10. भूषण
विकट अपार भव-पथ के चले को श्रम-
हरन-करन बिजना-से ब्रह्म ध्याइए
।
यह लोक परलोक सुफल करन कोक,
नद से चरन हिए आनि कै जुड़ाइए ।
अलिकुल-कलित-कपोल, ध्यान ललित,
अनंदरूप-सरित में भूषण अन्हाइए
।
पाप-तरु भंज बिघन-गढ़ गंजन,
जगत-मन-रंजन द्विरदमुख गाइए ।। 1
शब्दार्थ-विकट=कठिन, जटिल। भवपथ–सांसारिक मार्ग। हरन=हरण करने गाइए।ले सफल करन=सफलता प्रदान करने वाले। कोकनद=लाल कमल। हिये=हृदय, मानस। जुड़ाइये -शांति प्राप्त कीजिए।
अलिकुल=भ्रमरवृन्द। कलित=सुशोभित। ललित-लुभावना, हृदयाकर्षक। भजन-विध्वंस करने वाले, उन्मूलित करने वाले।
द्विरदमुख=हाथी के समान मुख वाले।
प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘शिवराज भूषण' से उदधृत की गई
हैं। इन पंक्तियों में कवि ने परम्परानुसार ग्रन्थारम्भ में गणेश-स्तुति की है।
व्याख्या—भूषण कवि कहते हैं कि हे मन! तू
सांसारिक कष्टों को दूर करने वाले | श्री गणेश जी का ध्यान कर,
वे ही तेरी सांसारिक बाधाओं को दूर कर सकते हैं। इस लोक तथा परलोक की
कामनाओ को पूर्ण करने वाले गणेश के लाल रंग के कमलों के समान चरणों में तू अपने मन
को समर्पित कर और सांसारिक बाधाओं से अपने हृदय को मुक्त करके शांतिलाभ प्राप्त कर।
कवि आगे कहता है कि हे मन! तू गणेश जी के उस सौम्य गण्ड-मण्डल का ध्यान कर जिससे निरन्तर
मद की वर्षा होती रहती है और जिसके कारण भक्त-गण रुपी भौंरो की भीड़ लगी रहती है। वे
सभी पाप रुपी वृक्षों को नष्ट करने वाले हैं और विघ्न रूपी गुणों के समूह को विनष्ट
करने की सामर्थ्य रखते हैं अर्थात् भक्तों के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने
वाले हैं और संसार के हृदय को आनन्द प्रादान करने वाले हैं। इसलिए हे मनः तू गणेश जी
का ध्यानरुपी नद में स्थान कर अपने सब पापों से मुक्ति लें। संसार के मन को प्रसन्न
करने वाले (हाथी के समान मुख वाले) गणेश जी का स्त्रवन कर।
विशेष—१. वृत्यानुप्रास का प्रयोग द्रष्टव्य
है।
२. भव-पंथ
आनन्द रूप सरित, पाप तरु विघ्नगढ़ में रुपक अलंकार है एवं कोकनद से चरन तथा द्विरद मुख में
उपमा है।
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है
भूषण भनत नाद बिहद नगारन के
नदी-नद मद गैबरन के रलत है
ऐल-फैल खैल-भैल खलक में गैल गैल
गजन की ठैल –पैल सैल उसलत है
तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि
थारा पर पारा पारावार यों हलत
है ।। 2
शब्दार्थ-चतुरंग=चारों अंग (हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल) वाली सेना, चतुरंगी सेना।
रंग-उमंग में, मौज में। तुरगं=घोड़े, सरजा=शिवाजी की उपाधि, बहुत वीर। नद=बड़ी नदियों को नद कहते हैं। बिहद=बहुत अधिक। गैबरन=श्रेष्ठ हाथी। खैल भैल=खलबली। खलक=संसार। गैलगैल=एक साथ गली-गली। सैल=पहाड़। ठेल- पेल=धक्कमधक्का। उसलत=उखड़ना। तरनि=सूर्य। पारावार=समुद्र।।
प्रसंग-इन पंक्तियों में कवि भूषण ने शिवाजी
की चतुरंगिणी सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि---
व्याख्या-कवि कहते हैं कि-'सरजा' उपाधि से विभूषित अत्यन्त श्रेष्ठ एवं वीर शिवाजी अपनी चतुरंगिणी सेना (पैदल,
