काव्य प्रयोजन

2.काव्य का प्रयोजन

सब से मूलभूत प्रश्न है- काव्य किसके लिए? बहुत से आलोचक इस प्रश्न को सार्थक नहीं मानते उनका मत है कि काव्य का प्रयोजन कवि की कलात्मक हृदय की संतुष्टि मात्र है । यह सही बात है कि कवि के अन्तर्वृत्ति में कला रहती है और वह कला का संपादन करके संतुष्टि प्राप्त करता है किन्तु प्रयोजन इतना ही नहीं है कविता केवल अन्तर्वृत्ति की वस्तु न होकर बाह्य मूल्यों को भी संरक्षित करती है । कविता का बाह्य मूल्य भी है। काव्य के प्रयोजन को संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने विशद् रूप से अपने ग्रंथों में विवेचित किया है।
आचार्य भरत नाट्यशास्त्र में काव्य के प्रयोजन को बताते हुए लिखते हैं कि
धर्मयशस्यमायुष्यं हितबुद्धिविवर्धनम्
                 लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति- आचार्य भरत
आचार्य भरत के अनुसार- धर्म,यश की स्थापना । आयु, हित, बुद्धि की वृद्धि तथा लोकोपदेश  ही काव्य का प्रयोजन है ।
आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के अन्तर्गत उसके प्रयोजन की चर्चा करते या बताया है कि-
धर्मयशस्यमायुष्यम् हितबुद्धिविवर्धनम् ।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतदभविष्यति ।।
इस प्रकार, काव्य नाट्य का प्रयोजन धर्म, यश की स्थापना, आयू, हित-बुद्धि की वृद्धि तथा लोकोपदेश की दृष्टि व्यवस्थित करना है। आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के अन्तर्गत कई स्थानों पर प्रयोजनों की चर्चा की है और उनके माध्यम से यही निष्कर्ष निकाला है कि लोकहित एवं प्रीति अर्थात् रचनात्मक तृप्ति ही नाट्य का उद्देश्य है।
काव्य प्रयोजन के विषय में सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से निर्देश आचार्य भामह ने किया था, उन्होंने प्रायः प्रयोजन के सन्दर्भ में सभी परवर्ती स्वीकृति दृष्टियों की ओर संकेत किया है। उनके अनुसार "यशवृद्धि" रचना का महत्त्वपूर्ण फल है। यश के साथ-ही-साथ उन्होंने अन्य प्रयोजनों की भी चर्चा की हैं। इस प्रकार हैं-
धर्मार्थ काममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासुच।
करोति प्रीति कीतिं च साधु काव्य निबन्धनम् ।
इस प्रकार, काव्य रचना का प्रयोज! धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष अन्य कलाओं में सिद्धि-प्राप्ति, प्रीति एवं कीति हैं। इन माव्य प्रयोजनों के अन्तर्गत सम्पूर्ण तथ्य समाविष्ट हैं । यही नहीं, एक स्थल पर अवार्य भामह ने यह बतलाया हैं कि लोक-व्यवहार, धर्म एवं नीति के मर्म को समझाने के लिए काव्य एक सरस माध्यम भी है। भामह की ही भाँति आचार्य दण्डी ने भी कलाजनित आनन्द का पूर्णतया
प्रसार तथा भोग साथ-ही-साथ अनेक लोकोपयोगी तत्वों का निदर्शन काव्य का प्रयोजन माना है । काव्यादर्श की समाप्ति के पश्चात आचार्य दण्डी ने काव्य रचना का निष्कर्ष निकालते हुए उसके प्रयोजनों की ओर ध्यान आकर्षित किया है-
व्युत्पन्नबुद्धिरमुना विधिदर्शनेन,
मार्गणदोषगुणावंशवर्तिनीभिः
वाग्भिः कृताभिरमणे मदिरेक्षणाभिः,
धन्यो युवेव रमते लभते च कीर्तिम् ॥
दोषमुक्त एवं गुणयुक्त काव्यवाणी तथा निर्दिष्ट काव्य मार्गों द्वारा व्युत्पन्नमति वाला रचनाकार मदमत्त नेत्रों वाली रमणियों से अभिसार करता हुआ भाग्यशाली युवक के सदश अगाध आनन्द का अनुभव करता हुआ कीर्ति की प्राप्ति करता है। आचार्य दण्डी की ही भांति आचार्य वामन ने भी काव्य रचना के मुख्य प्रयोजन के रूप में प्रीति की ही चर्चा की है।
आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक के अन्तर्गत काव्य रचना का मूल लक्ष्य आनन्द ही माना है। उनके अनुसार काव्य रचना का आनन्द नामक प्रयोजन रचनाकारों को बार-बार आकर्षित करके सहृदयों को तृप्त करता है। यह सत्य है कि, काव्य के माध्यम से धर्म, अर्थ काम, मोक्ष इन चार तत्त्वों की प्राप्ति होती है, फिर भी उनसे भिन्न आनन्द नामक तत्त्व सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं काम्य है।
