स्वामी परमहंस स्तुति


                            श्री स्वामी परमहंस जी महाराज का संक्षिप्त इतिहास

 हमारा देश संसार की वह पावनभूमि है जहाँ अतीतकाल से ऐसे नर-नारी जन्म लेते आये हैं जो अपने त्याग,तपस्या,वीरता और सेवा से देवताओं के समान उच्च हो गए हैं। उन्हीं में से हमारे परम श्रद्धेय स्वामी श्री परमहंस जी महाराज भी हैं जो कि अपनी तपस्या से देवताओं के समान पूजनीय हो गये हैं।

                    आपका जन्मस्थान ग्राम-कल्याणपुर, तहसील-मुसाफिरखाना, जनपद-सुलतानपुर है। आपके पिता श्री रामानन्द  द्विवेदी जी थे जो व्याकरण एवं ज्योतिष शास्त्र के अद्वितीय विद्वान थे। आप एक कुलीन घराने में जन्म लेकर अपनी तपस्या से एक अभूतपूर्व ख्याति प्राप्त किया। आपके छोटे भाई स्वामी श्री गणेशानन्द जी महाराज हैं उन्होंने अपना आश्रम कल्याणपुर में बनाया है। आपके माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका है।

                    आप 15 साल की अवस्था में अपना घर परिवार छोड़कर निकल पड़े और बड़े-बड़े जंगलों एवं पहाड़ों की गुफाओं में भ्रमण कर कठिन तपस्या किया। परमपिता परमात्मा की असीम अनुकम्पा से आपका पूर्ण मनोरथ सिद्ध हुआ। तत्पश्चात आपने परोपकाराय सतां विभूतयः को अपना सिद्धान्त बनाया और मनुष्यों के दुःखों को सुना और दूर भी किया।

                    अल्पकाल में ही आपकी उज्जवल कीर्ति-किरण इस संसार को प्रकाशित करते हुए सर्वत्र व्याप्त हो गयी। यह अति सौभाग्य है कि आपने अपना आश्रम टीकरमाफी में ही बनाया और वहाँ पर गोशाला तथा संस्कृत महाविद्यालय स्थापित किया।

                    यह विद्यालय अपने यहाँ एक आदर्श विद्यालय है। यह विद्यालय एक महान अरण्य के मध्य सुरम्य स्थल पर स्थित है जो अतीतकाल के गुरुकुलों का स्मरण दिलाता है।

                   यहाँ विद्यार्थियों को प्रथमा से आचार्य तक की निःशुल्क शिक्षा दी जाती है, तथा विद्यार्थियों को भोजन-दान भी दिया जाता है। आप इस पंचभौतिक शरीर को त्यागकर मिती फाल्गुनी सुदी 13 दिन मंगलवार 07 बजे सायं को स्वर्गलोक को चले गये। आपकी पुण्यस्मृति में प्रत्येक वर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को श्रीरुद्र महायज्ञ का अनुष्ठान होता है।

                    आपके स्वर्गारोहण के बाद आपकी एक दिव्य समाधि बनायी गयी है जिसमें महात्माओँ,अध्यापकों,विद्यार्थियों तथा दर्शनार्थियों द्वारा प्रतिदिन प्रातः तथा सायं को स्तुति की जाती है। स्तुति के बाद प्रसाद का वितरण होता है।

                    यद्यपि स्वामी जी के कीर्ति का वर्णन सूर्य को दीपक दिखाने के बराबर है फिर भी यथाशक्ति जो स्तुति प्रतिदिन होती है उसे प्रस्तुत करता हूँ-

 

 

श्री स्वामी परमहंस स्तुति

 

योऽहर्दिवं पोषयते जनानां, वृन्दं स्वपोषं शरणागतानाम् ।

संतर्पयन् स्वस्वमनोरथैश्च, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।। 1

जो शरण में आए हुये जनसमूह के प्रति अभिलाषाओं की पूर्ति करते थे और अपने ही धन से सबका पोषण करते थे, उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।

 

संलग्न चित्तः सुरवाक् प्रचारे, श्रीसच्चिदानन्दविचार चेताः ।

योऽस्त्यत्रलोके करुणावतारः, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।। 2

