वैदिक वाङ्मय का प्रकाश उस समय हुआ था, जिसे हम सृष्टि का उषाकाल
कहते हैं। उस प्रथम जागृति के काल में मनुष्य-मात्र एक ही साथ निवास करते थे। यद्यपि
स्थान-विशेष के संबंध में मतभेद पाया जाता है, परंतु इसमें संदेह नहीं कि वेदों में
आदिमानवीय एकता के स्मारक भाव और भाषा अंकित हैं। इस आदिम एकता की स्मृति आज विशेष
रूप से आह्लादजनक हो गई है, क्योंकि इतने दीर्घ समय के पश्चात पुनः उसी एकता की घड़ी
निकट आ रही है। समय के सूने पथ पर चलते हुए मानव-यात्री या तो उस आदिकाल में ही एक
साथ थे, या आज ही जब वे दुबारा मिल रहे हैं। इस मिलन-पर्व का केवल भावना-मूलक या मौखिक
महत्व ही नहीं है, इसका महत्व मानवसत्ता के मध्यवर्तिनी प्राणशक्ति के समान ही अपरिमित
है। वह महत्व तो हम सब समझ सकेंगे जब यह देख लेंगे कि उस प्राकृतिक एकता का मार्ग छोड़कर
भटकते हुए मनुष्यों में कितने भ्रांत और बीहड़ पथों पर पैर रखा। कितने कृतृम बंधन बनाए
और अब भी किस प्रकार उनमें जकड़े हुए हैं। वैदिक ऋषियों ने मूल-मानव-एक्य का अनुभव
वास्तविक रूप में किया था- मनुष्य की यथार्थ सत्ता जिसमें भूत-भविष्य का भेद नहीं है,
अपनी आँखों देखी थी। शताब्दियों के जीवन विकास के रहस्य वैदिक कवियों के करतलगत थे,
उसी के आधार पर उन्होंने अपने शास्वत तंत्र की स्थापना की थी। प्रकाश में आने के पूर्व
वेद सहत्रों वर्षों तक आर्यों की व्यापक जीवन की कसौटी में कसे जा चुके थे। अतः जब
उनका आविर्भाव हुआ तब वे संस्कृति के पूर्व प्रतिबिंब ही हुये। देश और काल तो उनके
उपादान ही थे, उन्हीं पर तो वह इमारत ही खड़ी हुई थी, इसीलिए समय और स्थिति की सापेक्षता
उसमें नहीं है। इतने दीर्घ समय तक सुचिंतित और प्राकृतिक अनुभूतियों से ओतप्रोत रचना
संसार में कोई दूसरा नहीं है। आज तो वेद हिंदुओं के धर्म ग्रंथ बने हुए हैं, शतशः
मतमतांतर इनकी ऋचाओं से निकल कर तंतुवाय के तंतुओं की तरह फैल गए हैं। मेरा प्रयोजन
उन तंतुओं की अनेकता प्रदर्शित करना नहीं है। मुझे तो उनकी एकता के संबंध में ही आज
निवेदन करना है।
वैदिक ऋचायें क्या है? वे किस प्रकार प्रकाश में
आईं? किस वस्तु का प्रकाश करती हैं? उनके
भाव और भाषा में क्या विशेषता है? धर्म, दर्शन आदि की भित्ति
उनमें कहाँ मिलती है? मनुष्यता के लिए उनका संदेश क्या है? रहस्य और महत्व क्या है? ये सभी प्रश्न इस स्थल पर उपस्थित
हैं। वेदों का उर्जस्वी शब्द-चयन उसे सर्वोच्च कोटि के साहित्य का पद प्रदान करता है।
उसके भावों में एक संशयहीन आवाहन और आदेश है जिसने समस्त आर्य जाति को आकर्षित कर एक
सूत्र में सुसंलग्न किया था। वेद
की अधिकांश ऋचाएँ देवताओं के लिए की गई स्तुतियाँ हैं। देवताओं में से
ऊषा,अग्नि,सविता,अपा,वायु,पर्यजन्य तथा पृथ्वी आदि तो स्पष्टतः प्राकृतिक पदार्थ
हैं अर्थात उनका रूप प्रत्यक्ष है। शेष कतिपय वरुण, इन्द्र सोम आदि यद्यपि किसी दृश्य
वस्तु के प्रतिनिधि नहीं है तथापि उनका घनिष्ठ संबंध आर्यों के दैनिक जीवन से था। इन्द्र
