5.
तुलसीदास
1.श्रीरामचितमानस-
परिचय
रामचरित राकेस कर
सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर
चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥३२(ख)॥
कीन्हि प्रस्न
जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब
मैं गाई। कथाप्रबंध बिचित्र बनाई॥
जेहि यह कथा सुनी
नहिं होई। जनि आचरजु करैं सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं
जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
रामकथा कै मिति जग
नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम
अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥
कलपभेद हरिचरित
सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर
आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥
शब्दार्थ- राकेश- चन्द्रमा । सरिस- समान
। कुमुद-कई, रक्तकमल । चकोर-तीतर जाति का एक
पक्षी जो चन्द्रमा का परम प्रेमी माना जाता है । मिति- समय की सीमा । जग-संसार ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत दोहा-चौपाई
हमारी पाठ्यपुस्तक ‘मंदाकिनी’ के श्रीरामचरितमानस-परिचय नामक पाठ से लिया गया है ।
इसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी हैं ।
प्रसंग- गोस्वामी जी श्रीराम जी
के गुणों का बखान करते हुए कहते हैं कि-
व्याख्या- राम का चरित्र
पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं परन्तु सज्जनरूपी
कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष हितकारी और लाभ प्रदान करने वाला है ।
विशेष- यह दोहा-चौपाई
श्रीरामचरितमानस के 'बालकाण्ड' से लिया गया है ।
2.कवितावली
कागर कीर ज्यों
भूषन-चीर सरीरु लस्यो तजि नीरु ज्यों काई।
मातु-पिता प्रिय
लोग सबै सनमानि सुभायँ सनेह सगाई॥
संग सुभामिनि, भाइ
भलो, दिन द्वै जनु औध हुते पहुनाई।
राजिवलोचन रामु
चले तजि बापको राजु बटाउ कीं नाईं॥
शब्दार्थ- कागर कीर ज्यों- तोते
के पंखों के समान।चीर- वस्त्र । नीरु-जल । बटाउ की नाई- पथिक के समान ।
सन्दर्भ-
प्रसंग-
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते
हैं कि जैसे कीर (तोता) अपने पंखों का त्याग कर देता है
वैसे ही भगवान श्रीराम ने अपने वस्त्र आभूषण का त्याग कर दिये । उनका शरीर वैसे ही
शोभित हो रहा है जैसे काई से रहित जल शोभायमान होता है । माता-पिता और प्रिय लोगों
के स्वभाव से ही उनके स्नेह और सम्बन्धानुसार सम्मानित कर कमलनयन भगवान राम साथ
में सुन्दर स्त्री और भले भाई को ले अपने पिता का राज्य त्याग कर इस तरह से वन की
ओर चल दिये जैसे अयोध्या में दो ही दिन की मेहमानी पर थे ।
जलको गए लक्खनु, हैं
लरिका परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े।
पोंछि पसेउ बयारि
करौं, अरु पाय पखारिहौं भूभुरि-डाढ़े॥
तुलसी रघुबीर
प्रियाश्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े।
जानकीं नाहको नेहु
लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े॥
शब्दार्थ- लरिका- बालक। घरीक- एक घड़ी । ठाढ़े- खड़े
होकर। पोंछि- पोंछकर । पसेउ- पसीने । कंटक काढ़े- काँटे
निकाले, पुलके- आनन्द ।
सन्दर्भ-
प्रसंग-
व्याख्या- श्री
जानकी जी कहती हैं कि- हे प्रियतम! लक्ष्मण जी बालक हैं, वे जल लाने गए हैं, सो कहीं छाँह में एक घड़ी खड़े
होकर उनकी प्रतीक्षा कीजिए । मैं आपके पसीने पोंछकर हवा करूँगी और गरम बालू से जले
हुए चरणों को धोऊँगी । प्रिया की थकावट को जानकर श्रीरामचन्द्र जी ने बड़ी देर तक
उनके पैरों के काँटे निकाले । जब जानकी जी ने अपने प्राणप्रिय के प्रेम को देखा तो
उनका शरीर आनन्द से रोमांचित हो गया और नेत्रों में आँसू भर आये ।
सीस जटा, उर-
बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी
सी भौहैं।
तून सरासन-बान
धरें तुलसी बन-मारगमें सुठि सोहैं॥
सादर बारहिं बार
सुभायँ चितै तुम्ह त्यों हमरो, मनु मोहैं।
पूँछत ग्रामबधू
सिय सों, कहौ, साँवरे-से सखि! रावरे को हैं॥
शब्दार्थ- विलोचन- आँखें । सरासन बान धरे- धनुष-बाण और
तरकश धारण किये । मारग- मार्ग, रास्ता ।
सन्दर्भ-
प्रसंग-
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते
हैं कि वन जाते समय ग्रामीण स्त्रियाँ श्री सीता जी से पूछती हैं कि जिनके सिर पर
जटाएँ हैं, वक्षस्थल और भुजाएँ विशाल हैं, जिनकी आँखे लाल व
भौंहे तिरक्षी हैं, दो धनुष-बाण और तरकश धारण किये हुए वन
मार्ग की शोभा बढ़ा रहे हैं अर्थात वन के मार्ग में भले जान पड़ते हैं । वह जो
बार-बार बड़े ही प्रेम स्निग्ध भाव से तुम्हारी तरफ देख रहे हैं, वे हम लोगों का भी मन मोहित कर लेते हैं, बताओ तो हे
सखि! ऐसे सुन्दर साँवरे रंग वाले तुम्हारे कौन हैं? तुम्हारा
उनसे क्या सम्बन्ध है?
