भूषण — शिवराज भूषण के पद, ससन्दर्भ व्याख्या, जीवनपरिचय
भूषण के पद
विकट अपार भव-पथ के चले को श्रम-
हरन-करन बिजना-से ब्रह्म ध्याइए ।
यह लोक परलोक सुफल करन कोक,
नद से चरन हिए आनि कै जुड़ाइए ।
अलिकुल-कलित-कपोल, ध्यान ललित,
अनंदरूप-सरित में भूषण अन्हाइए ।
पाप-तरु भंज बिघन-गढ़ गंजन,
जगत-मन-रंजन द्विरदमुख गाइए ।। 1
विकट=कठिन, जटिल। भवपथ=सांसारिक मार्ग। हरन=हरण करने वाले। सफल करन=सफलता प्रदान करने वाले। कोकनद=लाल कमल। हिए=हृदय, मानस। जुड़ाइये=शांति प्राप्त कीजिए। अलिकुल=भ्रमरवृन्द। कलित=सुशोभित। ललित=लुभावना। पाप-तरु=पाप-वृक्ष। विघ्न-गढ़=बाधाओं का समूह। द्विरदमुख=हाथी के समान मुख वाले।
सन्दर्भ — प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक मंदाकिनी के भूषण के पद नामक पाठ से लिया गया है, इसके रचयिता रीतिकालीन कवि भूषण जी हैं।
प्रसंग — प्रस्तुत पद में गणेश-स्तुति की गई है।
व्याख्या —भूषण कवि कहते हैं कि हे मन! तू सांसारिक कष्टों को दूर करने वाले श्री गणेश जी का ध्यान कर, वे ही तेरी सांसारिक बाधाओं को दूर कर सकते हैं। इस लोक तथा परलोक की कामनाओं को पूर्ण करने वाले गणेश के लाल कमल सदृश चरणों में तू अपने मन को समर्पित कर और सांसारिक बाधाओं से अपने हृदय को मुक्त करके शांति प्राप्त कर।कवि आगे कहता है कि हे मन! तू गणेश जी के उस सौम्य गण्डमण्डल का ध्यान कर जिससे निरन्तर मद की धारा बहती रहती है और जिसके कारण भक्त-भँवरे सदैव आकर्षित रहते हैं। वे पाप-वृक्षों को नष्ट करने वाले, विघ्न-समूह को विनष्ट करने वाले तथा भक्तों के मार्ग से बाधाएँ हटाने वाले हैं। इसलिए हे मन! तू गणेश जी की आनंदरूपी सरिता में स्नान कर और सब पापों से मुक्त हो।
विशेष — (1) वृत्यानुप्रास का प्रयोग। (2) भव-पथ, आनन्दरूप सरित, पाप-तरु आदि में रूपक अलंकार। (3) कोकनद से चरण तथा द्विरदमुख में उपमा।
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है ।
भूषण भनत नाद बिहद नगारन के,
नदी-नद मद गैबरन के रलत है ।
ऐल-फैल खैल-भैल खलक में गैल-गैल,
गजन की ठैल-पैल सैल उसलत है ।
तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि
थारा पर पारा पारावार यों हलत है ।। 2
चतुरंग=चारों अंग (हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल) वाली सेना। उमंग=उत्साह, मौज। सरजा=शिवाजी की उपाधि, अत्यन्त वीर। तुरंग=घोड़े। नद=बड़ी नदियाँ। बिहद=बहुत अधिक। गैबरन=श्रेष्ठ हाथी। खैल-भैल=खलबली। खलक=संसार, जनसमूह। गैल-गैल=गली-गली, हर ओर। ठैल-पैल=धक्कमधक्का। उसलत=उखड़ना। तरनि=सूर्य। पारावार=समुद्र।
सन्दर्भ — प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक मंदाकिनी के भूषण के पद नामक पाठ से लिया गया है, इसके रचयिता रीतिकालीन कवि भूषण जी हैं।
प्रसंग — इस पद में कवि भूषण ने शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के युद्ध-प्रस्थान का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है।
