कीन्हेसि
मानुष, दिहेसि बडाई ।
कीन्हेसि अन्न, भुगुति तेहिं पाई ॥
कीन्हेसि
राजा भूँजहिं राजू । कीन्हेसि हस्ति घोर तेहि साजू ॥
कीन्हेसि
दरब गरब जेहि होई । कीन्हेसि लोभ,
अघाइ न कोई ॥
कीन्हेसि
जियन , सदा सब चाहा ।
कीन्हेसि मीचु, न कोई रहा ॥
कीन्हेसि
सुख औ कोटि अनंदू । कीन्हेसि दुख चिंता औ धंदू ॥
कीन्हेसि
कोइ भिखारि, कोइ धनी।कीन्हेसि
सँपति बिपति पुनि घनी।।
कीन्हेसि कोई निभरोसी, कीन्हेसि कोइ बरियार ।
छारहिं
तें सब कीन्हेसि, पुनि कीन्हेसि सब
छार ॥1॥
उस परमात्मा ने मनुष्य का
निर्माण किया और उसे प्रतिष्ठित किया। उसके लिए उसने अन्न तथा अन्य भोज्य पदार्थ
रचे। उसने राजा बनाए जो राज्य का भोग करते हैं। हाथी- घोड़े तथा अन्य ठाट-बाट भी
उसी के बनाए हुए हैं। मानव के लिए उसने अनेक प्रकार की विलास- सामग्री रची। उसने
कुछ मनुष्यों को राजा बनाया और कुछ को उनका सेवक। उसने धन का निर्माण किया जो गर्व
का कारण बना। लोभ भी उसकी सृष्टि है। इस लोभ के कारण मनुष्य की कभी तृप्ति नहीं
होती। उसने सब प्राणियों को जीवन दिया है। जिसकी कामना प्राणी मात्र को सदैव बनी
रहती है। मृत्यु का नियामक भी वही है। प्रत्येक प्राणी इस मृत्यु का शिकार बनता
है। उसने सुख और करोड़ों प्रकार के आनंदो का विधान किया। दुख, चिंता और द्वंद्व का प्रेरक भी
वही है। उसने किसी को भिखारी बना रखा है और किसी को धनी बना रखा है। उसने संपत्ति
और कटु विपत्तियां भी बनाई है। उसने किसी को निराश्रित बनाया है और किसी को आश्रय
देकर महाशक्तिशाली बना दिया। मिट्टी से ही उसने सब वस्तुएं बनाई है और अंत में सब
मिट्टी में ही मिल जाती हैं।
धनपति
उहै जेहिक संसारू । सबै देइ निति,
घट न भँडारू ॥
जावत
जगत हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति राति दिन बाँटा ॥
ताकर
दीठि जो सब उपराहीं । मित्र सत्रु कोइ बिसरै नाहीं ॥
पखि
पतंग न बिसरे कोई । परगट गुपुत जहाँ लगि होई ॥
भोग
भुगुति बहु भाँति उपाई । सबै खवाई,
आप नहिं खाई ॥
ताकर
उहै जो खाना पियना । सब कहँ देइ भुगुति ओ जियना ॥
सबै
आस-हर ताकर आसा । वह न काहु के आस निरासा ॥
जुग
जुग देत घटा नहिं, उभै हाथ अस कीन्ह ।
और
जो दीन्ह जगत महँ सो सब ताकर दीन्ह ॥2॥
इस संसार का स्वामी वह
परमात्मा ही सच्चा धनपति कहलाने का अधिकारी है। वह नित्यप्रति सब को दान देता है
किंतु उसका भंडार कभी खाली नहीं होता। चींटी से लेकर हाथी तक जितने जीव हैं वह
दिन-रात उन्हें भोजन देता है। उसकी दृष्टि सभी प्राणियों के ऊपर रहती है। शत्रु और
मित्र वह किसी को नहीं भूलता है। पक्षी से लेकर पतंगे तक का उसे ध्यान रहता है
।वास्तव में जितने भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जीव हैं उन सब का भर्ता वहीं है। वह
