ उच्छंखल उल्लास की बाढ़ आ गई है। उस बाढ पर मदिरा की मादकता का फेन उतराया बहता जा रहा है। सौरभ की तरंगें उठ रही हैं और प्रगल्भ रस की धारा में उठती हुई भ्रूविलास का भँवर में भोग-लोलुप मन उभ-चुभ कर रहे हैं।
गली में उभरे पत्थर के एक टुकड़े से उसे ठोकर लगी। वह गिरते-गिरते बचा। उसे अपने पिता पर उत्तरोत्तर घणा होती जा रही थी। अपने सारे कष्टों का दायित्व बाप के सिर रखते हए वह सोच रहा था कि "बेचारे साईस का बच्चा बीमार है। उसकी स्त्री भी पित-गृह गई हुई है। बालक को कोई देखने-सुननेवाला नहीं और मेरे पिता हैं कि उसे ऐसी रात में भी छुट्टी नहीं देते। अपने विलास के सहयोगियों को लाने-ले जाने के लिए गाड़ी में जोत रखा है।
उसे एक ठोकर और लगी और उसकी विचारधारा को भी। उसे झींगुर पर गुस्सा आया-“ऐसी रात में कम्बख्त काहे का डॉक्टर खोजने निकला होगा?" और झींगुर का ख्याल आते ही उसे सुधा का ध्यान आ गया। उस रात की बात याद आई जब झींगुर सुधा को दरवाज़े पर खड़ी कर उसके पिता के पास न आकर उसी के पास आया था और सारी कथा सुनाकर उससे आश्रय की भिक्षा माँगी थी। उन दिनों लल्लन 'विमेनहेटर' के नाम से प्रसिद्ध था, परन्तु सुधा का मुख देखते ही उसका नारी-द्वेष न जाने कहाँ उड गया था। उसने तत्काल दोनों को आश्रय दे दिया...। उस घटना के तेईस वर्ष बाद आज वह पुनः सोचने लगा कि 'आख़िर सुधा ने झींगुर में देखा क्या?'
और डॉक्टर का मकान आ गया।
4
रात के चौथे पहर जब शीत की अधिकता बढ़ी तो सुधा की गोद में पडे रुग्ण बालक को हिचकी आई और उसने दम तोड़ दिया। सुधा की आँखों में आँसू की दो बँदें मत शिशु के पीले चेहरे पर चू पड़ी। उसने आँचल के छोर से तुरन्त अपनी आँखें पोंछ डाली और मृत शिशु को अपनी गोद से उतार भूमि पर पड़ी कन्था पर डाल दिया। कोठरी में हवा का तीखा झोंका आया और निष्प्रभ दीप एक बार फड़फड़ाकर बुझ गया। अन्धकार में एक नन्हे-से जीवन के अन्त के सामने सधा अपने अन्धकारमय जीवन पर विद्यतदृष्टि डालने लगी।
वह सोचने लगी कि दुनिया समझती है कि मैं झींगर के प्रेम में पड़कर गृह-त्यागिनी हो गई। उसे यह कौन बताए कि मेरे गृह-त्याग का कारण प्रेम नहीं था, उत्कट घृणा थी! और फिर भ्रमान्वित होने में अनजान दुनिया का क्या दोष? मैं भी तो, इसी भ्रम में कि मेरे पति मेरी सौत को प्यार करते हैं,एक कोयलेवाले की ओर आकृष्ट हो परिवार के मुंह पर कालिख लगाने के लिए तैयार हो गई थी और पति के प्रति घृणा ने मुझे एक मोटर-चालक की अंकशायिनी बना दिया।
सुधा अपने जीवन का अतीत चलचित्र की भाँति देखने लगी। उसने देखा कि वह अपने पति रायसाहब साधूराम के कमरे में सफाई कर रही है। शाम के सात बजे थे। उस समय नगर में बिजली नहीं लगी थी, बिजलीघर बन रहा था। रायसाहब की शैय्या के सिरहाने खिड़की के ठीक सामने मोमी शमादान जल रहा था। उसी समय उसकी सौत ने पति के तरुण मोटर-चालक झींगुर को कोई चीज़ ले आने के लिए उसी कमरे में भेजा। झींगुर वहाँ आकर मांगी हुई वस्तु खोजने लगा। आज ही की तरह उस दिन भी हवा का करारा झोंका आया। उस झोंके से कमरे का दरवाज़ा बन्द हो गया, शमादान भी बुझ गया। उसने जब रोशनी लाने के लिए बाहर निकलने का प्रयत्न किया तो टेबल से टकराकर वह पति की शय्या पर गिर पड़ी। क्षणभर का भी विलम्ब न हुआ था कि दरवाजा खला और रायसाहब ने कमरे में प्रवेश किया और यह पूछते
हए कि कौन है, उन्होंने टार्च का बटन दबा दिया। कमरे में उज्ज्वल प्रकाश फैल गया। रायसाहब ने देखा कि सुधा शय्या पर से उठ रही है और पायताने घबराई मुद्रा में उनका मोटर-चालक झींगुर खड़ा है। यह दृश्य देख रायसाहब नावकार भाव से हंसे और कमरे का दरवाजा पर्ववत बन्द करते हए बाहर निकल गए।
सुधा सोचने लगी कि यदि अपने मन के भ्रमवश रायसाहब ने उसे दो तमाच लगा दिए होते या दस-पाँच ऊँची-नीची ही सना दी होती तो शायद वह कुल-त्यागिनी न बनती. परन्त रायसाहब के इस उपेक्षापर्ण आचरण ने भली-भाँति प्रकट कर दिया कि उसके पत्नीत्व का मल्य उसके पति की दृष्टि में कौड़ी-भर भी नहीं है। वह न उनके प्यार की वस्त है और न उनके गौरव की। उसके किसी भी आचरण से उनका कुछ बनता-बिगडता नहीं। वह उनकी उपेक्षिता दासी-मात्र है। उसने उसी रात बारह बजे झींगर के साथ गृह त्यागकर पति के उपेक्षा-रोग की चिकित्सा करना निश्चित किया और परिणामस्वरूप स्वयं
ही जीवनभर के लिए कलंक-व्याधि से ग्रस्त हो गई।
सुधा का मानव-मन्थन चल ही रहा था कि लल्लन ने कोठरी के द्वार से ही कहा, “सुधा देवी, हमारा डॉक्टर तो स्वयं बीमार पड़ गया है। अब सवेरा हो ही रहा है। दूसरा डॉक्टर बुलवाऊँगा।"
