मुझे बचपन से नक्शे देखने का शौक है। आप समझेंगे कि कुछ
भूगोल की तरफ प्रवृत्ति होगी- नहीं, सो बात नहीं। असल बात यह है कि नक्शों के
सहारे दूर दुनिया की सैर का मजा लिया जा सकता है। यों तो वास्तविक जीवन में भी
काफी घूमा-भटका हूँ, पर उसमें कभी तृप्ति नहीं हुई, हमेशा मन में यही रहा कि कहीं
और चलें, कोई और नई जगह देखें, और इस लालसा ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है। नक्शों
से यह फायदा होता है कि मन में घोड़े पर सवार होकर कहीं चले जाइए, कोई रोक नहीं,
अड़चन नहीं, और जब चाहे लौट आइए, या ना भी लौटिए- कोई पूछने वाला नहीं कि हजरत कहाँ
रम रहे।
यों तो नक्शों में तरह-तरह के रंगों से कुछ मदद
मिलती है यह तय करने में कि कहाँ जाए? जिसे हरी-भरी जगह देखनी हो वह नक्शों की हरी-भरी जगहों में घूमे, जिसे
पहाड़ी प्रदेश देखने हो- वह भूरे या पीले प्रदेशों में चला जाए, और जिसे एकदम
अछूते, अपरिचित प्रदेश में जाने का जोखिम पसंद हो वह बिल्कुल सफेद हिस्सों की ओर
चल निकले- आदिकालीन बर्फीले मरु प्रदेशों में, जंगलों में, समुद्र में, समुद्र-द्वीपों
में। नक्शों में कहीं लिखा रहता है कि इस प्रदेश का सर्वेक्षण नहीं हुआ है। हिमालय
के अनेक भाग ऐसे हैं या कि ‘अगम्य जंगल’- असमिया सीमा-प्रदेश में ऐसे स्थल हैं,
जरा कल्पना कीजिए ऐसी जगहों में जा निकलने का आनंद!
लेकिन इससे अधिक सहायता मिलती है जगहों के नामों
से। बचपन में एक नाम पढ़ा था ‘अमरकंटक’। यह नाम ही इतना पसंद आया कि मैंने चुपके
से एक कंबल और दो-चार कपड़ों का बंडल बना लिया कि अभी चल दूंगा वहाँ के लिए। वहाँ
जाना नहीं हुआ, अभी तक भी अमरकंटक नहीं देखा है और इस प्रकार उसका काँटा अभी तक सालता
ही है, पर नक्शे की यात्रा तो कई बार की है, और अमरकंटक के बारे में उतना सब जानता
हूँ जो वहाँ जाकर जान पाता। ऐसा ही एक और नाम था तरंगबाड़ी-यों नक्शे में उसका रूप
विकृत होकर त्रांकुबार हो गया है। ‘तरंगों वाली बस्ती’- सागर के किनारे के गाँव का
यह नाम सुनकर क्या आपके मन में तरंग नहीं उठती कि जाकर देखें? कई नाम ऐसे भी होते हैं जिनका अर्थ समझ में नहीं आता, पर ध्वनि ही मोह
लेती है। जैसे ‘तिरुकुरंगुड़ि’ नाम सुनकर लगता है, मानो हिरनों का समूह चौकड़ी
भरता जा रहा है। कुछ नाम ऐसे भी होते हैं कि अर्थ जानने पर ही उनका जादू चलता है,
जैसे- ‘लू-हित’। ऊपरी ब्रह्मपुत्र के इस नाम को संस्कृत करके ‘लोहित्य’ बना लिया
गया है जिससे अनुमान होता है कि वह लाल ताम्र वर्ण की होगी, पर वास्तव में लू-हित
का अर्थ है ‘तारों की राजकन्या’ या ऐसे ही कुछ। ब्रह्मपुत्र का सौन्दर्य जिन्होंने
नहीं देखा उनकी तो बात ही क्या ,जिन्होंने देखा भी है वे भी क्या इस नाम को जानकर ‘तारों
की राजकन्या’ का तरुण लावण्यमय रूप देखने को ललक न उठेंगे?
