अक्सर कहा जाता है कि भारतवर्ष की एकता उसकी विविधताओं में
छिपी हुई है, और यह बात जरा भी गलत नहीं है, क्योंकि अपने देश की एकता जितनी प्रकट
है, उसकी विविधताएँ भी उतनी ही प्रत्यक्ष हैं।
भारतवर्ष के नक्शे को ध्यान से देखने पर यह साफ
दिखाई पड़ता है कि इस देश के तीन भाग प्राकृतिक दृष्टि से बिल्कुल स्पष्ट हैं।
सबसे पहले तो भारत का उत्तरी भाग है, जो लगभग हिमालय के दक्षिण से लेकर विंध्याचल
के उत्तर तक फैला हुआ है। उसके बाद विंध्य से लेकर कृष्णा नदी के उत्तर तक फैला
हुआ है। जिसे हम दक्षिणी प्लेटो कहते हैं। इस प्लेटों के दक्षिण, कृष्णा नदी से
लेकर कुमारी अंतरीप तक का जो भाग है, वह प्रायद्वीप जैसा है। अचरज की बात है कि
प्रकृति ने भारत के जो ये तीन खंड किए हैं, वे ही खंड भारतवर्ष के इतिहास के भी तीन
क्रीडास्थल रहे हैं। पुराने समय में उत्तर भारत में जो राज्य कायम किए गए, उनमें
से अधिकांश विंध्य की उत्तरी सीमा तक ही फैलकर रह गये। विंध्य को लाँघकर उत्तर
भारत को दक्षिण भारत से मिलाने की कोशिश तो बहुत की गई, मगर इस काम में कामयाबी
किसी-किसी को ही मिली। कहते हैं, पहले-पहल अगस्त्य ऋषि ने विंध्याचल को पार करके
दक्षिण के लोगों को अपना संदेश सुनाया था। फिर भगवान श्री रामचंद्र ने लंका पर चढ़ाई
करने के सिलसिले में विंध्याचल को पार किया। महाभारत के जमाने में उत्तर और दक्षिणी
भारत के अंश एक राज्य के अधीन थे या नहीं, इसका कोई पक्का सबूत नहीं मिलता, लेकिन,
रामचंद्र जी ने उत्तरी और दक्षिणी भारत के बीच जो एकता स्थापित की, वह महाभारत काल में भी कायम थी और दोनों भागों
के लोग आपस में मिलते जुलते रहते थे। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में दक्षिण
के राजे भी आए थे और कुरुक्षेत्र के मैदान में जो महायुद्ध हुआ था, उसमें भी
दक्षिण के वीरों ने हिस्सा लिया था। इसका प्रमाण महाभारत में ही मौजूद है। इसी तरह
चंद्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य और उसके बाद मुगलों ने भी इस बात के लिए बड़ी
कोशिश की कि किसी तरह सारा देश एक शासन के अधीन लाया जा सके, और उन्हें इस कार्य
में सफलता भी मिली। लेकिन भारत के इतिहास की एक शिक्षा यह भी है कि देश को एक रखने
के काम में यहाँ के राजाओं को जो भी सफलता मिली, वह ज्यादा टिकाऊ नहीं हो सकी। इस
देश के प्राकृतिक ढाँचे में ही कोई ऐसी बात थी, जो सारे देश को एक रहने देने के
खिलाफ पड़ती थी। यही कारण था कि जब कोई भी बलवान और दूरदर्शी राजा इस काम में लगा,
सफलता थोड़ी बहुत उसे जरूर मिली, लेकिन स्वार्थी, अदूरदर्शी और कमजोर राजाओं के
आते ही देश की एकता टूट गई। और जो कठिनाई बिन्ध्य के उत्तर को विन्ध्य के दक्षिण
में हुई, वही कठिनाई कृष्णा नदी से उत्तर के भाग को उसके दक्षिण के भाग से मिलाकर
एक रखने में होती रही।
इस देश में वैर-फूट का भाव इतना प्रबल क्यों
रहा, इसके भी कारण हैं। बड़ी-बड़ी नदियों और बड़े-बड़े पहाड़ों के गुण अनेक हैं।
लेकिन उनमें एक अवगुण भी होता है कि वे जहाँ रहते हैं, वहाँ देश के भीतर अलग-अलग
क्षेत्र बना देते हैं और इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के भीतर एक तरह की
प्रांतीयता या क्षेत्रीय जोश पैदा हो जाता है। यह देश है बहुत विशाल। इसके उत्तरी
छोर पर कश्मीर पड़ता है, जिसकी जलवायु लगभग मध्य एशिया की जलवायु के समान है। इसके
विपरीत भारत के दक्षिण छोर पर कुमारी अंतरीप है, जहाँ के घरों की रचना और लोगों के
रंग-रूप आदि में श्रीलंका या सीलोन का नमूना शुरू हो जाता है। चेरापूँजी भी इसी
देश में है, जहाँ साल में पाँच सौ इंच से अधिक वर्षा होती है, और थार की मरुभूमि
