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सेनापति


 सेनापति

1. सारंग धुनि सुनावै धन रस बरसावै,

मोर मन हरषावै अति अभिराम है।

जीवन अधार बड़ी गरज करनहार,

तपति हरनहार देत मन काम है।।

सीतल सुभग जाकी छाया जग 'सेनापति'

पावत अधिक तन मन बिसराम है।

संपै संग लीने सनमुख तेरे बरसाऊ,

आयौ घनस्याम सखि मानौं घनस्याम है।।


2. सदा नंदी जाकौं आसा कर है विराजमान, 

                            नीकी घनसार हूँ तैं बरन है तन कौं। 

सैन सुख राखै सुधा दुति जाके सेखर है,

                            जाके गौरी की रति को मथन मदन कौं।।

जो है सब भूतन कौं अन्तर निवासी रमैं,

                            घरै उर भोगी भेष धरत नगन कौं।

जानि बिन कहैं जानि 'सेनापति' कहैं मानि,

                            बहुधा उमाधव कौं भेद छाँड़ि मन कौं।।


3. लाल लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग,

                            स्याम रंग भेटि मानौ मसि में मिलाये हैं। 

तहाँ मधु काज आइ बैठे मधुकर पुंज, 

                            मलय पवन उपवन बन घाये हैं।।

'सेनापति' माधव महीना मे पलास तरु,

                            देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं। 

आधे अंग सुलगि सुलगी रहे आधे मानौ,

                            विरही दहन काम क्वैला परचाये हैं।।


4. वृष को तरनि तेज सहसों किरन करि, 

                            ज्वालन के जाल विकराल बरसत है। 

तचति घरनि, जग जरत झरनि, सीरी, 

                            छाँह कौं पकरि पंथी पंछी बिरमत है।। 

'सेनापति' नैंक दुपहरि के ढरत, होत 

                            धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत है। 

मेरे जान पौनौं सीरी ठौर कौं पकरि कौनौं, 

                            घरी एक बैठि कहूँ घामैं बितवत है।।


5. दामिनी दमक सुरचाप की चमक स्याम, 

                            घटा की अमक अति घोर घनघोरतैं। 

कोकिला, कलापी, कल कूँज है जित तित 

                            सीकरतें सीतल समीर की झकोर हैं।। 

'सेनापति' आवन कह्यो है मनभावन सु,

                            लाग्यो तरसावन बिरह जुर जोर हैं।

आयो सखि सावन मदन सरसावन सु, 

                            लाग्यो बरसावन सलिल चहूँ ओर तैं।।


6. सिसिर तुषार के बुखार से उखारत है, 

                            पूस बीते होत सून हाथ-पाई ठिरि कै।

द्यौस की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ,

                            'सेनापति' पाई कछू सोचि कै सुमिरि कै।।

सीत तैं सहस कर सहस-चरन है कै,

                            ऐसे जात भागि तम आवत है घिरि कै।

जौ लौं कोक कोकी कौं मिलत तौं लौं होति राति,

                            कोक अधबीच ही तैं आवत हैं फिरि कै।।

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कृष्णाश्रयी शाखा (कृष्ण काव्य) - इतिहास, प्रवित्तियाँ, विशेषताएँ ।

 

कृष्णाश्रयी शाखा (कृष्ण काव्य) - इतिहास, प्रवित्तियाँ, विशेषताएँ ।

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रामाश्रयी शाखा (राम काव्य) - इतिहास, प्रवित्तियाँ, विशेषताएँ ।

 

रामाश्रयी शाखा (राम काव्य) - 1.विशेषताएँ ।

1. भगवान राम विष्णु के अवतार हैं। वह परमब्रह्मस्वरूप हैं, मर्यादापुरुषोत्तम हैं, शील-सौन्दर्य,शक्ति के समन्वय हैं। वो व्यापक, अजित, अनादि्, अनन्त,गो, द्विज,धेनु,देव,मनुष्य सबके हितकारी हैं, कृपासिन्धु हैं पृथ्वी पर आदर्श की स्थापना के लिए मनुष्य के रूप में अवतार लिए हैं। तुलसी के परमाराध्य हैं,ऐसे मंगलभवन, अमंगलहारी, अजिर बिहारी राम इस काव्यधारा के प्रतिपाद्य विषय हैं।

