भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को शान्ति-उपदेश
भीष्म के धराशायी होने के बाद कौरवों के प्रधान सेनापति द्रोणाचार्य हुए। पाँच दिनों तक इन्होंने युद्ध का संचालन करते हुए वीरगति को प्राप्त किया। इसके पश्चात् महाबली कर्ण ने प्रधान सेनापति का पदभार सँभाला और तीसरे दिन वीरगति को प्राप्त हुआ। तदनन्तर महाराज शल्य को सेनापतित्व मिला। इनको रणभूमि में सुलाने के बाद दुर्योधन और भीमसेन का द्वन्द्व युद्ध हुआ। दुर्योधन के घायल अवस्था में अश्वत्थामा ने पाण्डवों से बदला लेने के लिए सेनापति का दायित्व ग्रहण किया। विजयोल्लास मना रही पाण्डवी सेना को रात्रिकाल में ही अन्यायपूर्वक द्रोणी ने अपने मामा कृपाचार्य एवं कृतवर्मा के सहयोग से मौत की नींद सुला दिया। दुर्योधन ने पश्चात्ताप करते हुए अपना शरीर त्याग दिया। १८ दिन में महाभारत का अन्त हुआ।
दुर्योधन के हठीले स्वभाव से सम्पूर्ण कुरुवंश का अवसान हो जाने पर महाराज युधिष्ठिर को अत्यन्त ग्लानि हुई। वे महाभारत के विध्वंस में स्वयं को उत्तरदायी मानने लगे। उन्हें घोर अपराध का बोध होने लगा। महाराज धृतराष्ट्र का सामना करने में स्वयं को अक्षम समझने लगे। वे वासुदेव के साथ सभी भाइयों को लेकर भीष्म पितामह के पास पहुँचे। पश्चात्ताप के आँसुओं से उनका मुख मलिन हो रहा था। अभिवादन के पश्चात् भीष्म ने मौन भङ्ग किया। "धर्मराज जो कुछ भी हुआ उसके मूल में स्वयं को दोषी मत समझो। हम लोग विधाता द्वारा अभिनीत रंगमंच के पात्र हैं। उसके अभिनय में सहायक की भूमिका निर्वहन कर रहे हैं। हमारा तो मूल्यांकन आने वाला युग करेगा। परवर्ती युग में ही हम सभी लोगों का चरित्रांकन होगा। निरपेक्ष भाव से ही किसी तटस्थ व्यक्ति द्वारा वर्तमान सन्दर्भों में हम लोगों की समीक्षा सम्भव है। महाभारत का कारण किसी एक व्यक्ति को नहीं माना जा सकता। परिस्थितियाँ आती गयी और व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा का प्रचार और प्रतिशोध की भावना का प्रसार होता गया। सिद्धान्तों और पूज्य जनों की अवहेलना प्रारम्भ हुई। राजा का कर्तव्य पुत्र-मोह की होमाग्नि में स्वाहा बन गया। व्यक्ति को अपनी व्यवस्था को भी सामयिक कसौटी पर बार-बार समीक्षा करते रहना चाहिए। सामाजिक मूल्य, वैयक्तिक अहं केसामने समर्पण करने का परिणाम ही विध्वंश का कारण बनता है। पूज्य की अवमानना और अपूज्य को महिमामण्डित करने से ही सर्वनाश का पदार्पण होता है। शकुनी की कुत्सित मानसिकता, दुर्योधन का दम्भ और महारथी कर्ण का अन्ध समर्पण ही इस महासमर की दुरभि सन्धि है। मैंने कई बार इसे विफल करने का प्रयास भी किया, किन्तु महाराज धृतराष्ट्र पर इनके इन्द्रजाल का आधिपत्य रहा"। सभी को समझाकर भीष्म ने घर जाने का आदेश दिया। दूसरे दिन दैनन्दिन कार्य से निवृत्त होकर लोग पुनः लौटे।