व्याख्या — कवि कहते हैं कि अत्यन्त वीर ‘सरजा’ शिवाजी अपनी चतुरंगिणी सेना—पैदल, हाथी, घोड़े और रथ—को सजाकर तथा अंग-अंग में युद्ध-उमंग धारण कर रणभूमि को जीतने हेतु अग्रसर हो रहे हैं। उस समय नगाड़ों का प्रचण्ड नाद गूँज रहा था। सेना में उपस्थित श्रेष्ठ हाथियों की कनपटी से बहता मद नदी-नालों के समान प्रवाहित हो रहा था, जिससे सेना की महान शक्ति का बोध होता है। इतनी विशाल सेना के आगे-पीछे फैल जाने से संसार की गली-गली में खलबली मच गई। हाथियों की ठेल-पेल से पर्वत तक डोलने लगे। सेना के प्रचण्ड गति से चलने के कारण धूल के घने बादल उठने लगे, जिससे आकाश में चमकता सूर्य तारे के समान दिखाई देने लगा। सम्पूर्ण पृथ्वी ऐसे काँपने लगी जैसे थाली में रखा पारा हिलता है।
विशेष — (1) शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रस्थान का अत्यन्त सजीव चित्रण। (2) उपमा, रूपक आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग।
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं ।
कंद मूल भोग करैं, कंद मूल भोग करैं
तीन बेर खातीं, ते वै तीन बेर खाती हैं ।
भूषन शिथिल अंग, भूषन शिथिल अंग
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं ।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं ॥ 3
मंदर=महल। ऊँचे घोर मंदर=अत्यन्त ऊँचे महल, पर्वत-जैसे भवन। रहनवारी=रहने वाली। रहाती हैं=रहती हैं। कंदमूल=कन्दा और जड़, जंगली वनस्पतियाँ। भोग करैं=खाती थीं। तीन बेर=दिन में तीन बार भोजन / जंगली बेर के तीन फल। भूषण शिथिल अंग=आभूषणों के भार से शिथिल अंग। बिजन डुलातीं=पंखा झलती थीं / निर्जन जंगल में भटकना। नगन जड़ातीं=नंगी होकर ठिठुरना।
सन्दर्भ — इस पद में कवि भूषण ने शिवाजी के आतंक से भयभीत मुगल बादशाहों की बेगमों की दयनीय अवस्था का वर्णन आलंकारिक शैली में किया है।
प्रसंग — शिवाजी के भय से वे बेगमें, जो महलों में रहती थीं, अब पर्वतों और जंगलों में छिपकर रहने लगी हैं।
व्याख्या — कवि भूषण कहते हैं कि पहले जो बेगमें ऊँचे-ऊँचे भव्य महलों में निवास करती थीं, शिवाजी के आतंक के कारण अब वे उन महलों को छोड़कर भयंकर पर्वतों की गुफाओं में रहने को विवश हैं। जो स्त्रियाँ पहले बढ़िया मिष्ठानों का भोग करती थीं, वे अब जंगलों की कन्दा-जड़ों पर जीवन बिता रही हैं। जो रानियाँ दिन में तीन बार भोजन करती थीं, आज वे किसी प्रकार जंगली बेर के तीन फल पाकर ही दिन काट रही हैं। जो बेगमें महलों में बैठकर पंखा झलती थीं, अब वे निर्जन जंगलों में यहाँ-वहाँ भटकती फिर रही हैं। भूषण कवि कहते हैं—हे शिवाजी! तेरे भय से उन बेगमों के शरीर पर आभूषण तो दूर, वस्त्र भी नहीं हैं। वे भय और ठंड से ठिठुरती हुई नग्न अवस्था में पर्वतों में छिपने को मजबूर हैं। शिवाजी के आतंक का यह आलंकारिक चित्रण युद्ध-शौर्य को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करता है।
विशेष — (1) अभंग यमक अलंकार का अत्यन्त सुंदर प्रयोग। (2) भयानक रस की प्रभावपूर्ण अभिव्यंजना। (3) वर्णन में अतिश्योक्ति और चमत्कारिता का अनूठा मेल। (4) भाषा—ब्रजभाषा।