2. रामश्रयी का दृष्टिकोण समन्वयात्मक है, इस काव्य में विराट समन्वय की चेष्टा है।

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प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य) - इतिहास, प्रवित्तियाँ, विशेषताएँ ।

 

प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य) - 1.विशेषताएँ ।

1. सूफी काव्य में लौकिक प्रेम कहानियों के माध्यम से अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना है। आचार्य शुक्ल जी ने इसीलिए इसे प्रेमाश्रयी शाखा नाम दिया।
2. सूफी काव्य में प्रेम तत्व का निरूपण किया गया है , प्रेम कथानकों के माध्यम से परमात्मा एवं जीव का तादात्म्य स्थापित किया गया है।
3. सूफी काव्य प्रबन्ध काव्य की कोटि में आता है यद्यपि समस्त काव्यों क्रम योजना एक समान ही है।मंगलाचरण से प्रारम्भ होकर कथानकों का दुखमय अन्त सूफी काव्य की पहचान है । कुछ प्रेमकथानक सुखान्त भी हैं।
4. बारहमासा वर्णन, नायक-प्रतिनायक की उपस्थिति, प्रेम के विरहपक्ष का अतिरंजित वर्णन, भोग-विलास से युक्त मिलन का अश्लील वर्णन, काव्य रूढ़ियों का प्रचुर प्रयोग सूफी काव्य की पहचान है।
5.
शीघ्र ही..


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ज्ञानाश्रयी शाखा (सन्त काव्य)- इतिहास, प्रवित्तियाँ, विशेषताएँ ।

 ज्ञानाश्रयी शाखा (सन्त काव्य)-  1.विशेषताएँ ।

1. सभी सन्त निर्गुण ईश्वर में विश्वास रखते हैं। निर्गुण ईश्वर ही घट-घट में व्याप्त है और एकमात्र ज्ञानगम्य है। वह अविगत है उसे बाहर ढूढ़ने की आवश्यकता  नहीं   है।  भक्ति की जगह ज्ञान  को अधिक महत्व दिया गया है।

2.  सन्त कवियों ने अवतारवाद एवं बहुदेववाद का निर्भीकतापूर्वक खण्डन किया। शंकर का अद्वैतवाद एवं इस्लाम पंथ का एकेश्वरवाद इनकी कविताओं के मूल में है।

3.  सभी सन्त कवियों ने गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया, कबीरदास जी का मानना   था कि  रामकृपा तभी होती है जब गुरु की कृपा होती है।

4. समस्त सन्त कवियों ने जाँति-पाँति, वर्ग-भेद,ऊँच-नीच,छुआछूत, एवं हिन्दू मुसलमान का प्रबल विरोध किया। हिन्दू -मुसलमानों में एकता स्थापित करने के लिए सामान्य भक्तिमार्ग की प्रतिष्ठा की।

5.  सिद्धों एवं नाथपं थियों से प्रभावित होकर प्रायः सभी सन्त कवियों ने रूढ़ियों एवं आडम्बरों का विरोध किया, मूर्तिपूजा, तीर्थ-व्रत, हज-नमाज, रोजा सहित सभी बाह्याडम्बरों का कबीरदास जी ने डटकर विरोध किया है।

6.  प्रेम और विरहानुभूति की अभिव्यक्ति सन्तकाव्य की  प्रमुख विशेषता है। इस काव्य में अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना है। प्रणयानुभूति के क्षेत्र में पहुँचकर ये खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति को भूल जाते हैं।

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रीतिकाल- इतिहास, प्रवृत्तियाँ, विशेषताएँ, अन्य

