वक्रोक्ति सिद्धान्त

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल'
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वक्रोक्ति सिद्धान्त — परिभाषा, प्रवर्तक, तत्त्व एवं उदाहरण
वक्रोक्ति सिद्धान्त — परिभाषा, प्रवर्तक, तत्त्व एवं उदाहरण

वक्रोक्ति सिद्धान्त — परिभाषा, प्रवर्तक, तत्त्व एवं उदाहरण

वक्रोक्ति सिद्धान्त भारतीय काव्यशास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण काव्य-सिद्धान्त है जिसकी स्थापना आचार्य कुन्तक ने की थी। “वक्रोक्ति” शब्द का अर्थ है — ‘वक्र’ अर्थात् ‘विलक्षण’ या ‘अभिनव’, और ‘उक्ति’ अर्थात् ‘वाणी’। अतः वक्रोक्ति का अर्थ हुआ — ‘विलक्षण वाणी’ या ‘अभिनव शैली’।

महत्वपूर्ण बिन्दु-
  • वक्रोक्ति शब्द का सर्वप्रथम बार प्रयोग आचार्य भामह ने किया तथा इसे अलंकारत्व के मूल हेतु के रूप में स्वीकार किया।
  • आचार्य दण्डी ने स्वाभावोक्ति एवं वक्रोक्ति को वाङ्गमय का आधार बताया।
  • आचार्य भोज ने समस्त वाङ्गमय को स्वभावोक्ति,वक्रोक्ति तथा रसोक्ति के रूप में विभक्त किया।
  • आचार्य वामन ने सामान्य लक्षणा वक्रोक्तिः कहकर अलंकार से वक्रोक्ति के सम्बन्ध को इंगित किया।
  • आचार्य अभिनव गुप्त आलंकारिक चमत्कृति के आधार रूप अतिशयता को वक्रोक्ति के नाम से प्रतिष्ठित किया।
  • आचार्य कुन्तक ने इसे वक्रोक्ति सिद्धान्त के रूप में मान्यता दी।
  • आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को अपूर्व अलंकार तथा विचित्रा अभिधा भी कहा।