होनहार बिरवान के होत चिकने पात में कुछ होनहार
बिरवा तो नहीं था, पर नक्शों के बगदादी कालीन पर बैठकर हवाई यात्रा करने की इस आदत से यह तो
पता लग सकता था कि आगे चलकर भी कहीं टिककर नहीं बैठूंगा। बात भी ऐसी है, लगातार
कुछ दिन भी एक जगह रहता हूँ तो अपनी इच्छा से नहीं, लाचारी से और उस लाचारी में
बहुत-से नक्शे जुटाकर फिर अपने लिए कोई हीला निकाल ही लेता हूँ। और आप सच मानिए,
जीने की कला सबसे पहले एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की कला है- कम-से-कम
आधुनिक काल में, जब मानव जाति का इतना बड़ा अंश या तो प्रवासी है या शरणार्थी ही।
एक स्थान से दूसरे स्थान,एक पेशे से दूसरे पेशे में, एक घर से दूसरे घर, इत्यादि।
यात्रा
करने के कई तरीके हैं। एक तो यह कि आप सोच-विचार कर निश्चय कर लें कि कहाँ जाना है,
कब जाना है, कहाँ-कहाँ घूमना है, कितना खर्च होगा, फिर उसी के अनुसार छुट्टी लीजिए,
टिकट कटाइए, सीट या बर्थ बुक कराइए, होटल, डाक-बंगले को सूचना देकर सुरक्षित कराइए
या भावी अतिथियों को खबर कीजिए- और तब चल पड़िए। बल्कि तरीका तो यही एक है,
क्योंकि वह व्यवस्थित तरीका है। और इसमें मजा बिल्कुल नहीं है यह भी नहीं कहा जा
सकता, क्योंकि बहुत से लोग ऐसे यात्रा करते हैं और बड़े उत्साह से भरे वापस आते
हैं।
दूसरा तरीका यह है कि आप इरादा तो कीजिए कहीं
जाने का, छुट्टी भी लीजिए, इरादा और पूरी योजना भी चाहे घोषित कर दीजिए पर एन मौके
पर चल दीजिए कहीं और को। जैसे घोषित कर दीजिए कि आप बड़े दिनों की छुट्टियों में
मुंबई जा रहे हैं, लोगों को ईर्ष्या से कहने दीजिए कि अमुक मुंबई का सीजन देखने जा
रहा है, मगर चुपके से पैक कर लीजिए जबरदस्त गर्म कपड़े और जा निकलिए बर्फ से ढके
श्रीनगर में।
लेकिन अपनी भी कुछ बातें कहूँ। मैं दूसरे तरीके
का कायल हूँ यह तो आप समझ ही गए होंगे। लेकिन जब निकलता ही हूँ पर एक तीसरा तरीका
भी अख्तियार करता हूँ। जैसे कहा तो सबसे यह कि मुंबई जा रहे हैं, मगर जब स्टेशन गए
तो यह तय करके कि नैनीताल जा रहे हैं और वहाँ से हिमालय की भीतरी प्रदेशों में और
इस तरह जा निकले- शिलांग!