“अब डॉक्टर की जरूरत न पड़ेगी, लल्लन बाबू! कफन का बन्दोबस्त कीजिए। हाँ, यह बतलाइए कि कहीं उनका भी कुछ पता चला?" सुधा ने झींगुर के सम्बन्ध में चिन्तापूर्ण जिज्ञासा की।
 हाँ सुधा! अभी ऊपर से देखे चला आ रहा हूँ। पाजी महफ़िल में बैठा वेश्याओं से आँखें लड़ा रहा है। आखिर तुमने उसे समझ क्या रखा था, सुधा?"
जागरण, अनाहार और श्रम से अवसन्न सुधा का मस्तिष्क लल्लन के स्वर में निहित व्यंग्य की झनकार से झनझना उठा। अपने स्पर्श से लोहे को भी पारस कर देने के उसके अभिमान को धक्का लगा। उसने जवाब दिया, "मैंने उसे अपनी सिद्धि का साधन समझा था, लल्लन बाबू! लेकिन उसने मेरी नाक काट ली।"
लल्लन खोखले गले से हँसा। सुधा क्षोभ से तिममिला उठी। उसने ताक पर रखा हँसिया टटोलकर उठा लिया और कोठरी के बाहर निकल वह बारहदरी की ओर झपटी। लल्लन ने पूछा, "उधर कहाँ जा रही हो, सुधा?"
“जा रही हूँ झींगुर ड्राइवर की नाक काटने," सुधा ने कहा। लल्लन भौंचक वहीं खड़ा रह गया।
जूतों के पास चौथी श्रेणी के दर्शकों में बैठा हुआ झींगुर भी गाना सुनकर मस्त हो गया था। जिधर वह बैठा था उसी ओर नाचते हुए मुँह कर गुलशन ने बडी ही मीठी टीप लड़ाई-“सारी रंग डारी लाल-लाल!"
झींगुर ने अपनी रागरंजित आँखें गुलशन की नशीली आँखों से मिला दीं और मुग्ध मुद्रा में ललकारा-“ज़रा भाव बता के बाई जी! कैसे रंग डारी लाल-लाल?"
गुलशन हाथों की पिचकारी बनाकर भाव बताने जा ही रही थी कि रणचंडी की हुंकार-जैसी सुधा की मेघचन्द्र ध्वनि ने समूची महफिल को चौंका दिया। वह चिल्लाकर कह रही थी-"ठहर जा, अभी बताती हूँ कैसे रंग डारी लाल-लाल!" और उछलकर उसने हँसिया से झींगुर की नाक पर वार किया। वार ओछा पड़ा, फिर भी नाक का कुछ हिस्सा कट ही गया। रक्त की धारा बह चली। झींगुर ने दुपटटे से अपनी नाक दबा ली। सुधा ने अट्टहास किया। उसके अट्टहास से सेठ देवीचरण चैतन्य हुए। उन्होंने चिल्लाकर कहा, "निकालो इस हरामज़ादी वेश्या को बाहर, सिर पर सेर-भर सिन्दूर पोतकर सती बनने चली है!"
सुधा के सिर से उत्तेजना में आँचल हट गया था और माँग में सिन्दूर की मोटी रेखा चमक रही थी। उसने हँसिया वहीं फेंक दी और उछलकर सेठ के पास पहुँचकर उनकी बग़ल में रखा गुलाबपाश उठा उसने अपने सिर पर उँडेल लिया और हाथ से मल-मलकर सिन्दूर धोने लगी। सेठजी पर छींटा पड़ा तो वह उछले और सुधा की चोटी पकड़कर हिलाते हुए चिल्लाए–“निकल डायन! अभी निकल! ले जा अपने खसम को भी। उसकी इस महफ़िल में क्या ज़रूरत?"
सुधा ने सेठजी के सिर पर गुलाबपाश से तडातड़ सुरक्षित प्रहार करते हुए कहा, “छोड़-छोड़ चांडाल ! महफ़िल का मज़ा अकेले तेरे ही लिए है? जीवनभर अन्याय-अत्याचार सहकर भी जिन्होंने कभी मुँह नहीं खोला, प्रेम करने की भूख में जिनका सारा जीवन कलंकित हो गया, क्या उनके लिए इस महफ़िल का मज़ा नहीं है? जो किसान हैं, मज़दूर हैं, कुली हैं, क्या उनके लिए यह महफ़िल नहीं? जिनके घर में सदा अभाव रहता है, जिन्हें पर्याप्त भोजन और काफी वस्त्र तक नहीं प्राप्त होता, जो नकली इज़्ज़त के बोझ से दबे हुए खुलकर साँस तक नहीं ले पाते, जिन्हें तेरे जैसे सेठ मध्यवर्गीय कहते हैं, क्या उनके लिए इस महफिल का आनन्द नहीं? बोल बेईमान! बोल! इस गुलाबबाड़ी के गलाबों का रूप-रस-गन्ध तेरे ही लिए है और उनके काँटे हमारे ही लिए? मैं तेरी इस महफ़िल में आग लगा दूँगी।"
प्रहार से घबराकर सेठजी ने सुधा के केश छोड़ दिए थे। उसने लपककर दीवारगीर उतार ली और उसका शीशा ज़मीन पर पटककर चूर-चूर करती हुई उसमें की मोमबत्ती दीवार पर टँगे रेशमी परदों में लगा दी।
झींगुर ‘हा-हा' करता हुआ दौड़ा, परन्तु परदों में आग लग चुकी थी। झींगुर उत्तेजनावश पागल-सा हो गया। उसने तबलची की कमर में खोंसा हुआ हथौड़ा उठाकर सीधे सुधा के सिर पर जमा दिया। नारियल फूटने जैसी आवाज़ हुई
और सुधा ज़मीन पर गिर पड़ी। झींगुर भी हथौड़ा फेंक कटे वृक्ष की तरह सुधा के निश्चेष्ट शरीर पर गिर पड़ा। हथौड़ा धमाके की ध्वनि के साथ हँसिया की बग़ल में जा गिरा।
बारहदरी जल रही थी। समची महफिल भागकर आँगन में निकला । लोगों ने सुधा और झींगर को भी खींचकर बाहर निकाल लिया। पुलिस जार दमकलवाले भी पहुँच गए। सुधा तो न उठ सकी, परन्त झींगुर उठकर बैठ गया।
उसने देखा कि अरुणोदय की लालिमा, सिन्दर की लालिमा, गुलाब के फूला की लालिमा, आग की लालिमा, रक्त की लालिमा और पुलिस की लाल पगड़ा कालालिमा ने एक होकर उसकी लाल-लाल आँखों के सामने लाल सागर लहरा
दिया है। लल्लन ने पूछा, “झींगुर, तुमने यह क्या किया?"
झींगुर ने रोते हुए ज़मीन पर पड़ी सुधा की ओर उँगली उठा दी और भर्राए हुए गले से उत्तर दिया, “सरकार! सारी रंग डारी लाल-लाल।"
000

