सेनापति
1.
सारंग धुनि सुनावै धन रस बरसावै,
मोर मन
हरषावै अति अभिराम है।
जीवन
अधार बड़ी गरज करनहार,
तपति हरनहार
देत मन काम है।।
सीतल
सुभग जाकी छाया जग 'सेनापति'
पावत अधिक
तन मन बिसराम है।
संपै
संग लीने सनमुख तेरे बरसाऊ,
आयौ घनस्याम
सखि मानौं घनस्याम है।।
2. सदा नंदी जाकौं आसा कर है विराजमान,
नीकी घनसार हूँ तैं बरन है तन कौं।
सैन
सुख राखै सुधा दुति जाके सेखर है,
जाके
गौरी की रति को मथन मदन कौं।।
जो
है सब भूतन कौं अन्तर निवासी रमैं,
घरै
उर भोगी भेष धरत नगन कौं।
जानि
बिन कहैं जानि 'सेनापति' कहैं मानि,
बहुधा
उमाधव कौं भेद छाँड़ि मन कौं।।
3. लाल
लाल टेसू फूलि रहे हैं बिलास संग,
स्याम रंग भेटि मानौ मसि में मिलाये हैं।
तहाँ मधु काज आइ बैठे मधुकर पुंज,
मलय
पवन उपवन बन घाये हैं।।
'सेनापति' माधव महीना
मे पलास तरु,
देखि देखि भाव कविता के मन आये हैं।
आधे
अंग सुलगि सुलगी रहे आधे मानौ,
विरही
दहन काम क्वैला परचाये हैं।।
4. वृष को तरनि तेज सहसों किरन करि,
ज्वालन के जाल विकराल बरसत है।
तचति घरनि, जग जरत झरनि, सीरी,
छाँह कौं पकरि पंथी पंछी बिरमत है।।
'सेनापति' नैंक दुपहरि के ढरत, होत
धमका विषम, ज्यौं न पात खरकत है।
मेरे जान पौनौं सीरी ठौर कौं पकरि कौनौं,
घरी
एक बैठि कहूँ घामैं बितवत है।।
5. दामिनी दमक सुरचाप की चमक स्याम,
घटा की अमक अति घोर घनघोरतैं।
कोकिला, कलापी, कल कूँज है जित तित
सीकरतें सीतल समीर की झकोर हैं।।
'सेनापति' आवन कह्यो
है मनभावन सु,
लाग्यो
तरसावन बिरह जुर जोर हैं।
आयो सखि सावन मदन सरसावन सु,
लाग्यो
बरसावन सलिल चहूँ ओर तैं।।
6. सिसिर तुषार के बुखार से उखारत है,
पूस
बीते होत सून हाथ-पाई ठिरि कै।
द्यौस
की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ,
'सेनापति' पाई कछू
सोचि कै सुमिरि कै।।
सीत
तैं सहस कर सहस-चरन है कै,
ऐसे
जात भागि तम आवत है घिरि कै।
जौ
लौं कोक कोकी कौं मिलत तौं लौं होति राति,
कोक
अधबीच ही तैं आवत हैं फिरि कै।।
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