हाथी, घोड़े और रथ) को सजाकर तथा अपने अंग-अंग
में उत्सह का संचार करके युद्ध जीतने के लिए जा रहे हैं। भूषण कहते हैं कि उस समय नगाड़ों
का तेज स्वर हो रहा था। हाथियों की कनपटी से बहने वाला मद (हाथी जब उन्मत्त होता है
तो उसके कान से एक तरल स्राव होता है जिसे उसका मद कहते हैं) नदी-नालों की तरह बह रहा
था। अर्थात् शिवाजी की सेना में मदमत्त हाथियों की विशाल संख्या थी और युद्ध के लिए
उत्तेजित होने के कारण हाथियों की कनपटी से अत्यधिक मद गिर रहा था जो नदी-नालों की
तरह बह रहा था। शिवाजी की विशाल सेना के चारों ओर फैल जाने के कारण संसार की गली गली
में खलबली मच गई। हाथियों की धक्कामुक्की से पहाड़ भी उखड़ रहे थे। विशाल सेना के चलने
से बहुत अधिक धूल उड़ रही थी। अधिक धूल उड़ने के कारण आकाश में चमकता हुआ सूर्य तारे
के समान लग रहा था और समुद्र इस प्रकार हिल रहा था जैसे थाली में रखा हुआ पारा हिलता
है, उसी प्रकार सारे भूमण्डल में समुद्र हिलने लगा।
विशेष—१. शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रस्थान
का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया है।
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती
हैं।
कंद मूल भोग करैं कंद मूल भोग
करैं
तीन बेर खातीं, ते वै तीन बेर
खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती
हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे
त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती
हैं॥ 3
शब्दार्थ-मंदर=महल। ऊँचे घोर मंदर=अत्यन्त ऊँचे ऊँचे महल। ऊँचे-घोर –उत्तंग भयंकर पर्वत। रहनवारी=रहनेवाली। रहाती हैं=रहती हैं। कंदमूल=बढ़िया गोठा, सारपूर्ण मिष्ठान।
भोग करें=खाती थीं। कन्दमूल भाग करें=कन्दा और जड़ अर्थात् जंगली वनस्पतियों
की जड़े खाती हैं। तीन बेर=दिन भर में तीन बार। तीन बेर=वेर के तीन फल। भूषन=आभूषणों के भार से। शिथिल=सुस्त। भूषनशिथिल अंग=मारे भूख के उनके अंग शिथिल रहते
हैं। विजन डुलाती=पंखे झलती थी। विजन डुलाती हैं=निर्जन जंगलों में भटकती है। नगन जड़ाती=नग्न, नंगी। जड़ाती=जाड़ा खाती है, ठंड में ठिठुरती
है।
प्रसंग–शिवाजी के भय से प्रतिपक्षी मुगल
बादशाओं की बेगमों की दयनीय अवस्था का चित्रण आलंकारिक शैली में प्रस्तुत किया गया
है।
व्याख्या- शिवाजी के प्रतिपक्षी राजाओं और
बादशाहों की रानियों जो पहले ऊंची-ऊँची अट्टालिकाओं में निवास करती थीं, वे आज उनके आतंक
के कारण महलों को छोड़कर जंगलों में छिप गई हैं और ऊँचे-ऊँचे भयंकर पर्वते की गुफाओं
में निवास कर रही है। जो बेगमें बढ़िया किस्म की मिठाईयाँ खाया करती थीं। वे अब जंगलों
में रहने के कारण वहाँ उपलब्ध होने वाले कन्दा और जड़ों पर ही निर्वाह कर रही हैं।
वे बेगमें दिन में तीन बार भोजन किया करती थीं, वे अब किसी प्रकार
जंगली बेर की तीन फलों हा दिन काट रहीं हैं। जिन साम्राज्ञियों के शारीरिक अंग आभूषणों
के भार से शिथिल थे अब वे अंग भूख के कारण
सुस्त हो गये हैं। जो बेगमें महलों में पंखा झलती थीं, अब वे
सुनसान जंगलों में अकेली ही भटकती फिर रही हैं। भूषण कवि कहते हैं। कि हे महाराज शिवाजी!