अनेक प्रकार की खाद्य और भोग्य सामग्री उत्पन्न करता है और समस्त प्राणियों को
खिला देता है किंतु स्वयं नहीं खाता। सबको भोजन देना ही उसका अपना भोजन है।
प्रत्येक जीव प्रत्येक साँस में उसी के आश्रित हैं किंतु वह ना किसी से कुछ आशा
करता है और ना किसी से निराशा ही रखता है। वह आशा- निराशा से तटस्थ हैं। वह अपने
दोनों हाथों से युग- युग से बांट रहा है किंतु उसकी विभूति लेश मात्र भी कम नहीं हुई
है। संसार के लोग जो दान देते हैं वह भी सब उसी के दिए हुए दान का भाग है। वह उनकी
अपनी वस्तु नहीं है।
आदि
एक बरनौं सोइ राजा । आदि न अंत राज जेहि छाजा ॥
सदा
सरबदा राज करेई । औ जेहि चहै राज तेहि देई ॥
छत्रहिं
अछत, निछत्रहिं छावा ।
दूसर नाहिं जो सरवरि पावा ॥
परबत
ढाह देख सब लोगू । चाँटहि करै हस्ति-सरि-जोगू ॥
बज्रांह
तिनकहिं मारि उडाई । तिनहि बज्र करि देई बडाई ॥
ताकर
कीन्ह न जानै कोई । करै सोइ जो चित्त न होई ॥
काहू
भोग भुगुति सुख सारा । काहू बहुत भूख दुख मारा ॥
सबै
नास्ति वह अहथिर, ऐस साज जेहि केर ।
एक
साजे औ भाँजै , चहै सँवारै फेर ॥3॥
अलख
अरूप अबरन सो कर्ता । वह सब सों,
सब ओहि सों बर्ता ॥
परगट
गुपुत सो सरबबिआपी । धरमी चीन्ह,
न चीन्है पापी ॥
ना
ओहि पूत न पिता न माता । ना ओहि कुटुब न कोई सँग नाता ॥
जना
न काहु, न कोइ ओहि जना । जहँ
लगि सब ताकर सिरजना ॥
वै
सब कीन्ह जहाँ लगि कोई । वह नहिं कीन्ह काहु कर होई ॥
हुत
पहिले अरु अब है सोई । पुनि सो रहै रहै नहिं कोई ॥
और
जो होइ सो बाउर अंधा । दिन दुइ चारि मरै करि धंधा ॥
जो
चाहा सो कीन्हेसि, करै जो चाहै कीन्ह ।
बरजनहार
न कोई, सबै चाहि जिउ दीन्ह
॥4॥
एहि
विधि चीन्हहु करहु गियानू । जस पुरान महँ लिखा बखानू ॥
जीउ
नाहिं, पै जियै गुसाईं । कर
नाहीं, पै करै सबाईं ॥
जीभ
नाहिं, पै सब किछु बोला ।
तन नाहीं, सब ठाहर डोला ॥
स्रवन
नाहिं, पै सक किछु सुना ।
हिया नाहिं पै सब किछु गुना ॥
नयन
नाहिं, पै सब किछु देखा ।
कौन भाँति अस जाइ बिसेखा ॥
है
नाहीं कोइ ताकर रूपा । ना ओहि सन कोइ आहि अनूपा ॥
ना
ओहि ठाउँ, न ओहि बिनु ठाऊँ ।
रूप रेख बिनु निरमल नाऊ ॥
ना
वह मिला न बेहरा, ऐस रहा भरिपूरि ।
दीठिवंत
कहँ नीयरे, अंध मूरुखहिं दूरि ॥5॥
नागमती
वियोग वर्णन
नागमती
चितउर-पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा ॥
नागर
काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा ॥
सुआ
काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात,
जात बरु जीऊ ॥
भएउ
नरायन बावन करा । राज करत राजा बलि छरा ॥
करन
पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू ॥
मानत
भोग गोपिचंद भोगी । लेइ अपसवा जलंधर जोगी ॥
लेइगा
कृस्नहि गरुड अलोपी । कठिन बिछोह,
जियहिं किमि गोपी?॥
सारस
जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह ?