भी यहीं है, जहाँ वर्षा होती ही नहीं, अथवा नाममात्र को होती है।
जलवायु
एवं क्षेत्रीय सुविधा के अनुसार ही लोगों के पहनावे-ओढ़ावे और खानपान में भी भेद हो
जाता है। जो भेद भारत में बहुत ही प्रत्यक्ष है। असल में, इन भेदों को मिटाकर अगर हम
कोई एक राष्ट्रीय ढंग चलाना चाहे तो उससे अनेक लोगों को बहुत ज्यादा तकलीफ हो जाएगी।
उदाहरण के लिए अगर हम रोटी और उड़द की दाल अथवा रोटी और मांस को देश का राष्ट्रीय भोजन
बना दें, तो पंजाबी लोग तो मजे मे रहेंगे लेकिन बिहारी और बंगाल के लोगों का हाल बुरा
हो जाएगा। इसी तरह, अगर हम यह कानून बना दें कि हर हिंदुस्तानी को चप्पल पहनना ही होगा
तो काश्मीर के लोग घबरा उठेंगे, क्योंकि पहाड़ पर चलने वालों के पाँवों में चप्पल ठीक-ठाक
नहीं चल सकते। पहनावे-ओढ़ावे में भी जगह-जगह भिन्नता मिलाती है और पोशाकें भी जलवायु
एवं क्षेत्रीय की सुविधा के अनुसार ही यहाँ तरह-तरह की फैली हुई है।
मगर, विविधता का सबसे बड़ा लक्षण यह है कि हमारे
देश में अनेक प्रकार की भाषाएँ फैली हुई हैं और इनके कारण हम आपस में भी अजनबी के समान
हो जाते हैं। उत्तर भारत में तो गुजरात से लेकर बंगाल तक की जनता के बीच संपर्क खूब
हुआ है, इसलिए वहाँ भाषा-भेद की कठिनाई उतनी नहीं अखरती। लेकिन, अगर कोई उत्तर-भारतवासी
दक्षिण चला जाए अथवा कोई दक्षिण-भारतीय उत्तर चला जाए और वह अपनी मातृभाषा के सिवा
अन्य की भाषा नहीं जानता हो तो वह, सचमुच बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। भाषा-भेद की
यह समस्या हमारी राष्ट्रीय एकता की सबसे बड़ी बाधा है। राष्ट्रीय एकता में पहले यह
बाधा थी कि पहाड़ों और नदियों को लाँघना आसान नहीं था। मगर, अब विज्ञान के अनेक सुगम
साधनों के उपलब्ध हो जाने से वह बाधा दूर हो गई है। आज अगर देश के एक कोने में अकाल
पड़ता है तो दूसरे कोने से अनाज यहाँ तुरंत पहुँचा दिया जाता है। इसी प्रकार पहले जब
देश के एक कोने में विद्रोह होता था, तब दूसरे कोने में पड़ा हुआ राजा जल्दी से फौज
भेजकर उसे दबा नहीं सकता था और विद्रोह की सफलता से देश की एकता टूट जाती थी। लेकिन
आज तो देश के चाहे जिस कोने में भी विद्रोह हो, हम दिल्ली से फौज भेज उसे तुरंत दबा
सकते हैं। प्राकृतिक बाधाएँ खत्म हो गई हैं यही कारण है कि आज हमारी एकता इतनी विशाल
हो गई है जितनी विशाल रामायण, मौर्य और मुगल जमानों में भी कभी नहीं हुई थी। अब भी
जो क्षेत्रीय जोश या प्रान्तीय मोह बाकी है, वह धीरे-धीरे कम हो जाएगा, क्योंकि इस
जोश को पालनेवाली प्राकृतिक बाधाएँ अब शेष नहीं है। मगर, भाषा-भेद की समस्या जरा कठिन
है और उसका हल तभी निकलेगा जब हिंदी-भाषा का अच्छा प्रचार हो जाए। सौभाग्य की बात है
कि इस दिशा में काम शुरू हो गए हैं और कुछ समय बीतते-बीतते हम इस बाधा पर भी विजय प्राप्त
कर लेंगे।
यह तो हुई भारत की विविधता की कहानी। अब जरा यह देखने
की कोशिश करनी चाहिए कि इस विविधता के भीतर हमारी एकता कहाँ छिपी हुई है। सबसे विचित्र
बात तो यह है कि यद्यपि हम अनेक भाषाएँ बोलते हैं ( जिनमें चौदह भाषाएँ तो ऐसी हैं,
जिन्हें भारत सरकार ने स्वीकृति दे रखी है। ये भाषाएँ है- हिंदी, उर्दू, बंगला, मराठी,
गुजराती, तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, पंजाबी, कश्मीरी और संस्कृत), किंतु
भिन्न-भिन्न भाषाओं के भीतर बहने वाली हमारी भावनधारा एक है, तथा हम प्रायः एक ही तरह
के विचारों और कथा-वस्तुओं को लेकर अपनी-अपनी बोली में साहित्य रचना करते हैं। रामायण
और महाभारत को लेकर भारत की प्रायः सभी भाषाओं के बीच अद्भुत एकता मिलेगी, इसके सिवा,
संस्कृत और प्राकृत में भारत का जो साहित्य लिखा गया था, उसका प्रभाव भी सभी भाषाओं
