संस्कृतियों का संगम-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी


अपने प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से हम ऐसी अनेक जातियों का परिचय पाते हैं जिनमें आचार-विचारगत पार्थक्य बहुत अधिक मात्रा में वर्तमान था । ये जातियाँ सभ्यता के नाना स्तरों पर स्थित थीं और उनमें अकारण और सकारण युद्ध बराबर होते रहते थे । अधिकांश युद्ध विभिन्न विश्वासों और संस्कारों के संघर्ष के कारण हो जाते थे । भौगोलिक- तत्व के पण्डितों का अनुमान है कि इस देश का मध्य और दक्षिणी भाग  पुराना है, हिमालय और राजपूताना अपेक्षाकृत नये भूखण्ड हैं जिनमें एक भूगर्भ के आकस्मिक उत्पात से समुद्र में उन्नत हो आया और दूसरा प्रकृति के सहज क्रम में सूखकर मरुभूमि बन गया है । इस पर से यह समझा जा सकता है कि यदि इस देश में प्रथम मनुष्य का वास कहीं हुआ होगा तो वह विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में ही कहीं रहा होगा । यह भूभाग कभी आस्ट्रेलिया के विशाल द्वीप के साथ स्थल मार्ग से सम्बद्ध था और निकोबार और मलक्का के द्वीप भी इस भूभाग के ही संलग्न अंश थे । इस भूखण्ड में कभी मुंडा या कोल श्रेणी की जातियों की बस्ती थी । ये जातियाँ अब ही वर्तमान हैं और अपनी पुरानी परम्परा को कथंचित् जिलाए रखने में समर्थ हैं । साधारणतः यह समझा जाता रहा है कि ये जातियाँ भारतीय सभ्यता के केन्द्रों, संचरण मार्गों और तीर्थस्थलों से दूर रहने के कारण इस सभ्यता को बहुत कम ‘संसर्ग-दुष्ट’ बना सकी हैं । पर आधुनिक शोधों से बिलकुल उलटे तथ्यों का आविष्कार हुआ है । प्रो. सिलवा लेवी ने अंग-बंग, कामरूप-तामरूप, कलिंग-त्रिलिंग आदि देशवाचक और स्थानवाचक नामों के अध्ययन से यह दिखा दिया है कि न जातियों की परम्परा एकदम उपेक्षणीय नहीं । लेवी के शिष्य प्रो. ज्युलुस्की ने मोनरूमेर श्रेणी की भाषाओं के साथ इन जातियों की भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन कर एकदम नयी जानकारियों का द्वार उद्घाटन कर दिया है । यह समक्षना गलत है कि ये जातियाँ हमारी सभ्यता में कुछ भी नहीं दे सकी हैं । अनेक वृक्षों के नाम, खेतीबाड़ी के औजारों और अन्य पारिभाषिक शब्दों के नाम इनकी भाषाओं में आये हैं । वृक्षपूजा इन जातियों की देन हो सकती है । मैंने अन्यत्र दिखाया है कि लिंग पूजा और लांगलधर और लांगूलधर देवता की पूजा भी इन जातियों से हिन्दू धर्म में आयी होंगी । ताम्बूल भी इसी श्रेणी की भाषा के किसी शब्द का संस्कृत रूप है । ताम्बूल को परवर्ती हिन्दू धर्म में और शिष्टाचार में जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है वह सर्वविदित है । उड़ीसा और बंगाल के अनेक धर्म-मतों पर और परवर्ती कबीर पंथ पर भी इनके प्रभाव का प्रमाण उपलब्ध हुआ है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि अनेक हिन्दू जातियाँ भी मूलतः इसी श्रेणी की होंगी । हिन्दू समाज के निचले स्तर में खेतीबाड़ी करने वाली बहुत-सी जातियाँ इनका आर्यभाषी संस्करण हैं । इस प्रकार इन जातियों के अध्ययन से हमारे धर्म-जीवन की परम्परा के अध्ययन में बहुत सहायता मिल सकती है, पर दुर्भाग्यवश इनका जितना ठोस अध्ययन होना चाहिए उतना हुआ नहीं है ।

