14- दीया क्या जले जब जिया जल रहा


1.
गंगो नित्य की अपेक्षा आज कुछ जल्दी ही उठ गई थी। उठने के बाद से ही वह अनमनी थी। वह समझ नहीं पा रही थी, पर उसे सब-कुछ अधूरा-अधूरा दिखाई पड़ रहा था। चारों ओर अतृप्ति उसाँस-सी भरती जान पड़ती थी और अभाव मचल-मचल कर चिकोटी काटता-सा मालूम पड़ता था। उठते ही उसने अपनी पालतू बिल्ली को एक चैला खींचकर मारा; कारण, वह नित्य उसके निकलने के बाद कोठरी से बाहर निकला करती थी, पर आज वह उसके पहले ही बाहर निकल आई। उस दिन घर में उसने बुहारी नहीं लगाई, बल्कि झाड़ उठाकर उसने सारा घर पीट डाला। उसका सारा आक्रोश अपने पति सूरत पर था जिसे वह अपने सारे अभावों का मूल कारण समझती थी। वह चाहती थी कि सूरत उससे कुछ कहे। उसे अपना अभाव, अभियोग उपस्थित करने का मौका मिले। सूरत भी सवेरे से ही निगाह दबाए सब-कुछ भाँप रहा था। देख रहा था कि दिशाएँ निस्तब्ध हैं और गंगो कात्र बादलों की तरह भारी है।वह डर रहा था कि अभी-अभी वह कहीं बरस न पड़े। उसने चुपचाप नित्य-क्रिया समाप्त की, बाल सँवारे, गुड़ का एक टुकड़ा मुँह में डाला, पानी पिया और फिर एक अधजली बीड़ी सुलगाकर वह दबे पाँव बाहर निकल जाने का प्रयत्न करने लगा। क़रीब-करीब वह सफल हो चुका था, अर्थात् एक पैर चौखट के उस पार कर चुका था, जूता भी पहन चुका था. दसरा पैर भी उठ गया था, सहसा वज्रपात हुआ। उठा हुआ पैर जहाँ का तहाँ आ रहा। पैर रखने से बने हए पहले निशान पर इस बार पैर वापस होकर इस प्रकार चारों खाने ठीक बैठा जैसे समान कोण और भुजावाले त्रिभुज एक-दसरे पर सरोतर बैठ जाते हैं। सिर सहसा घूम गया, आँखें सभय हो गई. मँह खल गया. जैसे कह रहा हो-'भाई, तू भी तो खुल! यह बन्द-बन्द सा तो खल रहा है। कानों में कम्पन हुआ। कम्पन से ध्वनि हुई।
"हाँ तो दिवारी कल है कि परसों?"
 “कब है, हमें नहीं मालूम, मिल से छुट्टी होती तो मालूम होता।"
"तुम्हारे ऐसा निकम्मा आदमी तो त्रिलोक में न होगा। कब परब है, कब त्यौहार है, इसका भी तुम्हें पता नहीं।"
“पता लगे तो कैसे? सबेरा हुआ, दौड़ते मिल पहुँचा। दिनभर कोयला झोंककर दिया-जले हाथ और मुँह में कारिख पोते घर लौटता हूँ। दिनभर का थका-माँदा, लेटते ही नींद आ जाती है। हमको तो यह भी नहीं मालूम होता कि आज दिन कौन-सा है।"
“घर की परवाह हो तो मालूम हो।"
"आखिर तुम्हें दिवाली याद कैसे आई।"
“सालभर का त्यौहार है, और क्या?"
“अच्छा तो पता लगाकर बताऊँगा।"
“तुम क्या पता लगाओगे, मैं खुद पता लगा लूँगी। राम, राम! दुनिया में ऐसे भी आदमी हैं।"
सूरत मूरत बना हुआ सारी फटकार हजम कर रहा था। गंगो शेरनी की तरह बकारती हुई घर से बाहर निकली।
सूरत अधजली बीड़ी से अधजला हृदय सुलगाता हुआ घर से बाहर निकल आया।
"राम की माँ! रामू की माँ!" की आवाज़ से मुहल्ला गूंज उठा। गंगो अपनी पड़ोसिन रामू की माँ को बुला रही थी। रामू की माँ भी अपने दरवाज़े पर आई।गंगो ने पूछा, “क्यों बहन, दिवारी तो कल ही है न?"