उन नारियों में तेरा ऐसा आतंक छाया हुआ है कि पहले जो बेगमेंरत्नजड़ित
आभूषण धारण किया करती थीं वे अब वस्त्राभाव एवं भयाधिक्य के कारण नग्न हैं और ठंड से ठिठुरती जा रही हैं।
विशेष—१. अभंग यमक अलंकार के प्रयोग से पूरे छन्द में
चमत्कार आ गयाहै। चमत्कारिता एवं आलंकारिता के साथ ही पूरे छन्द में एक सहज प्रवाह
भी है।
२. भयानक रस की सफल
अभिव्यंजना। ब्रजभाषा।
३. शिवाजी के आतंक का
इतना चमत्कारिक वर्णन है कि छन्द में अतिश्योक्ति की गन्ध आने लगती है। तुलनीय
पंक्तियाँ-भूषण के एक अन्य छन्द में भी इसी प्रकार की व्यंजना दर्शनीय है-
भूषण भनत शिवराज तेरी धाक सुनि
हार डारि चीर फारि मन झुंझलाती हैं।
ऐसी परी हरम बादसाहन की
नासपाती खातीं ते वनासपाती खाती हैं।।
उतरि पलंग ते न दियो है धरा पै पग
तेऊ सगबग निसि दिन चली जाती हैं।
अति अकुलातीं मुरझाती न छिपातीं गात,
बात न सुहातीं बोले अति अनखाती
हैं।।
‘भूषन' भनत सिंह साहि के सपूत
सिया,
तेरी धाक सुनि अरिनारी बिललाती हैं।
कोऊ करें घाती कोऊ रोतीं पीटि छाती घरौं,
तेरी बेर खाती तेऽब तीन बेर खाती हैं।। 4
शब्दार्थ-अनखाती हैं=खीझ
उठती हैं। बिललाती हैं=बिलखती हैं। धाती=आत्मघात। तीन
बेर=तीन बार। तीन बेर=बेर के तीन फल।।
व्याख्या–हे शाह जी के पुत्र शिवाजी आपके शौर्य को देखकर प्रतिपक्षी राजाओं की
रानियाँ जो कभी अपने महलों में अपने बड़े-बड़े आलीशान पलंग से उतरते समय धरती पर
सीधे पैर भी नहीं रखती थीं। आज आपके आतंक से इतनी भयभीत हैं कि दिन भर बस भागती
चली जाती हैं। सुनसान जंगलों में वे बहुत ही व्याकुल और बहुत ही मुरझाई हुई हैं कि
अपने आप को इस सुनसान जंगल में कहाँ छुपाऊँ, इसीकारण उन्हें
कोई बात भी अच्छी नहीं
लगती है और जब कोई बोलता है तो हमेशा खीझ उठती हैं। एक-दूसरे पर। भूषण कहते हैं कि
हे शाह जी के पुत्र शिवाजी महाराज। आपके शौर्य वीरता को सुनकर वो नारियाँ अपनी
छाती को जोर-जोर से पीट-पीटकर रोती हैं और अपने आपको आत्मघात करती हैं। अत: जो रानी
बनकर अपने महलों में तीन बार शी वे आज आपके भय से इस जंगल में तीन बेर खा के अपना जीवन
जी रही हैं।
सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग।
ताहि खरी कियो छ हजारिन के नियरे।।
जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों न सलाम न बचन बोले सियरे।।
‘भूषन' भनत महावीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उड़ाय गये जियरे।
तमक ते लाल मुख सिवा को ‘निरखि भयो,
स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे।। 5
