प्रतिशोध पाठ 16-भीष्म का शिखण्डी से सामना

 भीष्म का शिखण्डी से सामना

            आज महाभारत का दशवाँ दिन है। नित्य की भाँति महात्मा भीष्म ने सेना की व्यूह-रचना करके मुख्य मार्ग पर अपना मोर्चा सँभाल लिया। पाण्डव सेनापति ने भी जवाबी हमला करने के लिए अपने महारथियों को निर्देशित किया। सबने सेनापति के निर्देश का पालन करते हुए युद्ध प्रारम्भ कर दिया। आज कपिध्वज के नीचे रथ की ओर सभी लोगों की निगाह विशेष रूपेण आकर्षित थी। कारण कि आज दो महारथी एक ही रथ पर आरुढ़ होकर रणाङ्गण में जूझने जा रहे हैं। आज माधव के रथ पर अर्जुन के साथ शिखण्डी भी आरुढ़ होकर रणभूमि पर विचरण कर रहा है। इस दृश्य को देखकर सभी को कुतूहल हो रहा था। व्यूह के मुख्य भाग पर भीम और भीष्म का भयानक युद्ध चल रहा था। कल की घटना से पितामह आज खिन्न थे। अनमनस्क होकर भीम का वात कर रहे थे। माधव ने आज करीब प्रत्येक क्षेत्र में लड़ रहे सेनानायकों " हा महारथियों से दो-दो हाथ कराया। युद्ध करते हुए दोपहर बीत गया। अपने रण-कौशल का प्रदर्शन करते हुए दोनों ही महारथियों से अचानक भीष्म का सामना हो गया। एकाएक भीष्म की आँखों को जैसे विश्वास ही
नहीं हो पा रहा था। प्रत्यय होने पर भीष्म ने अपना धनुष चलाना बन्द कर दिया।
          भीष्म को लक्ष्य करके शिखण्डी एवं अर्जुन ने वाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी। मत्त गजराज की तरह भीष्म बिना किसी प्रतिरोध के उनके वाणों को निस्पन्द झेलते रहे। अर्जुन ने सहस्रों वाण फेंकने के बाद अपनी ओर एक भी वाण न देखकर श्रीकृष्ण से कहा-माधवयह क्या अनर्थ हैपितामह तो युद्ध से विरत हैं। यह तो धर्म नहीं है कि युद्ध न करने वाले पर इस तरह वाण-वर्षा की जाय। शिखण्डी पागल की भाँति पितामह को अपने बाणों से बींधता रहा। आज पितामह का मुख-मण्डल अपूर्व आभा से चमक रहा था। उन्होंने
स्वगत कहा-अब मुझे वाणों से पीड़ा हो रही है। मुझे पीड़ित करने वाले ये विशिख शिखण्डी के नहीं थेवरन् ये कराल-वाण तो मेरे प्रिय अर्जुन के ही थे। दूसरों के बाण मुझे कदापि पीड़ा देने वाले नहीं हो सकते । जैसे—केकड़ी अपने बच्चों के प्रजनन से ही निज मृत्यु को प्राप्त हो जाती हैवैसे ही अर्जुन के वाण ही मेरे मर्म-स्थलों को बींध रहे थे। इसका अनुभव मुझे तब हुआ जबकि अर्जुन ने वाण बरसाना बन्द कर दिया।
          भीष्म अप्रतिम आभा विखेरते हुए श्रीकृष्ण से बोले-वासुदेवअपने प्रिय सखा को यह निर्देश दें कि रण-भूमि में मुझे वीरोचित मरण देकर जग में सुयश ले। इस प्रकार का रणभूमि में व्यामोह उचित नहीं है। विजय किसी भी कीमत पर वीरों को अभीप्सित है। बिना किसी संकोच के अपने तीक्ष्ण वाणों से मेरा प्राणान्त कर दे। शिखण्डी के वाण मुझे कदापि नहीं धराशायी। कर सकेंगे। कहीं मत्त गजकेशरी को लाठी से वश में किया जा सकता है? भीष्म की बात पर ध्यान न देते हुए माधव ने कुटिल मुस्कान विखेरकर अर्जुन
से कहा-पार्थकिस सोच में डूबे हो पितामह पर प्रचण्डं वाण-वर्षा कर विजय-बाधा अविलम्ब दूर करो। इनसे मुक्ति के लिए दूसरा उपाय नहीं है। रणाङ्गण में इस प्रकार का व्यामोह तुम्हें शोभा नहीं दे रहा है। भीष्म परम् भागवत हैं। वे सब जानते हैं। इसका दोष वे तुम्हें कदापि नहीं देंगे। तुमने मुझे वचन दिया है कि जो कुछ मैं कहूँगा उसे बिना विचारे ही स्वीकार करोगे । न्याय, अन्यायउचित-अनुचितपाप-पुण्य का द्वन्द्व इस समय व्यर्थ है। अनासक्त मन से युद्ध करना ही वर्तमान में सर्वोत्तम है। सभी द्वन्द्व सम्प्रति मुझे
समर्पित करके एकमात्र युद्ध करो–यही मेरा आदेश है।
          भगवान से इस प्रकार उत्साहित किये जाने पर अर्जुन ने संकोच त्यागकर पुनः भीष्म पर वाणों की झड़ी लगा दी। शिखण्डी के वाणों से अनाहत भीष्म ने अब समझ लिया कि अर्जुन द्वारा व्यवहृत विषाक्त दिव्यास्त्रों से मेरा बचना सम्भव नहीं है। उन्होंने प्राणों का मोह त्यागकर भगवान वासुदेव की मन ही मन प्रशंसा करते हुए कोटि नमन किया।