 रीतिकाल- इतिहास, प्रवृत्तियाँ, विशेषताएँ, अन्य

रीतिकालीनकाव्य की विशेषताएँ

      1.    रीतिकाल का काव्य यद्यपि श्रृंगारप्रधान है पर इस श्रृंगार रस की साधना में जीवन के सन्तुलित दृष्टिकोण का नितान्त अभाव है। एन्द्रियता की प्रचुरता है,रसिकता की प्रधानता है ।
      2.    प्रदर्शन प्रधान युग में काव्य के बाह्य अलंकार की ओर कवि ने सर्वाधिक रुचि दिखाई अलंकार के इस अनावश्यक मोह के कारण कहीं कहीं पर कविता कामिनी की आत्मा बुरी तरह से अभिभूत हुयी है इस युग में बीर रसात्मक कविता भी हुयी है ।
    3.    घुटनशील वातावरण से ऊबकर भक्ति और नीति सम्बन्धी सूक्तियाँ भी लिखी गयी किन्तु भक्ति सम्बन्धी दोहे के कारण उन्हें भक्त कवि नहीं कहा जा सकता ।
    4 .    परिस्थितिजन्य होने के कारण मुक्तक काव्य लिखे गये। कवित्त,सवैया,दोहा,छप्पय का प्रयोग अत्यधिक किया गया ।
    5.    भाषा का परिमार्जन,सौष्ठव और प्रौढ़ता,उक्ति और वैचित्र्य,चमत्कार तथा भाव की मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना की गयी ।
    6.    भाषा ब्रज है ।
     7.    इन काव्यों में लक्षणों की अपेक्षा उदाहरण खँण्ड अधिक लोकप्रिय एवं उत्कृष्ट हैं ।
     8.    रीतिकाव्य में श्रृंगारिकता का आधिक्य अवश्य है फिर भी बीर रस की कविताएँ भी साथ-साथ प्रवाहित होती रही है, भूषण लाल और सूदन आदि कवियों ने ओजस्विनी आदि भाषा में वीर रसात्मक आदि काव्य की रचना की है ।
    9.    प्रकृति का परम्पराभुक्त रूप में चित्रण है आलम्बन रूप में उसका ग्रहण किया गया है। प्रायः रीति कवि प्रकृति के प्रति तटस्थ सा दीख पड़ता है ।
     10.    इन कवियों की अभिव्यंजना प्रणाली विशेष मनोरम है । इनके नयनों में रूप की प्यास अमिट थी ।
   11.   रीति कवि ने स्त्री पुरुष के यौन सम्बन्धों का चित्रण मनोवैज्ञानिक ढंग से किया है इस दिशा में भारतीय कामशास्त्र का प्रभाव उस पर निश्चित रूप से पड़ा है । 
 12. रीति कवि ने वर्णक शैली का प्रयोग किया ।
13.   रीति काव्य शास्त्रों में  मौलिकता और चिन्तन का अभाव है ।

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मंदाकिनी पाठ 3-जायसी


कीन्हेसि मानुष, दिहेसि बडाई । कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
कीन्हेसि राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
कीन्हेसि दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ, अघाइ न कोई ॥
कीन्हेसि जियन , सदा सब चाहा । कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
कीन्हेसि सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
कीन्हेसि कोइ भिखारि, कोइ धनी।कीन्हेसि सँपति बिपति पुनि घनी।।
 कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।
छारहिं तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब छार ॥1॥

उस परमात्मा ने मनुष्य का निर्माण किया और उसे प्रतिष्ठित किया। उसके लिए उसने अन्न तथा अन्य भोज्य पदार्थ रचे। उसने राजा बनाए जो राज्य का भोग करते हैं। हाथी- घोड़े तथा अन्य ठाट-बाट भी उसी के बनाए हुए हैं। मानव के लिए उसने अनेक प्रकार की विलास- सामग्री रची। उसने कुछ मनुष्यों को राजा बनाया और कुछ को उनका सेवक। उसने धन का निर्माण किया जो गर्व का कारण बना। लोभ भी उसकी सृष्टि है। इस लोभ के कारण मनुष्य की कभी तृप्ति नहीं होती। उसने सब प्राणियों को जीवन दिया है। जिसकी कामना प्राणी मात्र को सदैव बनी रहती है। मृत्यु का नियामक भी वही है। प्रत्येक प्राणी इस मृत्यु का शिकार बनता है। उसने सुख और करोड़ों प्रकार के आनंदो का विधान किया। दुख, चिंता और द्वंद्व का प्रेरक भी वही है। उसने किसी को भिखारी बना रखा है और किसी को धनी बना रखा है। उसने संपत्ति और कटु विपत्तियां भी बनाई है। उसने किसी को निराश्रित बनाया है और किसी को आश्रय देकर महाशक्तिशाली बना दिया। मिट्टी से ही उसने सब वस्तुएं बनाई है और अंत में सब मिट्टी में ही मिल जाती हैं।

धनपति उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति, घट न भँडारू ॥
जावत जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
ताकर दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
पखि पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
भोग भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई, आप नहिं खाई ॥
ताकर उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
सबै आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥

जुग जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।
और जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥2॥
इस संसार का स्वामी वह परमात्मा ही सच्चा धनपति कहलाने का अधिकारी है। वह नित्यप्रति सब को दान देता है किंतु उसका भंडार कभी खाली नहीं होता। चींटी से लेकर हाथी तक जितने जीव हैं वह दिन-रात उन्हें भोजन देता है। उसकी दृष्टि सभी प्राणियों के ऊपर रहती है। शत्रु और मित्र वह किसी को नहीं भूलता है। पक्षी से लेकर पतंगे तक का उसे ध्यान रहता है ।वास्तव में जितने भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जीव हैं उन सब का भर्ता वहीं है। वह अनेक प्रकार की खाद्य और भोग्य सामग्री उत्पन्न करता है और समस्त प्राणियों को खिला देता है किंतु स्वयं नहीं खाता। सबको भोजन देना ही उसका अपना भोजन है। प्रत्येक जीव प्रत्येक साँस में उसी के आश्रित हैं किंतु वह ना किसी से कुछ आशा करता है और ना किसी से निराशा ही रखता है। वह आशा- निराशा से तटस्थ हैं। वह अपने दोनों हाथों से युग- युग से बांट रहा है किंतु उसकी विभूति लेश मात्र भी कम नहीं हुई है। संसार के लोग जो दान देते हैं वह भी सब उसी के दिए हुए दान का भाग है। वह उनकी अपनी वस्तु नहीं है।


आदि एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
सदा सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
छत्रहिं अछत, निछत्रहिं छावा । दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
परबत ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
बज्रांह तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥
ताकर कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
काहू भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥

सबै नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
एक साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥3॥

अलख अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों, सब ओहि सों बर्ता ॥
परगट गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह, न चीन्है पापी ॥
ना ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
जना न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ लगि सब ताकर सिरजना ॥
वै सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
हुत पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
और जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥

जो चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।
बरजनहार न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह ॥4॥

एहि विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
जीउ नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर नाहीं, पै करै सबाईं ॥
जीभ नाहिं, पै सब किछु बोला । तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
स्रवन नाहिं, पै सक किछु सुना । हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
नयन नाहिं, पै सब किछु देखा । कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
है नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
ना ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ । रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥

ना वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।
दीठिवंत कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥5॥


नागमती वियोग वर्णन
नागमती चितउर-पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ॥
नागर काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ ॥
भएउ नरायन बावन करा । राज करत राजा बलि छरा ॥
करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ॥
मानत भोग गोपिचंद भोगी । लेइ अपसवा जलंधर जोगी ॥
लेइगा कृस्नहि गरुड अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?

सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह ?
झुरि झुरि पींजर हौं भई , बिरह काल मोहि दीन्ह ॥1॥

पिउ-बियोग अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोलै `पिउ पीऊ'
अधिक काम दाधै सो रामा । हरि लेइ सुबा गएउ पिउ नामा ॥
बिरह बान तस लाग न डोली । रकत पसीज, भींजि गइ चोली ॥
सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी ॥
खन एक आव पेट महँ ! साँसा । खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा ॥
पवन डोलावहिं, सीचहिं चोला । पहर एक समुजहिं मुख-बोला ॥
प्रान पयान होत को राखा ? । को सुनाव पीतम कै भाखा ?

आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि
हंस जो रहा सरीर मह, पाँख जरा, गा भागि ॥2॥

पाट-महादेइ ! हिये न हारू । समुझि जीऊ, चित चेतु सँभारू ॥
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा ॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास; बाँधु मन थीती ॥
धरतहिं जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा ॥
पुनि बसंत ऋतु आव नबेली । सो रस, सो मधुकर, सो बेली ॥
जिनि अस जीव करसि तू बारी । यह तरिबर पुनि उठिहि सँवारी ॥
दिन दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोई सरवर, सोइ हंसा ॥

मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकस भेंटि अहंत ।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥3॥

चढा असाढ, गगन घन गाजा । साजा बिरह दुंद दल बाजा ॥
धूम, साम, धीरे घन धाए । सेत धजा बग-पाँति देखाए ॥
खडग-बीजु चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी । कंत! उबारु मदन हौं घेरी ॥
दादुर मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ ॥
पुष्प नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह, मँदिर को छाँवा ?
अद्रा लाग, लागि भुइँ लेई । मोहिं बिनु पिउ को आदर देई ?

जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब ॥4॥

सावन बरस मेह अति पानी । भरनि परी, हौं बिरह झुरानी ॥
लाग पुनरबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि , कहँ कंत सरेखा ॥
रकत कै आँसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चली जस बीरबहूटी ॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला । हरियारि भूमि, कुसुंभी चोला ॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ॥
बाट असूझ अथाह गँभीरी । जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी ॥
जग जल बूड जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ॥

परबत समुद, अगम बिच, बीहड घन बनढाँख ।
किमि कै भेंटौं कंत तुम्ह ? ना मोहि पाँव न पाँख ॥5॥

भा भादों दूभर अति भारी । कैसे भौंर रैनि अँधियारी ॥
मंदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा ॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ॥
चमक बीजु, घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा ॥
बरसै मघा झकोरि झकोरि । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी ॥
धनि सूखै भरे भादौं माहाँ । अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ ॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आक जवास भई तस झूरी ॥

थल जल भरे अपूर सब, धरनि गगन मिलि एक ।
जनि जोबन अवगाह महँ दे बूडत ,पिउ ! टेक ॥6॥

लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहूँ आउ, कंत! तन लटा ॥
तोहि देखे, पिउ ! पलुहै कया । उतरा चीतु, बहुरि करु मया ॥
चित्रा मित्र मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ॥
उआ अगस्त, हरित-घन गाजा । तुरय पलानि चढे रन राजा ॥
स्वाति-बूँद चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं, खँजन देखाए ॥
भा परगास, काँस बन फूले । कंत न फिरे, बिदेसहि भूले ॥


बिरह-हस्ति तन सालै, घाय करै चित चूर ।
वेगि आइ, पिउ ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर ॥7॥

कातिक सरद-चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी ॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरैं सब धरति अकासा ॥
तम मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, खएउ मोहिं राहू ॥
चहूँ खंड लागै अँधियारा । जौं घर नाहीं कंत पियारा ॥
अबहूँ, निठुर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा ॥
सखि झूमक गावैं अँग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी ॥
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा ॥

सखि मानैं तिउहार सब गाइ, देवारी खेलि ।
हौं का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि ॥8॥

अगहन दिवस घटा, निसि बाढी । दुभर रैनि, जाइ किमि गाढी ?
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती ॥
काँपै हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप-रँग लेइगा नाहू ॥
पलटि त बहुरा गा जो बिछोई । अबहुँ फिरै, फिरै रँग सोई ॥
वज्र-अगिनि बिरहिन हिय जारा । सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा ॥
यह दुख-दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥

पिउ सौ कहेहु सँदेसडा, हे भौंरा ! हे काग !
सो धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह लाग ॥9॥

पूस जाड थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा ॥
बिरह बाढ, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ॥
कंत कहाँ लागौं ओहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे ॥
सौंर सपेती आवै जूडी । जानहु सेज हिवंचल बूडी ॥
चकई निसि बिछूरे दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला ॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी ॥
बिरह सचान भएउ तन जाडा । जियत खाइ औ मुए न छाँडा ॥


रकत ढुरा माँसू गरा, हाड भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहि पंख ॥10॥

लागेउ माघ, परै अब पाला । बिरह काल भएउ जड काला ॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड न छूटै माहा ॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तू सो भौंर, मोर जोबन फूलू ॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर-चीरू ॥
टप टप बूँद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला ॥
केहि क सिंगार, कौ पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा ॥

तुम बिनु कापै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल ।
तेहि पर बिरह जराइ कै चहै उढावा झोल ॥11॥

फागुन पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥

यह तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन ! उडाव'
मकु तेहि मारग उडि परै कंत धरै जहँ पाव ॥12॥

चैत बसंता होइ धमारी । मोहिं लेखे संसार उजारी ॥
पंचम बिरह पंच सर मारे । रकत रोइ सगरौं बन ढारै ॥
बूडि उठे सब तरिवर-पाता । भीजि मजीठ, टेसु बन राता ॥
बौरे आम फरैं अब लागै । अबहुँ आउ घर, कंत सभागे ! ॥
सहस भाव फूलीं बनसपती । मधुकर घूमहिं सँवरि मालती ॥
मोकहँ फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे ॥
फिर जोबन भए नारँग साखा । सुआ-बिरह अब जाइ न राखा ॥

