अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त — परिभाषा, तत्त्व, विवेचन
अरस्तू (Aristotle) के 'Poetics' में विरेचन (Catharsis) का सिद्धान्त नाटक और त्रासदी के अध्ययन का एक केंद्रीय विचार है। विरेचन का साधारण अर्थ है — मनोरोग या भावनात्मक अशुद्धि का शोधन, पर अरस्तू के सन्दर्भ में इसका आशय है कि दर्शक त्रासदी के अनुभव से करुणा और भय का अनुभवी शोधन करता है।
अरस्तू ने कहा कि त्रासदी का लक्ष्य दर्शक के हृदय में करुणा (pity) और भय (fear) उत्पन्न कर उन्हें शुद्ध करना है — यही विरेचन का प्रमुख कार्य है।
विरेचन सिद्धान्त के तत्त्व
- करुणा (Pity): पात्रों के दुख-भोग से दर्शक में करुणा जागती है।
- भय (Fear): ऐसी घटनाएँ जो सम्भवतः स्वयं के साथ घट सकतीं, दर्शक में भय उत्पन्न करती हैं।
- संवेदनात्मक संलयन (Emotional Catharsis): करुणा और भय के मिलन से भावनात्मक उथल-पुथल का शमन होता है।
- नैतिक व बौद्धिक क्लैरिटी: विरेचन केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि दर्शक की समझ और दृष्टि को भी परिष्कृत करता है।
- काव्यात्मक संरचना: प्लॉट, पात्र और कथानक का ऐसा संयोजन जो विरेचन को सम्भव बनाए।
अरस्तू का विवेचन
अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त यह सिद्ध करता है कि त्रासदी मानव-हृदय में उत्पन्न करुणा और भय के भावों का संतुलित शुद्धिकरण करती है।
अनुकरण सिद्धान्त के अतिरिक्त अरस्तू का दूसरा प्रमुख काव्य सिद्धान्त विरेचन का सिद्धान्त है। कविता के सम्बन्ध में प्लेटो का मत था कि वह अनुकरण की अनुकरण है अंत: वह सत्य से तिगुनी दूरी पर है अत: त्याज्य है। कविता हमारी वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण और सिंचन करती है, साथ ही वह तर्क या बुद्धि को प्रभावित करने के स्थान पर हृदय या भावनाओं को प्रभावित करती है। प्लेटो की इस व्याख्या का कारण कदाचित् यह था कि वह कला के अध्ययन को नीति-शास्त्र से सम्बद्ध मानता था। इसके विपरीत अरस्तु का कला सम्बन्धी मत सौन्दर्यशास्त्र पर आधारित था। अंत: उन्होंने प्लेटो के सिद्धान्त का विरोध करते हुए भावों के विरेचन की बात कही। अपने समय में प्रचलित चिकित्सा पद्धति के शब्द कैथासिस से संकेत ग्रहण कर उन्होंने उस शब्द के लाक्षणिक प्रयोग द्वरा प्लेटो के आक्षेप का उत्तर दिया।
कैथार्सिस (विरेचन) का उल्लेख
अरस्तू ने न तो विरेचन सिद्धान्त की कोई परिभाषा ही अपने किसी ग्रन्थ में दी है और न कहीं उसकी व्याख्या ही की है। उन्होंने केवल दो स्थानों पर इस शब्द का प्रयोग किया है—प्रथम तो अपने ग्रन्थ ‘पोइटिक्स’ में जहाँ उन्होंने त्रासदी की परिभाषा तथा उसका स्वरूप निश्चित करते हुए कहा है-‘त्रासदी किसी गंभीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न भिन्न रूप से प्रयुक्त सभी प्रकार के अलंकारों से भूषित भाषा होती है, जो समाख्यान रूप न होकर कार्य व्यापार रूप में होती है और जिससे करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।”
उक्त उद्धरण से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यहाँ अरस्तू ने प्लेटो के आक्षेप का उत्तर देने के साथ-साथ यह भी स्पष्ट किया है कि त्रासदी के मूलभाव त्रास और करुणा होते हैं और उन भावों को उद्बुद्ध करके शारीरिक परिष्कार के समान विरेचन की पद्धति से मानव मन का परिष्कार त्रासदी का मुख्य उद्देश्य होता है। दूसरे स्थान पर जहाँ विरेचन शब्द का उल्लेख अरस्तू ने किया है उनके ‘राजनीति’ नामक ग्रन्थ में है जहाँ वे लिखते हैं किन्तु इससे आगे हमारा यह मत है कि संगीत का अध्ययन एक नहीं वरन् अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए।