Share:

16- मृषा न होइ देव-रिसि बानी


नगवा घाट पर बैठे सुक्खू ने स्वच्छ जल से धोकर सिल-लोढ़ा खड़ा कर और उस पर नारियल की खोपड़ी से दूधिया भाँग गिराता हुआ वह चिल्लाया- लेना हो बाबा भोलेनाथ!" पानी में छटक पड़ी साबुन की बट्टी खोजने के लिए उसके साथी झींगुर ने उस समय गोता लगा रखा था। वह भी पानी के भीतर से विजयामन्त्र पढ़ता हुआ बाहर निकला और मन्त्र के शेष भाग की पूर्ति करता हुआ-सा चिल्लाया-“जो विजया की निन्दा करे उसे खाय कालिका माई!" और फिर सुवखू की ओर घूमकर उसने पूछा, “का भाई सुक्खू, माल तैयार हो गयल?"
मसाला तऽ कब्बै से तैयार हौ। देखीं, तोहैं साफा पानी से कब छुट्टी मिलऽला?"
"हम्में त तनिक देर लगी, भाई!"
"अच्छा, तऽ तोहार हिस्सा रखके हम आपन पी जात हई।"
झींगुर ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और सुक्खू ने नारियल में भाँग भरकर पीने की तैयारी की। वह नारियल में मुँह लगाने ही जा रहा था कि पीछे से आवाज़ आई, “क्या बच्चा, अकेले-ही-अकेले?"
सुक्खू ने घूमकर देखा कि एक बाबाजी की भव्यमूर्ति पीछे खड़ी बत्तीसी चमकाते हुए उसकी ओर याचना की मुद्रा से देख रही थी। बाबा के शरीर पर चौंगानुमा अलफी झूल रही थी। उनके एक हाथ में लकड़ी का कमंडल और दूसरे में सिन्दूर-चर्चित लोहे का त्रिशूल था। सिर पर लम्बे मटीले केश और नाभि तक झूलती दाढ़ी भी।
उनकी इस अद्भुत मूर्ति का प्रभाव सुक्खू पर पड़ा और उसने कहा, “सब आप लोगन कऽत माया हौ, गुरुजी! आपकऽ अस्थान कहाँ हौ, महाराज?".
साधू तो रमते राम हैं, बेटा! उनका बँधके स्थान कहाँ! बाबा कबीरदास ने कहा है-
साधू बहता नीर भल, जो नहिं सिन्धु समाय।
अचल होय पायर बने या गड़ही है जाय।"
साधू का कथन अभी समाप्त नहीं हो पाया था कि झींगर ने पत्थर पर धोती पछारते हुए कहा, “का भाई, ई काबुली कौआ कहाँ से आयल?"
साधू ने 'काटखाऊँ' मुद्रा से झींगुर की ओर देखा, पर चुप रहा। उत्तर दिया सुक्खू ने-"तू कइसन बतियावत होअऽ, भाई झींगर! महात्मा हौवन देखलन चल अइलन।"
साधू ने भी झींगुर की पूरी उपेक्षा कर सुक्खू से कहा, “बच्चा! देरी क्यों करता है? दे न!"
"लऽ बाबाजी! कमंडल में लेबऽ का?"
“हाँ, हाँ, दे-दे इसी में।"
बाबाजी ने कमंडल आगे बढ़ाया। सुक्खू ने थोड़ी-सी भाँग उसमें डाल दी। बाबाजी ने एक साँस में उसे सोखकर अलफी की जेब से पीतलमढ़ी लम्बी-सी एक चिलम और गाँजे की पोटली निकाली और उसमें से थोड़ा गाँजा निकाल हथेली पर मलने लगे। उधर झींगुर धोती सूखने के लिए फैलाकर वहाँ आया।
उसने देखा कि भाँग बहुत थोड़ी बची है। उसने क्रोध से मुँह विकृत करते हुए कहा, "का सुक्खू, तोहऊँ मायाजाल में फँस गइलऽ!"
सुक्खू ने उत्तर दिया, “अरे भाई साधुन-महातमन के देके तबै परसाद लेवै के चाही।"
“अच्छा ढेर ग्यान जिन छाँटऽ । अइसन तोता-रटन्त साधू हम बहुत देखले हई, साधू कऽ सकल अइसनै होला?"
बाबाजी गाँजा मलकर सुलफा सुलगा चुके थे। जल्दी-जल्दी दो-चार दम लगाकर उन्होंने लाल-लाल आँखों से झींगुर को घूरा । झींगुर ने उनकी आँखों से आँखें मिलाते हुए कहा, “बनर-घुड़की जिन देखावऽ बाबाजी, नाहीं त अच्छा न होई।"
"तेरा नास हो जाएगा," बाबाजी शाप देने की मुद्रा में गुर्राए।
“जबान सँभाल के बोलऽ," झींगुर ने गरम होकर कहा।
“साधू का अपमान करता है? तेरा ना-ना-ना-ना-नास हो जाएगा," बाबाजी ने हकलाते हुए कहा।
फिर अपनै बँकले जालऽ! बड़का बाबा कनके आल हौ। जानत नहीं काशी के कंकर सिवसंकर समान हैं। अइसे सराप से हम नाहीं डेराइत।"
"तू क्या चीज़ है बे छोकडे! सराप से तो बड़े-बड़े काँप जाते हैं। सुना नहीं है कि गीताजी में क्या लिखा है- 'मषा न होड देव-रिसि बानी'।"
“बहुत देखले हई हो।"
"कुछ नहीं देखा है। देखना है तो देख सामने रामनगर की ओर। देख, कैसा होता है साधू का सराप!"
साधू की अँगुली के साथ ही झींगुर की दृष्टि गंगा-पार सामने की ओर घूम गई। समूचा किला दीपावली मनाता हुआ आलोक, स्नान कर रहा था। कार्तिक कृष्ण अष्टमी की सन्ध्या थी। पश्चिम में अग्निगोल तिरोहित हो चुका था, परन्तु पूर्व में अभी स्वर्णगोलक की रेखा भी प्रकट न हो पाई थी। गोधूलि समाप्त होते-होते अन्धकार छा गया। उस काली पृष्ठभूमि में प्रकाशोज्ज्वल किला उस चित्र के समान दिखाई पड़ रहा था जिसमें कृष्ण केशों की व्यापक सधनता में चित्रकार ने किसी सुन्दरी के चन्द्रमुख का आलेखन किया हो। झींगुर की बहस की प्रवृत्ति शान्त हो चुकी थी। वह मन्त्रमुग्ध किले की ओर देखता रहा। बाबाजी के होंठों पर भी मुसकान की क्षीण रेखा खिंच गई जिससे उनका रूप कुछ और आदर्शनीय हो उठा।
। परन्तु बाबाजी की इस मुसकान पर सुक्खू की श्रद्धा और भी बढ़ गई।
उसने परम विनीत स्वर से पूछा, “साधू के सराप और किला से का मतलब, महाराज?"
“मतलब बहत है, बच्चा? तेरे में सरधा है, मैं तुझे सारा मतलब बताए देता हूँ। राजा चेतसिंह का नाम सुना है, बच्चा?"
"हाँ बाबाजी, महाराज बरवंडसिंह का लड़िका नऽ? खूब जानीला, ईका अगर्दै ओनकर किला हो।"
"तू तो बहुत ज्ञानी है, बेटा! हाँ, तो चेतसिंह की बात है। वह जब काशी-नरेश रहे तो काशी में उस बखत एक बहुत बड़े सिद्ध का निवास रहा, बेटा!"
“के गुरुजी!" सुक्खू ने हाथ जोड़कर पूछा।
"बाबा कीनाराम।"
"बाबा कीनाराम?" सुक्खू ने विस्मय-मिश्रित हर्ष से कहा, "बाबा कीनाराम के हम खूब जानीला, गुरुजी! ओनकर बनावल भजन हमार माई आज तक गावला। हाँ तऽ महाराज का भयल?"
"तो बेटा, उसी किले के नीचे राज चेतसिंह एक दिन टहल रहे थे। उधर से रमते जोगी बाबा कीनाराम आ निकले। राजा ने उनको देख तेरे इसी साथी की तरह अभिमान में भरकर उन्हें नमस्कार तक न किया। बाबाजी भी रुक गए।