सुनि सुंदर बैन
सुधारस-साने सयानी हैं जानकीं जानी भली।
तिरछे करि नैन, दै
सैन तिन्हैं, समुझाइ कछू मुसुकाइ चली॥
तुलसी तेहि औसर
सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलीं।
अनुराग-तड़ागमें
भानु उदैं बिगसी मनो मंजुल कंजकलीं ।।
शब्दार्थ- सुधारस- अमृत । बैन- वचन ।
सैन- संकेत से । तड़ाग- तालाब । भानुदय- सूर्य के उदय से । मंजुल कंजकली- नेत्र
रूपी कमलकली ।
सन्दर्भ-
प्रसंग- प्रस्तुत पद्य में गोस्वामी जी
ने नारी सुलभ लज्जा का चित्रण किया है, जिसे सीता जी ने अपने चरित्र द्वारा
प्रस्तुत किया है।
व्याख्या- गोस्वामी जी कहते हैं कि- गाँव
की स्त्रियों के अमृत से सने हुए सुन्दर वचनों को सुनकर जानकी जी जान गई कि ये सब
बड़ी चतुर हैं। अतः नेत्रों को तिरछा कर उन्हें संकेत से ही कुछ समझाकर मुस्कुराकर
चल दीं। भक्त तुलसीदास कहते हैं कि उस समय जितनी भी ग्रामीण स्त्रियाँ थी वे सभी
उन मूर्तियों का दर्शन कर लोचन लाभ उठाती हुई शोभायमान होने लगीं। वह शोभा ऐसी थी
मानो सूर्य के उदय से प्रेम रूपी तालाब में कमलों की मनोहर कलियाँ खिल गयी हैं।
अर्थात श्री रामचन्द्र रूपी सूर्य के उदय से प्रेमरूपी सरोवर में सखियों के नेत्र
कमलकली के समान विकसित हो गये।
5.
बालधी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो
लंक लीलिबेको काल रसना पसारी है।
कैधौं ब्योमबीथिका भरे हैं
भूरि धूमकेतु,
बीररस बीर तरवारि सो उघारी है॥
'तुलसी' सुरेस-चापु, कैधौं दामिनि-कलापु,
कैधौं चली मेरु तें कृसानु-सरि भारी है।
देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी
कहैं,
काननु उजार यो, अब नगरू प्रजारिहै ॥
शब्दार्थ- बालधी- पूँछ । बिकराल- भयंकर । लीलिबे- निगलने को
। व्योंमवीथिका- आकाशरूपी मार्ग । धूमकेतु- पुच्छल तारा । तरवारि- तलवार ।
सुरेस-चाप- इंद्रधनुष । दामिनी कलाप- बिजली का समूह । कृसानु-सरि- आग की नदी ।
जातुधान- राक्षस ।
सन्दर्भ-
प्रसंग- यहाँ कवि ने हनुमान जी
द्वारा जलाई जा रही लंका का और लंका निवासी राक्षस- राक्षसियों की व्याकुलता का
वर्णन किया है।
व्याख्या- तुलसीदास जी कहते हैं कि- हनुमान जी की विशाल पूँछ में भयंकर आग की लपटें उठ
रही थी। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो लंका को निगलने के लिए स्वयं मृत्यु
ने अपनी जिह्वा को फैला दिया हो अथवा जैसे आकाश-मार्ग में बहुत से पुच्छल तारे भरे
हुए हों अथवा ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि किसी वीर ने वीर रस से भरकर रक्तरंजित
तलवार ही निकाल ली हो। आग की लपटों से परिपूर्ण वह लाल- नीली पूँछ ऐसी लगती थी
जैसे इन्द्रधनुष ही चमक रहा हो, अथवा वह बिजली का कोई समूह हो अथवा किसी
ज्वालामुखी से भयंकर आग की नदी बह रही हो। इस प्रकार हनुमान जी की भयंकर पूँछ को
देख कर राक्षस-राक्षसी से व्याकुल होकर कह रहे थे कि इस बन्दर ने अभी तक तो अशोक
वाटिका को ही उजाड़ा था और अब नगर में भी आग लगा दी है।
गीतावली
1.
