अज्ञेय — कितनी नावों में कितनी बार, महावृक्ष के नीचे, बसन्त गीत
कितनी नावों में कितनी बार
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
2. महावृक्ष के नीचे
जंगल में खड़े हो?
महारूख के बराबर
थोड़ी देर खड़े रहो
महारूख ले लेगा तुम्हारी नाप।
लेने दो।
उसे वह देगा तुम्हारे मन पर छाप।
देने दो।
जंगल में चले हो?
चलो चलते रहो।
महारूख के साथ अपना नाता बदलते रहो।
उस का आयाम उस का है, बहुत बड़ा है।
पर वह वहाँ खड़ा है।
और तुम चलते हो चलते हुए भी भले हो।
वह महारूख है
अकेला है, वन में है।
तुम महारूख के नीचे-अकेले हो, वन तुम में है।
ग्रोस पेर्टहोल्ज़ (आस्ट्रिया), 15 मई, 1976
महारूख के बराबर
थोड़ी देर खड़े रहो
महारूख ले लेगा तुम्हारी नाप।
लेने दो।
उसे वह देगा तुम्हारे मन पर छाप।
देने दो।
जंगल में चले हो?
चलो चलते रहो।
महारूख के साथ अपना नाता बदलते रहो।
उस का आयाम उस का है, बहुत बड़ा है।
पर वह वहाँ खड़ा है।
और तुम चलते हो चलते हुए भी भले हो।
वह महारूख है
अकेला है, वन में है।
तुम महारूख के नीचे-अकेले हो, वन तुम में है।
ग्रोस पेर्टहोल्ज़ (आस्ट्रिया), 15 मई, 1976
वन में महावृक्ष के नीचे खड़े
मैं ने सुनी अपने दिल की धड़कन।
फिर मैं चल पड़ा।
पेड़ वहीं धारा की कोहनी से घिरा
रह गया खड़ा।
जीवन : वह धनी है, धुनी है
अपने अनुपात गढ़ता है।
हम : हमारे बीच जो गुनी है
उन्हें अर्थवती शोभा से मढ़ता है।
ग्रोस पेर्टहोल्ज (आस्ट्रिया), 15 मई, 1976 48
मैं ने सुनी अपने दिल की धड़कन।
फिर मैं चल पड़ा।
पेड़ वहीं धारा की कोहनी से घिरा
रह गया खड़ा।
जीवन : वह धनी है, धुनी है
अपने अनुपात गढ़ता है।
हम : हमारे बीच जो गुनी है
उन्हें अर्थवती शोभा से मढ़ता है।
ग्रोस पेर्टहोल्ज (आस्ट्रिया), 15 मई, 1976 48
3. बसन्त गीत
मलय का झोंका बुला गया:
खेलते से स्पर्श से वो रोम-रोम को कँपा गया-
जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो!
पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली,
सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली;
नीम के भी बौर में मिठास देख हँस उठी है कचनार की कली!
टेसुओं की आरती सजा के बन गयी वधू वनस्थली!
स्नेह-भरे बादलों से व्योम छा गया-
जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो!
चेत उठी ढील देह में लहू की धार,
बेध गयी मानस को दूर की पुकार
गूँज उठा दिग्दिगन्त चीन्ह के दुरन्त यह स्वर बार-बार:
सुनो सखि, सुनो बन्धु! प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार!
आज मधु-दूत निज गीत गा गया-
जागो, जागो, जागो, सखि, वसन्त आ गया! जागो!
खेलते से स्पर्श से वो रोम-रोम को कँपा गया-
जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो!
पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली,
सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली;
नीम के भी बौर में मिठास देख हँस उठी है कचनार की कली!
टेसुओं की आरती सजा के बन गयी वधू वनस्थली!
स्नेह-भरे बादलों से व्योम छा गया-
जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो!
चेत उठी ढील देह में लहू की धार,
बेध गयी मानस को दूर की पुकार
गूँज उठा दिग्दिगन्त चीन्ह के दुरन्त यह स्वर बार-बार:
सुनो सखि, सुनो बन्धु! प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार!
आज मधु-दूत निज गीत गा गया-
जागो, जागो, जागो, सखि, वसन्त आ गया! जागो!
कविताओं का सरल हिन्दी अर्थ
कवि जीवन परिचय — अज्ञेय (सूर्यकान्त त्रिपाठी 'अज्ञेय')
शब्दार्थ
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