आधुनिक नारी-महादेवी वर्मा


मध्य और नवीन युग के सन्धिस्थल में नारी ने जब पहले-पहले अपनी स्थिति पर असंतोष प्रकट किया, उस समय उसकी अवस्था उस पीड़ित के समान थी, जिसकी प्रकट वेदना के अप्रकट कारण का निदान न हो सका हो। उसे असह्य व्यथा थी, परन्तु इस विषय में ‘कहाँ’ और ‘क्या’ का कोई उत्तर न मिलता था। अधिक गूढ़ कारणों की छानबीन करने का उसे अवकाश भी ना था। अतः उसने पुरुष से अपनी तुलना करके जो अन्तर पाया उसी को अपनी दयनीय स्थिति का स्पष्ट कारण समझ लिया। इस क्रिया से उसे अपनी व्याधि के कुछ कारण भी मिले सही, परन्तु यह धारणा नितान्त निर्मूल नहीं कि इस खोज में कुछ भूले भी संभव हो सकीं। दो वस्तुओं का अंतर सदैव ही उसकी श्रेष्ठता और हीनता का द्योतक नहीं होता। यह मनुष्य प्रायः भूल जाता है। नारी ने भी यहीं चिरपरिचित भ्रांति अपनाई। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, शारीरिक विकास के विचार से और सामाजिक जीवन की व्यवस्था से स्त्री और पुरुष में विशेष अन्तर रहा है और भविष्य में भी रहेगा। परन्तु यह मानसिक या शारीरिक भेद न किसी की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है और न किसी की हीनता का विज्ञापन करता है। स्त्री ने स्पष्ट कारणों के अभाव में इस अंतर को विशेष त्रुटि समझा केवल यही सत्य नहीं हैं, वरन् यह भी मानना होगा कि उसने सामाजिक अंतर का कारण ढूँढने के लिए स्त्रीत्व को क्षत-विक्षत कर डाला।
                    उसने निश्चय किया कि वह उस भावुकता का आमूल नष्ट कर डालेगी, जिसका आश्रय लेकर पुरुष उसे रमणी समझता है, उस गृह-बंधन को छिन्न-भिन्न कर देगी जिसकी सीमा ने उसे पुरुष की भार्या बना दिया है और उस कोमलता का नाम भी न रहने देगी जिसके कारण उसे बाह्य जगत् के कठोर संघर्ष से बचने के लिए पुरुष के निकट रक्षणीय होना पड़ा है। स्त्री ने सामूहिक रूप से जितना पुरुष जाति को दिया है उतना उससे पाया नहीं, यह निर्विवाद सिद्ध है। पर आदान-प्रदान की विषमता के मूल में स्त्री और पुरुष की प्रकृति भी कार्य करती है,यह न भूलना चाहिए। स्त्री अत्यधिक त्याग केवल इसलिए नहीं करती, अत्यधिक सहनशील केवल इसलिए नहीं होती कि पुरुष इसे हीन समझ कर उसके लिए बाध्य करता है। यदि हम ध्यान से देखेंगे तो ज्ञात होगा कि उसे ये गुण मातृत्व की पूर्ति के लिए प्रकृति से मिले हैं। ये अच्छे हैं या बुरे इसकी विवेचना से विशेष अर्थ न निकलेगा। जानना इतना ही है कि प्राकृतिक हैं या नहीं। इस विषय में स्त्री स्वयं भी अंधकार में नहीं है। वह अपनी प्रकृतिजनित कोमलता को त्रुटि चाहे मानती हो, परंतु उसे स्वाभाविक अवश्य समझती है अन्यथा उसके इतने प्रयास का कोई अर्थ न होता। परिस्थितिजन्य दोष जितने शीघ मिट सकते हैं उतने संस्कारजन्य नहीं मिटते, यहीं विचार स्त्री को आवश्यकता से अधिक कठोर बने रहने को विवश कर देता है परन्तु यह कठिनता इतनी सयत्न होती है कि स्त्री स्वयं भी सुखी नहीं हो पाती। कवच बाहर की बाण-वर्षा से शरीर को बचाता है, परन्तु अपना भार शरीर पर डाले बिना नहीं रह सकता।