पालने रघुपति झुलावै |
लै लै नाम सप्रेम सरस स्वर कौसल्या कल कीरति गावै ||
केकिकण्ठ दुति स्यामबरन बपु, बाल-बिभूषन बिरचि बनाए |
अलकैं कुटिल, ललित लटकनभ्रू, नील नलिन दोउ नयन सुहाए ||
सिसु-सुभाय सोहत जब कर गहि बदन निकट पदपल्लव लाए |
मनहुँ सुभग जुग भुजग जलज भरि लेत सुधा ससि सों सचु पाए ||
उपर अनूप बिलोकि खेलौना किलकत पुनि-पुनि पानि पसारत |
मनहुँ उभय अंभोज अरुन सों बिधु-भय बिनय करत अति आरत ||
तुलसिदास बहु बास बिबस अलि गुञ्जत, सुछबि न जाति बखानी |
मनहुँ सकल श्रुति ऋचा मधुप ह्वै बिसद सुजस बरनत बर बानी ||
2.
जब दोउ दसरथ-कुँवर बिलोके |
जनक नगर नर-नारि मुदित मन निरखि नयन पल रोके ||
बय किसोर, घन-तड़ित-बरन तनु नखसिख अंग लोभारे |
दै चित, कै हित, लै सब छबि-बित बिधि निज हाथ सँवारे ||
सङ्कट नृपहि, सोच अति सीतहि, भूप सकुचि सिर नाए |
उठे राम रघुकुल-कुल-केहरि, गुर-अनुसासन पाए ||
कौतुक ही कोदण्ड खण्डि प्रभु, जय अरु जानकि पाई |
तुलसिदास कीरति रघुपतिकी मुनिन्ह तिहूँ पुर गाई ||
3.
लोने लाल लषन, सलोने राम, लोनी सिय,
चारु चित्रकूट बैठे सुरतरु-तर हैं |
गोरे-साँवरे सरीर पीत नीलनीरज-से
प्रेम-रुप-सुखमाके मनसिज-सर हैं ||
लोने नख-सिख, निरुपम, निरखन जोग,
बड़े उर कन्धर बिसाल भुज बर हैं |
लोने लोने लोचन, जटनिके मुकुट लोने,
लोने बदननि जीते कोटि सुधाकर हैं ||
लोने लोने धनुष, बिसिष कर-कमलनि,
लोने मुनिपट, कटि लोने सरघर हैं |
प्रिया प्रिय बन्धुको दिखावत बिटप, बेलि,
मञ्जु कुञ्ज, सिलातल, दल, फूल, फर हैं ||
ऋषिनके आश्रम सराहैं, मृग-नाम कहैं,
लागी मधु, सरित झरत निरझर हैं |
नाचत बरहि नीके, गावत मधुप-पिक,
बोलत बिहङ्ग, नभ-जल-थल-चर हैं ||
प्रभुहि बिलोकि मुनिगन पुलके कहत
भूरिभाग भये सब नीच नारि-नर हैं |
तुलसी सो सुख-लाहु लूटत किरात-कोल
जाको सिसकत सुर बिधि-हरि-हर हैं ||
4.
दूल्ह राम, सीय दुलही री।
घन-दामिन-बर बरन, हरन-मन सुन्दरता नख-शिख निबही री॥
ब्याह-विभूषन-बसन-बिभूषित, सखि-अवली लखि ठगि सी रही री॥
जीवन-जनम-लाहु लोचन फल है इतनोइ, लह्यो आजु सही री॥
सुखमा-सुरभि सिंगार-छीर दुहि, मयन अमिय मय कियो है दही री॥
मथि माखन सिय राम सँवारे, सकल भुवन छवि मनहुँ मही री॥
तुलसिदास जोरी देखत सुख सोभा, अतुल न जाति कही री॥
रूप रासि बिरची बिरंची मनो, सिला लवनि रति काम लही री॥
5.