उनके बल, वीर्य और पराक्रम के, वरुण उनकी मानसिक तथा आचारपरक प्रवृत्तियों के और
सोम उनके सुख के देवता जान पड़ते हैं। इन्हीं देवताओं की स्तुति में आर्यों ने ऋचायें
बनाईं और इन्हीं के लिए यज्ञों के विधान किए। तत्कालीन संपूर्ण जीवन का निरूपण इन्हीं
देवताओं का आधार लेकर किया गया, जिसका अर्थ है कि संपूर्ण वैदिक संपत्ति इन्हीं
निधियों में निहित है। आर्यों का सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान, भाव-भक्ति और क्रिया-कर्म
समर्पित किए गए थे, इन्हीं के अवलम्ब से सम्पूर्ण आर्य-जीवन, उनकी समस्त विद्याओं,
कलाओं और कार्य-प्रणालियों की संघटित प्रतिमा खड़ी हुई थी। एक-एक देवता की स्तुति में
शतशः उपकरण ऐसे मिलते हैं, जो वैदिक इतिहास के स्थायी अंग हैं। इन्हीं अंगों की पूर्ण
प्रतिमा प्रतिष्ठित होकर वैदिक या आर्य संस्कृति कहलाई। इनका निरीक्षण हमें शून्य दृष्टि
से करना चाहिए।
यद्यपि संक्षेप
में कहना चाहें तो कर सकते हैं कि वेदों की प्रधान शिक्षा देवतार्चन की ही है। ये देवता
हैं क्या? एक
शब्द में हम इन्हें दिव्य अथवा हित-वस्तु कह सकते हैं। वेदों के कुछ अन्वेषक कहते हैं
कि पहले-पहल आर्यों की देवार्चना में भय का भाव प्रधान था। पीछे आदर-भाव प्रतिष्ठित
हुआ और अंत में बहुत दिनों के बाद प्रेम या भक्ति की भावना दृढ़ हुई। उनका यह अन्वेषण
कहाँ तक प्रमाणित माना जा सकता है यह तो वैदिक साहित्य के पण्डित ही बतला सकते हैं,
मेरे लिए तो यही कहना पर्याप्त होगा कि भय से हो या भाव से, स्तुति तो हित समझ कर ही
की गई है। यदि ऐसा ना होता, तो आर्यगण इन्हें अपने दैनिक कार्यों में क्यों आमंत्रित
करते? इनका स्वागत-सत्कार करने की, इनके उपलक्ष्य में बड़े-बड़े
यज्ञ करने की, इन्हें अपनी पाई हुई संपत्ति अर्पण करने की क्या आवश्यकता थी?
इसी हित वस्तु का
दूसरा नाम संस्कृति या विकास है। इतिहास इसका शरीर और दर्शन प्राण है। भिन्न-भिन्न
विद्याएँ इसके विविध अंग है। इस हित-वस्तु की मीमांसा करने पर प्रकट होता है कि उसके
अंग-प्रत्यंगों की अनेकविध रूपरेखा है। उन सबका सम्मिलित न्यास ही संस्कृति को स्वरूप
प्रदान करता है। जिस प्रकार एक बड़े चक्र के अंतर्गत कितने ही छोटे चक्र हों और वे
सब अपनी-अपनी गति के कारण संपूर्ण चक्र के साथ, जो स्वयं गतिशील हैं, नए-नए नाम-रूप
धारण कर संलग्न दिखाई दें, उसी प्रकार संस्कृति या विकास-क्रम में भी नाम-रूपात्मक
परिवर्तन होते रहते हैं, किन्तु ग्रहों की भिन्न-भिन्न स्थितियों के कारण सौरमंडल अपनी
विशेषता का परित्याग नहीं करता। उसी प्रकार संस्कृति भी अपने हित-स्वरूप को कभी नहीं
बदलती जैसे पृथ्वी आदि ग्रहों पर ऋतुओं का बदलता हुआ प्रभाव दिखाई देता है, कभी शीत,
कभी ग्रीष्म और कभी वर्षां की ऋतुएँ आती हैं, उसी प्रकार सांस्कृतिक परिवर्तन भी होते
हैं।
भेद चाहे जितने हों, एक अखंड अभेद तत्व युगों की
मानवीय साधना का लक्ष्य सदैव रहा है। संसार के बड़े-बड़े विचारक और महर्षि इसका निरूपण
