4. सूरदास
1
अब हों नाच्यौ बहुत गोपाल।
काम क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ विषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निन्दा सब्द रसाल।
भरम भर्यौ मन भयौ पखावज, चलत कुसंगति चाल॥
तृसना नाद करति घट अन्तर, नानाविध दै ताल।
माया कौ कटि फैंटा बांध्यो, लोभ तिलक दियो भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई, जल थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अविद्या, दूरि करौ नंदलाल॥ 1
2
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥2
3
हरि किलकत जसुदा की कनियाँ ।
निरखि-निरखि मुँख कहत लाल सौं, मो निधनी के धनियाँ ।
अति कोमल तन चितौ श्याम कौ बार-बार पछितात ।
कैसे बच्यौं, जाँऊ बलि तेरी, तृनावर्त कै घात ।
ना जानैं धौं कौन पुन्य तैं, को करि लेत सहाइ ।
वैसी काम पूतना कीन्हौं, इहिं एसौं कियो आइ ।
माता दुखित जानि हरि बिहँसे, नान्हीं दँतुलि दिखाइ ।
सूरदास प्रभु माता चित तैं, दुख डार् यौं बिसराइ ।। 3
4
सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥ 4
5
हरि जू की सोभा कहाँ लौ कहौं बरनि ।
सकल सुख की सींव, कोटि-मनोज-सोभा हरनि ।
भुज भुजंग, सरोज नयननि, बदन बिधु, जित्यो लरनि ।
रहे बिबरनि, सलिल, नभ, उपमा अपर डुरि डरनि ।
मंजु मेचक मृदुल तनु अनुहरन भूषन भरनि ।
मनहुँ सुभग-सिंगार-सिसु तरू फर् यौ अद्भुत फरनि ।
लसत करि प्रतिबिम्ब मनि आँगन घुटुरुवन करनि ।
जलज संपुट सुभग छाँव, भर लेत उर जनु धरनि ।
पुन्यफल अनुभवति सुतहिं बिलोकि कै नन्दघरनि ।
सूर प्रभु की बसी उर किलकनि ललित लरखरनि ।
6
सिखवति चलन जसोदा मैया।
अरबरा कैं पानि गहावति डगमगा धरनी धरै पैया॥
कबहुंक सुन्दर बदन बिलोकति उर आनंद भरि लेति बलैया।
कबहुंक कुल-देवता मनावति चिर जीवहु मेरी कुंवर कन्हैया॥
कबहुंक बलकों टेरि बुलावति इहिं आंगर खेलौ दो भैया।
सूरदास स्वामी की लीला अति प्रताप बिलसत नंदरैया॥५॥6
7
हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥
बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत।
कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत॥
माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।
कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥
दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत॥7
8
मुरली तउँ गुपालहिं भावत ।
सुन री सखी जदपि नंदनंदहि, नाना भाँति नचावति ।
राखति एक पाँय ठाढ़ौ करि, अति अधिकार जनावति ।
कोमल अंग आप आज्ञा गुरु, कटि टेढ़ी ह्वै जावति ।
अति आधीन सुजान कनौड़े, गिरिधर नारि नवावति ।
आपुनि पौढ़ि अधर सेज्या पर, कर पल्लव सन पद पलुटावति ।
भृकुटी कुटिल फरक नासा पुट, हम पर कोप कुपावति ।
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, अधर सु सीस डुलावति ।।
भ्रमरगीत
गोकुल सबै गोपाल उदासी ।
जोग अंग साधत जो ऊधौ, ते सब बसत ईसपुर काशी ।
जद्यपि हरि हम तजि, अनाथ करि, तदपि रहति चरनिन-रस-रासी
अपनी सीतलता नहिँ छाँड़त, जद्यपि है ससि राहु गरासी ।
का अपराध जोग लिखि पठवत, प्रेम भजन तजि करत उदासी ।
सूरदास ऐसी हौं बिरहिन,माँगति मुक्त तजै गुनरासी ।।9
आयौ घोष बड़ौ ब्यौपारी ।
खेप लादि गुरु ज्ञान जोग की, ब्रज मैं आनि उतारी ॥
फाटक दै कै हाटक माँगत, भोरौ निपट सुधारी ।