सब दिन चित्रकूट नीको लागत |
बरषाऋतु प्रबेस बिसेष गिरि देखन मन अनुरागत ||
चहुँदिसि बन सम्पन्न, बिहँग-मृग बोलत सोभा पावत |
जनु सुनरेस देस-पुर प्रमुदित प्रजा सकल सुख छावत ||
सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु रँगमगे सृङ्गनि |
मनहु आदि अंभोज बिराजत सेवित सुर-मुनि-भृङ्गनि ||
सिखर परस घन-घटहि, मिलति बग-पाँति सो छबि कबि बरनी |
आदि बराह बिहरि बारिधि मनो उठ्यो है दसन धरि धरनी ||
जल जुत बिमल सिलनि झलकत नभ बन-प्रतिबिम्ब तरङ्ग |
मानहु जग-रचना बिचित्र बिलसति बिराट अँग अंग ||
मन्दाकिनिहि मिलत झरना झरि झरि भरि भरि जल आछे |
तुलसी सकल सुकृत-सुख लागे मानो राम-भगतिके पाछे ||
चित्रकूट पर्वत सभी दिन अत्यन्त अच्छा लगता है । वर्षा ऋतु के आने पर यह पर्वत विशेष रूप से अच्छा लगता है और देखते ही मन को अनुरागी बना देता है । इसके चारों ओर फल-फूल आदि से सम्पन्न वन हैं, जिसमें अनेकों प्रकार केपशु-पक्षी और मृगगण बोलते हुए इस प्रकार की शोभा पाते हैं मानों किसी अच्छे राज के देश और नगर में प्रजा आनन्दपूर्वक सब प्रकार के सुख भोग रहीं हो । काले- काले बादल इस पर्वत पर मृदु गंभीर घोष करते हुए पर्वत शिखरों गेरू आदि धातुओँ से रंगकर इस प्रकार प्रतीत होते हैं मानों देवता और मुनि रूपी भँवरों से सेवित आदि कमल सुशोभित हो रहा है जिससे ब्रह्मा की उत्पति हुई थी । जब बगुलों की पँक्ति पर्वत शिखरों को छूकर काली घटाओं से मिलती है तो उसकी शोभा का वर्णन ्कवि इस प्रकार करता है मानों आदि बाराह समुद्र में क्रीडा करके अपने दाँतो पर पृथ्वी को लिए हुए निकले हों जल से भरी हुयी निर्मल शिलाओं में आकाश और वन का प्रतिबिम्ब ऐसा झलकता है जैसे विराट ईश्वर के अंग-प्रत्यंग में सारे संसार की विचित्र रचना ही प्रतिबिम्बित हुयी हो । गोस्वामी जी कहते है कि स्वच्छ जल से भरे हुए झरने झर-झर करके मंदाकिनी नदी में मिल जाते है जैसे सारे पुण्य और सुख एकमात्र रामभक्ति के ही पीछे लगे हुए हैं ।
6.
राघौ! एक बार फिरि आवौ |
ए बर बाजि बिलोकि आपने, बहुरो बनहि सिधावौ ||
जे पय प्याइ, पोखि कर-पङ्कज, बार-बार चुचुकारे |
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाड़िले! ते अब निपट बिसारे ||
भरत सौगुनी सार करत हैं, अति प्रिय जानि तिहारे |
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे, मनहु कमल हिम-मारे ||
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन, कहियो मातु-सँदेसो |
तुलसी मोहि और सबहिनतें इन्हको बड़ो अँदेसो ||
7.
अतिहि अधिक दरसनकी आरति |
राम-बियोग असोक-बिटपतर सीय निमेष कलपसम टारति ||
बार-बार बर बारिजलोचन भरि भरि बरत बारि उर ढारति |
मनहु बिरहके सद्य घाय हिये लखि तकि-तकि धरि धीरज तारति ||
तुलसिदास जद्यपि निसिबासर छिन-छिन प्रभुमूरतिहि निहारति |
मिटति न दुसह ताप तौ तनकी, यह बिचारि अंतर गति हारति ||
8.
तुम्हरे बिरह भई गति जौन |
चित दै सुनहु, राम करुनानिधि! जानौं कछु, पै सकौं कहि हौं न ||
लोचन-नीर कृपिनके धन ज्यों रहत निरन्तर लोचनन कोन |
"हा धुनि-खगी लाज-पिञ्जरी महँ राखि हिये बड़े बधिक हठि मौन ||
जेहि बाटिका बसति, तहँ खग-मृग तजि-तजि भजे पुरातन भौन |
स्वास-समीर भेण्ट भै बोरेहु, तेहि मग पगु न धर्यो तिहुँ पौन ||
तुलसिदास प्रभु! दसा सीयकी मुख करि कहत होति अति गौन |
दीजै दरस, दूरि कीजै दुख, हौ तुम्ह आरत-आरति दौन ||
9.
कपिके सुनि कल कोमल बैन |
प्रेमपुलकि सब गात सिथिल भए, भरे सलिल सरसीरुह-नैन ||
सिय-बियोग-सागर नागर-मनु बूड़न लग्यो सहित चित-चैन |
लही नाव पवनज-प्रसन्नता, बरबस तहाँ गह्यो गुन-मैन ||
सकत न बूझि कुसल, बूझे बिन गिरा बिपुल ब्याकुल उर-ऐन |
ज्यों कुलीन सुचि सुमति बियोगिनि सनमुख सहै बिरह-सर पैन ||
धरि-धरि धीर बीर कोसलपति किए जतन, सके उत्तरु दै न |
तुलसिदास प्रभु सखा अनुजसों सैनहिं कह्यौ चलहु सजन सैन ||
10
जौ हौं अब अनुसासन पावौं |
तौ चन्द्रमहि निचोरि चैल-ज्यों, आनि सुधा सिर नावौं ||
कै पाताल दलौं ब्यालावलि अमृत-कुण्ड महि लावौं |
भेदि भुवन, करि भानु बाहिरो तुरत राहु दै तावौं ||
