जिस प्रकार सुख या आनंद देनेवाली वस्तु के संबंध में मन की
ऐसी स्थिति को जिसमें उस वस्तु के अभाव की भावना होते ही प्राप्ति, सान्निध्य या रक्षा की
प्रबल इच्छा जग पड़े, लोभ कहते हैं। दूसरे की वस्तु का लोभ करके
उसे लोग लेना चाहते हैं, अपनी वस्तु का लोभ करके उसे लोग देना
या नष्ट होने देना नहीं चाहते। प्राप्य या प्राप्त सुख के अभाव या अभाव कल्पना के बिना
लोभ की अभिव्यक्ति नहीं होती। अत: इसके सुखात्मक और दु:खात्मक दोनों पक्ष हैं। जब लोभ
अप्राप्य के लिए होता है तब तो दु:ख स्पष्ट ही रहता है। प्राप्य के संबंध में दु:ख
का अंग निहित रहता है और अभाव के निश्चय या आशंका मात्र पर व्यक्त हो जाता है। कोई
सुखद वस्तु पास में रहने पर भी मन में इस इच्छा का बीज रहता है कि उसका अभाव न हो।
पर अभाव का जब तक ध्या न नहीं होता तब तक इस वासना का कहीं पता नहीं रहता। हम बैठे
बैठे किसी वस्तु का आनंद ले रहे हैं। उस आनंद के अभाव से जो दु:ख होगा उसका कुछ भी
ध्याकन हमारे मन में नहीं है। इसी बीच में कोई आकर उस वस्तु को ले जाना चाहता है;
तब हम उससे कुछ व्यग्र होकर कहते हैं 'अभी रहने
दो।' इसके पहले कोरे आनंद के अभाव में इच्छा का कहीं पता न था
कि वह वस्तु हटाई न जाए।
विशिष्ट वस्तु या
व्यक्ति के प्रति होने पर लोभ वह सात्तिवक रूप प्राप्त करता है, जिसे प्रीति या प्रेम कहते हैं। जहाँ लोभ सामान्य या जाति के प्रति होता है
वहाँ वह लोभ ही रहता है, जहाँ पर किसी जाति के एक ही विशेष व्यक्ति
के प्रति होता है वहाँ 'रुचि' या 'प्रीति' का पद प्राप्त करता है। लोभ सामान्योन्मुख होता
है और प्रेम विशेषोन्मुख। कहीं कोई अच्छी चीज सुनकर दौड़ पड़ना लोभ है। किसी विशेष वस्तु
पर इस प्रकार मुग्ध रहना कि उससे कितनी अच्छी अच्छी वस्तुओं के सामने आने पर भी उस
विशेष वस्तु से प्रवृत्ति न हटे, रुचि या प्रेम है। किसी स्त्रीर
या पुरुष के रूप की प्रशंसा सुनते ही पहला भाव लोभ का होगा। किसी को हमने बहुत सुंदर
देखा और लुभा गए, उसके पीछे दूसरे को उससे भी सुंदर देखा तो उसपर
लुभा गए। जब तक प्रवृत्ति का यह व्यभिचार रहेगा, तब तक हम रूप
लोभी ही माने जाएँगे। जब हमारा लोभ किसी एक ही व्यक्ति पर स्थिर हो जाएगा, हमारी वृत्ति, एकनिष्ठ हो जाएगी, तब हम प्रेमी कहे जाने के अधिकारी होंगे, पर साधारणत:
मन की ललक यदि वस्तु के प्रति है तो जो लोभ और किसी प्राणी या मनुष्य के प्रति होती
है वह प्रीति कहलाती है।
लोभ का प्रथम संवेदनात्मक
अवयव है किसी वस्तु का बहुत अच्छा लगना, उससे बहुत सुख या आनंद
का अनुभव होना। अत: वह आनंदस्वरूप है। इसी से किसी अच्छी वस्तु को देखकर लुभा जाना
कहा जाता है। पर केवल इस अवस्था में लोभ की पूरी अभिव्यक्ति नहीं होती। कोई वस्तु हमें
बहुत अच्छी लगी, किसी वस्तु से हमें बहुत सुख या आनंद मिला,
इतने ही पर दुनिया में यह नहीं कहा जाता कि हमने लोभ किया। जब संवेदनात्मक
अवयव के साथ इच्छात्मक अवयव का संयोग होगा अर्थात् जब उस वस्तु को प्राप्त करने की,
दूर न करने की, नष्ट न होने देने की इच्छा प्रकट
होगी तभी हमारा लोभ लोगों पर खुलेगा। इच्छा लोभ या प्रीति का ऐसा आवश्यक अंग है कि
यदि किसी को कोई बहुत अच्छा और प्रिय लगता है तो लोग कहते हैं कि 'वह उसे चाहता है'।
भूखे रहने पर सबको
पेड़ा अच्छा लगता है पर चौबेजी पेट भर भोजन के ऊपर भी पेड़े पर हाथ फेरते हैं। अत: हम
कह सकते हैं कि चौबेजी को मिष्ठान से अधिक रुचि है। यह अभिरुचि भी लोभ की चेष्टाएँ
उत्पन्न करती हैं। इंद्रियों के विषय भेद से अभिरुचि के विषय भी भिन्न भिन्न हो सकते
हैं। कमल का फूल और रमणी का सुंदर मुख अच्छा लगता है। वीणा की तान और अपनी तारीफ अच्छी
लगती है, जूही और केसर की गंध अच्छी लगती है, रबड़ी और मालपुआ अच्छा लगता है, मुलायम गद्दा अच्छा लगता
है। ये सब वस्तुएँ तो आपको आनंद देती हैं, इससे इनकी प्राप्ति
की इच्छा बहुत सीधीसादी और स्वाभाविक कही जा सकती है। पर जिससे इन सब वस्तुओं की प्राप्ति
सुलभ होती है उसमें चाहे आनंद देनेवाली स्वत: कोई बात न हो पर उसकी प्राप्ति की इच्छा
होती है, उसका लोभ होता है। रुपये के रूप, रस, गंधआदि में कोई आकर्षण नहीं होता, पर जिस वेग से मनुष्य उस पर टूटते हैं उस वेग से भौंरे कमल पर और कौए मांस
पर भी न टूटते होंगे। यहाँ तक कि 'लोभी' शब्द से साधारणत: रुपये पैसे का लोभी, धन का लोभी समझा
जाता है। एक धातुखंड के गर्भ में कितने प्रकार के सुख और आनंद मनुष्य समझता है। पर
यह समझ इतनी पुरानी पड़ गई है कि इसकी ओर हमारा ध्या्न अब प्राय: नहीं रहता। धन संचय
करने में बहुतों का लक्ष्य धन ही रहता है, उससे प्राप्य सुख नहीं।
वे बड़े से बड़े सुख के बदले में या कठिन से कठिन कष्ट निवारण के लिए थोड़ा सा धन अलग
करना नहीं चाहते। उनके लिए साधन ही साध्य हो जाता है।
स्थिति भेद से प्रिय
या अच्छी लगनेवाली वस्तु के संबंध में इच्छा दो प्रकार की होती है-
1. प्राप्ति या सान्निधय की इच्छा।
2. दूर न करने या नष्ट न होने देने की इच्छा।
प्राप्ति या सान्निधय की इच्छा भी दो प्रकार की हो सकती है-
1. इतने संपर्क की इच्छा जितना और किसी का न हो।
2. इतने संपर्क की इच्छा जितना सब कोई या बहुत से लोग एक साथ
रख सकते हों।
इसमें से प्रथम प्रतिषेधात्मक होने के कारण प्राय: विरोधग्रस्त
होती है, इससे
उसपर समाज का ध्यान अधिक रहता है। कोई वस्तु हमें बहुत अच्छी लगती है, लगा करे, दूसरों को इससे क्या? पर जब हम उस वस्तु की ओर हाथ बढ़ाएँगे या औरों को उसकी ओर हाथ बढ़ाने न देंगे
तब बहुत से लोगों का ध्याओन हमारे इस कृत्य पर जाएगा जिनमें से कुछ हाथ थामनेवाले और
मुँह लटकानेवाले भी निकल सकते हैं। हमारे लोभ की शिकायत ऐसे ही लोग अधिक करते पाए जाएँगे।
दूसरों के लोभ की जैसी अच्छी निंदा लोभी कर सकते हैं वैसी और लोग नहीं। माँगने पर पानेवाले
और न देनेवाले दोनों इसमें प्रवृत्त होते हैं। एक कहता है 'वह
बड़ा लोभी है, देता नहीं' दूसरा कहता है
'वह बड़ा लोभी है, बराबर माँगा करता है'। रहीम दोनों को लोभी, दोनों को बुरा कहते हैं-
रहिमन वे नर मर चुके जे कहुँ माँगन
जाहिं।
उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत
'नाहिं'
ऐसा उस समय होता है जब एक ही वस्तु के संबंध में एक ओर तो प्राप्तकरने
और दूसरी ओर दूर न करने की इच्छा बिंब प्रतिबिंब रूप से दो व्यक्तियों में होतीहै।
इसके अतिरिक्त एक ही वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा यदि संयोग से कई प्राणियों के
चित्त में हुई तो भी विरोध का पूरा विधन होता है। सारांश यह कि दोनों अवस्थाओं में
लोभ का लक्ष्य एक होने पर लोभी एक दूसरे को बहुत व्याकुल करते हैं।
प्राप्ति की प्रतिषेधात्मक