धुरही तैं खौटौ खायौ है, लिये फिरत सिर भारी ॥
इनकैं कहे कौन डहकावे, ऐसी कौन अनारी ।
अपनौं दूध छाँड़ि को पीवै, खारे कूप कौ बारी ॥
ऊधौ जाहु सबारैं ह्याँ तै, बेगि गहरु जनि लावहु ।
मुख मागौ पैहौ सूरज प्रभु, साहुहिं आनि दिखावहु ॥10
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
यह ब्योपार तिहारो ऊधौ, ऐसोई फिरि जैहै॥
यह जापे लै आये हौ मधुकर, ताके उर न समैहै।
दाख छांडि कैं कटुक निबौरी को अपने मुख खैहै॥
मूरी के पातन के कैना को मुकताहल दैहै।
सूरदास, प्रभु गुनहिं छांड़िकै को निरगुन निरबैहै॥ 11
आए जोग सिखावन पाँड़े ।
परमारथी पुराननि लादे, ज्यौं बनजारे टाँड़े ॥
हमरे गति-पति कमल-नयन की, जोग सिखें ते राँड़े ।
कहौ मधुप कैसे समाहिंगे, एक म्यान दो खाँडे ॥
कहु षट्पद कैसें खैयतु है, हाथिनि कैं सँग गाँड़े ॥
काकी भूख गई बयारि भषि, बिना दूध घृत माँड़े ।
काहे कौं झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डाँड़े ॥
सूरदास तीनौ तहिं उपजत, धनिया, धान कुम्हाड़े ॥12
बिलग जनि मानौ ऊधौ प्यारे ।
वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे ॥
तुम कारे सुफलक सुत कारे, कारे कुटिल सँवारे ॥
कमलनैन की कौन चलावै, सबहिनि मैं मनियारे ॥
मानौ नील माट तैं काढ़े, जमुना आइ पखारे ।
तातैं स्याम भई कालिंदी, सूर स्याम गुन न्यारे ॥13
अपने स्वारथ के सब कोऊ ।
चुप करि रहौ मधुप रस-लंपट, तुम देखे अरु ओऊ ॥
जो कछु कह्यौ कह्यौ चाहत हौ, कहि निरवारौ सोऊ ।
अब मेरैं मन ऐसियै, षटपद, होनी होउ सु होऊ ॥
तब कत रास रच्यौ वृंदावन, जौ पै ज्ञान हुतोऊ ।
लीन्हे जोग फिरत जुवतिनि मैं, बड़े सुपत तुम दोऊ ॥
छुटि गयौ मान परेखौ रे अलि, हृदै हुतौ वह जोऊ ।
सूरदास प्रभु गोकुल बिसर्यौ, चित चिंतामनि खौऊ ॥14
हमारे हरि हारिल की लकरी.
मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ करि पकरी.
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि,कान्ह-कान्ह जकरी.
सुनत जोग लागत है ऐसो, ज्यौं करूई ककरी.
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए,देखी सुनी न करी.
यह तौ 'सूर' तिनहिं लै सौंपौ,जिनके मन चकरी.15
रहु रे मधुकर मधु मतवारे।
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरिप रहीं स्यामहि का पै लेहिं उधारै॥16
काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रूंथौ।।
कै तुम सिखि पठए हो कुब्जा, कहयो स्यामघनहूं धौं।
वेद-पुरान सुमृति सब ढूंढों, जुवतिनी जोग कहूँ धौं।।
ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गयौ लै, ब्याज निवैरत उधौ॥17
तौ हम मानैं बात तुम्हारी
अपनी ब्रह्म दिखावौं उधौ, मुकुट पीताम्बरधारी ।
भजिहैं तब ताकौ सब गोपी, सहि रहिहैं बरू गारी ।
भूत समान बतावत हमकौं, जारहूँ स्याम बिसारी ।
जे मुख सदा सुधा अँचवत है, ते बिष क्यों अधिकारी ।
सूरदास प्रभु एक अंग पर, रीझि रही ब्रजनारी ।।18
मुकुति आन मन्दे में मेली ।
समुझि सगुन ले चले, न उधौ, या सब तुम्हरे पूँजि अकेली ।
कै लै जाँहु अनत ही बेचन, कै लै जाँहु जहाँ बिष बेली ।।
याहि लागि को मरै हमारे, वृन्दावन पायन तर पेली
सीस धरे घर-घर कत डोलत, एक मते सब भई सहेली ।
सूर यहाँ गिरिधर न छबीलौ, जिनकी भुजा अंस गहि मेली ।।19