"हमको क्या मालूम बहन, कि दिवारी कब है और भैया दूज कब?"
"ऐसा क्यों कहती हो? सालभर का त्यौहार है।"
“मेरे यहाँ तो इस साल कोई त्यौहार न मनाया जाएगा।"
"क्यों?"
"तुम्हें नहीं मालूम? आसाम में भूकम्प में हमारे जेठ मर गए। उसी गम में इस साल हम त्यौहार नहीं मनाएँगे।"
गंगो निराश होकर उधर से लौटी। दूसरी ओर जाकर उसने अपनी दूसरी पड़ोसिन को पुकारा-“ललता, अरे ओ ललता!"
“क्या है, गंगो!" ललिता ने आकर पूछा।
“यही पूछना है कि दिवारी इस साल परसों पड़ेगी कि नरसों?"
"दिवारी न परसों है, न नरसों, कल ही है।"
"कल ही है!" गंगो के मुख पर आश्चर्य के सभी लक्षण स्पष्ट हो उठे।
उसने पूछा, “दिवारी के लिए तुमने क्या तैयारी की है?"
"हम गरीबों के यहाँ त्यौहार की तैयारी कैसी? यहाँ तो बारह महीने वही रूखी रोटी और वही सूखा साग। त्यौहार तो है अमीरों का, चमेली बुआ का,जो ललहोछठ तक धूमधाम से मनाती है।"
“ठीक ही है, भगवान ने चार पैसे दिए हैं, वह क्यों न धूमधाम करें!"
गंगो की आँखों में प्रकाश आ गया, जैसे घने अन्धकार में उसने आलोक-रेखा देख ली हो। उसने चमेली बुआ के घर की राह ली।
चमेली बुआ नौकर को बाज़ार भेजने के लिए वस्तुओं की लम्बी सूची बना रही थी। उन्होंने गंगो को देखकर भी न देखा, तथापि वह उन्हीं के पास जा बैठी।
गंगो अन्तःसत्वा थी। इधर उसकी तबीयत उर्द से बड़े पर आ गई थी। पर वह अपनी यह इच्छा किससे और कैसे प्रकट करे! लोकदृष्टि के समक्ष अपने मन का आवरण उठाने में वह लजाती थी, कारण आवरण उठाने में लज्जा लगती ही है चाहे वह दैहिक हो या मानसिक। यही कारण था कि अपने पति सूरत से भी खुलकर अपने मन की बात नहीं कह सकती थी। वह चाहती थी कि कोई स्वयं उसकी इच्छा भाँप जाए और उसे पूरी कर दे।
चमेली बुआ का काम समाप्त होने पर गंगो ने कहा, “क्यों बुआ! कुछ मेरे लायक काम है?"
“काम तो कुछ वैसा नहीं है, पर त्यौहार का दिन है, इसलिए काम की क्या कमी है? हो सके तो जरा तड़के चली आना, पीठी-वीठी पीसनी है।"
 गंगो दिनभर चमेली बुआ के यहाँ जी-तोड़ परिश्रम करती रही। रात के आठ बजे घर लौटी। सूरत मिल से लौट आया था। गंगो के आते ही उसने कहा, “दिवारी कल ही है।"
तुमसे पहले ही मुझे मालूम हो गया है। बकवाद मत करो। हमें तड़के ही उठना है।"
2.
अर्धनिशा की नीरवता को चीरता हुआ समीपवर्ती पुलिस-थाने का घंटा बजने लगा-एक! दो! तीन! चार ! पाँच! छह ! गंगो तड़पकर उठ बैठी। उसने सरत का कन्धा झकझोरकर उसे उठा दिया और झल्लाती हुई बोली, “मैंने तुमको सहेज दिया था कि हमें जल्दी उठा देना, चार ही बजे जाना है। यह लो छह बज गया।" सूरत ने लेटे-लेटे ही जवाब दिया, “तुम तो बड़ी पागल हो। न सोती हो, न सोने देती हो। अभी तो कुल बारह बजे हैं, बारह!"
