महाप्रस्थान का समय आ ही गया। सभी ऋषि समुदाय के उपस्थित हो जाने पर महात्मा भीष्म ने भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करना प्रारम्भ किया। उस परम ब्रह्म को देवता, महर्षि एवं विद्वान् गण भी नहीं जान सकते। उसको मात्र विधाता एवं नारायण हरि ही जानते हैं। उस परम् अविनाशी को नारायण, महर्षि, सिद्ध, देवता, नारद जैसे कुछ तत्त्वज्ञ ही जान सकते हैं। त्रिकालज्ञ शम्भू के अतिरिक्त शेष देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, गुह्यक, पन्नगादि स्वयं नहीं जानते कि ईश्वर कौन है? जिसमें विश्व भर के जीव-जन्तु निवास करते हैं एवं मृत्यु के पश्चात् प्रवेश करते हैं। सभी एक सूत्र में गुँथे मणिमाला की भाँति चराचर स्वामी के किसी न किसी भाँति सम्पर्क में बने रहते हैं। इस परमात्मा के हजार शिर हैं, सहस्त्र पैर हैं, हजार नेत्र हैं, सहस्त्रबाहु हैं एवं हजारों मुख पर मुकुट देदीप्यमान हैं, जिनसे अद्भुत आभा विकीर्ण हो रही है। उसे नारायण कहा गया है। वह अणु-परमाणु सबमें व्याप्त है। वह परम् गरिष्ठ, परम् श्रेयष्कर है। वेद, उपनिषद् उसे इदमिथं नहीं जानते। वह त्रिगुणातीत हैं। जिनकी दिव्य देव अर्चना करते हैं। गुह्य लोग परम् नाम का जप करते हैं। जिनकी प्राप्ति हेतु तपस्वी लोग तप करते हैं, जिनको तत्त्ववेत्ता सबकी आत्मा मानते हैं। वे ही स्वयं देवकी और वासुदेव के अंश से जन्म लिये हैं। अपने अति बुद्धि एवं उत्कण्ठ आत्मा वाले उसे ही प्रजापति के रूप में, पुराणों में परम् पुरुष, युगादि में ब्रह्म के नाम से जानते हैं। कर्म प्रधान भक्त अपनी समस्त कामनाओं की प्राप्ति हेतु यजन करते हैं। जिन्हें जगत् का कोश कहा गया है। जिसमें सभी लोग निवास करते हैं। जिसमें समस्त लोक तैरा करते हैं। जैसे-जल में जलपक्षी तैरते हैं। वही एक अक्षर ब्रह्म है जो सत् एवं असत् से परे है। सिद्ध ऋषि, महोरग, सुरासुर कोई भी उसके आदि-अन्त, मध्य को नहीं जानते। दैत्यों के नाश के लिए स्वर्णमय आभायुक्त अदिति के गर्भ से जिसने सूर्य के रूप में जन्म लिया उसे नमस्कार है। शुक्ल पक्ष में देवताओं को एवं कृष्ण पक्ष में पितरों को जो अमृत रूप से तृप्त करता है जो द्विजातियों का राजा है, उस सोम स्वरूप को नमस्कार है। परम् ज्ञाता विप्र समुदाय द्वारा जिसका स्तवन किया जाता है उस वेद स्वरूप को नमस्कार है। यज्ञ, होता, ऋत्विज, स्तोत्र में उसी का नमस्कार है।
जिसने वाराह रूप धारण कर पृथ्वी का उद्धार किया था, उसको नमस्कार है। जो योग-निद्रा में निमग्न शेषनागरूपी पर्यङ्क पर सोया करता है उस निद्रास्वरूप को जमन है। जो नाना धर्मों में पृथकजनों से पूजित है, उस धर्मस्वरूप को कोटिशः नमन है। जो अनंग रूप से प्राणियों में विद्यमान रहकर परस्पर आकर्षण का कारण बनता है, उस कामात्मन् को नमन है। सांख्य, योग, मोक्ष, माया, घोरादि अनेक रूपों में जिसको पूजा होती है उसको नमस्कार है। जो ब्रह्म मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, उदर से वैश्य एवं पैर से शूद्र की उत्पत्ति का कारण बना उस वर्णात्मक स्वरूप को नमन है। जो प्राण, इन्द्रिय, पाचन, ओज, मोह, ज्ञान, रुद्र, शान्तादि रूप में दृश्यमान है, उन सभी को नमस्कार है। आपके सनातन रूप को भी नमस्कार है। हृषीकेश परम् पुरुष अमित तेजस्वी भगवान आपको बारम्बार प्रणाम है। जो पीताम्बरधारी गोविन्द को प्रणाम करता है, उसे संसार में किसी तरह का भय नहीं रहता।
