2. कबीरदास
रस गगन गुफा में अजर झरै ।
बिन बाजा झंकार उठै जँह, समुझि परै जब ध्यान धरै ।
बिना ताल जँह कमल फुलाने, तिहिं चढ़ि हंसा केलि करै ।
बिन चंदा उजियारी दरसे, जँह-तहँ हंसा नजर परै ।
दसवें द्वार ताड़ी लागी, अलख पुरुष जाको ध्यान धरै ।
काल कराल निकट नहिं आवै, काम, क्रोध, मद, लोभ टरै ।
जुगन-जुगन की तृषा बुझानी, करम- भरम अतिव्याधि टरै ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, अमर होय कबहूँ न मरै ।।1
संतौं भाई आई ग्यान की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उडाँणी, माया रहै न बाँधी॥
हिति चित की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँति परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी॥
कूड़ कपट काया का निकस्या हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर माँन के प्रगटे उदित भया तम षींनाँ॥2॥
पानी बिच मीन पियासी ।
मोहि सुनि-सुनि आवत हाँसी ।।
आतम ज्ञान बिना सब सूना क्या मथुरा क्या कासी ।
घर की बस्तु घरी नहिं सूझै, बाहर खोजन जासी ।
मृग की नाभि माँहि कस्तूरी, बन-बन फिरत उदासी ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सहज मिले अविनासी ।।3
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होय रे ।
मैं कहता हूँ आँखिन की देखी, तू कागद की लेखी रे ।
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो अरूझाइ रे ।
मैं कहता हूँ जागत रहियो, तू कहता है सोई रे ।
मैं कहता निर्मोही रहियो, तू जाता है मोहि रे ।
जुगन-जुगन समझावतहारा, कहा न मानत कोइ रे ।।4
भीजै चुनरिया प्रेमरस बूँदन,
आरति साजि के चली है सुहागिन, अपने पिय को ढूँढ़न,
काहे की तोरी बनी है चुनरिया,काहे को लागे चारों फूँदन ।
पाँच तत्व की बनी है चुनरिया, नाम के लागे फूँदन ।
चढ़िगे महल खुलि गइ रे किवरिया, दास कबीर लागे झूलन ।।5
मन लागो मेरो यार फकीरी में ।
जो सुख पायो राम भजन में, सो सुख नाहिँ अमीरी में ।
भलो बुरो सबको सुनि लीजै, कर गुजरान गरीबी में ।
प्रेम नगर में रहनि हमारी, भलि बनि आइ सबूरी में ।
हाथ में कूड़ी बगल में सोटा, चारों दिशा जगीरी में ।
आखिर यह मन खाक मिलेगा, कहाँ फिरत मँगरूरी में ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, साहिब मिलै सबूरी में । 6
दुलहनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आए हो राजा राम भरतार॥टेक॥
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राम देव मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती॥
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
रामदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धनि धनि भाग हमार॥
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी॥7॥
एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंध चरावै गाई॥टेक॥
पहले पूत पीछे भइ माँई, चेला कै गुरु लागै पाई।
जल की मछली तरवर ब्याई, पकरि बिलाई मुरगै खाई॥
बैलहि डारि गूँनि घरि आई, कुत्ता कूँ लै गई बिलाई॥
तलिकर साषा ऊपरि करि मूल बहुत भाँति जड़ लगे फूल ।
कहै कबीर या पद को बूझै, ताँकूँ तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै ॥ 08
साखी
सतगुर सवाँ न कोइ सगा, सोधी सईं न दाति।
हरिजी सवाँ न कोइ हितू, हरिजन सईं न जाति ॥1