शब्दार्थ- जोग=योग्य। खरो कियो=खड़ा किया। जानि गैरि मिसिल=अपने स्वागत को असम्मान पूर्ण समझकर। गुसीले=क्रोधित स्वभाव के। सियरे=शीतल। कीन्हों ना.....सियरे—किसी भी शिष्टाचार का पालन नहीं किया। बलकन लाग्यो—क्रोध से आग-बबूला होकर बड़बड़ाने लगा। उड़ाय गये, जियरे—जी उड़ गये, डर गये। तमक=क्रोध। स्याह=काला। पियरे=पीला।।
प्रसंग—इस कवित्त में मुगलदरबार में आयोजित शिवाजी की औरंगजेब
से भेंट का वर्णन है। शिवाजी को छह हजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा किया गया था।
इस अपमान को शिवाजी सहन न कर सके और भरे दरबार में क्रोधावेश में बड़बड़ाने लगे। उसी
दृश्य का चित्रण इस पद में प्रस्तुत किया गया है।
व्याख्या-जो सरजा शिवाजी मुगल दरबार में सबसे ऊपर खड़े होने योग्य थे,उनको अपमानित करने की नियत से औरंगजेब
ने उन्हें छःहजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। अपने प्रति किये गये इस अनुचित
व्यवहार से गुस्साबर शिवाजी अत्यधिक कुपित हो उठे और उस समय अवसर की मर्यादा के अनुकूल
न तो शंहशाह औरंगजेब को सलाम किया और न विनम्र शब्दों का ही प्रयोग किया। भूषण कहते
हैं कि
महाबली शिवाजी क्रोधावेश
से गरजने लगे और उनके इस क्रोधावस्था के व्यवहार को देखकर मुगलदरबार के सभी लोगों के
जी उड गये। अर्थात् भय से हक्का-बक्का हो गये। व स लाल हुए शिवाजी के मखमण्डल को देखकर
औरंगजेब का मुंह काला हो गया आर सिपाहियों के मख भय की अतिशयता के कारण पीले पड़ गये।
।
विशेष—१. शिवाजी के रौद्र रुप के वर्णन में रौद्र रस के
सभी अंगों की सफल व्यंजना हुई है।
२. मुहावरों के प्रयोग एवं
शब्दावली की सहजता से भाषा में जीवन्तता एवं गतिशीलता का पूर्ण समावेश है।
गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर,
दावा नाग जूह पर सिंह सिरताज को
दावा पूरहूत को पहारन के कूल पर
दावा सब पच्छिन के गोल पर बाज
को
भूषण अखंड नव खंड महि मंडल में
रवि को दावा जैसे रवि किरन समाज
को ।
पूरब पछांह देश दच्छिन ते उत्तर लौं
जहाँ पातसाही तहाँ दावा सिवराज
को । 6
शब्दार्थ- गरुड़=एक पक्षी अथवा भगवान विष्णु की
सवारी जो सबसे तेज गति से उड़ने वाला माना जाता है। नाग=सर्प। दावा=अधिकार। नागजूह=हाथियों का समूह। सिरताजमुकुट, श्रेष्ठ। पुरहूत=इन्द्र। पहारन=पहाड़ो। गोल=समूह। अखंड=सम्पूर्ण। नवखंड=नौ खण्ड। महिमंडल=पृथ्वी। किरनसमाज=किरणों का समूह। लौं–तक। पातसाही=मुसलमान बादशाह का शासन। तम=अन्धकार।।
प्रसंग–शिवाजी के शौर्य, शक्ति और अधिकारक्षेत्र
का वर्णन करते हुए भूषण जी बताते हैं कि-
व्याख्या- कवि कहते हैं कि जिस प्रकार सर्यों
के समूह पर गरुड़ का अधिकार रहता है। हाथियों के समूह पर महाबली सिंह का अधिकार होता
है। जिस प्रकार पहाड़ों के कुल पर इन्द्र का अधिकार है एवं पक्षियों के सभी कुलों पर
बाज सदा ही अपना आधिपत्य करता रहता है। जिस प्रकार सूर्य की किरणें अपना अधिकार करके
