15-नारी, तुम केवल श्रद्धा हो


माँ-बाप पुकारते थे लल्लन।
कॉलेज के रजिस्टर में नाम था रघुवीरशरण और सहपाठियों में उसकी प्रसिद्धि थी 'विमेनहेटर' (नारी विद्वेषी) के नाम से। क्या कॉलेज, क्या शहर, क्या खेल का मैदान, क्या चौक का बाज़ार-सभी जगह उसे जाननेवाले निकल आते जो उसके नाम और उस नामकरण के कारण दोनों से परिचित रहते।
उसके शरीर का वर्ण असाधारण काला था। उसकी आँखों की बनावट कुछ ऐसी थी कि यदि वह देखता बाएँ तो दाहिने खड़े लोगों को यह भ्रम होता कि वह हमारी ही ओर देख रहा है।
वह खद्दर की धोती, बंडी और चादर पहनता-ओढता था। पैरों में रहती थी काठ की चटपटिया। टोपी की उसे आवश्यकता ही न थी, कारण सिर पर लम्बे सघन केश-जाल थे-रूखे और बिखरे, उसके हृदय की अस्त-व्यस्तता और
रुक्षता के परिचायक।
कक्षा में वह सबसे पीछे बैठता था, परन्तु जब परीक्षा-फल प्रकट होता था तो उसका नाम सबसे आगे मिलता। सबसे पीछे उसके बैठने का मौलिक परन्तु कटु कारण था कि कक्षा में सबसे आगे छात्राएँ बैठती थीं। यदि सामने से कोई छात्रा दिखाई देती तो वह मुँह फेर लेता, परन्तु यदि वही छात्रा कुएँ में गिर जाती तो बचाने के लिए वह सबसे पहले कुएँ में कूद पड़ता।
किसी ने उसे एक कलैंडर भेंट किया। उस पर राधा-कृष्ण का एक नयनाभिराम चित्र था। दूसरे ही दिन उसके कमरे में लोगों ने देखा कि कलैंडर टँगा है, उस पर कृष्ण की आकृति ज्यों-की-त्यों चमक रही है, परन्तु राधा का स्थान दीवार की नीलिमा ने ले रखा है।
उसके अंग्रेजी पाठ्यक्रम में एक ऐसी पुस्तक भी थी जिसके आरम्भ में लेखिका का मनोहर चित्र था। उसने अपने कुछ सहपाठियों के साथ जाकर
उक्त पुस्तक खरीदी। दूसरे दिन उन सहपाठियों ने देखा कि 'विमेनहेटर' की उक्त पुस्तक पर बढ़िया मोटा, चिकना कागज  चढा है. परन्तु लेखिका का चित्र बड़ी सफ़ाई से साफ़ कर दिया गया है।
स्त्रियों से भद्दा मजाक कर उनकी चप्पल तक खानेवाले उसके पिता देवीचरण ने जब अपनी रक्षिता को घर में ही ला बिठाया तो उसने पितृभक्ति को ठोकर मार दी और पिता के सामने ही उनकी रक्षिता को केश-कर्षण द्वारा बाहर निकाल दिया. परन्त उसी दिन शाम को उसके पिता के मोटर-चालक झीगुर न उसस यह कहा कि एक बड़े घराने की पढ़ी-लिखी कुलवधू पति की बदचलनी से व्यथित होकर गृहत्याग करने को तैयार है और यदि उसने उससे विवाह न किया तो वह गुंडों के
पंजे में पड़ जाएगी तो 'विमेनहेटर' ने तुरन्त उसे सुरक्षा का आश्वासन दिया।
ऐसा था विरोधी गुणों का सम्मिश्रण वह 'विमेनहेटर' !
