राष्ट्रभाषा की समस्या- डॉ. विद्यानिवास मिश्र।


राष्ट्रभाषा और भाषा में मुख्य अंतर यह नहीं है कि एक व्यापक भौगोलिक विस्तार की क्षमता रखती है, दूसरी नहीं, यह भी नहीं है कि राष्ट्रभाषा के बोलनेवालों की संख्या अपेक्षाकृत बड़ी होती है। मुख्य अंतर यह है कि राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा राष्ट्रीय मूल्य के रूप में होती है। अपनी भाषा के प्रति निष्ठा राष्ट्रभाषा के प्रति दी गई निष्ठा से उद्भूत होती है। दूसरे शब्दों में भाषा राष्ट्रभाषा बनती है, संख्या के बल पर नहीं, भाषा में निहित सांस्कृतिक सम्पदा के बल पर भी उतनी नहीं, वह राष्ट्रभाषा बनती है अपने बोलने वालों की निष्ठा के बल पर। जिस भाषा पर समस्त राष्ट्र गर्व करता है। जिस भाषा की प्रतिष्ठा को प्रत्येक राष्ट्रवासी राष्ट्र की प्रतिष्ठा का पर्याय मानता है, जिस भाषा के मूल्य को अपने मानवीय मूल्यों में सर्वप्रमुख स्थान देता है, वही भाषा राष्ट्रभाषा होती है। भारतवर्ष में राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा साधारण जन के उत्थान के लिए उठे संतों ने दी। नामदेव, कबीर, नानक, तुलसी, जायसी,सूर जैसे कवियों ने हिंदी को भक्ति की सूरसरि से अभिन्न माना, उस युग में छोटे-से-छोटे आदमी में भगवान को देखना ही सबसे बड़ा मानवीय मूल्य था। इस मूल्य का पर्याय बनी हिंदी। शास्त्रीय चिंतन की भाषा के रूप में संस्कृत बनी रही, पर शुष्क शास्त्रीय चिंतन जो जीवन से निरपेक्ष हो, मनुष्य की स्वाधीनता और मनुष्य की क्षमता का आवाहन न कर सकता हो, मध्य युग में द्वितीय श्रेणी का मूल्य था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से बीसवीं शती के पूर्वार्ध तक पूरा राष्ट्र जिस मूल्य की साधना करता रहा, वह था स्वातंत्र्य। स्वातंत्र्य की भी वाहिका बनी हिंदी। जब तक स्वाधीनता का बोध केवल कुछ थोड़े से बुद्धिजीवियों तक सीमित था तब तक’कण्टकेनैव कण्टकम्' की नीति से अंग्रेजी के प्रभुत्व को अंग्रेजी के द्वारा हटाने का प्रयत्न होता रहा, पर ज्योंही प्रथम विश्व युद्ध के बाद महात्मा गाँधी ने स्वाधीनता के आग्रह को जनता के सत्य के आग्रह के रूप में देखना शुरू किया, त्योंही स्वदेशी और हिंदी स्वाधीनता के पर्याय बन गए। हिंदी के माध्यम से ही राष्ट्रीय स्वाधीनता की पूर्णतम् अभिव्यक्ति हुई। हिंदी भाषी क्षेत्र में इसी से सबसे अधिक अदम्य विद्रोह बार-बार उमड़ता रहा, ‘पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं’ का बोध दहकता रहा। राष्ट्रीय सत्र पर स्वाधीन शिक्षा के प्रयोग के रूप में काशी विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन, राष्ट्रभाषा प्रचार सभा जैसी संस्थाओं की स्थापना हुई। हिंदी राष्ट्रभाषा किसी कानून से, किसी बहुमत से या किसी अनुचित दबाव से नहीं- स्वाधीनता की यज्ञ में आहुति देने वाली प्रत्येक यजमान की श्रद्धा से, उसके ऋत्विजों की श्रद्धा से और स्वाधीनता की आवश्यकता से बनी। हिंदी को राष्ट्रभाषा भूगोल ने नहीं, इतिहास ने बनाया। वह इतिहास हमसे काट दिया जाए तो हिंदुस्तान नहीं रहेगा। हिंदी को राष्ट्रभाषा नेताओं ने नहीं, नेताओं की नेता बनानेवाली उस भारतीय जनता ने बनाया जो संतों के सत्य की भाँति दूब बनकर बिछी रही, जिसे कुचलकर भी कुचला न जा सका। जिसे कोई भी आततायी उन्मूलित न कर सका। उस खेतिहर जनता ने, अपढ़ पर भी तर से संस्कृत जनता ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया। उस जनता की आकांक्षा को व्यक्त करने के लिए, उसकी प्रतिष्ठा को सबसे बड़ी प्रतिष्ठा देने के लिए अहिंदी भाषी दूरदर्शी जननायकों ने हिंदी के आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन का अंग बनाया।
                   राजनीतिक स्वाधीनता मिलने के बाद इस देश में सबसे बड़ी चिंताजनक स्थिति आयी- बुद्धिवादी जन में मूल्य-बोध के अभाव की। अपने बचाव के नाम पर, अपनी सुविधा के नाम पर तथा सबसे सीधे रास्ते की खोज के नाम पर दो परस्पर विरोधी शक्तियों का गठबंधन हुआ। एक थी जनता से शक्ति ग्रहण करने वाली, दूसरी थी जनता के विदेशी शासन से शक्ति ग्रहण करनेवाली। एक थी कंटकाकीर्ण पंथों की अभ्यस्त, दूसरी थी मखमली फर्शों पर चलने की आदी। एक थी भारतीय इतिहास के गंभीर दायित्व से दबी, दूसरी थी सास्कृतिकमात्र के दायित्व से मुक्त। परिणाम यह हुआ कि ऐसी युगसंध्या उपस्थित हुई, जिससे हर मूल्य धुँधला हो गया। इस धुँधलके में जो दिनभर सूरज के साथ खटते रहे, वे सो गए, पर जो दिन में आराम की नींद सोते रहे, उनके नैशविहार मुखर होने लगे। कृत्रिम रोशनी में उनकी अधनीदीं आँखें चमकने लगीं।  दिवास्वप्नों में रहने वाले लोग यथार्थ की रचना में लगे, राष्ट्रसाधना पर पटाक्षेप हुआ, स्वाधीनता का उपभोग शुरू हुआ। परिणाम यह हुआ कि राष्ट्र की स्वाधीनता की विगत कहानी ही भूल गई, राष्ट्रभाषा की प्रतिष्ठा कैसे न भूलती?
मैं इसीलिए इस पर बल देता हूँ कि हमारे देश में आज जो एक कृत्रिम प्रकाश में हर चीज विलग दिखती है, आकाश सत्ताईस नक्षत्रों में विभक्त दिखता है, अपने कमरे का कोना भी अलग कमरा प्रतीत होता है, एक छोटी सी कुर्सी की आड़ में पड़कर, इसका कारण है बुद्धिजीवी वर्ग की मूल्यबोध पर पर्दा पड़ गया है। इसका कारण है हममें से जो सुसंस्कृत होने का दावा करते हैं, वे भूल गए हैं कि भाषा का संस्कार भाषा के साथ जीने से आता है, भाषा के साथ खिलवाड़ करने से नहीं आता। इसका कारण है हम भावनात्मक एकता की बात तो करते हैं, पर स्वयं भावना से अछूते हैं। देश को एक, अविभाज्य और समग्र देखने वाली आँख तो थी हिंदी, उसी में उँगली घुसेड़कर देश की एकता की रक्षा करने की बात की जा रही है। हम अपने बुद्धि विलासकक्ष से बाहर निकल कर एक क्षण भी आस-पास में अपने को घोलते तो हमें अपना अपराध साफ जाहिर हो जाता। इसीलिए मेरी दृष्टि में राष्ट्रभाषा हिंदी की सबसे प्रमुख समस्या है राष्ट्रबोध की कमी, राष्ट्रभाषा के प्रतिष्ठाबोध की कमी और हिंदी के साथ अधिकतर बुद्धिजीवी जन के तादात्म्य की कमी। इस समस्या का