शब्दार्थ- सगा= सगा सम्बन्धी। दाति दाता। हिंदू हितैषी। हरिजन ईश्वर का भक्त।
संदर्भ-गुरु एवं ईश्वर भक्ति की महिमा का वर्णन है।
व्याख्या-कबीरदास कहते हैं कि साधक के लिए सद्गुरु के समान कोई अपना निकट का सम्बन्धी नहीं है, साधु के समान कोई दाता नहीं है (क्योंकि वह ज्ञान को देने वाला है)। ईश्वर के समान कोई जीवों का भला चाहने वाला नहीं है तथा भगवान के भक्तों की जाति के समान कोई जाति (समाज) नहीं है।
अलंकार (1) अनुप्रास-सत्गुरु, सम , सगा, साधु, सम। (B) वक्रोक्ति सम्पूर्ण छन्द। (ii) अनम्योपमा सम्पूर्ण छन्द ।
विशेष (1) भगवद् भक्तों का सम्प्रदाय सर्वव्यापी एवं सार्वभौम होता है, जबकि अन्य संगठन निहित स्वार्यों पर आधारित होते हैं। हरिजन की जाति की सेवाएँ नहीं होती हैं।
सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार ।।2
शब्दार्य- अनंत अनन्त जिसकी गणना न की जा सके। उपगार उपकार। उखाड़िया उद्घाटित किया, खोल दिया।
प्रसंग - ।
व्याख्या सतगुरु की महिमा अपार है, उनकी महता का वर्णन नहीं किया जा सकता है। गुरुदेव ने ज्ञान प्रदान करके मेरे प्रति जो उपकार किया है, 1 है, वह अनन्त है। इन्हीं की असीम कृपा से अपार ब्रह्म के दर्शन योग्य दृष्टि मुझको प्राप्त हुई है। उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान ने ही मुझको अनन्त ब्रह्म का दर्शन कराया है।
अलंकार सांगरूपक अनन्त तथा अनन्त दिखावणहार
विशेष (1) लक्षणा-लोचन अनन्त में अनन्त ।
(i) अनन्त लोचन का तात्पर्य है दिव्य दृष्टि-वह स्थिति जब कर्तापन का अभिमान नष्ट हो जाता है।
गुरु गोविन्द तौ एक है, दूजा यह आकार।
आपा मेट जीवत मरै, तो पावै दीदार॥3
गुरु धोबी सिष कापड़ा, साबुन सिरजनहार ।
सुरति-सिला पर धोइए, निकसे ज्योति अपार ।।4
कबिरा ते नर अंध है, गुरू को कहते और ।
हरि रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठे नहिं ठौर ।।5
चकई बिछुरी रैनि की, आइ मिलै परभाँति
जे नर बिछुरे राम सौं, ते दिन मिले न राति ।।6
शब्दार्थ-रैणि रैन; रात्रि। बिछुटी बिछुड़े।
प्रसंग पारलौकिक विरह चिरन्तन साधना का विषय है।
व्याख्या-जो चकवी रात्रि के आगमन पर अपने प्रियतम चकवा से बिछुड़ गयी थी, वह प्रभात के आगमन पर अपने प्रियतम से आकर मिल गई। परन्तु माया के प्रभाव से जो जीव अपने प्रियतम परमात्मा से बिछुड़ जाते हैं, वे सदैव विरह में तड़पते रहते हैं, वे रात को न मिल पाते हैं और न दिन को।
अलंकार-निदर्शना-सम्पूर्ण छंद।
विशेष-जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी उससे सदैव विमुक्त बना रहता है। यही चिरन्तन वियोग है और इस वियोग में रस लेना चिरन्तन साधना है।
(
बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान।
जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान ॥7
शब्दार्थ - बिरहा= विरह। बिरहा एक लोकगीत जिसको एक विशेष प्रकार से अहीर गाते हैं। मसान श्मशान, मरघट।
प्रसंग ईश्वर विरह की श्रेष्ठता का वर्णन है।
व्याख्या विरह एक सामान्य वस्तु है-ऐसा मत कहो। वह तो शरीर का स्वामी है। जिस शरीर में विरह न हो, वह शरीर मरघट के समान है।
अलंकार (1) यमक विरहा, बुरहा। (i) अपन्हुति प्रथम चरण।
विशेष प्रभु प्रेम के अभाव में जीवन निरर्थक है
परबति परबति में फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाऊँ नहीं, जातें जीवनि होइ ॥08
शब्दार्थ-परवति = पर्वत। फिरा प्रसंग-मैं पर्वत-पर्वत घूम आया तथा घूमा। जातें जिससे ।
रोते-रोते नेत्रों की ज्योति गंवा दी, लेकिन वह बूटी नहीं मिली जिससे जीवन मिलता है।
अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड़्या, राम पुकारि पुकारि॥09
शब्दार्थ अंषड़ियां आँखें। झाई = मंद। निहारि = देखकर। जीभड़ियां जीभ में। प्रसंग प्रियतम की प्रतीक्षा में विरहिणी के अंग अत्यंग शिथिल हो गये हैं।
व्याख्या-प्रियतम के विरह में प्रतीक्षा करते-करते वियोगिनी की आँखों में झाई पढ़ गई है अर्थात् उसकी आँखों की रोशनी कम हो गई है और प्रियतम राम का नाम पुकारतें पुकारते जीभ में छाले पड़ गए हैं।
अलंकार (1) पुनरुक्तिप्रकाश निहारि-निहारि, पुकारि-पुकारि। (
i) अतिशयोक्ति सम्पूर्ण साखी ।
विशेष- इस प्रकार के अतिशयोक्तिपूर्ण एवं वीभत्सता उत्पन्न करने वाले वर्णन फारसी साहित्य की देन हैं, जिनमें जिगर के टुकड़े होना, नसों का ताँत बन जाना आदि बातों की चर्चा करने की परम्परा है।
नैंना नीझर लाइया, रहट बहै निस जाम।
पपीहा ज्यूँ पिव पिव करौं, कबरू मिलहुगे राम॥10॥
सुमिरन सुरत लगाइके, मुख से कछू न बोल ।
बाहर के पट देइ के , अन्तर के पट खोल ।। 11
तूँ तूँ करता तूँ भया, मुझ मैं रही न हूँ।
वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तूँ॥12
शब्दार्थ हूँ मैं। बारी बलि बलि जाउं। नाउं नाम ।
व्याख्या-तेरे ध्यान में 'तू' 'तू' शब्द का उच्चारण करते हुए 'मैं' 'तू' में परिवर्तित हो गया, मुझमें मेरापन कुछ भी नहीं रह गया, मेरा 'अहम' समाप्त हो गया। मैंने स्वयं को तेरे नाम पर बलि या न्यौछावर कर दिया, अब तो जहाँ जहाँ भी देखता वहाँ केवल तू ही दिखलाई पड़ता है।
विशेष-प्रेम-योग अथवा भक्ति-योग की यह चरमावस्था है जो योगी की समाधि में मिलती है। यह स्थिति हर भक्त-साधक की होती है। सूर की गोपी भी 'लेड दही' के स्थान पर 'लेहु गोपाल' की टेर लगाती है। तुलसी के राम भी सीता से विमुक्त रनी की चाल में सीता के नेत्र और चाल देखते हैं। जायसी का रतनसेन विरह की चरमावस्था में होने पर मूगियों के नेत्र में, हंसिनी की संसार की प्रत्येक वस्तु में पद्मावती को ही देखता है।
दीनता विनती कौ अंग
लालन की ओबरी नहीं, हंसन की नाही पांति ।
सिंहन के लेहड़ा नहीं, साधु न चलै जमाँति ।।13
हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जै चलै हमारे साथि॥14॥
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसै घटि घटि राँम हैं, दुनियाँ देखै नाँहि॥15॥
नाँ कुछ किया न करि सक्या, नाँ करणे जोग सरीर।
जे कुछ किया सु हरि किया, ताथै भया कबीर कबीर॥16॥
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ।
बूँद समानी समंद मैं, सो कत हेरी जाइ॥17॥
कबीर सबद सरीर मैं, बिनि गुण बाजै तंति।
बाहरि भीतरि भरि रह्या, ताथैं छूटि भरंति॥18॥
हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ।
जो हाँसेही हरि मिलै, तो नहीं दुहागनि कोइ॥19॥
हिरदा भीतरि दौ बलै, धूंवां प्रगट न होइ।
जाके लागी सो लखे, के जिहि लाई सोइ॥20
मानुष जन्म दुलम्भ है, होइ न बारम्बार ।
पाका फल जो गिरि पड़ा, बहुरि न लागै डारि ।।21
चाकी चलती देखि कै, दिया कबीरा रोइ ।
दो पट भीतर आइकै, सालिम बचा न कोइ ।।22
रोवणहारे भी मुए, मुए जलाँवणहार।
हा हा करते ते मुए, कासनि करौं पुकार॥23॥
पाँणी ही तें हिम भया, हिम ह्नै गया बिलाइ।
जो कुछ था सोई भया, अब कछू कह्या न जाइ॥24
लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गइ लाल ।।25
गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गम्भीर।
चहुँदिसि चमकै दामिनी, भींजै दास कबीर ।।26
सेष सबूरी बाहिरा, क्या हज काबैं जाइ।
जाकी दिल साबित नहीं, तिनकौं कहाँ खुदाइ॥27
कासी काठैं घर करैं, पीवै निर्मल नीर।
मुकुति नहीं हरि नाँव बिन, यौं कहे दास कबीर ।।28
मूरिष संग न कीजिए, लोहा जलि न तिराइ
कदली सीप भवंग मुषी, एक बूँद तिहुँ भाइ॥29॥
गावन ही मैं रोग है, रोवन ही मैं राग ।
इक बैरागी गृह करै, एक गृही बैराग ।।30
शब्दार्थ गावन गायन। रोज रोना। रोवन रोना, दुख। राग गाना, सुख। ग्रिही= गृहस्थ ।
व्याख्या गाना और रोना, सुख सुख और दुख एक ही तत्व के दो पहलू हैं। उसी प्रकार गृहस्थी और वैराग्य एक ही व्यक्ति के दो रूप हैं। एक व्यक्ति वैरागी होते हुए भी घर बसाये रहता है दूसरा व्यक्ति सब कुछ त्याग कर वैरागी चन जाता है। एक विरक्त हुआ व्यक्ति फिर से गृहस्थ हो जाता है दूसरा गृहस्थी त्यागकर वैराग्य धारण कर लेता है।
जाने से विशेष कबीर ने गृहस्थ और वैरागी का सूक्ष्म अन्तर बताते हुए कहा है कि गेरुआ कपड़ा पहन लेने और जंगल में बस वह मुक्त नहीं हुआ कोई वैरागी नहीं हो जाता अगर वासनाओं से है। दूसरी ओर एक व्यक्ति गृहस्थी में रहकर भी बीतरागी बन जाता है जैसे राजा जनक। मन के संयम असंयम पर ही गृहस्य और वैरागी होता है।
माटी कहै कुम्हार को,तूँ क्यों रौदे मोंहि ।
इक दिन ऐसा होयगा, मैं रौदूँगी तोहिं ।। 31
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
इक सिंघासन चढ़ि चले, इक बँधि जात जंजीर ।।32
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर।
आसा त्रिस्नाँ ना मुई, यों कहि गया कबीर॥33॥
आँधी आयी ज्ञान की , ढही भरम की भीति ।
माया टाटी उड़ि गयी, लागी नाम से प्रीति ।।34
जिनको साँई रंग दिया, कभी न होय कुरंग ।
दिन-दिन बानी आगरी, चढ़ै सवाया रंग ।।35
साँच कहूँ तो मारिहैं, झूठे जग पतियाय ।
ये जग काली कूकरी, जो छेड़ैं तो खाइ ।।36
जाति न पूँछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।। 37
कबीर दुविधा दूरि करि, एक अंग ह्नै लागि।
यहु सीतल वहु तपति है दोऊ कहिये आगि॥38॥
कबीर हरदी पीयरी, चूना ऊजल भाइ।
रामसनेही यूँ मिले, दुन्यूँ बरन गँवाइ॥39॥
बोलत ही पहिचानिएँ, साहु चोर को घाट ।
अंतर की करनी सबै, निकसै मुँह की बाट ।।40
जाकै मह माथा नहीं, नहीं रूपक रूप।
पुहुप बास थैं पतला ऐसा तत अनूप॥41॥
सतगुर ऐसा चाहिए, जैसा सिकलीगर होइ।
सबद मसकला फेरि करि, देह द्रपन करे सोइ॥42॥
ज्ञान रतन की कोठरी, चुप करि दीन्हों ताल ।
पारखि आगे खोलिए, कुंजी वचन रसाल ।।43
कबीर घास न नींदिये, जो पाऊँ तलि होइ।
उड़ि पड़ै जब आँखि में, खरा दुहेली होइ॥44॥
आहेड़ी दौ लाइया, मृग पुकारै रोइ।
जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ॥45॥
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चकई बिछुरी रैनि की, आइ मिलै परभाँति. जे नर बिछुरे राम सौं, ते दिन मिले न राति ...
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