1.
गुलाबबाड़ी की गुलाबी
महफ़िल में गुलाबी परिच्छेद और गुलाब के ही गहने पहनकर गुलशन, गुलबदन और गुलबहार ने अपने कोकिल-कंठ से बसन्तराग में गलेबाज़ी का वह गुल
खिलाया कि श्रोताओं की मंडली बुलबुल बन बैठी।
ऊपर
गुलाबी चँदवे से लटकते गुलाबी शीशे के झाड़-फानूस से गुलाबी प्रकाश झलक रहा था और
नीचे फ़र्श गुलाब की पंखरियों से ढंक-सा गया था। उस पर बैठे श्रोताओं की आँखें नैश
जागरण और नशा-सेवन से लाल हो रही थी। उस पर गुलाबी वातावरण में 'सारी रंग डारी लाल-लाल' की टीप ने उनका रंग और भी
गाढ़ा कर दिया। प्रभाती बयार में सूरखमुखी के गुच्छों की तरह उनके सिर हिलने लगे
और मस्ती का समाँ ऐसा बँधा कि हिमालय के मुकुट की शोभा बढ़ानेवाले भारी-भरकम
देवदारु के वृक्षों की भाँति वे बार-बार झूमने लगे। वे भौंरों की तरह गुनगुनाते रह
गए–'सारी रंग डारी लाल-लाल।' जाड़े के
उतरते दिन थे, फिर भी सेठ देवीचरण ने साधारणतया चैत्र मास में
होनेवाली गुलाबबाड़ी की महफ़िल बेमौसम ही जमा रखी थी। काले बाज़ार की बरकत से मुँह
की लाली बची रह जाने का यह स्वाभाविक परिणाम था।
उनका
दीवाला पिटने ही वाला था कि समय ने पलटा खाया और उनकी साख की जड़ ने सीधे शेषनाग
के मस्तक पर जाकर आसन जमा लिया। इसी खुशा में चैती गुलाब फूलने की प्रतीक्षा न कर
उन्होंने गुलाब के साधारण फूलों से ही गुलाबबाड़ी का आयोजन कर डाला, और इसके लिए उन्हें बहाना मिल गया अपने इकलौते बेटे लल्लन की वर्षगाँठ का।
व्यापार के जंगली शिकारान ही ढेले से दो शिकार कर लिए।
2.
जिस जवान बेटे की
वर्षगाँठ के व्याज से बूढ़ा बाप महफिल सजाने का लड़कपन कर नगर के बाहर महआहीड के
बगीचे के बारहदरी में विलास का रास रचा रहा था वही बेटा उसी बगीचे के एक कोने में
उपेक्षित खड़ी झोपड़ी की एक कुत्सित अन्धकारमयी कोठरी में अपने साईस सुलोचन के शिशु-पुत्र
की परिचर्या के व्याज से बैठ अपने साथियों अर्थात् अपनी पार्टी के लाल सदस्यों के
साथ उसी शाम हुई एक घटना की प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में गूढ़ विचार कर रहा था।
घटना
बहुत साधारण थी, परन्तु अपने अनोखेपन के कारण वह परम
असाधारण बन बैठी थी। बात यह थी कि एक ऊँचे सरकारी अधिकारी की कम्युनिस्ट पुत्री को
उसके कॉलेज के होस्टल में गिरफ्तार करने जाकर कोतवाल को बड़ी झक उठानी पड़ी थी। और
जब कोतवाल ने उसे गिरफ्तार करने में किसी प्रकार सफलता पाई तो उक्त तरुणी ने उनके
श्रम के पुरस्कारस्वरूप उन पर अपनी चप्पल फेंक दी। चप्पल कोतवाल को लगी या नहीं,
यह किसी ने न देखा, लेकिन शहर में शोर मच गया
कि एक तरुणी ने कोतवाल को चप्पलों से मारा। यह समाचार प्रकाश में आते ही शहर-भर के
कम्युनिस्ट सहसा अन्धकार में चले गए।
वे
अँधेरे में छिपकर और छिटपुट गुट बनाकर मन्त्रणा करने लगे। लल्लन का कॉमरेड दल
विचार कर रहा था कि कुल रात-भर की बात है, सवेरे घटना की
प्रतिक्रिया स्पष्ट हो उठेगी, तब भावी कार्यक्रम बना लेना
सरल होगा। लल्लन देख रहा था कि कम्युनिस्ट क्रीड़े में दीक्षित उसके वे छात्र साथी