वक्रोक्ति सिद्धान्त का प्रवर्तक

इस सिद्धान्त के अनुसार काव्य की आत्मा ‘वक्रता’ में निहित है। कवि की अभिव्यक्ति जितनी विशिष्ट और नवीन होती है, वही उसकी काव्यात्मकता का मूल तत्त्व है। ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में होने वाले कश्मीरी विद्वान् कुन्तक के काल तक प्रायः सभी प्रमुख काव्य सिद्धान्त उद्भावित हो चुके थे। कुन्तक का वैशिष्ट्य यह है कि व्याख्या काल के अन्तर्गत परिगणित होने वाले आचार्यों की श्रेणी में होते हुए भी ये रचनात्मक प्रवृत्ति के साथ हैं। कुन्तक ने आनन्दवर्द्धन द्वारा प्रतिपादित शब्द-शक्तियों के प्रपंच को अस्वीकार कर "वक्रोक्ति" को "विचित्रा अभिधा" कहा और यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि अभिधा यदि प्रसिद्ध अर्थ का कथन करती है तो वक्रोक्ति अतिरिक्त अर्थ (व्यंग्यार्थ) का निर्देश करती है। इन्होंने प्रारम्भिक आलंकारिक भामह की वक्रोक्ति की धारणा को स्वीकार कर उसे पुनः विकसित किया और उसमें सर्वथा नवीन अर्थ भरते हुए उसे "अपूर्व अलंकार" कहा। इस प्रकार कुन्तक का योगदान अलंकारवादी आचार्यों की वक्रोक्ति की अवधारणा को पुन: व्यापक लेकिन सर्वथा नवीन सन्दर्भ में प्रतिपादित करने एवं ध्वनि की तुलना में वक्रोक्ति को काव्य का सर्वस्व या "जीवित्" सिद्ध करने के प्रयास में हैं। कुन्तक अलंकार और अलंकार्य में भेद करते हुए कहते हैं कि वस्तु के स्वभाव कथन में अलंकृति नहीं, क्योंकि यदि वस्तु के स्वभाव में अलंकृति है तो हम अलंकृत किसे करेंगे-फलतः स्वभावोक्ति में वे अलंकार नहीं मानते। लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं कि वे वस्तु के स्वभाव को अलंकृत करने की पूरी संभावना का निषेध करते हैं। वे इसे वाक्यवक्रता के अन्तर्गत स्थान देते हैं जिसमें किसी वस्तु का स्वभाव ही काव्य के वस्तु (थीम) का आकार ले लेता है और उसे ही भाव एवं प्रेम के समुचित विकास के माध्यम से आकर्षक बनाया जाता है। वस्तुतः कुन्तक का उद्देश्य था काव्य के विशिष्ट तत्त्व के रूप में 'वक्रोक्ति' की स्थापना करना जो काव्य को असामान्य सौन्दर्य प्रदान करती है। 'वक्रोक्ति' की व्याख्या करते हए वे कहते हैं कि शास्त्र या व्यवहार में अपने अभिप्राय की सिद्धि के लिये प्राय: सामान्य अर्थ को। लक्षित करने वाले शब्दों का प्रयोग होता है, लेकिन काव्य का उद्देश्य मात्र सूचना देना न होकर श्रोताओं के हृदय में अलौकिक आनन्द का उन्मीलन कराना होता है। इसीलिये इसमें शास्त्रादि। के मान्य प्रयोगों से दूर हटकर विचित्रता सम्पन्न शब्दों का प्रयोग होता है। परम्परागत परिभाषा में शब्द और अर्थ के सहित भाव को काव्य कहते हैं। कुन्तक के अनुसार, शब्दार्थ का यह सम्बन्ध वक्रोक्तिमूलक है। शब्द और अर्थ दोनों के मंजुल और सरल समन्वय को ये काव्य मानते हैं और शब्दार्थ को भूषित करने वाले तत्त्व को वक्रोक्ति की संज्ञा देते हैं। उनके अनसार, शब्दार्थ के अभिन्नाभाव से सिद्ध वक्रता ही आनन्द दे सकती का वक्रोक्ति का लक्षण देते हुए कुन्तक कहते हैं- उभावेतावलंकार्यो तयोः पुनरलंकृतिः । वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगी-भणितिरुच्यते ॥-व.जी. १२० शब्द और अर्थ काव्य शरीर होने के कारण अलंकार्य है और ऐसे अलंकार्य का एक ही अलंकार है-वक्रोक्ति । वक्रोक्ति-वैदग्ध्यभंगी भणिति है । कवि-कर्म की कुशलता का नाम है वैदग्ध्य और भंगी का अर्थ है-विच्छित्ति, चमत्कार, चारुता । भणिति से तात्पर्य है-कथन। प्रकार। इस प्रकार वक्रोक्ति कवि कर्म कौशल से उत्पन्न होने वाले चमत्कार पर आश्रित कथन। प्रकार है। कुन्तक का सर्वाधिक आग्रह है कवि-कर्म कौशल पर जिसे वे अन्यत्र "कविव्यापार" के नाम से अभिहित करते हैं। काव्य के सम्बन्ध में कुन्तक का मत है- शब्दार्थो सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि।। बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाहलादकारिणि॥