जिस समय पाण्डवों के साथ वासुदेव ने पितामह का अभिवादन किया उनके मुखमण्डल पर कोई विषाद के चिह्न नहीं थे। उपवासित रहकर भी उनमें अपूर्व तेजपुञ्ज विद्यमान था। उन्होंने सामयिक वार्ता करके सभी को शोक-मुक्त किया। 'बिना राजा के प्रजा में अराजकता होने का डर छा जाता है। अतः इस समय राजकाज का सम्पादन अत्यन्त आवश्यक है'। युधिष्ठिर ने रोते हुए कहा कि मैं राजा नहीं बनूँगा। महाराज धृतराष्ट्र ही राजा बने रहेंगे अथवा एकमात्र अवशेष अपने पुत्र 'युयुत्स' को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दें। हम लोग उनके सहायक बनकर उनको हाथ बटायेंगे। इस पर नाना प्रकार के आध्यात्मिक, राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक उपाख्यानों के उदाहरण देकर महात्मा भीष्म ने युधिष्ठिर को कर्तव्य का पाठ पढ़ाया।उन्होंने कहा- "महाराज युधिष्ठिर ! राज्य करना आसान नहीं होता। राजा को योगियों की तरह आचरण करना पड़ता है। कर्तव्य के आगे वह अपने-पराये का भेद भूलकर कर्मयोगी बन जाता है। प्रजा-पालन राजा का सर्वोत्तम दायित्व है। प्रजा उसकी औरस-सन्तान के समान है। प्रजा-हित में राजा की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा कभी अवरोधक नहीं होना चाहिए। सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश सब कुछ विधाता के अधीन है। मनुष्य मात्र कर्म करने का अधिकारी है। सम्प्रति आपका प्रधान दायित्व यह है कि मरे हुए लोगों की और्ध्वदैहिक क्रिया का सम्पादन करें। कौरव भी आपके ही वंशज हैं। उनके साथ कोई भेद-भाव नहीं होना चाहिए। धृतराष्ट्र जो पुत्र शोक में मग्न हैं, उन्हें भी आपके कर्तव्य एवं स्नेह की परम आवश्यकता होगी।"
गान्धारी के ऊपर तो वज्रपात हो गया है। महारानी कुन्ती धर्मपरायण हैं। वे ही गान्धारी की छाया बनकर उनके अनुताप को कुछ कम कर सकती हैं। कृप और कृपी मेरे स्नेह में बढ़े और सम्मानित हुए। उनके दुख का पारावार दिखाई पड़ता है। उन्हें भी सम्मानपूर्वक ढाढस बँधाया जाना चाहिए। भानुमती एवं अन्यान्य कुरु वंश की बहुएँ अत्यन्त दुखी हैं। उनके मन की बात जानकर सम्मानपूर्वक उनकी व्यवस्था की जानी चाहिए। राज-परिवार की इस भयानक पीड़ा से प्रजा अवश्य ही विकम्पित हो उठी है। उन्हें भी आश्वस्त करना होगा। उनके जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा करने का भरोसा दिलाना होगा। जन-मानस का विश्वास प्राप्त कर उन्हें व्यवसाय में प्रवृत्त करने की पहल करके देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर ले आनी होगी। विध्वंस का समय बीत जाने पर लोगों में भविष्य के प्रति आशा का संचार प्रवाहित करना होगा। राज्य की सुचारु व्यवस्था ही राजा का प्रथम कर्तव्य है।