इस साधारण-सी घटना से ही भयभीत हो उठे हैं। वह उन्हें उत्साहित करने के लिए बोला,
“साथियो, घबराना नहीं, मैं
साल-दो-साल तक ज़रूरत पड़ने पर तुम्हें छिपाए रख सकता हूँ।
उसकी
बात काटकर एक लाल तरुण ने कहा, “साथी, तुम समझते हो कि हम डर रहे हैं? हरगिज़ नहीं,
भय तो अज्ञान का परिणाम होता है।" दूसरा बोला, “फ्रायड ने इसे सेक्स काम्प्लेक्स (यौन दुर्बलता) बताया है। हम लोग कमजोरी
के शिकार कभी नहीं हो सकते।"
तीसरे
लाल जवान ने कहा, “समाज में आज भी यह भीषण
विषमता व्याप्त है, उसके मूल में भी यही भय की वृत्ति काम कर
रही है।"
लल्लन ने समझ लिया कि
उसके साथी आश्वस्त हैं और इसलिए वे अब बहस में रस ले रहे हैं। उसने बगलवाली कोठरी
की ओर देखा और धीरे से उठकर वह उसमें घुसा।
यह काठरी ऐसी थी
जिसमें एक छोटे दरवाज़े को छोड़कर वायु के प्रवेश के लिए दूसरा रन्ध्र तक न था।
दिन में भी उसमें प्रकाश ले जाने की आवश्यकता पड़ती थी। लल्लन ने सिर झुकाकर कोठरी
में प्रवेश किया। उसने घुसते ही देखा कि उसके पिता के मोटरचालक झींगुर की पत्नी
सुधा सास के बच्चे को गोद में लिए कोने में जलते मन्द दीपक के प्रकाश में उसका
मुंह बड़े ध्यान से देख रही है। उस धुमिल प्रकाश में सुधा के सुरुचि से सँवारे
केशपाश के बीच ललाट से लेकर आधे सिर तक लिपटी सिन्दूर की मोटी रेखा चमक रही है।
उसके कानों की लौ से लटकते लाल काँच-जड़े टप दीपक के लौ की तरह
रह-रहकर हिल उठते
हैं। उसके शुभ्र परिधान ने कोठरी के कुत्सित वातावरण को भी जैसे ढंक रखा है।
लल्लन
पैर दबाए खड़ा मिनट-भर सुधा को देखता रह गया। सुधा अब युवती नहीं रह गई थी, अर्थात् सैंतीस वर्षों तक निरन्तर दुनिया देख लेने के बाद नारी में युवती
का अल्हड़पन नहीं रह जाता, समझदारी आ जाती है और समझदारी की
प्रशंसा उसके प्रौढ़त्व पर निर्भर है। सुधा समझदार थी और वह स्नान से भीगी पतली
साडी की तरह धीरे-धीरे कठिनाई से अपना यौवन-चीर उतारती जा रही थी, फिर भी वह किसी-किसी अंग में लिपटा ही रहता था। वह सुन्दरी तो थी ही,
शिक्षिता भी थी। आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने झींगुर जैसे परम
असांस्कृतिक नामवाले एक अपढ़ और श्रमिक श्रेणी के व्यक्ति को पति रूप से कैसे वरण
कर लिया! सील भरी उस गन्दी कोठरी में शुचिता की मूर्ति उस नारी को देखकर लल्लन के
मुँह से लम्बी साँस निकल पड़ी।
उस
शून्य और शान्त कोठरी में निःश्वास की ध्वनि धनष-टंकार हो गई। सुधा ने चौंककर सिर
उठाया। लल्लन को सामने खड़ा देख उसने कहा, “दवा तो कुछ
भी असर नहीं कर रही है।"
लल्लन
उसकी बात अनसुनी करता हुआ उसे एकटक देखता रहा। सुधा ने स्मितिपूर्वक पूछा, “क्या सोचते हो, लल्लन बाबू?"
“यही सोचता हूँ सुधा देवी, कि राजा से विवाह होने के
बावजूद एक कंगाल के साथ दीनता और अभाव का यह कराहमय जीवन तुमने क्यों स्वीकार कर लिया?
इतने ऊपर रहकर भी इतने नीचे क्यों उतर पड़ीं?"
"बहुत
ऊपर जाने के लिए कभी-कभी बहुत नीचे आना पड़ता है लल्लन बाबू!"
"फिर भी?"