करने को अग्रसर हुए हैं। उनमें से बहुतों को आंशिक सफलता प्राप्त हुई और संभव है कुछ
को न भी मिली हो। वैदिक काल में वह उत्कृष्ट तत्व जो देवता नाम से अभिहित हुआ, और जिसके
कारण वैदिक संस्कृति देव- संस्कृति कही गई, बड़े विशद् रूप में प्रतिष्ठित किया गया।
वैदिक देवतागण राक्षस या अनिष्ट-सत्ता के विनाशक प्रसिद्ध हैं। परन्तु यह ना समझना
चाहिए कि बिना राक्षस का विनाश किए देवता की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। ऊषा या सरस्वती
या पृथ्वी आदि देवियाँ तथा अनेक देवगण राक्षसी भक्ति से कुछ भी सापेक्षता नहीं रखते।
वैदिक देवताओं में इन्द्र ही प्रधानतः राक्षसों के संहारक हैं। इसीलिए यह कहना संगत
नहीं है कि देवता के अस्तित्व के लिए दानव का होना अनिवार्य है। ऐसा प्रतीत होता है
कि वह कल्याणकारिणी विभूति शास्वत सत्ता है। किसी में सौंदर्य की, किसी में बुद्धि
की, किसी में लोक-हित की, किसी में पौरुष की और किसी में द्रव्य की विशेषता समन्वित
पाकर उसकी उपासना की गई। यह निर्देश जैसे प्रकृति का ही था और राक्षसी या अनिष्ट सत्ता
का उन्मूलन भी संकल्प-विकल्पात्मक बुद्धि-विकास से रहित पूर्ण प्राकृतिक ही अंकित किया
गया। इसीलिए वैदिक धर्म शास्वत-मानव धर्म कहा जाता है। जिसका पालन करता हुआ मनुष्य
प्रतिक्षण स्वस्थ और सुखी रहता है। मानव-जीवन की यह व्यापक व्यवस्था ही मेरे विचार
से वैदिक कालीन सर्वश्रेष्ठ आदर्श और वैदिक सभ्यता की सर्वोत्कृष्ट देन है।
देवता
या प्रिय वस्तु की उपासना में आर्यगण अपने सर्व कर्म समर्पित करते थे, इसलिए वे
सहज ही कर्म-बन्धन से विनिर्मुक्त हो सके। प्रकृति की ही पाठशाला में शिक्षित होकर
वे द्विधा बुद्धि का अंकुशपूर्ण भार वहन करने से विरत रह सके। शत-प्रतिशत खुले मैदान
में संस्कृति सब ओर दौड़ लगा सकी। आर्यों की देवोपासना का रहस्य अभी तक यथेष्ट स्पष्ट
नहीं हो सका है। बिना इसका स्वरूप समझे हम आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि संपूर्ण परवर्ती
विकास इसी पर अवलंबित है। किसी एक देवता को ही लेकर वेदों में उसका वृतांत देखिए। उदाहरणार्थ
इन्द्र को ही लीजिए। यह इन्द्र,बल वीर्य या उत्साह का प्रतीक देवता है। इस देवता का
विकास किस रूप में हुआ,यह अभी वैदिक विद्वान निर्णय नहीं कर सके। इतिहासज्ञ इन्द्र
को तत्कालीन आर्य महापुरुष या सम्राट मानते हैं। इसने राक्षसों या शत्रुओं का नाश
कर अनेक हितकारी कार्य किए। मालूम होता है
इन्द्र की आरंभिक उपासना इसी रूप में हुई। आगे चलकर जब यह उपासना अधिक बढ़ी, तब वे
एक ऐसी प्राकृतिक शक्ति के प्रतिनिधि बन जो आर्यों को इष्ट थी और इस नवीन रूप में
भी वे शक्ति या पौरुष के ही प्रतिनिधि बने रहे। पर्वतों से युद्ध कर उनमें रुकी हुई
जलधारा को प्रवाहित करना वज्रधारी इन्द्र का ही कार्य माना गया। और आगे चलकर जब समय
की लंबी अवधि पार कर जन-समाज इंद्र को अधिक ऊपर छोड़ आया, तब इंद्र की सत्ता स्वर्गीय