                   आधुनिक स्त्री ने अपने जीवन को इतने परिश्रम और यत्न से जो रूप दिया है वह कितना स्वाभाविक हो सकता है, यह कहना अभी संभव नहीं। हाँ, इतना कह सकते हैं कि वह बहुत सुंदर भविष्य का परिचायक नहीं जान पड़ता। स्त्री के लिए यदि उसे किसी प्रकार उपयोगी समझ भी लिया जाए तो भावी नागरिकों के लिए उनकी उपयोगिता समझ सकना कठिन ही है।
                    आधुनिकता की वायु में पली स्त्री का यदि स्वार्थ में केन्द्रित विकसित रूप देखना चाहते हो तो हम उसे पश्चिम में देख सकेंगे। स्त्री वहाँ आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र हो चुकी है, अतः सारे सामाजिक बन्धनों पर उसका अपेक्षाकृत अधिक प्रभुत्व कहा जा सकता है। उसे पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने की आवश्यकता नहीं है, अतः वह चाहे तो परम्परागत रमणीत्व को तिलांजलि देकर सुखी हो सकती है। परन्तु उसकी स्थिति क्या प्रमाणित कर सकेगी कि आदिम नारी की दुर्बलता से रहित है? संभवतः नहीं। श्रृंगार के इतने संख्यातीत उपकरण, रूप को स्थित रखने के इतने कृतृम साधन, आकर्षित करने के उपहास-योग्य के प्रयास आदि क्या इस विषय में कोई संदेह का स्थान रहने देते हैं। नारी का रमणीत्व नष्ट नहीं हो सका, चाहे उसे गरिमा देने वाले गुणों का नाश हो गया हो। यदि पुरुष को उन्मत्त कर देने वाले रूप की इच्छा नहीं मिटी, उसे बांध रखने वाले आकर्षण की खोज नहीं की गई तो फिर नारीत्व की ही उपेक्षा क्यों की गई, यह कहना कठिन है। यदि भावुकता ही लज्जा का कारण थी तो उसे समूल नष्ट कर देना था, परंतु आधुनिक नारी ऐसा करने में भी असमर्थ रही। जिस कार्य को वह बहुत सफलतापूर्वक कर सकी है वह प्रकृति से विकृति की ओर जाना मात्र था। वह अपनी प्रकृति को वस्त्रों के समान जीवन का बाह्य आच्छादनमात्र बनाना चाहती है, जिसे इच्छा और आवश्यकता के अनुसार जब चाहे पहना या उतारा जा सके। बाहर के संघर्षमय जीवन में जिस पुरुष को नीचा दिखाने के लिए वह सभी क्षेत्रों में कठिन से कठिन परिश्रम करेगी, जीवन-यापन के लिए आवश्यक प्रत्येक वस्तु को अपने स्वेदकणों से तौल कर स्वीकार करेगी, उसी पुरुष में नारी के प्रति जिज्ञासा जागृत करने के लिए वह अपने सौंदर्य और अंग-सौष्ठव के रक्षार्थ असाध्य से असाध्य कार्य करने के लिए प्रस्तुत है। आज उसे अपने रूप, अपने शरीर और अपने आकर्षण का जितना ध्यान है उसे देखते हुए कोई भी विचारशील, स्त्री को स्वतंत्र न कह सकेगा।

स्त्री के प्रति पुरुष की एक रहस्यमयी जिज्ञासा सृष्टि के समान ही चिरंतन है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता, परन्तु यह जिज्ञासा इनके सम्बन्ध का ‘अथ’ है ‘इति’ नहीं। प्राचीन नारी के इस ‘अथ’ से आरम्भ करके पुरुष से अपने सम्बन्ध की ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया है जहाँ उन दोनों के स्वार्थ एक और व्यक्तित्व सापेक्ष हो गए।यहीं नारी की विशेषता थी जिसने उसे मनोविनोद के सुन्दर साधनों की श्रेणी से उठाकर गरिमामयी विधात्री के ऊँचे आसन पर प्रतिष्ठित कर दिया।