2
उस दिन '' होस्टल में इस संवाद से बड़ी सनसनी फैल गई कि उसी होस्टल का निवासी एक छात्र कॉलेज से निकाल दिया गया। जगह-जगह लड़कों का झुंड इसी घटना की चर्चा कर रहे थे। एक छात्र अस्वस्थतावश कॉलेज न जा सका था। उसके कमरे में एक दल ने पहुँचकर खबर सुनाई-"बेचारा जनार्दन 'रस्टिकेट' हो गया।"
“क्यों, क्यों, उसने क्या किया था?" प्रश्न हुआ। उत्तर मिला-“कुछ नहीं, यों ही बेकार।" पुनः प्रश्न हुआ-"फिर भी कुछ बात तो होगी ही। अकारण तो कोई निकाला नहीं जाता।"
“सन्दरियों की सनीचरी दृष्टि पड़ जाना ही क्या पर्याप्त कारण नहीं?" एक छात्र ने कहा। “सुन्दरियों की या सुन्दरियों पर?" दूसरे छात्र ने टीका की। “एक ही बात है। खरबूजा छुरी पर गिरे या छुरी खरबूजे पर, परिणाम एक ही होगा।
कटेगा खरबूजा ही।" तीसरे छात्र ने दार्शनिक भाव से उत्तर दिया।
"ठीक कहते हो." चौथे छात्र ने समर्थन के स्वर में कहा, "हमारी नज़र सन्दरियों पर पड़े या सुन्दरियों की नज़र हम पर, हर हालत में बर्बाद हमीं होंगे।"
“आप क्यों बर्बाद होने लगे, जनाब?” छात्रों की वार्ता के बीच विमेनहेटर' का जलद-गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा। वह धीरे-धीरे आकर कमरे में एक कुर्सी पर बैठ गया। क्रोधवश वह कॉप रहा था। मंडली में सन्नाटा छा गया जिसे तोडते हुए फिर गरजा-"इतना बड़ा अन्याय देखकर भी आप लोग उनके प्रतिकार का कोई उपाय नहीं कर रहे हैं! इसका परिणाम क्या होगा, जानते हैं? आज जनार्दन निकाला गया, कल मैं निकाला जाऊँगा, परसों अन्य निकाले जाएंगे।"
"जो जैसा करेगा वैसा भरेगा-हम हों, आप हों या अन्य कोई," एक छात्र ने कहा।
जनार्दन ने क्या किया था जिसका उसे यह फल मिला?" 'विमेनहेटर' ने गुस्से से पूछा।
"कुछ तो किया ही होगा, तब ऐसा हुआ। अगर जनार्दन ने कुछ न किया होता तो लड़की शिकायत ही क्यों करती और अधिकारी उस पर ध्यान ही क्यों देते?" पहले छात्र ने ढिठाई से बात आगे बढ़ाई।,
'विमेनहेटर' आपे से बाहर हो गया। उसने टेबल पर जोर से मुक्का मारते हुए कहा, "क्या अधिकारी मनुष्य नहीं है? क्या सुन्दरता का उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। क्या लड़कियाँ झूठ नहीं बोल सकती?"
"लड़की क्यों झूठ बोलेगी?"
“जी हाँ, लड़कियाँ तो अब हरिश्चन्द्र हो गई हैं!"
"चाहे आप लड़कियों को झूठी कहें या अधिकारियों को पक्षपाती बताएँ महाशय, लेकिन सच पूछिए तो पक्षपाती आप हैं।  वह ज़माना गया कि औरतें पुरुषों द्वारा सताई जाती रहें, उनकी बेइज्जती होती रहे और शर्म उनकी ज़बान न खुलने दे। यह समानता का युग है। यदि आप परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त करते हैं तो कुसम भी द्वितीय स्थान प्राप्त करने में पीछे नहीं रहती। जिस कक्षा में आप पढ़ते हैं, उसी में लड़कियाँ भी। जो प्रोफेसर आपको पढ़ाते हैं, वही उन्हें भी, अब सबके साथ समान व्यवहार होगा।"
बाबा मेरे! यही तो मैं भी कह रहा हूँ,” चिढ़ते हुए विमेनहेटर ने जवाब दिया, “समानता का व्यवहार करते हो तो निष्पक्ष भाव से करो। दोषी लड़के को निकालते हो तो दोषी लड़की को भी निकालो।"
“अब आए आप रास्ते पर," पहले छात्र ने कहा।
“यह तो मानेंगे ही कि छेड़छाड़ पहले लड़के ही शुरू करते हैं?"
“जी हाँ, पर इसके लिए उन्हें बाध्य करती हैं लड़कियाँ ही। किसी लड़के का इतनी हिम्मत नहीं कि बिना इशारा पाए किसी लड़की की ओर आँख भी उठा सके।"
“यह तो आप धाँधली पर उतर रहे हैं।"
"हरगिज़ नहीं। आज की ही घटना मेरे कथन का प्रमाण है। मैंने आदि से अन्त तक आज का तमाशा देखा है।"
“कहिये!"
"सुनिए। कमारी कुसुम अन्य दो लडकियों के साथ होस्टल से आ रही थी। जनार्दन भी उधर ही टहल रहा था, कुसुम ने उसकी ओर देखकर लड़कियों से कुछ कहा और तीनों ही हँस पडीं। जनार्दन ने भी तबियतदारी दिखाई आर मुसकरा दिया। कसम ने उसकी मुसकराहट के जवाब में अपनी चप्पल का आर इशारा कर दिया। बदले में जनार्दन ने अपने बटन होल का फूल निकालकर उस पर फेंक दिया। बस, अब कसम की बेइज्जती हो गई। उसने फूल उठा लिया और प्रिंसिपल के पास जाकर रिपोर्ट की। प्रिंसिपल ने उसकी शिकायत सुन दोनो लड़कियों की गवाही ली और जनार्दन को वर्ष भर के लिए कॉलेज से निकाल दिया। अब बताइए गोपी बाबू, इसमें किसका दोष था?"