                             विन्ध्यपर्वत को पार करके दक्षिण जाने वाले सर्वप्रथम मुनि अगस्त्य समक्षे जाते हैं । साधारतः यह विश्वास किया जाता है कि श्रीरामचन्द्र ने दक्षिण को विजय किया और उन्होंने ही उस भूखण्ड में आर्य प्रभाव का विस्तार कियाव । यह बात केवल प्राचीन परम्परा की आधुनिक काल्पनिक व्याख्या मात्र हो सकती है और आंशिक रूप से सत्य भी हो सकती है । श्रीरामचन्द्र को दक्षिण की कई ऐसी जातियों का सहयोग मिला था जिन्हें कृषि कर्म का भी अभ्यास नहीं था और केवल वृक्षों की डाल और पहाड़ों के टुकड़े अर्थात पत्थर के अस्त्रों का ही व्यवहार जानती थी । इन्हें ‘बानर’ कहा गया है । राम के पास लोहे के बाण थे । आधुनिक शोधों से इस विचित्र रहस्य का उद्घाटन किया है कि उत्तर और दक्षिण के  प्रागैतिहासिक युग के इतिहास में एक बड़ा भारी अन्तर यह है कि उत्तर में प्रस्तर युग और लौह युग के बीच में ताम्र युग आता है जबकि दक्षिण में प्रस्तर युग के बाद एकदम लौह युग आ जाता है । छोटा नागपुर की खुदाइयों से इसी तथ्य की पुष्टि होती है । विद्वानों ने अनुमान से कहा है कि द्रविड़ जातियों ने मुंडा या कोल जातियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था । सन् 1924 ई. में एक महत्वपूर्ण बात का पता लगा । डॉ. राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ों में और पं. दयाराम साहनी ने हरप्पा में धरती के नीचे गड़ी हुई एक अत्यन्त समृद्ध आर्यपूर्व सभ्यता का पता लगाया ।
परम्परया हम सुनते आते हैं कि रावण बहुत बड़ा शिव साधक था, वह वेदों का व्याख्याता था, वह शिल्प- शाखा का उन्नायक भी था और उसको आयुर्वेदिक आचार्य होने का गौरव भी प्राप्त था इन बातों के सबूत में कोई ऐतिहासिक समझा जाने वाला प्रमाण नहीं मिला है । रावण लिखित बतायी जाने वाली आयुर्वेद की पुस्तक बहत आधुनिक  है और जिन शिल्पग्रंथों में रावण प्रवर्तित शिल्प शाखा का उल्लेख है वे भी  गप्प हैं औरइनको एकदम अस्वीकार कर देना चाहिए । ऐतिहासिक प्रमाण समर्थित परम्परा बहुत बहुमूल्य होगी, इसमें सन्देह नहीं, पर असमर्थित परम्परा एकदम त्याज्य नहीं मानी जानी चाहिए ।
            पण्डितों में यह विश्वास जमता जा रहा है कि वृक्ष-पूजा, नर-बलि, जीव-बलि, मद्य-मांस की बलि, प्रेत-पूजा आदि आचारों का मूल उत्स मुण्डा या कोल जातियाँ हैं और मूर्ति-पूजा, ध्यान, जप, गुरु-पूजा, अवतारवाद आदि के मूल प्रेरणास्त्रोत ऐसी जातियाँ हैं जो इन कोल मुण्डा आदि श्रेणी की जातियों से अधिक सभ्य और समृद्ध थीं । एक शब्द में इनका नाम ‘द्रविड़’ रख दिया गया है ।
            परवर्ती काल का वह तन्त्रवाद, जिसमें स्त्रीतत्व की प्रधानता थी और शरीर को ही समस्त सिद्धियो का श्रेष्ठ साधन माना जाता था ।यक्ष, गन्धर्व आदि किरात जातियों की देन रहा होगा । उत्तर से ही कापालिक और वाममार्गों का आगमन हुआ होगा । हमने अन्यत्र इस विषय की विशेष छानबीन की है । बंगाल में इन लोगों के साथ द्रविड़ जातियों के मिश्रण से एक नयी जाति का जन्म हुआ है । बाद में चलकर आर्यरक्त का भी इस जाति में मिश्रण हुआ है ।