उतरि पलंग ते न दियो है धरा पै पग
तेऊ सगबग निसि दिन चली जाती हैं ।
अति अकुलातीं मुरझाती न छिपातीं गात,
बात न सुहातीं बोले अति अनखाती हैं ।।
‘भूषन' भनत सिंह साहि के सपूत सिया,
तेरी धाक सुनि अरिनारी बिललाती हैं ।
कोऊ करें घाती कोऊ रोतीं पीटि छाती घरौं,
तेरी बेर खाती तेऽब तीन बेर खाती हैं ॥ 4
अनखाती=खीझ उठती हैं। बिललाती=बिलखती हैं। धाती=आत्मघात, स्वयं को हानि पहुँचना। तीन बेर=तीन बार भोजन / जंगली बेर के तीन फल।
प्रसंग — इस पद में शिवाजी के शौर्य और आतंक से भयभीत प्रतिपक्षी राजाओं की रानियों की दुखद अवस्था का चित्रण किया गया है।
व्याख्या — भूषण कहते हैं कि जो रानियाँ पहले अपने विशाल महलों के पलंगों से उतरते समय भी धरती पर पैर नहीं रखती थीं, वे आज शिवाजी के भय से दिन-रात भागती फिरती हैं। सुनसान जंगलों में भटकते हुए उनका शरीर मुरझा गया है, वे छिपने का स्थान ढूँढती फिरती हैं और किसी भी बात से संतुष्ट नहीं होतीं, उलटे खीझ उठती हैं। हे सिंह साह के वीर पुत्र शिवाजी! तुम्हारी वीरता का प्रभाव ऐसा है कि प्रतिपक्षी राजाओं की स्त्रियाँ रो-रोकर छाती पीटती हैं। कोई अपने प्राण लेने को उद्यत है, कोई भय से बिलख रही है। जो रानियाँ पहले दिन में तीन बार स्वादिष्ट भोजन करती थीं, वे आज भय और कष्ट के कारण केवल जंगल के तीन बेर खाकर जीवन बिता रही हैं। भूषण ने इस पद में भयाकुलता, करुणा और आतंक का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण किया है।
विशेष — (1) शिवाजी के शौर्य का अतिशयोक्तिपूर्ण और चमत्कारपूर्ण वर्णन। (2) रानियों की दयनीय स्थिति का जीवंत चित्रण। (3) भाषा में करुण एवं भयानक रस का सुंदर संयोग।
सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग ।
ताहि खरी कियो छ हजारिन के नियरे ।।
जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर,
कीन्हों न सलाम न बचन बोले सियरे ।।
‘भूषन' भनत महावीर बलकन लाग्यो,
सारी पातसाही के उड़ाय गये जियरे ।।
तमक ते लाल मुख सिवा को निरखि भयो,
स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे ॥ 5
जोग=योग्य। खरी कियो=खड़ा किया। जानि गैर मिसिल=स्वागत को अपमान समझकर। गुसीले=क्रोधित स्वभाव के। सियरे=शीतल भाव से / बिना भाव के। बलकन लाग्यो=क्रोध से बड़बड़ाने लगा। उड़ाय गये जियरे=जी घबरा गये। तमक=क्रोध। स्याह=काला। पियरे=पीला।
सन्दर्भ — यह पद मुगल दरबार में औरंगजेब के सामने शिवाजी की भेंट और उनके प्रति किए गए अपमान का वर्णन करता है।
प्रसंग — औरंगजेब ने जान-बूझकर शिवाजी को छः हजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा किया। शिवाजी इस अपमान को सहन न कर सके और क्रोधावेश में दरबार में गरज उठे।
