सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल'
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राम की शक्तिपूजा
रवि हुआ अस्तज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर
वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील
नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह
राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह
,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण
,
लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान
,
राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर
,
उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर
,
अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव
,
विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव
,
रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल
,
मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल
,
वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध
,
गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध
,
उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर
,
जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।

लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल
,
बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न
लख निज - पति - चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।



19
प्रशमित हैं वातावरणनमित - मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण
,
श्लथ धनु-गुण है
कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर
बाहुओं परवक्ष परविपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर
,सानु पर पर्वत केमन्थर
सुग्रीव
विभीषणजाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल - विशेष के
अंगदहनुमान
नल नील गवाक्ष
, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए
फेर वानर दल आश्रय स्थल।

बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर
निर्मल जल
ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान
वन्दना ईश की करने को
लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर
,
पीछे लक्ष्मण
सामने विभीषणभल्लधीर,
सुग्रीव
प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,
यूथपति अन्य जो
यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा
उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान
स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल
,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न
केवल जलती मशाल।


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स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय
रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय
,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त
,
एक भी
अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार
,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक
याद आया उपवन
विदेह का
-प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण
,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन
,-
काँपते हुए किसलय
,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय
,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय
,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन
क्षण-भर भूला मनलहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त
,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर
,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर
,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत
,-
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत
,
देखते राम
जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का
सुबाहुबिराधशिरस्त्रयदूषणखर;

फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को
,

ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन
,
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।

बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 
'अस्ति-नास्तिके एक रूपगुण-गण-अनिन्द्य;
साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद
,
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण
कपिवर गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप
विश्राम - धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल
,
देखा कपि ने
चमके नभ में ज्यों तारादल;
ये नहीं चरण राम के
बने श्यामा के शुभ,-
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ
;
टूटा वह तार ध्यान का
स्थिर मन हुआ विकल,
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि
देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल-लोचन
पर सजल नयन,

व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार
,
उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार
,
हो श्वसित पवन - उनचास
पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल
,
शत घूर्णावर्त
, तरंग - भंगउठते पहाड़,
जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़
,

तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
 दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष
,
शत-वायु-वेग-बल
डूबा अतल में देश - भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को
महाकाश
पहुँचा
एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।

रावण - महिमा श्यामा विभावरीअन्धकार,
यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार
;
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित
,
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित
,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल
,
लख महानाश शिव अचल
हुए क्षण-भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले- "सम्बरो
देविनिज तेजनहीं वानर
यह
-नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गतमहावीर,
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर
,
चिर - ब्रह्मचर्य - रत
ये एकादश रूद्र धन्य,
मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम
अनन्य,
लीलासहचर
दिव्यभावधरइन पर प्रहार
करने पर होगी देवि
तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध
,
झुक जायेगा कपि
निश्चय होगा दूर रोध।"

कह हुए मौन शिव
पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।
बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें
रहे बालक केवल,


23
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।
यह महाकाश
है जहाँ वास शिव का निर्मल,
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ
सोचो मन में,
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने
?
तुम सेवक हो
छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य
?"
कपि हुए नम्र
क्षण में माता छवि हुई लीन,
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण
,
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर
,
रघुवीर
तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही वक्ष
रणकुशल हस्तबल वही अमित,
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण
,
हैं वही भल्लपति
वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर
,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर
,
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण
,
तुम फेर रहे हो पीठ
हो रहा हो जब जय रण।

कितना श्रम हुआ व्यर्थआया जब मिलनसमय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण
रावण लम्पटखल कल्म्ष गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,
24
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर
,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक
मैं बना किन्तु लंकापति
धिक राघवधिक्-धिक्?

सब सभा रही निस्तब्ध
राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन
,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव
न कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति
,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-"मित्रवर
विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण
,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण
,
अन्याय जिधर
हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल
हो गये नयन
कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ
चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद
मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान
समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव
हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण
अधर्मरत भीअपनामैं हुआ अपर,
यह रहा
शक्ति का खेल समर, शंकरशंकर!

करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित
,
जो तेजः पुंजसृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।

शत-शुद्धि-बोध
सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक
,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित
,
वे शर हो गये आज रण में
श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक
,
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार
,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध
युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों
,
पश्चात्
देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु
मुक्त ज्यों बँधा मैंहुआ त्रस्त!"
कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर
,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर
,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण
,
हे पुरुषसिंह
तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर
,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त
,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना
करो पूजन।
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो
रघुनन्दन!

तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,
मध्य भाग में अंगद
दक्षिण-श्वेत सहायक।
मैं
भल्ल सैन्यहैं वाम पार्श्व में हनुमान,
नल
नील और छोटे कपिगणउनके प्रधान।
सुग्रीव
विभीषणअन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह
भल्लनाथ!"
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,

देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये
रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
"मातः
दशभुजाविश्वज्योतिमैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित
;
जनरंजन-चरण-कमल-तल
धन्य सिंह गर्जित!
यह
यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह
इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।"
कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री
सेनापतिवीरासन
बैठे उमड़ते हुए
राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र
,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र
,
"देखो
बन्धुवरसामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर
,


27
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह
नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त
और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर
,
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व
,
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए
,
"चाहिए हमें एक सौ आठ
कपिइन्दीवर,
कम से कम
अधिक और होंअधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह
उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो
, लाओ वे कमललौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ
, दूरत्वस्थान,
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय
,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध
,
सुन पड़ता सिंहनाद
,-रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन
स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा
दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम
,
बीता वह दिवस
हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।


28
क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस
,
कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर
,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन
,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण
,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर
,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम
,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर
,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण
देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर
मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार
,
द्विप्रहर
रात्रिसाकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप
ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ
हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे
खोले पलक विमल।
देखा
वह रिक्त स्थानयह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि
भर गये नयनद्वय,
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध
,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका
,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका
,

जो नहीं जानता दैन्यनहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय
,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।
"यह है उपाय"
, कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी
यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त
लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर
दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय
,
काँपा ब्रह्माण्ड
हुआ देवी का त्वरित उदय-
"साधुसाधुसाधक धीरधर्म-धन धन्य राम!"
कह
लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने
सामने श्री दुर्गाभास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर
रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप
हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख
लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी
सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश
कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।

"होगी जय
होगी जयहे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।





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