"लल्लन
बाबू! आपने जो प्रश्न किया है उसका उत्तर कब किसने दिया है? कहना
ही पड़े तो यही कह सकती हूँ कि राजा के समीप मेरा कोई मूल्य न था। उसके यहाँ मैं
काँच की माला थी-कोने में पड़ी, उपेक्षित। परन्तु जब भिखारी
के हाथ लगी तो उसने मणिमाला की भाँति मुझे सिर पर स्थान दिया, अपने गले का हार बना लिया। बताइए, मैंने उन्नति की
या अवनति?"
सुधा
की गोद में पड़े बच्चे ने हिचकी ली, सुधा ने
घबराकर कहा, "गरीब के बच्चे की जान बचाइए, लल्लन बाबू!"
बच्चे की हालत खराब
होती जा रही थी। लल्लन ने भी परिस्थिति की गुरुता महसूस की। उसने सुधा से पूछा,
"क्या झींगुर को डॉक्टर बुलाने नहीं भेजा?"
भेज तो दिया है शाम
ही से। इधर आधी रात बीत रही है। न जाने, क्यों नहीं
लौटे?" सुधा ने जवाब दिया।
लल्लन
ने कुछ सोचते हुए कहा, "वैसे तो झींगुर अपढ़
होते हुए भी समझदार है। गरीब भी है, फिर भी न जाने कैसे उसके
संस्कार बुर्जुआ हो गए हैं, गरीबों से तम्हारी-जैसी सहानभति
और शोषण के प्रति तुम्हारे जैसा आक्रोश उसे कहाँ?"
सुधा
को लल्लन की बात में चापलूसी की गन्ध लगी। उसने लल्लन की ओर मार्मिक दृष्टि से
देखते हुए कहा, “बुर्जुआ संस्कार और प्रोलेटेरियट संस्कार
में मुझे तो कुछ विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता, लल्लन बाबू!
एक में हृदय का योग आवश्यकता से अधिक है तो दूसरे में बुद्धि का। पहला स्वार्थ की अधिकता
से चिपचिपा हो गया है तो दूसरा प्रतिहिंसा से रूखा। यही कारण है कि आप
प्रोलेटेरियट संस्कार रखते हुए भी इस पीड़ित शिशु की उपेक्षा कर बहस में अधिक
दिलचस्पी ले रहे हैं।"लल्लन के मुँह पर जैसे तमाचा पड़ा। उसने तत्काल कहा,
"मैं ही डॉक्टर को बुलाने जाता हूँ।"
3
सेठ देवीचरण की
बारहदरी में सर्दी भले गुलाबी हो गई हो, परन्तु सड़क
पर चलनेवालों लिए वह अब भी बहत कडी थी। उस पर जिस समय लल्लन डॉक्टर बुलाने लए सड़क
पर निकला उसी समय न जाने कहाँ से बादल का एक टुकडा भी आकाश में भटकता हआ आ निकला।
वह जैसे शून्य में अकेले भटकते-भटकते दुःखी होकर रो पड़ा और टपाटप बँदें गिरने
लगीं। अँधेरे में लल्लन ठोकर खाता हुआ बढ़ा जा रहा था। वह कट स्वर में बड़बड़ा
उठा-"पिताजी को मेरी वर्षगाँठ मनाने की जितनी चिन्ता है उतनी जाडे की वर्षा
में मेरे भीगने की नहीं।'
बेमौसम
की इस वर्षा को लल्लन ने विष-दष्टि से देखा । उसे अपने ऊपर यह आकाश का अत्याचार
प्रतीत हआ। उसने सोचा कि आकाश भा बहुत ऊँचा है न. इसके भी संस्कार बर्जआ ही दिखाई
पड़ता है। और सिकता पर वह मन-ही-मन हँस पड़ा। उसे ख्याल आया कि यही रात आज मर पिता
का बारहदरी में मध की वर्षा कर रही है। वहाँ उच्छंखल उल्लास की बाढ़ आ गई है। उस
बाढ पर मदिरा की मादकता का फेन उतराया बहता जा रहा है। सौरभ की तरंगें उठ रही हैं
और प्रगल्भ रस की धारा में उठती हुई भ्रूविलास का भँवर में भोग-लोलुप मन उभ-चुभ कर
रहे हैं।
गली
में उभरे पत्थर के एक टुकड़े से उसे ठोकर लगी। वह गिरते-गिरते बचा। उसे अपने पिता
पर उत्तरोत्तर घणा होती जा रही थी। अपने सारे कष्टों का दायित्व बाप के सिर रखते