हो गई। वे स्वर्ग में निवास करने लगे। वहाँ भी वे देवताओं के प्रधान या सुरपति के रूप
में सम्मानित हुए। दीर्घकाल के पश्चात जब इंद्र का आदिमस्वरूप, जनता के स्मृतिपटल से
लुप्त होने लगा और इंद्र अप्सराओं के अखाड़े में आमोद-प्रमोद करने वाले व्यक्ति रह
गए, तब इंद्र की उपासना बंद करने के लिए श्रीकृष्ण ने उपदेश किया। उस समय इन्द्र की
पूजा रूढ़ हो गई थी। इंद्र का तत्व विस्मृत हो गया था। उसके पुनरुद्धार का कार्य श्रीकृष्ण
ने किया। उन्होंने गोवर्धन पूजा के बहाने पुनः वास्तविक बल-वीर्य और आत्मनिर्भरता की
वह शिक्षा दी जो इंद्र की प्राथमिक शिक्षा थी। इस प्रकार इन्द्रत्व पुनरुज्जीवित और
जागृत किया गया, यद्यपि इन्द्र नाम का महत्व जाता रहा। नाम-रूप बदलकर इंद्र की शास्वत
सत्ता भारतीय जीवन विकास की अंग बनी रही। आज जब इन्द्र की प्रत्यक्ष सत्ता की कोई स्मृति
नहीं है, तब स्वामी दयानंदजी ने इंद्र को साक्षात ईश्वर या निराकार का तत्व मान लेने
का संदेश सुनाया है। उनका कहना है कि इंद्र सृष्टि को उत्पन्न करने वाला, परमपिता है।
प्राणायाम पूर्वक उसका ध्यान करना चाहिए। उसकी स्तुति विशेषणों से रहित अथवा निर्विशेष
होनी चाहिए। जो इन्द्र प्रत्यक्ष स्वरूप आरंभ होकर वेदों में पूजित हुए और जो परवर्ती
काल में भी अपने वीरत्व गुणों के लिए प्रसिद्ध थे, उन्हें स्वामी दयानंद जी ने यह आकृति
या आकृतिहीनता प्रदान की है। यह नवीन वेदव्याख्या आदिम वैदिक विचारधारा से दूर जा पड़ती
है।
वैदिक
इन्द्र, जीवन की वास्तविक सत्ता से एकाकार होकर उनका उन्नयन करते हैं, जबकि स्वामी
जी उनकी सृष्टि -निरपेक्ष दैवी सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। जीवन प्रवाह से भिन्न
एक ऐसी काल्पनिक वस्तु को सृष्टि का संरक्षक और सर्वशक्तिमान मानने की प्रवृत्ति वेदों
में नहीं पाई जाती। वेदों में तो जीवन ही एकमात्र तत्व है और देवता उसके उन्नायक हैं।
देवता अनेक हैं और उनमें से एक-एक का समय-क्रम में परिवर्तन भी हुआ है। इन देवताओं
में वे सभी विशेषताएं हैं जो एकत्र होकर मानव-जीवन की पूर्णता स्थापित करती हैं। इनके
आकार-प्रकार एवं व्यक्तित्व में यद्यपि सब प्रकार के भेद हैं परन्तु वे प्राकृतिक भेद
जो मानवीय विकास के लिए अनिवार्य हैं, एक मौलिक अभेद में अंतर्लीन हो जाते हैं।
एक ही चित्र के अनेक
रंगों की भाँति वे देवता छाया-प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्राएँ व्यक्त करते हैं। इनमें
से कोई अत्यंत प्रत्यक्ष और स्थूलसत्ता की प्रतिमा, कोई उससे सूक्ष्म, कोई उससे भी
सूक्ष्म है। कोई स्त्री-सौंदर्य, कोई पुरुष-सौंदर्य के प्रतीक, कोई पराक्रम के, कोई
शील-सदाचार और कोई तेज-ओज के प्रतिनिधि हैं।
ऊपर के उल्लेख के आधार पर संभवतः हम यह कहने के अधिकारी
हैं कि वैदिक संस्कृति कोई सापेक्ष वस्तु नहीं है, वरन् संपूर्ण हित की सत्ता ही है।
इस हित की व्यापकता के संबंध में यही कहना पर्याप्त होगा कि सहस्त्रों वर्षों के मानव