                    आधुनिक नारी पुरुष के और अपने सम्बन्ध को रहस्यमयी जिज्ञासा से आरम्भ करके उसे वहीं स्थिर रखना चाहती है, जो संभवतः उसे किसी स्थायी आदान-प्रदान का अधिकार नहीं देता। संध्या के रंगीन बादल या इंद्रधनुष के रंग हमें क्षण भर विस्मय-विमुग्ध कर सकते हैं किंतु इससे अधिक उनकी कोई सार्थकता नहीं हो सकती है, यह हम सोचना भी नहीं चाहते। आज की सुन्दर नारी भी पुरुष के निकट और कोई विशेष महत्व नहीं रखती। उसे स्वयं भी इस कटु सत्य का अनुभव होता है, परंतु वह उसे परिस्थिति का दोषमात्र समझती है। आज पुरुष के निकट स्त्री प्रसाधित-श्रृंगारित स्त्रीत्व मात्र लेकर खड़ी है, यह वह मानना नहीं चाहेगी, परन्तु वास्तव में यह सत्य है। पहले की नारी जाति केवल रूप और वय का पाथेय लेकर संसार-यात्रा के लिए नहीं निकलती थी। उसने संसार को वह दिया जो पुरुष नहीं दे सकता था, अतः उसे अक्षय वरदान का ‘वह’ आज तक कृतज्ञ है। यह सत्य है कि उसने अयाचित वरदान को संसार अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा, जिससे विकृति भी उत्पन्न हो गयी परंतु उसके प्रतिकार के जो उपाय हुए वे उस विकृति को दूसरी ओर फेरने के अतिरिक्त और कुछ ना कर सके।
                    पश्चिम में स्त्रियों ने बहुत कुछ प्राप्त कर लिया, परन्तु सब कुछ पाकर भी उनके भीतर की चिरन्तन नारी नहीं बदल सकी। पुरुष उसके नारीत्व की उपेक्षा करे, यह उसे भी स्वीकार न हुआ, अतः वह अथक मनोयोग से अपने बाह्य आकर्षण को बढ़ाने और अस्थायी रखने का प्रयत्न करने लगी। पश्चिम की स्त्री की स्थिति में जो विशेषता है उसके मूल में पुरुष के प्रति उनकी स्पर्धा के साथ ही उसे आकर्षित करने की प्रवृति भी कार्य करती है। पुरुष भी उसकी प्रवृति से अपरिचित नहीं रहा, इससे उसके व्यवहार में मोह और अवज्ञा ही प्रधान है। यदि रंगीन खिलौने के समान आकर्षक है तो वह विस्मय-विमुग्ध हो उठेगा।यदि नहीं तो वह उसे उपेक्षा की वस्तुमात्र समझेगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दोनों ही स्थितियाँ मात्र स्त्री के लिए अपमानजनक हैं। पश्चिमी स्त्री की स्थिति का अध्ययन कर यदि हम अपने देश की आधुनिकता से प्रभावित महिलाओं का अध्ययन करें तो दोनों ही ओर असंतोष और उसके निराकरण में विचित्र साम्य मिलेगा।