            परन्तु इन सबसे अधिक प्रभावशाली जाति आर्य हैं, जिनका वैदिक साहित्य इस देश की सभी जातियों पर जबरदस्त प्रभाव-विस्तार कर सका है । वे आर्य लोग किस ओर से भारतवर्ष की मध्यभूमि की ओर आये यह सर्वसम्मत बात है । उत्तर-पश्चिम की ओर से ही वे लोग मध्य देश में आये पर इस ओर आने के पहले वे कहाँ रहते थे यह बात बहुत उलझी हुई है ।, कुछ थोड़े से तथ्यों का पता लगा है । इनकी व्याख्या बहुत भाँति की होने के कारण ये तत्व स्वयं ही अस्पष्ट हो गये हैं । कुछ यूरोपियन पण्डितों ने एक बार यह बताने का यत्न किया था कि आर्य लोग यूरोप से इधर आए थे पर आरमीनियन भाषा पर इसका कोई चिह्न न मिलने से यह सोचा गया कि यूरोप से ईरान के रास्ते वे उस भूभाग को छोड़कर किसी प्रकार भारत नहीं आ सकते थे ।सन् 1909 ई. में हिटाइट की राजधानी बेगाज केउई की खुदाई से यह साबित हुआ कि हिटाइट भाषा का कोई न कोई सम्बन्ध आर्यभाषाओं से है । यद्यपि विद्वानों में इस बात को लेकर मतभेद ही बना रहा है कि हिटाइट भाषा आर्य-भाषा ही है या आर्य-भाषा द्वारा प्रभावित है । परन्तु इससे भी अधिक मनोरंजक आविष्कार यह हुआ है कि यूफ्रेटस के उपरले हिस्से के मित्तानी राज्य ने 1400ई. पू. में हिटाइट के राज्य से सन्धि करते समय उन देवताओं के नाम साक्षीरूप में लिये हैं जो भारतीय वैदिक साहित्य के विद्यार्थी के निकट अत्यधिक परिचित हैं । ये देवता हैं-मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्य । निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस भूभाग में आर्यों का आगमन किस समय हुआ होगा । स्टेनकोनो के इस अनुमान का अभी भी युक्तिसंगत खण्डन नहीं उपस्थित किया जा सका कि इन देवताओं की उपासना करने वाला सम्प्रदाय भारत वर्ष से कैपेडोशिया के किनारे-किनारे दूर तक फैल गया था । ऐसा जान पड़ता है कि मध्य-एशिया के किसी स्थान से आर्य नाना दिशाओं में फैले थे । इनका एक हिस्सा ईरान होकर भारत आया था और दूसरा खाडिल्या और एशिया माइनर की ओर चला गया था । जो हो, इन आर्यों का प्रभाव भारतवर्ष की विभिन्न जातियों पर बहुत अधिक पड़ा । हमारा उच्चतर दर्शन, धर्मतत्व और आध्यात्म इन आर्यों के साहित्य से निरन्तर प्रेरणा पाता रहा है ।
                                                परन्तु जैसा कि रवीन्द्रनाथ ने कहा है, यह भारतवर्ष महामानवसमुद्र है । केवल आर्य, द्रविड़, कोल और मुण्डा तथा किरात जातियाँ ही इसमें नहीं आयी हैं । कितनी ही ऐसी जातियाँ यहाँ आयी हैं जिन्हे निश्चित रूप से किसी खास श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । फिर उत्तर-पश्चिम से नाना जातियाँ राजनीतिक और आर्थिक कारणों से आती रही हैं । उन सबके सम्मिलित प्रयत्न से वह महिमाशालिनी संस्कृति उत्पन्न हुई है जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं ।
                        आज केवल अनुमान के बल पर ही कहा जा सकता है कि अमुक प्रकार का आचार आर्य है, अमुक प्रकार का विचार द्रविड़ है, पर इसमें सन्देह नहीं कि अनेक आर्य-अनार्य जातियों ने इस देश के धर्मविश्वास को नाना भाव से समृद्ध किया है। आज भी उन जातियों की थोड़ी बहुत परम्परा बच रही है । उनके अध्ययन से हम निश्चित रूप से इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि हमारे धर्मविश्वास को सभी जातियों से किसी-न-किसी रूप में प्रभावित अवश्य किया है ।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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