-जीवन का विकास उसी के अंतर्गत है और आर्य- जाति की धारणा तो यह है कि उन
दिव्यद्रष्टा वैदिक महर्षियों ने शाश्वत विकास का रहस्य ही उद्घाटित कर दिया है। उनकी
निरूपित संस्कृति नृत्य है, आनन्द-स्वरूप और संपूर्णता के सहित है।
जैसा की संस्कृति शब्द से ही सूचित होता है, इसकी
मूल वस्तु कृति या क्रिया है। प्रकृति में भी क्रिया की ही प्रधानता पाई जाती है।
यह सृष्टि -चक्र शास्वत क्रियाचक्र ही है। क्रियामात्र का समन्वय ही सांस्कृतिक समन्वय
कहा जा सकता है। वैदिक आर्यों ने यह समन्वय किस प्रकार किया, यही देखना है। हम देखते
हैं कि वे आर्य प्रकृति से ही संरक्षणशील और विवेकवाक् थे, इसलिए आरंभ से ही वे अनिष्ट
क्रिया का परित्याग और इष्ट का संचय,संग्रह और स्तुति करने को उद्यत हुए। उन्होंने
इस विस्तृत वस्तु जगत का रहस्योद् घाटन करने वाली
अनेक विद्याओं की सृष्टि की। उनके उद्योगों में सामूहिक प्रयास की छाप लगी हुई
है। आरंभिक वैदिक संस्कृति से हम व्यक्ति या वर्ग की विभिन्नता नहीं पाते। आर्यों
के सभी कार्यों की निर्णायिका प्राकृतिक चेतना ही थी, इसलिए किसी प्रकार का द्विधा
भाव उनमें दिखाई नहीं देता। जीवन की परिस्थिति में क्लेश की सत्ता को उन्होंने शक्ति
से जीतने की चेष्टा की और जीता। इन्द्र देवता इस शक्ति और विजय के ही स्मारक हैं। प्राकृतिक
विभूतियों से आदर और अनुराग, प्राकृतिक पदार्थों का अन्वेषण और अनुसंधान, प्राकृतिक
अनिष्टों का तिरस्कार और पराभव, यही आर्यों की आदिम संस्कृति कही जा सकती है। नवीन
अनुभव प्राप्त करने की, नवीन प्रयोग सिद्ध करने की, नवीन विजय-लाभ करने की लालसा उनमें
भरी हुई थी। यद्यपि यह सृष्टिचक्र क्रिया-मात्र है, परंतु वह अभिनव क्रियाओं का
युग शिशु प्रकृति की विकासोन्मुख अवस्था की ओर संकेत कर रहा था, उसके यौवन की सूचना
दे रहा था। उस काल में जीवन का सारा आनंदोल्लास प्रत्यक्ष हुआ था। प्रकृति के
अंग-अंग खिल उठे थे। आर्यों ने उन सम्पूर्ण अंगों को एक-एक कर देखा, किन्तु उनमें
कहीं कोई वैषम्य न पाया। जड़, चेतन, स्थूल, अस्थूल सभी एक अनुपम सौंदर्य से ओतप्रोत
दिखाई दिये। केवल प्राकृतिक में जो अप्राकृतिक था, दुरूह था, अनिष्ट था, आर्यगण उसी
के एक मात्र संहारक हुए। बादाम के कड़े छिलके को फोड़कर खाना ही नियम है। अनिष्ट
की सत्ता को दूर कर देना ही संस्कृति है।
यह
इष्टानिष्ट-विवेक आर्यों ने प्राकृतिक प्रेरणा, सबज बुद्धि या व्यापक चेतना के द्वारा
प्राप्त किया था, इसलिए उनकी संस्कृति भी पूर्ण प्राकृतिक हो सकी। व्यक्तिगत मनुष्य-स्वभाव
की परीक्षा और विकास की पहचान सामूहिक क्रिया-कलाप और रीति-नीति, प्राकृतिक आवश्यकताओं
का ध्यान और प्राकृतिक भेदों की परख और समन्वय, विस्तृत जगत की रहस्यों का परिचय और
मानव-हित के लिए उसका उपयोग-ये सभी संस्कृति की रचनात्मक चेष्टायें वैदिक विचारणा में
उपस्थित हैं। फलतः मनुष्य को किसी मार्ग विशेष से चलने के लिए बाध्य न कर