                    हमारे यहाँ की स्त्री शताब्दियों से अपने अधिकारों से वंचित चली आ रही है। अनेक राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों ने उसकी अवस्था में परिवर्तन करते-करते उसे जिस अधोगति तक पहुँचा दिया है वह दयनीयता की सीमा के अतिरिक्त और कुछ नहीं कही जा सकती। इस स्थिति को पहुँचकर भी जो व्यक्ति असंतोष प्रकट नहीं करता उसे उस स्थित के योग्य ही समझना चाहिए। कोमल तूल-सी वस्तु भी बहुत दबाए जाने पर अन्त में कठिन जान पड़ने लगती है। भारतीय स्त्री भी एक दिन विद्रोह कर ही उठी। उसने भी पुरुष के प्रभुत्व का कारण अपनी कोमल भावनाओं को समझा और उन्हीं को परिवर्तित करने का प्रयत्न किया। अनेक सामाजिक रूढ़ियों और परंपरागत संस्कारों के कारण उसे पश्चिमी स्त्री के समान न सुविधाएं मिली और न सुयोग, परंतु उसने उन्हीं को अपना मार्गप्रदर्शक बनाना निश्चित किया।
                   शिक्षा के नितान्त अभाव और परिस्थितियों की विषमता के कारण कम स्त्रियाँ इस प्रगति को अपना सकीं और जिन्होंने इन बाधाओं से ऊपर उठकर इसे अपनाया भी उन्हें इसका बाह्य रूप ही अधिक आकर्षक लगा। भारतीय स्त्री ने भी अपने आप को पुरुष की प्रतिद्वंद्विता में पूर्ण देखने की कल्पना की, परंतु केवल इसी रूप में उसकी चिरंतन नारी भावना संतुष्ट ना हो सकी। उसकी भी प्रकृतिजन्य कोमलता आस्तिनास्ति के बीच डगमगाती रही। कभी उसने संपूर्ण शक्ति से उसे दबाकर अपनी ऐसी कठोरता प्रगट की जो उसके कुचले मर्मस्थल का विज्ञापन करती थी और कभी क्षणिक आवेश में प्रयत्नप्राप्त निष्ठुरता का आवरण उतार कर अपने अहेतुक हल्केपन का परिचय दिया। पुरुष कभी उससे वैसे ही भयभीत हुआ जैसे संज्ञान विक्षिप्त से होता है और कभी वैसे ही उस पर हँसा जैसे बड़ा व्यक्ति बालक के आयास पर हंसता है। कहना नहीं होगा कि पुरुष के ऐसे व्यवहार से स्त्री का और अधिक अनिष्ट हुआ, क्योंकि उसे अपनी योग्यता का परिचय देने के साथ-साथ अपने सज्ञान और बड़े होने का प्रमाण देने का प्रयास भी करना पड़ा।
                    उसके सारे प्रयत्न प्रयास अपनी आवश्यकता के कारण ही कभी-कभी दयनीय जान पड़ते हैं परंतु वह करे भी तो क्या करे! एक ओर परंपरागत संस्कार ने उसके हृदय में यह भाव भर दिया है कि पुरुष विचार, बुद्धि और शक्ति में उससे श्रेष्ठ है और दूसरी ओर उसके भीतर की नारी प्रवृत्ति भी उसे नहीं रहने देती। इन्हीं दोनों भावनाओं के बीच में उसे अपनी ऐसी आश्चर्यजनक क्षमता का परिचय देना है जो उसे पुरुष के समकक्ष बैठा दे। अच्छा होता यदि स्त्री प्रतिद्वन्द्विता के क्षेत्र में उतरे हुए ही अपनी उपयोगिता के बल पर स्वत्वों की मांग सामने रखती, परंतु परिस्थितियाँ इसके अनुकूल नहीं थी। जो अप्राप्त है उसे पा लेना कठिन नहीं है, परंतु जो प्राप्त था उसे खोकर फिर पाना अत्यधिक कठिन है। एक में पाने वाले की योग्यता संभावित रहती है दूसरे में अयोग्यता। इसी में एक कार्य उतना श्रमसाध्य नहीं होता जितना दूसरे का। स्त्री के अधिकारों के विषय में भी यही सत्य है।