महात्मा भीष्म के उपदेशामृत से महाराज युधिष्ठिर किंचित आश्वस्त हुए। श्रीकृष्ण के निर्देशन में युधिष्ठिर ने राजा बनकर अपने पक्ष और विपक्ष के राजाओं की अन्त्येष्टि कराकर सबके परिवार को सान्त्वना प्रदान किया। युद्ध में अवशिष्टजनों को आदरपूर्वक बुलाकर आश्वासन दिया कि उनके साथ किसी प्रकार भेदभाव नहीं किया जायेगा। जब सामान्य स्थिति हो गयी तो महाराज ने आम दरबार करके सभी के समक्ष महाराज धृतराष्ट्र को ही राजा माना। अपने भाइयों सहित उनकी सेवा करते हुए राजकाज का निर्वहन करने लगे। महारानी कुन्ती तो गान्धारी की सेवा में पहले की तरह परछाई की भाँति अनुगमन करती रहतीं। राज प्रबन्ध का दायित्व अनुजों के ऊपर छोड़कर राजा युधिष्ठिर प्रायः भीष्म की सेवा में उपस्थित रहकर सेवा करते और उनसे अशेष ज्ञान-विज्ञान के रहस्य जानने का प्रयास करते।
भीष्म शरशय्या पर लेटे रहकर हमेशा बड़े-बड़े ऋषियों, मनीषियों, राजर्षियों से आवृत रहते। उनके पास रहने वाले मुख्यतया वेदव्यास, देवर्षि नारद, महर्षि जैमिनि, शाण्डिल्य, देवल, मैत्रेय, असित, वशिष्ठ, कौशिक, लोमस, हारीत, दुर्वासा, शुक्राचार्य, वृहस्पति, च्यवन, सनत्कुमार कपिल, वाल्मीकि, गौतम, गालव, धौम्य, विभाण्ड, माण्डव्यं, मार्कण्डेय, प्रभृति महर्षिगण सतत निवास बनाये हुए थे।मानों वे ग्रहराज की नक्षत्रों की भाँति सेवा कर रहे हों। समय-समय पर महाराज युधिष्ठिर राज व्यवस्था से उपरान्त पितामह का दर्शन करते और उनके द्वारा प्रदत्त उपदेशामृत से स्वयं के जीवन हेतु पाथेय अर्जित करते। भीष्म अपने पौत्र की असीम श्रद्धा से आप्लावित होकर अपना ज्ञान अनुभव एवं सामयिक हितोपदेश उसे निर्लोभप्रदान करते रहते। इसी प्रकार दिन-रात वहाँ धर्मनीति, राजनीति, समाजनीति एवं आर्यनीति की मीमांसा होती रहती। वहाँ आकर सबको अपने प्रश्न का उत्तर अवश्य मिल जाता और लोग भीष्म के अथाह ज्ञान की प्रशंसा करके चले जाते। कुछ लोग तो अहर्निश वहीं बने रहते। भीष्म सबके श्रद्धा-स्नेहभाजन बन समय-यापन करन लगे।
एक समय महाराज युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा कि- हे महाप्राज्ञ, सर्वशास्त्र विशारद पितामह ! मोक्ष चाहने वाले तत्त्व चिन्तक को प्रयाणकाल में किसका जप करना चाहिए? परम सिद्धि के निमित्त मृत्यु के सन्निकट आने पर किसका ध्यान, चिन्तन एवं नित्य ध्यान करना श्रेयष्कर है? इस पर प्रसन्न होकर महात्मा भीष्म ने कहा- इस सम्बन्ध में नारद के द्वारा पूछे जाने पर भगवान श्री नारायण विष्णु ने दिव्य ज्ञान का निर्वचन किया। हे नारद, ॐकारपूर्वक मुझे नमस्कार करके इस दिव्य मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए-'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।