सन्तों को अभिमान कहाँ, बेटा! जैसे मैंने अपने से आकर तुझसे याचना की वैसे ही उन्होंने राजा से कहा, 'राजा! भूख लगी है। राजा ने घृणा-भरी मुसकान से उनकी ओर देखा और कहा, 'ठहरो, खाना मँगाता हूँ।' राजा ने अपने एक कर्मचारी की ओर इशारा किया। वह कर्मचारी का कायस्थ, बहत चतर। समझा न बेटा?"
बेटा सुक्खू बाबा की बात बड़े भक्तिभाव से सुन रहा था। उसने मूल-मूल समझा था। शास्त्र की उलझन उसकी समझ में न आई थी। पर उसने सिर झुकाकर कहा, "हाँ महाराज, समुझ गइली।"
"कुछ नहीं समझा बेटा, समझने की बात तो अब आगे आएगी, समझ।
कर्मचारी ने हाथ जोड़कर राजा से कहा, 'सरकार, बाबा से वैर न करो।' पर सरकार ने उसकी बात नहीं मानी। कहा, 'हम भी छत्री, बाबा भी छत्री। लेकिन हम राजा, वह भिखारी। उसने हमें सलाम क्यों नहीं किया?'
"राम राम, राजा कऽई बुद्धी!" सुक्खू ने विनीत निवेदन किया।
"हाँ बेटा! यही बात है। सूरदास ने भी कहा है-'समय चूकि पुनि का पछिताने।' सो कर्मचारी ने फिर कहा, 'अच्छा, तो फिर हमें बाबाजी के लिए भोजन लाने का हुक्म हो। राजा ने कहा-'हाँ जाओ, ले आओ। देखो, किले के उधर दोपहर कहीं से एक लाश आकर किनारे लग गई है। बहुत दुर्गन्ध है उसमें। उसे डोमड़ों से उठवा मँगाओ।"
अरे!" विस्मय से सुक्खू का मुँह खुल गया और मिनट-भर खुला ही रहा। बाबाजी पूर्ववत मुसकराए और कहने लगे, "तो उस कर्मचारी ने कहा, 'सरकार सली दे दें, पर ऐसा काम मुझसे न होगा।' बाबा कीनाराम खड़े सब सुन रहे थे। उन्होंने कहा, 'सदानन्द, यह जैसा कहता है, करो। अपने वंश में सदा आनन्द नाम रखना, आनन्द रहेगा।' सदानन्द ने भी तुरन्त वह मुरदा उठवा मंगाया। राजा ने बाबाजी से कहा, 'भोग लगाइए।' सारे पार्षद और कर्मचारी मुँह फेरकर खड़े हो गए। राजा ने डाँटा। तब सब सामने देखने लगे। बाबा ने अपना दुपट्टा उतारकर मुरदे पर डाल दिया। पाँच मिनट बाद सदानन्द से कहा, 'दुपट्टा उठाओ।' सदानन्द काँपते पैरों से आगे बढ़े। उन्होंने काँपते हाथों सखि मूंदकर कपड़ा उठा लिया। जयकारा सुनकर जब उन्होंने आँखें खोली तो क्या देखा, बोल!" बाबाजी ने डपटकर सुक्खू से पूछा।
सुक्खू सकपका गया। उसने सोचा कि क्या कहें! फिर ख्याल आया कि मा की करनी पर बाबा को क्रोध आया ही होगा। सो उसने धीरे से कहा, "मुरदवा अजगर बन गइल होई!”
“थोड़ा-सा चूक गया, बेटा!" बाबाजी ने स्नेहसिक्त अट्टहास करते हुए कहा. “अजगर नहीं बना, बेटा! पकवान बन गया पकवाना लट पेटा वाली जलेबी, इमरती, मोहनभोग।" कहते-कहते बाबाजी हॉफ गए। परन्तु बात जारी रखी। उन्होंने कहा, “बाबा का चमत्कार देख राजा की आँखें खुल गईं। वह घबराकर पैर पर गिर पड़ा।" परन्तु बाबा ने कहा, 'नहीं, अब तुम राजा नहीं रह सकते। और जानते हो, तुम्हें गद्दी से कौन उतारेगा? यही सदानन्द । राजा थरथरा गया, बेटा! बड़ी विनती की। तब बाबा पसीज गए। उन्होंने कहा, 'तुम्हें तो गद्दी से उतना ही पड़ेगा। हाँ, तेरी विनती पर मैं प्रसन्न होकर कहता हूँ
कि तेरे बाद तेरा यह राज खंडित रूप में तेरे प्रतापी पिता के वंशधरों को मिलेगा। छह पीढ़ी तक राज्य करने के बाद तब तेरे राज्य का विलय होगा।"
श्रद्धाविभोर सुक्खू अभी विलय का अर्थ भी नहीं समझ पाया था और न यह पूछ पाया था कि इससे किले की सजावट का क्या सम्बन्ध, कि झींगुर ने हँसकर कहा, “नसा जोर कइले हो का, बाबाजी?" और बाबाजी ने उसकी ओर फिर घूरकर देखा। झींगुर हँसता ही रहा।
जिस समय बाबाजी ने झींगुर का ध्यान किले की सजावट की ओर आकृष्ट किया तो कुछ देर तक झींगुर किले की ओर देखता और विचार करता रहा कि आज किले में यह सजावट कैसी है? बाबाजी के अट्टहास से उसका ध्यान भंग हआ और उसके बाद उसने बाबाजी के मुंह से जो कुछ सुना वह उसके मन में जमा नहीं। उसने कौतुक अनुभव किया और हँसने लगा। "लेकिन महाराज," सुक्खू ने पूछा, “विल माने का?"
इतने में कहीं से सीटी की ध्वनि आई। बाबाजी चौंक गए। उन्होंने उठते-उठते कहा, “इसका माने यही कि आज चेतसिंह का राज्य समाप्त हो रहा है। दिल्ली की सरकार यह राज्य लखनऊ की सरकार को दे रही है। समझा बेटा?" और बाबाजी क़दम बढ़ाकर चले। मोड़ घूमते ही उन्हें पुलिस के कुछ कर्मचारी और एक बड़े अफ़सर दिखाई पड़े। बाबाजी ने इधर-उधर देखकर फौजी ढंग से अफ़सर को सलाम किया। अफ़सर ने कहा, "कहो बाबाजी, तुम अपनी ड्यूटी तो बड़ी चौकसी से बजाते हो?"
“वह तो मैंने कह ही दिया है, हुजूर! मृषा न होइ देव-रिसि बानी। हुजूर से क्या छिपा है?" बाबाजी ने कहा।
“इसीलिए तो कहता हूँ," अफ़सर ने कहा, “मझसे सचमच कुछ नहीं छिपा है। तो वहाँ गाँजा-भाँग पीकर जो कुछ बक रहे थे वह सरासर बेहदी बात थी। कायदे के खिलाफ़ काम की सज़ा जानते हो?"
"जब हुजूर कहते हैं तो ठीक ही होगा। मृषा न होइ देव-रिसि बानी, सीताराम, सीताराम!" बाबाजी ने ज़ोर से कहा और उसी समय दो-तीन आदमी मोड़ घूमकर आते दिखाई पड़े। अफ़सर भी खुर्राट जमादार की चतुराई पर मुसकराता हुआ आगे बढ़ गया।
उधर झींगुर ने बाबा की बात सुनते ही सुक्खू से सहसा पूछा, “का हो, आज 15 तारीख त नाहीं न हो?"
"का जानी भाई! पनरह तारीक के का हौ?"
“तू सुक्खू नाही बुद्धू हौआ, “झींगुर ने मुसकराकर कहा। सुक्खू भी बिना कुछ समझे ही हँसने लगा।
किले की ओर बड़ी तीव्र उल्लास-ध्वनि हुई। झींगुर भी उसी ओर ताकने लगा। वह एक कमरे की ओर, जिसे महाराज के कमरे के नाम से जानता था, एकटक निहारता खड़ा रहा। सहसा उसने देखा कि कमरे की खिड़की में कोई आकर खड़ा हो गया है। झींगुर ने निगाह जमाकर देखा और तब अपने साथी से बोला-
"अरे, सामने महाराज हौअन, हरहर महादेव कहेके चाही।" लेकिन झींगुर ने कुछ सोचकर कहा, “जब राजै नहीं रह गयल तब...?"
"तब तोहार कपार!" झींगुर ने सुक्खू से कहा, "राज नहीं रह गयल तब ऊ राजौ नाहीं रह गइलन का? मन्दिर टूट गयल तऽ का भगवानौ गायब हो गइलने? तूं चुप रहऽ!” और स्वयं वह खिड़की की ओर मुंह उठाकर ज़ोर से चिल्लाया-“हर-हर महादेव!"

