भाषा का परिवर्तन
निरन्तर जारी रहा। 1100 ई० के पश्चात् भारतीय
आर्यभाषा का आधुनिक काल शुरू हुआ । कैकेय प्राकृत (अपभ्रंश) से लहँदी, टक्क से पंजाबी. ब्राचड़ अपभ्रंश से सिंधी, नागर
अपभ्रंश से गुजराती, उपनागर अपभ्रंश से राजस्थानी, शौरसेनी प्राकृत से पश्चिमी हिन्दी, अर्धमागधी से
पूर्वी हिन्दी,मागधी (अवहट्ठ) अपभ्रश से बिहारी हिन्दी,
मागधी के उत्तरीरूप से बंगला,दक्षिणी से
असमिया, उत्कली से उड़िया, महाराष्ट्री
से मराठी, दरद (खस) से पहाड़ी भाषाएँ विकसित मानी गई हैं।
अपने विकास के दौरान ये भाषाएं अन्य प्राकृतों से भी प्रभावित हुई हैं।
वर्गीकरण-हार्नले महोदय ने सर्वप्रथम आर्यों के पूर्व और पश्च
आगमन के आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण किया। हार्नले का विचार है कि आर्यों का पहला
दल आकर आधुनिक पंजाब में बसा । फिर जब दूसरे दल ने इन पर हमला किया तो प्रथम खेवे
में आये आर्य पूर्व, दक्षिण और पश्चिम में
खिसक गये। इन्हें बहिरंग आर्य कहा गया । द्वितीय खेवे में आये आर्य पंजाब, उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग और उसके आस-पास बस गये। इन्हें अन्तरंग आर्य
कहा गया। अन्तरंग और बहिरंग आर्यों की भाषा में स्थान और काल भेद के कारण ध्वनिगत
और रूपगत अन्तर उत्पन्न हो गया । अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं के वर्ग निर्धारण के
अलावा उन्होंने भाषाओं को चार वर्गों में विभक्त किया -
1.
पूर्वी गौडियन-पूर्वी हिन्दी बिहारी के साथ, बंगला, असमी, उड़िया।
2.
पश्चिमी गौडियन-पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती, सिन्धी,पंजाबी।
3.उत्तरी
गौडियन--गढ़वाली, नेपाली पहाड़ी सहित ।
4.दक्षिणी
गौडियन-मराठी।
डॉ०
जार्ज ग्रियर्सन ने हार्नले महोदय के
पूर्वोक्त सिद्धान्त आर्यों के अन्तरंग और बहिरंग वर्ग को ध्यान में रखकर लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया नामक पुस्तक में भारतीय
भाषाओं का प्रथम वर्गीकरण प्रस्तुत किया --
१. बाहरी उपशाखा-(अ)
पश्चिमोत्तरी समुदाय (लहँदा, सिन्धी)।
(ब)
दक्षिणी समुदाय-मराठी।
(स)
पूर्वी समुदाय-उड़िया, बंगाली, असमी,
बिहारी।
२. मध्यवर्ती
उपशाखा-(अ) मध्यवर्ती समुदाय (पूर्वी हिन्दी)।
३. भीतरी उपशाखा-(अ)
केन्द्रीय समुदाय (पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी,गुजराती, भीली, खान्देशी।
(ब)
पहाड़ी समुदाय (पूर्वी, मध्यवर्ती, पश्चिमी)।
कुछ समय पश्चात्
ग्रियर्सन महोदय ने अपने इस वर्गीकरण के सुधरे हुए नवीन रूप को प्रकाश में लाया -
१. मध्यदेशी-पश्चिमी
हिन्दी ।
२.
अन्तर्वर्ती–पश्चिमी हिन्दी से विशेष सन्निकट पंजाबी,
राजस्थानी,गुजराती, पहाड़ी
का पूर्वी, पश्चिमी, मध्य रूप । पूर्वी
हिन्दी (बहिरंग से सम्बद्ध) ।
३.
बहिरंग-पश्चिमोत्तरी (लहदा, सिन्धी),
दक्षिणी (मराठी), पूर्वी (बिहारी, उड़िया, असमी, बंगाली)।
डॉ.