अंधकार को नष्ट करता है, भूषण जी कहते हैं कि उसी प्रकार पूर्व से पश्चिम तक उत्तर से दक्षिण तक जहाँ-जहाँ
बादशाही है वहाँ-वहाँ शिवाजी महाराज का दावा है।
विशेष—१. कवि के लिए यहाँ शिवाजी राष्ट्रीय
चेतना और स्वतन्त्रता का प्रतीक है जबकि बादशाही विदेशी शासन और गुलामी का अर्थ दे
रही है।
२. यहाँ पर निदर्शना अलंकार है।
ब्रह्म के आनन ते निकसे ते अत्यन्त
पुनीत तिहूँ पुर मानी,
राम युधिष्ठिर के बरने बलमीकिहु
व्यास के संग सोहानि।
भूषण यों कलि के कविराजन राजन के
गुन पाय नसानी,
पुन्य चरित्र सिवा सरजा सर न्हाय
पवित्र भई पुनि बानी।। 7
शब्दार्थ-ब्रह्म के आनन तें=ब्रह्म के मुख से (सरस्वत के लिए
कहा गया है।) कलि के कविराजन=कलियुग के कवियों ने। राजन के गुन पाय नसानी=लौकिक राजाओं का गुणगान करके। सरस्वती
को अपवित्र कर दिया था। पुन्य चरित्र....बानी=पुण्य चरित्र शिवाजी महाराज के यश-सरोवर में स्नान
करके सरस्वती पवित्र हो गई है।
प्रसंग-कवि का मुख्य कार्य सोये हुए को
जगाना और उनमें देश-प्रेम तथा राष्ट्रीयता की भावना भरना था। उनके शब्दों में अपार
शक्ति और वाणी में ज्वाला थी। भूषण राजाश्रय में अवश्य रहते थे किन्तु वे उन राजाओं
के यहाँ नहीं गये जिनकी दष्टि कभी कामिनी के ऊपर से हटती ही नहीं थी। ऐसों के यहाँ
रहना भूषण की अन्तरात्मा ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपना आश्रयदाता अपने मन के
अनुकूल विचारों वाला चुना। उन्होंने वीर काव्य का सृजन किया, उनकी लेखनी का सहारा
पाकर सरस्वती भी।धन्य हो गयीं। इसकी चर्चा स्वयं कवि ने ही की है।
व्याख्या—कवि कहते हैं कि ब्रह्मा के मुख
से निकली प्रत्येक बात सत्य और पवित्र होती है। यह तीनों लोक मानता है। अर्थात् ब्रह्मा
के मुख से अत्यन्त पवित्र वेदों की रचना हुयी इससे तीनों लोकों में सरस्वती सम्मानित
हुयी। वाल्मीकी ने रामकथा और व्यास ने युधिष्ठिर की कथा (महाभारत) लिखकर सरस्वती का
मान बढ़ाया। भूषण कहते हैं कि कलियुग के कवियों द्वारा सामान्य राजाओं का गुणगान करने
से सरस्वती अपवित्र हो गयीं। पुण्य चरित्र महाराज शिवाजी के यश शरोवर में स्नान करके
सरस्वती पुनः पवित्र हो गयी हैं।
कामिनि कंत सौं जामिनि चंद सों, दामिनि पावस मेघ
घटासों,
कीरति दान सों सूरति ज्ञानसों प्रीति
बड़ी सनमान महासों।
भूषन भूषन सों तरुनी नलिनी नव पूषनदेव
प्रभा सों,
जाहिर चारिहु ओर जहान लसै हिंदुआन
खुमान सिवा सों।। 8
शब्दार्थ-जामिनि (यामिनी)=रात्रि। पावस मेघ घटा=वर्षा के बादलों की घटा। मूरति (मूर्ति)=मानव शरीर। भूषण=अलंकार। तरुनी=युवती स्त्री। पूषनदेव=सूर्य देव। लसै=शोभित होती है। खुमान=आयुष्मान् ।।