Share:

15-नारी, तुम केवल श्रद्धा हो


माँ-बाप पुकारते थे लल्लन।
कॉलेज के रजिस्टर में नाम था रघुवीरशरण और सहपाठियों में उसकी प्रसिद्धि थी 'विमेनहेटर' (नारी विद्वेषी) के नाम से। क्या कॉलेज, क्या शहर, क्या खेल का मैदान, क्या चौक का बाज़ार-सभी जगह उसे जाननेवाले निकल आते जो उसके नाम और उस नामकरण के कारण दोनों से परिचित रहते।
उसके शरीर का वर्ण असाधारण काला था। उसकी आँखों की बनावट कुछ ऐसी थी कि यदि वह देखता बाएँ तो दाहिने खड़े लोगों को यह भ्रम होता कि वह हमारी ही ओर देख रहा है।
वह खद्दर की धोती, बंडी और चादर पहनता-ओढता था। पैरों में रहती थी काठ की चटपटिया। टोपी की उसे आवश्यकता ही न थी, कारण सिर पर लम्बे सघन केश-जाल थे-रूखे और बिखरे, उसके हृदय की अस्त-व्यस्तता और
रुक्षता के परिचायक।
कक्षा में वह सबसे पीछे बैठता था, परन्तु जब परीक्षा-फल प्रकट होता था तो उसका नाम सबसे आगे मिलता। सबसे पीछे उसके बैठने का मौलिक परन्तु कटु कारण था कि कक्षा में सबसे आगे छात्राएँ बैठती थीं। यदि सामने से कोई छात्रा दिखाई देती तो वह मुँह फेर लेता, परन्तु यदि वही छात्रा कुएँ में गिर जाती तो बचाने के लिए वह सबसे पहले कुएँ में कूद पड़ता।
किसी ने उसे एक कलैंडर भेंट किया। उस पर राधा-कृष्ण का एक नयनाभिराम चित्र था। दूसरे ही दिन उसके कमरे में लोगों ने देखा कि कलैंडर टँगा है, उस पर कृष्ण की आकृति ज्यों-की-त्यों चमक रही है, परन्तु राधा का स्थान दीवार की नीलिमा ने ले रखा है।
उसके अंग्रेजी पाठ्यक्रम में एक ऐसी पुस्तक भी थी जिसके आरम्भ में लेखिका का मनोहर चित्र था। उसने अपने कुछ सहपाठियों के साथ जाकर
उक्त पुस्तक खरीदी। दूसरे दिन उन सहपाठियों ने देखा कि 'विमेनहेटर' की उक्त पुस्तक पर बढ़िया मोटा, चिकना कागज  चढा है. परन्तु लेखिका का चित्र बड़ी सफ़ाई से साफ़ कर दिया गया है।
स्त्रियों से भद्दा मजाक कर उनकी चप्पल तक खानेवाले उसके पिता देवीचरण ने जब अपनी रक्षिता को घर में ही ला बिठाया तो उसने पितृभक्ति को ठोकर मार दी और पिता के सामने ही उनकी रक्षिता को केश-कर्षण द्वारा बाहर निकाल दिया. परन्त उसी दिन शाम को उसके पिता के मोटर-चालक झीगुर न उसस यह कहा कि एक बड़े घराने की पढ़ी-लिखी कुलवधू पति की बदचलनी से व्यथित होकर गृहत्याग करने को तैयार है और यदि उसने उससे विवाह न किया तो वह गुंडों के
पंजे में पड़ जाएगी तो 'विमेनहेटर' ने तुरन्त उसे सुरक्षा का आश्वासन दिया।
ऐसा था विरोधी गुणों का सम्मिश्रण वह 'विमेनहेटर' !
2
उस दिन '' होस्टल में इस संवाद से बड़ी सनसनी फैल गई कि उसी होस्टल का निवासी एक छात्र कॉलेज से निकाल दिया गया। जगह-जगह लड़कों का झुंड इसी घटना की चर्चा कर रहे थे। एक छात्र अस्वस्थतावश कॉलेज न जा सका था। उसके कमरे में एक दल ने पहुँचकर खबर सुनाई-"बेचारा जनार्दन 'रस्टिकेट' हो गया।"
“क्यों, क्यों, उसने क्या किया था?" प्रश्न हुआ। उत्तर मिला-“कुछ नहीं, यों ही बेकार।" पुनः प्रश्न हुआ-"फिर भी कुछ बात तो होगी ही। अकारण तो कोई निकाला नहीं जाता।"
“सन्दरियों की सनीचरी दृष्टि पड़ जाना ही क्या पर्याप्त कारण नहीं?" एक छात्र ने कहा। “सुन्दरियों की या सुन्दरियों पर?" दूसरे छात्र ने टीका की। “एक ही बात है। खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजे पर, परिणाम एक ही होगा।
कटेगा खरबूजा ही।" तीसरे छात्र ने दार्शनिक भाव से उत्तर दिया।
"ठीक कहते हो." चौथे छात्र ने समर्थन के स्वर में कहा, "हमारी नज़र सन्दरियों पर पड़े या सुन्दरियों की नज़र हम पर, हर हालत में बर्बाद हमीं होंगे।"
“आप क्यों बर्बाद होने लगे, जनाब?” छात्रों की वार्ता के बीच विमेनहेटर' का जलद-गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा। वह धीरे-धीरे आकर कमरे में एक कुर्सी पर बैठ गया। क्रोधवश वह कॉप रहा था। मंडली में सन्नाटा छा गया जिसे तोडते हुए फिर गरजा-"इतना बड़ा अन्याय देखकर भी आप लोग उनके प्रतिकार का कोई उपाय नहीं कर रहे हैं! इसका परिणाम क्या होगा, जानते हैं? आज जनार्दन निकाला गया, कल मैं निकाला जाऊँगा, परसों अन्य निकाले जाएंगे।"
"जो जैसा करेगा वैसा भरेगा-हम हों, आप हों या अन्य कोई," एक छात्र ने कहा।
जनार्दन ने क्या किया था जिसका उसे यह फल मिला?" 'विमेनहेटर' ने गुस्से से पूछा।
"कुछ तो किया ही होगा, तब ऐसा हुआ। अगर जनार्दन ने कुछ न किया होता तो लड़की शिकायत ही क्यों करती और अधिकारी उस पर ध्यान ही क्यों देते?" पहले छात्र ने ढिठाई से बात आगे बढ़ाई।,
'विमेनहेटर' आपे से बाहर हो गया। उसने टेबल पर जोर से मुक्का मारते हुए कहा, "क्या अधिकारी मनुष्य नहीं है? क्या सुन्दरता का उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। क्या लड़कियाँ झूठ नहीं बोल सकती?"
"लड़की क्यों झूठ बोलेगी?"
“जी हाँ, लड़कियाँ तो अब हरिश्चन्द्र हो गई हैं!"
"चाहे आप लड़कियों को झूठी कहें या अधिकारियों को पक्षपाती बताएँ महाशय, लेकिन सच पूछिए तो पक्षपाती आप हैं।  वह ज़माना गया कि औरतें पुरुषों द्वारा सताई जाती रहें, उनकी बेइज्जती होती रहे और शर्म उनकी ज़बान न खुलने दे। यह समानता का युग है। यदि आप परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त करते हैं तो कुसम भी द्वितीय स्थान प्राप्त करने में पीछे नहीं रहती। जिस कक्षा में आप पढ़ते हैं, उसी में लड़कियाँ भी। जो प्रोफेसर आपको पढ़ाते हैं, वही उन्हें भी, अब सबके साथ समान व्यवहार होगा।"
बाबा मेरे! यही तो मैं भी कह रहा हूँ,” चिढ़ते हुए विमेनहेटर ने जवाब दिया, “समानता का व्यवहार करते हो तो निष्पक्ष भाव से करो। दोषी लड़के को निकालते हो तो दोषी लड़की को भी निकालो।"
“अब आए आप रास्ते पर," पहले छात्र ने कहा।
“यह तो मानेंगे ही कि छेड़छाड़ पहले लड़के ही शुरू करते हैं?"
“जी हाँ, पर इसके लिए उन्हें बाध्य करती हैं लड़कियाँ ही। किसी लड़के का इतनी हिम्मत नहीं कि बिना इशारा पाए किसी लड़की की ओर आँख भी उठा सके।"
“यह तो आप धाँधली पर उतर रहे हैं।"
"हरगिज़ नहीं। आज की ही घटना मेरे कथन का प्रमाण है। मैंने आदि से अन्त तक आज का तमाशा देखा है।"
“कहिये!"