थाने का घंटा अभी बजता ही जा रहा था। गंगो को अपनी भूल मालूम हुई और वह लज्जित हो गई। पुनः लेट तो गई, पर आँख फिर न लग सकी। उसने जागते हुए सुना घंटे-भर बाद दो, घंटे-भर के व्यवधान के बाद तीन बजा। गंगो के लिए पलभर भारी होने लगा। बड़ी देर हो गई। चार का घंटा नहीं बजा। गंगो ने समझा कि शायद तन्द्रा के कारण चार बजना वह नहीं सुन पाई। वह उठ पड़ी और सूरत को घर से होशियार रहने का आदेश देती हुई बाहर निकल पड़ी।
3.
कुल्ला-दातुन तक किए बिना चमेली बुआ के यहाँ दस बजे तक अथक परिश्रम करके गंगो घर लौटी। सूरत बाज़ार गया था। उसने जल्दी-जल्दी स्नान आदि समाप्त किया और इस प्रतीक्षा में कि अब चमेली बुआ के यहाँ से उसे कोई भोजन के लिए बुलाने आएगा, वह दरवाज़े पर जा बैठी। ग्यारह बजा, बारह बजा। अब तक कोई नहीं आया। गंगो ने देखा कि रामू की माँ रामू को गोद में लिए और रामू रन्नो को उँगली पकड़ाए चमेली बुआ की ओर जा रही है।
गंगो ने पूछा, “कहाँ जा रही हो, बहन?"
“चमेली बुआ के यहाँ से बुलावा आया है, वहीं जा रही हूँ।"
“कब बुलावा आया?"
"कल ही शाम को।"
गंगो को धक्का लगा; रामू की माँ आगे बढ़ गई। थोड़ी ही देर बाद दो-चार दूसरी पडोसिनों के साथ ललिता भी चमेली बुआ के घर की ओर जाती दिखाई पड़ी। गंगो ने जानकर भी प्रश्न किया, “कहाँ जा रही हो?"
चमेली बआ के यहाँ से भोजन का बुलावा आया है न, वहीं।" अच्छा, यह बात है! मैंने भी सोचा कि कहाँ जा रही हो"
“न्यौता नहीं मिला तमको क्या?" ललिता ने पूछा।
“न्यौता मिले भी तो मैं नहीं माननेवाली । मैं क्या किसी के टुकड़े की मोहताज हूँ या तुम लोगों की तरह पेट धोंया है! तुम अमीर हो, अपने घर की हो।"
“अरे तो लड़ती क्यों हो?"
 “मैं लड़ती हूँ कि तू? डाइन कहीं की!"
ललिता और उसकी साथिनें समझ न पाईं कि गंगो सहसा इतनी नाराज़ क्यों हो गई। वे अपने रास्ते बढ़ गईं। हताश होकर अपने गरीबों के भंडार-घर में जाकर यह जानती हुई भी कि उसकी अभिलषित वस्तु उसे नहीं मिलेगी,गंगो ने हाँड़ियाँ टटोलनी शुरू की, पर किसी भी हँडिया में उसे उर्द की दाल का एक दाना भी न मिला। वह अभाव के उस समुद्र-सी फैल गई जिसमें केवल चट्टानों से टकराकर बिखरने के ही लिए निराशा की लहरें उठा करती हैं। इसी समय कन्ट्रोल की दुकान पर से विमर्दित सूरत राशन लिए हुए घर आया।उसे देखते ही गंगो उसकी ओर लपकी। राशन की गठरी उसके हाथ से छीनकर जमीन पर पटकती और आँचल पसारकर रोती हुई उसने पूछा, “बोलो! मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं उर्द का बड़ा खाऊँगी?"
इसी समय मकान-मालिक के पुत्र लल्लन ने कटोरे-भर उर्द की दाल उसके फैले हुए आँचल में उलट दी।
सूरत भौंचक हो रहा। सारा दृश्य उसके लिए पहेली था।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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