क्रोंचे ने अपने ग्रंथ ‘एस्थेटिक’ नामक
ग्रंथ में दार्शनिक हेगल से प्रभावित होकर अभिव्यंजनावाद सिद्धान्त का प्रतिपादन
किया है। वे काव्य में अभिव्यंजना को ही सर्वस्व स्वीकार करते हैं । उनकी दृष्टि
में अभिव्यंजना सौंदर्य है,और सौंदर्य ही अभिव्यंजना है । सौंदर्य को सन्दर्भ में
क्रोंचे की अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थापना यह है कि सभी मनुष्य कवि हैं, कुछ बड़े और
कुछ छोटे। जिनकी सहजानुभूति या अभिव्यंजना पूर्ण है,वे बड़े कवि हैं और जिनकी
अपूर्ण है वे छोटे कवि। उसके अनुसार अभिव्यंजना,कला या काव्य एक सौंदर्य सृष्टि है
। इसकी सृजन प्रक्रिया की चार अवस्थाएँ हैं-
प्रथम- कल्पना से पड़े प्रभाव की ।
द्वितीय- मानसिक सौंदर्य संश्लेषण की ।
तृतीय- सौंदर्यानुभूति के आनन्द की ।
चतुर्थ-उसकी शारीरिक क्रिया के रूप में
रूपान्तरण की ।
ये चारों अवस्थाएँ जिनकी सहजानुभूति
या अभिव्यंजना के साथ निर्बाध रूप से पूर्ण या सफल होती है, वह बड़ा कवि या कलाकार
होता है, जबकि अन्य कवियों में ये चारों अवस्थाएँ पूर्णता को प्राप्त नहीं होती।
क्रोंचे ने हेगल की विचार प्रक्रिया का समर्थन
किया है लेकिन वह इस बात से सहमत नहीं है कि कला का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
उसके अनुसार वह दर्शन का अनुवर्ती ना होकर पूर्णतः स्वतंत्र है क्योंकि कलाकार के
हाथ में लेखनी, कूची या छेनी आने के पहले ही उसके मन में कला का समावेश हो जाता है
तथा वह अपने समस्त भावावेशों एवं संवेदनाओं को दूर हटा कर किसी कलाकृति का सृजन
करने में प्रवृत्त होता है। अतः उसने अभिव्यंजनावाद के समर्थन में ही सहज ज्ञान
अथवा अंतर्मन की अभिव्यंजना को कला स्वीकार् किया है।
क्रोंचे ने कला का संबंध स्वयंप्रकाश ज्ञान से
माना है जिसे सहजानुभूति कहा है। उसके अनुसार सहजानुभूति प्रत्यक्ष बोध है अर्थात
वस्तु का यथार्थ या वास्तविक ज्ञान। क्रोंचे की सौंदर्य शास्त्र में कला सहजानुभूति
का पर्याय है ।क्रोंचे की भाषा में कहें तो कला सहजानुभूति की अभिव्यंजना है। उनके
इस सौंदर्य शास्त्रीय प्रणाली में कला सहानुभूति और अभिव्यंजना तीनों पर्याय हैं।
कलाकार तथा सामान्य
व्यक्ति को सहजानुभूति में अंतर स्पष्ट करते हुए क्रोचे कहते हैं कि कलाकार इसलिए
कलाकार है कि वह उन चीजों को देखता है जिन्हें दूसरे लोग केवल महसूस करते हैं या
उसकी थोड़ी सी झलक पा जाते हैं।लेकिन उन्हें देखते नहीं। हममें से प्रत्येक के
अन्दर कवि, मूर्तिकार,संगीतज्ञ,चित्रकार अथवा गद्यलेखक का थोड़ा सा अंश विद्यमान
है। लेकिन इन कलाकारों की तुलना में वह न्यून होता है क्योंकि इन कलाकारों में
मानव-प्रकृति की अत्यन्त सार्वभौतिक प्रवृत्तियाँ या शक्तियाँ उत्कृष्ट मात्रा में
विद्यमान रहती हैं फिर भी यह न्यून रूप हमारी सहजानुभूतियों का वास्तविक स्रोत