शिवसागर के आगे सोनारी के पास में डि-खू नदी की
बाढ़ में कैसे फंस गया था, इसका यही रहस्य है।
अंग्रेजी में कहावत है कि ‘एक कील की वजह से
राज्य खो जाता है’....वह यों कि कील की वजह से नाल, नाल की वजह से घोड़ा, घोड़े के
कारण लड़ाई और लड़ाई के कारण राज्य से हाथ धोना पड़ता है। हमारे पास छिनने को राज्य
तो था नहीं, पर दाँत मांजने के एक ब्रुश और मोटर की एक मामूली-सी ढिबरी के लिए हम
कैसी मुसीबत में पड़े यह हम ही जानते हैं। सोनारी
एक छोटा-सा गाँव है -अहोम राजाओं की पुरानी राजधानी, शिवसागर से कोई 18 मील दूर।
वहाँ भी नाम के आकर्षण से चला गया था। यों असम में ‘सोना’ या ‘स्वर्ण’ बहुत से
नामों में है-सुबनश्री, सोना भारती बगैरह- और असम भी ‘सोनार असम’- सोने का असम
कहलाता है। बरसात के दिन थे, रास्ता खराब, एक दिन सवेरे घूमने निकला तो देखा कि
नदी बढ़कर सड़क के किनारे आ गई है। मैं शिवसागर से तीन-चार मील पर था, सोचा कि एक
नया दाँ- ब्रुश ले लूँ, क्योंकि पुराना घिस चला था, और मोटर की भी एक ढिबरी ठीक
करवा कर ही लौंटू....... उसकी चूड़ी घिस जाने से थोड़ा-थोड़ा तेल चूता रहता था,
वैसे कोई जरूरी काम नहीं था। खैर, इसमें कोई दो घंटे लग गए, तो खाना खाने में एक
घंटा और। तीन घंटे बाद वापस लौटने लगे तो देखा ,सड़क पर पानी फैल गया है। पानी
गहरा नहीं होगा यही सोचकर मैं मोटर बढ़ाता चला गया। आगे देखा, सब ओर पानी ही पानी
है, सड़क का कहीं पता नहीं लगता, सिर्फ पेड़ों की कतार से अंदाज लग सकता था। पर
पानी बड़े जोर से एक तरफ से दूसरी तरफ बह रहा था, क्योंकि सड़क के एक तरफ नदी थी,
दूसरी तरफ नीची सतह से धान के खेत, जिनकी ओर बढ़ रहा था। पानी के धक्के से सड़क कई
जगह टूट गई थी। मैं फिर भी बढ़ता गया, क्योंकि आख़िर पीछे भी पानी ही था। पर थोड़ी
देर बाद पानी कुछ गहरा हो गया और धक्के से मोटर भी सड़क से हटकर किनारे की ओर जाने
लगी। आगे कहीं कुछ दिखता नहीं था, क्योंकि सड़क की सतह शायद दो तीन मील आगे तक
बहुत नीची ही थी। सड़क के दोनों ओर जो पेड़ थे उनमें कइयों पर साँप लटक रहे थे,
क्योंकि बाढ़ से बचने के लिए पहले सड़क पर आते थे और फिर पेड़ों पर चढ़ जाते थे।
मैंने लौटने का ही निश्चय किया। पर सड़क दिखती
तो थी नहीं, अंदाज से मैं बीच के पक्के हिस्से पर गाड़ी चला रहा था। मोड़ने के लिए
उसे पटरी से उतारना पड़ेगा.. और इधर-उधर सड़क है भी कि नहीं, इसका क्या भरोसा? मैं और एक जगह देख भी
चुका था की आंखों के सामने ही कैसे, समूचा ट्रक दलदल में धँसकर गायब हो जाता है।
इसलिए मोटर को बिना घुमाए उल्टे गियर में कोई ढाई मील तक लाया, यहाँ सड़क कुछ ऊँची
थी। उस पर गाड़ी घुमाकर शिवसागर पहुँचा।
शिवसागर से सोनारी को एक दूसरी सड़क भी जाती थी
चाय बागानों में से होकर। यह सड़क अच्छी थी ,पर इसके बीच में एक नदी पड़ती थी जिसे
नाव से पार करना होता था। मैंने सोचा इसी रास्ते चलें, क्योंकि सामान तो सब सोनारी
में था। मैं डाक-बंगले से कुछ घंटों के लिए ही तो निकला था। शिवसागर में एक तो
मोटर की ढिबरी कसवानी थी और दूसरे, दाँत-ब्रुश और कुछ तेल-साबुन लेना था, बस। वह भी