                    इस समय हम जिन्हें आधुनिक काल की प्रतिनिधि के रूप में देखते हैं, वे महिलाएं तीन श्रेणियों में रखी जा सकती हैं। त्रिवेणी की तीन धाराओं के समान वे एक-सी होकर भी अपनी विशेषताओं में भिन्न हैं। कुछ ऐसी हैं जिन्होंने अपने युगान्तरदीर्घ बंधनों की अवज्ञा कर पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक आंदोलन को गतिशील बनाने के लिए पुरुषों को अभूतपूर्व सहायता दी। कुछ ऐसी शिक्षिताएँ हैं जिन्होंने अपनी अनुकूल परिस्थितियों में भी सामाजिक जीवन की त्रुटियों का कोई उचित समाधान न पाकर अपनी शिक्षा और जागृति को आजीविका और सार्वजनिक उपयोग या साधन बनाया। और कुछ ऐसी संपन्न महिलाएँ हैं, जिन्होंने थोड़ी-सी शिक्षा के साथ बहुत सी पाश्चात्य आधुनिकता का संयोग कर अपने गृहजीवन को एक नवीन सांचे में ढाला है।
                   यह कहना अनुचित होगा कि प्रगतिशील नारी-समाज के ये विभाग किसी वास्तविक अंतर के आधार पर स्थित हैं, क्योंकि ऐसे विभाग ऐसी विशेषताओं पर आश्रित होते हैं, जो जीवन के गहन तल में एक हो जाती हैं।
                    यह समझना कि राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाली स्त्रियाँ अन्य क्षेत्रों में कार्य नहीं करती या शिक्षा आदि क्षेत्रों में कार्य करने वाली पाश्चात्य आधुनिकता से दूर रह सकी हैं, भ्रान्तिपूर्ण धारणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वास्तव में ये श्रेणियाँ उनके बाह्य जीवन के सादृस्य के भीतर कार्य करनेवाली वृत्तियों को समझने के लिए ही हैं। आधुनिकता की एकरूपता को भारतीय जाग्रत महिलाओं ने अनेक रूपों में ग्रहण किया है, जो स्वाभाविक ही था। ऐसी कोई नवीनता नहीं है, जो प्रत्येक व्यक्ति को भिन्न रूप में नवीन नहीं दिखाई देती, क्योंकि देखने वाले का भिन्न दृष्टिकोण ही उसका आधार होता है। प्रत्येक स्त्री ने अपनी असुविधा, अपने सुख-दुख और अपने व्यक्तिगत जीवन के भीतर से इस नवीनता पर दृष्टिपात किया,अतः प्रत्येक को उसमें अपनी विशेष त्रुटियों के समाधान के चिन्ह दिखाई पड़े।
                    इन सबके आचरणों को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करने वाले दृष्टिकोणों का पृथक-पृथक अध्ययन करने के उपरान्त ही हम आधुनिकता के वातावरण में विकसित नारी की कठिनाइयाँ समझ सकेंगे। उनकी स्थिति प्राचीन रूढ़ियों के बंधन में वंदिनी स्त्रियों की स्थिति से भिन्न जान पड़ने पर भी उससे स्पृहणीय नहीं है। उन्हें प्राचीन विचारों का उपासक पुरुष-समाज अवहेलना की दृष्टि से देखता है, आधुनिक दृष्टिकोण वाले समर्थन का भाव रखते हुए भी क्रियात्मक सहायता देने में असमर्थ रहते हैं और उग्र विचार वाले प्रोत्साहन देकर भी उन्हें अपने साथ ले चलना कठिन समझते हैं। वस्तुतः आधुनिक स्त्री जितनी अकेली है, उतनी प्राचीन नहीं, क्योंकि उसके पास निर्माण के उपकरण मात्र हैं, कुछ भी निर्मित नहीं। चौराहे पर खड़े होकर मार्ग पर निश्चय करने वाले व्यक्ति के समान वह सबका ध्यान आकर्षित करती रहती है, किसी से कोई सहायतापूर्ण सहानुभूति नहीं पाती। यह स्थिति आकर्षक चाहे जान पड़े, परन्तु सुखकर नहीं कही जा सकती।
                    राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने वाली महिलाओं ने आधुनिकता को राष्ट्रीय जागृति के रूप में देखा और उसी जागृति की ओर अग्रसर होने में अपने सारे प्रयत्न लगा दिए। इस उथल-पुथल के युग में स्त्री ने जो किया वह अभूतपूर्व होने के साथ-साथ उसकी शक्ति का प्रमाण भी था। यदि उसके बलिदान, उसके त्याग भूले जा सकेंगे तो उस आंदोलन का इतिहास भी भूला जा सकेगा। इस प्रगति द्वारा सार्वजनिक रूप से स्त्री-समाज को भी लाभ हुआ। उनके चारों ओर फैली हुई दुर्बलता नष्ट हो गई, उसकी कोरी भावुकता छिन्न-भिन्न हो गई और उसके स्त्रीत्व से शक्तिहीनता का लांछन दूर हो गया।पुरुष ने अपनी आवश्यकतानुसार ही उसे साथ आने की आज्ञा दी, परंतु स्त्री ने उससे पग मिलाकर चलकर प्रमाणित कर दिया है कि पुरुष ने उसकी गति पर बंधन लगाकर अन्याय ही नहीं, अत्याचार भी किया। जो पंगु है, उसी के साथ गतिहीन होने का अभिशाप लगा है, गतिवान को पंगु बना कर रखना सबसे बड़ी क्रूरता है।
                   राष्ट्र को प्रगतिशील बनाने में स्त्री ने अपना भी कुछ हित साधन किया यह सत्य है, परंतु इस मधु के साथ कुछ क्षार भी मिला था। उसने जो पाया वह भी बहुमूल्य है और जो खोया वह भी बहुमूल्य था, इस कथन में विचित्रता के साथ-साथ सत्य भी समाहित है।
                    आंदोलन के समय जिन स्त्रियों ने आधुनिकता का आह्वान सुना उसमें सभी वर्ग की शिक्षिता और अशिक्षिता स्त्रियाँ रहीं। उनकी नेत्रियों के पास इतना अवकाश भी नहीं था कि वे उन सबके बौद्धिक विकास की ओर ध्यान दे सकतीं।
                    यह सत्य है कि उन्हें कठोरतम संयम सिखाया गया, परंतु यह सैनिकों के संयम के समान एकांगी ही रहा। वे यह न जान सकीं कि युद्धभूमि में प्रतिक्षण मरने के लिए प्रस्तुत सैनिक का संयम, समाज में युगतक जीवित रहने के लिए इच्छुक व्यक्ति के संयम से भिन्न है। एक बंधनों की रक्षा के लिए प्राण देता है तो दूसरा बंधनों की उपयोगिता के लिए जीवित रहता है। एक अच्छा सैनिक मरना सिखा सकता है और एक सच्चा नागरिक जीना। एक में मृत्यु का सौंदर्य है और दूसरे में जीवन का वैभव। परन्तु अच्छे सैनिक का अच्छा नागरिक होना यदि अवश्यम्भावी होता तो सम्भवतः जीवन अधिक सुन्दर बन गया होता।
                   स्वभावतः सैनिक का जीवन उत्तेजना-प्रधान होगा और नागरिक का समवेदना-प्रधान। इसी से एक के लिए जो सहज है वह दूसरे के लिए असम्भव नहीं तो कष्टसाध्य अवश्य है।
                    आंदोलन के युग में स्त्रियों ने तत्कालीन संयम और उससे उत्पन्न कठोरता को जीवन का एक आवश्यक अंग मानकर स्वीकार किया, अपने प्रस्तुत उद्देश्य का साधन मात्र मानकर नहीं। इससे उनके जीवन में जो रूक्षता व्याप्त हो गई है, उसने उन्हीं तक सीमित न रहकर उनके सुरक्षित गृहजीवन को स्पर्श किया है। वास्तव में उनमें से अधिकांश महिलाएँ रूढ़ियों के भार से दबी जा रही थीं, अतः देश की जागृति के साथ-साथ उनकी क्रांति ने भी आत्मविज्ञान का अवसर और उसके उपयुक्त साधन पा लिए। यही उन परिस्थितियों में स्वाभाविक भी था, परंतु वे यह स्मरण न रख सकीं कि विद्रोह, केवल जीवन के विशेष विकास का साधन होकर ही उपयोगी रह सकता है। वह सामाजिक व्यक्ति का परिचय नहीं, उसके असंतोष की अभिव्यक्ति है।