लक्ष्य-लक्ष्य जीवनोपाय स्वीकार करना वैदिक संस्कृत की विशेषता हुई। तो भी यदि पूछा
जाए कि वह एक वस्तु क्या है जिससे आधार पर वैदिक संस्कृत की रूपरेखा गठित हुई या कम-से-कम
उसकी प्रमुख आकृति का निर्माण हुआ, तो निसंदेह वह वस्तु देवता के लिए सर्व-कर्म-समर्पण
की साधना ही कही जाएगी। इस साधना में त्याग,सहिष्णुता,क्रियाशीलता, बुद्धि की दृढ़ता
आदि वे सभी गुण सन्निहित हैं जिनका उल्लेख शास्त्रों में प्रचुरता से प्राप्त होता
है। विकास का यही प्रधान उपाय वेदों में प्रदर्शित किया गया है। यह संपूर्ण तपस्या
देवताओं के लिए करने की व्यवस्था इसलिए चलाई गई की संस्कृति एक केंद्र में स्थित हो
और युगों-युगों में उसकी स्मृति जागृत रहे। विकास का मार्ग दिव्य शक्तियों के आश्रित
कर देने से सत्कार्य की अधिक प्रवृत्ति होने की संभावना थी। क्रिया के अंकुश, अभिमान,
संकल्प-विकल्प आदि भी उत्पन्न न हों और संपूर्ण शुभ का एक स्थान पर समाहार भी हो सके,
दोनों ही लक्ष्य इससे सिद्ध हुए।
जैसे-जैसे मनुष्य की तपस्या के आख्यान बढ़ने लगे
और जगत के अनेक क्षेत्रों और विभागों में उसके उदाहरण आने लगे, वैसे-वैसे देवताओं का
स्वरूप अधिकाधिक विशेषणों से संयुक्त होकर रहस्यमय होता गया। इतिहास की सभी उल्लेखनीय
घटनाएँ देवताओं के व्यक्तित्व में स्थान पाने लगीं। धीरे-धीरे उनका स्वरूप अनेकविध
वार्ताओं से आच्छादित होने लगा। यद्यपि
आर्यों ने उन-उन देवताओं के मूल व्यक्तित्व के अनुसार ही बहुविध घटनाओं का संग्रथन
किया, तथापि समय की बढ़ती हुई घटना वली के लिए वे देवता कहाँ तक पर्याप्त हो सकते थे? परिणाम यह हुआ कि आख्यानों
की अधिकता के कारण देवताओं का व्यक्तित्व दुरूब और अज्ञेय हो उठा।यद्यपि वे सब आख्यान सांस्कृतिक
विकास अथवा तपस्या-संबंधी ही थे, तथापि उनमें स्वतः इतनी अनेकरूपता आ गई कि उन्होंने
देवताओं के साथ संयुक्त होकर उनका रूप अविज्ञेय बना दिया। आगे चलकर देवतागण उन-उन कथाओं
के स्मारक-मात्र रह गए। मनुष्य उनका अनुकरण करने के योग्य न रहे। इस प्रकार वैदिक देवताओं
का आरंभ तो व्यक्तिगत, प्राकृतिक और सामूहिक संस्कृति के भारवाही के रूप में हो गई।
आज जब हम देवताओं के चरित्रों को पढ़ते हैं और उनमें कई प्रकार की विश्रृंखलता और आचारहीनता
भी प्राप्त करते हैं। कुछ लोग इसका समाधान इस प्रकार करते हैं कि महान विभूतियाँ आचार
की क्षुद्र श्रृंखलाओं को तोड़ डालती हैं। उत्कर्ष-पूर्ण व्यक्तित्व का अर्थ ही है
सामान्य मानवीय हिताहित की धारणाओं से ऊपर उठना, परंतु मेरे विचार से प्राकृतिक और
नैतिक आचार ही संस्कृति का मेरुदंड है। इसी पथ पर चलकर मानव-व्यक्तित्व उच्चातिउच्च
हो सकता है। देवता भी तभी तक देवता हैं, जब तक वे भी इस पथ के पथिक हैं। उनकी सत्ता
तब जीर्ण हो उठती है जब अनेक आख्यायिकाएँ उनसे जुड़कर उन्हें एक अलौकिक स्वरूप प्रदान
करती हैं। उस अवस्था में महत्व उन आख्यायिकाओं का रहता है, उस देवता को ही स्तुति मिलती