-व०जी० १/१७ । कवि के वक्र व्यापार से सुशोभित तथा काव्य-मर्मज्ञ को आह्लादित करने वाले, बन्ध में व्यवस्थित शब्द और अर्थ का मंजुल, सरस समन्वय ही काव्य है। कुन्तक "कवि व्यापार" को वक्रोक्ति का स्रोत मानते हैं जो कवि-शक्ति पर अवलम्बित है। वे प्रतिभा को एक विशिष्ट कवि-शक्ति मानते हैं जो पूर्व तथा वर्तमान जन्म के संस्कारों के परिपाक से प्रौढ़ होती है। संस्कारों में परिपक्वता व्युत्पत्ति और अभ्यास से आती है। इस प्रकार व्युत्पत्ति और अभ्यास से परिपक्व हुई कवि की प्रतिभा ही कवि व्यापार के मूल में है। जो काव्य में वक्रता का सम्पादन करती है। कन्तक वक्रोक्ति के मूल में "अतिशय" को मानते हैं। वे काव्य में वाच्य, वाचक तथा वक्रोक्ति तीनों में अतिशयता को स्वीकार करते हैं, लेकिन इस अतिशयता से उद्दण्डता या उच्छंखलता की अभिव्यक्ति न हो इसके लिये वे "तद्विदाहलादकारिता" को काव्य-सौन्दर्य के मानदण्ड के रूप में स्थान देते हैं। काव्य की वक्रता तभी स्पृहणीय होगी जब वह सहदय को आह्लादित करे। यहाँ पर कुन्तक की इस स्थापना में आनन्दवर्द्धन और अभिनवगुप्त की अनुगूंज मिलती है जिन्होंने सहृदय की प्रतिभा को ध्वनन व्यापार का प्राण कहा है। वक्रोक्ति को कन्तक ने "अपूर्व अलंकार" कहा। यह उस काव्य तत्त्व का सूचक है जो सर्वत्र अलंकरण सक्षम है। वक्रोक्ति को व्यापक परिप्रेक्ष्य में ग्रहण करते हुए उनकी मान्यता है। कि काव्य का यही एकमात्र अलंकार है और शेष सभी अलंकार इसी के व्यापक क्षेत्र में समाहित हैं। कन्तक की मौलिकता इस बात में है कि इन्होंने अलंकार की निरन्तर बढ़ती हुई संख्या को स्थिर करने का मार्ग दिखाया और वक्रोक्ति के अनेक भेद प्रभेद करके काव्य के।अन्य तत्त्वों को वक्रोक्ति के कलेवर में सन्निविष्ट कर लिया। कुन्तक को न केवल भामह द्वारा परिकल्पित "वक्रोक्ति" की व्यापक अवधारणा को पुनः काव्यशास्त्रीय जगत् में अवतरित करने का गौरव प्राप्त है वरन् उनकी वास्तविक प्रतिभा तो इसे एक स्वतन्त्र काव्य सिद्धान्त का रूप देने में निहित है। कुन्तक के काल तक सभी प्रमुख काव्य सिद्धान्त अपना स्वरूप प्राप्त कर चके थे अत: ये अपने वक्रोक्ति सिद्धान्त को अधिक व्यवस्थित और समृद्ध कर सके । कुन्तक ने "रीति" तत्त्व पर भामह से अधिक बल दिया और "रीति" के स्थान पर 'मार्ग' शब्द का प्रयोग करते हुए इसे कवि स्वभाव से सम्बद्ध किया। इनके अनुसार, मार्ग का वर्गीकरण कवि विशेष की शक्ति,व्युत्पत्ति और अभ्यास के भेद से करना चाहिए। इन्होंने तीन मार्गों का उल्लेख किया है-सकमार, विचित्र और मध्यम मार्ग। सकुमार मार्ग रससिद्ध कालिदास और वाल्मीकि की शैली है, विचित्र मार्ग अलंकार से भरी बाणभट्ट एवं राजशेखर की शैली है और मध्यम मार्ग में दोनों मार्गों की विशिष्टता मिलती है। कन्तक द्वारा प्रतिपादित सुकमार और विचित्र मार्ग का अन्तर यह है कि पहले में वस्तु के स्वभाव को प्राथमिकता दी जाती है और इस बीच जो अलंकरण का समावेश होता है वह सायास नहीं होता, जबकि विचित्र मार्ग में अलंकरण की प्रधानता और काव्यात्मक प्रयास होता है। सकमार मार्ग में कवि की स्वभाविक शक्ति बिना व्यवधान के क्षेत्र पाती है जिसका परिणाम होता है एक प्रकार की उदात्त अभिव्यक्ति जबकि विचित्र मार्ग में कला मुख्यत: अलंकृत होती है और इसके द्वारा भणिति एक प्रकार का कृत्रिम सौन्दर्य प्राप्त करती है। प्रतीयमानता या ध्वनि तत्त्व दोनों में होता है लेकिन प्रथम में रस स्वभाव चित्रण का अंग होता है जबकि द्वितीय में उसमें निहित रस के अनुसार अलंकृति की जाती है। कुन्तक के अनुसार,विचित्र मार्ग अपेक्षाकृत दुष्कर है और यह अधिक कौशल एवं परिपक्वता की अपेक्षा रखता। कुन्तक के पूर्व काव्य सौन्दर्य की गवेषणा रचना पक्ष से होती रही रचनाकार पक्ष से नहीं। ये प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने काव्य-रचना में कवि के स्वभाव एवं प्रतिभा को मुख्य स्थान दिया। कुन्तक की गुण कल्पना भी मौलिक है। इन्होंने सर्वप्रथम गुणों को सामान्य और विशिष्ट दो वर्गों में विभाजित किया पुनः सामान्य के दो-(१) औचित्य और (२) सौभाग्य तथा विशिष्ट के (१) माधुर्य, (२) प्रसाद, (३) लावण्य और (४) आभिजात्य चार भेद किये। उनके अनुसार सामान्य गणों का सम्बन्ध प्रत्येक मार्ग से होता है और विशिष्ट गुणों का सम्बन्ध भिन्न-भिन्न मार्गों से भिन्न-भिन्न रूप में होता है। कुन्तक विचित्र मार्ग को सुकुमार की अपेक्षा अधिक दुष्कर, चमत्कारिक एवं अनुकरणीय मानते हैं इससे यह धोतित होता है कि ये भाव एवं रस की अपेक्षा वक्रोक्ति वैचित्र्य को प्रधानता देते हैं। सुकुमार मार्ग में वस्तु के स्वभाव को प्रधानता दी जाती है जिसमें रस स्वभाव चित्रण का अंग होता है, जबकि विचित्र मार्ग में अलंकृति की जाती है, उसमें निहित रस के अनुसार। कुन्तक रस की महत्ता स्वीकार करते, लेकिन इसका चित्रण केवल रचना में विशेष प्रकार के वक्रत्व के अनुभव के लिये स्वीकार करते हैं। कुन्तक अभिधावादी आचार्य हैं, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि ये व्यंग्यार्थ को महत्व नहीं देते। इन्होंने अभिधा का क्षेत्र इतना व्यापक माना कि लक्षणा और व्यंजना दोनों का अन्तर्भाव इसमें हो गया। "वाचक" की कल्पना करते हुए ये कहते हैं "वाचक शब्द वही है