सुनीत कुमार चटर्जी ने ग्रियर्सन के
वर्गीकरण के ध्वनिगत, व्याकरणगत आधारों का
खण्डन करते हुए उनके वर्गीकरण को अवैज्ञानिक सिद्ध किया ग्रियर्सन के अनुसार
बहिरंग में ल का र या ड प्रयोग मिलता है। अवधी,ब्रज, खड़ीबोली अर्थात् मध्यदेशीय और अन्तर्वर्ती में भी तो वे प्रयोग हैं।
जैसे-जर से जल, भीड़ से भीर, किंवाड़
से किंवार ।
२. ग्रियर्सन के
अनुसार बाहरी वर्ग में द का परिवर्तन ड में हुआ है । चटर्जी का विचार है कि
मध्यवर्ती में भी ऐसा ही है, जैसे हिन्दी
में दृष्टि दीठि डीठि,दंड डंड, दोलिका डोली।
३. ग्रियर्सन का कथन
है कि संस्कृत की स्त्र ध्वनि बाहरी भाषाओं में म रूप में विकसित हुई तथा भीतरी
भाषाओं में ब रूप में। चटर्जी का कथन है कि भीतरी में भी इसके बहुत से उदाहरण
मिलते हैं जैसे-निम्ब-नीम, जम्बुक-जामुन
।बंगला जो बाहरी वर्ग की भाषा है निम्बुक के लिए नेबू तथा लेबू दोनों प्रयोग मिलते
हैं । ग्रियर्सन के सिद्धान्त के विपरीत यह ध्वनि परिवर्तन हुआ है ।
४. ग्रियर्सन के अनुसार
अल्पप्राणीकरण की प्रक्रिया बाहरी भाषाओं में घटित हुई भीतरी वर्ग में नहीं। भीतरी
वर्ग की भाषा हिन्दी में भगिनी का बहन होना इस तथ्य को असमीचीन सिद्ध करता है ।
५. ग्रियर्सन के
विचार से बाहरी वर्ग में र का लोप मिलता है । चटर्जी का कहना है भीतरी वर्ग में और
के लिए औ, पर के लिए पै का प्रयोग मिलता
है जिसमें र ध्वनि लुप्त है।
६. बाहरी वर्ग में
संस्कृत की स ध्वनि ह में परिवर्तित हुई है। भीतरी वर्ग की भाषा पश्चिमी हिन्दी
में भी केसरी के लिए केहरि या केहरी का प्रयोग है।
७. ग्रियर्सन ने
ध्वनि परिवर्तन के अन्तर के साथ ही कुछ व्याकरणिक अन्तरों को भी रेखांकित करने का
यत्न किया, जैसे-उनका कहना है कि बाहरी
वर्ग की भाषा में सम्बन्ध तत्त्व का अर्थ तत्त्व के साथ अब भी संयोग है अतः भाषा
अधिक संयोगात्मक है, जैसे बंगाली रामेर बोई (राम की किताब),
चटर्जी कहते हैं कि भीतरी वर्ग में भी कुछ संयोगात्मकता अवशिष्ट है,
जैसे ब्रज में पूतहि (कर्म) भौनहिं
(अधिकरण)।
ग्रियर्सन महोदय ई स्त्री प्रत्यय को बाहरी वर्ग की विशेषता बतलाते हैं जबकि भीतरी
वर्ग में भी ई स्त्री प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त होता है । इस प्रकार हम देखते
हैं कि ग्रियर्सन के वर्गीकरण के सभी आधार सुनीति कुमार चटर्जी द्वारा खंडित कर
दिये जाते हैं। डॉ० चटर्जी ने अपना अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत
किया -
१. उदीच्य-सिन्धी,
लहँदी, पंजाबी ।
२. प्रतीच्य-गुजराती,
राजस्थानी ।
३. मध्यदेशीय-पश्चिमी
हिन्दी।
४. प्राच्य -पूर्वी
हिन्दी, बिहारी, उड़िया, असमिया, बंगाली।
५.
दाक्षिणात्य-मराठी।
डॉ० चटर्जी का यह
वर्गीकरण बहुत मौलिक नहीं है । इसमें हिन्दी के विविध रूपों को अलग भाषा मानकर
दूसरे-दूसरे वर्ग में रखा गया है। भारतीय संविधान,लोक-व्यवहार,
भाषा की प्रकृति तथा एक दूसरे भाषा-भाषी की बोधगम्यता को देखते हुए
यह वर्गीकरण समीचीन नहीं प्रतीत होता । डॉ०
धीरेन्द्र वर्मा ने इसमें कुछ सुधार
करने का प्रयास किया। उनका वर्गीकरण इस प्रकार है-
१. उदीच्य–सिन्धी,
लहँदी, पंजाबी।
२.
प्रतीच्य--गुजराती।
३.
मध्यदेशीय-राजस्थानी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, बिहारी।
४. प्राच्य-उड़िया,
आसामी, बंगाली ।
५.
दाक्षिणात्य-मराठी।
डॉ.
भोलानाथ तिबारी सम्बद्ध अपभ्रंशों के
आधार पर इन भाषाओं के वर्ग बनाने की सलाह देते हैं-
शौरसेनी-पश्चिमी
हिन्दी, पहाड़ी, राजस्थानी, गुजराती।
मागधी-बिहारी,
बंगाली, आसामी, उड़िया ।
अर्धमागधी-पूर्वी
हिन्दी।
महाराष्ट्रीय-मराठी।
प्राचड-पैशाची-सिन्धी,
लहँदा, पंजाबी।
डॉ.