हए वह सोच रहा था कि "बेचारे साईस का बच्चा बीमार है। उसकी स्त्री भी पित-गृह
गई हुई है। बालक को कोई देखने-सुननेवाला नहीं और मेरे पिता हैं कि उसे ऐसी रात में
भी छुट्टी नहीं देते। अपने विलास के सहयोगियों को लाने-ले जाने के लिए गाड़ी में
जोत रखा है।
उसे
एक ठोकर और लगी और उसकी विचारधारा को भी। उसे झींगुर पर गुस्सा आया-“ऐसी रात में
कम्बख्त काहे का डॉक्टर खोजने निकला होगा?" और
झींगुर का ख्याल आते ही उसे सुधा का ध्यान आ गया। उस रात की बात याद आई जब झींगुर
सुधा को दरवाज़े पर खड़ी कर उसके पिता के पास न आकर उसी के पास आया था और सारी कथा
सुनाकर उससे आश्रय की भिक्षा माँगी थी। उन दिनों लल्लन 'विमेनहेटर'
के नाम से प्रसिद्ध था, परन्तु सुधा का मुख
देखते ही उसका नारी-द्वेष न जाने कहाँ उड गया था। उसने तत्काल दोनों को आश्रय दे
दिया...। उस घटना के तेईस वर्ष बाद आज वह पुनः सोचने लगा कि 'आख़िर सुधा ने झींगुर में देखा क्या?'
और डॉक्टर का मकान आ
गया।
4
रात के चौथे पहर जब
शीत की अधिकता बढ़ी तो सुधा की गोद में पडे रुग्ण बालक को हिचकी आई और उसने दम
तोड़ दिया। सुधा की आँखों में आँसू की दो बँदें मत शिशु के पीले चेहरे पर चू पड़ी।
उसने आँचल के छोर से तुरन्त अपनी आँखें पोंछ डाली और मृत शिशु को अपनी गोद से उतार
भूमि पर पड़ी कन्था पर डाल दिया। कोठरी में हवा का तीखा झोंका आया और निष्प्रभ दीप
एक बार फड़फड़ाकर बुझ गया। अन्धकार में एक नन्हे-से जीवन के अन्त के सामने सधा
अपने अन्धकारमय जीवन पर विद्यतदृष्टि डालने लगी।
वह
सोचने लगी कि दुनिया समझती है कि मैं झींगर के प्रेम में पड़कर गृह-त्यागिनी हो
गई। उसे यह कौन बताए कि मेरे गृह-त्याग का कारण प्रेम नहीं था, उत्कट घृणा थी! और फिर भ्रमान्वित होने में अनजान दुनिया का क्या दोष?
मैं भी तो, इसी भ्रम में कि मेरे पति मेरी सौत
को प्यार करते हैं,एक कोयलेवाले की ओर आकृष्ट हो परिवार के
मुंह पर कालिख लगाने के लिए तैयार हो गई थी और पति के प्रति घृणा ने मुझे एक
मोटर-चालक की अंकशायिनी बना दिया।
सुधा
अपने जीवन का अतीत चलचित्र की भाँति देखने लगी। उसने देखा कि वह अपने पति रायसाहब
साधूराम के कमरे में सफाई कर रही है। शाम के सात बजे थे। उस समय नगर में बिजली
नहीं लगी थी, बिजलीघर बन रहा था। रायसाहब की शैय्या के
सिरहाने खिड़की के ठीक सामने मोमी शमादान जल रहा था। उसी समय उसकी सौत ने पति के
तरुण मोटर-चालक झींगुर को कोई चीज़ ले आने के लिए उसी कमरे में भेजा। झींगुर वहाँ
आकर मांगी हुई वस्तु खोजने लगा। आज ही की तरह उस दिन भी हवा का करारा झोंका आया।
उस झोंके से कमरे का दरवाज़ा बन्द हो गया, शमादान भी बुझ
गया। उसने जब रोशनी लाने के लिए बाहर निकलने का प्रयत्न किया तो टेबल से टकराकर वह
पति की शय्या पर गिर पड़ी। क्षणभर का भी विलम्ब न हुआ था कि दरवाजा खला और रायसाहब
ने कमरे में प्रवेश किया और यह पूछते
हए कि कौन है, उन्होंने टार्च का बटन दबा दिया। कमरे में उज्ज्वल प्रकाश फैल गया।
रायसाहब ने देखा कि सुधा शय्या पर से उठ रही है और पायताने घबराई मुद्रा में उनका