प्रसंग–शिवाजी को कवि हिन्दुओं की आशा
का बिन्दु मान रहा है।
व्याख्या—जिस प्रकार स्त्री पति के साथ
ही शोभायमान होती है अथवा रात्रि-चन्द्र के साथ शोभा पाती है और बिजली वर्षा की मेघ-घटाओं
से शोभित होती है, या कीर्ति दान से सुन्दर रुप ज्ञान से तथा प्रीति सम्मान प्रदान करने से सुशोभित
होती है। अथवा शरीर आभूषणों से और कमलिनी प्रातःकालीन सूर्यदेव के प्रकाश से सुशोभित
होती हैं उसी प्रकार यह बात सारे संसार में चारों ओर विदित है कि हिन्दू राष्ट्र को
सुशोभित करने वाले महाराज शिवाजी हैं।
विशेष—शिवाजी के गौरव का आलंकारिक वर्णन
है। उक्त यश वर्णन में नीति,अनुभव, लोकव्यवहार तथा प्रकृति
का आधार लिया गया है। अत: कलात्मकता के साथ ही उनमें जीवन की वास्तविकता भी है। भाषा
में प्रसाद तथा माधुर्य गुण प्रमुख हैं। संगठन तथा प्रभाव भी स्पष्ट है।
अलंकार–दीपक
अलंकार के आधार पर ‘हिन्दुआन खुमान सिवा सोलर्से के उपमान वाक्य हैं।' ‘कामिनी कंत सों लसै आदि। इसी प्रकार
उपमेय और उपमान वाक्यों का एक धर्म है। ‘लसै..........' यह दीपक अलंकार
हैं। अनुप्रास तथा यमक का स्वाभाविक प्रयोग हैं।
निकसत म्यान ते मयूखै प्रलै भानु
कैसी,
फारे तम तोम से गयंदन के जाल को।
लागति लपटि कंठ बैरिन के नागिन सी, ।
रुद्रहि रिझावै दै दै मुंडन के माल
को।।
लाल छितिपाल छत्रसाल महा बाहुबली,
। कहाँ लौ बखान करीं तेरी करवाल
को।
प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि,
कालिका सी किलकि कलेऊ देति काल को।। 9
शब्दार्थ-निकसत=निकलते ही। मयूखै=किरणे। प्रलैभानु=प्रलयकालीन सूर्य। तमतोय=गहन अंधकार। गयन्दन=बड़े-बड़े हाथी। जाल=समूह। बखान करौ=वर्णन करूं। करवाल=तलवार। प्रतिभट=शत्रु पक्ष के वीर, कटक=सैन्य समूह। कटीले=तीक्ष्ण, प्रबल, कलेऊ=सबेरे का जलपान।।
प्रसंग-इस छन्द में महाकवि भूषण ने परम
यशस्वी हिन्दू धर्म संरक्षक तथा महाप्रतापी छत्रशाल की युद्ध-वीरता की प्रशंसा तथा
उनकी तलवार का ओजपूर्ण भाषा में वर्णन किया है।
व्याख्या–महाकवि भूषण कहते हैं कि छत्रसाल
की तलवार म्यान से निकलते ही प्रलयकालीन सूर्य के समान प्रचण्ड और भयंकर रूप से चमकने
लगती हैं और घने अन्धकार के समान काले और विशालकाय हाथियों के समूह को चीर देती है।
वह तलवार सर्पिणी के समान शत्रुओं के कण्ठों से लिपटकर उनके प्राणों को हर लेती है
और इस प्रकार मुण्डों की माला देकर शिवजी को प्रसन्न करती है। तात्पर्य यह है कि छत्रसाल
की तलवार मुण्डों की माला पहनने वाले रुद्र को शत्रुओं के मुण्ड देकर प्रसन्न कर देती
है।
कवि भूषण कहते हैं कि–'हे महाप्रतापी! पृथ्वीपति और चिरंजीवी
छत्रसाल आपकी इस तलवार की अदभूत और चमत्कारिणी शक्ति का वर्णन कहाँ तक करें?