 

संस्कृत विद्या के प्रचार में तथा ब्रह्म विवेचन में ही जिनका  चित्त सदैव लगा रहता था और जो इस लोक में साक्षात करुणा के अवतार थे, उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।

 

मानापमानेऽपि च शत्रु -मित्रेलाभेप्यलाभेऽपि च तुल्य वृत्तिः ।

योऽशेष जीवेषु च साधु शीलःतस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।3

 

जो मान-अपमान, शत्रु-मित्र, लाभ-हानि को एक बराबर मानते थे और सब जीवों पर साधुता का व्यवहार करते थे, उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।

 

यः सन्ततं तर्पयते सुराणां वृन्दं जगत्पावनमीश्वरञ्च ।

सायं च प्रातर्निगमाग्निहोत्रैः, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।4

 

जो जगत को पालन करने वाले, देश समूह को और ईश्वर को सायं काल और प्रातःकाल वेदपाठ द्वारा तथा अग्निहोम के द्वारा तृप्त करते थे उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।।

 

घर्मं च शीतं सहते च वृष्टिं, गच्छन् श्वभिश्छात्रवरैश्च भूमिम् ।

योऽहर्दिवं दीनदयालु दृष्टिः, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।5

 

जो कुत्तों एवं श्रेष्ठ छात्रों के साथ पृथ्वी पर विचरते हुए धूप,शीत एवं वर्षा को सहते थे तथा प्रतिदिन जिनकी दीनों पर दया दृष्टि रहती थी उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।

 

यस्यार्थिनोयान्ति नखिन्नचित्ताः, शत्रुश्चनस्यादिहकोऽपिबन्धुः ।

श्रीमन्महाराजधुरन्धराय, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।6

 

जिनके यहाँ याचक लोग आकर कभी भी निराश होकर नहीं लौटे और न जिनका कोई मित्र था न शत्रु, उन सर्वसमर्थ सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है।

 

मध्येयतीनां परिवर्णनीयः, सद्भिः समस्तैरपिवन्दनीयः

योऽसौ परिव्राजकराजराजः, तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।7

 

जो सम्पूर्ण सन्यासियों के मध्य में वर्णनीय थे तथा सम्पूर्ण सज्जनों से वन्दनीय थे और योगियों के योगिराज थे उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।।

यद् दर्शनं श्रेष्ठकरं नराणां, यद् ब्रह्मचर्यं भुवि नास्त्यनेकम् ।

यस्मिन्न कामादि गणोपवेशः तस्मै नमः स्वामिवराय नित्यम् ।।8

 

जिनका दर्शन मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ बनाने वाला था, और जिनमें किसी प्रकार का कामादि (काम,क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य) का प्रवेश भी नहीं हुआ था । उन सर्वश्रेष्ठ श्री स्वामी जी को नित्य प्रणाम है ।

 

स्वामिन् त्वदीयौ चरणाब्जकेशरौ,सुशोभितौ रक्त नखावलीकुलैः ।

मुहुर्मुहुर्योगिकराभिलालितौ, पुनः-पुनः काञ्छति मन्मधुव्रतः ।।9

 

हे स्वामिन् आपके चरणारविन्द के केशर को जो कि आपके लाल-लाल नख समूहों से सुशोभित थे और योगियों के करों से पुनः-पुनः पूजित थे उन्हें भ्रमररुपी मैं आपका अनन्य सेवक सदैव चाहता हूँ

 

विजेजीयतां पाठशाला दिगन्ते, अधीतां सुखैश्छात्रमालाचिरन्ते ।

चिरन्टीव कीर्तिः सदानूतना ते, हसन्ती रमन्ती विरामं न यायात् ।10

 

आपका विद्यालय सर्वत्र विजयी रहे तथा छात्रवृन्द सुख से सदैव अध्ययन करते रहें और युवती की तरह आपकी नित्य नूतन कीर्ति हँसती हुयी सर्वत्र रमण करे, कभी भी विश्राम न करे ।।

 

श्लोक

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव वन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ।।

