रिचर्ड्स का मूल्य सिद्धान्त


आधुनिक पाश्चात्य आलोचना में आई. ए. रिचर्ड्स का महत्वपूर्ण स्थान है। वे मूलतः मनोवैज्ञानिक तथा मूल्यवादी समीक्षक हैं अतः उनका साहित्यिक विवेचन मनोविज्ञान के धरातल पर है । इसी दृष्टि से उन्होंने ब्रैडले के ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त का खण्डन करते हुए मूल्य सिद्धान्त की स्थापना की है । रिचर्ड्स का मत है कि आज जब प्राचीन परम्पराएँ टूट रही हैं और मूल्य विघटित हो रहे हैं,तब सभ्य समाज, कला और कविता के सहारे ही अपनी मानसिक व्यवस्था और सन्तुलन बनाए रख सकता है। रिचर्ड्स के विचार से साहित्य समीक्षा का सिद्धान्त दो स्तम्भों पर टिका होना चाहिए-एक मूल्य और दूसरा संप्रेषण ।
            रिचर्ड्स कहता है कि समाज में मूल्यों की स्थापना अधिकांश व्यक्तियों को बिना किसी पारस्परिक विरोध के उनकी प्रमुख प्रेरणाओं को संतुष्ट करने के लिए होती हैं। इसके लिए जो नियम बनते हैं,उन्हें नैतिक नियम कहते हैं। वस्तुतः नैतिक या अच्छा या मूल्यवान का अर्थ है जो सर्वाधिक प्रेरणात्मक हो। इस सम्बन्ध में रिचर्ड्स कहता है कि कोई भी वस्तु जो किसी एक इच्छा को इस प्रकार शान्त करती है कि उससे उसके समान या अधिक महत्वपूर्ण इच्छा का अवरोध नहीं होता-मूल्यवान है।अथवा दूसरे शब्दों में किसी इच्छा को यदि तुष्ट करने नहीं दिया जाता तो उसका केवल यहीं आधार हो सकता है कि वैसा करने से उससे भी अधिक महत्वपूर्ण इच्छाएँ कुंठित हो जायेंगी । इसी प्रकार व्यक्ति या जाति के द्वारा अनुमोदित (इच्छा पूर्ति) की प्राथमिकता पर आधारित सामान्य योजना की ही अभिव्यक्ति नैतिकता या नियमों के रूप में होती है। (प्रिंसिपल आफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म- पेज-38)
                      रिचर्ड्स की दृष्टि में कलाकार का काम उन अनुभूतियों को अंकित कर चिरस्थायी बना देना होता है जिन्हे वह सबसे अधिक मूल्यवान समझता है और वही ऐसा आदमी होता है जिसके पास अंकनीय मूल्यवान अनुभूतियाँ होने की सबसे अधिक संभावना होती है। कलाकार वह विन्दु है जहाँ मन का विकास सुव्यक्त हो उठता है। उसकी अनुभूतियों में कम-से-कम उन अनुभूतियों में जो उसकी कृति को मूल्यवान बनती है – ऐसे आवेगों का सामंजस्य लक्षित होता है जो अधिकांश लोगों के मन में अस्त-व्यस्त परस्पर, अन्तर्भूत तथा द्वन्द्वरत के रूप में हुआ करते है जो अधिकांश लोगो के मन में अव्यवस्थित रूप में विद्यमान होते हैं और उनकी कृत उसी को व्यवस्था देती है।
            रिचर्ड्स कविता को एक मानवीय व्यवहार मानता है जो व्यक्तियों को प्रभावित करने का कार्य करती है। इसलिए जो कोई उसका मनुष्यों के सम्बन्ध में मूल्यांकन करता है, वही उचित मूल्यांकन करने में समर्थ भी होता है। कला की अनुभूति असाधारण अनुभूति नहीं होती वरन् किसी कविता को पढ़कर या किसी चित्र को देखकर हमारे अन्दर जीवविज्ञान सम्बन्धी (बायोलॉजिकल) पररिवर्तन होता है, लोकोत्तर आनन्द प्राप्त नहीं होता। अतः आवेगों के सामंजस्य और संतुलन की स्थिति ही सौन्दर्यानुभूति है जो मूल्यों के अनुसार श्रेष्ठ या हीन होती है ।
            उनकी दृष्टि में आलोचना दो बातों पर टिकी होकी है – एक मूल्य, दूसरा उसकी सम्प्रेषणतक्षमता। कला मूल्यों के साथ रहती है क्योंकी वे महान पुरुषों के जीवन की क्षणों से उद्भूत होती है और उन्हें स्थायी बनाने का कार्य करती है उन क्षणों को जब उनका अनुभव पर अधिकार और प्रभाव सर्वोच्च है उन क्षणों की अस्तित्व को बदलती हुयी संभावनाएँ स्पष्ट दिखाई देती हैं और एक स्थिति के बाद उसमें सुन्दर समन्वय हो जाता है जो एक उत्कृष्ट रचना को जन्म देती है। वस्तुतः कलाएँ हमें यह निर्णय करने के लिए उत्तम आँकड़ें प्रस्तुत करती है कि हमारे कौन से अनुभव अन्य अनुभवों से अधिक मूल्यवान है ।