मोटर-चालक झींगुर खड़ा है। यह दृश्य देख रायसाहब नावकार भाव से हंसे और कमरे का
दरवाजा पर्ववत बन्द करते हए बाहर निकल गए।
सुधा सोचने लगी कि
यदि अपने मन के भ्रमवश रायसाहब ने उसे दो तमाच लगा दिए होते या दस-पाँच ऊँची-नीची
ही सना दी होती तो शायद वह कुल-त्यागिनी न बनती. परन्त रायसाहब के इस उपेक्षापर्ण
आचरण ने भली-भाँति प्रकट कर दिया कि उसके पत्नीत्व का मल्य उसके पति की दृष्टि में
कौड़ी-भर भी नहीं है। वह न उनके प्यार की वस्त है और न उनके गौरव की। उसके किसी भी
आचरण से उनका कुछ बनता-बिगडता नहीं। वह उनकी उपेक्षिता दासी-मात्र है। उसने उसी
रात बारह बजे झींगर के साथ गृह त्यागकर पति के उपेक्षा-रोग की चिकित्सा करना
निश्चित किया और परिणामस्वरूप स्वयं
ही जीवनभर के लिए
कलंक-व्याधि से ग्रस्त हो गई।
सुधा का मानव-मन्थन
चल ही रहा था कि लल्लन ने कोठरी के द्वार से ही कहा, “सुधा
देवी, हमारा डॉक्टर तो स्वयं बीमार पड़ गया है। अब सवेरा हो
ही रहा है। दूसरा डॉक्टर बुलवाऊँगा।"
“अब डॉक्टर की जरूरत
न पड़ेगी,
लल्लन बाबू! कफन का बन्दोबस्त कीजिए। हाँ, यह
बतलाइए कि कहीं उनका भी कुछ पता चला?" सुधा ने झींगुर के
सम्बन्ध में चिन्तापूर्ण जिज्ञासा की।
“हाँ सुधा! अभी ऊपर से देखे चला आ
रहा हूँ। पाजी महफ़िल में बैठा वेश्याओं से आँखें लड़ा रहा है। आखिर तुमने उसे समझ
क्या रखा था, सुधा?"
जागरण, अनाहार और श्रम से अवसन्न सुधा का मस्तिष्क लल्लन के स्वर में निहित
व्यंग्य की झनकार से झनझना उठा। अपने स्पर्श से लोहे को भी पारस कर देने के उसके
अभिमान को धक्का लगा। उसने जवाब दिया, "मैंने उसे अपनी
सिद्धि का साधन समझा था, लल्लन बाबू! लेकिन उसने मेरी नाक काट
ली।"
लल्लन खोखले गले से
हँसा। सुधा क्षोभ से तिममिला उठी। उसने ताक पर रखा हँसिया टटोलकर उठा लिया और
कोठरी के बाहर निकल वह बारहदरी की ओर झपटी। लल्लन ने पूछा,
"उधर कहाँ जा रही हो, सुधा?"
“जा रही हूँ झींगुर
ड्राइवर की नाक काटने," सुधा ने कहा। लल्लन
भौंचक वहीं खड़ा रह गया।
जूतों
के पास चौथी श्रेणी के दर्शकों में बैठा हुआ झींगुर भी गाना सुनकर मस्त हो गया था।
जिधर वह बैठा था उसी ओर नाचते हुए मुँह कर गुलशन ने बडी ही मीठी टीप लड़ाई-“सारी
रंग डारी लाल-लाल!"
झींगुर
ने अपनी रागरंजित आँखें गुलशन की नशीली आँखों से मिला दीं और मुग्ध मुद्रा में
ललकारा-“ज़रा भाव बता के बाई जी! कैसे रंग डारी लाल-लाल?"
गुलशन
हाथों की पिचकारी बनाकर भाव बताने जा ही रही थी कि रणचंडी की हुंकार-जैसी सुधा की
मेघचन्द्र ध्वनि ने समूची महफिल को चौंका दिया। वह चिल्लाकर कह रही थी-"ठहर
जा,
अभी बताती हूँ कैसे रंग डारी लाल-लाल!" और उछलकर उसने हँसिया
से झींगुर की नाक पर वार किया। वार ओछा पड़ा, फिर भी नाक का
कुछ हिस्सा कट ही गया। रक्त की धारा बह चली। झींगुर ने दुपटटे से अपनी नाक दबा ली।
सुधा ने अट्टहास किया। उसके अट्टहास से सेठ देवीचरण चैतन्य हुए। उन्होंने चिल्लाकर
कहा, "निकालो इस हरामज़ादी वेश्या को बाहर, सिर पर सेर-भर सिन्दूर पोतकर सती बनने चली है!"