आनन्दवर्धन के पश्चात आचार्य कृन्तक ने भी काव्य प्रयोजन विषय की चर्चा की है। उन्होंने बताया है कि शास्त्रादि के प्रति भीरु राजकुमारों को रमण कराने के लिए काव्य का वही उपयोग है, जो ज्वरादि व्याधियों को दूर करने के निमित्त औषधि में मधु प्रयोग की-
कटुकौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधि नाशनम् ।
आह्लादमृतवत् काव्यमविवेक गदापहम् ।।
उनके अनुसार काव्य का यह व्यावहारिक पक्ष है। काव्य प्रयोजन के विषय में सर्वाधिक व्यावहारिक टिप्पणी आचार्य मम्मट की है, मम्मट कहते हैं-
काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिवृत्तये कान्तासम्मितयोपदेशयुजे ।।
उनके अनुसार काव्य के छ: प्रयोजन हैं-यशवृद्धि, धनार्जन, लोकव्यवहार का ज्ञान, शिवेतर तत्त्वों से रक्षा, कान्तासम्मितया उपदेश तथा सद्य:परिनिवृत्ति। आचार्य मम्मट द्वारा निदिष्ट यशवृद्धि तथा धनार्जन-ये दो प्रयोजन रचनाकार के लिए हैं। रचनाकार काव्य रचना के माध्यम से अक्षय यश की प्राप्ति करता है, साथ ही, राजाश्रय प्राप्त करके धनार्जन भी प्राप्त करके समद्ध लोकजीवन यापन करता है। मध्यकाल में राजाश्रय से कवि एवं कवि के द्वारा राज की कीर्ति का परस्पर विस्तार होता है। राजशेखर ने काव्यमीमांसा के अन्तर्गत बताया है कि राजा के लिए कवि और कवि के लिए राजा के सदृश कोई उपकारी नहीं होता और दोनों एक दूसरे की कीति के विस्तार में मदद करते हैं-
ख्याता नराधिपः कवि संश्रयेण,
राजाश्रयेण च गता कवयः प्रसिद्धि।
राज्ञा समो अस्ति न कवेः परोपकारी,
राज्ञा न चास्ति कविनासदृशः सहायः॥
इस प्रकार राजाश्रय न केवल धनार्जन के निमित्त आपतु कवि के यश में भी सहायक होता है । काव्य के तीन उद्देश्य लोकहित से सम्बद्ध है और चतुर्थ प्रयोजन का उद्देश्य कला-जनित रचना तत्त्व का पाठक द्वारा आस्वादन है। काव्यास्वादन का सृजन कवि का मूल उद्देश्य है, और यह रचना का अन्तवर्ती तत्त्व है।सद्यः परिनिवृत्ति का अर्थ है, काव्य रचना के सम्पर्क में आते ही उसके प्रभाव
सहृदय का भावनिमग्न होकर आनन्दित हो उठना। रचना का यह कलाधर्म है।इस कलाधर्म की सृष्टि रचनाकार और रचना का नंगिक धर्म है। शेष तीन काव्य प्रयोजन लोकव्यवहार से जुड़ हैं। काव्य की रचना "शिवेतर तत्वों रक्षा के लिए की जाती है। यह वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों स्तरों पर सम्भव ह। बाद -(क) लोक व्यवहार का ज्ञान, (ख) कान्तासम्मित उपदेश ये हो
महत्वपूर्ण सन्दर्भ हैं। इन्हीं दो प्रयोजनों का सन्दर्भ काव्य रचना की बहत्तर आयामधर्मिता से है। काव्य के अन्तर्गत सम्पूर्ण लोक जीवन तथा सामाजिक आचरण की पुनर्रचना की जाती है। इस पुर्नरचना के अन्तर्गत सम्पूर्ण समाज का व्यावहारिक प्रतिपालन विम्बित होता है और यही विम्बन सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी है।
"कान्तासम्मितया उपदेश" रचना का उससे भी महत्त्वपूर्ण धर्म है। काव्य यह निर्देश नहीं देता कि क्या करणीय है और क्या करणीय नहीं है। वह रचना के अन्तर्गत एक परिस्थिति उत्पन्न करता है और इस परिस्थिति को कला तथा कल्पना कौशल के द्वारा निर्मित करके रचना के लक्ष्य के अनुसार आचरण करने के निमित्त पाठक को विवश कर देता है। रामायण कार प्रत्यक्षतः यह उपदेश नहीं
देता कि व्यक्ति राम की भांति आचरण करे या रावण की भांति, वह रचना के अन्तर्गत उन परिस्थितियों को उत्पन्न कर देता है कि पाठक राम की भांति आचरण करने के लिए स्वयं मन बना लेता है, न कि रावण की भांति । पाठक के हृदय में स्वतः निर्देश उत्पन्न कराना रचना का अन्तवर्ती प्रयोजन है। यह अन्तवता प्रयोजन रचनाकार के मन्तव्य से जुड़ा रहता है। कविराज विश्वनाथ ने बताया है-
चतुर्वगफलप्राप्तिः सूखादल्पप्रियमपि।
काव्यादेवयतस्तेन तत्स्वरूपं निरूप्यते ।
इन वाक्यों के माध्यम से मूलतः परम्परित काव्य प्रयोजनों की ही चर्चा की गई है। आचार्य मम्मट ने परम्परा में कथित काव्य प्रयोजनों पर पूर्णतः विचार करके उनको सूत्ररूप में रखते हुए अन्तिम परिणति प्रदान कर दी है। उनके पश्चात जो भी विचार इस सम्बन्ध में प्रस्तुत किये गये हैं, वे पृष्ठपेषण मात्र हैं।
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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