है,अन्य सब तो आवेग मात्र हैं जिन्हें मनुष्य आत्मसात् नहीं कर सकता। अतः
सहजानुभूतिजन्य ज्ञान अभिव्यंजनात्मक ज्ञान है। सहजानुभूति का होना अभिव्यंजित
होना है-सिर्फ अभिव्यंजित होना,न इसमें कुछ और अधिक और न कम।(एस्थेटिक,पृ0 11)
क्रोंचे के अनुसार प्रतिभा ज्ञान और
अभिव्यंजना दोनों एक ही क्षण में एक साथ उत्पन्न होते हैं, दोनों एक हैं- दो नहीं।
उनकी दृष्टि में प्रतिम ज्ञान की कला है और कला प्रतिम ज्ञान अर्थात कला प्रतिम
ज्ञान है और प्रतिभा ज्ञान अभिव्यंजना है। अतः कला अभिव्यंजना है और अभिव्यंजना
कला है। उसके अनुसार वे लोग सही नहीं है जो काव्य को अभिव्यंजना मानते हैं और
अभिव्यंजना को काव्य नहीं मानते।
अभिव्यंजना को स्पष्ट करता हुआ क्रोचे कहता है कि अभिव्यंजनात्मक क्रिया मन की बहक
नहीं वरन एक आत्मिक आवश्यकता है। इसीलिए वह किसी कला वस्तु को एक ढंग से प्रस्तुत
कर सकती है और वही सही ढंग होता है। अर्थात कवि अपनी आंतरिक प्रेरणा से ही
अभिव्यंजना करता है। प्रेरणा अभिव्यंजना मुक्त होती है। अतः आंतरिक प्रेरणा
अभिव्यंजना की प्रमुख विशेषता है। यह यह प्रेरणा कल्पना की समानार्थी है।
मन की सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक दो
क्रिया होने के कारण वह अभिव्यंजना के दो भेद आंतरिक अभिव्यंजना और वाह्य
अभिव्यंजना स्वीकार करता है। इस क्रम में वह आंतरिक अभिव्यंजना को काव्य मानता है, जबकि बाह्य अभिव्यंजना को काव्य स्वीकार नहीं
करता क्योंकि काव्य अंतर्मन की रचना है।
अभिव्यंजना को क्रोचे मुक्त प्रेरणा मानता है
अर्थात वह कवि की इच्छा पर निर्भर नहीं है। कवि को इस बात का ज्ञान तो रहता है कि
उसके मन में अभिव्यंजना उत्पन्न हो रही है लेकिन वह विवश होता है ना तो वह उसे रोक
सकता है और न उसके लिए शीघ्रता कर सकता है क्योंकि उसकी दृष्टि में यह आत्मा की
प्रतिभा क्रिया है। उसमें किसी भी प्रकार के चयन का विकल्प नहीं है। इसलिए वह
प्रत्येक अभिव्यंजना को काव्य कला स्वीकार करता है। अतः क्रोचे की दृष्टि में
प्रत्येक वस्तु काव्य का विषय बन सकता है और प्रत्येक वस्तु की अभिव्यंजना काव्य
है। यह दृष्टि वस्तुतः क्रोचे के अभिव्यंजनावाद सिद्धांत का प्रमुख आधार है।
वस्तु एवं रूप के संबंध में वह कहता है कि जिनका यह मत कि काव्य केवल वस्तु
है और जो काव्य को वस्तु एवं रूप का योग मानते हैं,
हमारे विचार से वे सभी गलत हैं। काव्य में अभिव्यंजना वस्तु के साथ
जोड़ी नहीं जाती वरन् मन द्वारा सहजानुभूति को अभिव्यंजना में बदल दिया जाता है।
अभिव्यंजना में अनुभूतियाँ इस प्रकार पुनः व्यक्त होती है जिस प्रकार फिल्टर से छनकर
पानी वही होता हुआ भी, अपने पूर्वरूप से भिन्न रूप में प्रकट होता है। एस्थेटिक,
पृष्ठ 37) अर्थात जिस प्रकार फिल्टर से छान लेने पर पानी तो वही रहता है जो वह
