लोंजाइनस ने अपने ग्रंथ ‘पेरिइप्सुस’ नामक ग्रंथ में
उदात्त के लिए अंग्रेजी के ‘दि सब्लाइम’ शब्द का प्रयोग किया है,जिसका तात्पर्य
है-‘ऊँचाई पर ले जाना’ या ‘ऊपर उठाना’। इसे वह काव्य की आत्मा मानता है और कहता है
कि इसी के कारण हमें काव्य में आनन्द की प्राप्ति होती है । वह लिखता है कि
साहित्य पाठकों या श्रोताओं को आवेगपूर्ण अनुभूति की नवीन ऊँचाई तक जिन गुणों के
कारण ले जाता है,वे ही उसके प्राणतत्व हैं। साहित्य का यह उदात्त गुण अन्य सभी
गुणों से महान है । यह वह गुण है जो अन्य क्षुद्र त्रुटियों के बावजूद साहित्य को
वास्तविक रूप से प्रभावपूर्ण बनाता है।
लोंजाइनस
की औदात्य सम्बन्धी अवधारणा बड़ी व्यापक है । इसमें उसने दर्शन,इतिहास तथा धर्म
आदि विषयों को भी सम्मिलित किया है । उसके अनुसार कविता का औदात्य इस बात में है
कि पाठक अपने को भूलकर उच्चभावभूमि पर पहुँच जाए । उसकी दृष्टि में उदात्त
अभिव्यंजना के वैशिष्ट्य और उत्कर्ष का नाम है । और यहीं एकमात्र ऐसा आधार
है जिसका सहारा लेकर महानतम कवियों और लेखकों ने गौरवलाभ किया है और यशःकाय से अमर
हो गए हैं । उदात्त भाषा का प्रभाव श्रोता के मन पर प्रत्यय के रूप में नहीं पड़ता
वरन् भावों के रूप में पड़ता है । गरिमामय वाणी सर्वदा और सब प्रकार से हमें मानों
मन्त्रमुग्ध करके उस तत्व पर विजयिनी बनाती है जिसका लक्ष्य होता है अनुनय तथा
परितोष । अपने प्रत्यय का हम प्रायः नियंत्रण कर सकते हैं । परन्तु उदात्त के
सूत्रों का प्रभाव अमित और दुर्निवार होता है। और वे अपने प्रत्येक श्रोता के मन
पर एकछत्र साम्राज्य जमा लेते हैं ।
लोंजाइनस
कहता है कि एक मनीषी की उक्ति -उदात्त की प्रवृत्ति निसर्गगत होती है । शिक्षा से
उसका अर्जन नहीं होता । “प्रकृति ही एकमात्र कला है, जो उसे परिधि में बाँध सकती
है । उनका विचार है कि कला नियमों के आकुञ्चन से प्राकृतिक कृतिया निकृष्टतर और
प्रायः प्राणहीन हो जाती है, परन्तु मैं सोचता हूँ कि यदि इस बात पर विचार किया
जाय कि प्रकृति की प्रक्रिया नियमतः आवेग और औदार्य के विषय में मुक्त और स्वायत्त
होते हुए भी सर्वथा अनियमित और व्यवस्थाहीन नहीं है तो वस्तुस्थिति कुछ और भी जान
पड़ेगी ।”
लोंजाइनस
लिखता है कि यदि औदात्य को किसी नियम और सिद्धान्त के बिना अनियमित दशा में छोड़
दिया जाय तो वह अधिक खतरनाक है क्योंकि जैसे औदात्य के लिए उत्तेजन आवश्यक है वैसे
ही अवरोध भी लोंजाइनस के अनुसार कला की यहीं विशेषता है । वस्तुतः यहाँ प्रकृति और
कला दोनो को ही महत्वपूर्ण स्वीकार किया गया है। जहँ तक अभिव्यंजना का प्रश्न है
प्रकृति स्वायत्त रूप से प्रयत्नशील रहती है यद्यपि उसमें कोई क्रम अथवा व्यवस्था
है। प्रकृति स्वयं एक व्यवस्था का वर्णन करती है जिसे कला केवल प्रकाश में लाकर
छोड़ देती है। हम कह सकते हैं कि साहित्य में कुछ प्रभाव जो केवल प्राकृतिक रूप
में उत्पन्न होते हैं उन्हें कला द्वारा ही सीखा जा सकता है
लोंजाइनस ने यद्यपि उदात्त को सीधे-सीधे परिभाषित नहीं
किया है किन्तु उसके स्वरूप को स्पष्ट करने का लगातार प्रयास किया है। उसने
व्यवहारिक एवं मनोवैज्ञानिक दोनों दृष्टियों से इसका उपयोग किया है। अतः उसनें
जहाँ एक ओर उदात्त के बहिरंग तत्वों की चर्चा की वहाँ उसने अन्तरंग तत्वों की ओर
भी संकेत किया है। वह लिखता है कि उदात्त भाषा के पाँच मुख्य श्रोत होते हैं
इन्हें वह अनिवार्य तथा महत्वपूर्ण मानता है।
1. महान धारणाओं की छमता या
विषय की गरिमा।
2. भावावेश की तीव्रता।
3. समुचित अलंकार योजना।
4. उत्कृष्ट भाषा।