व्याख्या — कवि भूषण कहते हैं कि जिस शिवाजी को दरबार में सबसे ऊपर स्थान मिलना चाहिए था, उन्हें अपमानित करने के उद्देश्य से औरंगजेब ने छह-हजारी मनसबदारों के पास खड़ा कर दिया। इस अपमान को समझते ही शिवाजी के हृदय में तीव्र क्रोध भर गया। उनके क्रोध का प्रभाव ऐसा था कि उन्होंने न तो औरंगजेब को सलाम किया और न ही किसी प्रकार की औपचारिक शिष्टता दिखाई। भूषण वर्णन करते हैं कि जब शिवाजी क्रोध से गरजते हुए बोलने लगे तब पूरा मुगल दरबार भय से स्तब्ध रह गया—सभी के प्राण जैसे उड़ गए। शिवाजी का मुख क्रोध से लाल हो गया, औरंगजेब का चेहरा भय व शर्म से काला पड़ गया और सैनिकों के मुख डर के कारण पीले पड़ गए। इस प्रकार इस पद में शिवाजी के रौद्र रूप और मुगल दरबार की भयाकुलता का अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण मिलता है।
विशेष — (1) रौद्र रस की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति। (2) शिवाजी के व्यक्तित्व की तेजस्विता एवं प्रभाव का सजीव चित्रण। (3) शब्दावली की सरलता और मुहावरों से भाषा में सजीवता आई है।
गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर,
दावा नाग जूह पर सिंह सिरताज को
दावा पूरहूत को पहारन के कूल पर
दावा सब पच्छिन के गोल पर बाज को
भूषण अखंड नव खंड महि मंडल में
रवि को दावा जैसे रवि किरन समाज को ।
पूरब पछांह देश दच्छिन ते उत्तर लौं
जहाँ पातसाही तहाँ दावा सिवराज को ।। 6
गरुड़=तेज़ उड़ने वाला पक्षी/विष्णु का वाहन। नाग=सर्प। दावा=अधिकार, आधिपत्य। नागजूह=हाथियों का समूह। सिरताज=श्रेष्ठ, मुकुट। पुरहूत=इन्द्र। पहारन=पहाड़। गोल=समूह। अखंड=सम्पूर्ण। नवखंड=नौ खण्ड। महिमंडल=पृथ्वी। किरनसमाज=किरण समूह। लौं=तक। पातसाही=बादशाही शासन। तम=अंधकार।
सन्दर्भ — यह पद भूषण के पद्य में शिवाजी के शौर्य और अधिकार क्षेत्र का वर्णन करने हेतु लिया गया है।
प्रसंग — इस पद में कवि भूषण ने विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के उदाहरण देकर यह बताया है कि समूचे भारतवर्ष पर शिवाजी का दावा और पराक्रम छाया हुआ है।
व्याख्या — कवि कहते हैं कि जैसे सर्पों के समूह पर गरुड़ का अधिकार होता है, जैसे हाथियों के समूह पर सिंह का आधिपत्य रहता है, जैसे पहाड़ों के कुल पर इन्द्र का शासन होता है और जैसे पक्षियों पर बाज का अधिकार होता है — उसी तरह सम्पूर्ण पृथ्वी पर शिवाजी महाराज का प्रभाव और दावा है। जिस तरह सूर्य अपनी किरणों का अधिकार जमाकर तम को नष्ट करता है, उसी प्रकार पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण — जहाँ-जहाँ बादशाही है वहाँ-वहाँ शिवाजी का पराक्रम व्याप्त है।
विशेष — (1) शिवाजी को राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है। (2) निदर्शना अलंकार का सुंदर प्रयोग।
ब्रह्म के आनन ते निकसे ते अत्यन्त पुनीत तिहूँ पुर मानी,
राम युधिष्ठिर के बरने बलमीकिहु व्यास के संग सोहानि।
भूषण यों कलि के कविराजन राजन के गुन पाय नसानी,
पुन्य चरित्र सिवा सरजा सर न्हाय पवित्र भई पुनि बानी।। 7
ब्रह्म के आनन ते=ब्रह्मा के मुख से। कलि के कविराजन=कलियुग के कवि। राजन के गुन पाय नसानी=सामान्य राजाओं का गुणगान कर सरस्वती को अपवित्र कर दिया। पुण्य चरित्र... बानी=शिवाजी के यश-सरित में स्नान कर सरस्वती फिर पवित्र हुई।
सन्दर्भ — यह पद भूषण की राष्ट्रीय भावना और सरस्वती के पुनः पावन होने के वर्णन हेतु लिया गया है।
प्रसंग — भूषण जी राजाओं की चापलूसी नहीं करते थे। वे केवल योग्य, राष्ट्रहितैषी और वीर राजाओं का गुणगान करते थे। इसीलिए उन्हें शिवाजी जैसे योग्य आश्रयदात्ता मिले।
व्याख्या — कवि कहते हैं कि ब्रह्मा के मुख से निकली वेदवाणी अत्यन्त पवित्र है और तीनों लोकों में सम्मानित है। वाल्मीकि ने रामकथा और व्यास ने महाभारत की रचना करके सरस्वती का गौरव बढ़ाया। किंतु कलियुग के कवियों ने सामान्य, विषयासक्त राजाओं का गुणगान करके सरस्वती का मान घटा दिया। भूषण कहते हैं कि शिवाजी महाराज जैसे पुण्यात्मा, धर्मरक्षक और राष्ट्रवीरों के यश-सरोवर में स्नान करके सरस्वती पुनः पवित्र हो गईं।
विशेष — (1) सरस्वती के पुनर्पावन होने का दिव्य चित्रण। (2) भूषण की राष्ट्रभक्ति और कवि-धर्म का प्रबल स्वर।
कामिनि कंत सौं जामिनि चंद सों,
दामिनि पावस मेघ घटासों,
कीरति दान सों सूरति ज्ञानसों
प्रीति बड़ी सनमान महासों।
भूषन भूषन सों तरुनी नलिनी नव
पूषनदेव प्रभा सों,
जाहिर चारिहु ओर जहान लसै
हिंदुआन खुमान सिवा सों।। 8
जामिनि=रात्रि। पावस मेघ घटा=वर्षा के बादलों की घटा। मूरति=मानव शरीर। भूषण=अलंकार। तरुनी=युवती स्त्री। पूषनदेव=सूर्य देव। लसै=शोभित होती है। खुमान=आयुष्मान्।
सन्दर्भ — शिवाजी को कवि हिन्दुओं की आशा का बिन्दु मान रहा है।
प्रसंग — कवि शिवाजी के महत्व को बताने हेतु अनेक प्राकृतिक और लौकिक उपमाओं का उपयोग करता है।
व्याख्या — कवि कहता है कि जैसे स्त्री अपने पति से, रात्रि चन्द्रमा से, बिजली वर्षा के बादलों से, कीर्ति दान से, सुंदर रूप ज्ञान से तथा प्रीति सम्मान से सुशोभित होती है। जैसे शरीर आभूषणों से और कमलिनी सूर्य की किरणों से शोभा पाती है—उसी प्रकार यह बात सारे संसार में प्रसिद्ध है कि हिन्दू राष्ट्र को सुशोभित करने वाले महाराज शिवाजी हैं।
विशेष — (1) शिवाजी के गौरव का सुन्दर अलंकारिक वर्णन। (2) दीपक, अनुप्रास और यमक अलंकार का मनोहर प्रयोग।
निकसत म्यान ते मयूखै प्रलै भानु कैसी,
फारे तम तोम से गयंदन के जाल को।
लागति लपटि कंठ बैरिन के नागिन सी,
रुद्रहि रिझावै दै दै मुंडन के माल को।।
लाल छितिपाल छत्रसाल महा बाहुबली,
कहाँ लौ बखान करीं तेरी करवाल को।
प्रतिभट कटक कटीले केते काटि काटि,
कालिका सी किलकि कलेऊ देति काल को।। 9
निकसत=निकलते ही। मयूखै=किरणें। प्रलैभानु=प्रलयकालीन सूर्य। तमतोय=गहन अंधकार। गयंदन=बड़े हाथियों का समूह। करवाल=तलवार। प्रतिभट=शत्रु पक्ष के वीर। कटक=सैन्य समूह। कटीले=तीक्ष्ण, प्रबल। कलेऊ=तड़के का जलपान।
सन्दर्भ — कवि भूषण ने महाराज छत्रसाल की युद्ध-वीरता का ओजपूर्ण वर्णन किया है।
प्रसंग — कवि छत्रसाल की तलवार की शक्ति बताते हुए उसकी तुलना प्रलयकालीन सूर्य और नागिनी से करता है।
व्याख्या — कवि कहता है कि छत्रसाल की तलवार म्यान से निकलते ही प्रलयकालीन सूर्य की भाँति चमक उठती है और अंधकार के समान काले बड़े हाथियों के समूह को चीर देती है। वह नागिन की तरह शत्रुओं के कण्ठ से लिपटकर उनके प्राण हर लेती है, जिससे रुद्र भगवान प्रसन्न होते हैं। कवि कहता है कि—हे पृथ्वीपति छत्रसाल! आपकी तलवार की महिमा का वर्णन शब्दों में संभव नहीं। यह तलवार कांटेदार वृक्षों की भाँति शत्रु–सेना को काटती और कालीका के समान किलकारी भरकर यमराज को नाश्ता कराती है।
विशेष — (1) ओज, वीर रस और अतिशयोक्ति का अद्भुत संगम। (2) उपमा, अनुप्रास और पुनरुक्ति-प्रकाश अलंकारों का प्रभावपूर्ण प्रयोग।
साहि तनै सरजा सिवा की सभा जा मधि है,
मेरुवारी सुर की सभा कौ निदरति है।
‘भूषन' भनत जाके एक एक सिखर ते,
चारों ओर नदिन की पाँति।
जोन्ह को हंसति जोति हीरामनि मंदिरन,
कंदरन मैं छबि कुहू की उछरति है।
एतो ऊँचो दुरग महाबली को जामें,
नखतावली सों बहस दिपावली करति है।। 10
जामधि=जिस दुर्ग के मध्य में। सुमेरवारी=सुमेर पर्वत वाली। निदरति=तिरस्कृत करती है। सिखर=चोटी। नदिन=नदियाँ। जौन्ह=चाँदनी। कंदरन=गुफाएँ। कुहूँ=अमावस्या। दुरग=दुर्ग। नखतावली=नक्षत्रों का समूह।
सन्दर्भ — कवि भूषण रायगढ़ दुर्ग के वैभव और महिमा का वर्णन कर रहा है।
प्रसंग — कवि बताता है कि शिवाजी की सभा देवताओं की सभा से भी श्रेष्ठ है और रायगढ़ का वैभव अनुपम है।
व्याख्या — कवि कहता है कि सुमेरु पर्वत पर आयोजित देव–सभा भी शिवाजी की सभा के सामने तुच्छ प्रतीत होती है। रायगढ़ दुर्ग की चोटियों से शिवाजी की कीर्ति रूपी नदियाँ चारों ओर प्रवाहित दिखाई देती हैं। महलों को सजाने वाले हीरे–मणियों की चमक चन्द्रमा की चांदनी का उपहास करती है। दुर्ग की गुफाओं में अमावस्या–सी कालिमा छाई रहती है। यह दुर्ग इतना ऊँचा है कि इसके दीपों की पंक्तियाँ आकाश के नक्षत्रों के प्रकाश को चुनौती देती हैं।
विशेष — (1) उपमाओं का सशक्त और भव्य प्रयोग। (2) चित्रात्मकता और अनुप्रास इसका सौन्दर्य बढ़ाते हैं।
सीय संग सोभित सुलच्छन सहाय जाके,
भू पर भरत नाम भाई नीति चारु है।
भूषन भनत कुल- सूर कुल- भूषन हैं,
दासरथी सब जाके भुज भुव भारु है।।
अरि-लंग तोर जोर जाके संग बानर हैं,
सिंधुर हैं बाँधे जाके दल को न पार है।
तेगहि कै भेटै जैन राकस मरद जानै,
सरजा शिवाजी राम ही को अवतारु है।। 11
सीय=सीता जी। सुलच्छन=अच्छे लक्षणों वाला। भरत=राम के भाई भरत। चारु=सुन्दर। दासरथी=दशरथ के पुत्र। भुवभारु=पृथ्वी का भार। अरि-लंग=शत्रु की लंका। तोर=तोड़ दिया, नष्ट। सिंधुर=समुद्र। तेगहि कै भेटै=तलवार से पकड़कर मारना। राकस=राक्षस। मरद जानै=मर्दन करना।
सन्दर्भ — कवि शिवाजी को ईश्वर का अंशावतार मानकर उनकी दिव्य महिमा का वर्णन करता है।
प्रसंग — कवि बताता है कि शिवाजी में वे सभी गुण हैं जो भगवान राम में थे — इसलिए उन्हें राम का अवतार कहा गया है।
व्याख्या — कवि कहता है कि जैसे श्रीराम सीता के साथ शोभित होते थे, वैसे ही शिवाजी भी सौभाग्य और लक्ष्मी के साथ सुशोभित हैं। लक्ष्मण जैसे गुणी सहायक, भरत जैसा नीति वाला भाई — ऐसे दिव्य गुण शिवाजी में भी हैं। वे सूर्यकुल की शोभा हैं और अपने शौर्य से पृथ्वी का भार वहन करते हैं। उन्होंने अपने पराक्रम से शत्रुओं का अभिमान तोड़ा और समुद्र जैसी बाधाओं को भी पार किया। उनकी तलवार राक्षसों का दमन और दुष्टों का नाश करती है। इतना सामर्थ्य केवल दिव्य पुरुष के पास हो सकता है — इसलिए शिवाजी को राम का अवतार कहा गया है।
विशेष — (1) वीर–रस की प्रभावी अभिव्यक्ति। (2) शिवाजी की तुलना राम से कर दिव्यता का चित्रण। (3) अनुप्रास, उपमा और अतिशयोक्ति का सुन्दर प्रयोग।
कारो जल जमुना को काल सो लगत आली,
छाइ रह्यौ मानों यह काली विष नाग को।
बैरन भई है कारी कोयल निगोड़ी यह,
तैसे ही भंवर कारो वासी बन बाग को।
भूषन भनत कारे कान्ह को वियोग हियै,
सबै दुखदाई जो करैया अनुराग को।
कारो घन घेरि-घेरि मार् यो अब चाहत हैं,
ऐते पर करति भरोसो कारे काग को।। 12
आली=सखी। कारो=काला। काली विष नाग=कालिया नाग का विष। भंवर=भौंरा। कान्ह=कृष्ण। करैया=प्रेम। काग=कौआ।
सन्दर्भ — प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक मंदाकिनी के भूषण के पद नामक पाठ से लिया गया है,इसके रचयिता रीतिकालीन प्रसिद्ध कवि भूषण जी हैं जिनकी अमर कृति शिवराज-भूषण है जिसमें से यह पद संकलित है
प्रसंग — प्रस्तुत पद में कवि ने विरहिणी नायिका व वर्षा ऋतु का वर्णन करते हुए वियोग पक्ष को उजागर किया है।
व्याख्या — कवि ने वर्णन किया है कि नायिका काले रंग को दोषी साबित करते हए अपने सखी से कहती है कि हे सखी! यमुना का जल नायक के वियोग में काला सा लग रहा है। लग रहा है मानों कालिया नाग का विष सर्वत्र इस जल में व्याप्त हो गया है। यह कोयल भी मेरे लिए शत्रुवत् लग रहा है। यह उद्यान में फूलों पर मंडराने वाला काला भौंरा भी शत्रु लग रहा है। कवि नायिका के शब्दों में कहता है कि जितने भी प्यार में सहायक माने गये हैं वे सब के सब श्याम (काले) कृष्ण के वियोग में दुःखदायी हो गये हैं तथा मुझे घेरकर मारना चाहते हैं। किन्तु यह सब होने के बावजूद विश्वास है कि यह काला काग प्रिय के आने का सन्देश सुना देगा।
विशेष — (1) वियोग–शृंगार का अत्यन्त मार्मिक चित्रण। (2) प्रतीक–योजना और प्रकृति–वर्णन की अद्भुत समरसता। (3) कृष्ण–वियोग के कारण ‘श्याम–वर्ण’ वस्तुओं का प्रतीकात्मक विरोध। (4) यह वियोग शृङ्गार का छन्द है। वियोगिनी नायिका के कृष्ण के वियोग में कभी (संयोग काल में) सुखद प्रतीत होने वाली काले रंग की (श्याम वर्ण कृष्ण के रंग की होने के कारण) सभी वस्तुएँ अब अत्यन्त दुःखद प्रतीत हो रही हैं फिर भी उस काले रंग के कौवे का भरोसा करना पड़ रहा है। (इसलिए कि शायद यह प्रिय का संदेश सुना दे।)
सन्दर्भ-व्याख्या
यहाँ पदों के ऐतिहासिक, सामाजिक और भाषाई संदर्भ का विस्तृत व्याख्यान आएगा — पदों में प्रयुक्त अलंकार, प्रतीक, मिथक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की व्याख्या की जायेगी।
जीवन परिचय — शिवराज भूषण
यहाँ शिवराज भूषण का संक्षिप्त, शिक्षकीय-स्तर का जीवन परिचय आएगा — जन्म, शिक्षा, साहित्यिक योगदान, प्रमुख कृतियाँ और पुरस्कार।
शब्दार्थ
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