बिबुध-बैद बरबस आनौं धरि, तौ प्रभु-अनुग कहावौं |
पटकौं मीच नीच मूषक-ज्यौं, सबहिको पापु बहावौं ||
तुम्हरिहि कृपा, प्रताप तिहारेहि नेकु बिलम्ब न लावौं |
दीजै सोइ आयसु तुलसी-प्रभु, जेहि तुम्हरे मन भावौं ||
दोहावली
राम
नाम अवलंब बिनु परमारथ की आस ।
बरषत
बारिद बूँद गहि चाहत चढ़न अकास ॥1
अर्थ-जो रामनाम का सहारा लिए बिना ही
परमार्थ की मोक्ष की आशा करता है वह तो मानो बरसते हुए बादल की बूँद को पकड़कर
आकाश में चढ़ना चाहता है ।
तुलसी
हठि हठि कहत नित चित सुनि हित करि मानि ।
लाभ
राम सुमिरन बड़ो बड़ी बिसारें हानि ॥2
तुलसीदास जी नित्य निरन्तर बड़े
आग्रह के साथ कहते हैं कि हे चित्त-तू मेरी बात सुनकर उसे हितकारी समझ । राम का
स्मरण ही बड़ा भारी लाभ है और उसे भुलाने में ही सबसे बड़ी हानि है ।
बिगरी
जनम अनेक की सुधरै अबहीं आजु ।
होहि
राम को नाम जपु तुलसी तजि कुसमाजु ॥3
तुलसीदास जी कहते हैं कि तू कुसंगति
के और चित्त के सारे बुरे विचारों को त्यागकर राम का बन जा और उसके नाम का जप कर ।
ऐसा करने से तेरी अनेंकों जन्म की बिगड़ी हुई स्थिति आज अभी सुधर सकती है ।
ज्यों
जग बैरी मीन को आपु सहित बिनु बारि ।
त्यों
तुलसी रघुबीर बिनु गति आपनी बिचारि ॥4
जैसे जल को छोड़कर सारा जगत मछली का
वैरी है यहाँ तक कि वह आप भी वैरी का कार्य करती है ।
राम
दूरि माया बढ़ति घटति जानि मन माँह ।
भूरि
होति रबि दूरि लखि सिर पर पगतर छाँह ॥5
जैसे सूर्य को दूर देखकर छाया लम्बी
हो जाती है जौर सूर्य जब सिर पर आ जाता है तो वह ठीक पैरों के नीचे आ जाती है उसी
प्रकार श्रीराम जी से दूर रहने पर माया बढ़ती है और जब वह श्रीराम जी को मन में
विराजित जानतीहै तब घट जाती है ।
राम
कामतरु परिहरत सेवत कलि तरु ठूँठ ।
स्वारथ
परमारथ चहत सकल मनोरथ झूँठ ॥6
जो मनुष्य श्रीराम रूपी कल्पवृक्ष का
सेवन छोड़कर कलयुग के विषय-वासना रूपी सूखे ठूँठ वृक्ष से फल चाहते हैं उनका सभी
मनोरथ व्यर्थ जाता है अर्थात वह अपना स्वार्थ तथा परमार्थ कुछ भी सिद्ध नहीं कर
पाते ।
तुलसी
सुखी जो राम सों दुखी सो निज करतूति ।
करम
बचन मन ठीक जेहि तेहि न सकै कलि धूति ॥7
तुलसीदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य
अपने को श्रीराम की कृपा से सुखी तथा अपने क्रिया-कलाप से अपने को दुखी मानता है और
अपने कर्म, वचन तथा मन को श्रीराम जी की सेवा में लगाता है उसे कलयुग कभी भी धोखा
नहीं दे सकता ।
बारि
मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।
बिनु
हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥8
जल के मथने से भले ही उसमें से घी
निकल आये तथा बालू के पेरने से चाहे उसमें तेल निकल आये किन्तु बिना हरि के भजन के
संसार भवसागर को पार नहीं किया जा सकता यह सिद्धान्त अटल है ।
बिनु
गुरु होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु ।
गावहिं
बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु ॥9
क्या बिना गुरू के ग्यान हो सकता है ? बिना वैराग्य के ज्ञान पाना असम्भव है, सभी
वेद-पुराण कहते हैं कि बिना गुरु तथा वैराग्य के ज्ञान पाना असम्भव है तथा हरि के
भक्ति के बिना सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
तुलसी
जाने सुनि समुझि कृपासिंधु रघुराज ।
महँगे
मनि कंचन किए सौंधे जग जल नाज ॥10
तुलसीदास जी कहते हैं कि हमने सन्त
महात्माओं से सुनकर और स्वयं के आत्मज्ञान से भली-भाँति यह जान लिया है कि भगवान
श्रीराम कृपा के सागर हैं जिन्होनें मणियों और सोने को मँहगा कर दिया तथा जीवन की
आवश्यकता के लिए समस्त जल और अन्न को सस्ता एवं सुलभ बना दिया ।
सूधे
मन सूधे बचन सूधी सब करतूति ।
तुलसी
सूधी सकल बिधि रघुबर प्रेम प्रसूति ॥11
जिसका
मन,वाणी और समस्त क्रिया-कलाप सरल है वह भगवान के प्रति प्रेम को बड़ी सरलता से उत्पन्न
कर लेता है ।
उपल
बरसि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर ।
चितव
कि चातक मेघ तजि कबहुँ दूसरी ओर ॥12
बादल बहुत तेज गर्जना करता है, शीतल
जल बरसाता है,ओले भी बरसाता है और बिजली भी गिराता है इसके बाद भी उससे प्रेम करने
वाला पपीहा क्या बादल को छोड़कर कभी किसी दूसरी ओर ताकता है अर्थात नहीं देखता ।
नहिं
जाचत नहिं संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ ।
ऐसे
मानी मागनेहि को बारिद बिन देइ ॥13
पपीहा न तो मुँह से माँगता है न ही
जल का संग्रह करता है और न ही सिर झुकाकर वह ग्रहण करता है ऐसे स्वाभिमानी चातक को
बादल बिना माँगे ही सबकुछ दे देता है ।
कहिअ
कठिन कृत कोमलहुँ हित हठि होइ सहाइ ।
पलक
पानि पर ओड़िअत समुझि कुघाइ सुघाइ ॥14
सच्चा हितैषी उसी को कहना चाहिए जो
सभी परिस्थिति में चाहे वह सामान्य अथवा कठिन दोनों में अपने से सहायता करने के
लिए तैयार हो जाता है । जैसे आँख की पुतली आँख पर जरा सा भी आघात पड़ने पर उसे
छिपा लेती है और सिर अथवा पीठ पर के आघात को सहने के लिए स्वयमेव हाथ तैयार हो
जाते हैं ।
हृदयँ
कपट बर बेष धरि बचन कहहिं गढ़ि छोलि ।
अब
के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिए मन खोलि ॥15
आजकल के लोग मोर के समान है जो बाहर
से देखने में अत्यन्त सुन्दर लगता है किन्तु अन्दर से वह इतना कठोर है कि बड़े से
बड़े जहरीले साँपों को खा जाता है उसी तरह पुरुष भी बाहर से देखने में बहुत सुन्दर
दिखाई पड़ता है और चिकनी चुप़ड़ी बातें करता है । किन्तु हृदय में कपट धारण करता
है ।
सुजन
सुतरु बन ऊख सम खल टंकिका रुखान ।
परहित
अनहित लागि सब साँसति सहर समान ॥16
सज्जन पुरुष कपास और रूई की तरह होते
हैं तथा दुर्जन लोग टाँकी और रुखानी की तरह होते हैं । दोनों समान रूप से कष्ट सहते हैं किन्तु एक
पराए हित के लिए तथा दूसरा दूसरों के अहित के लिए दुख सहता है
ग्रह
भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होहिं
कुबस्तु सुबस्तु जल लखहिं सुलच्छन लोग ॥17
ग्रह,औषधि,पानी,वायु तथा वस्त्र
इत्यादि को यदि संगति अच्छी मिल जाती है तो अच्छा हो जाता है और बुरी संगति में वह
बुरी हो जाती है । इस रहस्य को कोई गुणवान व्यक्ति भी जानता है ।
आखर
जोरि बिचार करु सुमति अंक लिखि लेखु ।
जोग
कुजोग सुजोग मय जग गति समुझि बिसेषु ॥18
तुलसीदास जी कहते हैं कि सद्संगति से
संसार अच्छा हो जाता है और कुसंगति से समस्त संसार बुरा हो जाता है यह बात अक्षरों
को जोड़कर विचार कर लो अथवा अंको को लिखकर समझ लो जैसे- धर्म के पहले अ जोड़ने पर
वह अधर्म हो जाएगा, और अधर्म के आगे हीन जोड़ने पर अधर्महीन बन जाएगा इसी तरह एक
के पहले शून्य लगाने पर उसका कोई मूल्य नहीं है तथा एक के बाद शून्य लगाने पर उसका
मूल्य दसगुना हो जाएगा ।
प्रभु
समीप गत सुजन जन होत सुखद सुबिचार ।
लवन
जलधि जीवन जलद बरषत सुधा सुबारि ॥19
प्रभु (राम) की शरण में रहने वाले
सज्जन पुरुष सबको सुख प्रदान करने वाले होते हैं यह बात अच्छी तरह से विचार लो । बादल भले ही समुद्र का खारा जल पीता
है किन्तु वह सबको खारा जल न देकर सुन्दर अमृत के समान जल बरसाता है ।
नीच
निरावहिं निरस तरु तुलसी सींचहिं ऊख ।
पोषत
पयद समान सब बिष पियूष के रूख ॥20
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि
नीच (मूर्ख) पुरुष रसहीन (सूखे) वृक्षों को तो खेत से उखाड़ फेकते हैं और रस वाले
वृक्ष (ऊख) को सींचते हैं, परन्तु बादल सभी प्रकार के वृक्षों ( विषयुक्त,
रसयुक्त) का समान रूप से पोषण करता है ।
देस
काल करता करम बचन बिचार बिहीन ।
ते
सुरतरु तर दारिदी सुरसरि तीर मलीन ॥21
जिनकों अपने देशकाल, समय, कार्य,
कर्म और अपने वचन का विचार नहीं रहता अर्थात जो इस बात का विचार नहीं करते कि उसे
किस स्थान पर कैसा कर्म करना चाहिए, जिनकों अपने का समझ नहीं है वह व्यक्ति कल्पवृक्ष
के नीचे रहने पर भी दरिद्र है तथा गंगा जी के घाट पर बसकर भी पापी है ।
जो
परि पायँ मनाइए तासों रूठि बिचारि ।
तुलसी
तहाँ न जीतिऐ जहँ जीतेहूँ हारि ॥22
जिन
(माता-पिता, गुरुजन, अपने से बड़े आदि) का प्रतिदिन पैर छूते हो उनसे बहुत ही सोंच
विचार कर रूठना चाहिए क्योंकि तुलसी दास जी कहते हैं कि जहाँ जीतकर भी आप नहीं जीत
सकते वहाँ आपको जीतना भी नहीं चाहिए अर्थआत हार जाना चाहिए ।
विनय
पत्रिका
1.