"सुनिए। कमारी कुसुम अन्य दो लडकियों के साथ होस्टल से आ रही थी। जनार्दन भी उधर ही टहल रहा था, कुसुम ने उसकी ओर देखकर लड़कियों से कुछ कहा और तीनों ही हँस पडीं। जनार्दन ने भी तबियतदारी दिखाई आर मुसकरा दिया। कसम ने उसकी मुसकराहट के जवाब में अपनी चप्पल का आर इशारा कर दिया। बदले में जनार्दन ने अपने बटन होल का फूल निकालकर उस पर फेंक दिया। बस, अब कसम की बेइज्जती हो गई। उसने फूल उठा लिया और प्रिंसिपल के पास जाकर रिपोर्ट की। प्रिंसिपल ने उसकी शिकायत सुन दोनो लड़कियों की गवाही ली और जनार्दन को वर्ष भर के लिए कॉलेज से निकाल दिया। अब बताइए गोपी बाबू, इसमें किसका दोष था?"
“सरासर कसूर जनार्दन का है। कसम ने उसे चप्पल मारा तो था नहीं,केवल दिखला दिया था तब उसने फूल क्यों फेका?" गोपी ने पूछा।
मँह चिढाता हुआ 'विमेनहेटर' बोला, “तो जनार्दन ने भी तो केवल फूल ही फेंका था, कोई वज्र नहीं गिराया। गोपी बाबू, जब लड़कियाँ चमक-दमक, बनावट-सजावट, चलन और सभ्यता में यूरोप को आदर्श मानती है तो गौरव का इतना भारतीय भाव क्यों? आधा तीतर और आधा बटेर, यह तो अच्छा नहीं।"
अभी 'विमेनहेटर' की बात समाप्त भी न हो पाई थी कि उसके एक मित्र शर्मा ने कमरे में प्रवेश किया और कहा, “यार, तुम यहाँ बैठे बहस कर रहे हो. वहाँ जनार्दन जा रहा है। उसका सामान इक्के पर रखा जा चुका।"
सभी लड़के जनार्दन से मिलने दौड़ पड़े। जनार्दन सीढ़ी उतर रहा था। रेलिंग पर से गोपी ने झुककर पूछा, “कहो जनार्दन, क्या हाल है?"
जवाब में जनार्दन एक शेर पढ़ता हुआ नीचे उतर गया-
“जान तो कुछ गुज़र गई उस पर
मुँह छिपा के जो कोसता जाए।
लाश उठेगी जबकि नाज़ के साथ
फेरकर मुँह वह मुसकरा जाए।"
सदा की भाँति 'विमेनहेटर' कक्षा में सबसे पीछे बैठा था। हिन्दी के अध्यापक 'कामायनी' पढ़ा रहे थे। उनके मुंह से निकला, “नारी तम केवल श्रद्धा हो'और तरन्त ही विमेनहेटर' ने अपने मित्र शर्मा का हाथ दबाकर बाहर निकल चलने का इशारा किया। दोनों बाहर निकल आए और कक्षा के पीछे उद्यान में चले गए। वहाँ जाते ही शर्मा ने पूछा, “यार. तम्हें औरतों से इतनी ज़्यादा चिढ़ क्यों है?"
उत्तर में 'विमेनहेटर' मुसकरा दिया। शर्मा ने फिर कहा, "भाई, तुम्हारी मुसकराहट तो तुमसे भी अधिक रहस्यमयी है। फिर भी आज तुम्हें अपने इस स्वभाव का कारण मुझको बताना ही होगा।"
“वह बड़ी लम्बी कथा है, शर्मा जी!"
“संक्षेप में कहो।"
"बिना सुने तुम न मानोगे?"
"नहीं।"
“अच्छा तो फिर सुनो,' 'विमेनहेटर' कहने लगा, “मैं, गोपी, जनार्दन और कुसुम चारों ही एक मुहल्ले के अर्थात् चौखम्भा के रहनेवाले हैं। चौखम्भा बहुत बड़ा मुहल्ला है। इसलिए एक ही मुहल्ले में रहते हुए भी हम लोगों के घर एक-दूसरे के बहुत पास नहीं हैं। केवल मेरा और कुसुम का मकान एक-दूसरे से सटा हुआ है। मेरी और कुसुम की प्रारम्भिक शिक्षा एक साथ ही आरम्भ हुई। मैं स्कूल में भर्ती हुआ, वह कन्या-पाठशाला में। समय बीतता गया और हमारी मित्रता गाढ़ी होती गई। उस साल हम दोनों एक साथ हाई स्कूल परीक्षा में बैठे थे। परीक्षा के बाद गर्मी की छुट्टियाँ थीं। एक दिन शाम को टहलकर जब मैं घर वापस आया तो मेरी छोटी बहन दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली-'भैया! मिठाई खाने को दो तो एक बात बताऊँ!'
'ना, न मैं मिठाई खिलाऊँगा और न तेरी बात सुनूँगा।'
'अच्छा मिठाई मत दो, बात तो सुन लो।
'ना! मैं तेरी बात भी न सुनूँगा।
“अपनी बहन को यही जवाब देकर मैं अपने कमरे में घुस गया। बाहर से ही बहन ने कहा, 'कसम के साथ आपका ब्याह होगा। कुसुम की माँ आई थीं।"
जिस बात की आशा न थी, जिसके बारे में कभी कुछ सोचा तक न था वही बात सुनकर भी मझे आश्चर्य न हआ। मुझे ऐसा जान पड़ा जैसे मैं बहुत दिनों से कसम का पति हैं और उस पर मेरा चिर अधिकार है। मैं यह भूल गया कि मैं कुरूप हूँ. मेरा रंग काला है. मेरी आँखें नीरस हैं और मेरी समूची बनावट बीभत्स है। मैं सन्दरी कसम के योग्य नहीं।
"रात बीत गई, प्रभात हआ। मैं अपनी छत पर से डाँककर कुसुम की छत पर पहँचा। कसम भी अभी-अभी सोकर उठी थी। प्राची का अरुण सौंदर्य उसके कोमल कपोलों पर अनुराग बनकर नृत्य कर रहा था। अलसाई आँखों में जैसे शत-शत बसन्त की मधुमाया लहरा रही थी। मैंने उससे कहा, कुसुम मेरे साथ तुम्हारा विवाह होनेवाला है। तम्हें स्वीकार है न?' कुसुम ने मार्मिक दृष्टि से देखते हुए उत्तर दिया, 'नहीं।'
'मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।'
'मैं तुम्हारे प्यार को घृणा करती हूँ।'
'क्यों?
'क्योंकि तुम असुन्दर हो।'
"यह सुनकर मैं ठहर न सका। घुमा, घमकर सीधा भागता हुआ अपने कमरे में शीशे के सामने आकर खडा हो गया। मैंने देखा जैसे विश्व का समस्त असौन्दर्य मेरे शरीर में समाया हआ है। जिस प्रकार सारस की ग्रीवा, बारहसिहाँ की टाँगों, गधे की मूर्खता और अन्य पशुओं की विभिन्न कुरूपताओं की समष्टि ऊँट है, वैसे ही मनुष्यों में मैं हूँ। सच कहता हूँ भाई, मेरी कुरूपता ने जैसी पीड़ा मुझे दी वैसी किसी ने किसी को भी न दी होगी। उसी दिन से यह समझकर कि सौन्दर्य की अधिकारिणी स्त्रियाँ हैं, उनसे मुझे घोर घृणा हो गई। इसके बाद कुसुम के यहाँ मेरा जाना छूटा और गोपी का बढ़ा। गत वर्ष मैंने सुना कि कुसुम की शादी जनार्दन से होनेवाली है, किन्तु उस पर गोपी का असाधारण अधिकार है। उसी के कहने से उस दिन कुसुम ने जनार्दन को कॉलेज से निकलवा दिया, इसलिए कि वह कुसुम के माँ-बाप की दृष्टि में गिर जाए।"
रघुवीर की बातें अभी समाप्त भी न हो पाई थीं कि किसी की पगध्वनि सुन पड़ी। दोनों ने घूमकर देखा कि कुसुम आ रही है। कुसुम ने वहाँ आकर अपना हाथ रघुवीर के कन्धे पर रख दिया। शर्मा धीरे से टल गया।
कुसुम का हाथ कन्धे पर पड़ते ही रघुवीर चौंका जैसे बिजली का करेंट छ गया हो। वह भागना चाहता था कि कुसुम ने उसके करते का छोर पकड़ लिया।
“तुमसे मैं बात नहीं करना चाहता, मुझे छोड़ दो,” रघुवीर ने गरजकर कहा।
“तुम पुरुष हो, बली हो, छुड़ा लो।"
तो तू नहीं मानेगी, बेहया!' 'विमेनहेटर' ने करारा धक्का दिया। कुसुम गिरते गिरते बची। उसे धक्का देकर ज्यों ही वह घूमा कि प्राक्टर मिस्टर सिन्हा खड़े दिखाई पड़े। उन्होंने पूछा, "क्या बात है?" रघुवीर चुप हो गया। प्राक्टर ने कुसुम से कहा, "चलो, रिपोर्ट करो। इसने क्या किया है?"
"कुछ नहीं," कुसुम ने कहा।
इसने तम्हें धक्का देकर गिराया है," प्राक्टर बोले।
"कहाँ, वह तो मेरी धोती मेरे पैरों में फंस गई थी।"
सिन्हा मुसकराते हुए चले गए। 'विमेनहेटर' सिर नीचा किए खड़ा रहा,बोला, "कुसुम! तुम रिपोर्ट करो।"
"नहीं!"
"क्यों?"
"वैसे ही।"
“मैं तुमसे घृणा करता हूँ।"
“मैं तुम्हारी घृणा को प्यार करती हूँ।"