कृष्ण को एक बार प्रणाम करने मात्र से दस अश्वमेध यज्ञ के अवभृ स्नान का फल प्राप्त होता है। दशाश्वमेध करने वालों का जन्म सम्भव है किन्तु कृष्ण को प्रणाम करने वाले का पुनर्जन्म असम्भव है। श्रीकृष्ण जन्माष्टम का व्रत करने वाले श्रीकृष्ण का स्मरण करके जो रात्रि में शयन एवं प्रात उठकर कृष्ण का नमन करते हैं, वे कृष्ण में वैसे ही प्रवेश करते हैं जैसे अगि में घी आहुति के साथ मिल जाता है। नरक के सन्त्रास से डरे हुए के लिए रक्षामण्डल एवं संसार सागर में डूबने वाले को नौका स्वरूप विष्णु वअधस्कार है। ब्राहाणों को देव स्वरूप मानने वाले, गो ब्राह्मण के हित की रक्षा एवं जगत् के हित करने वाले श्रीकृष्ण को नमस्कार है। नारायण ही परम् देवता है, वे ही परम् तप हैं, वे ही परम् ब्रा हैं। भीष्म की हार्दिक स्तुति सुनकर समस्त ऋषिगण परम् हर्षित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे।
भीष्म के भक्ति योग को जानकर भगवान श्रीकृष्ण जी सात्यकि के साथ रथारूढ़ होकर श्री भीष्म के पास चल दिये।
एक रथ पर धर्मराज एवं भीमसेन के साथ उनके युग्म अनुज एक रथ पर आसीन होकर पितामह का अन्तिम दर्शन करने चल पड़े। कृपाचार्य, युयुत्स, सूतजी एवं संजय जैसे परम तपस्वी लोग भी आ गये। उनके रथ के चक्र प्रबल वेग से नगर छोड़कर आते हुए मानो समग्र पृथ्वी को विकम्पित करते हुए उपस्थित हुए। वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण ने महात्मा भीष्म को दिव्य-दर्शन देकर गंगानंदन को आप्तकाम किया।
भीष्म के पाञ्च-भौतिक शरीर के शान्त होने पर महाराज युधिष्ठिर ने उनका विधि विधान से और्ध्व, दैहिक कर्म सम्पन्न कराया। उनकी स्मृति में राजदरबार में तीन सम्मानित आसन हमेशा रिक्त रखे जाते। इनमें पितामह है। भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य एवं अग्रज दानवीर कर्ण अमूर्त रूप से विराजमान रहते। है. युधिष्ठिर के पन्द्रह वर्ष शासन करने पर एक दिन महाराज धृतराष्ट्र ने वनगमन की आज्ञा माँगी। काफी प्रतिरोध करने के पश्चात् युधिष्ठिर ने संजय चारी की देखरेख में माता कुन्ती से गान्धारी की सेवा करने के आश्वासन पर ता महाराज धृतराष्ट्र को वन में तप करने का प्रबन्ध किया। शेष जीवन को इन लोगों ने तपस्या करते हुए वहीं व्यतीत किया।
महर्षि वेदव्यास के सानिध्य में रहते हुए इन कुरु-वृद्धों ने परमार्थ का चिन्तन करके प्रायश्चितपूर्वक अपने शेष जीवन को धन्य किया। भारतीय संस्कृति में सभी को आत्मसात् करने की क्षमता है। आने वाली पीढ़ियाँ इनमें अपने आदर्श को सहज ग्रहण कर सकती हैं।