सुधा
के सिर से उत्तेजना में आँचल हट गया था और माँग में सिन्दूर की मोटी रेखा चमक रही
थी। उसने हँसिया वहीं फेंक दी और उछलकर सेठ के पास पहुँचकर उनकी बग़ल में रखा
गुलाबपाश उठा उसने अपने सिर पर उँडेल लिया और हाथ से मल-मलकर सिन्दूर धोने लगी।
सेठजी पर छींटा पड़ा तो वह उछले और सुधा की चोटी पकड़कर हिलाते हुए चिल्लाए–“निकल
डायन! अभी निकल! ले जा अपने खसम को भी। उसकी इस महफ़िल में क्या ज़रूरत?"
सुधा ने सेठजी के सिर
पर गुलाबपाश से तडातड़ सुरक्षित प्रहार करते हुए कहा, “छोड़-छोड़ चांडाल ! महफ़िल का मज़ा अकेले तेरे ही लिए है? जीवनभर अन्याय-अत्याचार सहकर भी जिन्होंने कभी मुँह नहीं खोला, प्रेम करने की भूख में जिनका सारा जीवन कलंकित हो गया, क्या उनके लिए इस महफ़िल का मज़ा नहीं है? जो किसान
हैं, मज़दूर हैं, कुली हैं, क्या उनके लिए यह महफ़िल नहीं? जिनके घर में सदा
अभाव रहता है, जिन्हें पर्याप्त भोजन और काफी वस्त्र तक नहीं
प्राप्त होता, जो नकली इज़्ज़त के बोझ से दबे हुए खुलकर साँस
तक नहीं ले पाते, जिन्हें तेरे जैसे सेठ मध्यवर्गीय कहते हैं,
क्या उनके लिए इस महफिल का आनन्द नहीं? बोल
बेईमान! बोल! इस गुलाबबाड़ी के गलाबों का रूप-रस-गन्ध तेरे ही लिए है और उनके
काँटे हमारे ही लिए? मैं तेरी इस महफ़िल में आग लगा
दूँगी।"
प्रहार
से घबराकर सेठजी ने सुधा के केश छोड़ दिए थे। उसने लपककर दीवारगीर उतार ली और उसका
शीशा ज़मीन पर पटककर चूर-चूर करती हुई उसमें की मोमबत्ती दीवार पर टँगे रेशमी
परदों में लगा दी।
झींगुर
‘हा-हा'
करता हुआ दौड़ा, परन्तु परदों में आग लग चुकी
थी। झींगुर उत्तेजनावश पागल-सा हो गया। उसने तबलची की कमर में खोंसा हुआ हथौड़ा उठाकर
सीधे सुधा के सिर पर जमा दिया। नारियल फूटने जैसी आवाज़ हुई
और सुधा ज़मीन पर गिर
पड़ी। झींगुर भी हथौड़ा फेंक कटे वृक्ष की तरह सुधा के निश्चेष्ट शरीर पर गिर
पड़ा। हथौड़ा धमाके की ध्वनि के साथ हँसिया की बग़ल में जा गिरा।
बारहदरी
जल रही थी। समची महफिल भागकर आँगन में निकला । लोगों ने सुधा और झींगर को भी
खींचकर बाहर निकाल लिया। पुलिस जार दमकलवाले भी पहुँच गए। सुधा तो न उठ सकी, परन्त झींगुर उठकर बैठ गया।
उसने देखा कि अरुणोदय
की लालिमा, सिन्दर की लालिमा, गुलाब
के फूला की लालिमा, आग की लालिमा, रक्त
की लालिमा और पुलिस की लाल पगड़ा कालालिमा ने एक होकर उसकी लाल-लाल आँखों के सामने
लाल सागर लहरा
दिया है। लल्लन ने
पूछा,
“झींगुर, तुमने यह क्या किया?"
झींगुर ने रोते हुए
ज़मीन पर पड़ी सुधा की ओर उँगली उठा दी और भर्राए हुए गले से उत्तर दिया, “सरकार! सारी रंग डारी लाल-लाल।"
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