एसी
मूढता या मन की।
परिहरि
रामभगति-सुरसरिता, आस करत ओसकन की।
धूम
समूह निरखि-चातक ज्यौं, तृषित जानि मति धन की।
नहिं
तहं सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचन
की।
ज्यौं
गज काँच बिलोकि सेन जड़ छांह आपने तन की।
टूटत
अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आनन की।
कहं
लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।
तुलसिदास
प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की। 1
मूढ़ता-
मूर्ख । परिहरि- छोड़कर। ओसकन- ओस की बूँदे । गच- भूमि,दीवार । सेन- बाज।
जड़-मूर्ख ।छति-हानि। आनन- मुख,चोंच ।
2.
जाउँ
कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको
नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे
॥ १ ॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे ।
खग,मृग,ब्याध,पषान,बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥ २ ॥
देव,दनुज,मुनि,नाग,मनुज सब, माया-बिबस बिचारे ।
तिनके
हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥ ३ ॥
तजि-छोड़कर
। काको-किसका । बराई-चुन-चुन कर बिरदहित-यश की रक्षा के लिए ।
3.
हरि!
तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।
साधन-नाम
बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों॥१॥
कोटिहुँ
मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि
नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार॥२॥
बिषय-बारि
मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते
सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक॥३॥
कृपा
डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारो।
एहि
बिधि बेगि हरहु मेरो दुख कौतुक राम तिहारो॥४॥
हैं
स्त्रुति बिदित उपाय सकल सुर,
केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसीदास
यहि जीव मोह रजु, जोइ बाँध्यो सोइ छोरै॥५॥3
अनुग्रह-कृपा
। बिबुध-देवता । जनमत-जन्म लेता हूँ ।जोनि-योनियाँ ।बंसी- मछलियों को फँसाने का
काँटा । स्तुति विदित- वेद सम्मत ।
4.
अब
लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा
भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
पायो
नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।
स्याम
रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
परबस
जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन
मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति पदकमल बसैहौं॥
4
अबलौं-
अबतक । नसानी- करनी बिगाड़ी । सिरानी- शान्त हो गयी बीत गयी । डसै हौं-
बिछाना,बिछाऊँगा । खसैहौं-गिराऊँगा। पनकरि-प्रतिज्ञा करके । बसैहौं- निवास करूँगा
।
5.
ऐसो
को उदार जग माहीं ।
बिनु
सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ।।
जो
गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी ।
सो
गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ।।
जो
सम्पति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं ।
सो
संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं
।।
तुलसीदास
सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तौ
भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि
तेरो ।।5
उदार-
दयावान । द्रवै-कृपा करना। सरिस-समान । अरपि-अर्पण करना। जतन-प्रयत्न करना ।
6.
कबहुंक
हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री
रघुनाथ-कृपाल-कृपा तैं, संत सुभाव गहौंगो।
जथालाभ
संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
परहित
निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो।
परुष
बचन अति दुसह स्रवन, सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत
मान सम सीतल मन, पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो।
परिहरि
देहजनित चिंता दुख सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास
प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरिभक्ति लहौंगो।6
कबहुँक-
कभी । रहनि- जीवन । गहौंगो- प्राप्त करूँगा । काहूँसो- किसी से । निरन्तर- लगातार
। निबहौंगो-निभाऊँगा। दहौंगो- जलूँगा ।
7.
जाके
प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये
ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो
पिता प्रहलाद, बिभीषण बंधु,
भरत महतारी।
बलि
गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि,
भये मुद-मंगलकारी॥
नाते
नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन
कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी
सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासो
होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥7
छाड़िए-
छोड़ देना या त्याग देना । बैरी- शत्रु । महतारी- माता ।
8.
मन
पछितैहै अवसर बीते।
दुर्लभ
देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते॥१॥
सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।
हम
हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥२॥
सुत-बनितादि
जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते।
अंतहु
तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते॥३॥
अब
नाथहिं अनुरागु जागु जड़, त्यागु दुरासा जीते।
बुझै
न काम-अगिनि तुलसी कहुँ, बिषयभोग बहु घी ते॥४॥ 8
देह-
शरीर । दसबदन-रावण । काल बलीते-बलवान काल से । रीते-खाली । सुत-पुत्र ।
वनितादि-स्त्री । नेह- प्रेम । पामर-अधम, नीच । जागु जड़-नीद से जाग मूर्ख ।
9.