की जड़ में काम कर रहा है। विचारों की एकता जाति की सबसे बड़ी एकता होती है। अतएव भारतीय
जनता की एकता के असली आधार भारतीय दर्शन और साहित्य हैं, जो अनेक भाषाओं में लिखे जाने
पर भी, अंत में जाकर एक ही साबित होते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि फारसी लिपि
को छोड़ दें तो भारत की अन्य सभी लिपियों की वर्णमाला एक ही है, यद्यपि वह अलग-अलग
लिपियों में लिखी जाती हैं। जैसे हम हिंदी में क,ख,ग आदि अक्षर पढ़ते हैं, वैसे ही
ये अक्षर भारत की अन्य लिपियों में भी पढ़े जाते हैं, यद्यपि उनके लिखने का ढंग और
है।
हमारी एकता
का दूसरा प्रमाण यह है कि उत्तर या दक्षिण चाहे जहाँ भी जाएँ, आपको जगह-जगह पर एक ही
संस्कृति के मन्दिर दिखाई देंगे, एक तरह के आदमियों से मुलाकात होगी, जो चंदन लगाते
हैं, पूजा करते हैं, तीर्थ-व्रत में विश्वास करते हैं और जो नई रोशनी को अपना लेने
के कारण इन बातों को कुछ शंका की दृष्टि से देखते हैं। उत्तर भारत के लोगों का जो स्वभाव
है, जीवन को देखने की जो उनकी दृष्टि है, वही स्वभाव और वहीं दृष्टि दक्षिण वालों की
भी है। भाषा की दीवार के टूटते ही, उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय के बीच कोई भी भेद
नहीं रह जाता और वे आपस में एक दूसरे के बहुत करीब आ जाते हैं। असल में, भाषा की दीवार
के आर-पार बैठे हुए भी वे एक ही हैं। वे धर्म के अनुयायी और संस्कृति की एक विरासत
के भागीदार हैं। उन्होंने देश की आजादी के लिए एक होकर लड़ाई लड़ी और आज उसकी पार्लियामेंट
और शासन-विधान भी एक हैं।
और जो बात हिंदुओं के बारे में कही जा रही है, वही
बहुत दूर तक मुसलमानों के बारे में भी कही जा सकती है। देश के सभी कोनों में बसने वाले
मुसलमानों के भीतर जहाँ एक धर्म को लेकर एक तरह की आपसी एकता है, वहाँ वे संस्कृति
की दृष्टि से हिंदुओं के भी बहुत करीब हैं, क्योंकि ज्यादा मुसलमान तो ऐसे ही हैं जिनके
पूर्वज हिंदू थे और जो इस्लाम धर्म में जाने के समय अपनी हिंदू आदतें अपने साथ ले गये।
इसके सिवा अनेक सदियों तक हिंदू-मुसलमान साथ रहते आए हैं। और इस लंबी संगति के फलस्वरूप
उनके बीच संस्कृति और तहजीब की बहुत-सी समान बातें पैदा हो गई हैं, जो उन्हें दिनोंदिन
आपस में नज़दीक लाती जा रही हैं।
संसार के हर एक देश पर अगर हम अलग-अलग विचार करें
तो हमें पता चलेगा कि प्रत्येक देश की एक निजी सांस्कृतिक विशेषता होती है, जो उस देश
के प्रत्येक निवासी की चाल-ढाल, बात-चीत, रहन-सहन, खान-पान, तौर-तरीके और आदतों से
टपकती रहती है। चीन से आने वाला आदमी, विलायत से आने वालों के बीच नहीं छिप सकता और
यद्यपि अफ्रीका के लोग भी काले ही होते हैं, मगर वे भारतवासियों के बीच नहीं खप सकते।
भारतवर्ष में यूरोपीय पोशाकें खूब चली हैं, लेकिन योरोपीय लिबास में सजे हुए हिंदुस्तानियों
के बीच एक अंग्रेज को खड़ा कर दिया जाय, तो आसानी से पहचान लिया जाए इस तरह भारत की
हिंदू ही नहीं बल्कि हिंदुस्तानी क्रिस्तान पारसियों मुसलमान भारत से बाहर जाने पर
वह आसानी से पहचान लिया जाएगा। इसी तरह भारत के हिन्दू ही नहीं,बल्कि हिन्दुस्तानी
क्रिस्तान,पारसी और मुसलमान भी भारत से बाहर जाने पर आसानी से पहचान लिये जाते हैं
कि वे हिंदुस्तानी हैं। और यह बात कुछ आज पैदा नहीं हुई है, बल्कि इतिहास के किसी काल
से भारतवासी भारतवासी ही थे, यही वह सांस्कृतिक एकता या शक्ति है, जो भारत को एक रखे
हुए हैं। यही वह विशेषता है, जो उन लोगों में पैदा होती है जो एक देश में रहते हैं,
एक तरह की जिंदगी बसर करते हैं और एक तरह के दर्शन और एक तरह की आदतों का विकास करके
एक राष्ट्र के सदस्य हो जाते हैं।
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