अर्थात शब्दों के माध्यम से आपकी इस तलवार की प्रशंसा करना संभव नहीं
है। महाराज छत्रसाल की यह तलवार कांटेदार झाड़ियों के समान दुःखदायी शत्रुओं की सेना
को काट-काटकर तथा कालीदेवी के समान किलकारी मारती हुई यमराज को नाश्ता कराती है।”
विशेष—इस छन्द में महाराज छत्रसाल की वीरता
का ओजपूर्ण वर्णन किया गया है। छत्रासल को युद्ध में निपुण वीर के रूप में दिखाया गया
है।
अलंकार—अनुप्रास की छटा आद्योपात दर्शनीय
है। साथ ही उपमा, अतिश्योक्ति एवं पुनरुक्तिप्रकाश का भी प्रयोग है।
साहि तनै सरजा सिवा की सभा जा
मधि है,
मेरुवारी सुर की सभा कौ निदरति है।
‘भूषन' भनत जाके एक एक
सिखर ते,
चारों ओर नदिन की पाँति।।
जोन्ह को हंसति जोति हीरामनि मंदिरन,
कन्दरन मैं छबि कुहू की उछरति है।
एतो ऊँचो दुरग महाबली को जामें।
नखतावली सों बहस दिपावली करति है।। 10
शब्दार्थ-जामधि=जिस दुर्ग के मध्य, जिस के बीच में।
सुमेरवारी=सुमेर पर्वत वाली। निदरति=निरादर करती है। सिखर=चोटी। नदिन=नदियों। पाँति=पंक्ति, कतारें, जौन्ह=चाँदनी। हँसति=उपहास करती है। कंदरनि=गुफाओं में। कुहूँ=अमावस्या। उछरति=उछलती हैं। दुरग=दुर्ग, किला। बहस=वाद, विवाद। नखतवाली=नक्षत्रों क समूह।
प्रसंग–प्रस्तुत छन्द में कवि बड़े
ही आलंकारिक ढंग से रायगढ़ के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए कहता है कि-
व्याख्या–सुमेरु पर्वत पर आयोजित देवताओं
की सभा शाहजी के पुत्र शिवाजी की सभा के समक्ष तिरस्कृत हो जाती है। भूषण कहते हैं
कि उस रायगढ़ दुर्ग से शिवाजी की कीर्ति रुपी नदियाँ चतुर्दिक प्रसृत होती हैं। महलों
को जड़ित हीरा आदि मणियों की कांति चन्द्रमा के ज्योति का उपहास करती है। उस दुर्ग
की गुफाओं में व्यापत कालिमा अमावस्या की रात्रि की कालिमा के समान सुशोभित होती हैं।
अर्थात् रायगढ़ की कन्दरायें
इतनी
गहन हैं कि उसमें रातो-दिन अंधकार का ही साम्राज्य विद्यमान रहता है। रायगढ़ दुर्ग
इतना ऊँचा है कि जिसमें जाज्वल्यमान दीपों की पंक्तियाँ आकाश के नक्षत्रों के प्रकाश
को मन्द कर देती हैं।
विशेष—१. उपमा दर्शनीय है।
२. यत्र-तत्र अनुप्रास भी देखा जा सकता है।
३. शैली चित्रात्मक शैली है।
सीय संग सोभित सुलच्छन सहाय जाके,
भू पर भरत नाम भाई नीति चारु है।
भूषन भनत कुल- सूर कुल- भूषन हैं,
दासरथी सब जाके भुज भुव भारु है।।
अरि-लंग तोर जोर जाके संग बानर हैं,
सिंधुर हैं बाँधे जाके दल को न पार
है।
तेगहि कै भेटै जैन राकस मरद जानै,
सरजा शिवाजी राम ही को अवतारु है।। 11
शब्दार्थ—सीय=सीता जी, श्री लक्ष्मी। सुलच्छन=अच्छे लक्ष्मण, अच्छे लक्षणों वाले।
भरत=राम के भाई भरत, भरते हैं अर्थात्
फैलाते हैं। नाम=कीर्ति। चारु=सुन्दर भनत=कहते हैं। दासरथी=दशरथ के पुत्र। भुवभारु=पृथ्वी का भार। अरिलंक=शत्रु की लंका, शत्रु की कमर। तोर=तोड़ दिया, विनष्ट कर दिया।
जोर-शक्ति, बल। सदा साथ वानर हैं—सदा साथ में बन्दर रहते हैं, सदैव साथ में वाण
रहता है। सिंधुर=समुद्र, शत्रु।। पार=सीमा। तेगहि कै भैटे=वे पकड़ कर मारे, तलवार से ही विनष्ट
करता है। गहिके=पकड़कर। जौ=जोराकस राक्षस। मरदजांन्यो=मर्दन किया, मारा।।
प्रसंग-कवि शिवाजी को ईश्वर का अंशावतार