घंटा बजा। लड़के कक्षा से गुनगुनाते हुए निकल पड़े-"नारी, तुम केवल श्रद्धा हो!"

Share:

14- दीया क्या जले जब जिया जल रहा


1.
गंगो नित्य की अपेक्षा आज कुछ जल्दी ही उठ गई थी। उठने के बाद से ही वह अनमनी थी। वह समझ नहीं पा रही थी, पर उसे सब-कुछ अधूरा-अधूरा दिखाई पड़ रहा था। चारों ओर अतृप्ति उसाँस-सी भरती जान पड़ती थी और अभाव मचल-मचल कर चिकोटी काटता-सा मालूम पड़ता था। उठते ही उसने अपनी पालतू बिल्ली को एक चैला खींचकर मारा; कारण, वह नित्य उसके निकलने के बाद कोठरी से बाहर निकला करती थी, पर आज वह उसके पहले ही बाहर निकल आई। उस दिन घर में उसने बुहारी नहीं लगाई, बल्कि झाड़ उठाकर उसने सारा घर पीट डाला। उसका सारा आक्रोश अपने पति सूरत पर था जिसे वह अपने सारे अभावों का मूल कारण समझती थी। वह चाहती थी कि सूरत उससे कुछ कहे। उसे अपना अभाव, अभियोग उपस्थित करने का मौका मिले। सूरत भी सवेरे से ही निगाह दबाए सब-कुछ भाँप रहा था। देख रहा था कि दिशाएँ निस्तब्ध हैं और गंगो कात्र बादलों की तरह भारी है।वह डर रहा था कि अभी-अभी वह कहीं बरस न पड़े। उसने चुपचाप नित्य-क्रिया समाप्त की, बाल सँवारे, गुड़ का एक टुकड़ा मुँह में डाला, पानी पिया और फिर एक अधजली बीड़ी सुलगाकर वह दबे पाँव बाहर निकल जाने का प्रयत्न करने लगा। क़रीब-करीब वह सफल हो चुका था, अर्थात् एक पैर चौखट के उस पार कर चुका था, जूता भी पहन चुका था. दसरा पैर भी उठ गया था, सहसा वज्रपात हुआ। उठा हुआ पैर जहाँ का तहाँ आ रहा। पैर रखने से बने हए पहले निशान पर इस बार पैर वापस होकर इस प्रकार चारों खाने ठीक बैठा जैसे समान कोण और भुजावाले त्रिभुज एक-दसरे पर सरोतर बैठ जाते हैं। सिर सहसा घूम गया, आँखें सभय हो गई. मँह खल गया. जैसे कह रहा हो-'भाई, तू भी तो खुल! यह बन्द-बन्द सा तो खल रहा है। कानों में कम्पन हुआ। कम्पन से ध्वनि हुई।
"हाँ तो दिवारी कल है कि परसों?"
 “कब है, हमें नहीं मालूम, मिल से छुट्टी होती तो मालूम होता।"
"तुम्हारे ऐसा निकम्मा आदमी तो त्रिलोक में न होगा। कब परब है, कब त्यौहार है, इसका भी तुम्हें पता नहीं।"
“पता लगे तो कैसे? सबेरा हुआ, दौड़ते मिल पहुँचा। दिनभर कोयला झोंककर दिया-जले हाथ और मुँह में कारिख पोते घर लौटता हूँ। दिनभर का थका-माँदा, लेटते ही नींद आ जाती है। हमको तो यह भी नहीं मालूम होता कि आज दिन कौन-सा है।"
“घर की परवाह हो तो मालूम हो।"
"आखिर तुम्हें दिवाली याद कैसे आई।"
“सालभर का त्यौहार है, और क्या?"
“अच्छा तो पता लगाकर बताऊँगा।"
“तुम क्या पता लगाओगे, मैं खुद पता लगा लूँगी। राम, राम! दुनिया में ऐसे भी आदमी हैं।"
सूरत मूरत बना हुआ सारी फटकार हजम कर रहा था। गंगो शेरनी की तरह बकारती हुई घर से बाहर निकली।
सूरत अधजली बीड़ी से अधजला हृदय सुलगाता हुआ घर से बाहर निकल आया।
"राम की माँ! रामू की माँ!" की आवाज़ से मुहल्ला गूंज उठा। गंगो अपनी पड़ोसिन रामू की माँ को बुला रही थी। रामू की माँ भी अपने दरवाज़े पर आई।गंगो ने पूछा, “क्यों बहन, दिवारी तो कल ही है न?"
"हमको क्या मालूम बहन, कि दिवारी कब है और भैया दूज कब?"
"ऐसा क्यों कहती हो? सालभर का त्यौहार है।"
“मेरे यहाँ तो इस साल कोई त्यौहार न मनाया जाएगा।"
"क्यों?"
"तुम्हें नहीं मालूम? आसाम में भूकम्प में हमारे जेठ मर गए। उसी गम में इस साल हम त्यौहार नहीं मनाएँगे।"
गंगो निराश होकर उधर से लौटी। दूसरी ओर जाकर उसने अपनी दूसरी पड़ोसिन को पुकारा-“ललता, अरे ओ ललता!"
“क्या है, गंगो!" ललिता ने आकर पूछा।
“यही पूछना है कि दिवारी इस साल परसों पड़ेगी कि नरसों?"
"दिवारी न परसों है, न नरसों, कल ही है।"
"कल ही है!" गंगो के मुख पर आश्चर्य के सभी लक्षण स्पष्ट हो उठे।
उसने पूछा, “दिवारी के लिए तुमने क्या तैयारी की है?"
"हम गरीबों के यहाँ त्यौहार की तैयारी कैसी? यहाँ तो बारह महीने वही रूखी रोटी और वही सूखा साग। त्यौहार तो है अमीरों का, चमेली बुआ का,जो ललहोछठ तक धूमधाम से मनाती है।"
“ठीक ही है, भगवान ने चार पैसे दिए हैं, वह क्यों न धूमधाम करें!"
गंगो की आँखों में प्रकाश आ गया, जैसे घने अन्धकार में उसने आलोक-रेखा देख ली हो। उसने चमेली बुआ के घर की राह ली।
चमेली बुआ नौकर को बाज़ार भेजने के लिए वस्तुओं की लम्बी सूची बना रही थी। उन्होंने गंगो को देखकर भी न देखा, तथापि वह उन्हीं के पास जा बैठी।
गंगो अन्तःसत्वा थी। इधर उसकी तबीयत उर्द से बड़े पर आ गई थी। पर वह अपनी यह इच्छा किससे और कैसे प्रकट करे! लोकदृष्टि के समक्ष अपने मन का आवरण उठाने में वह लजाती थी, कारण आवरण उठाने में लज्जा लगती ही है चाहे वह दैहिक हो या मानसिक। यही कारण था कि अपने पति सूरत से भी खुलकर अपने मन की बात नहीं कह सकती थी। वह चाहती थी कि कोई स्वयं उसकी इच्छा भाँप जाए और उसे पूरी कर दे।