                    उस करुण युग के अनुष्ठान में भाग लेने वाली स्त्रियों ने जीवन की सारी सुकोमल कला नष्ट करके संसार-संग्राम में विद्रोह को अपना अमोघ अस्त्र बनाया। समाज उनके त्याग पर श्रद्धा रखता है, परंतु उनकी विद्रोहमयी रूक्षता से सभीत है। जीवन का पहले से सुंदर और पूर्ण चित्र उनमें नहीं मिलता। आधुनिकता के पोषक भी उन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखते हैं। अनन्त काल से स्त्री का जीवन तरल पदार्थ के समान सभी परिस्थितियों के उपयुक्त बनता आ रहा है, इसलिए उसकी कठिनता आश्चर्य और भय का कारण बन गई है। अनेक व्यक्तियों की धारणा है कि उच्छृंखलता की सीमा का स्पर्श करती हुई स्वतंत्रता, प्रत्येक अच्छे बुरे बंधन के प्रति उपेक्षा का भाव, अनेक अच्छे-बुरे व्यक्तियों से सख्यत्व और अकारण कठोरता आदि उनकी विशेषताएँ हैं। इस धारणा में भ्रांति का भी समावेश है। परन्तु यह नितान्त निर्मलू नहीं कही जा सकती। अनेक परिवारों में जीवन की कटुता का प्रत्यक्ष कारण स्त्रियों की कठोरता का सीमातीत हो जाना ही है, यह सत्य है। परंतु इसके लिए केवल स्त्रियां ही दोषी नहीं ठहराई जा सकतीं। परिस्थिति इतनी कठोर थी कि उन्हें उस पर विजय पाने के लिए कठोरतम अस्त्र ग्रहण करना पड़ा। उनमें जो विचारशील थीं, उन्होंने प्राचीन नारियों के समान कृपाण और कंकण का संयोग कर दिया, जो नहीं थी उन्होंने अपने स्त्रीत्व से अधिक विद्रोह पर विश्वास किया। वे जीने की कला नहीं जानती हैं। जो वास्तव में अपूर्ण है। संघर्ष की कला लेकर तो मनुष्य उत्पन्न ही हुआ है, उसे सीखने कहीं जाना नहीं पड़ता। यदि वास्तव में मनुष्य ने इतने युगों में कुछ सीखा है तो वह जीने की कला कही जा सकती है। संघर्ष जीवन का आदि हो सकता है, अंत नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि संघर्षहीन जीवन ही जीवन है। वास्तव में मनुष्य जाति नष्ट करने वाले संघर्ष से अपने आप को बचाती हुई विकास करने वाले संघर्ष की ओर बढ़ती जाती है।
                   सामाजिक प्रगति का अर्थ भी यही है कि मनुष्य अपनी उपयोगिता बढ़ाने के साथ साथ नष्ट करने वाली परिस्थितियों की संभावना कम करता चले। किसी परिस्थिति में वह हिम के समान अपने स्थान पर स्थिर हो जाता है और किसी परिस्थिति में जल के समान तरल होकर अज्ञात दिशा में बह चलता है। स्त्री का जीवन भी अपने विकास के लिए ऐसी ही अनुकूलता चाहता है, परंतु सामाजिक जीवन में परिस्थिति की अनुकूलता में विविधता है। हम अपना एक ही केंद्र-बिंदु मानकर जीवन-संघर्ष में नहीं ठहर सकते और अपना कल्याण ही कर सकते हैं। स्त्री की जीवनी-शक्ति का ह्रास इसी कारण हुआ कि वह अपने आपको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के अनुरूप बनाने में असमर्थ रही। उसने एक केंद्र-बिंदु पर अपनी दृष्टि को तब तक स्थिर रखा, जब तक चारों ओर से परिस्तितियों ने उसकी दृष्टि नहीं रोक ली। उस स्थिति में प्रकाश से अचानक अंधकार में आए हुए व्यक्ति के समान वह कुछ भी न देख सकी। फिर प्रकृतस्थ होने पर उसने वही पिछला अनुभव दोहराया।