“सरासर कसूर जनार्दन का है। कसम ने उसे चप्पल मारा तो था नहीं,केवल दिखला दिया था तब उसने फूल क्यों फेका?" गोपी ने पूछा।
मँह चिढाता हुआ 'विमेनहेटर' बोला, “तो जनार्दन ने भी तो केवल फूल ही फेंका था, कोई वज्र नहीं गिराया। गोपी बाबू, जब लड़कियाँ चमक-दमक, बनावट-सजावट, चलन और सभ्यता में यूरोप को आदर्श मानती है तो गौरव का इतना भारतीय भाव क्यों? आधा तीतर और आधा बटेर, यह तो अच्छा नहीं।"
अभी 'विमेनहेटर' की बात समाप्त भी न हो पाई थी कि उसके एक मित्र शर्मा ने कमरे में प्रवेश किया और कहा, “यार, तुम यहाँ बैठे बहस कर रहे हो. वहाँ जनार्दन जा रहा है। उसका सामान इक्के पर रखा जा चुका।"
सभी लड़के जनार्दन से मिलने दौड़ पड़े। जनार्दन सीढ़ी उतर रहा था। रेलिंग पर से गोपी ने झुककर पूछा, “कहो जनार्दन, क्या हाल है?"
जवाब में जनार्दन एक शेर पढ़ता हुआ नीचे उतर गया-
“जान तो कुछ गुज़र गई उस पर
मुँह छिपा के जो कोसता जाए।
लाश उठेगी जबकि नाज़ के साथ
फेरकर मुँह वह मुसकरा जाए।"
सदा की भाँति 'विमेनहेटर' कक्षा में सबसे पीछे बैठा था। हिन्दी के अध्यापक 'कामायनी' पढ़ा रहे थे। उनके मुंह से निकला, “नारी तम केवल श्रद्धा हो'और तरन्त ही विमेनहेटर' ने अपने मित्र शर्मा का हाथ दबाकर बाहर निकल चलने का इशारा किया। दोनों बाहर निकल आए और कक्षा के पीछे उद्यान में चले गए। वहाँ जाते ही शर्मा ने पूछा, “यार. तम्हें औरतों से इतनी ज़्यादा चिढ़ क्यों है?"
उत्तर में 'विमेनहेटर' मुसकरा दिया। शर्मा ने फिर कहा, "भाई, तुम्हारी मुसकराहट तो तुमसे भी अधिक रहस्यमयी है। फिर भी आज तुम्हें अपने इस स्वभाव का कारण मुझको बताना ही होगा।"
“वह बड़ी लम्बी कथा है, शर्मा जी!"
“संक्षेप में कहो।"
"बिना सुने तुम न मानोगे?"
"नहीं।"
“अच्छा तो फिर सुनो,' 'विमेनहेटर' कहने लगा, “मैं, गोपी, जनार्दन और कुसुम चारों ही एक मुहल्ले के अर्थात् चौखम्भा के रहनेवाले हैं। चौखम्भा बहुत बड़ा मुहल्ला है। इसलिए एक ही मुहल्ले में रहते हुए भी हम लोगों के घर एक-दूसरे के बहुत पास नहीं हैं। केवल मेरा और कुसुम का मकान एक-दूसरे से सटा हुआ है। मेरी और कुसुम की प्रारम्भिक शिक्षा एक साथ ही आरम्भ हुई। मैं स्कूल में भर्ती हुआ, वह कन्या-पाठशाला में। समय बीतता गया और हमारी मित्रता गाढ़ी होती गई। उस साल हम दोनों एक साथ हाई स्कूल परीक्षा में बैठे थे। परीक्षा के बाद गर्मी की छुट्टियाँ थीं। एक दिन शाम को टहलकर जब मैं घर वापस आया तो मेरी छोटी बहन दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली-'भैया! मिठाई खाने को दो तो एक बात बताऊँ!'