(1) शिक्षा के लिए (2) विरेचन शुद्धि के लिए 1. The poet being an imitator, like a Painter or any other artist imitate one of the three objects-Things as they were or are n: said of thought to be or things as they aught to be. Y other artist must of necessity were or are things as they are -ATPFA, Page 97 (3) संगीत से बौद्धिक आनन्द की भी उपलब्धि होती है.....धार्मिक रागों के प्रभाव से-ऐसे रागों के प्रभाव से जो रहस्यात्मक आवेश को उद्बोध करते हैं वे शान्त हो जाते हैं मानो उनके आवेश का शमन और विरेचन हो गया हो। करुणा और त्रास से आविष्ट व्यक्ति प्रत्येक भावुक व्यक्ति इस प्रकार का अनुभव करता है और दूसरे भी अपनी-अपनी संवेदनशील शक्ति के अनुसार प्रायः सभी इस विधि से एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं। उनकी आत्मा विशद् और प्रसन्न हो जाती है। इस प्रकार विरेचन राग मानव समाज को निर्दोष आनन्द प्रदान करते हैं।‘यहां भी विरेचन से अरस्तू का तात्पर्य शुद्धि से है। वह मानते हैं कि यद्यपि शिक्षा से नैतिक रागों को प्रधानता देनी चाहिए परन्तु आवेग को अभिव्यक्त करने वाले रागों का भी आनन्द लिया जा सकता है क्योंकि करुणा, त्रास अथवा आवेश का प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में सभी व्यक्तियों पर होता है। ऐसे संगीत के प्रभाव से विरेचन द्वारा उनका आवेश शान्त हो जाता है। इस विधि से वे अपनी-अपनी संवेदन शक्ति के अनुसार एक प्रकार की शुद्धि का अनुभव करते हैं जिससे उनकी आत्मा विशद् और प्रसन्न हो जाती है। अतः विरेचन का अर्थ शुद्धि परिष्करण एवं मानसिक स्वास्थ्य है।
कैथार्सिस (विरेचन) का अर्थ
चिकित्सा-शास्त्र में कैथार्सिस का अर्थ है — शरीर से विकारों का निष्कासन। अरस्तू ने इस अर्थ को भाव-क्षेत्र में रूपक रूप में लागू किया —
-अरस्तू द्वारा प्रयुक्त मूल शब्द ‘कैथार्सिस’ है हिन्दी में इसका अनुवाद ‘रेचन’ ‘विरेचन’ तथा ‘परिष्करण’ शब्दों द्वारा किया जाता है परन्तु विरेचन शब्द सर्वाधिक प्रचलित है। जिस प्रकार कैथार्सिस शब्द यूनानी चिकित्सा पद्धति से सम्बद्ध माना जाता है उसी प्रकार विरेचन ‘शब्द’ भारतीय आयुर्वेदिकशास्त्र से सम्बन्धित है। चिकित्साशास्त्र में उसका अर्थ हैं-रेचक औषधियों द्वारा शरीर के मल या अनावश्यक एवं अस्वास्थ्य कर पदार्थ (फौरिन मैटर) को बाहर निकालना। वैद्य के पुत्र होने के कारण अरस्तू ने यह शब्द वैद्यकशास्त्र से ग्रहण किया और काव्यशास्त्र में उसका लाक्षणिक प्रयोग किया जैसे होमोपैथी में किसी संवेग की चिकित्सा ‘समान’ संवेग के द्वारा की जाती है ‘सर्वसम’ के द्वारा नहीं। अम्ल के लिये अम्लता का और लवण द्रव्य के लिये लवण का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार अरस्तु का मत है कि त्रासदी, करुणा तथा त्रास के कृत्रिम उद्वेग द्वारा मानव के वास्तविक जीवन की करुणा और त्रास भावनाओं का निष्काषण करती है। यह निष्काषण ही वास्तव में ‘विरेचन’ या उसका कार्य है।
अरस्तू के परवर्ती व्याख्याकारों ने लक्षण के आकार पर विरेचन के तीन अर्थ किये।
(1) धर्मपरक
(2) नीतिपरक
(3) कलापरक
1. धर्मपरक अर्थ-
यूनान में भी भारत की तरह नाटक का आरम्भ धार्मिक उत्सवों से ही हुआ था। प्रो० मरे का मत है कि वर्ष के प्रारम्भ पर ‘दि ओन्यसस’ नामक यूनानी देवता से सम्बद्ध उत्सव मनाया जाता था। उस उत्सव में देवता से विनती की जाती थी कि वह प्रशासकों को विगत वर्ष के पापों, कुकर्मो तथा कालुष्यों से मुक्त कर दें तथा आगामी वर्ष में उन्हें इतना विवेकपूर्ण तथा शुद्ध हृदय बना दे कि वे पाप, कलुष तथा मृत्यु आदि से बचे रहें। इस प्रकार यह उत्सव एक प्रकार से शुद्धि का प्रतीक था। अपने ग्रन्थ ‘राजनीति’ में अरस्तू ने लिखा है कि हाल की स्थिति से उत्पन्न आवेश के शमन के लिये भी यूनान में उद्दाम संगीत का प्रयोग किया जाता था। अंत: स्पष्ट है कि यूनान की धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों के द्वारा आन्तरिक विकारों की शान्ति और उनके शमन का यह उपाय अरस्तू को ज्ञात था और संभव है कि वहाँ से भी उन्हें विरेचन सिद्धान्त की प्रेरणा मिली हो। सारांश यह है कि विरेचन का लाक्षणिक प्रयोग धार्मिक आधार पर किया और उसका अर्थ था बाह्य उत्तेजना और अन्त में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शान्ति। धार्मिक साहित्य एक सीमा तक यह कार्य करता भी है।
2. नीतिपरक अर्थ-
विरेचन सिद्धान्त के नीतिपरक अर्थ की व्याख्या एक जर्मन विद्वान वारनेज ने की। उसके अनुसार मानव मन में अनेक मनोविकार वासना रूप में स्थिति रहते हैं। इनमें करुणा और त्रास नामक मनोवेग मूलत: दु:खद होते हैं। त्रासदी रंगमंच पर ऐसे दृश्य प्रस्तुत करती है जिसमें ये मनोवेग अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किये जाते हैं, उसमें ऐसी परिस्थितियाँ उपस्थित की जाती हैं जो त्रास और करुणा से भरी होती हैं। प्रेक्षक जब इन दृश्यों को देखता है या उन परिस्थितियों के बीच मानसिक रूप से गुजरता है तो उसके मन में भी त्रास और करुणा के भाव अपार वेग से उद्वेलित होते हैं और तत्पश्चात् उपशमित हो जाते हैं। प्रेक्षक त्रासदी को देखकर मानसिक शान्ति का सुखद अनुभव करता है क्योंकि उसके मन में वासना आदि मनोवेगों का दंश समाप्त हो जाता है। अतः विरेचन का नीतिपरक अर्थ हुआ—मनोविकारों के उत्तेजन के बाद उद्वेग का शमन और तज्जन्य मानसिक शक्ति और विशदता मिलती है। निश्चय ही ये कार्य भी साहित्य के द्वारा प्रतिपादित होते हैं। अन्य ललित कलाएँ भी यही सब करती हैं।
3. कलापरक अर्थ-
अरस्तू के विरेचन सिद्धान्त के कलापरक अर्थ का संकेत तो गेटे तथा अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी कवि आलोचकों ने भी दिया था परन्तु उसका सर्वाधिक आग्रह के साथ प्रतिपादन करने वाले हैं प्रोफेसर वूचर। उनका कथन है कि अरस्तू का विरेचन शब्द केवल मनोविज्ञान अथवा चिकित्सा शास्त्र से ही सम्बन्धित नहीं है, कला सिद्धान्त का भी अभिव्यंजक है। यह (विरेचन) केवल मनोविज्ञान अथवा नियम शास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाचक न होकर एक कला सिद्धान्त का अभिव्यंजक है–त्रासदी का कर्तव्य कर्म केवल करुणा या त्रास के लिये अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है अपितु उन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है और कला के माध्यम में डालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करता है। प्रोफेसर वूचर विरेचन के चिकित्सा शास्त्रीय अर्थ को ही अरस्तू का एक मात्र आशय नहीं मानते। उनके अनुसार विरेचन का कला परक अर्थ है—पहले मानसिक संतुलन और बाद में कलात्मक परिष्कार। भारतीय रसवादी भी कुछ इसी प्रकार की धारण कलाओं के सम्बन्ध में रखते हैं। व्याख्याओं की समीक्षा-व्याख्याकारों द्वारा प्रस्तुत विरेचन के सभी अर्थ अरस्तू को अभिप्रेत थे अथवा नहीं यह कहना अत्यन्त कठिन है क्योंकि इस विषय पर उनकी अपनी व्याख्या अपर्याप्त है। अंत: इस विषय में हम केवल अनुमान या तर्क से काम ले सकते हैं। धार्मिक शुद्धि की ओर तो स्वयं अरस्तू ने भी संकेत किया है साथ ही मानसिक शुद्धि की चर्चा भी उनके राजनीति नामक ग्रन्थ में उपलब्ध हो रही है अत: वे इसका नैतिक अर्थ भी करते होंगे। प्रश्न यह है कि क्या वे उसका कलापरक अर्थ भी ग्रहण करते थे? हमारा मत है कि धर्मपरक, नीतिपरक तथा कलापरक तीनों अर्थों में सत्य का अंश वर्तमान है। यद्यपि प्रोफेसर बूचर ने जिस कलात्मक परितोष की बात कही है उसका अरस्तू ने कोई संकेत नहीं दिया है तथापि कलात्मक अर्थ भी अरस्तू को थोड़ा बहुत अवश्य अभीष्ट था। उनके अनुकरण सिद्धान्त के सम्बन्ध में भी यहाँ इस अर्थ के प्रयोजन होने की बात भी स्वीकार की जा सकती है। प्रोफेसर मरे ने यूनान की प्राचीन प्रथा के साथ विरेचन सिद्धान्त का सीधा सम्बन्ध स्थापित किया है। उन्होंने विरेचन की धर्मपरक व्याख्या की है।