इस सिद्धान्त के प्रवर्तक कुण्डक हैं जिन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति “वक्रोक्तिजीवितम्” में इसे प्रतिपादित किया। उन्होंने कहा —

“वक्रोक्तिरिव वाक्येषु भाति काव्यस्य जीविता।”

अर्थात् — वक्रोक्ति ही काव्य का जीवन है। कुण्डक ने रस, ध्वनि और रीति आदि सिद्धान्तों की भाँति वक्रता को भी काव्य की आत्मा के रूप में प्रस्तुत किया।

वक्रोक्ति के भेद एवं तत्त्व

कुण्डक ने वक्रोक्ति को छह भेदों में बाँटा है जो काव्य की विभिन्न अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं —

  • वर्णविन्यास वक्रता — शब्दों के संयोजन में विशेषता।
  • पदपरिणाम वक्रता — शब्दों के रूप-परिवर्तन में नवीनता।
  • पदपद्धति वक्रता — पद-क्रम या वाक्य-विन्यास की विशेषता।
  • वाक्य वक्रता — वाक्य की रचना में विशिष्टता।
  • प्रकरण वक्रता — प्रसंग और कथावस्तु में नयापन।
  • प्रबन्ध वक्रता — सम्पूर्ण रचना में मौलिकता।

इन सबका मूल तत्त्व है — ‘काव्य में नवीनता, सौन्दर्य और अभिव्यक्ति की चमत्कारिता।’

वक्रोक्ति सिद्धान्त का महत्व

  • यह कवि की अभिव्यक्तिगत प्रतिभा पर बल देता है।
  • काव्य में भाषिक सौन्दर्य और चमत्कार को केन्द्र में रखता है।
  • शब्द और अर्थ के सामान्य प्रयोग से अलग विशिष्ट प्रयोग पर आधारित है।
  • यह सिद्धान्त काव्य में रचनात्मकता और मौलिकता का स्रोत है।

वक्रोक्ति के उदाहरण

१. “श्यामलम् कोमलम् मधुरम् मनोहरम्।”
यहाँ शब्द-संयोजन और लय का वक्र प्रयोग सौन्दर्य उत्पन्न करता है।

२. तुलसीदास ने लिखा —

“सियाराममय सब जग जानी।”

यहाँ भाव और शब्द के सामंजस्य से वक्रता का अद्भुत सौन्दर्य झलकता है।


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