शब्दार्थ- मन्दे- सस्ता बाजार । मेली- उतारी । आनि- लाकर । तुम्हरे पूजि अकेली -यहीँ तुम्हारी अकेली पूँजी है । पायनतर- पैरों के नीचे । विषबेली- विष की लता अर्थात कुब्जा । पेली- कुचल दिया । एकमते- एकमत । अंश- कंधा।
ऊधौ जाँहु तुम्है हम जाने ।
स्याम तुम्हैं ह्यौं नहीं पठाये, तुम हौ बीच भुलाने ।
ब्रजवासिनि सौं जोग कहत हौ, बातहुँ कहत न जाने ।
बड़ लागै न बिबेक तुम्हारो, एसे नए अयाने ।
कहँ अबला कहँ दसा दिगम्बर, सम्मुख करौं पहिचाने।
साँच कहैं तुमको अपनी सौं,बूझति बाद निदाने ।
सूर स्याम जब तुम्हैं पठाए तब नैंकहुँ मुसुकाने ।20
ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाहीँ
हंससुता की सुंदर कगरी, अरू कुंजन की छाँही ।
वै सुरभी वै बच्छ, दोहनी खरिक दुहावन जाँही ।
ग्वाल बाल सब करत कुलाहल नाचत गहिँ बाँही ।
यह मथुरा कंचन की नगरी मनि मुक्ताहल जाँही ।
जबहिँ सुरति आवत वा सुख की जिय उमगत तनु नाँही ।
अनगन भाँति करी बहु लीला जसुदा नन्द निबाँही ।
सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै यह कहि कहि पछिताहीँ ।।21
शब्दार्थ- हंससुता- यमुना । कगरी- किनारा । सुरभि- गाएँ । खरिक- गोशाला (गायों के बाँधने का स्थान ) सुरति- स्मरण । जिय उमगत तन नाहीँ- हृदय की तरंगे उठने लगती हैं और शरीर की चेतना समाप्त हो जाती है ।अनगन- अगणित ।
22
अँखियाँ हरि दरसन की भूँखी ।
कैसे रहैं रूप रस राँची, ये बतियाँ सुनि रूखी ।
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब ये तौ नहिं झूखी ।
अब इन जोग सँदेसनि ऊधो, अति अकुलानी दूखी ।
बारक वह मुख फेरि दिखावहुँ दुहि पय पिवत पतूखी ।
सूर सिकत जनि नाव चलावहुँ, ये सरिता है सूखी ।।
शब्दार्थ- रूप रस राँची- रूप के रस में पगी हुयी । सूखी- संतप्त हुई । बारक-एक बार । पतूखी-पत्ते का दोना ।सिकत- सिक्ता. रेती । पय-दूध । सुकत- रेत, बालू । हठि- हठपूर्वक । गनत- गिनते ।
23.
ऊधौ भली भई ब्रज आए ।
बिधि कुलाल कीन्हे काँचे घट, ते तुम आनि पकाए ॥
रंग दीन्हौं हो कान्ह साँवरैं, अँग-अँग चित्र बनाए ।
यातैं गरे न नैन नेह तैं, अवधि अटा पर छाए ॥
ब्रज करि अँवा जोग ईंधन करि, सुरति आनि सुलगाए ।
फूँक उसास बिरह प्रजरनि सँग, ध्यान दरस सियराए ॥
भरे सँपूरन सकल प्रेम-जल, छुवन न काहू पाए ।
राज-काज तैं गए सूर प्रभु , नँद-नंदन कर लाए ॥23
शब्दार्थ- विधि - ब्रह्मा, । कुलाल- कुम्हार । काँचे- कच्चे । घट- घड़ा । अटा- अटारी । सुरति- स्मृति । पटजारनि- प्रज्जवलित करना । फिराए- घुमाना । छुवन-स्पर्श करना ।
24.
काहे को रोकत मारग सूधो।
सुनहु मधुप निरगुन कंटक तै, राजपंथ क्यौं रूंथौ।।
कै तुम सिखि पठए हो कुब्जा, कहयो स्यामघनहूं धौं।
वेद-पुरान सुमृति सब ढूंढों, जुवतिनी जोग कहूँ धौं।।
ताको कहां परैंखों की जे, जाने छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गयौ लै, ब्याज निवैरत उधौ॥24
शब्दार्थ-
25.
गोकुल सबै गोपाल उपासी ।
जोग अंग साधत जो ऊधौ, ते सब बसत ईसपुर काशी ।
जद्यपि हरि हम तजि, अनाथ करि, तदपि रहति चरनिन-रस-रासी
अपनी सीतलता नहिँ छाँड़त, जद्यपि है ससि राहु गरासी ।
का अपराध जोग लिखि पठवत, प्रेम भजन तजि करत उदासी ।
सूरदास ऐसी हौं बिरहिन,माँगति मुक्त तजै गुनरासी ।।
ऐते
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