।
झुरि
झुरि पींजर हौं भई , बिरह काल मोहि दीन्ह
॥1॥
पिउ-बियोग
अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोलै `पिउ पीऊ' ॥
अधिक
काम दाधै सो रामा । हरि लेइ सुबा गएउ पिउ नामा ॥
बिरह
बान तस लाग न डोली । रकत पसीज,
भींजि गइ चोली ॥
सूखा
हिया, हार भा भारी । हरे
हरे प्रान तजहिं सब नारी ॥
खन
एक आव पेट महँ ! साँसा । खनहिं जाइ जिउ,
होइ निरासा ॥
पवन
डोलावहिं, सीचहिं चोला । पहर
एक समुजहिं मुख-बोला ॥
प्रान
पयान होत को राखा ? । को सुनाव पीतम कै
भाखा ?॥
आजि
जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि
हंस
जो रहा सरीर मह, पाँख जरा, गा भागि ॥2॥
पाट-महादेइ
! हिये न हारू । समुझि जीऊ, चित चेतु सँभारू ॥
भौंर
कँवल सँग होइ मेरावा । सँवरि नेह मालति पहँ आवा ॥
पपिहै
स्वाती सौं जस प्रीती । टेकु पियास;
बाँधु मन थीती ॥
धरतहिं
जैस गगन सौं नेहा । पलटि आव बरषा ऋतु मेहा ॥
पुनि
बसंत ऋतु आव नबेली । सो रस, सो मधुकर, सो बेली ॥
जिनि
अस जीव करसि तू बारी । यह तरिबर पुनि उठिहि सँवारी ॥
दिन
दस बिनु जल सूखि बिधंसा । पुनि सोई सरवर,
सोइ हंसा ॥
मिलहिं
जो बिछुरे साजन, अंकस भेंटि अहंत ।
तपनि
मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत ॥3॥
चढा
असाढ, गगन घन गाजा । साजा
बिरह दुंद दल बाजा ॥
धूम, साम, धीरे घन धाए । सेत
धजा बग-पाँति देखाए ॥
खडग-बीजु
चमकै चहुँ ओरा । बुंद-बान बरसहिं घन घोरा ॥
ओनई
घटा आइ चहुँ फेरी । कंत! उबारु मदन हौं घेरी ॥
दादुर
मोर कोकिला, पीऊ । गिरै बीजु,
घट रहै न जीऊ ॥
पुष्प
नखत सिर ऊपर आवा । हौं बिनु नाह,
मँदिर को छाँवा ?॥
अद्रा
लाग, लागि भुइँ लेई ।
मोहिं बिनु पिउ को आदर देई ?॥
जिन्ह
घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब ।
कंत
पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब
॥4॥
सावन
बरस मेह अति पानी । भरनि परी,
हौं बिरह झुरानी ॥
लाग
पुनरबसु पीउ न देखा । भइ बाउरि ,
कहँ कंत सरेखा ॥
रकत
कै आँसु परहिं भुइँ टूटी । रेंगि चली जस बीरबहूटी ॥
सखिन्ह
रचा पिउ संग हिंडोला । हरियारि भूमि,
कुसुंभी चोला ॥
हिय
हिंडोल अस डोलै मोरा । बिरह झुलाइ देइ झकझोरा ॥
बाट
असूझ अथाह गँभीरी । जिउ बाउर,
भा फिरै भँभीरी ॥
जग
जल बूड जहाँ लगि ताकी । मोरि नाव खेवक बिनु थाकी ॥
परबत
समुद, अगम बिच, बीहड घन बनढाँख ।
किमि
कै भेंटौं कंत तुम्ह ? ना मोहि पाँव न पाँख ॥5॥
भा
भादों दूभर अति भारी । कैसे भौंर रैनि अँधियारी ॥
मंदिर
सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा ॥
रहौं
अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी ॥
चमक
बीजु, घन गरजि तरासा ।
बिरह काल होइ जीउ गरासा ॥
बरसै
मघा झकोरि झकोरि । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी ॥
धनि
सूखै भरे भादौं माहाँ । अबहुँ न आएन्हि सीचेन्हि नाहाँ ॥
पुरबा
लाग भूमि जल पूरी । आक जवास भई तस झूरी ॥
थल
जल भरे अपूर सब, धरनि गगन मिलि एक ।
जनि
जोबन अवगाह महँ दे बूडत ,पिउ ! टेक ॥6॥
लाग
कुवार, नीर जग घटा । अबहूँ
आउ, कंत! तन लटा ॥
तोहि
देखे, पिउ ! पलुहै कया ।
उतरा चीतु, बहुरि करु मया ॥
चित्रा
मित्र मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा ॥
उआ
अगस्त, हरित-घन गाजा । तुरय
पलानि चढे रन राजा ॥
स्वाति-बूँद
चातक मुख परे । समुद सीप मोती सब भरे ॥
सरवर
सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं,
खँजन देखाए ॥
भा
परगास, काँस बन फूले । कंत
न फिरे, बिदेसहि भूले ॥
बिरह-हस्ति
तन सालै, घाय करै चित चूर ।
वेगि
आइ, पिउ ! बाजहु,
गाजहु होइ सदूर ॥7॥
कातिक
सरद-चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी ॥
चौदह
करा चाँद परगासा । जनहुँ जरैं सब धरति अकासा ॥
तम
मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद,
खएउ मोहिं राहू ॥
चहूँ
खंड लागै अँधियारा । जौं घर नाहीं कंत पियारा ॥
अबहूँ, निठुर ! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा
॥
सखि
झूमक गावैं अँग मोरी । हौं झुरावँ,
बिछुरी मोरि जोरी ॥
जेहि
घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह,
सवति दुख दूजा ॥
सखि
मानैं तिउहार सब गाइ, देवारी खेलि ।
हौं
का गावौं कंत बिनु, रही छार सिर मेलि
॥8॥
अगहन
दिवस घटा, निसि बाढी । दुभर
रैनि, जाइ किमि गाढी ? ॥
अब
यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती ॥
काँपै
हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ ॥
घर
घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप-रँग लेइगा नाहू ॥
पलटि
त बहुरा गा जो बिछोई । अबहुँ फिरै,
फिरै रँग सोई ॥
वज्र-अगिनि
बिरहिन हिय जारा । सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा ॥
यह
दुख-दगध न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू ॥
पिउ
सौ कहेहु सँदेसडा, हे भौंरा ! हे काग !