5. गरिमामय रचना विधान।
इसमें से प्रथम दो जन्मजात हैं और उनका सम्बन्ध काव्य के
अन्तरंग पक्ष से है। शेष तीन कलागत है अतः वे बहिरंग पक्ष के अन्तर्गत आते हैं।
लोंजाइनस ने उदात्त को स्पष्ट करने के लिए उन तत्वों का भी उल्लेख किया है जो
उदात्त के विरोधी हैं अतः उसने उदात्त के स्वरूप को तीन पक्षों द्वारा स्पष्ट करने
का प्रयास किया है।
क-अंतरंग तत्व
ख-बहिरंग तत्त
ग-विरोधी तत्व।
(क) अंतरंग तत्व-
(1) महान धारणाओं की
क्षमता या विषय की गरिमा- लोंजाइनस के अनुसार यह उदात्त का
पहला गुण है । उसके अनुसार उस कवि की कृति महान नहीं हो सकती जिसमें महान धारणाओं
की क्षमता नहीं है। महान उक्ति आत्मा की महत्ता की प्रतिध्वनि होती है। यह अर्जित
गुण न होकर प्रायः प्रकृति के चिंतन द्वारा भी उत्पन्न किया जा सकता है। यद्यपि वह
इसके लिए जन्मजात संस्कारों, कुछ कारयित्री प्रतिभा को, जिसमें कल्पना शक्ति अंतर्
भूत है, श्रेय देता है। वह मानता है कि प्रतिभा और चरित्र के औदात्य से ही महान
विचारों का आविर्भाव संभव होता है। महान धारणाओं की क्षमता से तात्पर्य है,
तेजस्वी एवं मार्मिक प्रसंगों की पकड़ और उसके मूल में निहित औदात्त्य उद्घाटन।
स्पष्ट है कि वह कभी ऐसा कर सकता है, जिसकी कल्पना शक्ति उर्वर हो, जिसे मार्मिक
स्थलों की पहचान हो और जो मानव हृदय में प्रवेश कर संवेदनाओं को पकड़ने की क्षमता
रखता हो। डॉ. नगेंद्र अपनी पुस्तक ‘काव्य में उदात्त तत्व’ में लोंजाइनस के हवाले से लिखते हैं कि यह
संभव नहीं है कि जीवन भर क्षुद्र उद्देश्य और विचारों से ग्रस्त व्यक्ति कोई अमर
रचना कर सके। महान शब्द उन्हीं के मुख से निःश्रित होते हैं जिनके विचार गंभीर और गहन
हों।
(2)भावावेग की तीव्रता- उदात्त का दूसरा स्त्रोत-
भावावेग की तीव्रता है। यहाँ वह कहता है कि वास्तविक भावावेग ही हमें ऊपर उठा सकता
है। लोंजाइनस के अनुसार आवेग दो
प्रकार के होते हैं- प्रथम- निम्न आवेग, द्वितीय- भव्य आवेग। जब भव्य आवेग मनुष्य
की आत्मा में क्रियाशील होते हैं तब उसकी आत्मा को उत्कर्ष प्राप्त होता है।
परिणामस्वरूप उदात्त का जन्म होता है। इसके विपरीत निम्न कोटि के भाववेगों के
प्रबल होने पर उसकी आत्मा मलिन होती है और अंतः करण में नीचता जागृत होती है। लोंजाइनस के मत में उत्साह का आवेग उदात्त
तत्व को प्रेरित करता है। कवि में उसके उत्पन्न होने से वाणी में ओज और कांति का
जन्म होता है जबकि घृणा,भय,शोक आदि से आत्मा में संकुचन होता है।
(ख) बहिरंग तत्व
(1)अलंकार योजना- लोंजाइनस ने समुचित अलंकार योजना पर
अत्यधिक बल दिया है पर अलंकारों के प्रति उसकी दृष्टि अलंकारवादी ना होकर सौंदर्य
वादी है। इसीलिए वह चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकारों के प्रयोग का विरोध करता है।
उसका मानना है कि यदि अलंकारों का उचित प्रयोग किया जाए तो वे अवदात्त की
प्रतिष्ठा में सहायक होते हैं। अलंकार उदात्त का स्वाभाविक सहयोगी तत्व है। अलंकार
अपने उत्कृष्ट रूप में तभी उपस्थित होता है, जब उसमें यह तथ्य छिपा रहता है कि वह
कृति का अलंकार है। ये स्वतः कवि के मनोभावों में निहित होते हैं। इसी से वे मानव-प्रकृति
की सही व्याख्या के साधन बनते हैं और यह तभी संभव है जब कभी अलंकारों का प्रयोग
स्थान, देश, काल, अभिप्राय- वातावरण को ध्यान में रखकर करता है। उसके अनुसार- ये
अलंकार कवि के वास्तविक मनोभावों में निहित होते हैं, मानव के कलात्मक बोध के
प्रतीक हैं,अतएव ये मानव स्वभाव की व्याख्या करने में समर्थ है लेकिन इनका प्रयोग