मानकर कहता है-
व्याख्या–सीताजी के साथ जो शोभित होते हैं।
सुन्दर लक्ष्मण जिनके सहायक हैं। धरती पर सुन्दर नीति वाले भरत नाम वाले जिनके भाई
हैं। भूषण जी कहते हैं कि जो सूर्य कुल अर्थात् सूर्य वंश की शोभा बढ़ाने वाले हैं
ऐसे वे दशरथ के पुत्र हैं जिसने सम्पूर्ण पृथ्वी का भार अपने ऊपर धारण कर लिया है।
जिन्होंने रावण की लंका को विनष्ट किया, जिसके साथ सदा वानर हरते हैं। जिसने
समुद्र को बाँधा है। उनके बल की कोई
'सीमा नहीं है। जिन्होंने पकड़-पकड़कर राक्षसों का मर्दन किया है। ऐसे राम के
अवतार सरजा शिवाजी हैं।
दूसरे अर्थों में श्री (लक्ष्मी) जिनके साथ सुशोभित हैं। अच्छे लक्षणों
वाले व्यक्ति जिनके सहायक हैं। जो पृथ्वी पर अपने यश को भरते अर्थात् फैलाते हैं। भूषण
कहते हैं कि (शिवाजी) जो सूर्यकुल के और उनके शूर सैनिक वीर कुल के आभूषण हैं। सभी
रथी-महारथी जिनके दास हैं, जिनके ऊपर पृथ्वी का भार निहित है। जिसने अपने जोर से शत्रुओं की कमर तोड़
डाली है तथा जिनके साथ सदैव बाण रहते हैं। जिन्होंने
हाथी
को बाँधा है, उनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है, जो शत्रुओं को तलवार
से ही मिटाता है। जो (दुष्ट) मनुष्यों का शत्रु है। ऐसी वीरता के गुणों से युक्त शिवाजी
राम के ही हैं।
कारो जल जमुना को काल सो लगत आली,
छाइ रह्यौ मानों यह काली विष
नाग को ।
बैरन भई है कारी कोयल निगोड़ी यह,
तैसे ही भंवर कारो वासी बन बाग
को ।
भूषन भनत कारे कान्ह को वियोग हियै,
सबै दुखदाई जो करैया अनुराग को ।
कारो घन घेरि-घेरि मार् यो अब चाहत हैं
ऐते पर करति भरोसो कारे काग को
।। 12
शब्दार्थ-आली=सखी। कारो=काला। छाइ रह्यो=मानो यह विष काली नाग को=जमुना
जल (श्यामरंग का) ऐसा प्रतीत होता है मानो कालिय नाग का विष हो। भंवर=भौरा। कान्ह=कृष्ण। कारे=काले। काग=कौआ।।
प्रसंग-प्रस्तुत पद में कवि ने विरहिणी
नायिका व वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए वियोग पक्ष को उजागर किया है।
व्याख्या-कवि ने वर्णन किया है कि नायिका
काले रंग को दोषी साबित करते हए अपने सखी से कहती है कि हे सखी! यमुना का जल नायक के
वियोग में काला सा लग रहा है। लग रहा है मानों कालिया नाग का विष सर्वत्र इस जल में
व्याप्त हो गया है। यह कोयल भी मेरे लिए शत्रुवत् लग रहा है। यह उद्यान में फूलों पर
मंडराने वाला काला भौंरा भी शत्रु लग रहा है। कवि नायिका के शब्दों में कहता है कि
जितने भी प्यार में सहायक माने गये हैं वे सब के सब श्याम (काले) कृष्ण के वियोग में
दुःखदायी हो गये हैं तथा मुझे घेरकर मारना चाहते हैं। किन्तु यह सब होने के बावजूद
विश्वास है कि यह काला काग प्रिय के आने का सन्देश सुना देगा।
विशेष—यह वियोग शृङ्गार का छन्द है। वियोगिनी
नायिका के कृष्ण के वियोग में कभी (संयोग काल में) सुखद प्रतीत होने वाली काले रंग
की (श्याम वर्ण कृष्ण के रंग की होने के कारण) सभी वस्तुएँ अब अत्यन्त दुःखद प्रतीत
हो रही हैं फिर भी उस काले रंग के कौवे का भरोसा करना पड़ रहा है। (इसलिए कि शायद यह
प्रिय का संदेश सुना दे।)
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