हरदेव बाहरी ने आधुनिक आर्य
भाषाओं का वर्गीकरण इस प्रकार किया है -
हिन्दी वर्ग
हिन्दीतर
(अ-हिन्दी) वर्ग
मध्य पहाड़ी,
राजस्थानी, उत्तरी (नेपाली)
पश्चिमी हिन्दी,
पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी (पंजाबी, सिन्धी, गुजराती)
बिहारी (ये सभी
हिन्दी की दक्षिणी
(सिंहली, मराठी)
उपभाषाएँ हैं) पूर्वी
(उड़िया, बंगला, असमिया)
उपर्युक्त वर्गीकरणों
मे अधिकांशतः क्षेत्रीयता को ही प्रमुख आधार माना गया है । भोलानाथ तिवारी ने
भाषाओं के उद्गम से सम्बद्ध अपभ्रंशों को ध्यान में रखा जिससे उनकी प्रवृत्ति को
भी समझा जा सके। वास्तव में मूल उद्गम तथा स्थानीय सम्पर्क भाषाओं का प्रभाव दोनों
ही किसी भाषा की प्रवृत्तियों को निश्चित करते हैं । विहारी को हिन्दी के वर्ग में
माना जाता है जब कि वह बंगला से भी
प्रवृत्तिगत साम्य
रखती है, किन्तु भाषिक विकास के दौरान
बिहारी भाषा हिन्दी के अधिक समीप आती गयी है । अतः इसे हिन्दी के साथ रखना अनुचित
नहीं है ।
सामान्य
विशेषताएँ -भाषा कठिनता से
सरलता, और स्थूलता से सूक्ष्मता, की ओर विकसित होती है ।
१. भारतीय आर्यभाषा
में सरलीकरण की प्रवृत्ति जारी रही। परिनिष्ठित हिन्दी में परिवर्तन का क्रम जितना
तेज रहा उतना पंजाबी, बंगला आदि में नहीं। पंजाबी
में मध्यकालीनता अधिक है बंगला में कम किन्तु हिन्दी से अधिक है।
२. संस्कृत में एक
वस्तु या भाव के लिए कई शब्द प्रचलित थे। आधुनिक भाषाओं में अलग-अलग शब्दों में से
खास स्थानीय प्रयोग प्रचलित हुए जैसे-आँख के लिए संस्कृत में अक्षि,
चक्षु, नेत्र अनेक शब्दों का प्रयोग होता था।
पंजाबी में अक्षि का अक्खि रूप प्रचलित है जो मध्यकालीन भाषाओं में ध्वनि परिवर्तन
के कारण निर्मित हुआ था । बंगला में चक्षु से चोख शब्द बना।
३. आधुनिक आर्य
भाषाओं ने प्रायः वही ध्वनियां हैं जो मध्यकालीन भाषाओं में थीं-अ,
आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, मूल स्वर के अतिरिक्त संयुक्त स्वरों आइ, आउ,
इमा का भी प्रयोग मिलता है। पंजाबी में उदासीन अ तथा अवधी में जपित
स्वरों का प्रयोग इनकी निजी विशिष्टता है।
४. ऋ ध्वनि तत्सम
शब्दों में लिखी जाती है किन्तु उच्चारण रि, रु,
की तरह होता है।
५. स,
श, ष तीनों का लिखने में प्रयोग प्रचलित है
किन्तु उच्चारण स, श का ही होता है।
६. च वर्गीय ध्वनियों
में विविधता आ गयी है। मराठी में च का त्स, ज का
दूज होता है।
७. मूर्धन्य ध्वनियों
में ड, ढ़ नवीन है ।
८. क,
ख, ग, ज, फ आदि ध्वनियों का आगमन विदेशी प्रभाव के कारण हुआ।
६. आधुनिक भाषाओं में
मध्यकालीन द्वित्व व्यंजनों के स्थान पर एक व्यंजन करके पूर्व स्वर को दीर्घ कर
दिया गया, जैसे-कम्मकाम, सच्चसाँच, हत्थ हाथ, पंजाबी
में पूर्व रूप अधिक प्रचलित है।
१०. बलात्मक स्वराघात
सुरक्षित है । कुछ में संगीतात्मकता भी है।
११. बहुत से स्वरान्त
शब्द व्यंजनान्त हो गये हैं, जैसे-राम,
(रामू)। कुछ अपवादों को छोड़कर भाषा वियोगात्मक हो गयी है । सभी में
परसर्गों का प्रयोग होता है।
व्याकरणिक रूप रचना अधिक
आसान हुयी है। कारकों के स्थान पर परसर्गों के प्रयोग के कारण कारकीय रूप रचना
समाप्त हो गयी है, केवल शब्दों के दो रूप अविकारी और विकारी अवशिष्ट हैं।
वचन दो हैं।
प्रवृत्ति एकवचन के प्रयोग की है, जैसे- मैं के लिए हम का प्रयोग ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें