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प्रतिशोध पाठ 21

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प्रतिशोध पाठ 20

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प्रतिशोध पाठ 19

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प्रतिशोध पाठ 18

 प्रतिशोध पाठ 18 - सेनापति-अंगराज कर्ण


प्रतिशोध

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प्रतिशोध पाठ 16-भीष्म का शिखण्डी से सामना

 भीष्म का शिखण्डी से सामना

            आज महाभारत का दशवाँ दिन है। नित्य की भाँति महात्मा भीष्म ने सेना की व्यूह-रचना करके मुख्य मार्ग पर अपना मोर्चा सँभाल लिया। पाण्डव सेनापति ने भी जवाबी हमला करने के लिए अपने महारथियों को निर्देशित किया। सबने सेनापति के निर्देश का पालन करते हुए युद्ध प्रारम्भ कर दिया। आज कपिध्वज के नीचे रथ की ओर सभी लोगों की निगाह विशेष रूपेण आकर्षित थी। कारण कि आज दो महारथी एक ही रथ पर आरुढ़ होकर रणाङ्गण में जूझने जा रहे हैं। आज माधव के रथ पर अर्जुन के साथ शिखण्डी भी आरुढ़ होकर रणभूमि पर विचरण कर रहा है। इस दृश्य को देखकर सभी को कुतूहल हो रहा था। व्यूह के मुख्य भाग पर भीम और भीष्म का भयानक युद्ध चल रहा था। कल की घटना से पितामह आज खिन्न थे। अनमनस्क होकर भीम का वात कर रहे थे। माधव ने आज करीब प्रत्येक क्षेत्र में लड़ रहे सेनानायकों " हा महारथियों से दो-दो हाथ कराया। युद्ध करते हुए दोपहर बीत गया। अपने रण-कौशल का प्रदर्शन करते हुए दोनों ही महारथियों से अचानक भीष्म का सामना हो गया। एकाएक भीष्म की आँखों को जैसे विश्वास ही
नहीं हो पा रहा था। प्रत्यय होने पर भीष्म ने अपना धनुष चलाना बन्द कर दिया।
          भीष्म को लक्ष्य करके शिखण्डी एवं अर्जुन ने वाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी। मत्त गजराज की तरह भीष्म बिना किसी प्रतिरोध के उनके वाणों को निस्पन्द झेलते रहे। अर्जुन ने सहस्रों वाण फेंकने के बाद अपनी ओर एक भी वाण न देखकर श्रीकृष्ण से कहा-माधवयह क्या अनर्थ हैपितामह तो युद्ध से विरत हैं। यह तो धर्म नहीं है कि युद्ध न करने वाले पर इस तरह वाण-वर्षा की जाय। शिखण्डी पागल की भाँति पितामह को अपने बाणों से बींधता रहा। आज पितामह का मुख-मण्डल अपूर्व आभा से चमक रहा था। उन्होंने
स्वगत कहा-अब मुझे वाणों से पीड़ा हो रही है। मुझे पीड़ित करने वाले ये विशिख शिखण्डी के नहीं थेवरन् ये कराल-वाण तो मेरे प्रिय अर्जुन के ही थे। दूसरों के बाण मुझे कदापि पीड़ा देने वाले नहीं हो सकते । जैसे—केकड़ी अपने बच्चों के प्रजनन से ही निज मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैवैसे ही अर्जुन के वाण ही मेरे मर्म-स्थलों को बींध रहे थे। इसका अनुभव मुझे तब हुआ जबकि अर्जुन ने वाण बरसाना बन्द कर दिया।
          भीष्म अप्रतिम आभा विखेरते हुए श्रीकृष्ण से बोले-वासुदेवअपने प्रिय सखा को यह निर्देश दें कि रण-भूमि में मुझे वीरोचित मरण देकर जग में सुयश ले। इस प्रकार का रणभूमि में व्यामोह उचित नहीं है। विजय किसी भी कीमत पर वीरों को अभीप्सित है। बिना किसी संकोच के अपने तीक्ष्ण वाणों से मेरा प्राणान्त कर दे। शिखण्डी के वाण मुझे कदापि नहीं धराशायी। कर सकेंगे। कहीं मत्त गजकेशरी को लाठी से वश में किया जा सकता है? भीष्म की बात पर ध्यान न देते हुए माधव ने कुटिल मुस्कान विखेरकर अर्जुन
से कहा-पार्थकिस सोच में डूबे हो पितामह पर प्रचण्डं वाण-वर्षा कर विजय-बाधा अविलम्ब दूर करो। इनसे मुक्ति के लिए दूसरा उपाय नहीं है। रणाङ्गण में इस प्रकार का व्यामोह तुम्हें शोभा नहीं दे रहा है। भीष्म परम् भागवत हैं। वे सब जानते हैं। इसका दोष वे तुम्हें कदापि नहीं देंगे। तुमने मुझे वचन दिया है कि जो कुछ मैं कहूँगा उसे बिना विचारे ही स्वीकार करोगे । न्याय, अन्यायउचित-अनुचितपाप-पुण्य का द्वन्द्व इस समय व्यर्थ है। अनासक्त मन से युद्ध करना ही वर्तमान में सर्वोत्तम है। सभी द्वन्द्व सम्प्रति मुझे
समर्पित करके एकमात्र युद्ध करो–यही मेरा आदेश है।
          भगवान से इस प्रकार उत्साहित किये जाने पर अर्जुन ने संकोच त्यागकर पुनः भीष्म पर वाणों की झड़ी लगा दी। शिखण्डी के वाणों से अनाहत भीष्म ने अब समझ लिया कि अर्जुन द्वारा व्यवहृत विषाक्त दिव्यास्त्रों से मेरा बचना सम्भव नहीं है। उन्होंने प्राणों का मोह त्यागकर भगवान वासुदेव की मन ही मन प्रशंसा करते हुए कोटि नमन किया।
          दिन के तीसरे प्रहर में भीष्म का आभामय मुखमण्डल दर्शनीय बन गया था। कोटिशः सूर्य का प्रकाश उनके शरीर को देदीप्यमान कर रहा था। रक्त- रञ्जित तन को देखकर अस्ताचल की छटा लज्जित हो रही थी। सहसा उनके मुख से निकला-वासुदेव की जय और वे रथ से नीचे लुढ़क गये। शरीर पर असंख्य वाण इस रूप में बिंधे हुए थे कि पृथ्वी से ऊपर ही शर-सय्या लग चुकी थी। इस पर उनका विक्षत तन लेटा हुआ था। दोनों तरफ हाहाकार मच गया। युद्ध तत्काल बन्द हो गया। उभयतः प्रमुख लोग इकट्ठे हो गये। सबके बदन मलीन थे। लोगों के मुख पर अपराध-बोध झलक रहा था। सब ओर अजीब खामोशी छायी थी। भीष्म ने दर्द से कराह भर कर कहा-मेरा शिर नीचे लटक रहा है। इसे कोई सहारा दो। अपने-अपने शिविरों से रेशमी उपधान लिये लोग दौड़ पड़े। अपराधी मुद्रा में एक तरफ दुबके हुए अर्जुन को सम्बोधित कर भीष्म ने कहा-वत्स! मुझ वीरोचित तकिया तुम लगाओ। भीष्म की स्नेहिल वाणी सुनकर अर्जुन की आँखों से वारि-धारा बह निकली। न्होंने अपने तरकस से तीन बाण निकालकर पितामह के शिर को सहारा
था। उनका उन्नत भाल अब सबको देख रहा था। उन्होंने कहा आज से युद्ध बन्द कर दो। मेरी आहति से ही तुम सब यह सीख लो कि युद्ध का अन्त विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। चारो तरफ कोई भी हलचल नहीं हुई। भीष्म ने कहा अर्जुनमुझे प्यास लगी है। पार्थ ने एक बाण मारा जिससे पाताल-गंगा प्रकट होकर स्वतः भीष्म के मुख में गिरकर उनकी पिपासा शान्त की।
          भीष्म ने कहा विधाता की गति बड़ी ही कुटिल है। होनी को कौन टाल सकता है। अभी सूर्य उत्तरायण नहीं है। अतः मैं शरीर नहीं त्यागना चाहता। इसी कुरुक्षेत्र में शरशय्या समेत मुझे कहीं सुरक्षित रख दो। तुम सभी शाम को आकर युद्ध समाचार देते रहना। मैं भी तब तक अपना प्रायश्चित करता हुआ प्राण नहीं विसर्जित करूंगा। धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ने लगा। लोगों ने अपने- अपने शिविर के लिए प्रस्थान किया।
          सबके चले जाने के बाद कर्ण आयो । उसने हाथ जोड़कर पितामह के पैर के पास खड़ा होकर कहा-हे गंगानंदनमेरे पितामह ! मैंने जीवनभर आपका सम्मान किया और बदले में आपसे तिरस्कार ही पाया। आपकी तरह मैंने भी परशुराम से दिव्यास्त्रों की शिक्षा पाई है। अपने सेनापतित्व में मुझे लड़ने से वंचित कर आपने क्या पायाकर्ण की बात सुनकर भीष्म का गला भर आया। वे बोले वत्सतुम मुझे अर्जुन के समान ही प्रिय हो। मैं तुम्हें और अर्जुन दोनों को बचाना चाहता था। अब तुम और अर्जुन में से एक ही बच पायेगा। अब किसका बस है। हम सभी नियति के खिलौने हैं। तुम भी कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र होकर भी किस तरह काल-चक्र में फँस गये हो। तुम्हारे ऊपर दुर्योधन को हमसे अधिक भरोसा है। मैं उससे उभय पक्ष की हितकर बात करता हूँ जो उसे स्वीकार्य नहीं है। तुम उसके उपकारों से बाध्य होकर समर्पण की भावना से काम कर रहे हो। मैं आज भी अगर युधिष्ठिर से तुम्हारा परिचय करा दें तो युद्ध विराम हो सकता है। वह अपना राज्य बिना विचार किये तुम्हें सौंप देगा और तुम उसे दुर्योधन को अविलम्ब हस्तान्तरित करके प्रत्युपकार कर सकोगे। क्या यह उचित होगा। कहो मैं तुम्हारा अभिमत जानना चाहता हूँ। कर्ण अवरुद्ध गले से बोला-पितामह मैं आपकी भावना से
अवगत हूँ। आप तो सभी के पितामह हैं। आप पर हम सभी का समान अधिकार है और आप भी उसी प्रकार सबको समान दृष्टि से देखते हैं। मैं भी देवोपम पाण्डवों का विरोधी नहीं हूँ। युधिष्ठिर को मैं भली-भाँति जानता हूँ। श्रीकृष्ण और माता कुन्ती भी मुझे इस रहस्य को बता चुके हैं। उन दोनों से मैंने. यह वचन लिया है कि कृपया इस रहस्य को धर्मराज से न बतायें। इस प्रकार की अनेक बातें होने पर पितामह ने कर्ण से संप्रेम कहा-जाओ वत्स! अपने कर्तव्य का पालन करो।
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प्रतिशोध पाठ 15- श्रीकृष्ण द्वारा हथियार उठाना ।

 श्रीकृष्ण द्वारा हथियार उठाना ।

          आज युद्ध का नवाँ दिन था। दुर्योधन प्रात: उठकर भीष्म के पास जाकर अमर्षपूर्वक बोला-पितामह आपका पाण्डवों के प्रति प्रेम जग-जाहिर है। युद्धकाल में भी उन्हें आपका परामर्श प्राप्त हो रहा है। मैं इससे अत्यन्त निराश हैं। भीष्म ने आग्नेय दृष्टि से देखते हुए दुर्योधन से कहा--मुझे क्या करना है, तुमसे निर्देश लेना पड़ेगा? मैं आज निर्णायक युद्ध करूँगा। यह कहकर भीष्म ने युद्ध-भूमि पहुँच आज की दुर्गम व्यूहरचना प्रारम्भ की। आज भूखे-बाघ की भाँति भीष्म का आभामण्डल दमक रहा था। आज कपिध्वज का सामना पड़ते ही भीष्म ने घोर गर्जना को-माधव! आज मैंने प्रण किया है कि आपसे युद्धभूमि में अस्त्र उठवाकर रहूँगा; अन्यथा आज पार्थ का वध करके अपना परमार्थ नष्ट कर लूंगा। यदि आप पार्थ को युद्ध में विजय दिलाना चाहते हैं तो आपको स्वयं मुझसे युद्ध करना होगा।
          आज भीष्म का भयानक युद्ध प्रारम्भ हुआ। अर्जुन ने एकाग्रतापूर्वक उनका सामना किया। भीष्म के आगे अर्जुन का हस्तकौशल काम नहीं आ रहा था। उनके एक-एक करके सारे वाण विफल हो रहे थे। माधव ने रथ को आग बढ़ाया। भीष्म ने उस ओर से भी अर्जुन को घेर लिया। पुन: युद्ध ने जोर पकड़ लिया। आजका घनघोर युद्ध देखकर लोगों को परशुराम के साथ युद्ध का स्मरण हो रहा था। भीष्म ने वाणों की वर्षा करके अर्जुन का रथ ही ढँक दिया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की तरफ कई बार संकेत करके निर्णायक युद्ध करने को प्रेरित किया। भीष्म ने आज सचमुच संहारक महाकाल का रूप धारण कर लिया। गाण्डीव की प्रत्यञ्चा भीष्म ने कई बार काट डाली । पुनः पुनः उहे धनुष पर डोरी बाँधना पड़ रहा था। गाण्डीव से आज वाण ही नहीं निकल पा रहे थे। भीष्म का यह अद्भुत रण-कौशल अर्जुन ने आज तक नहीं देखा था उन्हें युद्ध में अपनी पराजय स्पष्ट दिखाई देने लगी। भीष्म के वाणों ने अर्जुन का शरीर क्षत-विक्षत कर डाला। उनका सम्पूर्ण शरीर रक्तरंजित हो उठा।
          आज युधिष्ठिर को देवदत्त शंखनाद नहीं सुनाई पड़ रहा था। कभी-कभी पाञ्चजन्य अवश्य बज उठता था। अर्जुन को किसी विपत्ति में फँसा जानकर युधिष्ठिर ने सेनापति धृष्टद्युम्न के पास जाकर अपनी चिन्ता जताई। सेनापति ने महाराज को आश्वस्त किया-आप निश्चिंत रहें, श्रीकृष्ण के रहते हए अर्जुन का कोई बाल बाँका नहीं कर सकता। आप अपने मोर्चे पर डटे रहें। वहाँ आपको न देखकर लोगों का सन्तुलन बिगड़ सकता है। वापस आकर युधिष्ठिर युद्ध करने लगे। पुनः पाञ्चजन्य का घोष उनके कर्ण-कुहर में गूँजने लगा। धर्मराज बेचैन हो उठे। निश्चय ही आज मेरा प्रिय अर्जुन किसी भयानक विपत्ति में पड़ गया है। मैंने सभी भाइयों से युद्धभूमि में अपनी शंख बजाकर अपना कुशल देते रहने का निर्देश दिया था। अर्जुन ने एक बार भी अपना शंख नहीं फेंका। मुझे ऐसी आशंका हो रही है कि अर्जुन को कुछ हो गया। भगवान वासुदेव अकेले ही लड़ रहे हैं। मुझे धीरज बँधाने के लिए कभी-कभी अपना पाञ्चजन्य बजा देते हैं।
          व्यथित मन युधिष्ठिर सात्यकि के पास पहुँचे । भरे गले से उन्होंने कहा- हे धनुर्धर श्रेष्ठ! तुम्हारे गुरु अर्जुन आज किसी भयावह स्थिति में पड़ जाने से अपना देवदत्त बजाकर मुझे आश्वस्त नहीं कर पा रहे हैं। मेरा आदेश है कि युद्ध भूमि में अपना रण-कौशल दिखलाते हुए अर्जुन के पास पहुँचकर अपनी शंख ध्वनि कर उनका कुशल मङ्गल देकर मुझे आश्वस्त करो । सात्यकि ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए अर्जुन जहाँ युद्ध कर रहे थे उस ओर प्रस्थान किया। अगणित सैन्य समूह का भेदन करने में उसे काफी समय लग गया। इधर घण्टों की प्रतीक्षा करके धर्मराज की चिन्ता और बढ़ने लगी । उन्होंने अतुलित बलशाली अनुज भीमसेन जो कि उन्हीं की रक्षा में नियुक्त थे, के पास जाकर कातर मन से अपनी व्यथा कह सुनाई। भीम ने भी श्रीकृष्ण की रक्षा कवच के रहते हुए अर्जुन सुरक्षित है कहकर युद्ध जारी रखा। किन्तु  युधिष्ठिर का म्लान मुख देखकर अपने पुत्र घटोत्कच को बुलाकर धर्मराज की रक्षा-भार सौंप कर स्वयं अर्जुन के रण-स्थल की ओर चल पड़े। गज-सेनाओं के गजघटा को विदारित करते हुए पैदल ही गदा लेकर अर्जुन को तलाशते हुए आगे बढ़ने लगे। अथक परिश्रम के पश्चात् भीम ने दूर से ही भीष्म से जूझते हए अर्जुन को देखा। भीम ने सिंहनाद किया जिसे सुनकर धर्मराज ने राहत की साँस ली। भीम ने युद्ध करते हुए दुर्योधन के अनेक भाइयों को आज फिर यमराज का अतिथि बनाया।
          इधर अर्जुन ने भी दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके भीष्म के प्रहार को कुछ कमजोर किया। अर्जुन को लक्ष्य करके भीष्म द्वारा प्रक्षेपित वाणों से अनिच्छित-व्रण से माधव भी बच नहीं सके। भीष्म तो आज जैसे थकने का नाम नहीं ले रहे थे। नित्य-नूतन उर्जा से भरकर अर्जुन को कहीं निकलने का अवसर नहीं दे रहे थे। श्रीकृष्ण बारम्बार अर्जुन की तरफ रहस्यमय दृष्टि से देखते और कहते पार्थ कैसे लड़ रहे हो? सँभलकर क्यों नहीं लड़ते। आज पितामह से तुम्हें लड़ना ही होगा। मध्याह्नकालीन सूर्य की तरह देदीप्यमान भीष्म ने
व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराते हुए माधव से कहा-वासुदेव! अपने प्रिय सखा की विजय यदि सचमुच में आप चाह रहे हैं तो उठा लीजिये हथियार। मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हो जायेगी। आपके हाथों मरकर मैं अपना लोक-परलोक दोनों ही सँवार लँगा। माधव भी अपनी कुटिल मुस्कान नहीं रोक सके। भीष्म ने अपना युद्ध और भयानक कर दिया। उनके लक्ष्य से अर्जुन का अभेद्य कवच शत-विक्षत होकर टूट गया। कवचहीन-वक्ष भीष्म के भयंकर वाणों से विंधने लगा।
पार्थ का शरीर वाणों के प्रहार से आज सुमेरु पर्वत की तरह आभासित हो रहा था। उनकी दयनीय दशा देख माधव अत्यन्त ही व्यथित हुए। गाण्डीव प्रत्यञ्चा फिर कट गयी। अर्जुन के हाथों से पुनः डोरी कसकर बाँधी नहीं जा रही थी। उन्हें मूच्र्छा आने को हुई। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ में सहारा देकर बैठा दिया। रथ रोककर स्वयं हाथ में टूटा हुआ रथ का पहिया लेकर अत्यन्त वेग से भीष्म पर प्रहार करने दौड़ पड़े। श्रीकृष्ण की जय कहते हुए भीष्म ने जोर से अपना शंख बजा दिया। शंखनाद सुनकर चारो ओर नीरवता छा गयी। हाथ जोड़कर भीष्म बोले -बस बासुदेव ! मेरी विजय हो गयी। अपने प्रहार से मेरा मस्तक छिन्न कर दीजिये। हे भक्तों के भगवान ! सचमुच आप धन्य हैं।भक्तों के लिए आप अपनी प्रतिज्ञा भी भङ्ग करते हैं। तब तक चैतन्य होकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण को अपने बाँहों से आबद्ध करके रथ पर वापस बैठाया। सावधान होते हुए उन्होंने अर्जुन से कहा-सखे । भीम से युद्ध करना सरल नहीं है। हाथ जोड़कर पार्थ ने कहा-माधव ! अब मैं चैतन्य होकर युद्ध करूँगा। आप चिन्ता न करें। पुन: बड़े वेग से भीष्म पर हल्ला बोल दिया। दोनों ने शंख ध्वनि की। भीष्म ने भी शंखनाद कर युद्ध प्रारम्भ कर कर दिया। भीम ने भी सिंह गर्जना करके शत्रुओं को भयभीत एवं युधिष्ठिर को भय मुक्त किया।
          शेष दिन युद्ध यथावत चलता रहा। अर्जुन और भीष्म ने मौन हो रण-कौशल दिखाया। तीखे बाणों से सहज ही निवारित हुए भीष्म ने स्वयं हमला नहीं किया। धीरे-धीरे सूर्य अपने गन्तव्य तक जा पहुँचे। पश्चिम दिशा की लालिमा की ओर ध्यान करके भीष्म , ने युद्ध-विराम-विराम सूचक अपना शंखनाद किया। युद्ध रुक गया। दोनों ओर के योद्धागण अपने शिविर की ओर चल पड़े। वस्त्र बदलकर लोगों ने अपने घावों की मरहम पट्टी करके विश्राम किया। सायंकाल का विधान सम्पन्न करके सभी ने दूसरे दिन की युद्ध योजना के लिए अपने-अपने सेनानायकों से परामर्श किया। सभी विश्राम करने चले गये।
          श्रीकृष्ण जी अर्जुन को लेकर युधिष्ठिर के कक्ष में चले गए । वहाँ शिखण्डी के साथ धृष्टदुम्न पहले ही विराजमान थे। भीम, विराट, द्रुपद भी कक्ष में उपस्थित हो गये। आज का युद्ध-समाचार सभी ने कह सुनाया । श्रीकृष्ण, अर्जन शान्त बैठे रहे। युधिष्ठिर के पूछने पर माधव ने कहा- कल किसी भी तरह भीष्म से निपटना होगा। इस पर योजना तैयार होने लगी। सभी योजना पर विचार किया गया। परन्तु, एक मत से स्वीकार कोई योजना नहीं बन सकी।
अभी तक चुपचाप शिखण्डी लोगों की योजना का आकलन करता रहा। उसने कहा कि मेरा जन्म भीष्म से बदला लेने को हुआ है। मैं आप लोगों को दिखाई नहीं पड़ रहा हूँ। उसकी बात सुनकर श्रीकृष्ण हँस पड़े और कहा- भीष्म से मुक्ति पाने का समाधान मिल गया। अब आप सभी लोग अपने शयन कक्ष में विश्राम करें। सुबह युद्ध की तैयारी करके नित्य की भाँति समरभूमि में पहुँचकर संग्राम करें। सभी लोगों के चले जाने पर शिखण्डी को रोककर । श्रीकृष्ण ने कल की योजना धर्मराज से कह सुनाई। कल भइया शिखण्डी मेरे रथ पर बैठकर अर्जुन के साथ युद्धभूमि पर चलेंगे। मैं रथ-संचालन करूँगा  और इन दोनों धनुर्धरों को समवेत प्रहार करना होगा तभी भीष्म से निजात मिल सकेगी।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
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