दोहा

बार-बार बर मागहुँ, हरषि देहुँ श्रीरंक ।

पद सरोज अनपायनी, भक्ति सदा सत्संग ।।1

 नहिं विद्या नहिं बाहुबल, नहिं खरचन को दाम ।

मो सम पतित अनाथ के, पति राखहुँ भगवान ।।2

 

अर्थ न धर्म न काम रुचि, गति न चहहुँ निर्वान ।

जन्म जन्म श्री स्वामि पद, यह अन्तिम वरदान ।।3

 

सुनहुँ राम रघुनाथ जी, तुम लग मेरी दौर ।

जैसे काग जहाज को, सूझत और न ठौर ।।4

 

हरहुँ सकल दुख, सुख करहुँ, देखि दीनता मोरि ।

मैं सेवक तुम स्वामि मम, विनय करहुँ कर जोरि ।। 5

 

तुम बिन मेरा कौन है, हे अनाथ के नाथ ।

इस असार संसार से, पकरि उबारहुँ हाँथ ।। 6

 

पितु मातु सहायक स्वामि सखा, तुमही एक नाथ हमारे हो ।

जिनके कछु और अधार नहीं, तिनके तुम ही रखवारे हो ।

प्रतिपाल करौं सिगरे जग को, अतिशय करुणा उर धारे हो ।

भुलिहौं हमही तुमको, तुम तो, हमरी सुधि नाहिं बिसारे हो ।

उपकारन को कछु अन्त नहीं, क्षण ही क्षण जो विस्तारे हो ।

महराज महामहिमा तुम्हरी, समुझै विरलै बुधि वारे हो।

शुभ शान्तिनिकेतन प्रेमनिधे, मन मन्दिर के उजियारे हो।

इस जीवन के तुम जीवन हो, इन प्राणन से तुम प्यारे हो ।।

 

नाथ एक बर मागहुँ, मोहि कृपा करि देहुँ ।

जन्म जन्म श्री स्वामि पद, कबहुँ न घटिय सनेह ।।

 

मो सम दीनन दीन हित, तुम समान रघुवीर ।

अस बिचारि रघुवंशमणि, हरहुँ सकल भवभीर ।

 

श्रवण सुयश सुनि आयहुँ, प्रभु भंजव भव भीर ।

त्राहि-त्राहि आरति हरन, परमहंस मतिधीर ।।

 

आपन दारुण दीनता, सबहिं कहेहुँ समुझाइ ।

बिनु देखे श्री स्वामि पद, जिय की जरनि न जाइ ।।

 

श्रीरामचन्द्र स्तुति

श्रीरामचन्द्र कृपालु भजु मन-हरण भवभय दारुणं,

नवकंज-लोचन कंजमुख करकंज-पद कंजारुणं।

कन्दर्प-अगणित अमित-छवि नव नील-नीरद-सुन्दरं

पटपीत मानहुँ तड़ित रुचि सुचि नौमि जनक सुतावरं।

भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्यवंश निकन्दनं,

रघुनन्द-आनन्द-कन्द कौशल-चन्द दशरथ-नन्दनं ।

सिरमुकुट कुण्डल तिलक चारु उदार अंग विभूषणं,

आजानुभुज सर चाप धर संग्राम जित खरदूषणं।

इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम् ,

मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादि खल दल गंजनम्।

श्रीरामचन्द्र कृपालु भजुमन हरण भवभय दारुणम् ।।

 

नीलाम्बुजस्यामलकोमलांगम्, सीता समारोपितवामभागम् ।

पाणौमहाशायकचारुचापं, नमामि रामं रघुवंश नाथम् ।।

 

कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसार सारं भुजगेन्द्रहारम् ।

सदावसन्तं हृदयारविन्दे, भवं भवानी सहितं नमामि ।।

 

अच्युतं केशवं राम नारायणं, कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिम् ।।

श्रीधरं माधवं गोपिका बल्लभं, जानकी नायकं रामचन्द्रं भजे ।।

 

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे, हे नाथ नारयण वासुदेव,

हरे मुरारे मधुकैटभारे, निराश्रयं माम जगदीश रक्षः ।।

 

 

सशंखचक्रं सकिरीट कुण्डलं, सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणं ।

सहार वक्षस्थल कौस्तुभश्रियं, नमामि विष्णुं शिरसां चतुर्भुजम् ।।

 

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव वन्धुश्च सखा त्वमेव ।

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ।।

 

हरे राम, हरे राम, राम- राम, हरे- हरे ।

हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण- कृष्ण, हरे- हरे ।

हरे स्वामिन्, हरे स्वामिन्, स्वामिन्- स्वामिन्, हरे- हरे ।।

 

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं ।

विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम् ।।

लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् ।

वन्दे विष्णुं भवभयहरणं सर्वलोकैकनाथम् ।।

 

ध्येयं सदा परिभवघ्नमभीष्टदोऽहं,

तीर्थास्पदं शिवविरिंचि नुतं शरण्यम् ।

भृत्यार्थिहं प्रणतपाल भवाब्धिपोतं,

वन्दे महापुरुष ते चरणारविन्दम् ।।

 

लोकाभिरामं रणरंगधीरं, राजीवनेत्रंरघुवंशनाथम् ।

कारुण्यरूपं करुणाकरन्तम्, श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ।।

 

हे नाथ नारायण दीनबन्धो, कृपाविधेयामयिपाप सिन्धौ ।

निरर्थकं जन्मगतं मदीयं, न चिन्तितं ते चरणारविन्दम् ।।

 

 

 ॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।

निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ 1॥

 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं, गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।

करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ 2॥

 

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।

स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा, लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ 3॥

 

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।

मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ 4॥

 

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।

त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ 5॥

 

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।

चिदानन्द संदोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ 6॥

 

न यावत् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।

न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ 7॥

 

न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।

जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ 8॥

 

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।

ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥

 

 श्री हनुमान चालीसा पाठ

 

दोहा

 

श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनऊं रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।

बल  बुद्धि  बिद्या देहु  मोहिं, हरहु  कलेस   बिकार।।

 

चौपाई

 

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।

रामदूत अतुलित बल धामा।अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।

 

महाबीर बिक्रम बजरंगी।कुमति निवार सुमति के संगी।।

कंचन बरन बिराज सुबेसा।कानन कुंडल कुंचित केसा।।

 

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।कांधे मूंज जनेऊ साजै।

संकर सुवन केसरीनंदन।तेज प्रताप महा जग बन्दन।।

 

विद्यावान गुनी अति चातुर।राम काज करिबे को आतुर।।

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।राम लखन सीता मन बसिया।।

 

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।बिकट रूप धरि लंक जरावा।।

भीम रूप धरि असुर संहारे।रामचंद्र के काज संवारे।।

 

लाय सजीवन लखन जियाये।श्रीरघुबीर हरषि उर लाये।।

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।

 

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।।

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।नारद सारद सहित अहीसा।।

 

जम कुबेर दिगपाल जहां ते।कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।राम मिलाय राज पद दीन्हा।।

 

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।लंकेस्वर भए सब जग जाना।।

जुग सहस्र जोजन पर भानू।लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।

 

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।

दुर्गम काज जगत के जेते।सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।

 

राम दुआरे तुम रखवारे।होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।तुम रक्षक काहू को डर ना।।

 

आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांक तें कांपै।।

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।महाबीर जब नाम सुनावै।।

 

नासै रोग हरै सब पीरा।जपत निरंतर हनुमत बीरा।।

संकट तें हनुमान छुड़ावै।मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।

 

सब पर राम तपस्वी राजा।तिन के काज सकल तुम साजा।

और मनोरथ जो कोई लावै।सोइ अमित जीवन फल पावै।।

 

चारों जुग परताप तुम्हारा।है परसिद्ध जगत उजियारा।।

साधु-संत के तुम रखवारे।असुर निकंदन राम दुलारे।।

 

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता।अस बर दीन जानकी माता।।

राम रसायन तुम्हरे पासा।सदा रहो रघुपति के दासा।।

 

तुम्हरे भजन राम को पावै।जनम-जनम के दुख बिसरावै।।

अन्तकाल रघुबर पुर जाई।जहां जन्म हरि-भक्त कहाई।।

 

और देवता चित्त न धरई।हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

संकट कटै मिटै सब पीरा।जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।

 

जै जै जै हनुमान गोसाईं।कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।

जो सत बार पाठ कर कोई।छूटहि बंदि महा सुख होई।।

 

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।होय सिद्धि साखी गौरीसा।।

तुलसीदास सदा हरि चेरा।कीजै नाथ हृदय मह डेरा।।

 

दोहा: पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।

      राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।

परमहंस-महिमा आख्यान

 

दोहा- जय जय करुनायतन प्रभु,परमहंस सुखधाम।

              सन्त सिरोमनि सरल चित,सब विधि पूरन काम।।

 

चौपाई- परमहंस आश्रम अति पावन। सदा सुखद दुख पुंज नसावन।।

           परिसर सुचि सब भाँति सुहावन। जन मन भृंग कंज मन भावन।।

 

विपिन मध्य सुरलोक समाना। कीरति जासु सकल जग जाना।।

तपोभूमि सोभा अधिकाई। जहाँ जाइ दृग तहँइ लोभाई।।

 

पुन्य भूमि जहँ बनी समाधी। सेवत तुरत सकल सिधि साधी।

परम पुनीत चारु मखसाला। होइ सविध जँह जग्य विशाला।।

 

पंचदेव मंदिर अति सोहा। दरस करत भागइ मद मोहा।।

विवुधसदन बहुभाँति बनाए। मञ्जु मनोहर साज सजाए।।

 

दोहा- ब्रह्मलीन मुनि मौलिमनि, बास कियो जँह आइ।

              वन्दनीय सो अवनी, महिमा किमि कहि जाइ।। (क)

 

परमहंस महिमा अमित, अभिमत फल दातार।

         सेवहिं सुकृती साधुजन, लहहिं जगत सुखसार।। (ख)

 

चौपाई- सघन विपिन पादप बहुरंगा। कूजत कोकिल गुंजत भृंगा।।

                  खगकुल खेलत नाचत मोरा। कलरव करत विविध विधि चीरा।।

 

चरहिं हरित तृन गाइ लवाई। धावहिं वत्स लेहिं अगराँई।

पढ़हिं वेद वटु गुरु जन संगा। सुनत होइ दुख दारिद भंगा।।

 

कोमल चित कृपालु मम स्वामी। भुवन विदित श्रुति पथ अनुगामी।।

गो द्विज संत दीन हितकारी। सेवत सकल मनोमल हारी।।

 

प्रनवऊ परमहंस पद रेनू। सुजन सुखद कामद सुर धेनू।।

मूरति चारु रचित मन भावनि। दरस करत अघ ओघ नसावनि।।

 

 

दोहा- परमहंस पद कमल नर,जे सेवहिं मन लाइ।

                   तिन्ह कहुँ कछु दुर्लभ नहिं, भव भय भ्रम मिटि जाइ।

 

चौपाई- इहाँ बसहिं सज्जन सुखदायी। गतमद हरिपद रति अधिकाई।

            पूजन भजन निरत सतसंगा। कबहुँ न करहिं विषय कर संगा।।

 

कोमल चित गिरीश पद प्रीती। विमल विवेक निरत श्रुति नीती।।

परमहंस कीरति निति गावहिं। सुजन समाज तहाँ चलि आवहिं।।

 

दरसन करत सकल अधभागा। होइ उमापति पद अनुरागा।।

कहहिं सुनहिं इतिहास पुराना। गावहिं हरि कीरति विधि नाना।।

 

छन महुँ मिटइ विषय विधि सूला। होइ सुमति हरिपद अनुकूला।

उदित नवीन विवेक दिनेसा। रहइ न मोह निसा अवशेषा।।

 

दोहा- विषय विमुख हरिपद निरत,गावहिँ वेद पुरान।

              रहहिं सदा जम नियम जुत,जपहिं मुदित हरिनाम।।

 

चौपाई- परमहंस पद मंजरी, मधुप विगत अभिमान।

             वन्दनीय सुभ गुन सदन, साधु समाज सुजान।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कवित्त

दीन हितकारी सुख सम्पदा के देनहार,

परमहंस स्वामी को प्रताप जग छायो है ।।

हार गए हैं आय डिप्टी कलक्टर सब,

पक्का मकान टीकरमाफी में बनायों हैं ।।

पशु-पक्षी नर और कुक्कुर बिलारिन को,

धर्मपाल महराज भोजन करायो हैं ।।

सूर्य के  समान ज्योति जगमगात जगत माहिं,

सेवक रामरतन कवि गुणानुबाद गायो है।।

2.

नाम लिए कितने तरि जात,

प्रणाम किये सुरलोक सिधारे

दूर बसौ तो कहा लौ कहों,

कितने तरि जात चरण के सहारे

दीन दयाल स्वभाव तेरा,

लखि दीन कवी तो प्रण उरधारे

हे करुणेश मैं दोष भरे,

पै भरोस यहीं कि परोस तिहारे।।

 

दोहा

टीका सब आश्रमन का, टीकरमाफी आज।

मनवांक्षित फल देत हैं, परमहंस महराज।।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

श्री गणेश जी की आरती

 

जय गणेश जय गणेश,जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा ॥

 

एक दंत दयावंत, चार भुजा धारी । माथे सिंदूर सोहे,मूसे की सवारी ॥

जय गणेश जय गणेश,जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा ॥

 

पान चढ़े फल चढ़े,और चढ़े मेवा । लड्डुअन का भोग लगे,संत करें सेवा ॥

जय गणेश जय गणेश,जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा ॥

 

अंधन को आंख देत,कोढ़िन को काया । बांझन को पुत्र देत,निर्धन को माया ॥

जय गणेश जय गणेश,जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा ॥

 

'सूर' श्याम शरण आए,सफल कीजे सेवा । माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा ॥

जय गणेश जय गणेश,जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती,पिता महादेवा ॥

 

दीनन की लाज रखो,शंभु सुतकारी ।कामना को पूर्ण करो,जाऊं बलिहारी ॥

जय गणेश जय गणेश,जय गणेश देवा । माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा ॥

श्री लक्ष्मी माता की आरती

 

ओम जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।

तुमको निशिदिन सेवत, हरि विष्णु विधाता॥  जय

 

उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता।

सूर्य-चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥ ॐ जय

 

दुर्गा रुप निरंजनि, सुख सम्पत्ति दाता।

जो कोई तुमको ध्यावत, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता॥ ॐ जय

 

तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता।

कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनि, भवनिधि की त्राता॥ ॐ जय

 

जिस घर में तुम रहतीं, सब सद्गुण आता।

सब सम्भव हो जाता, मन नहीं घबराता॥ ॐ जय

 

तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता।

खान-पान का वैभव, सब तुमसे आता॥ ॐ जय

 

शुभ-गुण मंदिर सुंदर, क्षीरोदधि-जाता।

रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता॥ ॐ जय

 

महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई जन गाता।

उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता॥ ॐ जय

 

12 टिप्‍पणियां:

शिवेश शास्त्री ने कहा…

ॐ श्रीस्वामिने नम:। 🙏🏻🙏🏻

Saurabh Pandey ने कहा…

🙏🙏🙏🙏

आकाश पाण्डेय ने कहा…

🙏🙏
जयतु स्वामिपरमहंसः

आकाश पाण्डेय ने कहा…

🙏🙏
जयतु स्वामिपरमहंसः <@>

Arpit pandey ने कहा…

🙏🙏

आदर्श पांडेय ने कहा…

ओम श्री स्वामी ने नमः ♥️��

बेनामी ने कहा…

ओम श्री स्वामी ने नमः ♥️��

बेनामी ने कहा…

ओम श्री स्वामी ने नमः ♥️��

बेनामी ने कहा…

ओम श्री स्वामीने नम:🙏🙏

बेनामी ने कहा…

जय श्री स्वामी परमहंस महराज की सभी पर आपकी कृपा बनी रहे

बेनामी ने कहा…

ऊं श्री स्वामिने नमः

बेनामी ने कहा…

ओम श्री स्वामिने नम:🙏

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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