'ना, न मैं मिठाई खिलाऊँगा और न तेरी बात सुनूँगा।'
'अच्छा मिठाई मत दो, बात तो सुन लो।
'ना! मैं तेरी बात भी न सुनूँगा।
“अपनी बहन को यही जवाब देकर मैं अपने कमरे में घुस गया। बाहर से ही बहन ने कहा, 'कसम के साथ आपका ब्याह होगा। कुसुम की माँ आई थीं।"
जिस बात की आशा न थी, जिसके बारे में कभी कुछ सोचा तक न था वही बात सुनकर भी मझे आश्चर्य न हआ। मुझे ऐसा जान पड़ा जैसे मैं बहुत दिनों से कसम का पति हैं और उस पर मेरा चिर अधिकार है। मैं यह भूल गया कि मैं कुरूप हूँ. मेरा रंग काला है. मेरी आँखें नीरस हैं और मेरी समूची बनावट बीभत्स है। मैं सन्दरी कसम के योग्य नहीं।
"रात बीत गई, प्रभात हआ। मैं अपनी छत पर से डाँककर कुसुम की छत पर पहँचा। कसम भी अभी-अभी सोकर उठी थी। प्राची का अरुण सौंदर्य उसके कोमल कपोलों पर अनुराग बनकर नृत्य कर रहा था। अलसाई आँखों में जैसे शत-शत बसन्त की मधुमाया लहरा रही थी। मैंने उससे कहा, कुसुम मेरे साथ तुम्हारा विवाह होनेवाला है। तम्हें स्वीकार है न?' कुसुम ने मार्मिक दृष्टि से देखते हुए उत्तर दिया, 'नहीं।'
'मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।'
'मैं तुम्हारे प्यार को घृणा करती हूँ।'
'क्यों?
'क्योंकि तुम असुन्दर हो।'
"यह सुनकर मैं ठहर न सका। घुमा, घमकर सीधा भागता हुआ अपने कमरे में शीशे के सामने आकर खडा हो गया। मैंने देखा जैसे विश्व का समस्त असौन्दर्य मेरे शरीर में समाया हआ है। जिस प्रकार सारस की ग्रीवा, बारहसिहाँ की टाँगों, गधे की मूर्खता और अन्य पशुओं की विभिन्न कुरूपताओं की समष्टि ऊँट है, वैसे ही मनुष्यों में मैं हूँ। सच कहता हूँ भाई, मेरी कुरूपता ने जैसी पीड़ा मुझे दी वैसी किसी ने किसी को भी न दी होगी। उसी दिन से यह समझकर कि सौन्दर्य की अधिकारिणी स्त्रियाँ हैं, उनसे मुझे घोर घृणा हो गई। इसके बाद कुसुम के यहाँ मेरा जाना छूटा और गोपी का बढ़ा। गत वर्ष मैंने सुना कि कुसुम की शादी जनार्दन से होनेवाली है, किन्तु उस पर गोपी का असाधारण अधिकार है। उसी के कहने से उस दिन कुसुम ने जनार्दन को कॉलेज से निकलवा दिया, इसलिए कि वह कुसुम के माँ-बाप की दृष्टि में गिर जाए।"
रघुवीर की बातें अभी समाप्त भी न हो पाई थीं कि किसी की पगध्वनि सुन पड़ी। दोनों ने घूमकर देखा कि कुसुम आ रही है। कुसुम ने वहाँ आकर अपना हाथ रघुवीर के कन्धे पर रख दिया। शर्मा धीरे से टल गया।
कुसुम का हाथ कन्धे पर पड़ते ही रघुवीर चौंका जैसे बिजली का करेंट छ गया हो। वह भागना चाहता था कि कुसुम ने उसके करते का छोर पकड़ लिया।
“तुमसे मैं बात नहीं करना चाहता, मुझे छोड़ दो,” रघुवीर ने गरजकर कहा।
“तुम पुरुष हो, बली हो, छुड़ा लो।"
तो तू नहीं मानेगी, बेहया!' 'विमेनहेटर' ने करारा धक्का दिया। कुसुम गिरते गिरते बची। उसे धक्का देकर ज्यों ही वह घूमा कि प्राक्टर मिस्टर सिन्हा खड़े दिखाई पड़े। उन्होंने पूछा, "क्या बात है?" रघुवीर चुप हो गया। प्राक्टर ने कुसुम से कहा, "चलो, रिपोर्ट करो। इसने क्या किया है?"
"कुछ नहीं," कुसुम ने कहा।
इसने तम्हें धक्का देकर गिराया है," प्राक्टर बोले।
"कहाँ, वह तो मेरी धोती मेरे पैरों में फंस गई थी।"
सिन्हा मुसकराते हुए चले गए। 'विमेनहेटर' सिर नीचा किए खड़ा रहा,बोला, "कुसुम! तुम रिपोर्ट करो।"
"नहीं!"
"क्यों?"
"वैसे ही।"
“मैं तुमसे घृणा करता हूँ।"
“मैं तुम्हारी घृणा को प्यार करती हूँ।"

घंटा बजा। लड़के कक्षा से गुनगुनाते हुए निकल पड़े-"नारी, तुम केवल श्रद्धा हो!"

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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