पहले था फिर भी उस में कुछ परिवर्तन हो जाता है और इसी प्रकार कवि का मन सहजानुभूतियों
को कल्पना के सहारे जब ढालता है तो वह पूर्ववत होती हुई भी सर्वथा नवीन हो जाती है।
क्रोंचे ने अभिव्यंजना को फिल्टर की उपमा प्रदान
करके अपनी अभिव्यंजना सिद्धांत को अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है। अभिव्यंजना
के कारण सहजानुभूति का स्वरूप यथावत नहीं रह जाता वरन् उसमें कुछ परिवर्तन हो जाता
है। सहजानुभूति का यह परिवर्तित रूप ही प्रमुख स्थिति है और यही परिवर्तित सहजानुभूति
ही अभिव्यंजना है।
अतः जब भी क्रोंचे ने काव्य को सहजानुभूति न
कहकर अभिव्यंजना कहा तो उसका तात्पर्य यह है कि काव्य सहजानुभूति नहीं वरन्
अभिव्यंजना युक्त सहजानुभूति है। वह अभिव्यंजना को लौकिक नहीं मानता लेकिन उसे अखण्ड
और अविभाज्य स्वीकार करता है। उसे किसी भी रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता
क्योंकि उसकी दृष्टि में वर्गीकरण कृति या अभिव्यंजना को मृतप्राय बना देती है।
उसका नैतिकता से भी कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि उसकी दृष्टि में यदि कलाकार धूर्त,ठग
और पाखंडी है तो वह इन्हें कला द्वारा प्रदर्शित कर अपनी शुद्धि कर लेता है। यदि
कला की सच्चाई का अर्थ है, अभिव्यक्ति की पूर्णता तो स्पष्ट है कि नैतिकता से उसका
कोई संबंध नहीं हो सकता। वस्तुतः
अभिव्यंजना का संबंध मन की क्रिया से है- जो व्यक्ति की आध्यात्मिक आवश्यकता है।
इसलिए क्रोंचे ने इस सहजानुभूति या सहजज्ञान के रूप में स्वीकार किया है। क्रोंचे
ने कला को मानव की एक सहज मानसिक क्रिया के रूप में मान्यता दे कर उसकी अखंडता और
शाश्वत सत्ता को प्रमाणित किया है परंतु पूर्ण काव्य जो शाश्वत अखण्ड वस्तु है,
दुर्लभ है। इस प्रकार क्रोंचे अभिव्यंजना सिद्धांत द्वारा काव्य और कला को देखने
समझने की एक दृष्टि प्रदान करता है।
निष्कर्ष रूप से कह सकते हैं कि क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद
के द्वारा कलावाद को परिमार्जित किया है। उसने सौंदर्यशास्त्र का पृथक अस्तित्व
निर्धारित कर कलावादी सिद्धांत की शुद्धता को भी प्रमाणित किया है। सहानुभूति को
अभिव्यंजना प्रतिपादित कर उसने उसे सौंदर्यात्मक अथवा कलात्मक तथ्य से अभिन्न
बताया है। इसलिए उसने प्रतिभा को अलौकिक शक्ति मानने से इंकार कर दिया और केवल सफल
व्यक्ति को अभिव्यंजना माना है। उसका यह मत कलावादियों के लिए एक विशेष आधार है कि
कला अभिव्यंजना है और सभी अभिव्यंजनाएँ कला हैं। यह वैयक्तिक होती है और उसकी
पुनरावृत्ति नहीं होती। लेकिन कल्पना की सार्वभौमिकता के कारण समान बिंब विभिन्न
व्यक्तियों के मन में उसी सहजानुभूति को उत्पन्न करती है।
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