चमेली बुआ का काम समाप्त होने पर गंगो ने कहा, “क्यों बुआ! कुछ मेरे लायक काम है?"
“काम तो कुछ वैसा नहीं है, पर त्यौहार का दिन है, इसलिए काम की क्या कमी है? हो सके तो जरा तड़के चली आना, पीठी-वीठी पीसनी है।"
 गंगो दिनभर चमेली बुआ के यहाँ जी-तोड़ परिश्रम करती रही। रात के आठ बजे घर लौटी। सूरत मिल से लौट आया था। गंगो के आते ही उसने कहा, “दिवारी कल ही है।"
तुमसे पहले ही मुझे मालूम हो गया है। बकवाद मत करो। हमें तड़के ही उठना है।"
2.
अर्धनिशा की नीरवता को चीरता हुआ समीपवर्ती पुलिस-थाने का घंटा बजने लगा-एक! दो! तीन! चार ! पाँच! छह ! गंगो तड़पकर उठ बैठी। उसने सरत का कन्धा झकझोरकर उसे उठा दिया और झल्लाती हुई बोली, “मैंने तुमको सहेज दिया था कि हमें जल्दी उठा देना, चार ही बजे जाना है। यह लो छह बज गया।" सूरत ने लेटे-लेटे ही जवाब दिया, “तुम तो बड़ी पागल हो। न सोती हो, न सोने देती हो। अभी तो कुल बारह बजे हैं, बारह!"
थाने का घंटा अभी बजता ही जा रहा था। गंगो को अपनी भूल मालूम हुई और वह लज्जित हो गई। पुनः लेट तो गई, पर आँख फिर न लग सकी। उसने जागते हुए सुना घंटे-भर बाद दो, घंटे-भर के व्यवधान के बाद तीन बजा। गंगो के लिए पलभर भारी होने लगा। बड़ी देर हो गई। चार का घंटा नहीं बजा। गंगो ने समझा कि शायद तन्द्रा के कारण चार बजना वह नहीं सुन पाई। वह उठ पड़ी और सूरत को घर से होशियार रहने का आदेश देती हुई बाहर निकल पड़ी।
3.
कुल्ला-दातुन तक किए बिना चमेली बुआ के यहाँ दस बजे तक अथक परिश्रम करके गंगो घर लौटी। सूरत बाज़ार गया था। उसने जल्दी-जल्दी स्नान आदि समाप्त किया और इस प्रतीक्षा में कि अब चमेली बुआ के यहाँ से उसे कोई भोजन के लिए बुलाने आएगा, वह दरवाज़े पर जा बैठी। ग्यारह बजा, बारह बजा। अब तक कोई नहीं आया। गंगो ने देखा कि रामू की माँ रामू को गोद में लिए और रामू रन्नो को उँगली पकड़ाए चमेली बुआ की ओर जा रही है।
गंगो ने पूछा, “कहाँ जा रही हो, बहन?"
“चमेली बुआ के यहाँ से बुलावा आया है, वहीं जा रही हूँ।"
“कब बुलावा आया?"
"कल ही शाम को।"
गंगो को धक्का लगा; रामू की माँ आगे बढ़ गई। थोड़ी ही देर बाद दो-चार दूसरी पडोसिनों के साथ ललिता भी चमेली बुआ के घर की ओर जाती दिखाई पड़ी। गंगो ने जानकर भी प्रश्न किया, “कहाँ जा रही हो?"
चमेली बआ के यहाँ से भोजन का बुलावा आया है न, वहीं।" अच्छा, यह बात है! मैंने भी सोचा कि कहाँ जा रही हो"
“न्यौता नहीं मिला तमको क्या?" ललिता ने पूछा।
“न्यौता मिले भी तो मैं नहीं माननेवाली । मैं क्या किसी के टुकड़े की मोहताज हूँ या तुम लोगों की तरह पेट धोंया है! तुम अमीर हो, अपने घर की हो।"
“अरे तो लड़ती क्यों हो?"
 “मैं लड़ती हूँ कि तू? डाइन कहीं की!"
ललिता और उसकी साथिनें समझ न पाईं कि गंगो सहसा इतनी नाराज़ क्यों हो गई। वे अपने रास्ते बढ़ गईं। हताश होकर अपने गरीबों के भंडार-घर में जाकर यह जानती हुई भी कि उसकी अभिलषित वस्तु उसे नहीं मिलेगी,गंगो ने हाँड़ियाँ टटोलनी शुरू की, पर किसी भी हँडिया में उसे उर्द की दाल का एक दाना भी न मिला। वह अभाव के उस समुद्र-सी फैल गई जिसमें केवल चट्टानों से टकराकर बिखरने के ही लिए निराशा की लहरें उठा करती हैं। इसी समय कन्ट्रोल की दुकान पर से विमर्दित सूरत राशन लिए हुए घर आया।उसे देखते ही गंगो उसकी ओर लपकी। राशन की गठरी उसके हाथ से छीनकर जमीन पर पटकती और आँचल पसारकर रोती हुई उसने पूछा, “बोलो! मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं उर्द का बड़ा खाऊँगी?"
इसी समय मकान-मालिक के पुत्र लल्लन ने कटोरे-भर उर्द की दाल उसके फैले हुए आँचल में उलट दी।
सूरत भौंचक हो रहा। सारा दृश्य उसके लिए पहेली था।

Share:

शास्त्री 3 एवं 4th सेमे. पुस्तक(BOOKS)

आचार्य प्रथम एवं द्वितीय सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य तृतीय एवं चतुर्थ सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा प्रथम (9)- पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा द्वितीय (10) पाठ्यपुस्तक

समर्थक और मित्र- आप भी बने

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग
संस्कृत विद्यालय एवं गरीब विद्यार्थियों के लिए संकल्पित,

हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

यह लेखक के आधीन है, सर्वाधिकार सुरक्षित. Blogger द्वारा संचालित.