इस पर नारद जी ने भगवान विष्णु की दिव्य स्तुति की जो कि 'अनुष्मति' नाम से विख्यात है। उनकी स्तुति से यह निष्कर्ष निकलता है कि आध्यात्मिक ज्ञान का परिणाम भगवद् प्राप्ति है। यज्ञ, आराधना, सत्याचरण प्रभृति अनेक साधनों से उस परम तत्त्व की प्राप्ति कही गयी है। इसी तथ्य को भूतभावन शम्भू ने भी इस प्रकार कहा है-एकाग्र मन से उस परम अविनाशी परमात्मा को सर्वथा भजना ही कैवल्य मुक्ति है। उस साधक को कुछ भी अभीप्सित नहीं रहता, जिसको एकमेव जनार्दन की भक्ति मिल जाय। उसे प्राप्त कराने में एक ही मंत्र सर्वार्थ साधक है - ॐ नमो नारायणाति । इस मन्त्र के अभ्यास से विष्णु का सामीप्य लाभ अवश्य ही प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कोई परम देवता नहीं है। भगवान वासुदेव ही हमारी शरण की सीमा हैं। हम उनके सिवाय कुछ नहीं जानते।'
इस प्रकार युधिष्ठिर धर्म-अर्थ काम एवं मोक्ष की अपनी विविध जिज्ञासाओं का महात्मा भीष्म से समाधान लेते। एक बार किसी राजनीतिक चर्चा में धर्मराज ने सहज पूछ लिया 'पितामह। मुझे आश्चर्य है कि इतने महामनीषी होकर भी हमारे वंश का समूल नाश आप नहीं रोक सके।' इस पर भीष्म ने कहा-' धर्मराज ! मैं उस समययुक्त दुर्योधन का अन्न खाता था। मेरी बुद्धि निर्मल नहीं रह सकी। अन्न जैसा ही मन होता है। व्यक्ति को अपनी पवित्र वृत्ति से उपार्जित द्रव्य का ही उपभोग करना चाहिए, वरन् उसको समूल नष्ट होने से भगवान भी नहीं बचा सकते। सर्वसमर्थ वासुदेव भी अथक प्रयास करके हठी दुर्योधन को नहीं समझा सके'
'समाज में स्त्री-पुरुषों के समवेत प्रयास से ही सुखी जीवन की कल्पना साकार होती है। जिस घर में स्त्रियों का अनादर होता है अथवा औरतें स्वेच्छाचारपूर्वक आचरण करने लगती हैं, वहीं सुख-समृद्धि तिरोहित हो जाती हैं। गृहस्थी को स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर ही चला सकते हैं। एक के अभाव में दूसरा अशक्त हो जाता है।' धर्मराज ने पितामह से पूछा-आप सर्वज्ञ हैं मेरी एक जिज्ञासा को शान्त करें। रतिकाल में स्त्री अथवा पुरुष किसे अधिक सुख की प्राप्ति होती है? पितामह ने कहा- इस विषय में हमने धौम्य ऋषि के मुख से किसी प्रसंग में एक कथा सुनी थी-प्राचीनकाल में राजा भङ्गाश्वन नाम से विख्यात एक पराक्रमी नरेश थे। उनके राज्य में सभी अनुशासित एवं स्वस्थ जीवन जीने वाले थे। असमय मृत्यु नहीं होती थी। नीरोग रहकर सभी मानवीय गुणों से सम्पन्न थे। इन्द्र भी इस राजा से ईर्ष्या करता था। एक दिन आखेट करते समय राजा भटक कर किसी यक्ष के राज्य सीमा में चला गया। वहाँ पहुँचकर राजा एवं अश्व का लिंग परिवर्तित हो गया। दोनों ही स्त्री एवं घोड़ी बनकर अपने राज्य सीमा में प्रविष्ट हुए। नगरवासी एवं परिवार के लोग हतप्रभ थे। महाराज भी स्वयं आश्चर्यचकित थे। उन्होंने अपने १०० लड़कों को बुलाकर कहा-विधि का विधान विचित्र है। अब तुम लोग राज्य सँभालो अब मैं जंगल में जाकर तपस्या करूँगा। भङ्गाश्वन रूपी स्त्री