है। वह मानवीय समस्याओं का कोई आदर्श नहीं होता, केवल अपना रहस्यमय व्यक्तित्व लेकर
संस्कृति के संरक्षण का उपादान बना रहता है। तब उसकी सत्ता अतिमानवीय या लोकोत्तर बन
जाती है।
मैं
यह नहीं कहता कि इस लोकोत्तर सत्ता का मनुष्य-जीवन में कोई उपयोग नहीं, वह सत्ता तो
युगों के जीवन को सुव्यवस्थित करती और सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री बनकर सुरक्षित
रहती है। परंतु कठिनाई यह होती है कि हम उसकी यथार्थता न समझकर उसके तथाकथित कार्यों
की अनुकृति करना चाहते हैं।
देवताओं की यह अतिमानवीय सत्ता एक ओर तो संस्कृति
की अत्यंत विकसित अवस्था की सूचना देती है और दूसरी ओर उसके ह्रास की भी। विकास तो
संस्कृति के अंतरंग या भाव का हुआ और ह्रास उसके बहिरंग रूप या शरीर का। जैसे प्रौढ़
वय का मनुष्य प्रौढ़ता के साथ-साथ से शैथिल्य की ओर बढ़ता जाता है, वैसी ही अवस्था
संस्कृत की भी होती है। वह अवस्था सांस्कृतिक इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है। जातियों
का उत्थान या विनाश यही से आरंभ होता है। देश के दार्शनिक नेताओं के बुद्धि वैभव की
परीक्षा इसी समय होती है। साधारण जन-समाज अंतरंग या भाव की बात नहीं समझता, उसे तो
बाह्य रूप ही चाहिए, किंतु वैदिक संस्कृति का बाह्य रूप ही चाहिए, किन्तु वैदिक
संस्कृति का बाह्य रूप तो शिथिल हो चुका था, फलतः इस देश के दार्शनिक ने जगत के बाह्य
रूप की निस्सारता का प्रचार आरंभ किया। उपनिषदों और गीता आदि में आत्मतत्व की प्रधान
शिक्षा दी गई। स्मरण रखना चाहिए कि इस उपनिषद्-शिक्षा का प्रकाश उच्चातिउच्च सांस्कृतिक
स्थिति में हुआ था, तो भी बिना बहिरंग के जन-समाज का समाधान नहीं हो सका। परिणामस्वरुप
वैदिक संस्कृति कुछ काल के लिए पिछड़ गई और इस देश में महात्मा बुद्ध के प्रभाव से
नवीन बौद्ध संस्कृति का उदय हुआ। किंतु यह बात कदापि न भूलनी चाहिए कि वैदिक युग
का अंतरंग सांस्कृतिक विकास अक्षुण्ण बना रहा। इसी प्रकार आर्य संस्कृति की धारा अटूट
रूप से बहती रही,यद्यपि ऐतिहासिक कारणों से उनकी वेदकालीन प्रांजल और प्रशस्त गति
में विक्षेप भी पड़े। बौद्धों ने समायोजित सांस्कृतिक रक्षा का कार्य कम नहीं किया
और अपनी अपूर्व प्रतिभा से उन्होंने इस देश के जातीय जीवन को वह संजीवनी शक्ति दी
जिसके बिना ‘यूनान, मिस्र, रोमां सब मिट गए जहाँ से, बाकी है जग में अब भी,
नामोंनिशा हमारा’ की उक्ति चरितार्थ न होती।
किंतु ऊपर के वक्तव्य
का यह अर्थ नहीं है कि उपनिषदों के आम तत्व का प्रचार कर वैदिक ऋषियों ने देव-संस्कृति
का अंत कर दिया। हमारा सर्वोत्कृष्ट दर्शन संस्कृति का विघातक कैसे हो सकता है? निर्जीव रूढ़ियों के परिवर्तन
के लिए संस्कृति देहान्तर प्राप्ति की आवश्यकता थी, एतदर्थ उन आर्य मनीषियों ने कुछ
भी मोह नहीं किया, और उस उच्चातिउच्च तत्व की शिक्षा दी जो नितांत अविनश्वर है। वेदांत
दर्शन के संबंध में यह प्रसिद्ध है कि संसार के संबंध छोड़ देने पर ही इसकी साधना की