सो
धनि बिरहै जरि मुई, तेहि क धुवाँ हम्ह
लाग ॥9॥
पूस
जाड थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा ॥
बिरह
बाढ, दारुन भा सीऊ । कँपि
कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ ॥
कंत
कहाँ लागौं ओहि हियरे । पंथ अपार,
सूझ नहिं नियरे ॥
सौंर
सपेती आवै जूडी । जानहु सेज हिवंचल बूडी ॥
चकई
निसि बिछूरे दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला ॥
रैनि
अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी ॥
बिरह
सचान भएउ तन जाडा । जियत खाइ औ मुए न छाँडा ॥
रकत
ढुरा माँसू गरा, हाड भएउ सब संख ।
धनि
सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहि पंख ॥10॥
लागेउ
माघ, परै अब पाला । बिरह
काल भएउ जड काला ॥
पहल
पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
आइ
सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु
जाड न छूटै माहा ॥
एहि
माह उपजै रसमूलू । तू सो भौंर,
मोर जोबन फूलू ॥
नैन
चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर-चीरू ॥
टप
टप बूँद परहिं जस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला ॥
केहि
क सिंगार, कौ पहिरु पटोरा ।
गीउ न हार, रही होइ डोरा ॥
तुम
बिनु कापै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल ।
तेहि
पर बिरह जराइ कै चहै उढावा झोल ॥11॥
फागुन
पवन झकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा ॥
तन
जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा ॥
तरिवर
झरहि झरहिं बन ढाखा । भइ ओनंत फूलि फरि साखा ॥
करहिं
बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु
करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ
पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस
सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥
यह
तन जारों छार कै, कहौं कि `पवन ! उडाव' ।
मकु
तेहि मारग उडि परै कंत धरै जहँ पाव ॥12॥
चैत
बसंता होइ धमारी । मोहिं लेखे संसार उजारी ॥
पंचम
बिरह पंच सर मारे । रकत रोइ सगरौं बन ढारै ॥
बूडि
उठे सब तरिवर-पाता । भीजि मजीठ,
टेसु बन राता ॥
बौरे
आम फरैं अब लागै । अबहुँ आउ घर,
कंत सभागे ! ॥
सहस
भाव फूलीं बनसपती । मधुकर घूमहिं सँवरि मालती ॥
मोकहँ
फूल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे ॥
फिर
जोबन भए नारँग साखा । सुआ-बिरह अब जाइ न राखा ॥
घिरिन
परेवा होइ, पिउ ! आउ बेगि ,परु टूटि ।
नारि
पराए हाथ है, तोह बिनु पाव न छूटि
॥13॥
भा
बैसाख तपनि अति लागी । चोआ चीर चंदन भा आगि ॥
सूरुज
जरत हिवंचल तअका । बिरह -बजागि सौंह रथ हाँका ॥
जरत
बजागिनि करु, पिउ ! छाहाँ । आइ
बुझाउ, अँगारन्ह माहाँ ॥
तोहि
दरसन होइ सीतल नारी । आइ आगि तें करु फुलवारी ॥
लागिउँ
जरै, जरै जस भारू । फिर
फिर भूंजेसि, तजेउँ न बारू ॥
सरवर-हिया
घटत निति जाई । टूक-टूक होइ कै बिहराई ॥
बिहरत
हिया करहु, पिउ ! टेका ।
दीठी-दवँगरा मेरवहु एका ॥
कँवल
जो मानसर बिनु जल गएउ सुखाइ ।
कवहुँ