          दिन के तीसरे प्रहर में भीष्म का आभामय मुखमण्डल दर्शनीय बन गया था। कोटिशः सूर्य का प्रकाश उनके शरीर को देदीप्यमान कर रहा था। रक्त- रञ्जित तन को देखकर अस्ताचल की छटा लज्जित हो रही थी। सहसा उनके मुख से निकला-वासुदेव की जय और वे रथ से नीचे लुढ़क गये। शरीर पर असंख्य वाण इस रूप में बिंधे हुए थे कि पृथ्वी से ऊपर ही शर-सय्या लग चुकी थी। इस पर उनका विक्षत तन लेटा हुआ था। दोनों तरफ हाहाकार मच गया। युद्ध तत्काल बन्द हो गया। उभयतः प्रमुख लोग इकट्ठे हो गये। सबके बदन मलीन थे। लोगों के मुख पर अपराध-बोध झलक रहा था। सब ओर अजीब खामोशी छायी थी। भीष्म ने दर्द से कराह भर कर कहा-मेरा शिर नीचे लटक रहा है। इसे कोई सहारा दो। अपने-अपने शिविरों से रेशमी उपधान लिये लोग दौड़ पड़े। अपराधी मुद्रा में एक तरफ दुबके हुए अर्जुन को सम्बोधित कर भीष्म ने कहा-वत्स! मुझ वीरोचित तकिया तुम लगाओ। भीष्म की स्नेहिल वाणी सुनकर अर्जुन की आँखों से वारि-धारा बह निकली। न्होंने अपने तरकस से तीन बाण निकालकर पितामह के शिर को सहारा
था। उनका उन्नत भाल अब सबको देख रहा था। उन्होंने कहा आज से युद्ध बन्द कर दो। मेरी आहति से ही तुम सब यह सीख लो कि युद्ध का अन्त विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। चारो तरफ कोई भी हलचल नहीं हुई। भीष्म ने कहा अर्जुनमुझे प्यास लगी है। पार्थ ने एक बाण मारा जिससे पाताल-गंगा प्रकट होकर स्वतः भीष्म के मुख में गिरकर उनकी पिपासा शान्त की।
          भीष्म ने कहा विधाता की गति बड़ी ही कुटिल है। होनी को कौन टाल सकता है। अभी सूर्य उत्तरायण नहीं है। अतः मैं शरीर नहीं त्यागना चाहता। इसी कुरुक्षेत्र में शरशय्या समेत मुझे कहीं सुरक्षित रख दो। तुम सभी शाम को आकर युद्ध समाचार देते रहना। मैं भी तब तक अपना प्रायश्चित करता हुआ प्राण नहीं विसर्जित करूंगा। धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ने लगा। लोगों ने अपने- अपने शिविर के लिए प्रस्थान किया।
          सबके चले जाने के बाद कर्ण आयो । उसने हाथ जोड़कर पितामह के पैर के पास खड़ा होकर कहा-हे गंगानंदनमेरे पितामह ! मैंने जीवनभर आपका सम्मान किया और बदले में आपसे तिरस्कार ही पाया। आपकी तरह मैंने भी परशुराम से दिव्यास्त्रों की शिक्षा पाई है। अपने सेनापतित्व में मुझे लड़ने से वंचित कर आपने क्या पायाकर्ण की बात सुनकर भीष्म का गला भर आया। वे बोले वत्सतुम मुझे अर्जुन के समान ही प्रिय हो। मैं तुम्हें और अर्जुन दोनों को बचाना चाहता था। अब तुम और अर्जुन में से एक ही बच पायेगा। अब किसका बस है। हम सभी नियति के खिलौने हैं। तुम भी कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र होकर भी किस तरह काल-चक्र में फँस गये हो। तुम्हारे ऊपर दुर्योधन को हमसे अधिक भरोसा है। मैं उससे उभय पक्ष की हितकर बात करता हूँ जो उसे स्वीकार्य नहीं है। तुम उसके उपकारों से बाध्य होकर समर्पण की भावना से काम कर रहे हो। मैं आज भी अगर युधिष्ठिर से तुम्हारा परिचय करा दें तो युद्ध विराम हो सकता है। वह अपना राज्य बिना विचार किये तुम्हें सौंप देगा और तुम उसे दुर्योधन को अविलम्ब हस्तान्तरित करके प्रत्युपकार कर सकोगे। क्या यह उचित होगा। कहो मैं तुम्हारा अभिमत जानना चाहता हूँ। कर्ण अवरुद्ध गले से बोला-पितामह मैं आपकी भावना से
अवगत हूँ। आप तो सभी के पितामह हैं। आप पर हम सभी का समान अधिकार है और आप भी उसी प्रकार सबको समान दृष्टि से देखते हैं। मैं भी देवोपम पाण्डवों का विरोधी नहीं हूँ। युधिष्ठिर को मैं भली-भाँति जानता हूँ। श्रीकृष्ण और माता कुन्ती भी मुझे इस रहस्य को बता चुके हैं। उन दोनों से मैंने. यह वचन लिया है कि कृपया इस रहस्य को धर्मराज से न बतायें। इस प्रकार की अनेक बातें होने पर पितामह ने कर्ण से संप्रेम कहा-जाओ वत्स! अपने कर्तव्य का पालन करो।
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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