समाधान तभी होगा, जब हम राष्ट्रभाषा के प्रश्न को दल-बद्ध राजनीति के चिंतन के स्तर से ऊपर ले जाकर राष्ट्रीय धरातल पर हल करने का संकल्प करेंगे। एक भाषा को दूसरी भाषा से छोटी बड़ी मानने से झगड़े होते हैं, पर जब हिंदी को राष्ट्रीय हित की संरक्षिका मान लेंगे, तो हिंदी किसी दूसरी भाषा से प्रतिस्पर्धा करने वाली नहीं रहेगी, वह भाषा की समृद्धि को और विस्तृत करने वाली उस भाषा की राष्ट्रीय प्रतिभा बन जाएगी।
                   इस भावना से काम करना शुरू हुआ था गुजरात, महाराष्ट्र, असम, उत्कल, आन्ध्र, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और सिंध तक में, पर वह कार्य हमारी गफलत से यंत्रवत् होने लगा, भावनाशून्य होने लगा, इसलिए विघटन के स्वर फूटने लगे। आज यह कार्य नए सिरे से करना आसान नहीं है। इसके लिए घोर परिश्रम, धैर्य और नैतिक साहस की आवश्यकता है।
                    शब्दकोश, ज्ञान राशि के अनुवाद, पाठ्य-पुस्तकें, भाषा-शिक्षक, प्रशिक्षक, शिक्षकों के आदान-प्रदान जैसे कार्य तब तक निष्प्रभाव बने रहेंगे, जब तक साध्य का ध्यान हमारे चित्त में नहीं आता। इसलिए इन साधनों की कमी या अपर्याप्तता को मैं राष्ट्रभाषा हिंदी की समस्या जैसी समस्या नहीं मानता। संकल्प की दृढ़ता के आगे ये कार्य समस्या नहीं रह जाते, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे सामने है। सन् 1949 में संविधान के मसविदे का एक अनुवाद एक बहुत ही कृत्रिम हिंदी में प्रस्तुत किया गया। श्रद्धेय टंडन जी ने उस अनुवाद को हिंदी के लिए एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। प्रयाग आकर उन्होंने आदेश दिया कि क्या समवेद का एक ऐसी हिंदी में अनुवाद एक सप्ताह के भीतर करके रखा जा सकता है, जो हिंदी की सहजता और विचार की सूक्ष्मता दोनों का निर्वाह कर सकें। स्व0 राहुल जी ने कहा- “हो सकता है” और राहुल जी और मैं दोनों आदमी बैठ गए। सात दिनों के भीतर ही अनुवाद लिखा गया, छपने को दिया गया और छापकर टंडन जी को अनुवाद की 500 प्रतियाँ समर्पित कर दी गई। आज भी अभाव की बाधाएँ  निष्ठा की चुनौती पर झुक जाएँगी। प्रश्न है- निष्ठा हो। निष्ठा बाहरी दबाव से आएगी नहीं, या विनाश की आशंका से आएगी या देश की संस्कृति से अपने को जोड़ने की भीतरी श्रद्धा से। भगवान न करें कि पहला विकल्प उपस्थित हो।
                   हिंदी के प्रति निष्ठा रखनेवाले का कार्य इसीलिए बहुत ही कठिन है। उसे राष्ट्र का निर्वाह और राष्ट्रभाषा का निर्वाह एक साथ करना है, पर एक के लिए दूसरे की बलि देकर नहीं। विनय और सत्य के लिए आग्रह एक दूसरे के विरोधी नहीं, पूरक हैं, इस विश्वास के साथ हिंदी-निष्ठ साहित्यसेवियों, विचारकों, कार्यकर्ताओं और शिक्षकों को देश की प्रतिमा हिंदी के साँचे में ढालते रहना चाहिए। देश में राष्ट्रीय मूल्यों की प्रतिष्ठा एक दिन होकर रहेगी।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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