जा सकती है। परंतु वेदांत के मैं दो प्रधान उद्देश्य मानता हूँ -एक तो देवता तत्व या
मूल वैदिक संस्कृति के प्रति जन-समाज की बढ़ती हुई भ्रांति को दूर करना और दूसरे, एक
परमोत्कृष्ट तत्व की घोषणा कर उखड़ती हुई संस्कृति को नवजीवन प्रदान करना। ये दोनों
ही कार्य भारतीय इतिहास में अपूर्व महत्व रखते हैं। हम कह चुके हैं कि वैदिक देवता,
जो आरंभ में हित के प्रयत्नस्वरूप ही थे, आगे चलकर अत्यधिक भारग्रस्त हो गए। वैदिक
समाज, जो आरंभ में क्रियाशील था, आगे चलकर उसी अनुपात में अनुकरणशील होने लगा। संस्कृति,
जो उत्थानमूलक थी,प्रसरणशील होनने लगी। स्तुतियाँ, जो पहले रूप-प्रधान थीं, अब भाव-प्रधान
होने लगीं। उद्भावना का स्थान संरक्षण ने ले लिया। यह परिवर्तन तो समय की स्वाभाविक
गति से ही हो रहा था,पर इसके कारण विकास की गति मंद न पड़ जाए, उसकी दिशाएँ विस्मृत
न हो जाएं, यह आशंका हो रही थी, इसलिए हित-तत्व या संस्कृति की एक नवीन व्याख्या आत्मसत्ता
या आनंद की संज्ञा से की गई। आत्मा एक नित्य-तत्व कहकर उद्घोषित हुआ।
सामूहिक
आनंद की धारणा ही वेदांत आत्मसत्ता के मूल में है, परंतु मैं यही नहीं मानता कि इसकी
साधना जंगल में रहकर ही हो सकती है। इस आत्मतत्व के अंतर्गत तो साधारण से साधारण सांस्कृतिक
मनोभाव भी आ सकते हैं। और संसार-त्यागी महात्माओं की ऊंची-से-ऊंची साधानएँ भी आ सकती
हैं। जो विद्या अपनी प्रिय वस्तु की भावना में अपने को भूल जाती हैं वही तो श्रेयस्कर
हैं। वेदों का प्राकृतिक विकास का मार्ग यही है। क्रिया-मात्र का मूल्य उस आनंद में
ही है जिसकी वह सृष्टि करती है। उसका स्वतः कोई मूल्य नहीं है। क्रिया की स्तुति नहीं
की जाती, स्तुति देवता की की जाती है, जो आनंद-स्वरूप हैं। स्तुति तो संस्कृति की की
जाती है, जो व्यक्ति में तपस्या रूप से और समूह में आनंद-रूप से प्रतिफलित होती है।
क्रियाओं की सापेक्षता से भ्रम उत्पन्न होता है। क्रियाएँ आनंद में प्रवृत्त करने के
लिए भी हो सकती हैं। निरानंद से निवृत्त करने के लिए भी हो सकती है, इसलिए वे प्रायः
द्विधा-भाव उत्पन्न कर देती हैं। इस प्रकार की भ्रामक विपर्ययों से बचने के लिए ही
चेतन आत्म-तत्व की प्रतिष्ठा की गई, और वह दोरंगी दुनिया से अलग रखी गई। फिर किसी विशेष
क्रिया-चक्रया आचार-क्रम का निरूपण और भी कई प्रकार की कठिनाइयाँ उपस्थित करता है जिनका
उल्लेख करना यहाँ आवश्यक नहीं। प्राकृतिक अनुभूतियों की सत्ता स्वीकार कर उन्हीं का
परिष्कार करना आत्मिक साधना की परिपाटी कही जा सकती है। वेदों में यह परिष्कार जिस
व्यापक और सर्वतोन्मुखी रूप में किया गया, दुख के उच्छेद और सुख की समृद्धि के
जितने व्यवस्थित उपाय वैदिक युग में किए गए, शायद ही कभी किए गए हों या किए जाएं। इसलिए
वैदिक संस्कृति पर हमें इतना गर्व है। इस वैदिक संस्कृति का पूर्ण परिपाक वेदांत में
हुआ। इसलिए हमें उसका इतना गौरव है।
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