इच्छा की सदोषता और निर्दोषता लोभ के विषय पर निर्भर रहती है। लोभ के विषय दो प्रकार
के होते हैं-सामान्य और विशेष। अच्छा खाना, अच्छा कपड़ा,
अच्छा घर तथा धन, जिससे ये सब वस्तुएँ सुलभ होती
हैं, सबको भाता है, सबको उसकी प्राप्ति
की आकांक्षा है। ये लोभ के सामान्य विषय हुए जिन पर प्राय: मनुष्य मात्र का लक्ष्य
रहता है, अत: इनके प्रति जो लोभ होता है उसपर बहुत लोगों का ध्या
न जाता है। पर यदि किसी को गुलाबजामुन या विशेष बूटी की छींट बहुत अच्छी लगे और वह
उसे प्राप्त करना या न देना चाहे तो उसके इस लोभ पर बहुत कम लोगों का ध्या्न जाएगा
और जिसका ध्यानन जाएगा भी उन्हें वह खटकेगा नहीं। ऐसे लोभ को वे रुचि कहेंगे। सबको
जिसकी हाय हाय होती है, सब जिसको पाना या रखना चाहते हैं,
वह बहुत से लोगों को एक मैदान में लाकर खड़ा किया करता है जहाँ एक दूसरे
की गतिविधि का निरीक्षण् और अवरोध बड़ी कड़ी नजर और पूरी मुस्तैदी से होता है।
यदि मनुष्य समाज
में सबके लोभ के लक्ष्य भिन्न भिन्न होते तो लोभ को बुरा कहनेवाले कहीं न मिलते। यदि
एक साथ रहनेवाले दस आदमियों में से कोई गाय बहुत चाहता, कोई घोड़ा,
कोई कपड़ा, कोई ईंट, कोई पत्थर,
कोई सोना, कोई चाँदी, कोई
ताँबा; और इन वस्तुओं में से किसी को शेष सब वस्तुओं को प्राप्त
कराने की कृत्रिम शक्ति न दी जाती, तो एक के लोभ से दूसरे को
कोई कष्ट न पहुँचता और दूसरी बात यह होती कि लोभ का एक बुरा लक्षण जो असंतोष है,
उसकी भी एक सीमा हो जाती-कोई कितनी गायें रखता, कितने घोड़े बाँधाता, कहाँ तक सोना चाँदी इकट्ठा करता।
पर विनिमय की कठिनता दूर करने के लिए मनुष्यों ने कुछ धातुओं में सब आवश्यक वस्तुएँ
प्राप्त कराने का कृत्रिम गुण आरोपित किया जिससे मनुष्य मात्र की सांसारिक इच्छा और
प्रयत्न का लक्ष्य एक हो गया, सबकी टकटकी टके की ओर लग गई।
लक्ष्य की इस एकता
से समाज में एक दूसरे की ऑंखों में खटकनेवाले की वृद्धि हुई। जब एक ही को चाहनेवाले
बहुत से हो गए तब एक ही चाह को दूसरे कहाँ तक पसंद करते हैं? लक्ष्मी की मूर्ति, धातुमयी हो गई, उपासक सब पत्थर के हो गए, धीरे धीरे यह दशा आई कि जो
बातें पारस्परिक प्रेम की दृष्टि से, धर्म की दृष्टि से की जाती
थीं वे भी रुपये पैसे की दृष्टि से होने लगीं। आजकल तो बहुत सी बातें धातु के ठीकरों
पर ठहरा दी गई हैं। पैसे से राज सम्मान की प्राप्ति, विद्या की
प्राप्ति और न्याय की प्राप्ति होती है। जिनके पास कुछ रुपया है बड़े बड़े विद्यालयों
में अपने लड़कों को भेज सकते हैं, न्यायालयों में फीस देकर अपने
मुकदमे दाखिल कर सकते हैं, अत्यंत भीरु और कायर होकर बहादुर कहला
सकते हैं, राजधर्म, आचार्यधर्म,
वीरधर्म सब पर सोने का पानी फिर गया, सब टकाधर्म
हो गए। धन की पैठ मनुष्य के सब कार्यक्षेत्रों में करा देने से, उसके प्रभाव को इतना विस्तृत कर देने से, ब्राह्मणधर्म
और क्षत्रियधर्म का लोप हो गया; केवल वणिग्धार्म रह गया।
व्यापारनीति राजनीति
का प्रधन अंग हो गई। बड़े बड़े राज्य माल की बिक्री के लिए लड़नेवाले सौदागर हो गए। जिस
समय क्षत्रियधर्म की प्रतिष्ठा थी, एक राज्य दूसरे राज्य पर कभी
कभी विजय कीर्ति की कामना से डंके की चोट पर चढ़ाई करता था। अब सदा एक देश दूसरे देशों
का चुपचाप दबे पाँव धन हरण करने की ताक में लगा रहता है। इसी से भिन्न भिन्न राज्यों
की परस्पर संबंध समस्या इतनी जटिल हो गई है। कोई कोई देश लोभवश इतना अधिक माल तैयार
करते हैं कि उसे किसी देश के गले मढ़ने की फिक्र में दिन रात मरते रहते हैं। जब तक यह
व्यापारोन्माद दूर न होगा तब तक इस पृथ्वी पर सुख शांति न होगी। दूर वह अवश्य होगा।
क्षत्रियधर्म की संसार में एक बार फिर प्रतिष्ठा होगी, चोरी का
बदला डकैती से लिया जाएगा।
सामान्य विषयगत प्रतिषेधात्मक
लोभ में भी लोभदृष्टि जितनी ही संकुचित होती है, उसके भीतर जितनी
ही कम वस्तुएँ आती हैं, उतना ही उसका दोष कम होता है। अच्छे भोजन
की सबको चाह होती है। अत: उसे बहुत चाहनेवाला लोभी कहला सकता है, पर अच्छे भोजनों में से यदि किसी को मिठाई की चाह अधिक रहे, तो उसका दोष कम और मिठाइयों में से यदि केवल गुलाबजामुन की अधिक चाह रहे तो
और कम क्या कुछ भी न समझा जाएगा। इसी प्रकार जहाँ एक ही वस्तु बहुत प्रकार की रखी हुई
है वहाँ भी यदि कोई एक किसी को बहुत पसंद आ जाए और वह उसे लेना चाहे तो उसकी गिनती
लोभियों में न होगी। विश्वामित्र को वशिष्ठ की गाय बहुत पसंद आई और वे उसके बदले में
बहुत सी गायें देने के लिए तैयार हो गए पर वशिष्ठ ने अपनी गाय नहीं दी। इसके लिए लड़
भिड़कर भी न वशिष्ठ लोभी कहलाए, न विश्वामित्र। इसी प्रकार एक
नवाब साहब को बाबू हरिश्चंद्र का एक अलबम बहुत पसंद आया था। ये लोभ के विशेष विषय के
उदाहरण हैं। इनके प्रति जो लोभ होता है उसके अवसर इतने कम होते हैं कि उनके स्वभाव
या अधिक अभ्यास का अनुमन नहीं किया जा सकता। पर किसी की अच्छी चीज देखते ही जिनके मुँह
में पानी आ जाता है, बराबर खरी खोटी सुना करते हैं। एक लोभ से
दूसरे लोभ का निवारण भी होता है जिससे लोभी में अन्य वस्तुओं के त्याग का साहस आता
है। विशेष विषयगत लोभ यदि बहुत प्रबल और सच्चा हुआ तो लोभी के त्याग का विस्तार बहुत
बड़ा होता है। लोभ तो उसे एक विशेष और निर्दिष्ट वस्तु से है अत: उसके अतिरिक्त अन्य
अनेक वस्तुओं का त्याग वह उसके लिए कर सकता है। विश्वामित्र एक गाय के लिए अपना सारा
राजपाट देने को तैयार हो गए थे। अन्य का त्याग अनन्य और सच्चे लोभ की पहचान है।
यहाँ तक तो प्राप्ति
की प्रतिषेधात्मक इच्छावाले लोभ की बात हुई जिसका प्राय: विरोध होता है। अब प्राप्ति
की उस इच्छा का विचार करता हूँ जिसे एक ही वस्तु के संबंध में बहुत से लोग बिना किसी
विरोध के रख सकते हैं। जिस लोभ से दूसरे को कोई बाधा या कष्ट पहुँचता है उसी को पहले
एक प्राय: जिसे बाधा या कष्ट होता है-बुरा कहता है, फिर दूसरा,
फिर तीसरा, इसी प्रकार बहुत से बुरा कहनेवाले हो
जाते हैं। सारांश यह कि जो लोग दूसरे की सुख शांति या स्वच्छंदता के बाधक होते हैं,
अधिकतर वही निंद्य समझे जाते हैं। उपवन की शोभा सबको लुभाती है। यदि
कोई नित्य किसी के बगीचे में जाकर टहला करे तो उसका क्या जाता है? यदि हम किसी वस्तु पर लुभाकर उससे उतना ही संपर्क रखना चाहते हैं जितना सब
लोग एक साथ रख सकते हैं, तो हमारा लोभ किसी की ऑंखों में नहीं
खटक सकता। बगीचे को ऑंख से एक साथ बहुत लोग देख सकते हैं, पर
उसमें के फल नहीं खा सकते। जहाँ देखने का भी दाम लगता है या कुछ आदमियों का देखना बिना
बंद किए देखा नहीं जा सकता, वहाँ दृष्टि संपर्क की इच्छा भी मुश्किल
में डाल देती है। पर जहाँ एक इच्छा दूसरे की इच्छा का बाधक न होकर साधक होती है,
वहाँ एक ही वस्तु का लोभ रखनेवाले बहुत से लोग बड़े सद्भाव के साथ रहते
हैं। लुटेरे या डाकू इसी प्रकार दलबद्धा होकर काम करतेहैं।
किसी को कोई स्थान
बहुत प्रिय हो जाता है और वह हानि और कष्ट उठाकर भी वहाँ से नहीं जाना चाहता। हम कह
सकते हैं कि उसे उस स्थान का पूरा लोभ है। जन्मभूमि का प्रेम, स्वदेशप्रेम यदि वास्तव में अंत:करण् का कोई भाव है तो स्थान के लोभ के अतिरिक्त
और कुछ नहीं है। इस लोभ के लक्षणों से शून्य देशप्रेम कोरी बकवाद या फैशन के लिए गढ़ा
हुआ शब्द है। यदि किसी को अपने देश से प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य,
पशु, पक्षी, लता,
गुल्म, पेड़, पत्तो,
वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा, सबको वह चाहभरी दृष्टि से देखेगा,
सबकी सुधा करके वह विदेश में ऑंसू बहाएगा। जो यह भी नहीं जानते कि कोयल
किस चिड़िया का नाम है, जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता
है, जो ऑंख भर यह भी नहीं देखते कि आम प्रणय सौरभपूर्ण मंजरियों
से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झाँकते कि किसानों के झोंपडों
के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने ठने मित्रों के बीच प्रत्येक
भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देशप्रेम का दावा करें तो उनसे पूछना चाहिए कि,
'भाइयो! बिना परिचय का यह प्रेम कैसा? जिनके सुख
दु:ख के तुम कभी साथी न हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो, यह समझते नहीं बनता। उनसे कोसों दूर बैठे बैठे, पड़े पड़े
या खड़े खड़े, तुम विलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया
करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो। प्रेम हिसाब किताब की
बात नहीं है। हिसाब किताब करनेवाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं पर प्रेम करनेवाले नहीं।
हिसाब किताब से देश की दशा का ज्ञान मात्र हो सकता है। हित चिंतन और हित साधन की प्रवृत्ति
इस ज्ञान से भिन्न है। वह मन के वेग पर निर्भर है, उसका संबंध
लोभ या प्रेम से है जिसके बिना आवश्यक त्याग का उत्साह हो ही नहीं सकता। जिसे ब्रज
की भूमि से प्रेम होगा वह इस प्रकार कहेगा-
नैनन सों रसखान जबै ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
केतिक ही कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर बारौं
रसखान तो किसी की
'लकुटी अरु कामरिया' पर तीनों पुरों का
राजसिंहासन तक त्यागने को तैयार थे, पर देशप्रेम की दुहाई देनेवालों
में से कितने अपने किसी थके माँदे भाई के फटे पुराने कपड़ों और धूल भरे पैरों पर रीझकर
या कम से कम खीझकर, बिना मन मैला किए कमरे की फर्श भी मैली होने
देंगे? मोटे आदमियो! तुमजरा सा दुबले हो जाते-अपने अंदेशे से
सही-तो न जाने कितनी ठठरियों पर माँस चढ़ जाता।
अब
पूछिए कि जिनमें यह देशप्रेम नहीं है उनमें वह किसी प्रकार हो भी सकता है? हाँ, हो सकता है-परिचय से, सान्निधय से। जिस प्रकार लोभ से
सान्निधय की इच्छा उत्पन्न होती है उसी प्रकार सान्निधय से भी लोभ या प्रेम की प्रतिष्ठा
होती है। जिनके बीच हम रहते हैं, जिन्हें हम बराबर ऑंखों से देखते
हैं, जिनकी बातें हम बराबर सुनते रहते हैं, जिनका हमारा हर घड़ी का साथ हो जाता है; सारांश यह है
कि जिनके सान्निधय का हमें अभ्यास पड़ जाता है, उनके प्रति लोभ
या राग हो जाता है। जिस स्थान पर कोई बहुत दिनों तक रह जाता है उसे छोड़ते हुए दु:ख
होता है। पशु और बालक भी जिनके साथ अधिक रहते हैं उन्हें परच जाते हैं। यह 'परचना' परिचय से निकला है। परिचय प्रेम का प्रवर्तक है।
बिना परिचय के प्रेम नहीं हो सकता। यदि देशप्रेम के लिए हृदय में जगह करनी है तो देश
के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाओ। बाहर निकलो तो ऑंखें खोलकर देखो कि खेत कैसे
लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच से कैसे बह रहे हैं,
टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, चौपायों के झुंड चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं अमराइयों
के बीच में गाँव झाँक रहे हैं। उनमें घुसो, देखो क्या हो रहा
है। जो मिलें उनसे दो दो बातें करो; उनके साथ किसी पेड़ की छाया
के नीचे घड़ी आधा घड़ी बैठ जाओ और समझो कि ये सब हमारे हैं। इस प्रकार जब देश का रूप
तुम्हारी ऑंखों में समा जाएगा; तुम उसके अंगप्रत्यंग से परिचित
हो जाओगे, तब तुम्हारे अंत:करण में इस इच्छा का उदय होगा कि वह
हमसे कभी न छूटे; वह सदा हरा भरा और फूला फला रहे; उसके धन धन्य की वृद्धि हो, उसके सब प्राणी सुखी रहें।
यह तो वर्तमन प्रेमसूत्र हुआ। अतीत की ओर दृष्टि फैलाओ। राम, कृष्ण, भीम, अर्जुन, विक्रम, कालिदास, भवभूति इत्यादि
का स्मरण करो जिससे यह सब नाम तुम्हारे हो जाएँ। इनके नाते भी यह भूमि और इस भूमि के
निवासी तुम्हें प्रिय होंगे।
पर
आजकल इस प्रकार का परिचय बाबुओं की लज्जा का एक विषय हो रहा है। वे देश के स्वरूप से
अनजान रहने या बनने में अपनी बड़ी शान समझते हैं। मैं अपने एक लखनवी दोस्त के साथ साँची
का स्तूप देखने गया। यह स्तूप एक बहुत सुंदर छोटी सी पहाड़ी के ऊपर है, नीचे एक छोटा सा जंगल है
जिसमें महुए के पेड़ भी बहुत से हैं। संयोग से उन दिनों पुरातत्व विभाग का कैंप पड़ा
हुआ था। रात हो जाने से हम लोग उस दिन स्तूप नहीं देख सके। सबेरे देखने का विचार करके
नीचे उतर रहे थे। वसंत का समय था। महुए चारों ओर टपक रहे थे। मेरे मुँह से निकला-''महुओं की कैसी मीठी महक आ रही है।'' इस पर लखनवी महाशय
ने मुझे रोककर कहा, ''यहाँ महुए सहुए का नाम न लीजिए,
लोग देहाती समझेंगे।'' मैं चुप हो गया,
समझ गया कि महुए का नाम जानने से बाबूपन में बड़ा भारी बट्टा लगता है।आरंभ
में ही कहा जा चुका है कि प्रवृत्ति भेद से प्रिय वस्तु के संबंध में इच्छा दो प्रकार
की होती है-प्राप्ति या सान्निधय की इच्छा तथा दूर न करने या नष्ट न होने देने की इच्छा।
प्राप्ति या सान्निधय की इच्छा का विचार तो हो चुका, अब रक्षा
की इच्छा का अन्वेषण करना है। रक्षा की इच्छा भी दो प्रकार की होती हैं-
1. स्वायत्ता रक्षा की इच्छा अर्थात् अपने अधिकार में रखने
की इच्छा।
2. स्व निरपेक्ष रक्षा की इच्छा अर्थात् केवल बने रहने देने
की इच्छा।
स्वायत्त रखने की इच्छा प्राय: अनन्य उपयोग या उपभोग की वासना
से संबद्धा रहती है। इससे वह कभी कभी लोगों को खटकती है और लोग उसका विरोध करते हैं।
कोई बहुत मीठे आम का पेड़ है जिसका फल सब लोग खाते हैं और जिसकी रखवाली सब लोग करते
हैं। यदि उनमें से कोई एक अकेले उसकी रखवाली करने चले और किसी को पास न आने दे, तो सब लोग मिलकर विरोध
करेंगे। पर कभी कभी स्वायत्ता रखने की इच्छा अन्य द्वारा यथेष्ट रक्षा के उस अविश्वास
के कारण होती है जो लोभ या प्रीति की अधिकता से उत्पन्न होता है। ऐसी दशा में यदि संरक्ष्य
वस्तु के उपयोग या उपभोग आदि से औरों को कोई बाधा नहीं पहुँचती है तो किसी एक का उसे
अपनी रक्षा में रखना दूसरे को बुरा नहीं लगता।
यदि
लोभ की वस्तु ऐसी है जिससे सबको सुख और आनंद है तो उसपर जितना ही अधिक ध्याुन रहेगा, रक्षा के भाव की एकता के
कारण परस्पर मेल की उतनी ही प्रवृत्ति होगी। यदि दस आदमियों में से सबकी यह इच्छा है
कि कोई मंदिर बना रहे; गिरने पड़ने न पाए अथवा और अधिक उन्नत और
सुसज्जित हो, तो यह सम्मिलित इच्छा ऐक्य सूत्र होगी। मिलकर कोई
कार्य करने से उसका साधन अधिक या सुगम होता है, यह बतलाना 'पर उपदेश कुशल' नीतिज्ञों का काम है, मेरे विचार का विषय नहीं। मेरा उद्देश्य तो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियों
की छानबीन है जो निश्चयात्मिका वृत्ति से भिन्न हैं। मुझे तो यह कहना है कि इन इन अवस्थाओं
में मेल की प्रवृत्ति होती है। अब मेल से क्या क्या लाभ होते हैं, यह तो न जाने कितने झगड़ालू बताते हैं और न जाने कितने लोग सुनकर झगड़ा करते
हैं।
लोभ
का सबसे प्रशस्त रूप वह है जो रक्षा मात्र की इच्छा का प्रवर्तक होता है, जो मन में यही वासना उत्पन्न
करता है कि कोई चीज बनी रहे, चाहे वह हमारे किसी उपयोग में आए
या न आए। इस लोभ में दोष का लेश उसी अवस्था में आ सकता है जबकि वह वस्तु ऐसी हो जिससे
किसी को कोई बाधा या हानि पहुँचती हो। कोई सुंदर कृष्णसार मृग नित्य आकर खेती की हानि
किया करता है। उसके सौंदर्य पर मुग्ध होकर उसकी रक्षा चाहनेवाला यदि बराबर उसकी रक्षा
में प्रवृत्त रहेगा तो बहुतों से उसकी अनबन हो सकती है। वह लोभ धन्य है जिससे किसी
के लोभ का विरोध नहीं और लोभ की जो वस्तु अपने सब लोभियों को एक दूसरे का लोभी बनाए
रहती है, वह भी परम पूज्य है। घर का प्रेम, पुर या ग्राम का प्रेम, देश का प्रेम इसी पवित्र लोभ
के क्रमश: विस्तृत रूप हैं। मनुष्य के प्रयत्नों की पहुँच बहुत परिमित होती है। अत:
जो प्रेम क्षेत्र जितना ही निकटस्थ होगा उसमें उतने ही अधिक प्रयत्न की आवश्यकता होगी
और जो जितना ही दूर होगा, प्रयत्नों का उतना ही कम अंश उसके लिए
आवश्यक होगा। सबसे अधिक घर की रक्षा का, फिर पुर या ग्राम की
रक्षा का और फिर देश की रक्षा का ध्यारन जनसाधारण के लिए स्वाभाविक है। पर जिनकी दृष्टि
बहुत व्यापक होती है, जिनके अंत:करण में परार्थ को छोड़ स्वार्थ
के लिए अलग जगह नहीं होती वे इस क्रम का विपर्यय कर दिखाते हैं। वे देश की रक्षा के
लिए अवसर पड़ने पर घर का लोभ क्या, प्राण तक का लोभ छोड़ देते हैं।
पर ऐसे लोग विरले होते हैं। सबसे ऐसी आशा नहीं की जा सकती।
अब
घर का प्रेम, पुर का प्रेम, देश का प्रेम, कहाँ
तब विरोध शून्य होता है, यह भी देखिए। इनका अवरोध परिमित होता
है-''घर के भीतर, पुर या ग्राम के भीतर''
ही उसके होने का निश्चय रहता है। घर के बाहर, पुर
या ग्राम के बाहर, देश के बाहर विरोध करनेवाले मिल सकते हैं।
एक घर की रक्षा दूसरे घरवालों से, एक पुर की रक्षा दूसरे पुरवालों
से और एक देश की रक्षा दूसरे देशवालों से करनी पड़ती है।
जिनकी
आत्मा समस्त भेदभाव को भेदकर अत्यंत उत्कर्ष पर पहुँची हुई होती है, वे सारे संसार की रक्षा
चाहते हैं-जिस स्थिति में भूमंडल के समस्त प्राणी, कीट पतंग से
लेकर मनुष्य तक सुखपूर्वक रह सकते हैं, उसके अभिलाषी होते हैं,
ऐसे लोग विरोध के परे होते हैं। उनसे जो विरोध रखें वे सारे संसार के
विरोधी हैं, वे लोक के कंटक हैं।
कोई
वस्तु हमें बराबर सुख या आनंद देती रहे और कोई वस्तु बनी रहे, इन्हीं दो भावों को लेकर
स्वायत्ता की रक्षा की इच्छा और स्वनिरपेक्ष रक्षा की इच्छा ये दो विभाग पहले किए गए
हैं। अत: पहली को यदि हम अपने सुख की रक्षा की इच्छा कहें तो बहुत अनुचित न होगा। वस्तु
के दूसरे के पास जाने से या नष्ट हो जाने से हमें सुख का आनंद न मिल सकेगा,
इसी से हम उसकी रक्षा के लिए व्यग्र होते हैं। यदि ऐसी वस्तु को कोई
उठाए लिये जाता हो और वह बीच में नष्ट हो जाए, तो हमें दु:ख न
होगा; क्योंकि जब चीज हमारे हाथ से निकल गई, हमें वह सुख या आनंद दे नहीं सकती, तब वह चाहे रहे,
चाहे नष्ट हो। यहाँ तक कि यदि ले जानेवाले के प्रति हमें क्रोध होगा
या ईर्ष्या होगी तब हम प्रसन्न होंगे। जहाँ वस्तुरक्षा की इच्छा होगी वहाँ यह बात न
होगी। हम किसी दशा में उस वस्तु का नाश न चाहेंगे। किसी पुराने काजी के पास दो स्त्रियाँ
एक बच्चे को लेकर लड़ती हुई आईं। एक कहती थी कि बच्चा मेरा है, दूसरी कहती थी मेरा। काजी साहब ने परीक्षा के विचार से कहा-''अच्छा, तुम दोनों को बच्चा काटकर आधा आधा बाँट दिया जाएगा।''
इतना सुनते ही दोनों में से एक स्त्रीत घबराकर बोल उठी-''जाने दीजिए, बच्चा मुझे न चाहिए, उसी को दे दीजिए।'' काजी साहब समझ गए कि बच्चा इसी का
है। वह स्त्री् बच्चे की माँ थी, अत: उसे उसका सच्चा लोभ था।
अब तक लोभ
के संबंध में जो कुछ कहा गया है वह उसका व्यापक अर्थ लेकर। पर जैसा पहले कहा जा चुका
है, 'लोभ'
शब्द कहने से आजकल प्राय: धन के लोभ की भावना होती है, प्राप्ति या रक्षा की उस इच्छा की ओर ध्याधन जाता है जो जीवन निर्वाह की सामग्रियों
के प्रति होती है। धन से अनेक सुखों की प्राप्ति और अनेक कष्टों का निवारण होता है
अथवा यों कहिए कि धन के बिना संसार में रहना संभव नहीं। संसार में जो इतने लोग धन इकट्ठा
करते दिखाई देते हैं उनमें से कुछ तो घोर कष्ट के निवारण के लिए, कुछ अधिक सुख की प्राप्ति के लिए, कुछ भविष्य में सुख
के अभाव या कष्ट की शंका से और कुछ बिना किसी उद्देश्य भावना के। इनमें प्रथम श्रेणी
के लोग तो धन की जितनी प्रबल इच्छा करें, उसके लिए चाहे जितना
आतुर हों, लोभी नहीं कहला सकते। धन के बिना जिन्हें पेट भर अन्न
नहीं मिलता, जो शीत और ताप से अपने शरीर की रक्षा नहीं कर सकते,
उन्हें जो लोभी कहें वे बड़े भारी लोभी और बड़े भारी क्रूर हैं। दूसरी
श्रेणी के लोगों पर से लोभ के आरोप की संभावना क्रमश: बढ़ते बढ़ते चौथी श्रेणी के लोगों
पर जाकर निश्चय कोटि को पहुँच जाती है। कष्ट निवारण की इच्छा, अधिक सुख प्राप्ति की इच्छा, सुखाभाव या कष्ट की आशंका-ये
तीनों धन और उसकी प्राप्ति की इच्छा के बीच ओट या व्यवधन के रूप में रहती हैं। जहाँ
इन तीनों में से कोई परदा नहीं रहता वहाँ शुद्ध धन लोभी की जघन्य मूर्ति साक्षात् दिखाई
पड़ती है।
धन
की कितनी इच्छा लोभ के लक्षणों तक पहुँचती है, इसका निर्णय कठिन है। पर किसी मनोविकार की
उचित सीमा का अतिक्रमण प्राय: वहाँ समझा जाता है जहाँ और मनोवृत्तियाँ दब जाती हैं
या उनके लिए बहुत कम स्थान रह जाता है और मनोवेगों के आधिक्य से लोभ के आधिक्य में
विशेषता यह होती है कि लोभ स्वविषयान्वेषी होने के कारण अपनी स्थिति और वृद्धि का आधार
आप खड़ा करता रहता है, जिससे असंतोष की प्रतिष्ठा के साथ ही साथ
और वृत्तियों के लिए स्थायी अनवकाश हो जाता है, और मनोविकारों
में यह बात नहीं होती। क्रोध को ही लीजिए। क्रोध कुछ बातों पर आता है, पर उन बातों को ढूँढ़ने में प्रवृत्त नहीं होता। क्रोधी स्वभाव का मनुष्य ऐसी
बातों पर चिढ़ जाता है जिनसे और लोग नहीं चिढ़ते पर वह सदा इस फेर में नहीं घूमा करता
कि कोई बात चिढ़ने को मिले। क्रोध में आगबबूला होनेवाले तुरंत करुणा से आर्द्र और लज्जा
से पानी पानी हुए भी देखे जाते हैं। क्रोध आदि में अन्य वृत्तियों का जो बोध हो जाता
है वह प्राय: क्षणिक होता है, पर लोभ द्वारा स्थायी हो जाता है।
बात यह है कि लोभ का प्रथम अवयव सुखात्मक होने के कारण लोभी को विषय की ओर बराबर प्रवृत्त
रखता है। धन का लोभी धन पाकर लोभ से निवृत्त नहीं हो जाता, या
तो भले बुरे का सब विचार छोड़ रक्षा में तत्पर दिखाई देता है या और अधिक प्राप्ति में।
इस प्रकार लोभ से अन्यमुख वृत्तियों का जो स्तंभन होता है, वह
स्वभावांतर्गत हो जाता है। अस्तु, स्थूल रूप से उद्धात लोभ के
दो उग्र लक्षण कहे जा सकते हैं-
(1) असंतोष
(2) अन्य वृत्तियों का दमन।
लोभ चाहे जिस वस्तु का हो, जब बहुत बढ़ जाता है तब उस वस्तु की प्राप्ति,
सान्निधय या उपभोग से जी नहीं भरता। मनुष्य चाहता है कि वह बार बार मिले
या बराबर मिलता रहे। धन का लोभ जब रोग होकर चित्त में घर कर लेता है तब प्राप्ति होने
पर भी और प्राप्ति की इच्छा बराबर जगी रहती है। जिससे मनुष्य सदा आतुर और प्राप्त के
आनंद से विमुख रहता है। जितना नहीं है उतने के पीछे जितना है उतने से प्रसन्न होने
का उसे कभी अवसर ही नहीं मिलता। उसका सारा अंत:करण सदा अभावमय रहता है। उसके लिए जो
है वह भी नहीं है। असंतोष अभाव कल्पना से उत्पन्न दु:ख है, अत:
जिस किसी में यह अभाव कल्पना स्वाभाविक हो जाती है, सुख से उसका
नाता सब दिनों के लिए टूट जाता है। न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर
कोई प्रसन्न होता है। इसी से संतोष सात्तिवक जीवन का एक अंग बतलाया गया है। भक्तवर
तुलसीदासजी संतोष वृत्ति की वांछा इस प्रकार करते हैं-
कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
यथालाभ संतोष सदा काहू सों कछू
न चहौंगो
पर
जिस स्थिति से कोई कष्ट या कठिनता हो उससे असंतुष्ट रहना गृहस्थ का धर्म है क्योंकि
ऐसे असंतोष से जिस प्रयत्न की प्रेरणा होती है वह एक अच्छे फल के निमित्त होता है।
ऐसे असंतोष का अभाव आलस्यसूचक होता है। पर प्राप्ति की जो इच्छा व्यसन के रूप में होती
है उसका निरसन ही ठीक है।
धन
का जो लोभ मनसिक व्याधि या व्यसन के रूप में होता है उसका प्रभाव अंत:करण की शेष वृत्तियों
पर यह होता है कि वे अनभ्यास से कुंठित हो जाती हैं। जो लोभ मन अपमन के भाव को, करुणा और दया के भाव को,
न्याय अन्याय के भाव को, यहाँ तक कि अपने कष्ट
निवारण या सुखभोग की इच्छा तक को दबा दे, वह मनुष्यता कहाँ तक
रहने देगा? जो अनाथ विधवा का सर्वस्वहरण करने के लिए कुर्क अमीन
लेकर चढ़ाई करते हैं, जो अभिमानी धानिकों की दुतकार सुनकर त्योरी
पर बल नहीं आने देते, जो मिट्टी में रुपया गाड़कर न आप खाते और
न दूसरों को खाने देते हैं, परिजनों का कष्टक्रंदन सुनकर भी रुपये
गिनने में लगे रहते हैं, वे अधामरे होकर जीते हैं। उनका आधा अंत:करण
मारा गया समझिए। जो किसी के लिए नहीं जीते उनका जीना न जीना बराबर है।
लोभियों
का दमन योगियों के दमन से किसी प्रकार कम नहीं होता। लोभ के बल से वे, काम और क्रोध को जीतते
हैं, सुख की वासना का त्याग करते हैं, मन
अपमन में समन भाव रखते हैं। अब और चाहिए क्या? जिससे वे कुछ पाने
की आशा रखते हैं वह यदि उन्हें दस गालियाँ भी देता है तो उनकी आकृति पर न रोष का कोई
चिद्द प्रकट होता है और न मन में ग्लानि होती है। न उन्हें मक्खी चूसने में घृणा होती
है और न रक्त चूसने में दया। सुंदर से सुंदर रूप देखकर वे अपनी एक कौड़ी भी नहीं भूलते।
करुण से करुण स्वर सुनकर वे अपना एक पैसा भी किसी के यहाँ नहीं छोड़ते। तुच्छ से तुच्छ
व्यक्ति के सामने हाथ फैलाने में वे लज्जित नहीं होते। क्रोध, दया, घृणा, लज्जा आदि करने से क्या
मिलता है कि वे करने जाएँ? जिस बात से उन्हें कुछ मिलता नहीं
जबकि उसके लिए उनके मन के किसी कोने में जगह नहीं होती, तब जिस
बात से पास का कुछ जाता है, वह बात उन्हें कैसी लगती होगी;
यह यों ही समझा जा सकता है। जिस बात में कुछ लगे वह उनके किसी काम की
नहीं, चाहे वह कष्ट निवारण हो या सुख प्राप्ति, धर्म हो या न्याय। वे शरीर सुखाते हैं; अच्छे भोजन,
अच्छे वस्त्रा आदि की आकांक्षा नहीं करते। लोभ के अंकुश से अपनी संपूर्ण
इंद्रियों को वश में रखते हैं। लोभियो! तुम्हारा अक्रोध, तुम्हारा
इंद्रिय निग्रह, तुम्हारा मानापमन समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है, तुम्हारी निष्ठुरता,
तुम्हारी निर्लज्जता, तुम्हारा अविवेक,
तुम्हारा अन्याय विगर्हणीय है। तुम धन्य हो! तुम्हें धिक्कार है।
पक्के
लोभी लक्ष्य भ्रष्ट नहीं होते,
कच्चे हो जाते हैं। किसी वस्तु को लेने के लिए कई आदमी खींचतान कर रहे
हैं। उनमें से एक क्रोध में आकर उस वस्तु को नष्ट कर देता है। उसे पक्का लोभी नहीं
कह सकते, क्योंकि क्रोध ने उसके लोभ को दबा दिया, वह लक्ष्य भ्रष्ट हो गया।
अब
एक प्राणी के प्रति दूसरे प्राणी के लोभ का प्रसंग सामने आता है जिसे प्रीति या प्रेम
कहते हैं। यद्यपि किसी व्यक्ति की ओर प्रवृत्ति भी जब तक एकनिष्ठ न हो, लोभी ही कही जा सकती है,
पर साधारण बोलचाल में वस्तु के प्रति मनकी जो ललक होती है उसे 'लोभ' और किसी व्यक्ति के प्रति जो ललक होती है उसे 'प्रेम' कहते हैं। वस्तु और व्यक्ति के विषय भेद से लोभ
के स्वरूप और प्रवृत्ति में बहुत कुछ भेद पड़ जाता है, इससे व्यक्ति
के लोभ को अलग नाम दिया गया है।पर मूल में लोभ और प्रेम दोनों एक ही हैं, इसका पता हमारी भाषा ही देती है। किसी रूपवान् या रूपवती को देखकर उसपर 'लुभा जाना' बराबर कहा जाता है। ऍंगरेजी के प्रेम वाचक
शब्द 'लव' (Love) सैक्सन के 'लुफु' (Lufu) और लैटिन के 'लुबेट'
(Lubet) का संबंध संस्कृत के 'लोभ' शब्द या लुभ् धातु से स्पष्ट लक्षित होता है।
किसी
व्यक्ति का लोभ वस्तु के लोभ से कितना विलक्षण होता है, अब यह देखना चाहिए। विलक्षणता
का सबसे बड़ा कारण है दोनों पक्षों में मनस्तत्तव का विधन। जो लुब्धा होता है उसके भी
हृदय होता है, जिस पर वह लुब्धा होता है उसके भी। अत: किसी व्यक्ति
का लोभी उस व्यक्ति से केवल वाह्य संपर्क रखकर ही तुष्ट नहीं हो सकता; उसके हृदय का संपर्क भी चाहता है। अत: मनुष्य का मनुष्य के साथ जितना गूढ़,
जटिल और व्यापक संबंध हो सकता है उतना वस्तु के साथ नहीं। वस्तु लोभ
के आश्रय और आलंबन इन दो पक्षों में भिन्न भिन्न कोटि की सत्ताएँ रहती हैं। पर प्रेम
एक ही कोटि की दो सत्ताओं का योग है, इससे कहीं अधिक गूढ़ और पूर्ण
होता है।
वस्तु
के भीतर लोभी चेतना का कोई विधन नहीं देखता जिस पर प्रभाव डालने का वह प्रयत्न करे।
पर प्रेमी प्रिय की अंतर्वृत्ति पर प्रभाव डालने में तत्पर रहा करता है। प्रभाव डालने
की यह वासना प्रेम उत्पन्न होने के साथ ही जगती है और बढ़ती चली जाती है। वस्तु पर लुब्धा
होकर कोई उस चिंता में नहीं पड़ता कि उस वस्तु को मालूम हो जाए कि वह उस पर लुब्धा है।
पर किसी पर लुब्धा या प्रेमासक्त होते ही प्रेमी इस बात के लिए आतुर होने लगता है कि
प्रिय को उसके प्रेम की सूचना मिल जाए। उसे इस बात की चिंता रहती है कि प्रिय को भी
उससे प्रेम हो गया है, कम से कम उसके प्रेम का पता लग गया है, या नहीं-
वा निरमोहिनि रूप की रासि जऊ उर
हेतु न ठानति ह्वैहै।
बारहिं बार बिलोकि घरी घरी सूरति
तौ पहिचानति ह्वैहै।
ठाकुर या मन को परतीति है, जो पै सनेह न मनति ह्वैहै।
आवत हैं नित मेरे लिए इतनो तो विशेष
कै जानति ह्वैहै।।
इस
प्रवृत्ति के मूल में कई बातें दिखाई पड़ती हैं। पहली बात तो तुष्टि का विधन है। लोभी
या प्रेमी सान्निधय या संपर्क द्वारा तुष्ट होना चाहता है। वस्तु के सान्निध्य या संपर्क
के लिए तो वस्तु की ओर से किसी प्रकार की स्वीकृति या प्रयत्न की अपेक्षा नहीं। पर
किसी चेतन प्राणी से प्रेम करके कोई उसके सान्निधय या संपर्क की आशा तब तक नहीं कर
सकता जब तक वह उसमें भी सान्निध्य या संपर्क की इच्छा न उत्पन्न कर ले। दूसरी बात यह
है कि प्रेम का पूर्ण विकास तभी होता है जब दो हृदय एक दूसरे की ओर क्रमश: खिंचते हुए
मिल जाते हैं। इस अंतर्योग के बिना प्रेम की सफलता नहीं मानी जा सकती। अत: प्रिय को
अपने प्रेम की सूचना देना उसके मन को अपने मन से मिलाने के लिए न्योता देना है।
अपने
प्रेम की सूचना देने के उपरांत प्रेमी प्रिय के हृदय में अपनी ओर कुछ भावों की प्रतिष्ठा
चाहता है। पहले कहा जा चुका है कि सहसा उत्पन्न लोभ या प्रीति का प्रथम संवेदनात्मक
अवयव है 'अच्छा
लगना'। वस्तु के संबंध में तो उसी वस्तु का अच्छा लगना काफी होता
है। लोभियों को इस फेर में नहीं पड़ना पड़ता कि कोई वस्तु उन्हें अच्छी लग रही है उसे
वे भी अच्छे लगें पर प्रेमी यह चाहने लगता है कि जिस प्रकार प्रिय मुझे अच्छा लगता
है उसी प्रकार मैं भी प्रिय को अच्छा लगूँ। वह अपना सारा अच्छापन किसी न किसी बहाने
उसके सामने रखना चाहता है। यह बराबर देखने में आता है कि जब कभी किसी नवयुवक का चित्त
किसी युवती की ओर आकर्षित होता है तब ऐसे स्थानों पर जाते समय जहाँ उसके दिखाई पड़ने
की संभावना होती है, उसका ध्या न कपड़े लत्तो की सफाई और सजावट
की ओर कुछ अधिक हो जाता है। सामने होने पर बातचीत और चेष्टा में भी एक खास ढंग देखा
जाता है। अवसर पड़ने पर चित्त की कोमलता, सुशीलता, वीरता, निपुणता इत्यादि का भी प्रदर्शन होता है। प्रेमी
को जिस घड़ी यह पता चलता है कि प्रिय का चित्त भी उसकी ओर थोड़ा बहुत खिंचा है उसी घड़ी
से वह लोभ की ऊपरी सतह से और गहरे में जाकर प्रेम के आनंद लोक में मग्न हो जाता है।
एक
दूसरे की ओर आकर्षित दो हृदयों के योग से जीवन में एक नया रस उत्पन्न हो जाता है या
दूनी सजीवता आ जाती है। आनंद की संभावना भी बहुत अधिक बढ़ जाती है और दु:ख की भी। प्रिय
के हृदय का आनंद प्रेमी के हृदय का आनंद हो जाता है। अत: एक ओर तो प्रिय के आनंद का
मेल हो जाने से प्रेमी संसार की नाना वस्तुओं में कई गुने अधिक आनंद का अनुभव करने
लगता है; दूसरी
ओर प्रिय के अभाव में उन्हीं वस्तुओं में उसके लिए आनंद बहुत कम या कुछ भी नहीं रह
जाता है। वियोग की दशा में तो वे वस्तुएँ उलटा दु:ख देने लगती हैं। होते होते यहाँ
तक होता है कि प्रेमी के लिए प्रिय के आनंद से अलग आनंद रह ही नहीं जाता। प्रिय के
आनंद में ही वह अपना आनंद ढूँढ़ा करता है। दो हृदयों की यह अभिन्नता अखिल जीवन की एकता
के अनुभव पथ का द्वार है, प्रेम का यह एक रहस्यपूर्ण महत्व है।
प्रेम
का अभाव एकांत भी होता है और लोक जीवन के नाना क्षेत्रों में भी दिखाई पड़ता है। एकांत
प्रभाव उस अंतर्मुख प्रेम में देखा जाता है जो प्रेमी को लोक के कर्म क्षेत्र से खींचकर
केवल दो प्रणियों के एक छोटे से संसार में बंद कर देता है। उसका उठना बैठना, चलना फिरना, मरना जीना, सब उसी घेरे के भीतर होता है। वह उस घेरे
के बाहर कोई प्रभाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से कुछ भी नहीं करता। उसमें जो साहस,
धीरता, दृढ़ता, कष्ट सहिष्णुता
आदि दिखाई देती है वह प्रेम मार्ग के बीच प्रेमोन्माद के रूप में, लोक के बीच कर्तव्यद के रूप में नहीं। सारांश यह कि इस प्रकार के प्रेम का
क्षेत्र सामाजिक और पारिवारिक जीवन से विच्छिन्न होता है। उसमें प्रियपक्ष का प्रबल
राग जीवन के अन्य सब पक्षों से पूर्ण विराग की प्रतिष्ठा कर देता है। फारसी के साहित्य
में ऐसे ही ऐकांतिक और लोक वाह्य प्रेम की प्रधनता है। भारतीय साहित्य में गोपियों
के प्रेम को प्राय: यही स्वरूप दिया गया है। भक्तिमार्ग में प्राय: यही ऐकांतिक और
अनन्य प्रेम लिया गया है। क्योंकि यह एक ऐसा राग है जिसके प्रभाव से विराग की साधना
आप से आप, बिना किसी मनसिक प्रयत्न के हो जाती है।
प्रेम
का दूसरा स्वरूप वह है जो अपना मधुर और अनुरंजनकारी प्रकाश जीवन यात्रा के नाना पथों
पर फेंकता है। प्रेमी जगत् के बीच अपने अस्तित्व की रमणीयता का अनुभव आप भी करता है।
और अपने प्रिय को भी कराना चाहता है। प्रेम के दिव्य प्रभाव से उसे अपने आसपास चारों
ओर सौंदर्य की आभा फैली दिखाई पड़ती है,
जिसके बीच वह बड़े उत्साह और प्रफुल्लता के साथ अपना कर्म सौंदर्य प्रदर्शित
करता है। वह प्रिय को अपने समग्र जीवन का सौंदर्य जगत् के बीच दिखाना चाहता है। यह
प्रवृत्ति इस बात का पूरा संकेत करती है कि मनुष्य की अंत:प्रवृत्ति में जाकर प्रेम
का जो विकास हुआ है वह सृष्टि के बीच सौंदर्य विधन की प्रेरणा करनेवाले एक दिव्य शक्ति
के रूप में हुआ है। मनुष्य का प्रेम सौंदर्य, वस्तु सौंदर्य,
कर्म सौंदर्य, वाक् सौंदर्य, भाव सौंदर्य सब देखना और दिखाना चाहता है। वीरता के पुराने जमाने में युवक
योद्धा यह समझकर कि गढ़ी की ऊँची अट्टालिका के गवाक्षों से हमारी प्रेयसी झाँकती होगी,
किस सौंदर्य भावनापूर्ण उमंग के साथ रणक्षेत्र में उतरता था। कर्म का
सबसे अधिक विकट क्षेत्र युद्ध है। इससे आर्य जाति के वीरकाल के काव्योंमें ऋंगार और
वीर का अत्यंत मनोहर समन्वय पाया जाता है। जिस प्रकार योरपीय साहित्य में वीर धर्म
का एक युग रहा है उसी प्रकार हमारे हिन्दी साहित्य में भी। उस काल की कविता का प्रसंग
अधिकतर 'युद्ध और प्रेम' (love and war) ही पाया जाता है।
भारतीय
प्रबंध काव्यों की मूल प्रवृत्ति लोक जीवन के संश्लिष्ट प्रेम के वर्णन की ओर ही रही।
आदि कवि वाल्मीकि ने राम और सीता के प्रेम का विकास मिथिला या अयोध्याn के महलों और बगीचों में
न दिखाकर दंडकारण्य के विस्तृत कर्मक्षेत्र के बीच दिखाया है। उनका प्रेम जीवनयात्रा
के मार्ग में माधुर्य फैलानेवाला है; उससे अलग किसी कोने में
चौकड़ी या आहें भरानेवाला नहीं; उसके प्रभाव से वनचर्या में एक
अद्भुत रमणीयता आ गई है। सारे कँटीले पथ प्रसूनमय हो गए हैं, संपूर्ण कर्मक्षेत्र एक मधुर ज्योति से जगमगा उठा है। कोमलांगी सीता अपने प्रिय
पति की विशाल भुजाओं और कंधो के ऊपर निकली हुई धनुष की वक्रकोटि पर मुग्ध निविड़ और
निर्जन काननों में निशंक विचर रही हैं। खर दूषण की राक्षसी सेना कोलाहल करती आ रही
है। राम कुछ मुस्कराकर एक बार प्रेमभरी दृष्टि से सीता की ओर देखते हैं, फिर वीरदर्प से राक्षसों की ओर दृष्टि फेरकर अपना धनुष चढ़ाते हैं। उस वीरदर्प
में कितनी उमंग, कितना उत्साह, कितना माधुर्य
रहा होगा। सीताहरण होने पर राम का वियोग जो सामने आता है वह भी चारपाई पर करवटें बदलनेवाला
नहीं है, समुद्र पार कराकर पृथ्वी का भार उतारनेवाला है।
उस
ऐकांतिक प्रेम की अपेक्षा जो प्रेमी को एक घेरे में उसी प्रकार बंद कर देता है जिस
प्रकार कोई मर्ज मरीज को एक कोठरी में डाल देता है, हम उस प्रेम का अधिक मन करते हैं जो संजीवन
रस के रूप में प्रेमी के सारे जीवन पथ को रमणीय और सुंदर कर देता है, उसके सारे कर्मक्षेत्र को अपनी ज्योति से जगमगा देता है। जो प्रेम जीवन की
नीरसता हटाकर उसमें सरलता ला दे, वह प्रेम धन्य है। जिस प्रेम
का रंजनकारी प्रभाव विद्वान् की बुद्धि, कवि की प्रतिभा,
चित्रकार की कला, उद्योगी की तत्परता, वीर के उत्साह तक बराबर फैली दिखाई दे उसे हम भगवान का अनुग्रह समझते हैं।
भगवद्भक्ति के लिए हम तो प्रेम की यही पद्धाति समीचीन मनते हैं। जबकि प्रिय के संबंध
से न जाने कितनी वस्तुएँ प्रिय हो जाती हैं। तब उस परम प्रिय के संबंध से सारा जगत्
प्रिय हो सकता है। शुद्ध भक्तिमार्ग में जगत् से विरक्ति का स्थान हम ढँढ़ते हैं और
नहीं पाते हैं। भक्ति राग की वह दिव्य भूमि है जिसके भीतर सारा चराचर जगत् आ जाता है।
जो भक्त इस जगत् को ब्रह्म की ही व्यक्त सत्ता या विभूति समझेगा, भगवान् के लोकपालक और लोकरंजक स्वरूप पर मुग्ध रहेगा, वह अपने स्नेह, अपनी दया, अपनी
सहानुभूति को लोक में और फैलाएगा कि चारों ओर से खींच लेगा? हम
तो जगत् के बीच हृदय के सम्यक् प्रसार में ही भक्ति का प्रकृत लक्षण देखते हैं क्योंकि
राम की ओर ले जानेवाला रास्ता इसी संसार से होता हुआ गया है।
जब
कोई रामभक्त पुत्रा कलत्र,
भाई बंधु का राग छोड़ने, कर्मपथ से मुँह मोड़ने और
जगत् से नाता तोड़ने का उपदेश देता है तब मेरी समझ जवाब देने लगती है। मेरे देखने में
तो वही रामभक्त सा लगता है जो अपने पुत्रा कलत्रा, भाई बहिन,
माता पिता से स्नेह का व्यवहार करता है, रास्ते
में चीटियाँ बचाता है, किसी प्राणी का दु:ख देख ऑंसू बहाता हुआ
रुक जाता है, किसी दीन पर निष्ठुर अत्याचार होते देख क्रोध से
तिलमिलाता हुआ अत्याचारी का हाथ थामने के लिए कूद पड़ता है, बालकों
की क्रीड़ा देख विनोद से पूर्ण हो जाता है, लहलहाती हुई हरियाली
देख लहलहा उठता है और खिले हुए फूलों को देख खिल जाता है। जो यह सब देख 'मुझसे क्या प्रयोजन'? कहकर विरक्त या उदासीन रहेगा-क्रोध,
करुणा, स्नेह, आनंद आदि को
पास तक न फटकने देगा-उसे मैं ज्ञानी, ध्याकनी, संयमी चाहे जो कहूँ भक्त कदापि न कह सकूँगा। 'राम का
नाता' सारे संसार से नाता जोड़ता है, तोड़ता
नहीं। लोकमंगल की प्रेरणा द्वारा भक्त अपने 'नेह का नाता'
संसार से निभाता हुआ राम से जोड़ने का प्रयत्न करता है। इस संबंध निर्वाह
में जो बाधक हो भक्त के लिए वे अवश्य त्याज्य हैं, चाहे वे अपने
सुहृद और स्नेही परिजन ही क्यों न हों, क्योंकि-
नाते सबै राम के मनियत सुहृद् सुसेव्य
जहाँ लौं।
ऐकांतिक और लोकबद्धा प्रेम
के इन दो स्वरूपों का परिचय हो चुका। अब हम प्रेमी और प्रिय, इन दो पक्षों की पारस्परिक स्थिति पर कुछ विचार करना चाहते हैं। प्रेम कहीं
तो दोनों पक्षों में युगपद् होता है अर्थात् आरंभ ही से सम है, कहीं पहले एक में उत्पन्न होकर फिर दूसरे में होता है और कहीं एक ही में उत्पन्न
होकर रह जाता है, दूसरे में होता ही नहीं अर्थात् विषम ही रह
जाता है। पहले कहा जा चुका है कि किसी के प्रति प्रेम का प्रादुर्भाव होते ही प्रेमी
उसे अपने प्रेम का परिचय देने के लिए आतुर होता है। यह आतुरता तुल्यानुराग की प्रतिष्ठा
के लिए होती है। जिसके बिना प्रेम सफल नहीं जान पड़ता। तुल्यानुराग के प्रयत्न की भी
एक बँधीहुई पद्धाति दिखाई पड़ती है।दूसरों की ओर द्रवित करनेवाली हृदय की दो कोमल वृत्तियाँ
हैं-करुणा और प्रेम। इसमें से प्रेम का पात्र होने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार की विशिष्टता
अपेक्षित होती है। इससे दूसरे के हृदय में प्रेम उत्पन्न कर सकने का निश्चय किसी को
जल्दी नहीं हो सकता पर दया का पात्र होने के लिए केवल दु:ख या पीड़ा का प्रदर्शन ही
पर्याप्त होता है। दया का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। दया मनुष्य मात्र का धर्म है
और प्राणी मात्र उसके अधिकारी हैं। दया यह नहीं देखने जाती कि दु:खी या पीड़ित कौन और
कैसा है? इसी से प्रेमी कभी तो यह चेष्टा करता दिखाई पड़ता है
कि वह भी प्रिय को अच्छा लगे और कभी ऐसे उपायों का अवलंबन करता है जिससे प्रिय के हृदय
में उसके ऊपर दया उत्पन्न हो। दया उत्पन्न करके वह प्रिय के अंतस में प्रेम की भूमिका
बाँधाना चाहता है। वह समझता है कि दया उत्पन्न होगी तो धीरे धीरे प्रेम भी उत्पन्न
हो जाएगा। वह वियोग की अपनी दारुण वेदना प्रिय के कानों तब बराबर पहुँचाता रहता है।यह
न समझना चाहिए कि प्रिय के हृदय में दया उत्पन्न करने की यह चाह तुल्यानुराग की प्रतिष्ठा
के पूर्व तक ही रहती है। वह प्रेममार्ग की एक सामान्य प्रवृत्ति है जो प्रेमी के हृदय
में सदा बनी रहती है। बात यह है कि जिस प्रकार दूसरे के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने
की जरूरत होती है उसी प्रकार बराबर बनाए रखने की भी। प्रेम की रखवाली करने के लिए प्रेमी
प्रिय के हृदय में दया को बराबर जगाता रहता है। दया या करुणा का भाव जागृत रखने की
इस प्रवृत्ति का प्रकर्ष फारसी या उर्दू की शायरी में विशेष रूप से पाया जाता है। वहाँ
प्रेमी जीते जी यार के कूचे में अपनी कब्र बनवाते हैं, उस कूचे
के कुत्तों के नाम अपनी हड्डियाँ वक्फ करते हैं और बार बार मरकर अपना हाल सुनाया करते
हैं। मरण से बढ़कर करुणा का विषय और क्या हो सकता है? शत्रु तक
का मरना सुनकर सहानुभूति के एक आधा शब्द मुँह से निकल आते हैं। प्रिय के मुख से निकले
हुए सहानुभूतिक शब्द सा प्रिय संसार में कोई शब्द नहीं हो सकता। 'बेचारा बहुत अच्छा था' प्रिय के मुँह से इस प्रकार के
कुछ शब्दों की संभावना पर ही आशिक लोग अपने मर जाने की कल्पना बड़े आनंद से किया करते
हैं। जब कि सहानुभूति के एक शब्द का इतना मोल है तब अश्रु का तो कोई मोल ही नहीं हो
सकता, प्राण के बदले में भी वह सस्ता ही जँचेगा। यदि प्रेमी को
यह निश्चय हो जाय कि मर जाने पर प्रिय की ऑंखों में आई हुई ऑंसू की बूँद वह देख सकेगा
तो वह अपना शरीर छोड़ने के लिए तैयार हो सकता है।यह कहा जा चुका है कि तुल्यानुराग की
प्रतिष्ठा हो जाने पर ही प्रेम को पूर्ण तुष्टि और सफलता प्राप्त होती है। हमारे साहित्य
के पुराने आचार्यों ने एक पक्ष की प्रीति को रसाभास के अंतर्गत लिया है। जब तक तुल्यानुराग
की संभावना रहती है या प्रिय पक्ष की विरक्ति और उदासीनता का प्रमाण सामने नहीं रहता
तब तक रस में त्रुटि नहीं मानी जाती। प्रेमी का तिरस्कार करता हुआ प्रिय जब अन्य में
अनुरक्त पाया जाता है तब उसकी विरक्ति का पक्का प्रमाण सामने आ जाता है। ऐसी दशा में
भी बने रहनेवाले प्रेम की चर्चा काव्यों में मिलती है। फारसी और उर्दू की शायरी में
आशिकों की अक्सर यह शिकायत रहती है कि ''माशूक गैरों से मिला
करता है और हमारी ओर ताकता तक नहीं।'' कृष्ण के मथुरा चले जाने
पर गोपियों की शिकायत भी कुछ इस ढंग की हो गई थी।रस और रसाभास की बात छोड़ हमें प्रेम
के उस स्वरूप पर विचार करना है जिसमें प्रेमी तो प्रेम में विह्वल रहता है और प्रिय
उसकी ओर ध्यायन ही नहीं देता या बराबर उसका तिरस्कार करता जाता है। क्या ऐसा प्रेम
कोई प्रेम ही नहीं है? यह नहीं कहा जा सकता। प्रेमी तो प्रेम
कर चुका, उसका कोई प्रभाव प्रिय पर पड़े या न पड़े। उसके प्रेम
में कोई कसर नहीं। प्रिय यदि उससे प्रेम करके उसकी आत्मा को तुष्ट नहीं करता तो इसमें
उसका क्या दोष? तुष्टि का विधन न होने से प्रेम के स्वरूप की
पूर्णता में कोई त्रुटि नहीं आ सकती। जहाँ तक ऐसे प्रेम के साथ तुष्टि की कामना या
अतृप्ति का लोभ लगा दिखाई पड़ता है वहाँ तक तो उसका उत्कर्ष प्रकट नहीं होता;
पर जहाँ आत्मतुष्टि की वासना विरत हो जाती है या पहले ही से नहीं रहती,
वहाँ प्रेम का अत्यंत निखरा हुआ निर्मल और विशुद्ध रूप दिखाई पड़ता है।
ऐसे प्रेम की अविचल प्रतिष्ठा उच्च भूमि पर होती है जहाँ सामान्य हृदयों की पहुँच नहीं
हो सकती। इस उच्च भूमि पर पहुँचा हुआ प्रेमी प्रिय से कुछ भी नहीं चाहता है,
केवल यही चाहता है-प्रिय से नहीं, ईश्वर से-कि
हमारा प्रिय बना रहे और हमें ऐसा ही प्रिय रहे इसी उच्च दशा का अनुभव करती हुई सूर
की गोपियाँ कहती हैं-जहँ जहँ रहौ राज करौ तहँ तहँ लेहु कोटि सिर भार।यह असीस हम देति
सूर सुनु 'न्हात खसै जनि बार'ड्डऐसे प्रेमी
के लिए प्रिय की तुष्टि या सुख से अलग अपनी कोई तुष्टि या सुख रह ही नहीं जाता। प्रिय
का सुख संतोष ही उसका सुख संतोष हो जाता है। बंकिम बाबू की 'दुर्गेशनंदिनी'
में आयशा का जगत् सिंह पर अनुराग इसी उच्च भूमि पर लाकर छोड़ा गया है।
जिस दिन से उसे जगत् सिंह और तिलोत्तामा के प्रेम का पता चलता है उसी दिन से वह अपने
प्रेम को भौतिक कामनाओं से मुक्त करने लगती है और अंत में तिलोत्तामा के साथ जगत सिंह
का विवाह कराकर पूर्ण शांति के साथ प्रेम के विरुद्धा मनस लोक में प्रवेश करती है।प्रेमी
यदि अपने प्रेम का कोई प्रभाव प्रिय पर न देखे तो उसके सामने प्रेम की यही उच्च भूमि
दिखाई पड़ती है। सान्निधय या संपर्क की कामना के त्याग द्वारा वह प्रेम रक्षा और शांति
लाभ कर सकता है। यदि उसमें यह क्षमता न होगी तो प्रतिवर्तन (Reaction) द्वारा घोर मनसिक विप्लव और पतन की आशंका रहेगी, ईर्ष्याे
आदि बुरे भावों के संचार के लिए रास्ता खुल जाएगा। यहाँ तक कि समय समय पर क्रोध का
दौरा और प्रेम का स्थान वैर ले लेगा।प्रेम काव्यों में प्राय: रूप लोभ ही प्रेम का
प्रवर्तक दिखाया जाता है। किसी के उत्कृष्ट रूप गुण पर कोई मुग्ध होता है और उसका प्रेमी
बन जाता है। पर प्रेम का एक और कारण, जो रूप गुण से सर्वथा स्वतंत्र
और उनकी अपेक्षा अधिक निश्चित प्रभाववाला होता है, साहचर्य है।
देशप्रेम के अंतर्गत इसका उल्लेख हो चुका है। किसी अरब को उसकी रेगिस्तानी जन्मभूमि
से ले जाकर कश्मीर के हरे भरे मैदान में रख दें तो भी वह अपने देश के वियोग में रोया
करेगा। इसी प्रकार जिन मनुष्यों के बीच कोई बचपन से या बहुत दिनों से रहता चला जाता
है, उनके प्रति हृदय में एक स्थायी प्रेम होता है। इस साहचर्यगत
प्रेम में विशेषता यह होती है कि इसका वेग साहचर्य काल के कुछ अवसरों पर ही रह रहकर
व्यक्त होता है, पर विच्छेद काल में बराबर उमड़ा रहता है। भाई
बहिन, पिता पुत्रा, इष्ट मित्र से लेकर
चिर परिचित पशु पक्षी और वृक्ष तक का प्रेम इसी ढंग का होता है। रूप गुण की भावना से
उत्पन्न प्रेम भी आगे चलकर कुछ दिनों में यह साहचर्यजन्य स्वरूप प्राप्त करता है। अत:
प्रेम के स्वरूप का महत्तव बराबर ध्यायन में रहना चाहिए।लोभ या प्रेम की सबसे बड़े विलक्षणता
का उल्लेख करके अब हम यह निबंध समाप्त करते हैं। यही एक ऐसा भाव है जिसकी व्यंजना हँसकर
भी की जाती है और रोकर भी; जिसके व्यंजक दीर्घ नि:श्वास और अश्रु
भी होते हैं तथा हर्षपुलक और उछलकूद भी। इसके विस्तृत शासन के भीतर आनंदात्मक और दु:खात्मक
दोनों प्रकार के मनोविकार आ जाते हैं। साहित्य के आचार्यों ने इससे ऋंगार के दो पक्ष
कर दिए हैं-संयोग पक्ष और वियोग पक्ष। कोई और भाव ऐसा नहीं है जो आलंबन के रहने पर
तो एक प्रकार की मनोवृत्तियाँ और चेष्टाएँ उत्पन्न करे और न रहने पर बिलकुल दूसरे प्रकार
की। कुछ और भाव भी लोभ या प्रेम का सा स्थायित्व प्राप्त करते हैं, जैसे-क्रोध बहुत दिनों तक टिका रह जाने पर द्वेष या वैर का रूप धारण करता है
और जुगुप्सा, घृणा या विरक्ति का-पर यह विशेषता और किसी में नहीं
पाई जाती। मनुष्य की अंतर्वृत्तियों पर लोभ या प्रेम के शासन का यही दीर्घ विस्तार
देखकर लोगों ने ऋंगार को 'रसराज' कहा है।(नागरीप्रचारिणी
पत्रिका, फरवरी मार्च, 1919 ई.,
'लोभ और प्रेम' शीर्षक से)[चिन्तामणि, भाग-1 में लोभ और प्रीति शीर्षक से]
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