घिरिन परेवा होइ, पिउ ! आउ बेगि ,परु टूटि ।
नारि पराए हाथ है, तोह बिनु पाव न छूटि ॥13॥

भा बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चंदन भा आगि ॥
सूरुज जरत हिवंचल तअका । बिरह -बजागि सौंह रथ हाँका ॥
जरत बजागिनि करु, पिउ ! छाहाँ । आइ बुझाउ, अँगारन्ह माहाँ ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि तें करु फुलवारी ॥
लागिउँ जरै, जरै जस भारू । फिर फिर भूंजेसि, तजेउँ न बारू ॥
सरवर-हिया घटत निति जाई । टूक-टूक होइ कै बिहराई ॥
बिहरत हिया करहु, पिउ ! टेका । दीठी-दवँगरा मेरवहु एका ॥

कँवल जो मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ ।
कवहुँ बेलि फिरि पलुहै जौ पिउ सींचै आइ ॥14॥

जेठ जरै जग चलै लुवारा । उठहि बवंडर परहिं अँगारा ॥
बिरह गाजि हनुवंत होइ जागा । लंका-दाह करै तनु लागा ॥
चारिहु पवन झकोरे आगी । लंका दाहि पलंका लागी ॥
दहि भइ साम नदी कालिंदी । बिरह क आगि कठिन अति मंदी ॥
उठै आगि औ आवै आँधी । नैन न सूझ, मरौ दुःख-बाँधी ॥
अधजर भइउ, माँसु तनु सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा ॥
माँसु खाइ सब हाडन्ह लागै । अबहुँ आउ; आवत सुनि भागै ॥

गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रबि सहि न सकहिं वह आगि ।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि ॥15॥

तपै लागि अब जेठ-असाढी । मोहि पिउबिनु छाजनि भइ गाढी ॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा, दुख आगरि जरी ॥
बंध नाहिं औ कंध न कोई । बात न आव कहौं का रोई ?
साँठि नाहिं,जग बात को पूछा ?। बिनु जिउ फिरै मूँज-तनु छूँछा ॥
भइ दुहेली टेक बिहूनी । थाँभ नाहि उठि सकै न थूनी ॥
बरसै मेह, चुवहिं नैनाहा । छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा ॥
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा ?। तुम बिनु कंत न छाजन छाजा ॥

अबहूँ मया-दिस्ट करि, नाह निठुर ! घर आउ ।
मँदिर उजार होत है, नव कै आई बसाउ ॥16॥


रोइ गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा ॥
तिल तिल बरख बरख परि जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई ॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी ॥
साँझ भए झुरु झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा ?
दहि कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ॥
रकत न रहा, बिरह तन गरा । रती रती होइ नैनन्ह ढरा ॥
पाय लागि जोरै धनि हाथा । जारा नेह, जुडावहु, नाथा ॥

बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।
मानुष घर घर बझि कै, बूझै निसरी पंखि ॥17॥

भई पुछार, लीन्ह बनवासू । बैरिनि सवति दीन्ह चिलवाँसू ॥
होइ खर बान बिरह तनु लागा । जौ पिउ आवै उडहि तौ कागा ॥
हारिल भई पंथ मैं सेवा । अब तहँ पठवौं कौन परेवा ?
धौरी पंडुक कहु पिउ नाऊँ । जौं चित रोख न दूसर ठाऊँ ॥
जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा ॥
कोइल भई पुकारति रही । महरि पुकारै `लेइ लेइ दही'
पेड तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा ॥

जेहि पखी के निअर होइ कहै बिरह कै बात ।
सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात ॥18॥

कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई । रकत-आँसु घुँघुची बन बोई ॥
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव ? बिरहा-दुख ताती ॥
जहँ जहँ ठाढि होइ वनबासी । तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी ॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ । गुंजा गूँजि करै `पिउ पीऊ '
तेहि दुख भए परास निपाते । लोहू बुडि उठे होइ राते ॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूँ ॥
दैखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता ?

नहिं पावस ओहि देसरा:नहिं हेवंत बसंत ।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत ॥19॥

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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