बेलि फिरि पलुहै जौ पिउ सींचै आइ ॥14॥
जेठ
जरै जग चलै लुवारा । उठहि बवंडर परहिं अँगारा ॥
बिरह
गाजि हनुवंत होइ जागा । लंका-दाह करै तनु लागा ॥
चारिहु
पवन झकोरे आगी । लंका दाहि पलंका लागी ॥
दहि
भइ साम नदी कालिंदी । बिरह क आगि कठिन अति मंदी ॥
उठै
आगि औ आवै आँधी । नैन न सूझ,
मरौ दुःख-बाँधी ॥
अधजर
भइउ, माँसु तनु सूखा ।
लागेउ बिरह काल होइ भूखा ॥
माँसु
खाइ सब हाडन्ह लागै । अबहुँ आउ;
आवत सुनि भागै ॥
गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रबि सहि न सकहिं वह आगि ।
मुहमद
सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि
॥15॥
तपै
लागि अब जेठ-असाढी । मोहि पिउबिनु छाजनि भइ गाढी ॥
तन
तिनउर भा, झूरौं खरी । भइ बरखा,
दुख आगरि जरी ॥
बंध
नाहिं औ कंध न कोई । बात न आव कहौं का रोई ?॥
साँठि
नाहिं,जग बात को पूछा ?। बिनु जिउ फिरै मूँज-तनु छूँछा ॥
भइ
दुहेली टेक बिहूनी । थाँभ नाहि उठि सकै न थूनी ॥
बरसै
मेह, चुवहिं नैनाहा । छपर
छपर होइ रहि बिनु नाहा ॥
कोरौं
कहाँ ठाट नव साजा ?। तुम बिनु कंत न
छाजन छाजा ॥
अबहूँ
मया-दिस्ट करि, नाह निठुर ! घर आउ ।
मँदिर
उजार होत है, नव कै आई बसाउ ॥16॥
रोइ
गँवाए बारह मासा । सहस सहस दुख एक एक साँसा ॥
तिल
तिल बरख बरख परि जाई । पहर पहर जुग जुग न सेराई ॥
सो
नहिं आवै रूप मुरारी । जासौं पाव सोहाग सुनारी ॥
साँझ
भए झुरु झुरि पथ हेरा । कौनि सो घरी करै पिउ फेरा ?॥
दहि
कोइला भइ कंत सनेहा । तोला माँसु रही नहिं देहा ॥
रकत
न रहा, बिरह तन गरा । रती
रती होइ नैनन्ह ढरा ॥
पाय
लागि जोरै धनि हाथा । जारा नेह,
जुडावहु, नाथा ॥
बरस
दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि ।
मानुष
घर घर बझि कै, बूझै निसरी पंखि
॥17॥
भई
पुछार, लीन्ह बनवासू ।
बैरिनि सवति दीन्ह चिलवाँसू ॥
होइ
खर बान बिरह तनु लागा । जौ पिउ आवै उडहि तौ कागा ॥
हारिल
भई पंथ मैं सेवा । अब तहँ पठवौं कौन परेवा ?॥
धौरी
पंडुक कहु पिउ नाऊँ । जौं चित रोख न दूसर ठाऊँ ॥
जाहि
बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा ॥
कोइल
भई पुकारति रही । महरि पुकारै `लेइ लेइ दही'
पेड
तिलोरी औ जल हंसा । हिरदय पैठि बिरह कटनंसा ॥
जेहि
पखी के निअर होइ कहै बिरह कै बात ।
सोई
पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात
॥18॥
कुहुकि
कुहुकि जस कोइल रोई । रकत-आँसु घुँघुची बन बोई ॥
भइ
करमुखी नैन तन राती । को सेराव ?
बिरहा-दुख ताती ॥
जहँ
जहँ ठाढि होइ वनबासी । तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी ॥
बूँद
बूँद महँ जानहुँ जीऊ । गुंजा गूँजि करै `पिउ पीऊ '॥
तेहि
दुख भए परास निपाते । लोहू बुडि उठे होइ राते ॥
राते
बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक,
फाट हिय गोहूँ ॥
दैखौं
जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता ? ॥
नहिं
पावस ओहि देसरा:नहिं हेवंत बसंत ।
ना
कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत
॥19॥
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