के रूप माधुर्य पर किसी तपस्वी का मन आकृष्ट हो गया। वह अद्भुत रमणी रत्न को पाकर कृतकृत्य हो उठा। उससे भङ्गाश्वन के गर्भ से १०० पुत्र हुए। वे बड़े होकर राजा एवं तपस्वी के संस्कारों से नेक इंसान बने। एक दिन भङ्गाश्वन इन्हें लेकर अपने राज्य में पहुँचकर अपने पूर्व १०० पुत्रों से बोले- ये तुम्हारे अनुज हैं। तुम लोगों का मैं पिता हूँ। इनकी माता हूँ। तुम २०० मिलकर राज्य को सुन्दर ढंग से देखभाल कर सकोगे। राजपुत्रों ने अपने पिता की बात मान ली। परस्पर प्रेमपूर्वक रहते हुए सभी भाई मिलकर राज्य की चरम उन्नति करने में सफल हुए।
एक दिन इन्द्र ने ब्राह्मण का भेष बनाकर इन्हें भड़काया। पितृ सत्तात्मक परिवार में पिता की सम्पत्ति में मातृ सन्तति को दाय भाग नहीं मिल सकता। पता नहीं ये किसकी सन्तान हैं? इन्हें अपने पिता की सम्पत्ति में ही हिस्सा मिल सकता है। इस विषय में विवाद हुआ। उभय पक्ष लड़कर नष्ट हो गया। इस समाचार से भङ्गाश्वन अत्यन्त दुःखी होकर राजमहल आकर विलाप करने लगे। उनका विलाप सुन इन्द्र को दया उमड़ आयी। उन्होंने आकर भङ्गाश्वन को ढाढ़स बंधाते हुए कहा- मैं तुम्हारे १०० लड़कों को जीवित कर सकता हूँ। शर्त यह रहेगी कि तुम्हें मात्र वे ही लड़के पुनः जीवित मिलेंगे जिनके तुम पिता हो अथवा जिनकी माता हो। यह सुनकर भङ्गाश्वन ने कहा कि जिन लड़कों की मैं माता हूँ उन्हें पुनर्जिवित कर दें। इन्द्र अवाक् रह गये। इसका कारण जानने के लिए इन्द्र को उत्सुक देखकर भङ्गाश्वन ने कहा कि मैं जिनका पिता हूँ उनके जन्म में मुझे किंचित कष्ट नहीं उठाना पड़ा था। मैं जिनकी माता हूँ प्रत्येक पुत्र के जन्मकाल में असह्य प्रसव पीड़ा का अनुभव किया। मैं ही जानती हूँ कि असह्य पीड़ा को सहकर भी मैंने अनेक पुत्रों को इसलिए जन्म दिया कि मुझे रतिकाल में वर्णनातीत आनन्द की प्राप्ति होती थी,जो कि पिता के रूप में दुर्लभ थी
उक्त कथा के माध्यम से सटीक समाधान पाकर युधिष्ठिर अत्यन्त प्रभावित हुए। इस प्रकार अपने उन तमाम प्रश्नों का उत्तर पाकर धर्मराज कृतकृत्य हो उठे। भीष्म का अद्भुत ज्ञान एवं उसका व्यावहारिक पक्ष इतमा प्रबल था कि ऋषि-मुनियों का वहाँ अस्थाई निवास ही बन गया, जहाँ पर शर-शय्या परभीष्म लेटे थे। भगवान परशुराम ने भी अपने प्रिय शिष्य से अनेक कथा-प्रसङ्ग के माध्यम से सत्संग किया। उन्होंने भीष्म को अपने साथ युद्ध करने के प्रकरण को न केवल क्षमा किया वरन् भीष्म को कोटिशः शुभाशीर्वाद भी दिया। परशुराम ने कहा- हे गंगापुत्र ! तुम धन्य हो, तुम्हारा चरित्र पावन है। तुम्हारा भक्ति एवं ज्ञान अद्वितीय है। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि अन्तिम समय में तुम्हारे द्वारा की गई स्तुति को सुनने मात्र से लोग मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे।