16- मृषा न होइ देव-रिसि बानी


नगवा घाट पर बैठे सुक्खू ने स्वच्छ जल से धोकर सिल-लोढ़ा खड़ा कर और उस पर नारियल की खोपड़ी से दूधिया भाँग गिराता हुआ वह चिल्लाया- लेना हो बाबा भोलेनाथ!" पानी में छटक पड़ी साबुन की बट्टी खोजने के लिए उसके साथी झींगुर ने उस समय गोता लगा रखा था। वह भी पानी के भीतर से विजयामन्त्र पढ़ता हुआ बाहर निकला और मन्त्र के शेष भाग की पूर्ति करता हुआ-सा चिल्लाया-“जो विजया की निन्दा करे उसे खाय कालिका माई!" और फिर सुवखू की ओर घूमकर उसने पूछा, “का भाई सुक्खू, माल तैयार हो गयल?"
मसाला तऽ कब्बै से तैयार हौ। देखीं, तोहैं साफा पानी से कब छुट्टी मिलऽला?"
"हम्में त तनिक देर लगी, भाई!"
"अच्छा, तऽ तोहार हिस्सा रखके हम आपन पी जात हई।"
झींगुर ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी और सुक्खू ने नारियल में भाँग भरकर पीने की तैयारी की। वह नारियल में मुँह लगाने ही जा रहा था कि पीछे से आवाज़ आई, “क्या बच्चा, अकेले-ही-अकेले?"
सुक्खू ने घूमकर देखा कि एक बाबाजी की भव्यमूर्ति पीछे खड़ी बत्तीसी चमकाते हुए उसकी ओर याचना की मुद्रा से देख रही थी। बाबा के शरीर पर चौंगानुमा अलफी झूल रही थी। उनके एक हाथ में लकड़ी का कमंडल और दूसरे में सिन्दूर-चर्चित लोहे का त्रिशूल था। सिर पर लम्बे मटीले केश और नाभि तक झूलती दाढ़ी भी।
उनकी इस अद्भुत मूर्ति का प्रभाव सुक्खू पर पड़ा और उसने कहा, “सब आप लोगन कऽत माया हौ, गुरुजी! आपकऽ अस्थान कहाँ हौ, महाराज?".
साधू तो रमते राम हैं, बेटा! उनका बँधके स्थान कहाँ! बाबा कबीरदास ने कहा है-
साधू बहता नीर भल, जो नहिं सिन्धु समाय।
अचल होय पायर बने या गड़ही है जाय।"
साधू का कथन अभी समाप्त नहीं हो पाया था कि झींगर ने पत्थर पर धोती पछारते हुए कहा, “का भाई, ई काबुली कौआ कहाँ से आयल?"
साधू ने 'काटखाऊँ' मुद्रा से झींगुर की ओर देखा, पर चुप रहा। उत्तर दिया सुक्खू ने-"तू कइसन बतियावत होअऽ, भाई झींगर! महात्मा हौवन देखलन चल अइलन।"
साधू ने भी झींगुर की पूरी उपेक्षा कर सुक्खू से कहा, “बच्चा! देरी क्यों करता है? दे न!"
"लऽ बाबाजी! कमंडल में लेबऽ का?"
“हाँ, हाँ, दे-दे इसी में।"
बाबाजी ने कमंडल आगे बढ़ाया। सुक्खू ने थोड़ी-सी भाँग उसमें डाल दी। बाबाजी ने एक साँस में उसे सोखकर अलफी की जेब से पीतलमढ़ी लम्बी-सी एक चिलम और गाँजे की पोटली निकाली और उसमें से थोड़ा गाँजा निकाल हथेली पर मलने लगे। उधर झींगुर धोती सूखने के लिए फैलाकर वहाँ आया।
उसने देखा कि भाँग बहुत थोड़ी बची है। उसने क्रोध से मुँह विकृत करते हुए कहा, "का सुक्खू, तोहऊँ मायाजाल में फँस गइलऽ!"
सुक्खू ने उत्तर दिया, “अरे भाई साधुन-महातमन के देके तबै परसाद लेवै के चाही।"
“अच्छा ढेर ग्यान जिन छाँटऽ । अइसन तोता-रटन्त साधू हम बहुत देखले हई, साधू कऽ सकल अइसनै होला?"
बाबाजी गाँजा मलकर सुलफा सुलगा चुके थे। जल्दी-जल्दी दो-चार दम लगाकर उन्होंने लाल-लाल आँखों से झींगुर को घूरा । झींगुर ने उनकी आँखों से आँखें मिलाते हुए कहा, “बनर-घुड़की जिन देखावऽ बाबाजी, नाहीं त अच्छा न होई।"
"तेरा नास हो जाएगा," बाबाजी शाप देने की मुद्रा में गुर्राए।
“जबान सँभाल के बोलऽ," झींगुर ने गरम होकर कहा।
“साधू का अपमान करता है? तेरा ना-ना-ना-ना-नास हो जाएगा," बाबाजी ने हकलाते हुए कहा।
फिर अपनै बँकले जालऽ! बड़का बाबा कनके आल हौ। जानत नहीं काशी के कंकर सिवसंकर समान हैं। अइसे सराप से हम नाहीं डेराइत।"
"तू क्या चीज़ है बे छोकडे! सराप से तो बड़े-बड़े काँप जाते हैं। सुना नहीं है कि गीताजी में क्या लिखा है- 'मषा न होड देव-रिसि बानी'।"
“बहुत देखले हई हो।"
"कुछ नहीं देखा है। देखना है तो देख सामने रामनगर की ओर। देख, कैसा होता है साधू का सराप!"
साधू की अँगुली के साथ ही झींगुर की दृष्टि गंगा-पार सामने की ओर घूम गई। समूचा किला दीपावली मनाता हुआ आलोक, स्नान कर रहा था। कार्तिक कृष्ण अष्टमी की सन्ध्या थी। पश्चिम में अग्निगोल तिरोहित हो चुका था, परन्तु पूर्व में अभी स्वर्णगोलक की रेखा भी प्रकट न हो पाई थी। गोधूलि समाप्त होते-होते अन्धकार छा गया। उस काली पृष्ठभूमि में प्रकाशोज्ज्वल किला उस चित्र के समान दिखाई पड़ रहा था जिसमें कृष्ण केशों की व्यापक सधनता में चित्रकार ने किसी सुन्दरी के चन्द्रमुख का आलेखन किया हो। झींगुर की बहस की प्रवृत्ति शान्त हो चुकी थी। वह मन्त्रमुग्ध किले की ओर देखता रहा। बाबाजी के होंठों पर भी मुसकान की क्षीण रेखा खिंच गई जिससे उनका रूप कुछ और आदर्शनीय हो उठा।
। परन्तु बाबाजी की इस मुसकान पर सुक्खू की श्रद्धा और भी बढ़ गई।
उसने परम विनीत स्वर से पूछा, “साधू के सराप और किला से का मतलब, महाराज?"
“मतलब बहत है, बच्चा? तेरे में सरधा है, मैं तुझे सारा मतलब बताए देता हूँ। राजा चेतसिंह का नाम सुना है, बच्चा?"
"हाँ बाबाजी, महाराज बरवंडसिंह का लड़िका नऽ? खूब जानीला, ईका अगर्दै ओनकर किला हो।"
"तू तो बहुत ज्ञानी है, बेटा! हाँ, तो चेतसिंह की बात है। वह जब काशी-नरेश रहे तो काशी में उस बखत एक बहुत बड़े सिद्ध का निवास रहा, बेटा!"
“के गुरुजी!" सुक्खू ने हाथ जोड़कर पूछा।
"बाबा कीनाराम।"
"बाबा कीनाराम?" सुक्खू ने विस्मय-मिश्रित हर्ष से कहा, "बाबा कीनाराम के हम खूब जानीला, गुरुजी! ओनकर बनावल भजन हमार माई आज तक गावला। हाँ तऽ महाराज का भयल?"
"तो बेटा, उसी किले के नीचे राज चेतसिंह एक दिन टहल रहे थे। उधर से रमते जोगी बाबा कीनाराम आ निकले। राजा ने उनको देख तेरे इसी साथी की तरह अभिमान में भरकर उन्हें नमस्कार तक न किया। बाबाजी भी रुक गए।
सन्तों को अभिमान कहाँ, बेटा! जैसे मैंने अपने से आकर तुझसे याचना की वैसे ही उन्होंने राजा से कहा, 'राजा! भूख लगी है। राजा ने घृणा-भरी मुसकान से उनकी ओर देखा और कहा, 'ठहरो, खाना मँगाता हूँ।' राजा ने अपने एक कर्मचारी की ओर इशारा किया। वह कर्मचारी का कायस्थ, बहत चतर। समझा न बेटा?"
बेटा सुक्खू बाबा की बात बड़े भक्तिभाव से सुन रहा था। उसने मूल-मूल समझा था। शास्त्र की उलझन उसकी समझ में न आई थी। पर उसने सिर झुकाकर कहा, "हाँ महाराज, समुझ गइली।"
"कुछ नहीं समझा बेटा, समझने की बात तो अब आगे आएगी, समझ।
कर्मचारी ने हाथ जोड़कर राजा से कहा, 'सरकार, बाबा से वैर न करो।' पर सरकार ने उसकी बात नहीं मानी। कहा, 'हम भी छत्री, बाबा भी छत्री। लेकिन हम राजा, वह भिखारी। उसने हमें सलाम क्यों नहीं किया?'
"राम राम, राजा कऽई बुद्धी!" सुक्खू ने विनीत निवेदन किया।
"हाँ बेटा! यही बात है। सूरदास ने भी कहा है-'समय चूकि पुनि का पछिताने।' सो कर्मचारी ने फिर कहा, 'अच्छा, तो फिर हमें बाबाजी के लिए भोजन लाने का हुक्म हो। राजा ने कहा-'हाँ जाओ, ले आओ। देखो, किले के उधर दोपहर कहीं से एक लाश आकर किनारे लग गई है। बहुत दुर्गन्ध है उसमें। उसे डोमड़ों से उठवा मँगाओ।"
अरे!" विस्मय से सुक्खू का मुँह खुल गया और मिनट-भर खुला ही रहा। बाबाजी पूर्ववत मुसकराए और कहने लगे, "तो उस कर्मचारी ने कहा, 'सरकार सली दे दें, पर ऐसा काम मुझसे न होगा।' बाबा कीनाराम खड़े सब सुन रहे थे। उन्होंने कहा, 'सदानन्द, यह जैसा कहता है, करो। अपने वंश में सदा आनन्द नाम रखना, आनन्द रहेगा।' सदानन्द ने भी तुरन्त वह मुरदा उठवा मंगाया। राजा ने बाबाजी से कहा, 'भोग लगाइए।' सारे पार्षद और कर्मचारी मुँह फेरकर खड़े हो गए। राजा ने डाँटा। तब सब सामने देखने लगे। बाबा ने अपना दुपट्टा उतारकर मुरदे पर डाल दिया। पाँच मिनट बाद सदानन्द से कहा, 'दुपट्टा उठाओ।' सदानन्द काँपते पैरों से आगे बढ़े। उन्होंने काँपते हाथों सखि मूंदकर कपड़ा उठा लिया। जयकारा सुनकर जब उन्होंने आँखें खोली तो क्या देखा, बोल!" बाबाजी ने डपटकर सुक्खू से पूछा।
सुक्खू सकपका गया। उसने सोचा कि क्या कहें! फिर ख्याल आया कि मा की करनी पर बाबा को क्रोध आया ही होगा। सो उसने धीरे से कहा, "मुरदवा अजगर बन गइल होई!”
“थोड़ा-सा चूक गया, बेटा!" बाबाजी ने स्नेहसिक्त अट्टहास करते हुए कहा. “अजगर नहीं बना, बेटा! पकवान बन गया पकवाना लट पेटा वाली जलेबी, इमरती, मोहनभोग।" कहते-कहते बाबाजी हॉफ गए। परन्तु बात जारी रखी। उन्होंने कहा, “बाबा का चमत्कार देख राजा की आँखें खुल गईं। वह घबराकर पैर पर गिर पड़ा।" परन्तु बाबा ने कहा, 'नहीं, अब तुम राजा नहीं रह सकते। और जानते हो, तुम्हें गद्दी से कौन उतारेगा? यही सदानन्द । राजा थरथरा गया, बेटा! बड़ी विनती की। तब बाबा पसीज गए। उन्होंने कहा, 'तुम्हें तो गद्दी से उतना ही पड़ेगा। हाँ, तेरी विनती पर मैं प्रसन्न होकर कहता हूँ
कि तेरे बाद तेरा यह राज खंडित रूप में तेरे प्रतापी पिता के वंशधरों को मिलेगा। छह पीढ़ी तक राज्य करने के बाद तब तेरे राज्य का विलय होगा।"
श्रद्धाविभोर सुक्खू अभी विलय का अर्थ भी नहीं समझ पाया था और न यह पूछ पाया था कि इससे किले की सजावट का क्या सम्बन्ध, कि झींगुर ने हँसकर कहा, “नसा जोर कइले हो का, बाबाजी?" और बाबाजी ने उसकी ओर फिर घूरकर देखा। झींगुर हँसता ही रहा।
जिस समय बाबाजी ने झींगुर का ध्यान किले की सजावट की ओर आकृष्ट किया तो कुछ देर तक झींगुर किले की ओर देखता और विचार करता रहा कि आज किले में यह सजावट कैसी है? बाबाजी के अट्टहास से उसका ध्यान भंग हआ और उसके बाद उसने बाबाजी के मुंह से जो कुछ सुना वह उसके मन में जमा नहीं। उसने कौतुक अनुभव किया और हँसने लगा। "लेकिन महाराज," सुक्खू ने पूछा, “विल माने का?"
इतने में कहीं से सीटी की ध्वनि आई। बाबाजी चौंक गए। उन्होंने उठते-उठते कहा, “इसका माने यही कि आज चेतसिंह का राज्य समाप्त हो रहा है। दिल्ली की सरकार यह राज्य लखनऊ की सरकार को दे रही है। समझा बेटा?" और बाबाजी क़दम बढ़ाकर चले। मोड़ घूमते ही उन्हें पुलिस के कुछ कर्मचारी और एक बड़े अफ़सर दिखाई पड़े। बाबाजी ने इधर-उधर देखकर फौजी ढंग से अफ़सर को सलाम किया। अफ़सर ने कहा, "कहो बाबाजी, तुम अपनी ड्यूटी तो बड़ी चौकसी से बजाते हो?"
“वह तो मैंने कह ही दिया है, हुजूर! मृषा न होइ देव-रिसि बानी। हुजूर से क्या छिपा है?" बाबाजी ने कहा।
“इसीलिए तो कहता हूँ," अफ़सर ने कहा, “मझसे सचमच कुछ नहीं छिपा है। तो वहाँ गाँजा-भाँग पीकर जो कुछ बक रहे थे वह सरासर बेहदी बात थी। कायदे के खिलाफ़ काम की सज़ा जानते हो?"
"जब हुजूर कहते हैं तो ठीक ही होगा। मृषा न होइ देव-रिसि बानी, सीताराम, सीताराम!" बाबाजी ने ज़ोर से कहा और उसी समय दो-तीन आदमी मोड़ घूमकर आते दिखाई पड़े। अफ़सर भी खुर्राट जमादार की चतुराई पर मुसकराता हुआ आगे बढ़ गया।
उधर झींगुर ने बाबा की बात सुनते ही सुक्खू से सहसा पूछा, “का हो, आज 15 तारीख त नाहीं न हो?"
"का जानी भाई! पनरह तारीक के का हौ?"
“तू सुक्खू नाही बुद्धू हौआ, “झींगुर ने मुसकराकर कहा। सुक्खू भी बिना कुछ समझे ही हँसने लगा।
किले की ओर बड़ी तीव्र उल्लास-ध्वनि हुई। झींगुर भी उसी ओर ताकने लगा। वह एक कमरे की ओर, जिसे महाराज के कमरे के नाम से जानता था, एकटक निहारता खड़ा रहा। सहसा उसने देखा कि कमरे की खिड़की में कोई आकर खड़ा हो गया है। झींगुर ने निगाह जमाकर देखा और तब अपने साथी से बोला-
"अरे, सामने महाराज हौअन, हरहर महादेव कहेके चाही।" लेकिन झींगुर ने कुछ सोचकर कहा, “जब राजै नहीं रह गयल तब...?"
"तब तोहार कपार!" झींगुर ने सुक्खू से कहा, "राज नहीं रह गयल तब ऊ राजौ नाहीं रह गइलन का? मन्दिर टूट गयल तऽ का भगवानौ गायब हो गइलने? तूं चुप रहऽ!” और स्वयं वह खिड़की की ओर मुंह उठाकर ज़ोर से चिल्लाया-“हर-हर महादेव!"

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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