इसी प्रकार फ्रायड, एडलर तथा युंग आदि ने नीतिपरक व्याख्या की है। प्रो० वूचर ने ही कलापरक व्याख्या की है। उनका कहना है कि अरस्तू का अभीष्ट केवल मन को सामंजस्य, जन्य विशदता और भावनाओं की शुद्धि का था। कला जन्य अस्वाद अरस्तू के विरेचन की परिधि के बाहर की बात है। वे कहते हैं-विरेचन कलास्वाद का साधक तो अवश्य था....परन्तु विरेचन में कलावाद का सहज अन्तर्भाव नहीं है। अंत: विवेचन सिद्धान्त को भावात्मक रूप देना कदाचित न्याय संगत नहीं है। इस प्रकार अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त अपने ढंग से त्रासदी के आस्वाद की समस्या का समाधान करता है। उनके अनुसार त्रास और करुणा दोनों ही कटु भाव है। त्रासदी में मानसिक विरेचन की प्रक्रिया द्वारा यह कटता नष्ट हो जाती है और प्रेक्षक मन:शक्ति का उपयोग करता है। मन की यह स्थिति सुखद होती है। अरस्तू को विरेचन से इतना ही अभिप्रेत था। इस प्रकार हम देखते हैं कि अरस्तू के दो ही प्रमुख काव्य सिद्धान्त थे एक था। अनुकरण सिद्धान्त और दूसरा विरेचन सिद्धान्त।
त्रासदी करुणा और भय के उद्रेक द्वारा मन के भावों का शुद्धिकरण करती है।
अरस्तू द्वारा त्रासदी की परिभाषा
“त्रासदी गंभीर और पूर्ण कार्य की अनुकृति है, जिसका उद्देश्य करुणा और भय के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन करना है।”
इसका अर्थ है कि जब दर्शक दुखद घटनाओं को देखता है तो उसके भीतर करुणा और भय का उत्कर्ष होता है और अंत में भावनाएँ संतुलित होकर मन एक प्रकार की शांति प्राप्त करता है।
निष्कर्ष
अरस्तू का विरेचन सिद्धान्त काव्य को केवल मनोरंजन का साधन न मानकर उसे भावनात्मक एवं नैतिक परिष्कार का माध्यम मानता है। यह काव्य की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और सौन्दर्यगत उपयोगिता को प्रतिपादित करता है।
अरस्तू के अनुसार त्रासदी का सर्वोत्तम परिणाम विरेचन है — इसका अर्थ है दर्शक के भीतर से भावनात्मक अतिव्याप को निकालकर उसे संतुलन प्रदान करना। यह प्रक्रिया सामाजिक और मानसिक दोनों स्तरों पर लाभदायी मानी जाती है।
अरस्तू विरेचन को केवल भाव-व्युत्पत्ति (emotional purge) नहीं मानते; वे इसे मनोवैज्ञानिक और नैतिक रूपांतरण के रूप में देखते हैं — दर्शक के मानस में करुणा और भय की सम्यक अनुभूति से एक प्रकार की भावात्मक सुधार-प्रक्रिया सम्पन्न होती है।
विरेचन सिद्धान्त का महत्त्व
विरेचन सिद्धान्त ने नाटकीय कला के उद्देश्य और प्रभाव को स्पष्ट किया। इसने बताया कि क्यों त्रासदी केवल मनोरंजन नहीं बल्कि एक मनो-नैतिक अनुभव दे सकती है।
आधुनिक आलोचना में विरेचन की धारणा ने भावनात्मक प्रशिक्षण, सामूहिक भागीदारी और कला के सामाजिक-नैतिक प्रभाव पर बहस को जन्म दिया — और यह विचार आज भी नाट्यशास्त्र तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन में महत्वपूर्ण है।
उदाहरण
१. शेक्सपियर का हैमलेट — यहाँ विलक्षण घटनाओं और अंतर्विरोधी पात्र-भावों से दर्शक में करुणा और भय दोनों उत्पन्न होते हैं, जो अंततः विरेचन का अनुभव कराते हैं।
२. सोफोक्लेस का ओइडीपस रेक्स — नियति की भयावहता और पात्र की त्रासदी दर्शक में गहन भावोत्तेजना उत्पन्न कर विरेचन सुनिश्चित करती है।