            इसके साथ ही, प्रश्न यह उठाया गया की यदि सफल कविताओंमें मनोवेगों का संतुलन निष्फल होता तो एक सफल कविताएँ समान रूप से श्रेष्ट है या उन सब में मनोवेगों के संतुलन की स्थितिसमान होती है इसके उत्तर में कहा गया कि मनोवेगों के संतुलन की अवस्था मेंअन्तर होता है।रिचर्ड्स मनोवेगों के संतुलन के दो रूप मानता है। मनोवेगों के समाहार द्वारा जहाँ अनेक मनोवेगों का समाहार या समावेश होता है। दूसरा -मनोवेगों के बहिष्कार द्वारा जहाँ कुछ सीमित मनोवेगों को स्वीकार किया जाता है तथा अधिकांश मनोवेगों का बहिष्कार किया जाता है। वह मनोवेगों के संतुलन को एक जटिल प्रक्रिया मानत हुआ कहता है कि इसकी सूक्ष्म एवं जटिल क्रिया के सभी पक्षों को पूरी तरह समझ पाना संभव नहीं है। उसके अनुसार इसका काऱण यह है कि मनोविज्ञान एवं मनोविश्लेषण के विकास के बावजूद भी मन की विविध क्रियाओं को वृत्तियों एवं मनोवेगों के उदय संघर्ष और समन्विति की पूर्ण वैज्ञानिक एवं वस्तुपरक व्याख्या संभव नहीं है क्योकि इसकी सीमा सीमित एवं स्पष्ट है ।
            रिचर्ड्स की दृष्टि में मन की स्थितियाँ सर्वाधिक मूल्यवान होती है। जिनमें मानवीय क्रियाओं की सर्वाधिक और सर्वोत्कृष्ट संगति स्थापित होती है तथा माँगों के अनुसार उसमें कम अधिक तथा रुचि-अरुचि की स्थिति आती है। व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में जीवन का सम्भव मूल्य किस प्रकार  उपलब्ध किया जा सकता है, यह माँगों की संगतिपूर्ण व्यवस्था पर निर्भर है। बिना ऐसी व्यवस्था के मूल्य समाप्त हो जाते हैं क्योंकि अवस्था की दशा में महत्वपूर्ण और तुच्छ दोनों प्रकार की माँगे असन्तुष्ट रह जाती हैं ।
यही स्थिति साहित्यिक मूल्य की भी होती है। भाव उत्पन्न करना ही साहित्य का मूल्य नहीं है। भाव मुख्य रूप से मन की प्रवृत्तियों के लक्षण मात्र होते हैं और इसलिए उनका कला में महत्त्व है। अनुभव के द्वारा जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न की जाती है, उन्हीं का वास्तविक महत्त्व है। इन प्रवृत्तियों की संघटना और रूप पर उस अनुभव (मानसिक-क्रिया) का मूल्य निर्भर होता है। अनुभव के समय हममें जिस उत्कृष्टता एवं चेतना का बोध होता है, उसका मूल्य नहीं है वरन् उसका मूल्य उसके उपरान्त होने वाली किसी एक या अन्य प्रकार की तत्परता पर निर्भर होता है अर्थात् किसी भी संवेदना का मूल्य उसके परवर्ती प्रभाव से आँका जाना चाहिए क्योंकि उसके द्वारा मन के गठन में स्थायी परिवर्तन होता है और साहित्य उन सभी साधनों में सर्वाधिक सशक्त साधन होता है, जिनके द्वारा मानवीय अनुभूतियों के क्षेत्र को व्यापक बनाया जा सकता है।

अतः रिचर्ड्स मनोविज्ञान को आधर बनाकर मूल्य सिद्धान्त की स्थापना करता है। उसकी दृष्टि में मूल्य का जो महत्त्व मानवीय क्रियाओं के अन्य क्षेत्रों में उपयुक्त है, वही साहित्य के क्षेत्र में भी उपयुक्त है। अतः वह सामान्य मानदण्ड है अर्थात् साहित्य के मूल्य का कोई विशिष्ट मानदण्ड नहीं होता है। साहित्य रचना एक मानवीय क्रिया है। अतः उसके मूल्य के मान वही सारी सामाजिक आवश्यकताएं हैं जो समाज में सभी मनुष्य के लिए काम्य हैं।


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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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