                    जागृति-युग की उपासिकाओं के जीवन भी इस त्रुटि से रहित नहीं रहे। उन्होंने अपनी दृष्टि का एक ही केंद्र बना रखा है, अतः उन्हें अपने चारों ओर से संदिग्ध वातावरण को देखने का न अवकाश है और न प्रयोजन। वे समझती है कि वे राष्ट्रीय जागृति की अग्रदूती के अतिरिक्त और कुछ न बन कर भी अपने जीवन को सफलता के चरम सोपान तक पहुँचा देंगी। इस दिशा में उनकी गति का अनुरोध करने वालों की संख्या कम नहीं रही, यह सत्य है। परन्तु इसीलिए वे अपना गन्तव्य भी नहीं देखना चाहती, यह कहना बहुत तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता। ऐसा कोई त्याग या बलिदान नहीं जिसका उद्गम नारीत्व न रहा हो। अतः केवल त्याग के अधिकार को पाने के लिए अपने आप को ऐसा रूक्ष बना लेने की आवश्यकता नहीं जान पड़ती।
                    जिन शिक्षिताओं ने गृह के बंधनों की अवहेलना पर सार्वजनिक क्षेत्र में अपना मार्ग प्रशस्त किया उनकी कहानी भी बहुत कुछ ऐसी ही है। उनके सामने नवीन का आह्वान और पीछे अनेक रूढियों का भार था। किसी विशेष त्याग या बलिदान की भावना लेकर नए जीवन-संग्राम में अग्रसर हुई थीं, यह कहना सत्य न होगा। वास्तव में गृह की सीमा में उनसे इतना अधिक त्याग और बलिदान मांगा गया कि उसके प्रति विद्रोह कर उठीं। स्वेच्छा से दी हुई छोटी से छोटी वस्तु मनुष्य का दान कहलाती है, परंतु अनिच्छा से दिया हुआ अधिक से अधिक द्रव्य भी मनुष्य का अधीनतासूचक कर ही समझा जाएगा। स्त्री को जो कुझ भी बलात् देना पड़ता है वह उसके दान की महिमा न बढ़ा सकेगा, यह शिक्षिता स्त्री भलीभाँति जान गई थी।
                    भविष्य में भारतीय समाज की क्या रूपरेखा हो, उसमें नारी की कैसी स्थिति हो, उसके अधिकारों की क्या सीमा हो आदि समस्याओं का समाधान आज की जागृत और शिक्षित नारी पर निर्भर है। यदि वह अपनी दुरवस्था के कारणों को स्मरण रख करे और पुरुष की स्वार्थपरता को विस्मरण कर सके तो भावी समाज का स्वप्न सुन्दर और सत्य हो सकता है, परंतु यदि वह अपने विरोध को चरम लक्ष्य मान ले और पुरुष से समझौते के प्रश्न को ही पराजय का पर्याय समझ ले तो जीवन की व्यवस्था अनिश्चित और विकास का क्रम शिथिल होता जाएगा।
                    क्रान्ति की अग्रदूती और स्वतंत्रता की ध्वजधारणी नारी का कार्य जीवन के स्वस्थ निर्माण में शेष होगा, केवल ध्वंस नहीं।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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इमेल- atul15290@gmail.com
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