लौटने की जल्दी के कारण नहीं लिया था।
इस सड़क से नदी तक पहुंच गए- वह बड़ी मुश्किल से,
क्योंकि रास्ते में बड़ी फिसलन थी और गाड़ी बार-बार अटक जाती थी। नदी में नाव पर
गाड़ी लाद भी ली, और पार भी चले गए। यहाँ भी नदी में बाढ़ आई थी और बहते हुए टूटे छप्पर
बता रहे थे कि नदी किसी गाँव को लीलती हुई आई और पेड़-पौधों की गिनती क्या। उस पार
नदी का किनारा ऊँचा था, मोटर के लिए उतारा बना हुआ था, लेकिन नाव के किनारे तक जो
तख्ते डाले गए थे, वे ठीक नहीं लग रहे थे। मोटर जब तख्तों पर आई और नाव एक तरफ को
झुकी तो तख्ते फिसल गए,नाव दूर हट गई, मोटर नीचे गिरी, आधी पानी में, आधी किनारे
पर। मैं जोर से ब्रेक दबाए बैठा था, पर ऐसे अधिक देर तक तो नहीं चल सकता था। लेकिन
मैं तो मोटर के साथ खुद बँधा बैठा था, उतर कर समझा नहीं सकता था। खैर, आधा घंटा उस
स्वर्ग-नसैनी पर बैठे-बैठे असमिया, हिंदी और बांग्ला की खिचड़ी में लोगों को बताता
रहा कि क्या करें, तब मोटर ऊपर चढ़ाई जा सकी। थोड़ा आगे ही ऊँची जगह गाँव था। वहाँ
मोटर रोककर चाय की तलाश की। यहीं सोनारी से आए दो साइकिल-सवारों से मालूम हुआ कि
वह कंधे तक पानी में से निकल कर आए हैं- साइकिल कंधों पर उठाकर! और मोटर तो कदापि नहीं
जा सकती।
इस तरह इधर भी निराशा थी। पानी अभी बढ़ रहा था।
यह गाँव ऊंची जगह था, पर यहाँ कैद हो जाना मैं नहीं चाहता था इसलिए फिर नाव पर
मोटर चढ़ाकर उसी रास्ते नदी पार की। सबने मना किया पर मेरे सिर पर भूत सवार था और
हठधर्मी का अपना अनूठा रस होता है।
रात शिवसागर पहुँचे। एक सज्जन ने ठहरने की जगह
दी। भोजन बिस्तर का प्रबंध हो गया, पर दाँत का ब्रुश तो उधार नहीं लिया जा सकता। सबेरे-
सबेरे चलकर 128 किलोमीटर दूर डिब्रूगढ़ पहुँचे, वहाँ ब्रुश लेकर मुँह-हाथ धोकर
स्वस्थ हुए, यहाँ एक कमीज और पैंट खरीदकर कपड़े बदले, रात के लिए एक कंबल खरीदा।
मन-ही-मन अपने को कोसा कि नया दाँत-ब्रुश लेने के लिए न सोनारी से निकले होते न
मुसीबत होती, क्योंकि इसकी ऐसी तात्कालिक आवश्यकता तो थी नहीं, न मोटर की ढिबरी का
मामला ही इतना जरूरी था। लेकिन उपाय क्या था?
इस तरह बारह
दिन और काटने पड़े, क्योंकि सोनारी के सब रास्ते बंद
थे। लौटकर देखा, सोनारी डाक- बंगले में पानी भर गया था,
कपड़े सब सेल कर रहे थे किताबें तो कल ही गई थी बचा था तो केवल
स्नानघर में ऊँचे ताक पर रखा हुआ साबुन का डिब्बा और दाँतों का ब्रुश।
नक्शे मैं अब भी
देखता हूँ। वास्तव में जितनी यात्राएँ
पैरों से करता हूँ, उससे ज्यादा कल्पना के चरणों से करता
हूँ। लोग कहते हैं कि मैंने अपने जीवन का कुछ नहीं बनाया, मगर
मैं बहुत प्रसन्न हूँ और किसी से ईर्ष्या नहीं करता। आप भी अगर इतने ही खुश हों तो
ठीक- तो शायद आप पहले से मेरा नुस्खा जानते हैं- नहीं तो मेरी आपको सलाह है,
“जनाब, अपना बोरिया- बिस्तरा समेटिये और जरा
चलते- फिरते नजर आइए।” यह आपका अपमान नहीं है, एक जीवन-
दर्शन का निचोड़ है। ‘रमता राम’ इसीलिए कहते हैं कि जो रमता नहीं, वह राम नहीं, टिकना तो मौत है।
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