अत्यंत संयम और विवेक पूर्ण करना चाहिए। अलंकार योजना के अंतर्गत लोंजाइनस ने वक्रोक्ति के कतिपय तत्वों को
लिया है, जैसे- विलक्षण वाक्य रचना, काल, लिंग, वचन में बदलाव, व्याजोक्ति,
समासोक्ति आदि। रूपक, उपमा आदि अलंकारों को शब्दावली के अंतर्गत रखा है। इसके
अतिरिक्त विस्तारण,शपथोक्ति,प्रश्नालंकार, विपर्यय,व्यतिक्रम, पुनरावृति,छिन्न-वाक्य,
प्रत्यक्षीकरण, रूप परिवर्तन आदि का विवेचन किया है।
(2) उत्कृष्ट भाषा- उत्कृष्ट भाषा के
अंतर्गत लोंजाइनस ने शब्द चयन,
रुपकादि का प्रयोग और भाषा की सज्जा को लिया। उसने विचार और पद विन्यास को एक
दूसरे के आश्रित माना। अतः उदात्त विचार साधारण शब्दावली द्वारा अभिव्यक्त ना होकर
गरिमामय भाषा में ही अभिव्यक्त हो सकते हैं। भाषा की गरिमा का मूल आधार है- शब्द
सौंदर्य अर्थात उपयुक्त और प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग। इसके द्वारा शैली के गौरव,
सौंदर्य, उत्कृष्ट रसास्वादन, महत्त्व, सामर्थ्य-शक्ति और मोहकता में वृद्धि हो
जाती है। मानों मृत-प्राणियों में जीवन का संचार हो उठा हो। लोंजाइनस ने बड़े-बड़े शब्दों के अविवेकपूर्ण
प्रयोग को अवांछनीय माना है। उसका कहना है कि तुच्छ विषयों को उत्कृष्ट भाषा
द्वारा प्रस्तुत करना उपहासास्पद है। अर्थात भाषा विषय वस्तु के अनुकूल होनी चाहिए।
दूसरी ओर उसने ऐसे ग्राम्य शब्दों का प्रयोग भी स्वीकार किया है जो वास्तव में
गवारू हैं लेकिन वे अत्यंत शक्तिशाली होते हैं और लोगों के परिचित होते हैं, इसलिए
उनका प्रयोग काव्य को उत्कृष्ट बना सकता है।
(3) गरिमामय रचना विधान - लोंजाइनस का मानना है कि रचनाकार का
वैशिष्ट्य इस बात में भी है कि उसने अलंकार भाषादि को लेकर रचना की निर्मिति किस
तरह से की है। उसकी दृष्टि में सामंजस्यपूर्ण शब्द-विन्यास केवल सुख एवं आनंद का
ही सहज कारण नहीं वरन औदात्य एवं भावावेश का भी साधन है। काव्य रचना को लोंजाइनस ने शब्दों की सामंजस्यपूर्ण घटना
कहा है। इस घटना से जुड़े यह शब्द मनुष्य के स्वभाव के अंग होते हैं। ऐसे शब्दों
से निर्मित काव्य का रचना विधान विचारों और घटनाओं, सौंदर्य, संगीतमय माधुर्य जो
हमारे साथ जन्मे हैं और पोषित हुए हैं- को उद्वेलित करता है और हृदय में वक्ता के
मनोभावों को उभारने का कार्य करता है ।
उपर्युक्त तीनों तत्वों के
सहयोग से काव्य भाषा में उदात्त तत्वों का जन्म होता है। इस उदात्त तत्व की
प्रक्रिया काव्य की प्रमुख विशेषता है। लोंजाइनस
का मानना है कि काव्य का महत्व उसमें निहित उपदेश, नैतिकता, धर्म, आदर्श के साथ
उसका मूल व्यापार इनसे भिन्न तथा ऊंचा है। उसकी दृष्टि में काव्य का एक अपना महत्व
और प्रभाव होता है जो पाठक के मन को शांति और आनंद दोनों प्रदान करता है ।
(ग) विरोधी तत्व- लोंजाइनस ने उदात्त तत्व के विवेचन में
काव्य की उदात्तता के लिए जहाँ इन पाँच सकारात्मक पक्षों की चर्चा की है, वहीं पर
एक नकारात्मक पक्ष उदात्त की विरोधी तत्व की भी चर्चा की है, जिसकी उपस्थिति में
काव्य का उदात्त तत्व हेय हो जाता है। इस क्रम में उसने शब्दाडंबर, बचकानापन, भावाडंबर
की प्रमुख रूप से चर्चा की है। वागाडंबर में कवि अपनी क्षमता को छिपाने के लिए
इसका प्रयोग कर बैठता है जबकि भावाडंबर में आवेग की अधिकता ना होने पर भी यहां
जानबूझ करके असामयिक और सामाजिक और खोखले आवेग का सन्निवेश कवि करता है अर्थात
जहां संयम की आवश्यकता होने पर भी असंयम का भाव दिखाई देता है। इस तथ्य से रचनाकार
को बचना आवश्यक है।
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