लाभ
कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन
सपनेहु कबहुँक घटत न काज पराये॥१॥
जो
सुख सुरपुर नरक गेह बन आवत बिनहि बुलाये।
तेहि
सुख कहँ बहु जतन करत मन समुझत नहिं समुझाये॥२॥
पर-दारा
परद्रोह, मोह-बस किये मूढ़ मन
भाये।
गरभबास
दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये॥३॥
भय,निद्रा, मैथुन, अहार सबके समान जग जाये।
सुर
दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गँवाये॥४॥
गई
न निज-पर बुद्धि सुद्ध ह्वै रहे राम-लय लाये।
तुलसीदास
यह अवसर बीते का पुनिके पछिताये॥५॥ 9
मानुष-मनुष्य
। काज-काम। गेह-घर । परदारा- परायी स्त्री ।गरभबास- गर्भ में । दुखराशि-महान दुख ।
सुर-देवताओं । अभिमान- अहंकार घमण्ड। गँवाए- खो दिया । निज-पर बुद्धि- तेरे-मेरे
की बुद्धि । पुनि- फिर ।
10
ऐसेहि
जनम-समूह सिराने ।
प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥
१ ॥
जे
जड जीव कुटिल,कायर,खल, केवल कलिमल-साने ।
सूखत
बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने ॥ २ ॥
सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने ।
सदा
मलीन पंथके जल ज्यो, कबहुँ न हृदय थिराने
॥ ३ ॥
यह
दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने ।
तुलसी
चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥10
बिराने-
दूसरे को। खल- दुष्ट। न पाय पिराने- पैर नहीं दुखे। थिराने- स्वच्छ, स्थिर ।
अमित-असीमित,अगणित। जतन-उपाय ।
विनय पत्रिका
1.
एसी मूढता या मन की।
परिहरि रामभगति-सुरसरिता, आस करत ओसकन की।
धूम समूह निरखि-चातक ज्यौं, तृषित जानि मति धन की।
नहिं तहं सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचन की।
ज्यौं गज काँच बिलोकि सेन जड़ छांह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आनन की।
कहं लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की। 1
2.
जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे ।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे ॥ १ ॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे । खग,मृग,ब्याध,पषान,बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे ॥ २ ॥ देव,दनुज,मुनि,नाग,मनुज सब, माया-बिबस बिचारे ।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे ॥ ३ ॥
3.
हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों।
साधन-नाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों॥१॥
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार॥२॥
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक॥३॥
कृपा डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु चारो।
एहि बिधि बेगि हरहु मेरो दुख कौतुक राम तिहारो॥४॥
हैं स्त्रुति बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसीदास यहि जीव मोह रजु, जोइ बाँध्यो सोइ छोरै॥५॥3
4.
अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥
पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुपहिं प्रन करि, तुलसी रघुपति पदकमल बसैहौं॥ 4
5.
ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं ।।
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी ।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी ।।
जो सम्पति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं ।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं ।।
तुलसीदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो ।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो ।।5
6.
कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्री रघुनाथ-कृपाल-कृपा तैं, संत सुभाव गहौंगो।
जथालाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
परहित निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो।
परुष बचन अति दुसह स्रवन, सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान सम सीतल मन, पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो।
परिहरि देहजनित चिंता दुख सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरिभक्ति लहौंगो।6
7.
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषण बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥
नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासो होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥7
8.
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते॥१॥
सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।
हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥२॥
सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते।
अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते॥३॥
अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़, त्यागु दुरासा जीते।
बुझै न काम-अगिनि तुलसी कहुँ, बिषयभोग बहु घी ते॥४॥ 8
9.
लाभ कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन सपनेहु कबहुँक घटत न काज पराये॥१॥
जो सुख सुरपुर नरक गेह बन आवत बिनहि बुलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन समुझत नहिं समुझाये॥२॥
पर-दारा परद्रोह, मोह-बस किये मूढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये॥३॥
भय,निद्रा, मैथुन, अहार सबके समान जग जाये।
सुर दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गँवाये॥४॥
गई न निज-पर बुद्धि सुद्ध ह्वै रहे राम-लय लाये।
तुलसीदास यह अवसर बीते का पुनिके पछिताये॥५॥ 9
10
ऐसेहि जनम-समूह सिराने ।
प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने ॥ १ ॥
जे जड जीव कुटिल,कायर,खल, केवल कलिमल\-साने ।
सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने ॥ २ ॥
सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने ।
सदा मलीन पंथके जल ज्यो, कबहुँ न हृदय थिराने ॥ ३ ॥
यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने ।
तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने ॥ ४ ॥10
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